03 अप्रैल 2010
अपने मोटापे को रोकें
मोटापे के संदर्भ में कुछ ध्यान रखने योग्य बातें निम्न हैं :-
नियमित व्यायाम, खेलकूद, तेज चाल से घूमना, शरीर के आकार व वजन को संतुलित रखता है। खेलकूद व व्यायाम का पर्याय शारीरिक श्रम है। घरेलू कार्य- पोंछा लगाना, सफाई करना, कपड़े धोना आदि से पर्याप्त श्रम हो जाता है और चर्बी नहीं चढ़ने पाती।
व्यापार, दफ्तर अथवा घरेलू कार्यों से निपटने के बाद बिस्तर से न चिपकें। हालाँकि सोना, आराम करना अच्छा लगता है। लेकिन कुछ दिनों बाद ही इसके दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं। अपने खाली समय में बुनाई, कढ़ाई, पेंटिंग, लेखन या अन्य रचनात्मक कार्य करें। इससे रचनात्मकता में वृद्धि के साथ लोगों में मोटापा भी नहीं बढ़ेगा।
कई लोगों की आदत दिनभर कुछ न कुछ खाने की होती है। फुर्सत में बैठे हैं तो खाना, टी.वी. देखते देखते खाना। कुछ व्यक्ति दूसरों का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने अथवा अपनी कुंठा को दूर करने के लिए भी कुछ न कुछ खाते रहते हैं। वजह चाहे जो कुछ हो, दिनभर खाने से चर्बी तो बढ़ती ही है, चयापचय की क्रिया भी शिथिल होती है।
नजदीक का फासला पैदल ही तय करें। चंद कदमों के लिए वाहन का प्रयोग न करें। पैदल चलने से व्यायाम तो होगा ही कभी पैदल चलने का मौका आने पर दिक्कत महसूस नहीं होगी।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 10:07:00 pm 0 comments
आसान उपाय एक बार आजमाएँ
* सर्दियों में त्वचा रूखी होने की वजह से पैरों में बिवाइयाँ पड़ जाती हैं, इनसे बचने के लिए सरसों के गरम तेल से सिकाई करना चाहिए।
* दिल के मरीजों को भोजन में सोयाबीन का तेल प्रयोग करना चाहिए, क्योंकि यह कोलेस्ट्रॉल से मुक्त होता है।
* कब्ज दूर करने के लिए सब्जियों में लहसुन डलाकर पकाएँ, हर रोज लहसुन का प्रयोग करने से कब्ज नहीं रहता।
* पूरे शरीर में दर्द होने पर सोडाबाईकार्बोनेट व कच्ची फिटकरी दोनों को समान मात्रा में 1-1 ग्राम पीसकर इसे गरम पानी के साथ लेने से काफी आराम होता है।
* गैस होने पर पिसी सौंठ में स्वाद के अनुसार नमक मिलाकर गर्म पानी से यह सौंठ लेने से फायदा होता है।
* नींद न आने की बीमारी में ज्यादा मात्रा में दही खाना या एक गिलास पानी में 2 छोटे चम्मच शहद मिलाकर पीना लाभप्रद होता है।
* जख्मों पर पड़े कीड़ों का नाश करने के लिए हींग पावडर बुरक दें।
* दाढ़ दर्द के लिए हींग रूई के फाहे में लपेटकर दर्द की जगह रखें।
* शीत ज्वर में ककड़ी खाकर छाछ सेवन करें। शराब की बेहोशी में ककड़ी सेवन कराएँ।
* अरहर के पत्तों का रस पिलाने से अफीम का नशा कम हो जाता है।
* आधी छटाँक अरहर दाल पानी में उबालकर उसका पानी पिलाने से भाँग का नशा कम हो जाता है।
* बिना दूध व शकर की अदरक वाली चाय पीने से भी पेट दर्द ठीक होता है।
* अजवाइन को कुछ देर चबाने के बाद एक कप गर्म पानी पी लेने से पेट दर्द से छुटकारा मिल जाता है।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 09:59:00 pm 0 comments
क्या करें जब नाक से खून बहे
नकसीर के घरेलू इलाज
2. रोग की दशा में नाक में अनार के फूल का रस, आम की गुठली का रस, प्याज का रस डालने से भी रोग में फायदा पहुँचता है।
3. रोगी को आराम से लिटाने के पश्चात् उसे पीली गीली मिट्टी सूँघने को दें। ऐसा करने से नकसीर आनी बंद हो जाती है।
4. थोड़े से पानी में फिटकरी का पाउडर घोलकर नाक में टपकाने से रोग में फायदा होता है।
5. अंगूर के रस की पाँच बूँदें नाक में टपकाने से नकसीर रोग में फायदा होता है।
6. गर्मियों में अगर नकसीर फूटती है तो संभव होने पर सिर को मुंडवा कर उस पर गाय के घी की मालिश करनी चाहिए।
7. माथे पर लाल या पीला चंदन, मुल्तानी मिट्टी का लेप लगाने से गर्मी से फूटने वाली नकसीर ठीक होती है।
8. पुराने जुकाम या नजले की वजह से अगर नकसीर फूटती है तो सबसे पहले इनका उपचार करना चाहिए।
9. घिसे हुए लाल चंदन में मिश्री मिलाकर पीने से भी रोग में फायदा होता है।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 09:47:00 pm 0 comments
गर्भवती महिला के लिए घरेलू नुस्खे
गर्भवती महिला को अपने गर्भ की सुरक्षा के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए। यदि आपका गर्भ सुरक्षित है, तब भी आप यहाँ दिए गए प्रयोग कर लाभ उठा सकती हैं।
प्रथम मास में गर्भिणी स्त्री को मिश्री मिला दूध दोनों समय अवश्य पीना चाहिए।
दूसरे मास में शतावरी का चूर्ण 10 ग्राम मात्रा में फांककर ऊपर से कुनकुना गर्म मीठा दूध पीना चाहिए।
तीसरे मास में ठंडे दूध में 1 चम्मच घी तथा तीन चम्मच शहद डालकर पीना चाहिए। यह उपाय आठवें माह तक करें। घी व शहद समान मात्रा में नहीं लेना चाहिए,क्योंकि यह जहरीला हो सकता है।
पूरे चौथे मास में दूध में मक्खन मिलाकर सेवन करें।
पाँचवें मास में फिर दूध में घी लें।
छठे तथा सातवें मास में फिर शतावरी चूर्ण डालकर दूध का सेवन करें।
आठवें मास में दलिया बनाकर, दूध डालकर सेवन करना चाहिए।
नौवें मास में शतावरी साधित तेल 50 ग्राम लेकर रात को एनिमा हर तीसरे दिन लेना चाहिए।
तीसरे मास से लेकर आठवें मास तक दोनों समय एक बड़ा चम्मच सोमघृत दूध में मिलाकर सेवन करना चाहिए।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 09:37:00 pm 0 comments
गर्मियों के घरेलू नुस्खे
* गर्मी में जब नाक से खून आने लगे तो रोगी को कुर्सी पर बिठाकर उसका सिर पीछे कर दें और हाथ ऊपर। रोगी को मुँह से साँस लेने को कहें। कपूर को घी में मिलाकर रोगी के कपाल पर लगाएँ। खून आना बंद होने पर सुगंधित इत्र सुंघाएँ।
* घमौरियों में सरसों के तेल में बराबर का पानी मिलाकर फेंट लें व घमौरियों पर लगाएँ, शीघ्र आराम मिलेगा।
* गर्मियों में अंगूर का सेवन लाभदायी होता है। इससे शरीर में तरावट रहती है।
* तेज गरमी से सिर दर्द होने पर गुनगुने पानी में अदरक व नीबू का रस व थोड़ा सा नमक मिलाकर पीने से आराम मिलता है।
* जोड़ों के दर्द में एक गिलास गर्म पानी में नीबू निचोड़कर दिन में 8 से 10 बार पिएँ ।
* जोड़ों पर नीम के तेल की हल्की मालिश करने पर आराम मिलता है।
* लौकी का गूदा तलवों पर मलने से उनकी जलन शांत होती है।
* शरीर में किसी भी भाग या हाथ-पैर में जलन होने पर तरबूज के छिलके के सफेद भाग में कपूर और चंदन मिलकर लेप करने से जलन शांत होती है।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 09:29:00 pm 0 comments
गर्मी में सताए झाइयाँ व झुर्रियाँ
आजमाएँ झुर्रियों के सफल उपचार
चेहरे की त्वचा पर झाइयाँ पड़ जाएँ तो चेहरा कुम्हला जाता है तथा त्वचा रूखी, सूखी और खुश्क हो जाती है। झुर्रियों से त्वचा में सिकुड़न पड़ जाती है तथा आँखों के नीचे काले घेरे बनने की समस्या भी हो जाती है, जिससे अच्छा खासा चेहरा भी खराब नजर आता है।
उपचार का तरीका
* सर्वप्रथम तो खट्टे, नमकीन, तीखे, उष्ण, दाहकारक, भारी, देर से हजम होने वाले तथा पित्त को कुपित करने वाले, मिर्च-मसालेदार पदार्थों का सेवन बंद कर दें।
* पानी भरपूर पिएँ इससे आपका खून साफ रहेगा, खून खराब रहने पर ही इस प्रकार की बीमारियाँ होती हैं।
* जायफल को पानी या दूध में घिसकर झाइयों पर लगाएँ।
* हल्दी चूर्ण, बसेन तथा मुलतानी मिट्टी समान भाग मिलाकर जल में घोलकर पेस्ट बना लें तथा इस पेस्ट का झाइयों पर लेप करें। आधे घंटे बाद कुनकुने पानी से धो डालें।
* घृतकुमारी यानी ग्वारपाठा का गूदा गाय के दूध में मिलाकर झाइयों पर लेप करें। लेप लगाने के बाद आधा घंटे लगा रहने दें। इसके बाद कुनकुने पानी से साफ कर दें। इसी तरह चंदनादि लेप का प्रयोग भी किया जा सकता है।
* सुबह शौच के बाद खाली पेट एक ताजी मूली और उसके कोमल पत्ते चबाएँ। थोड़ी सी मूली पीसकर चेहरे पर मलें। यह दोनों प्रयोग साथ-साथ एक माह तक करें व फर्क देखें।
* अदरक को पीसकर झाइयों पर लेप करें व एक-दो घंटे रहने दें। स्नान करते समय इसे हल्के हाथ से निकालते जाएँ, पश्चात नारियल का तेल लगा लें। कुछ दिन ऐसा करने से झाइयाँ दूर हो जाती हैं।
* प्याज के बीज पीसकर शहद के साथ मिलाकर चेहरे पर लगाकर धीरे-धीरे मलें। 2-3 दिन यह क्रिया दोहराते रहें, इससे झाइयाँ दूर हो जाएँगी और त्वचा की कांति लौट आएगी।
* 15 ग्राम हल्दी चूर्ण को बरगद या आक (आँकड़ा) या पीपल के दूध में मिलाकर गूँथ लें। रात को सोते समय चेहरे पर इसका लेप करें तथा सुबह चेहरा धो लें। कुछ दिनों तक ऐसा करने से झाइयाँ दूर हो जाती हैं।
नोट : एक बार में किसी भी एक नुस्खे का प्रयोग करें, सारे नुस्खे एक साथ न आजमाएँ।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 09:21:00 pm 0 comments
घरेलू उपाय : अवश्य आजमाएँ
* बैंगन के भरते में शहद मिलाकर खाने से अनिद्रा रोग का नाश होता है। ऐसा शाम को भोजन में भरता बनाते समय करें।
* संतरे के रस में थोड़ा सा शहद मिलाकर दिन में तीन बार एक-एक कप पीने से गर्भवती की दस्त की शिकायत दूर हो जाती है।
* गले में खराश होने पर सुबह-सुबह सौंफ चबाने से बंद गला खुल जाता है।
* नीबू को काटकर उसकी एक फाँक में काला नमक और दूसरे में काली मिर्च का चूर्ण भरकर आग पर गर्म करके चूसना चाहिए। इससे मंदाग्नि की शिकायत दूर हो जाती है।
* रात को मेथी के दाने पानी में भिगोकर रख दीजिए। सुबह उठकर दातुन कर वह पानी पीकर मेथी के दाने धीरे-धीरे चबा लीजिए डायबिटीज धीरे-धीरे ठीक हो जाएगा।
* नासूर हो जाने पर यह जल्दी ठीक नहीं होता। यदि लापरवाही बरती गई तो यह और खतरनाक हो जाता है। पंसारी की दुकान से कमेला पावडर (एक तरह का लाल पावडर) लाएँ व इसे नासूर पर बुरक दें, इससे पुराने से पुराना नासूर भी ठीक हो जाता है।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 09:19:00 pm 0 comments
आजमाइए, लाभ उठाइए
जामुन की गुठली को पानी में घिसकर चेहरे पर लगाने से मुँहासे दूर होते हैं।
दही में कुछ बूँदें शहद की मिलाकर उसे चेहरे पर लेप करना चाहिए। इससे कुछ ही दिनों में मुँहासे दूर हो जाते हैं।
तुलसी व पुदीने की पत्तियों को बराबर मात्रा में लेकर पीस लें तथा थोड़ा-सा नींबू का रस मिलाकर चेहरे पर लगाने से भी मुँहासों से निजात मिलती है।
नीम के पेड़ की छाल को घिसकर मुँहासों पर लगाने से भी मुँहासे घटते हैं।
जायफल में गाय का दूध मिलाकर मुँहासों पर लेप करना चाहिए।
हल्दी, बेसन का उबटन बनाकर चेहरे पर लगाने से भी मुँहासे दूर होते हैं।
नीम की पत्तियों के चूर्ण में मुलतानी मिट्टी और गुलाबजल मिलाकर पेस्ट बना लें व इसे चेहरे पर लगाएँ।
नीम की जड़ को पीसकर मुँहासों पर लगाने से भी वे ठीक हो जाते हैं।
काली मिट्टी को घिसकर मुँहासों पर लगाने से भी वे नष्ट हो जाते हैं।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 09:12:00 pm 0 comments
घरेलू नुस्खे आजमाकर देखिए
आजमाइए, लाभ उठाइए
* तुतलापन दूर करने के लिए रात को सोने से पाँच मिनट पूर्व दो ग्राम भुनी फिटकरी मुँह में रखें।
* बच्चों का पेट दर्द होने पर अदरक का रस, पाँच ग्राम तुलसी पत्र घोटकर, औटाकर बच्चों को तीन बार पिलाएँ।
* बच्चों के बलवर्धन के लिए तुलसी के चार पत्ते पीसकर 50 ग्राम पानी में मिलाएँ व सुबह पिलाएँ।
* आमाशय का दर्द तुलसी पत्र को चाय की तरह औटाकर सुबह-सुबह लेना लाभदायक है।
* सीने में जलन हो तो पावभर ठंडे जल में नीबू निचोड़कर सेवन करें।
* शराब ज्यादा पी ली हो तो छह माशा फिटकरी को पानी/दूध में मिलाकर पिला दें या दो सेबों का रस पिला दें।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 09:10:00 pm 0 comments
चावल : सेहत का रखवाला
चावल के असरकारी घरेलू नुस्खे
यदि रात्रि के भोजन में रोटी कम खाएँ और चावल प्रतिदिन खाएँ तो यह हलका भोजन आपका स्वास्थ्य ठीक रखेगा। ताजा पका हुआ भात खाना पथ्य है, यह मंदाग्नि नाशक, सुपाच्य, शरीर में खून बढ़ाने वाला, शीघ्र पचने वाला, अतिसार व पेचिश में पथ्य भोजन है।
तीन साल पुराना चावल काफी स्वादिष्ट व ओजवर्धक होता है। चावल को मांड सहित खाना चाहिए। मांड अलग कर देने से चावल के प्रोटीन, खनिज, विटामिन्स निकल जाते हैं और यह बेकार भोजन कहलाता है।
मांड यानी चावल पकाते समय बचा हुआ गाढ़ा सफेद पानी होता है। इसमें प्रोटीन, विटामिन्स व खनिज होते हैं जो स्वास्थ्य के लिए लाभदायक होते हैं। जिनका पेट कमजोर हो यानी जो आसानी से भोजन न पचा पाते हों, उन्हें चावल में दूध मिलाकर 20 मिनट तक ढँककर रख दें, फिर खिलाएँ तो आराम होगा।
चावल के औषधीय उपयोग भी हैं, कई रोगों में यह लाभ करता है। सीने में या पेट में जलन, सूजाक, चेचक, मसूरिका, मूत्रविकार में नीबू के रस व नमक रहित चावल का मांड या कांजी सेवन करने से लाभ होता है।
इसी प्रकार चावल, दाल (खासकर मूँग की), नमक, मिर्च, हींग, अदरक, मसाले मिलाकर बनाई गई खिचड़ी में घी मिलाकर सेवन करने से शरीर को बल मिलता है, बुद्धि विकास होता है व पाचन ठीक रहता है।
अतिसार में चावल का आटा लेई की भांति पकाकर उसमें गाय का दूध मिलाकर रोगी को सेवन कराएँ।
* पेट साफ न हो तो भात में दूध व शकर मिलाकर सेवन करने से दस्त के साथ पेट साफ हो जाता है। इसी के विपरीत भात को दही के साथ मिलाकर खाने से यदि दस्त लगे हों तो बंद हो जाते हैं।
* यदि भांग का नशा ज्यादा हो गया हो तो चावल धोकर निकाले पानी में खाने का सोडा दो चुटकी व शकर मिलाकर पिलाने से नशा उतर जाता है। यही पेय मूत्र विकार में भी काम आता है।
* सूर्योदय से पूर्व चावल की खील 25 ग्राम लेकर शहद मिलाकर खाकर सो जाएँ। सप्ताहभर में आधासीसी सिर दर्द दूर हो जाएगा।
* यदि आप गर्भ निरोधक प्रयोग नहीं करना चाहते या गर्भनिरोधक गोलियों का सेवन नहीं करना चाहते हों तो चावल धुले पानी में चावल के पौधे की जड़ पीसकर छान लें और इसमें शहद मिलाकर पिला दें। यह हानिरहित सुरक्षित गर्भनिरोधक उपाय है।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 08:57:00 pm 0 comments
जुलाब की आदत नुकसानदेह
जुलाब लेने का सही तरीका
लंबे समय तक अपच बनी रहे तो कब्ज रहने लगती है और लंबे समय तक कब्ज रहे तो कई प्रकार की व्याधियाँ पैदा होने लगती हैं। ठीक तरह चबाकर न खाने, असमय खाने, भारी पदार्थों का अति सेवन करने से कब्ज होता है। कई लोग कब्ज में जो मिले वह जुलाब ले लेते हैं, लेकिन यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है। हम जुलाब लेने का तरीका बता रहे हैं, इसे प्रयोग करें।
जुलाब : सनाय की डंठलरहित पत्तियाँ 50 ग्राम, मुलहठी का चूर्ण 50 ग्राम, सौंफ 25 ग्राम, गुलाब के फूल 25 ग्राम और मिश्री 150 ग्राम, इन सभी को बारीक कर छानकर मिला लें।
सोते समय आधा या एक चम्मच चूर्ण पानी या दूध के साथ ले लें। दूसरे दिन पेट एकदम साफ हो जाएगा। इसके सेवन से जुलाब की आदत भी नहीं पड़ती, फिर भी इसे लगातार सेवन नहीं करना चाहिए।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 08:56:00 pm 0 comments
तपती गर्मी और सुरक्षा
उबला पानी : अक्सर पानी का बदलाव शरीर पर दुष्प्रभाव छोड़ता है। इससे बचने के लिए अपने साथ उबला हुआ पानी ले जाएँ या सादे पानी में एक हल्दी की गाँठ डाल लें।
नींबू, नमक, शकर और खाने का सोडा : अपने साथ नींबू, शकर, नमक व खाने का सोडा भी रखें। जब अधिक गर्मी सताए या जी मिचलाए तो एक कप पानी में एक चम्मच शकर, नींबू का रस व एक चुटकी सोडा मिलाकर पी लें। नींबू चूसना भी फायदेमंद रहेगा। सादा नमक का पानी बार-बार पीने से भी गर्मी अधिक परेशान नहीं करेगी।
सेंधा नमक और अजवाइन : यदि आपको पित्त गिरने की शिकायत रहती है तो अपने साथ सेंधा नमक और अजवाइन मिलाकर रखें। दो-तीन बार खा लें।
प्याज : लू से बचने के लिए एक प्याज अपने पॉकेट या पर्स में लपेटकर रखें। इसे बार-बार सूँघने से लू नहीं लगेगी।
कच्चे आम का पना : कच्चे आम को उबालकर उसको ठंडा कर लें। ठंडे पानी में गूदे को मैश करके छान लें। थोड़ी-सी हींग, सौंफ और जीरा भूनकर पीस लें। सूखा पुदीना, शकर, काला और सेंधा नमक इस शरबत में मिलाएँ। इस शरबत को बाहर जाने से पहले पी लेने से लू नहीं लगेगी या गंतव्य स्थान पर पहुँच कर पी लें।
गीला तौलिया व आँवला : गर्मी में खासतौर पर सफर के दौरान एक गीला तौलिया हमेशा सिर पर रखें या हो सके तो एक गीला कपड़ा खिड़की पर बाँध लें। यदि अचानक नकसीर फूट जाए तो गीला कपड़ा नाक पर रख लें और ठंडा पानी सिर पर डालें। यदि आपको नकसीर की बीमारी है तो शुद्ध घी में आँवला पीसकर बराबर मात्रा में मिला लें और इसे भी साथ रख लें। इसे लगाने से खून रुक जाएगा।
त्रिकुटी चूर्ण : कम से कम खाइए। फिर भी अपचन न हो, इसके लिए त्रिकुटी का चूर्ण शहद के साथ सुबह ही खा लीजिए। काली पीपल, काली मिर्च व सौंठ को बराबर मात्रा में लेकर पावडर बना लीजिए। सफर में शहद के साथ यह चूर्ण खाने से आपको पेट संबंधी समस्या परेशान नहीं करेगी।
आई ड्रॉप व कॉटन : यदि आपकी आँखें जल्दी लाल हो जाती हैं तो आँखों को साफ करने का लोशन व रुई भी साथ में रखिए। लोशन में रुई का फाहा भिगोकर थकी और लाल आँखों पर रखिए। आपको बहुत आराम मिलेगा।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 08:39:00 pm 0 comments
धार्मिक ज्ञान - वेदों का इतिहास जानें
।।ॐ।। वेद 'विद' शब्द से बना है जिसका अर्थ होता है ज्ञान या जानना, ज्ञाता या जानने वाला; मानना नहीं और न ही मानने वाला। सिर्फ जानने वाला, जानकर जाना-परखा ज्ञान। अनुभूत सत्य। जाँचा-परखा मार्ग। इसी में संकलित है 'ब्रह्म वाक्य'।
वेद मानव सभ्यता के लगभग सबसे पुराने लिखित दस्तावेज हैं। वेदों की 28 हजार पांडुलिपियाँ भारत में पुणे के 'भंडारकर ओरिएंटल रिसर्च इंस्टीट्यूट' में रखी हुई हैं। इनमें से ऋग्वेद की 30 पांडुलिपियाँ बहुत ही महत्वपूर्ण हैं जिन्हें यूनेस्को ने विरासत सूची में शामिल किया है। यूनेस्को ने ऋग्वेद की 1800 से 1500 ई।पू. की 30 पांडुलिपियों को सांस्कृतिक धरोहरों की सूची में शामिल किया है। उल्लेखनीय है कि यूनेस्को की 158 सूची में भारत की महत्वपूर्ण पांडुलिपियों की सूची 38 है।
वेद को 'श्रुति' भी कहा जाता है। 'श्रु' धातु से 'श्रुति' शब्द बना है। 'श्रु' यानी सुनना। कहते हैं कि इसके मन्त्रों को ईश्वर (ब्रह्म) ने प्राचीन तपस्वियों को अप्रत्यक्ष रूप से सुनाया था जब वे गहरी तपस्या में लीन थे। सर्वप्रथम ईश्वर ने चार ऋषियों को इसका ज्ञान दिया:- अग्नि, वायु, अंगिरा और आदित्य।
वेद वैदिककाल की वाचिक परम्परा की अनुपम कृति हैं, जो पीढ़ी-दर-पीढ़ी पिछले छह-सात हजार ईस्वी पूर्व से चली आ रही है। विद्वानों ने संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद इन चारों के संयोग को समग्र वेद कहा है। ये चार भाग सम्मिलित रूप से श्रुति कहे जाते हैं। बाकी ग्रन्थ स्मृति के अंतर्गत आते हैं।
संहिता : मन्त्र भाग। वेद के मन्त्रों में सुंदरता भरी पड़ी है। वैदिक ऋषि जब स्वर के साथ वेद मंत्रों का पाठ करते हैं, तो चित्त प्रसन्न हो उठता है। जो भी सस्वर वेदपाठ सुनता है, मुग्ध हो उठता है।
ब्राह्मण : ब्राह्मण ग्रंथों में मुख्य रूप से यज्ञों की चर्चा है। वेदों के मंत्रों की व्याख्या है। यज्ञों के विधान और विज्ञान का विस्तार से वर्णन है। मुख्य ब्राह्मण 3 हैं : (1) ऐतरेय, ( 2) तैत्तिरीय और (3) शतपथ।
आरण्यक : वन को संस्कृत में कहते हैं 'अरण्य'। अरण्य में उत्पन्न हुए ग्रंथों का नाम पड़ गया 'आरण्यक'। मुख्य आरण्यक पाँच हैं : (1) ऐतरेय, (2) शांखायन, (3) बृहदारण्यक, (4) तैत्तिरीय और (5) तवलकार।
उपनिषद : उपनिषद को वेद का शीर्ष भाग कहा गया है और यही वेदों का अंतिम सर्वश्रेष्ठ भाग होने के कारण वेदांत कहलाए। इनमें ईश्वर, सृष्टि और आत्मा के संबंध में गहन दार्शनिक और वैज्ञानिक वर्णन मिलता है। उपनिषदों की संख्या 1180 मानी गई है, लेकिन वर्तमान में 108 उपनिषद ही उपलब्ध हैं। मुख्य उपनिषद हैं- ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुंडक, मांडूक्य, तैत्तिरीय, ऐतरेय, छांदोग्य, बृहदारण्यक और श्वेताश्वर। असंख्य वेद-शाखाएँ, ब्राह्मण-ग्रन्थ, आरण्यक और उपनिषद विलुप्त हो चुके हैं। वर्तमान में ऋग्वेद के दस, कृष्ण यजुर्वेद के बत्तीस, सामवेद के सोलह, अथर्ववेद के इकतीस उपनिषद उपलब्ध माने गए हैं।
वैदिक काल :
प्रोफेसर विंटरनिट्ज मानते हैं कि वैदिक साहित्य का रचनाकाल 2000-2500 ईसा पूर्व हुआ था। दरअसल वेदों की रचना किसी एक काल में नहीं हुई। विद्वानों ने वेदों के रचनाकाल की शुरुआत 4500 ई।पू. से मानी है। अर्थात यह धीरे-धीरे रचे गए और अंतत: माना यह जाता है कि पहले वेद को तीन भागों में संकलित किया गया- ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद जिसे वेदत्रयी कहा जाता था। मान्यता अनुसार वेद का विभाजन राम के जन्म के पूर्व पुरुरवा ऋषि के समय में हुआ था। बाद में अथर्ववेद का संकलन ऋषि अथर्वा द्वारा किया गया।
दूसरी ओर कुछ लोगों का यह मानना है कि कृष्ण के समय द्वापरयुग की समाप्ति के बाद महर्षि वेद व्यास ने वेद को चार प्रभागों संपादित करके व्यवस्थित किया। इन चारों प्रभागों की शिक्षा चार शिष्यों पैल, वैशम्पायन, जैमिनी और सुमन्तु को दी। उस क्रम में ऋग्वेद- पैल को, यजुर्वेद- वैशम्पायन को, सामवेद- जैमिनि को तथा अथर्ववेद- सुमन्तु को सौंपा गया। इस मान से लिखित रूप में आज से 6508 वर्ष पूर्व पुराने हैं वेद। यह भी तथ्य नहीं नकारा जा सकता कि कृष्ण के आज से 5112 वर्ष पूर्व होने के तथ्य ढूँढ लिए गए हैं।
वेद के विभाग चार हैं: ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। ऋग-स्थिति, यजु-रूपांतरण, साम-गतिशील और अथर्व-जड़। ऋक को धर्म, यजुः को मोक्ष, साम को काम, अथर्व को अर्थ भी कहा जाता है। इन्ही के आधार पर धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और मोक्षशास्त्र की रचना हुई।
ऋग्वेद : ऋक अर्थात् स्थिति और ज्ञान। इसमें 10 मंडल हैं और 1,028 ऋचाएँ। ऋग्वेद की ऋचाओं में देवताओं की प्रार्थना, स्तुतियाँ और देवलोक में उनकी स्थिति का वर्णन है। इसमें 5 शाखाएँ हैं - शाकल्प, वास्कल, अश्वलायन, शांखायन, मंडूकायन।
यजुर्वेद : यजुर्वेद का अर्थ : यत् + जु = यजु। यत् का अर्थ होता है गतिशील तथा जु का अर्थ होता है आकाश। इसके अलावा कर्म। श्रेष्ठतम कर्म की प्रेरणा। यजुर्वेद में 1975 मन्त्र और 40 अध्याय हैं। इस वेद में अधिकतर यज्ञ के मन्त्र हैं। यज्ञ के अलावा तत्वज्ञान का वर्णन है। यजुर्वेद की दो शाखाएँ हैं कृष्ण और शुक्ल।
सामवेद : साम अर्थात रूपांतरण और संगीत। सौम्यता और उपासना। इसमें 1875 (1824) मन्त्र हैं। ऋग्वेद की ही अधिकतर ऋचाएँ हैं। इस संहिता के सभी मन्त्र संगीतमय हैं, गेय हैं। इसमें मुख्य 3 शाखाएँ हैं, 75 ऋचाएँ हैं और विशेषकर संगीतशास्त्र का समावेश किया गया है।
अथर्ववेद : थर्व का अर्थ है कंपन और अथर्व का अर्थ अकंपन। ज्ञान से श्रेष्ठ कम करते हुए जो परमात्मा की उपासना में लीन रहता है वही अकंप बुद्धि को प्राप्त होकर मोक्ष धारण करता है। अथर्ववेद में 5987 मन्त्र और 20 कांड हैं। इसमें भी ऋग्वेद की बहुत-सी ऋचाएँ हैं। इसमें रहस्यमय विद्या का वर्णन है।
उक्त सभी में परमात्मा, प्रकृति और आत्मा का विषद वर्णन और स्तुति गान किया गया है। इसके अलावा वेदों में अपने काल के महापुरुषों की महिमा का गुणगान व उक्त काल की सामाजिक, राजनीतिक और भौगोलिक परिस्थिति का वर्णन भी मिलता है।
छह वेदांग : (वेदों के छह अंग)- (1) शिक्षा, (2) छन्द, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) ज्योतिष और (6) कल्प।
छह उपांग : (1) प्रतिपदसूत्र, (2) अनुपद, (3) छन्दोभाषा (प्रातिशाख्य), (4) धर्मशास्त्र, (5) न्याय तथा (6) वैशेषिक। ये 6 उपांग ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इसे ही षड्दर्शन कहते हैं, जो इस तरह है:- सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक, मीमांसा और वेदांत।
वेदों के उपवेद : ऋग्वेद का आयुर्वेद, यजुर्वेद का धनुर्वेद, सामवेद का गंधर्ववेद और अथर्ववेद का स्थापत्यवेद ये क्रमशः चारों वेदों के उपवेद बतलाए गए हैं।
आधुनिक विभाजन : आधुनिक विचारधारा के अनुसार चारों वेदों का विभाजन कुछ इस प्रकार किया गया- (1) याज्ञिक, (2) प्रायोगिक और (3) साहित्यिक।
वेदों का सार है उपनिषदें और उपनिषदों का सार 'गीता' को माना है। इस क्रम से वेद, उपनिषद और गीता ही धर्मग्रंथ हैं, दूसरा अन्य कोई नहीं। स्मृतियों में वेद वाक्यों को विस्तृत समझाया गया है। वाल्मिकी रामायण और महाभारत को इतिहास तथा पुराणों को पुरातन इतिहास का ग्रंथ माना है। विद्वानों ने वेद, उपनिषद और गीता के पाठ को ही उचित बताया है।
ऋषि और मुनियों को दृष्टा कहा गया है और वेदों को ईश्वर वाक्य। वेद ऋषियों के मन या विचार की उपज नहीं है। ऋषियों ने वह लिखा या कहा जैसा कि उन्होंने पूर्णजाग्रत अवस्था में देखा, सुना और परखा।
मनुस्मृति में श्लोक (II।6) के माध्यम से कहा गया है कि वेद ही सर्वोच्च और प्रथम प्राधिकृत है। वेद किसी भी प्रकार के ऊँच-नीच, जात-पात, महिला-पुरुष आदि के भेद को नहीं मानते। ऋग्वेद की ऋचाओं में लगभग 414 ऋषियों के नाम मिलते हैं जिनमें से लगभग 30 नाम महिला ऋषियों के हैं। जन्म के आधार पर जाति का विरोध ऋग्वेद के पुरुष-सुक्त (X.90.12), व श्रीमद्भगवत गीता के श्लोक (IV.13), (XVIII.41) में मिलता है।
श्लोक : श्रुतिस्मृतिपुराणानां विरोधो यत्र दृश्यते।
तत्र श्रौतं प्रमाणन्तु तयोद्वैधे स्मृतिर्त्वरा॥
भावार्थ : अर्थात जहाँ कहीं भी वेदों और दूसरे ग्रंथों में विरोध दिखता हो, वहाँ वेद की बात की मान्य होगी।-वेद व्यास
प्रकाश से अधिक गतिशील तत्व अभी खोजा नहीं गया है और न ही मन की गति को मापा गया है। ऋषि-मुनियों ने मन से भी अधिक गतिमान किंतु अविचल का साक्षात्कार किया और उसे 'वेद वाक्य' या 'ब्रह्म वाक्य' बना दिया।।। ॐ ।।
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Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 07:30:00 pm 0 comments
दशहरे के विविध रंग - देश के विभिन्न हिस्सों से
दशहरा का त्योहार पूरे भारत में उत्साह और धार्मिक निष्ठा के साथ मनाया जाता है। हालांकि, देश के विभिन्नर हिस्सों में इसके अलग-अलग प्रचलित नामों की ही तरह इसे मनाने के तरीक़े भी अलग-अलग हैं। नवरात्रि के 9 दिन बाद विजया दशमी यानी दशहरा आता है। दशहरा के मुख्य रीति-रिवाज़ों में माँ दुर्गा की प्रतिमाओं को घर और मंदिरों में प्रतिस्थापित करना होता है। त्योहार के दौरान भव्य उत्सव मनाया जाता है, जिस दौरान देवी को फल और फूल चढ़ाए जाते हैं और उनकी उपासना की जाती है।
बंगाल में दुर्गा पूजा
अपनी सांस्कृतिक विरासत के लिए मशहूर बंगाल में दशहरे का मतलब है दुर्गा पूजा। बंगाली लोग पाँच दिनों तक माता की पूजा-अर्चना करते हैं, जिसमें चार दिनों का ख़ासा अलग महत्व होता है। ये चार दिन पूजा के सातवें, आठवें, नौवें और दसवें दिन होते हैं; जिसे क्रमश: सप्तमी, अष्टमी, नवमी और दशमी के नामों से जाना जाता है।
दसवें दिन प्रतिमाओं की भव्य झांकियाँ निकाली जाती हैं और उनका विसर्जन पवित्र गंगा में किया जाता है। गलियों में माँ दुर्गे की बड़ी-बड़ी प्रतिमाओं को राक्षस महिषासुर का वध करते हुए दिखाया जाता है। विशाल पंडालों से पूरा राज्य पटा रहता है।
गरबे की धूम होती है गुजरात की दुर्गा पूजा में
गुजरात में दशहरे को मनाने का अपना अलग ही अंदाज़ है। यहाँ पर दशहरा मनाने में स्त्रियों की भूमिका मर्दों से कहीं ज़्यादा महत्वापूर्ण है, जो शायद नारीशक्ति का द्योतक है। गुजरात में माटी का सुशोभित रंगीन घड़ा माता का प्रतीक माना जाता है। इसे कुंवारी लड़कियाँ सिर पर रखकर एक लोकप्रिय नृत्य करती हैं, जिसे गरबा कहा जाता है। गरबा नृत्य एक ख़ास अंदाज़ में किया जाता है, जिसमें लड़कियाँ परस्पर अपने हाथों को टकराकर या सजे-धजे डंडों को टकराकर एक मधुर ध्वनि निकालती हैं।
इस पूरे नृत्य के क्रम की पृष्ठटभूमि में शक्ति प्रदान करने वाली परंपरागत धुनें बजती रहती हैं। पूजा और आरती के बाद पूरी रात डांडिया रास का आयोजन होता है। नवरात्रि के दौरान गुजराती लोग सोने और गहनों की ख़रीद को शुभ मानते हैं।
महाराष्ट्र में दुर्गा पूजा
महाराष्ट्र में दशहरे की ख़ासियत है कि यहाँ शक्ति की देवी माँ दुर्गा के अलावा ज्ञान की देवी माँ सरस्वषती की अराधना भी की जाती है। इस राज्यों में नवरात्रि के नौ दिन माँ दुर्गा को समर्पित होते हैं, जबकि दसवें दिन ज्ञान की देवी सरस्वती की वंदना की जाती है। इस दिन विद्यालय जाने वाले बच्चे अपनी पढ़ाई में आशीर्वाद पाने के लिए माँ सरस्वती की प्रतिमाओं और चित्रों की पूजा करते हैं।
किसी भी नई शुरुआत के लिए, ख़ासकर विद्या-आरंभ करने के लिए यह दिन काफ़ी शुभ माना जाता है। महाराष्ट्र के लोग इस दिन शादियों का आयोजन रखते हैं, गृहप्रवेश करते हैं या नया घर ख़रीदते हैं।
मैसूर का राजसी इतिहास नज़र आता है वहाँ के दशहरे में
मैसूर का दशहरा भी अपने आप में ख़ास होता है और काफ़ी धूमधाम से मनाया जाता है। नवरात्रि के दौरान मैसूर राजघराने की राजकीय देवी चामुण्डी की पूजा-अर्चना में यहाँ का राजकीय इतिहास सजीव हो उठता है। नवरात्र के दसवें दिन मैसूर के राजा जुलूस की शक़्ल में देवी की अराधना के लिए पहाड़ी के ऊपर बने मंदिर में जाते हैं। इस जुलूस में हाथी, घोड़े, रथ और सजे हुए सेवकों की क़तारें साथ-साथ चलती हैं।
तमिलनाडु, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में औरतें दशहरे में बोम्मई कोलू का प्रबंध करती हैं। यह गुड़ियों को सीढ़ियों पर ख़ास ढंग से रखने की एक कला है। गुड़ियों को आकर्षक पोशाकों और फूलों, गहनों से सजाया जाता है। नौ कन्याओं या कुवांरियों को नए वस्त्र और मिठाइयाँ दी जाती हैं। शादीशुदा औरतें आपस में फूल, कुमकुम और हल्के नाश्ते का आदान-प्रदान करती हैं।
कश्मीर में दुर्गा पूजा का ख़ास अंदाज़
कश्मीर राज्य में नवरात्र के दौरान परिवार के वयस्क सदस्य नौ दिनों तक सिर्फ़ पानी पीकर उपवास पर रहते हैं। बहुत ही पुरानी परंपरा के अनुसार नौ दिनों तक लोग माता खीर भवानी के दर्शन करने के लिए जाते हैं। यह मंदिर एक झील के बीचों-बीच बना है।
इस झील के बारे में एक बड़ी ही प्रचलित कहानी है। माना जाता है कि देवी ने अपने भक्तों को आशीर्वाद दिया है कि किसी अनहोनी से पहले ही सरोवर का पानी नीला हो जाएगा। यह सुनने में अविश्वसनीय भले लगे, लेकिन यह सच है कि इंदिरा गांधी की हत्या के ठीक एक दिन पहले और भारत-पाक युद्ध के पहले यहाँ का पानी सचमुच काला हो गया था।
पहाड़ की संस्कृति और आस्था का प्रतीक है कुल्लू का दशहरा
हिमाचल प्रदेश में स्थित कुल्लु का दशहरा पूरे देश में प्रसिद्ध है। इसकी सबसे बड़ी ख़ासियत यह है कि जब पूरे देश में दशहरा समाप्तऔ हो जाता है, तब यहाँ के दशहरे की शुरुआत होती है। अन्य स्थानों की ही भाँति यहाँ भी एक सप्ताह पहले ही इस पर्व की तैयारी आरंभ हो जाती है। स्त्रियाँ और पुरुष सभी सुंदर वस्त्रों से सज्जित होकर तुरही, बिगुल, ढोल, नगाड़े, बाँसुरी आदि-आदि जिसके पास जो वाद्य होता है; उसे लेकर बाहर निकलते हैं। पहाड़ी लोग अपने ग्रामीण देवता का धूम-धाम से जुलूस निकाल कर पूजन करते हैं।
देवताओं की मूर्तियों को बड़े ही आकर्षक ढंग से सुंदर पालकी में सजाया जाता है। साथ ही वे अपने मुख्य देवता रघुनाथ जी की भी पूजा करते हैं। इस जुलूस में प्रशिक्षित नर्तक-नटी नृत्य करते हैं। सभी लोग जुलूस बनाकर नगर के मुख्य भागों से होते हुए नगर परिक्रमा करते हैं और कुल्लू नगर में देवता रघुनाथजी की वंदना से दशहरे के उत्सव का आरंभ होता हैं। दशमी के दिन इस उत्सव की शोभा निराली होती है। देश के बाक़ी हिस्सों की तरह यहाँ दशहरा रावण, मेघनाथ और कुंभकर्ण के पुतलों का दहन करके नहीं मनाया जाता। सात दिनों तक चलने वाला यह उत्स व हिमाचल के लोगों की संस्कृ ति और धार्मिक आस्थाा का प्रतीक है। उत्ससव के दौरान भगवान रघुनाथ जी की रथयात्रा निकाली जाती है। यहाँ के लोगों का मानना है कि क़रीब 1000 देवी-देवता इस अवसर पर पृथ्वी पर आकर इसमें शामिल होते हैं।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 03:29:00 pm 0 comments
सामाजिक समरसता का प्रतीक दशहरा
विजया दशमी, दशहरा, दुर्गा पूजा, नवरात्र - विभिन्नम नामों से जाना जाने वाला यह पर्व हिंदुओं का एक विशिष्टश त्योषहार है जो केवल भारत ही नहीं, बल्कि क़रीब-क़रीब सभी पूर्व एशियाई देशों जैसे इंडोनेशिया, जापान आदि में उत्सालहपूर्वक मनाया जाता है। दस दिनों तक चलने वाले इस पर्व में शक्ति की देवी माँ दुर्गा की अराधना की जाती है।
दशहरा या विजया दशमी आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को मनाया जाता है। पौराणिक कथा के अनुसार भगवान श्रीराम ने लंका पर चढ़ाई के बाद इसी दिन रावण को मारकर विजय हासिल की थी। इस लिहाज़ से यह दिन असत्यद पर सत्यम और अच्छासई पर बुराई की जीत के रूप में मनाया जाता है।
दशहरा संस्कृत भाषा का शब्द है जो दो शब्दों से मिलकर बना है - दश और हारा अर्थात दस का नाश। हिंदू धर्म की मान्यभताओं के अनुसार लंका का राजा रावण दस सिरों वाला था। राम को उसका वध करने के लिए उसके दसों सिरों को काटना पड़ा था और दशहरा इसी को निरूपित करता है। दक्षिण भारत में दशहरा विजया दशमी के रूप में प्रचलित है। संस्कृतत में विजय का मतलब है जीत और दशमी का अर्थ है दसवें दिन अर्थात दसवें दिन मिली जीत।
त्योशहार के पहले नौ दिनों में माँ दुर्गा के अलग-अलग रूपों की पूजा-अर्चना की जाती है। इसके लिए देवी की मूर्तियों को घरों और मंदिरों में प्रतिस्थापित किया जाता है। दसवें दिन प्रतिमाओं की भव्य झांकियाँ निकलती हैं और फिर उसे पानी में विसर्जित कर दिया जाता है। इस त्योंहार के दौरान देवी के शक्ति रूप की उपासना कर तैत्रीय उपनिषद में वर्णित इस जगत के नारीत्वे सिद्धांत को मानते हुए माता की पूजा की जाती है। इसके अलावा कई हिस्सों में रावण की प्रतिमा को जलाया जाता है। इससे तात्पजर्य मानव जीवन को सभी इहलौकिक दोषों जैसे झूठ, अहंकार, लोभ, क्रोध, हिंसा, मोह, माया आदि से दूर करने से है।
दशहरा का पर्व हमारे सामाजिक जीवन के लिए भी संदेश लेकर आता है। सामाजिक रूप से शक्ति की अराधना का उद्देश्ये हर नारी का सम्मान करने की जरूरत पर बल देना है। नारी हमारे पारिवारिक जीवन, संस्कृमति और राष्ट्री य अखंडता की संरक्षिका होने के साथ-साथ संकट के क्षणों में हमारा मार्गदर्शन भी करती हैं और हमें सत्य , समानता, प्रेम, न्यासय और मोक्ष के रास्तेा पर आगे चलने के लिए प्रेरित करने वाली होती हैं।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 08:40:00 am 0 comments
साधना रहस्य
साधना शक्ति को प्रकट करना अपने संचित धन को प्रदर्शित करने जैसा है, इसे गुप्त रखें।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 08:32:00 am 0 comments
हिंदू 'पंचांग' की अवधारणा
तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण
.
.27 योगों में से कुल 9 योगों को अशुभ माना जाता है तथा सभी प्रकार के शुभ कामों में इनसे बचने की सलाह दी गई है। ये अशुभ योग हैं: विष्कुम्भ, अतिगण्ड, शूल, गण्ड, व्याघात, वज्र, व्यतीपात, परिघ और वैधृति।
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Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 08:30:00 am 0 comments
पितृ कौन, उनकी पूजा आवश्यक क्यों?
माता-पिता की सेवा को सबसे बड़ी पूजा माना गया है। जो जीवन रहते उनकी सेवा नहीं कर पाते, उनके देहावसान के बाद बहुत पछताते हैं। इसलिए हिंदू धर्म शास्त्रों में पितरों का उद्धार करने के लिए पुत्र की अनिवार्यता मानी गई हैं। राजा भागीरथ ने अपने पूर्वजों के उद्धार के लिए गंगा जी को स्वर्ग से धरती पर ला दिया। जन्मदाता माता-पिता को मृत्यु-उपरांत लोग विस्मृत न कर दें, इसलिए उनका श्राद्ध करने का विशेष विधान बताया गया है। प्रस्तुत है पितृ एवं पितृ-पक्ष के महत्व की विशेष जानकारी।
एकैकस्य तिलैर्मिश्रांस्त्रींस्त्रीन् दद्याज्जलाज्जलीन्।
यावज्जीवकृतं पापं तत्क्षणादेव नश्यति।।
अर्थात् जो अपने पितरों को तिल-मिश्रित जल से तीन-तीन अंजलियाँ जल की प्रदान करता हैं, उसके जन्म से तर्पण के दिन तक के पापों का नाश हो जाता है। हमारे हिंदू धर्म-दर्शन के अनुसार जिस प्रकार जिसका जन्म हुआ है, उसकी मृत्यु भी निश्चित है; उसी प्रकार जिसकी मृत्यु हुई है, उसका जन्म भी निश्चित है। ऐसे कुछ विरले ही होते हैं जिन्हें मोक्ष प्राप्ति हो जाती है। पितृपक्ष में तीन पीढ़ियों तक के पिता पक्ष के तथा तीन पीढ़ियों तक के माता पक्ष के पूर्वजों के लिए तर्पण किया जाता हैं। इन्हीं को पितर कहते हैं। दिव्य पितृ तर्पण, देव तर्पण, ऋषि तर्पण और दिव्य मनुष्य तर्पण के पश्चात् ही स्व-पितृ तर्पण किया जाता है।
भाद्रपद पूर्णिमा से आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के सोलह दिनों को पितृपक्ष कहते हैं। जिस तिथि को माता-पिता का देहांत होता है, उसी तिथी को पितृपक्ष में उनका श्राद्ध किया जाता है। शास्त्रों के अनुसार पितृपक्ष में अपने पितरों के निमित्त जो अपनी शक्ति सामर्थ्य के अनुरूप शास्त्र विधि से श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, उसके सकल मनोरथ सिद्ध होते हैं और घर-परिवार, व्यवसाय तथा आजीविका में हमेशा उन्नति होती है।
पितृ दोष के अनेक कारण होते हैं। परिवार में किसी की अकाल मृत्यु होने से, अपने माता-पिता आदि सम्मानीय जनों का अपमान करने से, मरने के बाद माता-पिता का उचित ढंग से क्रियाकर्म और श्राद्ध नहीं करने से, उनके निमित्त वार्षिक श्राद्ध आदि न करने से पितरों को दोष लगता है। इसके फलस्वरूप परिवार में अशांति, वंश-वृद्धि में रूकावट, आकस्मिक बीमारी, संकट, धन में बरकत न होना, सारी सुख सुविधाएँ होते भी मन असन्तुष्ट रहना आदि पितृ दोष हो सकते हैं।
यदि परिवार के किसी सदस्य की अकाल मृत्यु हुई हो तो पितृ दोष के निवारण के लिए शास्त्रीय विधि के अनुसार उसकी आत्म शांति के लिए किसी पवित्र तीर्थ स्थान पर श्राद्ध करवाएँ। अपने माता-पिता तथा अन्य ज्येष्ठ जनों का अपमान न करें। प्रतिवर्ष पितृपक्ष में अपने पूर्वजों का श्राद्ध, तर्पण अवश्य करें। यदि इन सभी क्रियाओं को करने के पश्चात् पितृ दोष से मुक्ति न होती हो तो ऐसी स्थिति में किसी सुयोग्य कर्मनिष्ठ विद्वान ब्राह्मण से श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा करवायें। वैसे श्रीमद् भागवत् पुराण की कथा कोई भी श्रद्धालु पुरुष अपने पितरों की आम शांति के लिए करवा सकता है। इससे विशेष पुण्य फल की प्राप्ति होती है।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 08:30:00 am 0 comments
दशहरा या विजयादशमी
दशहरा या विजयादशमी के संबंध मे लोकजीवन में कई तरह के विश्वास प्रचलित हैं। विभिन्नज मतों पर आधारित इन सभी विश्वासों का आख़िरी उद्देश्य हमेशा ही एक समान होता है - लोककल्यारण। ज्योतिष एवं धर्मग्रंथों में भी इस संबंध में विस्तृत चर्चा की गई है।
आइए एक नज़र डालते हैं इस पर:
त्वां नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्या।
तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धं लोककष्टकम् ।
अवध्यं देवर्तेविष्णो समरे जहि रावणम्।।
अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ में भाग लेने के लिए देवतागण आकर वहाँ भगवान विष्णु से लोककल्याण हेतु रावण-वध के लिए प्रार्थना करते हैं। लंका के राजा रावण के अत्याकचार से पूरी पृथ्वीन पर हाहाकार मचा हुआ था। वो विष्णु से प्रार्थना करते हैं कि, “हे प्रभु! लोकहित की कामना से हम आपको इस काम में लगाना चाहते हैं। आप मनुष्यस रूप में अवतार लेकर पृथ्वीअवासियों के लिए कंटक बन चुके और देवताओं से न मारे जा सकने वाले रावण का युद्ध में संहार कीजिए।”
देवताओं की प्रार्थना को सुनकर भगवान विष्णु ने लोककल्याण के हित में असत्य पर सत्य की विजय के लिए, विप्र, धेनु, संत और पृथ्वी पर होने वाले अत्याचार को ख़त्म करने के लिए एवं रावण द्वारा जो भय उत्पन्न हो गया था, उसको मिटाने के लिए भगवान श्रीराम के रूप में जन्म लिया।
युद्ध में रावण का वध कर उसके अत्यानचार से मुक्ति दिलाने वाले भगवान श्रीराम को मैं प्रणाम करता हूँ। जिस दिन रावण मारा गया उस दिन अश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि थी। वही दिन विजय दशहरे के रूप में मनाया जाता है और असत्यन पर सत्यम के, बुराई पर अच्छेम के विजय का प्रतीक है। रावण का संहार कर भगवान राम ने यह संदेश दिया कि शत्रु की बुराई को खत्म करो, परंतु उसके परिवार के प्रति श्रद्धा एवं दया का भाव रखना चाहिए।
यही कारण है कि राम ने रावण के छोटे भाई विभीषण को अपनी शरण में आने की अनुमति दी। रावण के मारे जाने के बाद भी श्रीराम ने विभीषण के प्रति अपनी सहज नम्रता ही दिखलाई। रावण की मृत्यु पर घर की सभी स्त्रियों को रोते देखकर विभीषण भी दुःखी हो जाता है। इसे देख श्रीराम लक्ष्मण को विभीषण को धैर्य बंधाने और सांत्वना देने का निर्देश देते हैं। लक्ष्मण द्वारा अपने शत्रु की मृत्यु पर भी शोक और संवेदना प्रकट करने पर विभीषण का मन कुछ हल्का होता है और वह श्रीरामजी के पास आता है।
कृपा दृष्टि प्रभु ताहि विलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका।।
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। विधिवत देस काल जियँ जानी।।
श्रीराम विभीषण की ओर देखकर कहते हैं कि हर तरह की मोह-माया और शोक त्याग कर अपने भाई रावण की अंतिम क्रिया विधिपूर्वक अपने देश के रीति-रिवाज़ के अनुसार करने का प्रबंध करो। स्पष्ट है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने रावण के प्रति शत्रुता का त्याग कर अपनी नम्रता, प्रेम और उदारता का ही उदाहरण प्रस्तुत किया। यही दशहरे का उद्देश्य है। दुश्मन की बुराई पर विजय प्राप्त करो, उसका संहार मत करो, उसकी बुराई का संहार करो। कवि तुलसीदासजी कहते हैं-
पर हित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
निर्नय सकल पुरान वेद कर। कहेऊँ तात जानहि कोबिद नर।।
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहि ते सहहिं महा भव धीरा।
करहि मोह बस नर अध नाना। स्वारथरत परलोक नसाना।।
अर्थात दूसरों पर दया कर उनकी भलाई करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है और दूसरों के साथ हिंसा करने या उन्हें पीड़ा पहुँचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है। गुरु अर्जुन देव का कहना है-
भई परापति मानुख देहुरिआ। गोविंद मिलन की इह तेरी बरीआ।।
अबरि काज तेरे कितै न काम। मिलु साधसंगति भजु केवल नामा।।
सरंजामि लागु भवजल तरन कै। जनमु व्रिधा जात रंगि माइआ कै।।
अर्थात मनुष्यक-जन्म का दुर्लभ अवसर भवसागर को पार करने और भगवान से निकटता हासिल करने के लिए मिलता है। इसे माया के झूठे धंधों में उलझाने के लिए नहीं।
दशहरे के दिन हर मनुष्य को माया के झूठ, अन्याय, हिंसा रूपी रावण को जलाकर भगवान से जीवन में मंगल की प्रार्थना करनी चाहिए एवं अपने अंदर के रावण के संहार के लिए इस दिन प्रभु श्रीराम से विनय-निवेदन करना चाहिए।
करउ सो मम उर धाम।
करउ सो राम हृदय मम अयना।
मम हिय गगन इंद्र इव वसह सदा निहकाम।
मम हृदय करहु निकेत।
हृदि बसि राम काम मद गंजय।
अर्थात: हे प्रभु, मेरे हृदय में निवास करें। हे राम, मेरे हृदय में अपना घर कर लो। आप स्थिर होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चंद्रमा के समान हमेशा निवास करें। मेरे हृदय को अपना घर बना लें। हे प्रभु राम! हमारे हृदय में बस कर काम, क्रोध और अहंकार को नष्टब कर दें।
प्रभु श्रीराम की इस प्रकार प्रार्थना करें। वे दया के असीम सागर हैं। श्रीराम प्रभु की प्रार्थना, सेवा, भजन कर सभी दोषों और विकारों को दूर कर मन को स्वच्छ और निर्मल बनाया जा सकता है। प्रभु श्री राम स्वयं कहते हैं-
निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।
जिस सेवक का मन निर्मल होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छली व्यमक्ति नहीं सुहाते। अत: प्रभु का स्मरण कर जीवन सुधार लें और उसे सद्गति की राह पर अग्रसर करें। क्योंकि
का वरषा सब कृषी सुखानें।
समय चुके पुनि का पछतावें।।
अर्थात खेतों में फसल सूख जाने के बाद वर्षा का कोई लाभ नहीं होता। उसी प्रकार समय हाथ से निकल जाने पर पश्चाताप करने का कोई लाभ नहीं होता।
Posted by Udit bhargava at 4/03/2010 06:59:00 am 0 comments
02 अप्रैल 2010
रामायण - अरण्यकाण्ड - दण्डक वन में विराध वध
सीता और लक्ष्मण के साथ राम ने दण्डक वन में प्रवेश किया। वहाँ पर उन्हें ऋषि-मुनियों के अनेक आश्रम दृष्टिगत हुये। वह क्षेत्र अत्यन्त मनोरम था। वहाँ पर बड़ी बड़ी यज्ञशालाएँ थीं तथा हवन-सामग्री भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। उन आश्रमों में तेजस्वी ऋषि-मुनि अपनी आध्यात्मिक साधना में लिप्त रहा करते थे। वीर तपस्वियों के वेश में राम-लक्ष्मण को देखकर वे समस्त ऋषि-मुनि अत्यन्त प्रसन्न हुये।
राम, सीता और सीता का समुचित सत्कार करने के पश्चात् वे बोले, "हे राघव! यद्यपि आप वन में हैं किन्तु हमारे लिये आप ही राजा हैं। हम वनवासियों की रक्षा करना आपका परम कर्तव्य है। आत्मचिन्तन में व्यस्त रहने वाले यहाँ के निवासी तपस्वियों को दुष्ट राक्षस निर्विघ्न रूप से ईश्वर आराधना नहीं करने देते। वे उनकी तपस्यामें विघ्न तो डालते ही हैं साथ ही साथ निरपराध तपस्वियों की हत्या भी कर डालते हैं। इसलिये हम आपसे आग्रह करते हैं कि हे रघुनन्दन! आप उनसे हमारी रक्षा करें।
रामचन्द्र ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे शीघ्र ही इन राक्षसों का विनाश कर इस क्षेत्र को निरापद कर देंगे। वहाँ से उन्होंने महावन में प्रवेश किया जहाँ नाना प्रकार के हिंसक पशु और नरभक्षक राक्षस निवास करते थे। ये नरभक्षक राक्षस ही तपस्वियों को कष्ट दिया करते थे। कुछ ही दूर जाने के बाद बाघम्बर धारण किये हुये एक पर्वताकार राक्षस दृष्टिगत हुआ। वह राक्षस हाथी के समान चिंघाड़ता हुआ सीता पर झपटा। उसने सीता को उठा उठा लिया और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया।
उसने राम और लक्ष्मण को सम्बोधित करते हुए कहा, "तुम धनुष बाण लेकर दण्डक वन में घुस आये हो। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारी मृत्यु निकट आ गई है। तुम दोनों कौन हो? क्या तुमने मेरा नाम नहीं सुना? मैं प्रतिदिन ऋषियों का माँस खाकर अपनी क्षुधा शान्त करने वाला विराध हूँ। तुम्हारी मृत्यु ही तुम्हें यहाँ ले आई है। मैं तुम दोनों का अभी रक्तपान करके इस सुन्दर स्त्री को अपनी पत्नी बनाउँगा।"
उसके दम्भयुक्त वचनों को सुनकर राम लक्ष्मण से बोले, "भैया! विराध के चंगुल में फँसकर सीता अत्यन्त भयभीत एवं दुःखी हो रही है। मेरे लिये यह बड़ी लज्जाजनक बात है कि कोई अन्य व्यक्ति उसका स्पर्श करे। पिताजी की मृत्यु तथा अपने राज्य के अपहरण से मुझे इतना दुःख नहीं हुआ जितना आज भयभीत सीता को देखकर हो रहा है। मुझे यह भी नहीं सूझ रहा है कि इस दुष्ट से सीता की कैसे रक्षा करूँ।"
राम को इस प्रकार दीन वचन कहते सुनकर लक्ष्मण ने क्रुद्ध होकर कहा, "भैया! आप तो महापराक्रमी हैं। आप इस प्रकार अनाथों की भाँति क्यों बात कर रहे हैं? मैं अभी इस दुष्ट राक्षस का संहार करता हूँ।"
फिर विराध से बोले, "रे दुष्ट! अपनी मृत्यु के पूर्व तू हमें अपना परिचय दे और अपने कुल का नाम बता।"
विराध ने हँसते हुये कहा, "यदि तुम मेरा परिचय जानना ही चाहते हो तो सुनो! मैं जय राक्षस का पुत्र हूँ। मेरी माता का नाम शतह्रदा है। मुझे ब्रह्मा जी से यह वर प्राप्त है कि किसी भी प्रकार का अस्त्र-शस्त्र न तो मेरी हत्या ही कर सकती है और न ही उनसे मेरे अंगों छिन्न-भिन्न हो सकते हैं। यदि तुम इस स्त्री को मेरे पास छोड़ कर चले जाओगे तो मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें नहीं मारूँगा।"
विराध के वचनों से क्रोधित राम ने उसे तत्काल तीक्ष्ण बाणों से बेधना आरम्भ कर दिया। राम के बाण विराध के शरीर को छेदकर रक्तरंजित हो पृथ्वी पर गिरने लगे। इस प्रकार जब घायल होकर विराध त्रिशूल ले राम और लक्ष्मण पर झपटा तो दोनों भाइयों ने उस पर अग्निबाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, किन्तु विराध पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। वे केवल उसके त्रिशूल को ही काट सके। फिर जब भयंकर तलवारों से दोनों भाइयों ने उस पर आक्रमण किया तो वह सीता को छोड़ राम और लक्ष्मण को दोनों भुजाओं में पकड़कर आकाशमार्ग से उड़ चला।
राम ने लक्ष्मण से कहा, "भाई! हमें जिस ओर यह राक्ष्स ले जा रहा है, बिना विरोध के हमें उधर ही चले जाना चाहिये, यही हमारे लिये उचित है।"
विराध द्वारा राम-लक्ष्मण को ले जाते देख सीता विलाप करके कहने लगी, "हे राक्षसराज! इन दोनों भाइयों को छोड़ दो। मैं तुमसे प्रार्थना करती हूँ मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।"
सीता के आर्तनाद करने पर क्रोधित हो कर दोनों भाइयों ने विराध की एक-एक बाँह मरोड़कर तोड़ डाली। वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। लक्ष्मण उसे सचेत कर कर के बार-बार उठा-उठा कर पटकने लगे। वह घायल होकर चीत्कार करने लगा।
तभी राम बोले, "लक्ष्मण! वरदान के कारण यह दुष्ट मर नहीं सकता। इसलिये यही उचित है कि हमें भूमि में गड़्ढा खोदकर इसे बहुत गहराई में गाड़ देना चाहिये।"
लक्ष्मण गड्ढा खोदने लगे और राम विराध की गर्दन पर पैर रखकर खड़े हो गये।
तब विराध बोला, "प्रभो! वास्तव में मैं तुम्बुरू नाम गन्धर्व हूँ। कुबेर ने मुझे राक्षस होने का शाप दिया था। मैं शाप के कारण राक्षस हो गया था। आज आपकी कृपा से मुझे उस शाप से मुक्ति मिल रही है।"
राम और लक्ष्मण ने उसे उठाकर गड्ढे में डाल दिया और गड्ढे को पत्थर आदि से पाट किया। सारा वन प्रान्त उसके आर्तनाद से गूँज उठा।
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Posted by Udit bhargava at 4/02/2010 06:03:00 pm 0 comments
01 अप्रैल 2010
रामायण जी का महात्मय
वैसे तो राम क़ी कथा प्रत्येक व्यक्ति जानता है। एक सम्राट चक्रवर्ती अयोध्या के महाराज दशरथ थे जिनके चार पुत्र थे। जनकपुर में श्री राम जी का विवाह हुआ। तत्पश्चात राम को राजगद्दी मिली लेकिन उससे पहले राम को वनवास मिला। राम वियोग में दशरथ जी की मृत्यु हो गयी। राम, लक्ष्मण और सीता जी वन में गए। भारत जी चित्रकूट गए और उनकी पादुका ले आये। राम चित्रकूट में पंचवटी गए। सीता जी का उपहरण हुआ। सीता को खोजने के लिये राम ने वानर सेना भेजी। हनुमान सीता जी को खोज लाये। राम ने समुद्र के ऊपर बाँध बांधा। रामेश्वर भगवन क़ी करके लंका पर चढाई की। रावणादि रक्षसों का विनाश हुआ और पुष्पक विमान में बैठकर राम अयोध्या आये। राम जी का राज्याभिषेक हुआ, राम राज्य की स्थापना हुए और राम कथा पूरी हुए। इतनी-सी कथा गोस्वामी जी नए मानस में लिखी है। आधे मिनट में कही जाने वाली कथा के लिये इतना अधिक समय इतनी संपत्ति का खर्च, इतने सारे व्यापार-धन्दोइन को छोड़कर इसके पीछे इतना समय देते हैं। उस पर से मालूम होता है क़ी आधी मिनट में कही जाने वाली कथा रामायण नहीं है। पहले तो यह भ्रांति हट जानी चाहिए, अधिकतर तो ऐसा मन जाता था क़ी रामायण में क्या सुनना? जिन लोगों को रामचरितमानस का अनुभव नहीं है, वे लोग यह कहते हैं क़ी रामायण में क्या है? राम-रावन युद्ध है, इसमें क्या सुनना? परन्तु रामायण केवल कथा नहीं है। इतिहास नहीं है। और न ही एक सम्राट पुत्र का चरित्र है। रामायण सबसे प्रथम परात्पर ब्रह्म है। उनका एक दिव्या लीलामृत है। और साथ-साथ हम सबके जीवन में जो कठिनाइयां उत्पन्न होती हैं, उसका उत्तर रामायण है। प्रमाण सहित कह सकते हैं कि जीवन की ऐसी कोई समस्या नहीं है, भूतकाल में नहीं थी और भविष्य में नहीं होती जिनका उत्तर रामायण में न हो। कोई कहे क़ी रामायण की कथा गाते हैं इसलिये रामायण की प्रशंसा करते हैं। परन्तु प्रमाण देकर कह सकते हैं कि हम सबके जीवन में कोई प्रश्न आये तो उसका उत्तर रामायण में है। निष्ठा, प्रेम और सत्संग होंगे तो रामायण आपके प्रश्नों का उत्तर देगी।
रेलवे स्टेशन पर एक बुजुर्ग ट्रेन के इंतज़ार में रामचरितमानस का पाठ कर रहे थे। रामायण के प्रेमी थे। उन्होंने सोचा कि ट्रेन आने में तीस मिनट हैं तो चलो रामचरितमानस का पाठ ही कर लूं। तभी एक नवदम्पत्ति जो पढ़े-लिखे थे उस बुजुर्ग की टीका करने लगे। इन लोगों ने सालों से रामायण को पकड़ा हैं छोड़ते ही नहीं हैं। स्टेशन पर भी पढने बैठ गए, युवक ने बुजुर्ग से मजाक में कहा, "अब संसार में बड़ी-बड़ी गीता लिखी जाती है बड़े-बड़े उपन्यास लिखे जाते हैं और आपने अभी तक एक ही रामायण बरसों से पकड़ी हुई हैं। छोड़ते ही नहीं हैं, इसमें ऐसा क्या है? जिसको आप पढ़ रहे हैं।" प्रारम्भ में बुजुर्ग ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। उसने आग्रह किया, "जवाब दो। क्यों आप रामायण लेकर बैठे हैं? इस में क्या है?" बुजुर्ग ने कहा, "इसमें क्या है यह तो मैं भी मालूम नहीं कर सका तुझे सबूत नहीं दे सकता। परन्तु तू तो पढ़ा लिखा व्यक्ति है, तू तो बता कि इसमें क्या नहीं है? मैं तो चिन्तक नहीं हूँ। अभ्यास भी नहीं है, इसलिये नहीं बता सकता क़ी इसमें क्या है? तू तो पंडित है तो तू ही बता सकता है इसमें क्या नहीं है?" युवक ने कहा, "यह तो आपकी बौद्धिक दलीलें हैं। क्या इसमें सब कुछ लिखा है?" बुजुर्ग ने कहा, "भाई मेरा तो विश्वास है क़ी इसमें सभी कुछ है इनकी बातचीत के दौरान ट्रेन आ गयी। भीड़ अधिक थी ट्रेन चली गयी। थोड़ी देर बाद ट्रेन ने स्पीड पकड़ी। बुजुर्ग ने सीट मिलने के पश्चात रामचरितमानस का पाठ करना शुरू किया गाडी थोड़ी ही दूर गयी होगी क़ी उस युवक ने आवाज लगाई क़ी गाडी रोको। अन्य लोग पूछने लगे क़ी क्या हुआ? उसने कहा, "गाडी जल्दी रोगों। "ऐसा कह कर उसने जंजीर खींच दी। ट्रेन में बैठे लोग पूछने लगे क़ी गाडी क्यों रोग दी? आपको मालूम है क़ी यहाँ सूचना है क़ी बिना किसी कारणवश गाडी रुकवाने पर दंड, सजा मिल सकती है। आपने गाडी क्यों रोक दी? उसने कहा, "जल्दी में में गाडी में चढ़ गया और मेरी पत्नी रह गयी इसलिये मैंने गाडी रुकवाई है।" उस बुजुर्ग ने सुन कर उसका हाथ पकड़ा और पुछा, क़ी "भाई बुरा न माना तो कहूं। स्टेशन पर तू मेरी टीका कर रहा था क़ी रामायण में ऐसा क्या लिखा है कि पढ़ते ही रहते हो। अब तुझे कहता हूँ क़ी यदी तुने एक बार रामायण को पढ़ा होता तो तुने जो भूल आज की है वह न करता। क्यों? तू बैठ गया और तेरी पत्नी स्टेशन पर ही रह गयी। इसका भी उत्तर रामायण में है। कहीं पर लिखा है क़ी केवट नाम के भील ने राम के चारण छुए और फिर नौका में बिठाया। तब सीता जे पहले बैठी और फिर राम जी बैठे। रामायण में कहा है क़ी कोई भी वहां में बैठना हो तो पहले पत्नी को बैठाना चाहिए बाद में पुरुष को बैठना चाहिए। तूने रामायण पढ़ी होती तो यह भूल न करता।
कम से कम व्यवहार के ऐसी कोई समस्या नहीं जिसका उत्तर रामायण न दे। इसलिये यह खाली कथा कहने की, कहानी की, इतिहास की खबर है। परन्तु उसके एक-एक पत्र, एक-एक प्रसंग और एक-एक चौपाई के पीछे हम सबके जीवन में आने वाली घटनाओं पर तुलसीदास जे ने प्रतिबिम्ब डाला है। उसके दर्शन करने के लिये हम दस दिन इकट्ठे होते हैं, नहीं तो किसी को भी समय नहीं है। यह कथा हमारी है। बेशक घटना त्रेतायुग में घटी हो। उस समय कपडे अलग प्रकार के पहनते होंगे। भाषा अलग होगी, रीति-रिवाज आदि में फर्क होगा, बरसों बीत गए। इसलिये परिवर्तन तो बहुत ही आया होगा। परन्तु अन्दर क़ी ओर जीवन क़ी जो घटनाएं हैं वह आज भी हम सब पर लागू होती है। ऊपर के आवरण बदल गए हैं। अंदर से सब वैसे का वैसा ही है, और उससे भी रामायण आसान अर्थ में कहूं तो सबका जीवन दर्शन है। राम कथा द्वारा दस दिन तक हमें अपने जीवन का निरंतर विचार करना है क़ी रामायण के किसी पत्र में मुझे अपना स्वरुप मालुम होगा कि रामायण का यह पत्र हमको स्पर्श करता है। और रामायण का कोई पात्र जब हम बनते हैं तब इतना विचार करना है कि रामायण के किसी पात्र में मुझे अपना स्वरुप दिखाई पड़ता है? कहीं पर हम केवट होंते, कहीं पर भील होंगे, कहीं पर तो हमको ऐसा मालूम होगा कि रामायण का यह पत्र हमको स्पर्श करता हैं। और रामायण का कोई पात्र जब हम बनते हैं तब इतना विचार करना है क़ी रामायण के पात्रों को कठिनाइयां आई तब उन्होंने कैसा बर्ताव किया? और मैं कैसे बर्ताव कर रहा हूँ। इसका हे चिंतन करना चाहिए। इसलिये हमारे जीवन क़ी कथा के अर्थ में हम आज क़ी रामायण की शुरुआत करते हैं। रामचरितमानस में लिखा है कि रामकथा को समझना हो तो जीवन में तीन वस्तुओं की जरुरत पड़ती है। अगर तीन वस्तुएं हमारे जीवन में इकट्ठी न हों तब रामचरितमानस समझ में नहीं आएगा। पहले श्रद्धा, फिर सत्संग और बाद में परमात्मा पर प्रेम होना चाहिए। श्रद्धा, सत्संग और ईष्ट प्रेम ये तीनों वस्तुएं जो मिलें तो रामायण समझ में आती है। ऐसा रामायण में लिखा है। जो तीन वस्तुएं न हों तो किसी भी संजोग में रामायण समझ में नहीं आ सकेगी।
रामनवमी के दिन तुलसी दास जी ने लिखना प्रारंभ किया और यह ग्रन्थ कब समाप्त हुआ इसकी तिथि तुलसीदास जी ने नहीं बताई है। एक मत कि पूरा ग्रन्थ लिख जाने के बाद तुलसी ने ने निर्णय किया कि इस ग्रन्थ को शिवजी को अर्पण कर दूं और तब काशी में भगवान् विश्वनाथ के चरणों में अर्पण करने का उन्होंने निश्चय किया। विद्वान् ने विरोध किया कि इस हिंदी भाषा में लिखे गए ग्रन्थ को हम स्वीकार नहीं करेंगे। संस्कृत में हो तो हम इसे शास्त्र की तरह प्रधानता देंगे। यह तो एकदम ग्रामीण भाषा में लिखा गया है। लोक कथा जैसा ही लगता है। आपने कितनी सीधी भाषा में इसे लिखा है। इसे हम स्वीकार नहीं करेंगे। वाद-विवाद चर्चा आदि होने के पश्चात यह निर्णय लिया गया कि भगवान् विश्वनाथ के चरणों में सबसे नीचे तुलसी जी का रामचरितमानस रखा जाए उसके ऊपर पुराण और उसके ऊपर उपनिषद उसके ऊपर संहिता और इन सब के ऊपर चारों वेद रखने में आये और दरवाजे बंद कर दिए जाएँ। यदि दूसरे दिन सब ग्रंथों के ऊपर रामचरितमानस हो तो हम इसे स्वीकृति देंगे। पंडितों का एस तरह का आग्रह तुलसीदास जी के लिये सबसे बड़ी परीक्षा थी। उन्होंने यह सब स्वीकार कर लिया। रामचरितमानस सबसे नीचे और उसके ऊपर भारतीय संस्कृति के सभी ग्रन्थ रखे गए सारी रात तुलसी जे ने सजल नेत्रों से राम भजन किया। इतिहास इस बात का साक्षी है कि जब दुसरे दिन विद्वान् लोग मन्दिर गए तो सबसे ऊपर रामचरितमानस था और उसके प्रथम पृष्ठ पर भगवान् शिवजी ने सही की थी। सत्यं शिवम् सुन्दरं। इतने शब्द रामचरितमानस को भगवान् शिव ने दिए। विद्वान् दंग रह गए इस दृश्य को देख करके तुलसी जी के चरणों में गिर पड़े। इस तरह तुलसी दास जी के ग्रन्थ को भगवान् शिव ने स्वीकृति दे दी। इस ग्रन्थ का विस्तार हुआ प्रचार हुआ। इतना बड़ा प्रमाण मिल जाने पर भी कुछ ईर्ष्यालु लोगों ने इसको नहीं माना। ईर्ष्या वाले पंडितों ने निर्णय किया कि तुलसी जी के पास एक ही प्रति हस्तलिखित है। अतः इसे चोरी करके जला दिया जाए। जिससे इसका प्रचार बंद हो जाए। परन्तु जब-जब चोर तुलसी जी क़ी कुतिया में रामचरितमानस चुराने गए तब-तब वे भाग गए। पंडितों ने चोरों से पूछा कि तुलसी जे के पास कोई शास्त्र नहीं है, आँखें बंद करके राम भजन करते हैं, और सो जाने के बाद भी आप रामचरितमानस क्यों नहीं चुरा सके। तब चोरों ने कहा कि हम जब-जब गए तब-तब एक कपिल महाकाल वानर उनके द्वार पर बैठा चौकसी कर रहा है, और यह चौकसी हनुमान महाराज करते थे। इस तरह तुलसी जी का रामचरितमानस चुराया नहीं जा सका और उन्हें उनकी शरण में जाना पडा। इस तरह रामायण का प्रचार और भी तीव्र गति से होने लगा। तुलसी जी के शिष्य गोपाल नन्द से किसी ने पूछा कि आप तुलसी जी के साथ रह रहे हैं तो इस रामायण में को अभूतपूर्व घटना घटी? तब गोपाल नन्द जी ने अपने महात्म्य में लिखा है कि एक घटना घटी है। उस समय काशी का राजा और द्रविड़ का राजा दोनों सेना सहित एक जगह इकट्ठे हुए। दोनों देश के राजा विहार के लिये निकले। दोनों की रानियाँ साथ थीं, जो गर्भवती थीं। जब वे दोनों अलग होते हैं तब ये कहते हैं कि यदि मेरे घर पुत्र हुआ आपकी पुत्री हुए या मेरे पुत्री हुई या आपके पुत्र हुआ तो हम दोनों समधी बन जायेंगे। हम आज से ही उनकी सगाई कर देते हैं। यदि दोनों के पुत्र और पुत्री हुए तो बात अलग है । इस तरह संकल्प कर के दोनों अलग हुए। समयोपरान दोनों के लडकियां हुए। उस समय ऐसा था कि लड़कियों का पैदा होना अशुभ मान जाता था। लडकी पैदा हो तो उसे दूध पीते करते थे। उसे मार डालते थे। अभी भी पुत्र उत्पन्न होता है तो थाली बजाते हैं। पुत्री के उत्पन्न होते ही सब सूना-सूना सा लगता है। द्रविड़ देश के रजा के यहाँ लडकी हुए। परन्तु उसकी रानी को हुआ क़ी लोग मुझे अपशकुन वाली मानेंगे कि लडकी का जन्म हुआ। अतः उसने यह बात जाहिर नहीं की। उसने दासी को भी सावधान कर दिया। उससे कहा कि मेरे पुत्र हुआ है। द्रविड़ राजा ने काशी नरेश को खबर भिजवाई। काशी नरेश के यहाँ लडकी हुई थी। यह सुन कर द्रविड़ रजा नरेश बहुत खुश हुआ। उसने अपने लड़के को देखने की इच्छा प्रकट की। पर राने ने कहा कि ज्योतिषी ने कहा कि पुत्र की शादी से पहले यदि पिता ने मुंह देखा तो मर जाएगा। इस तरह वर्षो बीत गए। शादी क़ी तैयारियां होनी शुरू हो गयी। यहाँ से बरात लेकर काशी नरेश के यहाँ राजकुमार को जाना था। वैसे वह थी तो राजकन्या। राजकुमार तो था नहीं। राजकुमार जैसी पोशाक पहन कर मुंह न दिखाई दे, इस प्रकार चेहरा ढक के अपनी लडकी राजकुमार है ऐसा मानकर रानी उसे ब्याहने ले गयी। लग्नमंडप में राजकुमार बनी राजकन्या बैठी थी कन्यादान के समय चार फेरे लेने की तैयारी थी। अठारह साल तक उसे छिपा कर रखा। ईश्वर की प्रेरणा से उसे अपनी भूल समझ में आए। यदि दोनी की शादी हो गयी तो इनका दाम्पत्य जीवन किस काम का? यह संसार में न घटने वाले घटना कहलाई जायेगी। राजा को एक अरफ ले जाकर राने ने क्षमा माँगी और कहा कि मुझे लोग अपशगुन वाली न समझें इसलिये मैंने पुत्र उत्पन्नं की घोषणा कर दी। अथारण साल तक आपसे छिपा कर रखा। रजा बोले, "अरे! देवी तुमने मुहे पहले यह बात क्यों नहीं बताए? हम राजपुरुष हैं हम लोगों को कैसे मुंह दिखाएंगे? काशी नरेश को क्या कहेंगे?" काशी नरेश समझ गया कि कुछ गड़बड़ी है? द्रविड़ ने नरेश से मिले और पूछा कि क्या बात है। उन्होंने सारे स्थिति बताई और कहा कि मेरी रानी ने यह कपट किया है। अब क्या करुं? मुझे पता भी नहीं था। काशी के राजा भी कठिनाए में पड़ गए। उन्होंने सोचा कि लोगों को पता चल जाएगो तो वे सोचेंगे कि रजा भी ऐसा करते हैं? दोनों ने निर्णय लिया कि हम छोड़ दें? समाज में मुंह नहीं दिखा सकेंगे फिर बाद में जो हो सो देखा जाएगा। शादी रूक गयी। किसी को पता नहीं कि क्या कठिनाइयाँ आईं? दोनों नरेश आत्महत्या करने बहार निकलते हैं। उस समय तुलसीदास जी हाथ में रामचरितमानस लेकर उनके पास से निकलते हैं। उस समय तुलसीदास जी भारत में प्रसिद्ध थे।दोनों राजाओं की नजर उन पर पडी और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। तुलसी जी ने पूछा, "सम्राटों, क्यों अकेले? न सेना, न संरक्षक, न घोडा-रथ? पैदल क्यों जा रहे हो? क्या है? उन्होंने कहा, "प्रभु हमारे जीवन में एक कठिनाई आई है।" "क्या?" तुलसी जी ने कहा। द्रविड़ नरेश ने कहा, "मेरे यहाँ पुत्री उत्पन्न हुई मेरी रानी ने कपट करके कहा कि पुत्र हुआ है। आज इस कन्या का कन्या के साथ विवाह हो रहा है। मंडप में रानी ने मुझे सब कुछ बताया। पहले मुझे मालूम नहीं था लेकिन अब यह झूठ कब तक छिपा रहेगा? और समाज को क्य मुंह दिखलायेंगे? इसलिये हम दोनों आत्महत्या करने जा रहे हैं।" तुलसी जी हंस पड़े। एक तो भूल कर चुके और दूसरी भूल करने जा रहे हो। जरा यह तो सोचो कि कितने पुण्यों के बाद भगवान् मनुष्य देह देता है। तुलसी जी ने अपनी चौपाई कही।
Posted by Udit bhargava at 4/01/2010 08:50:00 pm 0 comments
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