ऋग्वेद में लक्ष्मी की स्तुति बड़े विशिष्ट रूप में की गई है। निम्नांकित ऋचाओं से गाय के शुद्ध घी से नियमित हवन करने से अलक्ष्मी (अर्थात दुःख, दरिद्रता की देवी) की अकृपा प्राप्त होती है। इन ऋचाओं में अलक्ष्मी की अकृपा एवं लक्ष्मी की संपूर्ण कृपा की कामना की गई है। जिन व्यक्तियों के जीवन में धन प्राप्ति होकर भी सदैव कर्ज बना रहता है उनके लिए यह सर्वश्रेष्ठ एवं अतिउपयोगी है। जिन व्यक्तियों को धन कभी न रहा हो किंतु रोग आदि की वजह से अन्न न खा सकते हों उनके लिए भी यह सर्वाधिक उपयोगी है।
श्री सूक्त की ऋचाओं से नियमित हवन करने से विभिन्न कष्ट दूर होकर ऐश्वर्य व भोग की प्राप्ति होती है। अलक्ष्मी की अकृपा प्राप्त होने से एक ओर जहाँ दुःख दरिद्रता, रोग, कर्ज से मुक्ति मिलती है, वहीं दूसरी ओर लक्ष्मी की कृपा से भोग की प्राप्ति होती है।
श्रीसूक्तम
ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम्।
चंद्रां हिरण्यमणीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम्।
यस्यां हिरण्यं विंदेयं गामश्वं पुरुषानहम्॥
अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम्।
श्रियं देवीमुपह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम्॥
कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलंतीं तृप्तां तर्पयंतीम्।
पद्मे स्थितां पद्मवणा तामिहोपह्वये श्रियम्॥
चंद्रां प्रभासां यशसा ज्वलंतीं श्रियं लोके देवजुष्टामुदाराम्।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे॥
आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः।
तस्य फलानि तपसानुदन्तु या अंतरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः॥
उपैतु मां देवसखः कीतिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे॥
क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्।
अभूतिमसमृद्धि च सर्वां निर्णुद से गृहात्॥
गंधद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम्।
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोपह्वये श्रियम्।
मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि।
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः॥
कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम।
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम्॥
आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे।
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले॥
आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिंगलां पद्ममालिनीम्।
चंद्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह॥
आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम्।
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आवह ।
तां म आवह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं गावो दास्योऽश्वान् विंदेयं पुरुषानहम् ॥
यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् ।
सूक्तं पंचदशर्च च श्रीकामः सततं जपेत् ॥
॥ इति श्री सूक्तम् संपूर्णम् ॥
16 जनवरी 2010
॥वैभव प्रदाता श्री सूक्त॥
Labels: तंत्र-मंत्र-यंत्र
Posted by Udit bhargava at 1/16/2010 07:15:00 pm 0 comments
13 जनवरी 2010
रत्न विज्ञानं - रत्नों की उत्पत्ति
.
ऋग्वेद के प्रथम श्लोक में ही जो रत्न धात्तमम् शब्द आया है। उसका अर्थ आधिभौतिक के अनुसार अग्नि रत्नों या पदार्थों के धारक अथवा उत्पादक से है। अतः यह सुस्पष्ट है कि रत्नों की उत्पत्ति में अग्नि सहायक है तथा आधुनिक वैज्ञानिक भी इस बात को स्वीकार करते हैं कि अधिकांशतः रत्न किसी न किसी रूप में ताप प्रक्रिया अर्थात अग्नि के प्रभाव के कारण ही बने हैं।
जब विभिन्न तत्व रासायनिक प्रक्रिया के द्वारा आपस में मिलते हैं तब रत्न बनते हैं। जैसे स्फटिक, मणिभ, क्रिस्टल आदि। इसी रासायनिक प्रक्रिया के बाद तत्व आपस में एकजुट होकर विशिष्ट प्रकार के चमकदार आभायुक्त बन जाते हैं तथा कई अद्भुत गुणों का प्रभाव भी समायोजित हो जाता है। यह निर्मित तत्व ही रत्न कहलाता है, जो कि अपने रंग, रूप व गुणों के कारण मनुष्यों को अपनी तरफ आकर्षित करता है। यथा- रमन्ते अस्मिन् अतीव अतः रत्नम् इति प्रोक्तं शब्द शास्त्र विशारदैः॥
.
रत्न उत्पत्ति का आधुनिक इतिहासजैसा कि हमने पहले ही यह बात स्पष्ट कर दी है कि पृथ्वी के अंदर अग्नि के प्रभाव के कारण विभिन्न तत्व रासायनिक प्रक्रिया द्वारा रत्न बनते हैं। अतः यह सुविदित है कि रत्न विभिन्न मात्रा में विभिन्न रासायनिक यौगिक मेल से बनता है। मात्र किसी एक रासायनिक तत्व से नहीं बनता। स्थान-भेद से विविध रासायनिक तत्वों के संयोग के कारण ही रत्नों में रंग, रूप, कठोरता व आभा का अंतर होता है।
.
खनिज रत्नों में मुख्यतः निम्न तत्वों का संयोग होता है-कार्बन, अल्यूमीनियम, बेरियम, बेरिलियम, कैल्शियम, ताम्बा, हाइड्रोजन, लोहा, फासफोरस, मैंगनीज, पोटेशियम, गंधक, सोडियम, टिन, जस्ता, जिर्केनियम आदि।
.
.
इन्हें भी देखें:-
.
रत्न चिकित्सारत्नों की श्रेष्ठता
नवग्रह रत्न एवं समयावधि
रत्नों के प्रकार
संयुक्त रत्न पहनना श्रेष्ठ फलदायी
रत्नों के प्राप्ति स्थान
धन देता है श्वेत मोती
गुरु को मनाएये विवाह शीघ्र होगा
भाग्यवर्द्धक रत्न
गार्नेट रत्न पहने चिंता मिटाए
ग्रह शांति के लिये जडी धारण करें
कोई भी रत्न आजीवन धारण किये जाने पर हानिकारक हो सकते हैं
समान राशि पर समान रत्न धारण अनुचित
नीम हकीमों से सावधान - रत्न धारण
ताबीज भी निष्क्रिय करते हैं - रत्नों के प्रभाव को
महिलाएं गहने जानकारी लेकर ही पहनें
Labels: ज्योतिष
Posted by Udit bhargava at 1/13/2010 08:35:00 am 0 comments
रत्नों के प्राप्ति स्थान
रत्न भी पत्थर ही होते हैं। अतः रत्न पुरानी व कठोर पत्थरों की चट्टानों में प्राप्त होते हैं। इसी कारण ये विशेषकर पर्वतीय प्रदेशों में पाए जाते हैं। कभी-कभी वर्षा ऋतु में पानी की तेज धारा से पत्थर टूट-टूट कर नदी नालों में लुढ़कते चले जाते हैं।
जलधारा की गति कम होने पर बड़े-बड़े पत्थर तो रुक जाते हैं, परन्तु हल्के पत्थर बहते जाते हैं। इन्हीं पत्थरों में चिपके रत्नों वाले पत्थर कंकड़ों व रेत में बिखर जाते हैं। इस तरह प्राप्त रत्न उच्च कोटि का होता है, कारण कि इन्हें टूटने-फूटने का भय नहीं होता है तथा इस पर चिपके अन्य पदार्थ पानी के प्रवाह में अलग हो जाते हैं।
इस प्रकार के रत्न अफ्रीका महाद्वीप में बेलजियम, कांगो, घाना, दक्षिण अफ्रीका, सिएरा लियोन में पाए जाते हैं तथा अफ्रीका के अतिरिक्त ब्राजील (दक्षिण अमेरिका) श्याम, बर्मा, भारत, श्रीलंका, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, रूस आदि में पाए जाते हैं।
Posted by Udit bhargava at 1/13/2010 08:34:00 am 0 comments
सृष्टि कैसे बनी?
खोजते-खोजते वेदांत को जानने वाले तत्ववेत्ता महापुरुष आखिर इस बात पर सहमत हुए कि यह सृष्टि ईश्वर का विवर्त है। 'विवर्तवाद' अर्थात् अपनी सत्ता ज्यों-की-त्यों रहे और उसमें यह सृष्टि प्रतीत होती रहे। जैसे तुम्हारी आत्मा ज्यों-की-त्यों रहती है और रात को उसमें सपना प्रतीत होता है - लोहे की रेलगाड़ी, उसकी पटरियाँ और घूमने वाले पहिए आदि ।
तुम चेतन हो और जड़ पहिए बना देते हो, रेलगाड़ी बना देते हो, खेत-खलिहान बना देते हो। रेलवे स्टेशनों का माहौल बना देते हो। सपने में 'अजमेर का मीठा दूध पी ले भाई !... आबू की रबड़ी खा ले... मुंबई का हलुवा... नडियाद के पकौड़े खा ले...'- सारे हॉकर, पैसेंजर और टीटी भी तुम बना लेते हो। तुम हरिद्वार पहुँच जाते हो। 'गंगे हर' करके गोता मारते हो। फिर सोचते हो जेब में घड़ी भी पड़ी है, पैसे भी पड़े हैं। घड़ी और पैसे की भावना तो अंदर है और घड़ी व पैसे बाहर पड़े हैं। पुण्य प्राप्त होगा यह भावना अंदर है और गोता मारते हैं यह बाहर है। तो सपने में भी अंदर और बाहर होता है। तुम्हारी आत्मा के विवर्त में अंदर भी, बाहर भी बनता है, जड़ और चेतन भी बनता है फिर भी आत्मा ज्यों-की-त्यों रहती है।
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 1/13/2010 08:23:00 am 0 comments
स्वर्ण-युग नहीं है पीछे
कहीं पीछे कुछ स्वर्ण नहीं हो गए हैं। कुछ अच्छे आदमी हुए हैं। स्वर्ण-युग तो उस दिन होगा जिस दिन सारे लोग बहुत अच्छे होंगे। वह भविष्य में हो सकता है। वह पीछे नहीं हुआ है। पुरानी से पुरानी किताब देखें। वह किताब भी यह नहीं कहती है कि आजकल के लोग अच्छे हैं।
वह किताब कहती है- पहले के लोग अच्छे थे। छः हजार वर्ष पुरानी किताब भी यही कहती है कि पहले के लोग अच्छे थे। तब जरा शक होता है, ये पहले के लोग कब थे? ये थे कभी या कुछ अच्छे लोगों की याद को आधार बनाकर उन्हें अच्छा कहा गया?
अगर महावीर की शिक्षाएँ उठाकर देखें, तो महावीर क्या समझाते हैं, सुबह से साँझ तक? चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, दूसरे की स्त्री को मत भगाओ, हिंसा मत करो। अगर लोग अच्छे थे, तो महावीर यह किसको समझा रहे थे? बुद्ध भी यही समझाते हैं। क्राइस्ट भी यही समझाते हैं। दुनिया के सारे महापुरुष सुबह से शाम तक एक ही काम करते हैं- चोरी मत करो, हिंसा मत करो, बेईमानी मत करो, व्यभिचार मत करो। किसको समझाते हैं ये चौबीस घंटे? अगर लोग अच्छे थे, तो समझाने की कोई जरूरत न थी।
लेकिन लोग उलटे रहे होंगे। चोरों को ही समझाना पड़ता है-चोरी मत करो। बेईमानों को ही समझाना पड़ता है- बेईमानी मत करो। हत्यारों को ही समझाना पड़ता है- हिंसा बुरी है, अहिंसा परम धर्म है। सिर्फ हिंसकों को ही समझाना पड़ता है कि अहिंसा परम धर्म है।ये सारी शिक्षाएँ बताती हैं कि समाज कैसे लोगों से गठित था, कैसे लोग थे।
महावीर की शिक्षाएँ उठाकर देखें, तो महावीर क्या समझाते हैं, सुबह से साँझ तक? चोरी मत करो, बेईमानी मत करो, दूसरे की स्त्री को मत भगाओ, हिंसा मत करो। अगर लोग अच्छे थे, तो महावीर यह किसको समझा रहे थे? बुद्ध भी यही समझाते हैं। क्राइस्ट भी यही समझाते है ।
हमारी सारी शिक्षाएँ बताती हैं कि समाज अच्छा नहीं रहा है। समाज अच्छा हो सकता है, लेकिन समाज अपने आप अच्छा नहीं हो सकता है। समाज बुरा है, तो हमारे कारण है और समाज अगर अच्छा होगा, तो हमारे कारण होगा। हम कुछ करेंगे तो होगा।
लेकिन भारत मानता है कि हमारे किए तो कुछ होता नहीं, सब भगवान करता है। इस बात ने जितना हमें नुकसान पहुँचाया है, उतना किसी और बात ने नहीं। क्योंकि जिस आदमी को, जिस समाज को यह ख्याल हो जाता है कि सब भगवान करता है, वह समाज सबकुछ बंद कर देता है।
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 1/13/2010 08:20:00 am 0 comments
तप करें कर्मों का परिशोधन
परिशोधन तप से होता है। त्याग मार्ग पर आने वाली आत्मा को ज्ञान की आवश्यकता होती है। आत्मा के लिए तप आवश्यक है। आत्मा का सौंदर्य तप है।
उक्त विचार उपाध्याय मूलमुनिजी ने अपने प्रवचन के दौरान व्यक्त किए। उन्होंने कहा कि ज्ञान दर्शन और चारित्र तप के द्वारा मोक्ष के मार्ग को प्राप्त किया जा सकता है। गुरुदर्शन हमारे मन में विश्वास पैदा करता है। तप से उपद्रव शांत होते हैं। तप से तीर्थंकर गोत्र का बंध होता है। तप करना हमारी संस्कृति है।
हमारी आत्मा द्वारा किया गया थोड़ा तप भी हमें निगोद एवं नरक से मुक्ति दिलाती है। आत्मा का प्रबल दुश्मन कषाय ही है, जो आत्मगुणों को हनन कर रहे हैं। इन कषायों में प्रमुख है क्रोध। कषाय विष के समान है और भवों को बिगाड़ने वाला है। क्रोध की प्रबलता के कारण आज पग-पग पर अशांति व्याप्त है। इसको शांत करने के लिए क्षमारूपी अस्त्र का उपयोग करना ही पड़ेगा। हमारे मन पर विजय प्राप्त करने के लिए अपने इंद्रियों को वश में रखना अनिवार्य है।
इंद्रियों के ऊपर विजय प्राप्त करने के लिए रसना को काबू में रखना चाहिए। जो व्यक्ति रसना जीभ को वश में ले लेता है उसके लिए संसार पार करना आसान हो जाता है। अच्छा होगा कि हम राग-द्वेष और क्रोध को भूलाकर हमारी आत्मा को तप में लगाएँ तो ईश्वर द्वारा दिया गया हमारा यह जन्म सफल हो जाएगा।
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 1/13/2010 08:15:00 am 0 comments
विज्ञान और धर्म का समन्वय
वह कहानी आपने सुनी होगी जब जंगल में आग लग गई थी तो एक लंगड़ा और एक अंधा था। वो दोनों बच के कैसे निकले? अंधा चल सकता था लेकिन उसे दिखाई नहीं देता आज हमारी स्थिति भी वैसी ही है।
विज्ञान और धर्म का एक समन्वय चाहिए। संसार की सफलता और भीतर की शांति इनका संयोग चाहिए वरना हम बड़े खतरे की स्थिति में हैं। अगर विज्ञान जैसा बढ़ता जा रहा है तो बिल्कुल अंधा है वह। चलने की ताकत उसके पास है, वो तरक्की करता जा रहा है लेकिन वह गड्ढे में जाकर गिरने वाला है उसको ये भी नहीं पता।
अगर थर्ड वर्ल्ड वार हुआ
तो आखिरी वार होगा, उसके बाद कोई बचेगा नहीं लड़ने के लिए। धर्म अकेला लंगड़ा है। उसको दिशा तो दिखाई देती है कि उसको कहाँ जाना है, कैसे जाना है लेकिन वह चल नहीं पाता। अगर इन दोनों में धर्म जल्दी ही एक संतुलन नहीं बना और विज्ञान में या संक्षेप में कह लें कि पूरब और पश्चिम में या हमारे बाहरी जीवन और आंतरिक जीवन का कह लें अगर ये संतुलन नहीं बना तो मानवता गिरने के करीब है।
अंधा जानता था कि जाना कहाँ है और लंगड़े को दिखाई देता था मगर वह चल नहीं सकता था तो कैसे जाएँ। और फिर संयोग बना, उनमें समझ डेवलप हुई। अंधे ने लंगड़े को अपने कंधे पर बिठा लिया, लंगड़ा राह दिखाता गया और अंधा चलता गया तब दोनों जंगल की आग से बाहर हो गए। आज हमारी स्थिति भी वैसी ही है। विज्ञान और धर्म का एक समन्वय चाहिए।
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 1/13/2010 08:12:00 am 0 comments
यक्ष-प्रश्न की युगीन व्याख्या
महाभारत में एक कथा आती है। अज्ञातवास के दौरान पांडवों को घूमते हुए प्यास लगी। नकुल पानी ढूँढते-ढूँढते जलाशय के पास पहुँचे। जैसे ही वे पानी पीने को उद्यत हुए, एक यक्ष ने उन्हें रोक दिया और कहा कि मेरे प्रश्नों का उत्तर देने के बाद ही तुम पानी पी सकते।
महाभारतकालीन यक्ष-युधिष्ठिर संवाद के प्रश्नों के उत्तर की प्रासंगिकता उस युग की तुलना में आज कहीं अधिक है। स्थायित्व या सिद्धांतवादिता को लोगों ने हठधार्मिता का रूप दे दिया है, जबकि संकल्प की दृढ़ता या स्थायित्व से आशय अपने कर्तव्य के प्रति दृढ़ता से है। उसे भौतिक सुख-समृद्धि से जोड़ना गलत है। धैर्य को लेकर भी समाज में अनेक गलत धारणाएँ प्रचलित हैं। हाथ पर हाथ धरे निठल्ले और आलसी बनकर अवसर की प्रतीक्षा करना धैर्य का पर्याय कभी नहीं हो सकता है। मनुष्य द्वारा श्रेष्ठ कार्यों के प्रति सक्रिय, तत्पर और आतुर बने रहकर अपनी समस्त इन्द्रियों पर अंकुश पाकर सदाचार का जीवन व्यतीत करना ही वास्तव में धैर्य है। शास्त्रों और साधु-महात्माओं के प्रवचनों में पवित्र नदियों में स्नान की महिमा का बढ़-चढ़कर बखान किया गया है। लेकिन जब तक हमारे मन की मलीनता नहीं मिटती, तब तक बड़ी से बड़ी नदी में किया गया स्नान भी पूर्ण फलदायी नहीं होगा। अतः जिसने अपने मन को ऊँच-नीच, ईर्ष्या-द्वेष, तेरा-मेरा, बड़ा-छोटा आदि के भेद से पूरी तरह मुक्त कर गंगाजल की तरह पवित्र बना लिया, वह भले ही सौ दिन से नहीं नहाया हो, तब भी उसे सबसे पवित्र इंसान माना जाएगा। दान के बारे में भी लोगों को कई तरह की गलतफहमियाँ हैं। जो सक्षम हैं, वे मुट्ठी-दो मुट्ठी दान कर दाता भाव के अभिमान से चूर हो फूले नहीं समाते हैं।
Labels: प्रवचन
Posted by Udit bhargava at 1/13/2010 08:05:00 am 0 comments
12 जनवरी 2010
आपको मिलेगा भगवान ध्यान का लाभ
- श्री भगवान को प्रेम से जगाओ आपका भाग्य जागेगा।
- श्री भगवान को स्नान कराओ तो आपके सब पाप धुल जाएँगे।
- श्री भगवान को चरणामृत प्रेम से पान कराओ आपकी मनोवृत्ति बदल जाएगी।
- श्री भगवान को तिलक लगाओ आपको सर्वत्र सम्मान मिलेगा।
- श्री भगवान के चरणों का तिलक स्वयं भी लगाओ आपका मन शांत होगा।
- श्री भगवान को भोग लगाओ आपको संसार के सभी भोग मिलेंगे।
- श्री भगवान का प्रसाद स्वयं भी पाओ, आप निष्पाप हो जाओगे।
- श्री भगवान के सम्मुख दीप जलाओ आपका जीवन प्रकाशवान होगा।
- श्री भगवान को धूप लगाओ आपके दुख के बादल स्वत: छट जाएँगे।
- श्री भगवान को पुष्प अर्पित करो आपके जीवन की बगिया महकेगी।
- श्री भगवान का भजन-पाठ करो आपका यश बढ़ेगा।
- श्री भगवान को प्रणाम करो संसार आपके आगे झुकेगा।
- श्री भगवान के आगे घंटनाद करो आपकी दुष्प्रवृत्तियाँ दूर होंगी।
- श्री भगवान के आगे शंखनाद करो आपकी काया निरोगी रहेगी।
- श्री भगवान को प्रेम से शयन कराओ आपको चैन की नींद आएगी।
- श्री भगवान के दर्शन करने नित्य मंदिर जाओ आपके दुख में प्रभु दौड़े चले आएँगे।
- श्री भगवान को अर्पण कर ही वस्तु का उपभोग करो आपको परमानंद मिलेगा।
- श्री भगवान को लाड़-प्यार से खिलाओ संसार आप पर रिझेगा।
- श्री भगवान से ही माँगो जो चाहोगे वो आपको मिलेगा। (अन्य से नहीं)
- श्री भगवान का प्रसाद मान सुख-दुख भोगो आप सदा सुखी रहेंगे।
- श्री भगवान का ध्यान करो प्रभु अंत समय तक आपका ध्यान रखेंगे।
.
.
इन्हें भी देखिएं :-
.
ब्रह्म मूहर्त क़ी महत्ता
विवाह
यज्ञोपवीत
आरती क्यों और कैसे ?
विष्णु पुराण
तीस दिनी धनुर्मास महोत्सव
पितृ कौन, उनकी पूजा आवश्यक क्यों?
सामाजिक समरसता का प्रतीक दशहरा
साधना रहस्य
हिंदू 'पंचांग' की अवधारणा
दशहरे के विविध रंग - देश के विभिन्न हिस्सों से
दशहरा या विजयादशमी
वेदों का इतिहास जानें
हिन्दू 'पंचांग' की अवधारणा
कर्म काण्ड से होती है मन क़ी शुद्धि
मूहर्त : क्या है इसकी उपयोगिता
यमराज : धर्मराज
माता-पिता क़ी सेवा सबसे बड़ा धर्म
अरण्य संस्कृति का प्रतीक : कल्पवास
प्रार्थना में होती है बड़ी शक्ति
अमृत पर्व पर कुम्भ का महत्व
रामायण जी का महात्म्य
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 11:24:00 pm 0 comments
त्याग के युग पुरुष : तेग बहादुर साहब
'धरम हेत साका जिनि कीआ/सीस दीआ पर सिरड न दीआ।'
इस महावाक्य अनुसार गुरुजी का बलिदान न केवल धर्म पालन के लिए नहीं अपितु समस्त मानवीय सांस्कृतिक विरासत की खातिर बलिदान था। धर्म उनके लिए सांस्कृतिक मूल्यों और जीवन विधान का नाम था। इसलिए धर्म के सत्य शाश्वत मूल्यों के लिए उनका बलि चढ़ जाना वस्तुतः सांस्कृतिक विरासत और इच्छित जीवन विधान के पक्ष में एक परम साहसिक अभियान था।
आततायी शासक की धर्म विरोधी और वैचारिक स्वतंत्रता का दमन करने वाली नीतियों के विरुद्ध गुरु तेग बहादुरजी का बलिदान एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक घटना थी। यह गुरुजी के निर्भय आचरण, धार्मिक अडिगता और नैतिक उदारता का उच्चतम उदाहरण था। गुरुजी मानवीय धर्म एवं वैचारिक स्वतंत्रता के लिए अपनी महान शहादत देने वाले एक क्रांतिकारी युग पुरुष थे।
विश्व इतिहास में धर्म एवं मानवीय मूल्यों, आदर्शों एवं सिद्धांत की रक्षा के लिए प्राणों की आहुति देने वालों में गुरु तेग बहादुर साहब का स्थान अद्वितीय है।
गुरुजी ने धर्म के सत्य ज्ञान के प्रचार-प्रसार एवं लोक कल्याणकारी कार्य के लिए कई स्थानों का भ्रमण किया। आनंदपुर से कीरतपुर, रोपण, सैफाबाद के लोगों को संयम तथा सहज मार्ग का पाठ पढ़ाते हुए वे खिआला (खदल) पहुँचे। यहाँ से गुरुजी धर्म के सत्य मार्ग पर चलने का उपदेश देते हुए दमदमा साहब से होते हुए कुरुक्षेत्र पहुँचे। कुरुक्षेत्र से यमुना किनारे होते हुए कड़ामानकपुर पहुँचे और यहाँ साधु भाई मलूकदास का उद्धार किया।
यहाँ से गुरुजी प्रयाग, बनारस, पटना, असम आदि क्षेत्रों में गए, जहाँ उन्होंने लोगों के आध्यात्मिक, सामाजिक, आर्थिक, उन्नयन के लिए कई रचनात्मक कार्य किए। आध्यात्मिक स्तर पर धर्म का सच्चा ज्ञान बाँटा। सामाजिक स्तर पर चली आ रही रूढ़ियों, अंधविश्वासों की कटु आलोचना कर नए सहज जनकल्याणकारी आदर्श स्थापित किए। उन्होंने प्राणी सेवा एवं परोपकार के लिए कुएँ खुदवाना, धर्मशालाएँ बनवाना आदि लोक परोपकारी कार्य भी किए। इन्हीं यात्राओं के बीच 1666 में गुरुजी के यहाँ पटना साहब में पुत्र का जन्म हुआ। जो दसवें गुरु- गुरु गोबिन्दसिंहजी बनें।
गुरुजी नित्य प्रति आनंदपुर साहब में आध्यात्मिक आनंद बाँटते, मानव मात्र में नैतिकता, निडरता तथा आध्यात्मिक जागृति का संदेश देते थे। आनंदपुर वस्तुतः आनंदधाम ही था। यहाँ पर सभी लोग वर्ण, रंग, जाति, संप्रदाय के भेदभाव के बिना समता, समानता एवं समरसता का अलौकिक ज्ञान प्राप्त करते थे। गुरुजी शांति, क्षमा, सहनशीलता की मूर्ति थे।
उन्होंने सदा प्रेम, एकता, भाईचारे का संदेश दिया। किसी ने गुरुजी का अहित करने की कोशिश भी की तो उन्होंने अपनी सहनशीलता, मधुरता, सौम्यता से उसे परास्त कर दिया। गुरुजी की मान्यता थी कि मनुष्य को किसी को डराना भी नहीं चाहिए और न किसी से डरना चाहिए। वे अपनी वाणी में उपदेश देते हैं 'भै काहू को देत नहि'। नहि भय मानत आन।' वे बाल्यकाल से ही सरल, सहज, भक्ति-भाव वाले कर्मयोगी थे। उनकी वाणी में मधुरता, सादगी, सौजन्यता एवं वैराग्य की भावना कूट-कूटकर भरी थी। उनके जीवन का प्रथम दर्शन ही था कि धर्म का मार्ग सत्य का मार्ग है और सत्य की सदैव विजय होती है।
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 11:19:00 pm 0 comments
वाहो वाहो गोबिंदसिंह !
अगर आपको पिता के रूप में देखूँ तो भी आपके जैसा महान पिता कोई नहीं जिन्होंने खुद अपने बेटों को शस्त्र दिए और कहा कि जाओ मैदान में दुश्मन का सामना करो और शहीदी जाम को पिओ।
अगर आपको लिखारी के रूप में देखा जाए तो आप धन्य हैं। आपका दसम ग्रंथ, आपकी भाषा, आपकी इतनी ऊँची सोच को समझ पाना आम बात नहीं है।
अगर आपको एक योद्धा के रूप में देखें तो हैरानी होती है कि आपने अपने हर तीर पर एक तोला सोना लगवाया हुआ था। जब इस सोने का कारण आपसे सिखों ने पूछा कि मरते तो इससे दुश्मन होते है फिर ये सोना क्यूँ? तो आपका उत्तर था कि मेरा कोई दुश्मन नहीं है। मेरी लड़ाई जालिम के जुल्म के खिलाफ है। इन तीरों से जो कोई घायल होंगे वो इस सोने की मदद से अपना इलाज करवाकर अच्छा जीवन व्यतीत करें और अगर उनकी मौत हो गई तो उनका अंतिम संस्कार हो सके।
अगर एक त्यागी के रूप में आपको देखा जाए तो आपने आनंदपुर के सुख छोड़, माँ की ममता, पिता का साया, बच्चों के मोह को आसानी से धर्म की रक्षा के लिए त्याग दिया।
आपके जैसा गुरु भी कोई नहीं जिसने अपने को सिखों के चरणों में बैठकर अमृत की दात मँगाई और वचन किया कि मैं आपका सेवक हूँ जो हुकुम दोगे मंजूर करूँगा। समय आने पर आपने सिखों के हुकुम की पालना भी की।
आपने अपने जीवन का हर पल परोपकार में व्यतीत किया। आपके जितने गुणों का बखान किया जाए वो कम ही है। मैं बस इतना कहना चाहूँगी कि 'जैसा तू तैसा तू ही क्या किछ उपमा दी जें।'
त्याग के युग पुरुष : तेज बहादुर साहब
अलौकिक कृति 'जपुजी'
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 11:08:00 pm 0 comments
मोटापे का दुश्मन सत्तू
सामने आते हैं। इनमें भुने हुए चने से लेकर सिंके हुए परमल तक कई अल्पाहार हैं। इनमें सत्तू बेजोड़ है।
आयुर्वेद में तीन उपस्तंभ- आहार, निद्रा और ब्रह्मचर्य कहे गए हैं। इनके सम्यक प्रयोग से ही शरीर स्वस्थ रहता है। इसमें प्रमुख स्थान आहार का है। आहार शरीर के पोषण के साथ-साथ स्वस्थ भी रखता है। यही वजह है कि आहार चिकित्सा का साधन भी है। आहार के भी दो हिस्से हैं एक पूर्ण और दूसरा अल्पाहार।
अल्पाहार में सत्तू का प्राचीन काल से मुख्य स्थान रहा है। यह शरीर के पोषण के साथ-साथ मोटापा और डायबिटीज को नियंत्रित रखता है। मौजूदा समय में सत्तू की उपयोगिता भले ही महत्वपूर्ण हो, लेकिन इसके चाहने वाले कम होते जा रहे हैं। पीत्जा, बर्गर के युग में अल्पाहार के तौर पर सत्तू की कल्पना भी बेजा नजर आती है। सत्तू इंडियन फास्ट फूड है, जो तत्काल शक्ति प्रदान करता है।
इसका सेवन इतना आसान है कि कहीं भी किसी भी परिस्थिति में इसे खाया जा सकता है। सत्तू की आयुर्वेदिक परिभाषा के अनुसार किसी भी धान्य को भाड़ में भूनकर तथा पीसकर सत्तू बनाया जा सकता है। इसमें गेहूँ, जौ, चना एवं चावल आदि शामिल हैं।
सत्तू चूँकि धान्य से तैयार किया जाता है इसलिए इसमें रेशे, कार्बोहाईड्रेट्स, प्रोटीन, स्टार्च तथा खनिज पदार्थ होते हैं। धान्यों को भूनने से सत्तू में लघुता आती है, जिससे पाचन आसान हो जाता है। मोटापे और डायबिटीज को नष्ट करने में सत्तू सहायक होता है।
मोटापे में भूख लगने पर जौ एवं चने से निर्मित सत्तू का सेवन करने पर भूख तो शांत होती ही है साथ ही लंबे समय तक क्षुधा शांत रहती है। साधारणतया सत्तू में गुड़ या शक्कर पानी में घोलकर सेवन किया जाता है। डायबिटीज के रोगी चाहें तो गुड़ या शक्कर के स्थान पर नमक भी डालकर स्वादिष्ट बना सकते हैं।
जौ का सत्तू
जौ से बने सत्तू पाचन में हल्के होते हैं तथा शरीर को छरहरा बना देते हैं। जल के साथ घोलकर पीने से बलदायक मल को प्रवृत्त करने वाले, रुचिकारक, श्रम, भूख एवं प्यास को नष्ट करने वाले होते हैं। जो लोग प्रतिदिन धूप में अत्यधिक थकाने वाला श्रम करते हैं उन्हें सत्तू का प्रयोग करना श्रेष्ठ होता है। पसीना जिन्हें अधिक आता है उनके लिए भी इसका प्रयोग बेहतर माना गया है।
सावधानी:
*भोजन के बाद कभी भी सत्तू का सेवन ना करें।
* अधिक मात्रा में सत्तू ना खाएँ।
* रात्रि में सत्तू ना खाएँ।
* पानी अधिक मात्रा में ना मिलाएँ।
*सत्तू सेवन के बीच में पानी ना पिएँ।
Labels: आहार
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 10:54:00 pm 0 comments
नवरात्रि में ले सकते हैं फास्ट फूड
Labels: आहार
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 10:47:00 pm 0 comments
सावधान! रंगीन खाद्य सामग्री से
खाद्य सामग्रियों में मिलावट
खाद्य सामग्रियों में मिलावट अर्से से हो रही है। सेहत पर इसका सीधा असर पड़ता है। सरकार ने इन मिलावट को रोक ने के भरसक उपाय किए हैं। लेकिन वे पर्याप्त साबित नहीं हो रहे हैं। घी दूध, मसालों के अलावा अब तो सब्जियों में भी घातक रसायनों का प्रकोप बढ़ता ही जा रहा है। लौकी का आकार रातों रात केवल ऑक्सीटोसीन के इंजेक्शन से ही बढ़ रहा है।
त्योहारों के मौसम में नकली मावा बेचा जाना अब आए दिन की परेशानी हो गई है। काली मिर्च में पपीते के बीज, धनिये में लकड़ी का बुरादा या घोड़े की लीद और लाल मिर्च में रंग मिला देते हैं। मिलावटी खाद्यान्नों के कारण हर साल लाखों लोग विकलांग और शारीरिक रूप से विकृत हो जाते हैं।
किस तरह होती है मिलावट
चाय की पत्ती में रंगीन बुरादा, काजू के छिलके तथा इस्तेमाल हो चुकी चाय की पत्तियों का सम्मिश्रण किया जाता है। पपीते के पत्तों को सुखाकर इसमें मिलाया जाता है। इसका लंबे समय तक इस्तेमाल स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है एवं कैंसर जैसे कर्कट रोग हो सकते हैं।
अरहर दाल तथा बेसन में तेवड़ा जिसे केसरी या खेसरी भी कहा जाता है, काफी मात्रा में मिलाया जाता है, जो कि स्वास्थ्य के लिए अत्यंत हानिकारक है। इससे अंगों को लकवा मार सकता है, अकड़न एवं कंपकंपी के दौरे पड़ सकते हैं।
खाद्य रंग : खाद्य पदार्थों में रंगों की भूमिका महत्वपूर्ण है। मिठाइयों के अतिरिक्त रंगों का उपयोग आइसक्रीम, शीतलपेय, आइसकेंडी, मुरब्बे, गोली-चॉकलेट आदि में किया जाता है। आमतौर पर दो प्रकार के रंगों का उपयोग किया जाता है। प्राकृतिक और कोलतार।
कोलतार रंग मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं। अम्लीय और क्षारीय। केवल कोलतार रंगों को खाद्य पदार्थों में मिलाने की अनुमति दी गई है। इनमें लाल, पीला, नीला तथा हरा रंग महत्वपूर्ण है, शेष अम्लीय तथा सभी क्षारीय कोलतार रंगों का खाद्य वस्तुओं में मिलाया जाना पूर्णतः वर्जित है, क्योंकि वे स्वास्थ्य के लिए हानिप्रद है।
पिसी हुई लाल मिर्च में घुलनशील कोलतार रंग जैसे सूडान 293 की भी मिलावट की जाती है ताकि बाहरी चीजों जैसे कूड़ा-कंकड़, डंठल, बुरादा आदि की मिलावट तथा मिर्च की हल्की किस्म को भी छिपाया जा सके। अखाद्य पीले रंग की मिलावटयुक्त खाद्य पदार्थों के सेवन से अतिसार व बुद्धि का ह्रास होता है, खाद्य तेलों में व्हाइट आइल और पेट्रोलियम पदार्थों की मिलावट से कैंसर हो सकता है। हल्दी जैसे स्वास्थ्यवर्धक मसाले में लेड क्रोमेट मिलाया जाता है जिससे रक्तअल्पता, असमय गर्भपात, लकवा आदि का खतरा होता है।
क्या कर सकते हैं आप?
कोई भी नागरिक खाद्य सामग्री के नमूने को 'पब्लिक हैल्थ लैब' में ले जाकर जाँच करवा सकता है। 'पब्लिक हैल्थ लैब' सभी बड़े शहरों में है जहाँ खाद्य सामग्री परीक्षण के लिए भेजी जा सकती है।
Labels: आहार
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 10:40:00 pm 0 comments
सेहत के लिए लाभकारी शाकाहार
भारतीय संस्कृति में हमेशा से शाकाहार की महिमा पर जोर दिया गया है, लेकिन वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं के कई अध्ययनों के बाद शाकाहार का डंका अब विश्व भर में बजने लगा है। शरीर पर शाकाहार के सकारात्मक परिणामों को देखते हुए दुनिया भर में लोगों ने अब माँसाहार से किनारा करना शुरू कर दिया है।विश्व भर के शाकाहारियों को एक स्थान पर लाने और खुरपका-मुँहपका तथा मैड काओ जैसे रोगों से लोगों को बचाने के लिए उत्तरी अमेरिका के कुछ लोगों ने 70 के दशक में नॉर्थ अमेरिकन वेजिटेरियन सोसाइटी का गठन किया।सोसाइटी ने 1977 से अमेरिका में विश्व शाकाहार दिवस मनाने की शुरूआत की। सोसाइटी मुख्य तौर पर शाकाहारी जीवन के सकारात्मक पहलुओं को दुनिया के सामने लाती है। इसके लिए सोसाइटी ने शाकाहार से जुड़े कई अध्ययन भी कराए हैं। दिलचस्प बात यह है कि सोसाइटी के इस अभियान के शुरू होने के बाद से अकेले अमेरिका में लगभग 10 लाख से ज्यादा लोगों ने माँसाहार को पूरी तरह त्याग दिया है।विश्व शाकाहार दिवस के अवसर पर आहार विशेषज्ञ डॉ. अमिता सिंह ने बताया कि हाल के एक शोध के मुताबिक शाकाहारी भोजन में रेशे बहुतायत में पाए जाते हैं और इसमें विटामिन तथा लवणों की मात्रा भी अपेक्षाकृत ज्यादा होती है।डॉ. अमिता ने बताया कि ऐसे भोजन में पानी की मात्रा ज्यादा होती है, जिससे मोटापा कम होता है। माँसाहार की तुलना में शाकाहारी भोजन में संतृप्त वसा और कोलेस्ट्रॉल की मात्रा कम होती है, जिससे यह हृदय रोगों की आशंका कम करता है। आहार विशेषज्ञ डॉ. अंजुम कौसर ने बताया कि अनाज, फली, फल और सब्जियों में रेशे और एंटीऑक्सीडेंट ज्यादा होते हैं, जो कैंसर को दूर रखने में सहायक होते हैं।डॉ. कौसर ने बताया कि उनके पास कई ऐसे मरीज आए, जिन्होंने माँसाहार त्यागने के बाद अपने स्वास्थ्य में कई सकारात्मक परिवर्तन देखे।फिजीशियन डा. केदार नाथ शर्मा ने बताया कि बहुत से लोग गोश्त को अच्छे स्वाद के नाम पर तेज मसाला डाल कर देर तक पकाते हैं। इस प्रक्रिया से पका गोश्त खाने पर कार्डियोवेस्कुलर सिस्टम को बहुत नुकसान पहुँचता है। यह भोजन रक्तचाप बढ़ाने के साथ रक्तवाहिनियों में जम जाता है, जो आगे चल कर दिल की बीमारियों को न्यौता देता है।
NDपिछले दिनों अमेरिका के एक अंतरराष्ट्रीय शोध दल ने इस बात को प्रमाणित किया कि माँसाहार का असर व्यक्ति की मनोदशा पर भी पड़ता है। शोधकर्ताओं ने अपने शोध में पाया कि लोगों की हिंसक प्रवृत्ति का सीधा संबंध माँसाहार के सेवन से है।अध्ययन के परिणामों ने इस बात की ओर संकेत दिया कि माँसाहार के नियमित सेवन के बाद युवाओं में धैर्य की कमी, छोटी-छोटी बातों पर हिंसक होने और दूसरों को नुकसान पहुँचाने की प्रवृत्ति बढ़ जाती है। सोसाइटी की गतिविधियाँ शुरूआत में अमेरिकी उपमहाद्वीप तक सीमित रहीं, लेकिन बाद में इसने अपने कार्यक्षेत्र को यूरोपीय महाद्वीप समेत पूरे विश्व में फैलाया। एक अक्टूबर के दिन दुनिया भर में शाकाहार प्रेमी माँसाहार के नुकसान के बारे में लोगों को जानकारी देने के लिए विभिन्न स्थानों पर कार्यक्रमों का आयोजन करते हैं।
Labels: आहार
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 09:56:00 pm 0 comments
ट्रैफिक
हैलो! कौन शामलाल? कौन बोल रहा है? शामलाल? - हां मैं शामलाल। - तुम आ गये? अपने घर से ही बोल रहे हो? हलद्वानी से ही? -तुमने कहां फोन किया है? कानपुर का नंबर मिलाया है क्या? घोंचू जोशी! - कब आये? -कल रात को। -लेकिन इतनी जल्दी कैसे? तुम तो दीवाली के बाद आने वाले थे? - वहां मन नहीं लगा। - बेटा-बहू ने गांठा नहीं क्या? - नहीं यार, ये बात नहीं है। वो तो बिचारे पूरे टाइम मुझे पलकों पर बिठाए रहे। आने की बात की तो रोने तक लगे। लेकिन मैं नहीं रुका। -क्यों? पोते ने घास नहीं डाली? यहां तो बडे पोता-पोता करते थे। उसने पूछा भी नहीं होगा। इन यंग लोगों के पास कहां टाइम है हम बूढों के लिए? -नहीं यह बात भी नहीं है। सच पूछो तो उसने तो मुझे घुमाया खूब। सबसे ज्यादा कंपनी उसने ही दी मुझे। - फिर? मैं समझ गया। हवा-पानी माफिक नहीं आया होगा। हाजमा बिगड गया होगा। दस साल यहां रहकर अस्सी प्रतिशत पहाडी हो गये हो तुम भी। अब कहां यहां का झरनों-सोतों का पानी, कहां वहां का नल का पानी। कहां वहां की भट्टी कारखाने की हवा और कहां यहां की बांज-बुरांस की मीठी बयार। - हां कुछ गडबड रहा था। पर शुरु-शुरु के दो-चार रोज। फिर तो मैं वहां के हवा-पानी का आदी हो गया। मन्नू की बहू खाना भी बहुत अच्छा बनाती है। पूछती भी रोज सुबह-शाम, बिला नागा, बाऊजी, क्या खाओगे? क्या बनाऊं? तो बाकायदा कभी खिचडी, कभी थूली, हरी सब्जियां, कम मसाला। बाकायदा टु द टेस्ट। ये ठोककर रख दे। पढी-लिखी है भई। बुढापे की जरूरत और लिमिटेशन्स को समझती है। मैं तो कहता हूं ठाकुरजी उसे सदा सुखी रखें। खूब लंबी उमर दें। सब किसी को ऐसी गुणवंती बहू मिले। - अरे भई तो भाग क्यों आये? -सच बताऊं? -नहीं, पहले झूठ बोलने की ही कोशिश करो। - वहां के ट्रैफिक से तंग आकर भाग आया। - आंय! तुम क्या वहां ट्रक ड्रायवरी करने लगे थे? - नहीं समझोगे। मैं जानता था। ऐसा करो शाम को आ जाओ। तब तफसील से बताऊंगा। - कौन? घोंचू जोशी? हां बोलो। - यार मुझसे शाम तक सब्र नहीं किया जा रहा। तुम क्या बता रहे थे ट्रैफिक के बारे में? जरा बताओ तो फटाफट? - क्या बताऊं? हुआ यह कि रात को पहुंची मेरी गाडी। बेटा आ गया था स्टेशन पर अपनी मारुति कार लेकर। तो उसके साथ स्टेशन से घर के लिए रवाना हुए। तो भैया, मेरी तो सडकें देखकर ही तबीयत खुश हो गयी। क्या चिकनी-चौडी सडकें। फोर लेन। पेवर रोड्स। बीच में डिवाइडर। हर क्रांसिंग पर ट्रैफिक सिगनल्स। बाकायदा टर्न वगैरह पर ट्रैफिक साइंस, जेबरा पेंटिंग, केट्स पॉ। हमारे शहर में कब थीं ऐसी सडकें? कोई गड्ढा-धचका नहीं। सर्र से सेवंटी-एट्टी में घर पहुंच गये। - चलो। वाह। -दूसरे दिन बेटा तो चला गया दफ्तर। पोता बोला चलिए दादाजी आपको बाजार घुमा लाऊं। मैंने सोचा बाजार क्या घूमने की जगह होती है? पर सोचा, चलो चले चलते हैं, घर बैठे भी क्या करेंगे। दरअसल उसकी मां ने कहा था हरा धनिया ले आ। दादाजी को चटनी अच्छी लगती है करके। -वा वा। - तो भैया बैठते ही.. - काहे में बैठते ही ? - कार में! - धनिया लेने कार में? बेटा ऑफिस नहीं ले जाता कार? - वो चार्टर्ड बस से जाता है, एसी बस से । - वा वा । - तो बैठते ही मेरे पोते ने क्या एक्सीलेटर दबाया है कि मेरी तो पीठ गाडी की सीट से भचाक् से जा लगी। तो मैं तनकर बैठ गया। खिडकी पकडकर। अब कॉलोनी की छोटी-छोटी गलियों में भी वह ऐसे ड्राइव कर रहा था कि समझो पहले मोड पर तो मैं उसके ऊपर गिरते-गिरते बचा। - वा वा । - और बाहर निकले तो भई सडक है, तो उस पर ट्रैफिक तो होगा ही। पर उसने तो जो हॉर्न बजाना शुरू किया चीं पों, चीं पों, कि मुझे कहना पडा बेटा! यह कोई सभ्यता की बात नहीं है। दूसरों को भी इस सडक पर चलने का अधिकार है। तुम तो एकदम दमकल की गाडी बने हुए हो! - बताओ! - तो उस वक्त तो कुछ नहीं बोला, लेकिन सभ्यता शब्द सुनकर कुछ चौंका जरूर। शायद यह शब्द उसने बहुत दिन बाद सुन> - वा! - फिर दूसरे दिन जब मैंने उससे पूछा-क्यों भई? कोई जरूरी है कि एकदम सिक्सटी में गाडी उठाओ और बार-बार खच्च से क्लच-ब्रेक दबाओ? और पूरे टाइम चीं पों, चीं पों! यह क्या है? - तो? क्या बोला?
- बोला दादाजी, आप यहां के ट्रैफिक को नहीं जानते। आपकी सो कॉल्ड सभ्यता से गाडी चलाऊं तो कोई मुझे सडक पर न चलने दे। सभ्यता का जमाना नहीं रहा अब। और वैसे भी इधर जो गाडियां आ रही हैं वो फास्ट चलाने के हिसाब से ही डिजाइन की जाती हैं। स्लो वाली तो बस विंटेज कार रैली में देखने को मिलती हैं। और जिसे आप फास्ट कह रहे हैं, कोई अमेरिकन- जर्मन सुन लेगा तो हंसेगा। वहां तो हंड्रेड से कम पर आप चल ही नहीं सकते। एंड आई थिंक दे आर राइट! वरना फायदा क्या है कार रखने का? - ऐसा बोला? -हां! लेकिन यह तो दूसरे दिन की बात है। पहले दिन तो बेचारा कुछ बोल ही नहीं पाया। - क्यों क्यों? -वह कुछ बोलता उससे पहले ही सामने एक स्पीड ब्रेकर आ गया। एकदम अन अनाउन्स्ड! न कोई सिग्नल साइन्स न कोई जेब्रा पेंटिंग। और स्पीड ब्रेकर क्या हेड ब्रेकर! छह इंच की पतली-सी मुंडेर! गाडी ऐसी उछली कि मेरा सिर गाडी की छत से टकरा गया। पांव अधर में उठ गये और फिर धच्च से सीट पर पटका गया। -तुम्हें गाडी रुकवाकर उतर जाना चाहिए था। भला पोतों को क्या हक पहुंचता है कि वे दादा की ऐतिहासिक या पुरातात्विक कमर से ऐसा क्रूर मजाक करें? - कहां कहां उतरता जोशी? सारा शहर ऐसे ही नाजायज और धोखेबाज स्पीड ब्रेकरों से भरा हुआ था। और गाडीवाले उन्हें अवॉइड करके बाजू की कच्ची जगह से धूल उडाते निकले-भागे जा रहे थे। फिर चलते-फिरते स्पीड ब्रेकर भी थे। -चलते-फिरते? यानी? -जैसे कि गाय! वह तो अम्मा है। उसे कोई क्या कह सकता है? किसी सिपाही ने छडी छुआ दी और अगल-बगल उसके यानी गाय के किसी प्रेमी ने देख लिया तो बस हो गया! और कहीं गलती से सिपाही कोई मुसलमान हुआ, फिर तो पूछो मत। और गाय को बीच बाजार टहलने या पसरने का हक है तो डेमोक्रेटिकली भैंस, ऊंट, गधे, सूअर या कुत्ते को भी है। कोई भी, कभी भी आपकी गाडी के आगे आ सकता है। और अगर आप में जरा-सी भी अक्ल है तो गायपुत्र सांड को तो आप कुछ भी नहीं कहेंगे, भले वह बीच सडक किसी कमसिन बछिया पर डोरे ही क्यों न डाल रहा हा - अहा! क्या सच बात! पर यार, एक बात समझ में नहीं आयी। - क्या? - शुरू में तो तुम कह रहे थे कि बेटा जब स्टेशन से घर ले गया तो रात को, तब तो तुम्हें अपने शहर की सडकें बहुत अच्छी लगी थीं। दिन और रात में इतना फर्क कैसे हो गया? रात के समय तो सडकों पर और अधिक अम्माएं होनी चाहिए थीं? - बेटा मुझे दूसरे शहर से होता हुआ ले गया था। - दूसरे किससे ? - अमीरों के इलाके से। हर शहर में आजकल दो शहर हो गए हैं। एक गरीबों का और एक अमीरों का। - वा वा । क्या तुम्हारे ऑब्जर्वेशंस हैं। पर एक बात बताओ, तुमने इतनी जल्दी सब भांप कैसे लिया? ... - आदरणीय? - साले जोशी, तुम्हारी ऐसी की तैसी। - आंय! - होल्ड करो। .. - सारा दलिया जल गया। जब मर्जी आती है बात करना शुरू कर देते हो। एक बार बोलना शुरू करते हो तो चुप होने का नाम ही नहीं लेते। मैं हीटर बंद करना भूल गया और तुमसे बातें करने लगा। - सॉरी यार। मुझे इतना नहीं बोलना चाहिए। -सॉरी से क्या होता है? अब खाऊंगा क्या? खाक? तुम्हारे हाड? -वा शामलाल वा। क्या बात कही है? मजा आ गया। आ जाओ पजामा पहन के। आज मैंने सीरी पाव बनाये हैं। चंपारानी दे गयी थी सुबह-सुबह। ब्रेड भी पडी है। कम पडी तो जल्दी से दो टिक्कड थेप लेंगे। आ जाओ। - आना ही पडेगा। - और सुनो! तुम्हारा जला हुआ दलिया भी लेते आना। मुर्गियों को डाल देंगे। - शामलाल! क्या हुआ? तुम आये नहीं? - हां यार! - क्या हुआ? मठरी-शक्कर पारे बांध दिये थे क्या बहू ने? - नहीं यार! हुआ यह कि पजामे का नाडा नेफे के अंदर घुस गया। और नाडा डालने की मशीन बहुत ढूंढने पर भी नहीं मिली। शायद मैं वहीं भूल आया। - पुराने टूथब्रश को तोडकर बनायी गयी नाडा डालनी को तुम मशीन कहते हो? - अब हर चीज मशीन ही बन गयी ठहरी । - वा वा । - ऐन वक्त पर पेन-पंसिल, सेफ्टीपिन कुछ नहीं मिला। तो मैंने कहा छोडो। - आरे तुम लुंगी में ही आ जाओ। कौन देखता है? पजामा साथ लेते आना। - अब तो मैंने दलिया ही खा लिया। दूध-शक्कर-इलायची डालकर। - चलो कोई बात नहीं। शाम ो मिलते हैं। - ओके ।
- हैलो जोशी ! - यस। - माफ करना भैया, आज नहीं आ पाऊंगा। - क्यों? क्या हुआ? - घुटने पिरा रहे हैं यार । - मैं ही आ जाता, पर आज एक साहब आने वाले हैं। तुम आते तो उनसे भी मिल लेते। खैर चलो। हां तो, क्या बता रहे थे तुम ट्रैफिक के बारे में ? हीटर न जल रहा हो तो फोन पर ही बता दो। -हीटर बंद है। - तो? -तो यार बडी अजीब सी बात है। हम लोग अब उस दुनिया के लिए सूटेबल बॉय नहीं रहे, ऐसा लगता है। -क्यों क्यों? क्या हुआ? - एक चीज तो मैंने ये नोटिस की जोशी, कि ट्रैफिक तो सडकों पर बहुत था, पर उसमें अब हथठेले नहीं थे, तांगे नहीं थे, गधागाडी नहीं थी, भैंसागाडी नहीं थी, साइकिल के पहियेवाले ठेले नहीं थे। साइकिलें भी यदाकदा ही थीं। - तो फिर था क्या? -स्कूटर, मोटरसाइकल, मोपेड, पिकअपवैन, जीपें, ट्रक, ट्रेक्टर, ऑटोरिक्शा और ढेर की ढेर मोटरें, तरह-तरह की। छोटी-बडी, नीली-पीली। कोई मेंढक जैसी तो कोई माचिस जैसी। पोता सारे रास्ते उन्हीं के चाल-चलन और चरित्र पर प्रकाश डालता रहा। लगता था सारा देश घोडे पर सवार है। और क्या धुंआ, क्या पौल्यूशन। सांस लेना मुश्किल हो गया। - अच्छा हुआ हम पहले ही इधर आ गये। - और जोशी! कोई धीरे नहीं चलता। सब भागते हैं। खूब तेज। जिस देश को पता ही नहीं है कि कहां जाना है, उसके लोगों की हडबडी और उतावली देखकर तो यही लगता है कि शायद कहीं आग-वाग लग गयी है। - आग ही लगी ठहरी। - और तरह-तरह के विचित्र वाहन। - विचित्र यानी? महाभारत के रथ? - रथ ही समझ लो। किसी ने ट्रेक्टर के पीछे ट्रॉली जोडकर उसे छवा लिया है और उसमें उकडूं सवारियां ढूंस ली हैं, तो किसी ने फटफटी के पीछे तांगे जैसा जोत रखा है। किसी ने जीप के साथ ऊंट गाडीनुमा ट्रोला बांध रखा है। बेचारे आरटीओ वालों को तो यह भी समझ में नहीं आता होगा कि इन्हें क्या कहकर पुकारा जाये? - वा वा! - कोई नहीं जानता किसमें कितनी सवारी अलाउड हैं और कौन कब उलट जाये! जिंदगी की किसी को परवाह नहीं, मरने से कोई डरता नहीं। - आत्मा अजर-अमर है पार्थ! - कानून-कायदे को बुत्ता देना कोई हिंदुस्तानियों से सीखे ! - ठीक बात है, ठीक बात है । - और दूसरी चीज मैंने ये नोटिस की जोशी कि सडकों पर कहीं फुटपाथ नहीं हैं। - ऐं? फुटपाथ नहीं हैं? तो पैदल आदमी कहां चलेगा? - जैसा तुम्हें हो रहा है, मुझे भी ताज्जुब हुआ। मैंने पोते से पूछा भी। - लेकिन उसने कोई जवाब नहीं दिया। - हां। लेकिन तुम्हें कैसे पता चला संजय? - पोते समझते हैं दादा सठिया गये हैं। इनकी बातों का जवाब देना टाइम वेस्ट करना है। - पर यार! ये तो हद्द ही हो गयी। अब किसी का घर ही सडक पर हो और उसे चार मकान छोडकर किसी से मिलने जाना हो तो वह पैदल ही तो जाएगा। लेकिन कैसे? चलेगा कहां? सडक पर चलने का उसका अधिकार तो गाडीवालों ने ही छेंक लिया। किसी ने सोचा इस बारे में? - मतलब आओ-जाओ मत। खाली फोन कर लो। आदमी को आदमी से मिलने-जुलने की क्या जरूरत है? इसी को विकास कहते हैं। हां, अपने यहां की बात और है। अब एक दिन हम नहीं मिल पायें तो तबीयत उदास हो जाती है। पर अपन तो पिछडे हुए इलाके ठहरे। - जोशी! तुम्हारा जनरल नॉलेज तो काफी स्ट्रांग निकला! - देखते जाओ! अब प्लस एट्टी वालों के लिए एक कौन बनेगा करोडपति होने वाला है। उसमें मैं भी जाऊंगा। वाइफ तो रही नहीं। उनकी जगह तुम्हें साथ ले चलूंगा। लेकिन एक शर्त है! पैदल नहीं जाएंगे। - हा हा हा हा - वैसे एक बात मन में आयी इसलिए कह रहा हूं। शायद तुमने शहर की सिर्फ व्यस्त सडकें देखी होंगी। वहीं पोते कार लेकर हरा धनिया इत्यादि खरीदने जाते हैं। ठीक है न? - नहीं नहीं, एक दिन पोता मुझे शहर के बाहरी घाघरे पर भी ले गया था। घुमाने । - तो वहां का क्या हाल था? - वहां का हाल थोडा बेहतर था। हाइवे के ट्रक ड्रायवर मुझे शहरियों की तुलना में ज्यादा शरीफ और पढे-लिखे लगे। बाकायदा डिपर मारेंगे, हाथ देंगे, साइड जहां देना चाहिए जरूर देंगे, फालतू की चीं पों, चीं पों नहीं करते रहेंगे। लेकिन एक-दो चीजें वहां भी मुझे काफी डिस्टर्बिग लगीं।
क्या? - एक तो भैया कि आजकल गाडियों में जो हैडलाइट्स होती हैं, वे इतनी तेज रोशनी फेंकती हैं कि एकदम ब्लाइंडिंग! चकाचौंध। बस अंदाज से ही आप निकाल लो। - क्यों? ऊपर का हिस्सा काला नहीं करते? - अरे राम का नाम लो जोशी। वह जमाना गया। लगता है ट्रैफिक के रूल्स बदल गये हैं। अब कोई जरूरी नहीं है कि आप सडक पर दूसरे मुसाफिरों की सुविधा-असुविधा के बारे में भी सोचें। आपको सिर्फ अपने बारे में सोचना है। अपने कफन के बारे में भी नहीं। वह दूसरों का हेडेक है। -यानी सरवाइवल ऑफ द फिटेस्ट? -सरवाइवल ऑफ द रूडेस्ट! और लोगों ने इसका तोड क्या निकाला जानते हो? अगला एक लाइट लगाये तो आप दो लगा लो। वह छह वाट की हेलोजन लगाये तो आप बारह वाट की लगा लो। वह आपको अंधा कर रहा हो तो आप उसे डबल अंधा कर दो। - वाह वा शामलाल! तुम्हारी बातों से तो मुझे कविता सूझने लगी। देखो, गाकर सुनाता हूं। नाऊ माइट इज राइट ! लाइट इज माइट! लाइफ इज फाइट! फाइट इज टाइट! हे.हे. माइट इज राइट! बेबी माइट इज नाइट! डार्क एज इज कॉल्ड सो, बिकॉज देयर वर लॉट्स ऑव नाइट्स इन इट ! कैसी लगी? -लास्ट लाइन थोडी सेंसिबल है क्योंकि वह प्रोज में है। - शटप! - भैया मैंने जिंदगी भर पुलिस में नौकरी की सो भी ज्यादातर ट्रैफिक पुलिस में। तुमने हाइस्कूल में। तुमसे कविता का मर्डर देखा जाता होगा, मुझसे तो ट्रैफिक की ऐसी हत्या नहीं देखी जाती। रोज छाती में हूक उठती है कि क्या हो रहा है? बडी-बडी गाडियां, बडे-बडे हादसे! मल्टीनेशनल का कंटेनर जहाज से उतरकर सीधा झुमरीतलैया तक, आसनसोल तक, गुडगांव तक पहुंच जाये बस! फिर चाहे सडक ससुरी हो या न हो। मरो तुम तो मरो। - देखो देखो.. - समझ में नहीं आता इसका मतलब क्या है? - शामलाल ! बडी उम्र में इतना टेंशन लेना कोई अच्छी बात है क्या? दो-चार रोज भुगत कर आ गये बात खत्म हुई। रहो चैन से इस ठंडी, शांत जगह में। नहीं आएगा यहां कोई कंटेनर-कैरियर, आश्वस्त रहो। - क्या आश्वस्त रहूं यार। रात को नींद में भी सडक की चकाचौंध और शूं शूं दिखाई-सुनाई देती है। लोकूला डाल-डालकर थक गया। आंखों के ढेले दुखना बंद नहीं करते। लगता है दोनों आंखों में ढेर सारे कंकड भर गये हैं। ऐसा भी क्या उदार होना यार कि सारी सडकों की मट्ठ ही मार दी विलायती व्यौपारियों की खातिर। और सारी उदारता बाहरवालों के ही लिए? बाहरवालों के लिए जितने उदार, घरवालों के लिए उतने ही क्रूर! ये क्या माजरा है भाई? -शामलाल, तुम बडी जल्दी इमोशनल हो जाते हो। छोडो ना यार! तुम साले कोई इस देश के प्राइममिनिस्टर तो हो नहीं! फिर एक बात और है। फिरंगी जाएंगे तो अपने साथ सडकें थोडी ना उठा ले जाएंगे! मेरे ख्याल से तो यहीं छोड जाएंगे! जैसे पिछली बार रेलें छोड गए थे। जाने दो इनको! फिर अपन इन्हीं सडकों पर बग्घी में बैठकर सैर को चलेंगे। सोलर पॉवर वाली बग्घी में खरामां-खरामां! कैसा रहेगा? -बग्घी की भली चलायी। सुपरसॉनिक शटल कही होती। सुनो एक वाकया। ये अभी चार रोज पहले की ही बात है। हम जा रहे थे हाइवे पर। पोता चला रहा था। अब हुआ क्या कि सामने आ गयी एक बैलगाडी। अब भैया बैल तो बैल हैं, तुम्हारा हाइवे हो कि खाइवे, वो तो चारा खाते हैं, कोई पेट्रोल तो पीते नहीं। तो पोते ने क्या चीं पों चीं पों मचायी है कि पूछो मत। जैसे उसका बस चले तो बैलगाडी को भस्म कर डाले। लेकिन बैलगाडी वाला भी पट्ठा मस्त था। उसने न साइड दी, न बैलगाडी उतारकर कच्चे में खडी की। और जैसा बैलगाडी वाला वैसे ही बैल, निडर और दबंग। हमारे जमाने के होते तो बैलगाडी लिये-लिये खेतों में भाग छूटते। बैलगाडी वाला रस्सी खींचता ही रह जाता। लेकिन देखते ही देखते इधर भी लाइन लग गयी, उधर भी। और दोनों तरफ से चीं पों चीं पों। हर कोई रांग साइड से ओवरटेक करके निकल जाना चाहता है। कान फट गये। - वा वा! - खैर! जरा ही आगे चौडी सडक थी। पचास कदम बैलगाडी को चल लेने दिया जाता तो सारा ट्रैफिक दस मिनट में क्लीयर हो जाता, लेकिन तभी हमारे पीछे से एक मोटरसाइकल तेजी से आयी और हमें ओवरटेक करती हुई फिसलकर सीधी बैलगाडी के नीचे घुस गयी। बैलगाडी हचमचा गयी और एक बैल का पैर रपट गया। वह पसरकर साइड में जा गिरा। वह तो बैल गाडीवाले की हिम्मत और सूझ-बूझ की दाद दो कि बैलगाडी उलाल नहीं हुई। अब सब निकल आये अपने अपने वाहनों से और लगे बैलगाडी वाले पर बमकने। जबकि उस बेचारे की तो कोई गलती ही नहीं थी। मोटरसाइकल वाले ने हेमलेट भी नहीं पहन रखा था। वह बेहोश पडा था और उसके सिर से खून बह रहा था। - अरे रे! फिर?
- अब मुझे लगा बैलगाडी वाला पिट जाएगा। घायल लडके को कोई हाथ भी नहीं लगा रहा और बैलगाडी वाले पर सब शेर हो रहे हैं। कुछ ने उसे नीचे खींच लिया और उसकी पगडी उछालकर जमीन पर फेंक दी। - फिर तुमने क्या किया? - दो मिनट तो मैं देखता रहा। फिर पता नहीं अचानक क्या हुआ जोशी, कि मेरे भीतर छुपा अपनी जवानी का पुलिसवाला छलांग मारकर बाहर आ गया। मैंने गाडी से निकलकर सबसे पहले तो तमाशबीनों को तितर-बितर किया, दो लोगों की मदद से छोकरे को उठाकर खडा किया और एक गाडी में पटककर अस्पताल भेजा, मोटरसाइकल निकलवाकर साइड में डलवायी और दो-तीन लोगों की मदद से गिरे हुए बैल को धीरज से खडा किया। - वाह शामलाल वा! क्या मौके से जागी तुम्हारी जवानी! - हां, समझो बस व्हिसल नहीं थी, बाकी सब तो वही था। - लेकिन किसी ने तुम्हारी ऑथोरिटी को चैलेंज नहीं किया? - किया था एक बबुआ ने। मैंने उसे आंख दिखाई और थप्पड भी मार देता जरूरत पडती तो। बात यह है जोशी कि लोग ऑथोरिटी को पसंद करते हैं। वे चाहते हैं कि कोई हो जो सारी व्यवस्था को ठीक कर दे। इसके लिए वे कुछ प्रायवेशन सहने को भी तैयार रहते हैं। वे सख्ती भी पसंद कर सकते हैं, बशर्ते उन्हें ऑथोरिटी पर भरोसा हो। लोग केऑस पसंद नहीं करते। वे कायदे से गवर्न होना पसंद करते हैं। लेकिन कायदा है कहां? और जब सब कुछ बेकायदा है तो ठीक है, सब कुछ बेकायदा है। - अच्छा फिर क्या हुआ? पोता तो तुम्हें देखता रह गया होगा! - फिर और भी डिस्टर्बिग हुआ। पोते को लगा मैंने अपने बुढापे का नाजायज फायदा उठाया है। - क्या क्या? कैसे-कैसे? - जब उसमें से निकल गये तो मैंने पोते से कहा कि अब क्यों दांत पीस रहा है? अब तो आराम से चला। पोता बोला-सारी ड्राइव का मजा किरकिरा कर दिया। साला पग्गड! पहले तो मैं समझा यह मोटरसाइकल वाले लडके को कोस रहा है, पर जब उसने साला पग्गड कहा तो समझ में आया कि बैलगाडी वाले को कोस रहा है। बुरा भी लगा। क्योंकि पगडी तो मैं भी पहनता था। मैंने कहा-भैया! उसे कहीं जाना है तो वह कहां से जाएगा? क्या गांववालों के लिए कोई अलग हाइवे बना रखी है तुमने? तो बोला-इन लोगों को हाइवे पर अलाउ ही नहीं करना चाहिए। मैंने कहा-क्यों भई? क्या इस चिकनी-चौडी-शानदार-ठाठदार सडक को बनाने के लिए उन्होंने पैसा नहीं दिया? मुझे गुस्सा आने लगा। पोते ने पूछा-उन्होंने पैसा दिया? अविश्वास से पूछा। मैंने कहा-नहीं दिया? गरीब से गरीब आदमी ने दिया। फुटपाथ पर सोनेवाले और झुग्गी-झोपडी में रहनेवाले तक ने दिया। पोते को जरा कौतुक हुआ। बोला-कैसे? क्या वे टोलटैक्स देते हैं? मैंने कहा-टोलटैक्स तो नहीं देते पर बेटा माचिस और नमक, ये दो चीजें तो ऐसी हैं जो गरीब से गरीब आदमी भी खरीदता है। मानते हो कि नहीं मानते? - वाह शामलाल वा! क्या बात कही है! मजा आ गया। खुला का खुला रह गया होगा पोते का मुंह! जिसे कहते हैं हतप्रभ। - हां, हुआ तो कुछ ऐसा ही। पर मुझे अच्छा नहीं लगा। -क्या? - अब जोशी हम किस-किस का मुंह खुला का खुला रखेंगे? और कब तक? जैसा इन्हें सिखाया जाता है, ये सोचते हैं। - सही बात है। -अच्छा जोशी। बंद करता हूं अभी तो। तुम्हारी बेवाच में टाइम क्या हो गया? - साढे तीन बजने वाले हैं। - हां तो मेरा दवाई लेने का टाइम भी हो गया। -ओके! शामलाल! -ओके डीयर! गॉड ब्लेस यू। ( अगले दिन जोशी शामलाल के घर पहुंचते हैं। साथ में एक नौजवान। चिकनी खाल, तराशी हुई दाढी, सुनहरी फ्रेम का चश्मा, खादी सिल्क का चकाचक हरा कुर्ता, सफेद क्रीजदार पतलून, बगल में प्योर लेदर का झोला और पैर में कोल्हापुरी चप्पल।) - आप कौन? - शामलाल! ये दिल्ली से आये हैं। डॉक्टरी पास की है। पर कहते हैं देशसेवा करेंगे। तुमसे भी मिलना चाहते थे। कल तुम देश के बारे में बता रहे थे न कुछ? - देश के बारे में? मैं तो ट्रैफिक.. - जीवन इन्होंने समझो समर्पित कर दिया है देश की खातिर। एक पला-पलाया एनजीओ पांच लाख में खरीद लिया है। - इनके सामने तो ऐसे मत बोलो यार! इन्हें बुरा लगेगा। - नहीं लगेगा। इनको कुमाउंनी नहीं आती, जिसमें अपन बात कर रहे हैं। ये अंग्रेजी में देशसेवा करेंगे। - और पैसा? पैसा कौन देगा? - देगा कोई नार्वे-फार्वे। स्वीडन-फीडन। मैंने पूछा था इस बडचो से। बताया नहीं। इसे लज्जा लग रही थी। (शामलाल युवक से नमस्कार करते हैं, बैठने को कहते हैं और अपनी लुंगी कसते हुए चाय का पानी चढाने भीतर चले जाते हैं। चाय की पतीली साफ करते हुए बुडबडाते हैं।) - अब ये बुलडोजर कहां से आ गया रांग साइड!
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 09:30:00 pm 0 comments
तुम ठीक तो हो सांची
कुछ याद है, मॉम! 24 वर्षीय विशेष ने सुबह, कालेज जाने से पहले एक बार फिर कहा।
क्या?
कल वाली बात!
नहीं।
आज शाम, दिशा के मम्मी-पापा हमारे घर आयेंगे। दिशा मनोविज्ञान की लेक्चरर है और विशेष, इतिहास का.. दिन भर साथ रहने से दोनों, एक दूसरे के करीब आ गये हैं और अब विवाह के पवित्र सूत्र बंधन में बंधना चाहते हैं। इसी सिलसिले में दिशा के माता-पिता आज शाम हम दोनों (पति-पत्नी) से मिलने आ रहे थे।
- अरे! आप दोनों तो एक दूसरे को ऐसे देख रहे हैं, जैसे पहले से जानते हो? परिचय कराते हुए विशेष के स्वर ने सहसा हम दोनों को चौंका दिया था।
हां। संभलते हुए दिशा के पिता, कांतिप्रसाद के मुख से निकला, एक सेमिनार में मिले थे हम।
हां, हां याद आया। और एक गहरी लंबी सांस ली मैंने। उनकी पत्नी आभा तथा बेटी, दिशा से भी बात करना अच्छा नहीं लगा। कुछ देर ही उनके पास बैठ मैं, इन बाप-बेटा को बतियाते छोड कर.. किचन में चली आई।
चाय नाश्ते के उपरांत मामूली-सी रस्म अदायगी करते हुए ठीक 15 वें दिन शादी भी तय हो गई और मैं, मूकदर्शक बनी देखती रह गई।
- ओ माइ स्वीट मम्मी! मेहमानों के जाते ही विशेष अबोध बालक-सा लिपट गया।
- अरे.. अरे, पागल हो गया है क्या? बमुश्किल हंसी मैं।
- क्या वे लोग तुम्हें अच्छे नहीं लगे?
- हां भई, कांति प्रसाद कह भी रहे थे! विवेकानाथ मंद-मंद मुस्कराये।
- क्या? मैं बुरी तरह चौंकी।
यही कि तुम्हारी अलग से कोई मांग तो नहीं!
तो?
मैंने साफ कह दिया, दिशा ही दहेज है हमारे लिये!
और मैं चेहरे के भाव छिपाती हुई रसोई में लौट गई।
अच्छा तो दिशा.. कांति की बेटी है। तभी वह, विशेष की मां के रूप में अचानक ही मुझे देख सकपका गया था। मैं भी तो उसके स्वागत का ख्याल न रख पाते हुए बस, उसे देखती रह गई। जीवन में एकाएक आए तूफान की तरह। मेरे समधी के रूप में कभी वह सामने आ जायेगा, यह तो स्वप्न में भी न सोचा था। यही कांति प्रसाद तो उसके पिता के मित्र का वह लडका है। जिसके साथ.. और मैं कब, बिस्तर पर आकर लेट गई पता ही न चला।
कल्लू खां मोहल्ले में ही तो हम एक मकान में रहते थे। पिताजी म्युनिस्पैलिटी के दफ्तर में क्लर्की करते थे। उस दिन तडके ही घर से निकले शाम के झुरमुटे में ही वापस लौट सके थे और आते ही अहाते में पडी चारपाई पर धम्म से गिरे थे।
- तू ठीक कहती थी, पार्वती! पिता के मुख से निकला यह दर्द भरा स्वर सुन.. नजदीक ही दाल में से कंकर बीनते हुए भावना के हाथ ठहर गये, रघु सचमुच बदल गया है।
- क्या कहता है?
- वही कि मैं मजबूर हूं भाई.. लडके की पढाई-लिखाई और नौकरी लगवाने पर बहुत खर्च करना पडा है। शादी पर भी अब खर्चा होगा और तुम जानते ही हो कि कैसे-कैसे घरों से उसके लिये रिश्ते आ रहे हैं। मेरे तो बस, हां करने की देर है! पर तुम तो बचपन के सखा हो सो, तुमसे मोल-भाव क्या करना? वही दे देना, जो कह रखा है। मैं उससे बोला, इतना तो गांव की सारी जमीन बेच कर भी नहीं जुटा पाऊंगा। उससे बहुत मिन्नत चिरौरी की पर वह टस से मस नहीं हुआ।
मेरी मां सिसक उठी थी।
- धत् बावली! ऐसे रोते हैं! अभी तो पहली बार है। बेटी का बाप हूं ना? पता नहीं कितने घरों से निराश होकर लौटना पडे?
मैं रात भर तकिया भिगोती रही। अपनी पढाई-लिखाई और लेखन प्रतिभा.. व्यर्थ-सा लगता रहा और अपना वजूद.. बोझ महसूस होता रहा। बार-बार मेरी आंखों के सामने लडके के बाप के आगे याचक की तरह झुका हुआ पिताजी का शीश, माँ का आंसुओं में डूबा निस्तेज चेहरा और घर में पसरा गहन सन्नाटा उभर आता।
फिर शुरू हुआ, एक अंतहीन सिलसिला। निरीह पिता, हर जगह सुनते ही दौड पडते पर हमेशा की तरह लेन-देन पर जाकर बात अटक जाती। और वह मनहूस दिन तो शायद कभी न भूल पाऊं? उफ! याद आते ही आंखें भर आई। पिता, एक लडका देखने ही तो गये थे और दूसरे दिन.. दोपहर को घर आई थी खून से लथपथ एक लाश। अपने ही जाने-पहचाने शहर में.. बस से उतरते हुए अचानक एक ट्रक उन्हें, निर्ममता से कुचलता चला गया था! खैर, उस दौरान मोहल्ले वालों ने जो हमदर्दी दिखाई.. उसकी जितनी भी प्रशंसा की जाये, वह कम होगी।
पिताजी के ऑफिस में यह उम्मीद थी कि सभी.. संवेदनशीलता से पेश आयेंगे और उनकी जगह.. आसानी से रख लिया जायेगा, पर कटु अनुभव तब हुआ, जब वह रिक्त पद! पिता जी के परम मित्र बॉस ने अपने एक निकट संबंधी को दे दिया? मेरे चारों तरफ अंधेरा-ही-अंधेरा था। और भाइयों को ऐसे में हौसला कैसे बंधाती थी? यह मुझे ही मालूम है और.. स्वयं लेखन के सहारे आत्मविश्वास जुटाती रहती। इसी कोशिश में कुछ ऐसी रचनाएं लिख डालीं जो कि आगे चलकर बहुत चर्चित हुई और..।
000
निरंतर संघर्ष करते रहने से ही मैं, एक प्राईवेट कंपनी में स्टेनो टाइपिस्ट चुन ली गई। वहीं मेरे जीवन में आए विवेकानाथ! एक प्रकाश पुंज बनकर.. सुंदर, सजीले, हंसमुख, 30-35 वर्षीय.. वे दफ्तर में मेरे बास थे। जो अपनी स्पष्टवादिता और यथार्थपूर्ण बातों से किसी को भी प्रभावित कर लेने की अद्भुत क्षमता रखते हैं और मुझे.. अंतत: अपने तथा परिवार के प्रति नये सिरे से सोचने को बाध्य कर देते हैं। मां ने उनसे मिलते ही खुशी-खुशी वह कम्प्रोमाइज मंजूर कर लिया। हां, यह एक समझौता ही तो था, जिसके तहत मुझे विधुर विवेकानाथ की पुत्री रिचा को मां का प्यार देते रहना था और उन्हें मेरी मां और भाइयों को अपना समझते रहना था।
मुझे खुशी ही नहीं, बल्कि इस बात पर गर्व है कि इन्होंने जो कहा, उससे कहीं खरे साबित हुए। विशेष के गर्भ में आते ही मुझे घर तक सीमित कर दिया। जहां, मेरा खाली वक्त कथा लेखन में बीतने लगा। जीवनसाथी होने के साथ-साथ यह, मेरी कहानियों के सुधी पाठक एवं कुशल आलोचक भी थे। पिता के दुखद अंत को लेकर बुनी गई वह सशक्त कथा कृति.. मैं इनके भरपूर सहयोग से ही तो कालजयी बना पाई, जिसके लिये पुरस्कार प्राप्त हुआ मुझे और मैं.. हिंदी साहित्य के प्रथम श्रेणी के साहित्यकारों में आ खडी हुई।
इतना सम्मानपूर्ण जीवन गुजारते हुए भी यह त्रासदी कैसे भूल जाऊं! पिता जी मेरे लिए ही घर-वर ढूंढते हुए उस दुर्घटना के शिकार हुए थे। अपने बालसखा, रघु के रिश्ता तोड देने की वजह से.. और उनकी भारी लागत से योग्य बना.. वह लडका.. यह कांतिप्रसाद ही तो था, जो एक लंबे अरसे के बाद.. विशेष के भावी ससुर के रूप में उथल-पुथल मचाने मेरे शांत, सुखी तथा सम्मानित जीवन में आ गया। चोर की दाढी में तिनका। कहावत को चरितार्थ करते हुए ही तो विवेकानाथ के माध्यम से कह रहा है, तुम्हारी अलग से कोई मांग तो नहीं! आखिर क्यों? सुना है कि बहुत बडा इंजीनियर है, यानी करोडपति पार्टी।
मुझे लगा कि कांतिप्रसाद सामने खडा कह रहा है, देखो.. तुम्हारे बाप से नहीं दिया गया था तुम्हारे लिए कुछ भी! अब देखना, कैसे ब्याही जाती है बेटी। देखना! अपने घर में उसे सजा कर रख भी न सकोगी.. देखना! देखना!! देखना!!! सोचते-सोचते सिर फटने लगा तो मैंने वहशियों की तरह विवेकानाथ को झिंझोड डाला, उठो विवेक, प्लीज! उठो, उठो! इससे ज्यादा अब और बर्दाश्त न होगा।
- क्या हुआ भावना! तुम ठीक तो हो। कुछ बोलती क्यों नहीं? पूछते-पूछते चिल्ला उठे तो मैं रो पडी नहीं, रिरिया उठी, तुम.. तुम कांतिप्रसाद से साफ-साफ कह देना, दुल्हन के साथ हम कुछ नहीं लेंगे जो है, उसे संभाल कर अपने पास रखे, समझे?
आंखें फैलाकर विवेकानाथ मुझे गौर से देखने लगे, तुम्हारी तबीयत ठीक तो है?
हां, मैं ठीक हूं। और तनिक आक्रोश भरे स्वर में बोली, यह बात भूल मत जाना। सुबह होते ही उसे फोन पर कह देना!
वह अपनी मरजी से दे तो भी कुछ ना लें?
हां।
क्यों?
मैं जो कह रही हूं! इसलिए..।
और तभी विशेष हांफता हुआ अंदर आया।
- अभी-अभी कौन चीखा था, डैड?
तेरी मॉम सपना देखते-देखते डर गई!
मैं जाग रही थी, नाथ। मैंने बताया।
मॉम तुम ठीक तो हो ना? विशेष ने पास बैठते हुए पूछा।
हां, मेरे बच्चे! कहकर उसके बालों में हाथ फेरा।
तो चिल्लाई क्यों?
पहले एक प्रॉमिस करो!
हां.. हां.. बोलो?
दिशा के साथ.. दहेज में कुछ घर नहीं लाओगे!
व्हाट? विशेष बुरी तरह चौंका।
साहित्यकार हूं ना, इसलिए कह रही हूं।
रिचा दीदी को दिया क्यों था?
कोई यह ना कहे कि मैं उसकी सौतेली मां हूं।
- लगता है! इनके मुख से आहिस्ता से निकला, कांतिप्रसाद के स्टेटस से इसे कोई शॉक पहुंचा है?
आयम आल राइट नाथ..ऽ..ऽ! मैं चीखी।
डैड कुछ करो? विशेष घबराकर बोला।
तुम जल्दी से गाडी निकालो! इन्होंने घबराकर मेरा मोबाइल उठा लिया, मैं डॉ. चुग से बात करता हूं।
उफ! मेरा सिर फटा जा रहा है.. ये बाप-बेटा मुझे समझते क्यों नहीं? कहीं मैं.. मैं सचमुच मेंटल अपसेट तो नहीं हो गई हूं? उफ्!
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 09:13:00 pm 0 comments
तुम्हारा कल्लू
आज अचानक रात को जब कल्लू घर पर नहीं पहुंचा तो सभी को हैरानी हुई। हैरानी ही नहीं, गुस्सा भी आया। दस बज गए। पापा ने गालियां देना शुरू कर दीं। वह दांत पीस-पीस कर अनाप-शनाप बकने लगे। मम्मी भी हैरान हैं। उन्हें गुस्सा भी बहुत आ रहा है। पर सबसे अधिक तो उन्हें चिंता सवार हो गई है, आखिर कल्लू कहां चला गया?
दरअसल, यह वह समय होता है जब घर के सभी सदस्यों में एक ही बडे कमरे में किसी पारिवारिक समस्या या मुहल्ले पडोस की किसी घटना पर बहस छिडी होती है। इसके अलावा घर में कोई विशेष बात नहीं हो रही होती। विशेष बात उस दिन और उस रात मानी जाती है जब कल्लू अपने पापा द्वारा बिना मार खाये ही सो जाता है।
कल्लू स्कूल से दस बजे दिन में पढकर लौट आता है। सातवीं में पढते हुए भी, वह दुकान पर जाकर दिन भर काम करता। वह पापा का हाथ ही नहीं बँटाता वरन् दुकान का सारा कार्य निपटाता। अभी उसकी उम्र ही क्या है? मुश्किल से बारह वर्ष। फिर भी वह अपनी सोच और समझ से कुशलतापूर्वक सारे कार्य करता हुआ ग्राहकों को संतुष्ट रखता।
दुकान पर तस्वीरों का काम होता है।
तस्वीरें बिकती हैं। तस्वीरों को फ्रेम में जडकर बेचा जाता है। कल्लू को तस्वीरें जडना बखूबी आता है। फिर भी कभी-कभी तस्वीरें जडते समय कांच टूट ही जाते हैं। ये कांच कल्लू से जब-जब टूटे तब-तब कल्लू के हाथ-पैर भी टूटे। कांच कल्लू तोडे या कल्लू के पापा, पर हाथ-पैर तो कल्लू के ही टूटेंगे, यह निश्चित और शाश्वत सत्य है कल्लू के लिए।
कल्लू आज तक समझ नहीं सका कि उसे ही इतना क्यों पीटा जाता है? पिटाई के समय यदि मम्मी हस्तक्षेप न करें तो वह धोबी के कपडे की तरह पापा के हाथों पीटा ही जाता रहे।
एक दिन जब दुकान से आकर सदैव की भांति कल्लू के पापा ने खाने के लिए दही मंगवाया, तो कल्लू को थोडी देर हो गई। दही कहीं मिल नहीं रहा था, फिर भी कल्लू दूर के चौराहे तक जाकर दही ले ही आया। कल्लू ने सोचा कि इससे पापा खुश होंगे। मगर पापा ने कल्लू की रुई की तरह धुनाई कर डाली। कल्लू देर से क्यों लौटा? बस इतनी सी ही बात थी न। कल्लू अवश्य ही रास्ते में खेलकूद में लग गया होगा। जब मम्मी बीच में आई तभी कल्लू बच सका। इस बीच मम्मी को भी दो-चार चपतें खाने को मिल गई थीं।
कल्लू ने कई बार मम्मी से करुण स्वर में पूछा कि पापा उसे इतनी निर्दयता से क्यों पीटते हैं?
कोई बात नहीं, पापा ही तो हैं। मम्मी उसे प्यार से समझातीं और बतातीं, उन्हें पीने के बाद होश नहीं रहता। फिर मम्मी उसका माथा प्यार से चूम लेतीं।
लेकिन यह स्पष्टीकरण कल्लू के गले से नहीं उतरता। पापा जब होश में होते तब भी तो वे कल्लू पर खीझते और दांत पीसते। पापा कभी भी पप्पू से कुछ नहीं कहते। पप्पू तो कल्लू से आठ वर्ष बडा है। वह कभी भी दुकान पर नहीं जाता। पढने के बहाने दिनभर घर में पडा रहता है या फिर बाहर फील्ड में जाकर क्रिकेट के विकेट गाडता रहता।
-पापा होश में होते तो भी कल्लू को प्यार नहीं करते। हर समय खा जाने वाली नजरों से घूरते रहते हैं। क्या वह अपने पापा का बेटा नहीं? कल्लू अपने आपको आइने में देखकर सोचता कि उसका रंग काला है, शायद इसीलिए सब लोग उसकी उपेक्षा करते हैं। और नहीं तो क्या..। पर इसमें उसका क्या दोष? पापा भी तो काले हैं।
जब देखो तब पप्पू भी कल्लू को मारता रहता है। अपने सारे कार्य भी पप्पू उससे करवाता है। जूते की पॉलिश, नहाने का अंडरवियर तक कल्लू को धोना पडता।
कल्लू को यह सब बहुत बुरा लगता। तब वह जी भरकर गालियां देने लगता। गालियां सुनते ही मम्मी चिमटा लेकर उसकी पूजा प्रारम्भ कर देतीं। मगर मम्मी द्वारा मार खा लेना कल्लू को उतना बुरा नहीं लगता, जितना कि पापा के हाथों मार खाना। मम्मी तो कल्लू को बाद में प्यार भी बहुत करतीं।
कल्लू मार खाते-खाते पुख्ता हो गया है। उसे थोडा बहुत नहीं पीटा जाता और न ही थोडी बहुत पिटाई का कल्लू पर कोई असर पडता। छोटी-छोटी बातों पर कल्लू को जानवर की भांति पीटा जाना साधारण बात है। घर व दुकान का अत्यधिक कार्य करने के कारण कल्लू छमाही की परीक्षा में फेल हो गया था। यह अभी पिछले पांच महीने की ही बात है, कल्लू को जब उसके पापा ने लोहे की एक सरिया से मारा था और पैर की हड्डी में अन्दर तक चोट आई थी। काफी दिनों तक कल्लू बीमार रहा था। लंगडा-लंगडा कर दो महीने तक चला था। फिर कहीं जाकर कुछ ठीक हुआ।
लेकिन इस बीच भी कल्लू के चार-छह हाथ तो किसी न किसी बात पर पडते ही रहे। कल्लू के मन में पापा के लिए घृणा और उपेक्षा भर गई। वह उनकी अनुपस्थिति में उन्हें गालियां देता है।
मम्मी को इस बात पर कतई आश्चर्य नहीं। मम्मी स्वयं पापा की निर्दयता को बार-बार कोसती रहतीं। पर वह खुला विरोध भी तो नहीं कर सकतीं।
मम्मी ने कई बार अपने ढंग से पापा को समझाने की कोशिश की लेकिन प्रभाव इसका विपरीत ही पडा।
तू ही बिगाडे हुए है इसे। पापा तुरन्त मम्मी पर ही आंखें तरेरकर आक्षेप लगाते।
मम्मी ने कुछ कहना ही छोड दिया है। इधर कल्लू भी पिट-पिटकर बेशर्म हो गया है। वह जानबूझकर दुकान पर आये दिन कुछ न कुछ नुकसान करने लगा है। घर में शोरगुल मचाने में उसकी सर्वाधिक भूमिका रहती है। हद से हद चार छ: हाथ पड जाएंगे। और इससे अधिक क्या? कल्लू सोच लेता।
पर आज सभी लोग कल्लू के बारे में सोच रहे हैं। रोज तो वह पापा से पहले ही शाम को दुकान बंद करवाकर आ जाता था। आज तो दस बज गये हैं। कल्लू अभी तक नहीं आया है। पापा ने दांत पीस-पीसकर बगैर दही खाना खा लिया है। कल्लू गायब है। अब वह पिटेगा।
कल्लू के पापा अपने कमरे में नशे में धुत पडे हैं। कभी-कभी वह मां-बहन की गालियां देकर जोर से पूछते हैं -
कल्लू आया या नहीं? कहां मर गया हरामी? आने दो कमीने सुअर को..।
बडे वाले कमरे में पिंकी और गुड्डू सोए पडे हैं। मम्मी सोच में डूबी हैं। पप्पू भी जाग रहा है। उसने कोई किताब हाथ में पकडी हुई है।
कल्लू कहां चला गया? मम्मी उदास आंखों से धीमे स्वर में पप्पू से पूछती हैं, क्यों रे, कलुआ कहां गया होगा?
जाने कहां मरा है जाकर। वह उपेक्षा से झटककर अपनी करवट बदल लेता है।
मम्मी खामोशी के साथ बाहर आंगन में आ जाती हैं। नीचे की ओर आंगन में दरवाजे की तरफ देखती हैं। कोई नहीं है। शर्मा जी शायद बाहर का बडा वाला दरवाजा बंद करके ऊपर गये हैं। शर्मा जी इसी मकान की तीसरी मंजिल के किराएदार हैं।
आंटी जी, कल्लू पास हो गया? शर्मा जी का लडका ऊपर से पूछता है।
हैं! मम्मी चौंककर ऊपर की ओर देखती हैं। मम्मी को ध्यान आता है कि आज कल्लू का वार्षिक परीक्षाफल मिलने वाला था। कल्लू का परीक्षाफल कल्लू को मिला होगा। मगर कल्लू ने आज दुकान पर जाने से पूर्व उसका जिक्र भी नहीं किया था और न ही मम्मी को पूछने का ध्यान रहा था। कल्लू बिना कुछ खाये ही आज दुकान पर चला गया था। तभी से नहीं लौटा। वह शाम तक तो दुकान पर ही रहा था।
कल्लू पास हो गया आंटी जी? शर्मा जी का लडका पुन: प्रश्न करता है।
हां, पास हो गया। मम्मी झूठ ही कह देती हैं।
मगर कल्लू का सहपाठी मिथुन तो बता रहा था कि कल्लू तीन विषयों में फेल हो गया है।
क्या? मम्मी की आंखें भय एवं आश्चर्य से बाहर निकल आती हैं, चौडी होकर।
तभी शर्मा जी अपने लडके को पुकारते हैं। वह चला जाता है किन्तु मम्मी आंगन में खडी रह जाती हैं- प्रस्तरखण्ड सी।
क्या कल्लू फेल हो गया? स्वयं से मम्मी मन ही मन कहती हैं- कल्लू अब नहीं आयेगा। कल्लू कहीं चला गया है। पर कहां? क्या पता?
मम्मी आंगन से बाहर की ओर खिडकी में से नीचे देखने लगती हैं। शायद कल्लू यहीं कहीं छुपा बैठा हो। पर नहीं। कल्लू कहीं नहीं है। नीचे दरवाजे पर अंधेरा ही अंधेरा है। मम्मी खिडकी से अपना सिर लगा लेती हैं। कल्लू कहां जा सकता है? क्या सचमुच ही कल्लू कहीं चला गया है? किसी अज्ञात भय का जहर मम्मी के अंदर ही अंदर मन में घुलने लगता है। वह भय से सिहर जाती हैं। एक कंपकंपी सी पूरे शरीर में भर जाती है।
तभी अकस्मात ही खिडकी के कोने में एक कागज के टुकडे पर मम्मी की दृष्टि पडती है। आंगन में जल रहे बल्ब की रोशनी में मम्मी उस सफेद कागज पर लिखी इबारत पढती हैं-प्यारी मम्मी पढकर चौंक जाती हैं। पूरे शरीर में एक फुरफुरी सी भर जाती है।
अरे! यह तो कल्लू की लिखावट है। मम्मी स्वयं से ही कहती हैं। फिर वह पूरी इबारत दिल को थामकर पढती हैं-
प्यारी मम्मी,
तुम्हारा कल्लू जा रहा है। पता नहीं कहां जायेगा? आज तुम्हारे कल्लू को घर छोडना पड रहा है। वह फेल हो गया है। पर कल्लू अब पापा से नहीं पिटेगा। पापा कल्लू की सारी हड्डियां तोडकर ही दम लेंगे, ऐसा अब मुझे विश्वास हो चुका है। तुम मम्मी, अपने कल्लू को बचा भी तो नहीं सकोगी। लेकिन मम्मी मेरे बचने का रास्ता और कुछ नहीं, सिवाय घर छोडने के।
मम्मी, मुझे घर की बहुत याद आएगी। कल्लू को तुम्हारी बहुत याद आएगी। पर कल्लू क्या करे? अब मम्मी तुम फिक्र मत करना। तुम्हारा कल्लू बडा होकर आयेगा। अभी तो कल्लू चौधरी के लडके दिनेश के साथ दिल्ली जा रहा है। वह भी फेल हो गया है। यह बात तुम्हें पापा को नहीं बतानी हैं, नहीं तो वे मुझे बहुत मारेंगे। बस, अब बस।-तुम्हारा कल्लू।
पत्र पढते ही मम्मी की कंपकंपी रुलाई के साथ छूट पडती है। सिसक-सिसक कर रोने लगती हैं। अब तो पूरा प्रमाण सामने है कि कल्लू घर छोडकर चला गया है। मम्मी के सिसकने की आवाज सुनकर पप्पू फौरन बाहर आ जाता है।
कल्लू चला गया। मम्मी का स्वर तेज होकर फूट पडता है। पप्पू भी उस पत्र को पढता है। पप्पू अब गम्भीर है। वह सोचने लगता है, न जाने कब से पप्पू सोचता था कि एक न एक दिन कल्लू भाग जायेगा। यह सब ठीक नहीं। फिर वही हुआ जिसका डर था। लेकिन अब.. अब क्या हो?
पप्पू अब मम्मी को धीरज बंधाने लगता है। कहता है-
मत रोओ मम्मी। रोने से कल्लू आ तो नहीं जायेगा। ..तुम्हारा ब्लड प्रेशर और बढ जाएगा।
कल्लू कहां चला गया? पूछते हुए पापा भी कमरे से बाहर निकल आते हैं, क्या बात है? ये क्यों रो रही हैं? पापा अब मम्मी की ओर देखते हुए पप्पू से पूछते हैं।
कल्लू भाग गया। पप्पू सीधी सी बात कह देता है।
कहां भाग गया हरामी कहीं का। अभी पापा पूरी तरह से गालियां नहीं दे पाते कि पप्पू बीच में ही उफन पडता है-
क्या..हरदम गालियां ही गालियां..बस पीकर बकने लगते हैं। तुम्हारे ही कारण कल्लू घर से भागा है। तुम्ही ने मार-मारकर कल्लू को भगा दिया है।
पापा कुछ सहम से जाते हैं। पप्पू से वह कुछ नहीं कहते। पप्पू वैसे भी बहुत कम बात करता है। पता नहीं क्यों पप्पू के आगे पापा भी अधिक नहीं बोलते हैं। पप्पू के सामने पापा घर में कल्लू से अधिक कुछ नहीं कहते। पापा को सहमा हुआ चुप देखकर मम्मी भी बिफर पडती हैं-
मैं तो पहले ही कहती थी कि जरा से बच्चे को इतना मारना-पीटना अच्छा नहीं। पर मेरी कौन सुनता था..अब लाओ मेरे कल्लू को ढूंढकर।
आज किसी अपराधी की भांति पापा चुप खडे हैं। अब वह कुछ बोल नहीं पा रहे हैं। यह प्रथम अवसर है जब कल्लू के पक्ष को लेकर पप्पू और मम्मी दोनों ही एक साथ बोल रहे हैं। पापा को दोषी ठहराया जा रहा है। उनकी निर्दयता की भर्त्सना की जा रही है।
कल्लू कहां गया होगा? पापा मिमियाती हुई आवाज में पप्पू की ओर देखकर पूछते हैं।
क्या पता? पप्पू उपेक्षा से मुंह घुमाकर अपने कमरे में चला जाता है।
कल्लू दिल्ली गया है चौधरी फोटोग्राफर के लडके दिनेश के साथ यह देखो। मम्मी भर्राई हुई आवाज में कल्लू द्वारा लिखा गया पत्र पापा के हाथ में थमा देती हैं। कांपते हाथों से पापा पत्र लेकर पढते हैं। फिर काफी देर तक स्थिर जडवत खडे रहते हैं। उनकी आंखों में एक बार जो मम्मी देखती हैं तो आंखें जल भरी होती हैं। इससे पहले कि पापा की आंखों से आंसू ढुलक कर उनकी भूल को प्रकट करें पापा तेजी से घूमकर अपने कमरे में घुस जाते हैं।
दूसरे ही क्षण वह कुर्ता-पायजामा अपने तन पर उलझाकर तेजी से आंगन के किवाड खोल कर घर से बाहर निकल जाते हैं। पीछे से तभी मम्मी उन्हें कहती हैं-
सुनो।
..? पापा खामोश हो प्रश्नवाचक निगाहों से पीछे घूमकर मम्मी की ओर देखते हैं।
इतनी रात को कहां जाओगे? मम्मी कांपते स्वर में पूछती हैं। पापा एक पल मम्मी के उदास चेहरे की ओर देखकर बैठी हुई आवाज में कहते हैं-
तुम्हारा कल्लू ढूंढकर लाने।
फिर पापा मम्मी के कंधे पर सांत्वना भरा हाथ रखते हैं-
तुम चिंता मत करना। किसी भी प्रकार से कल्लू को लेकर कल ही वापस आ जाऊंगा। पापा चले जाते हैं।
मम्मी पूरी रात अब कल्लू और पापा के आने की प्रतीक्षा करतीं चिंतामग्न सी यूं ही सोफे पर बैठे-बैठे गुजार देती हैं। फिर सुबह होते ही दरवाजे की चौखट पर जाकर किवाड से पीठ लगाकर खडी हो जाती हैं। बोझिल नींद भरी पलकें बार- बार उठती-गिरती रहती हैं।
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 09:08:00 pm 0 comments
उपहार
स्वदेश कुमार अर्धलेटे, अर्धनिद्रा में रेडियो सुन रहा है। प्यास लगने पर उठकर आधा ग्लास पानी पीता है, इससे आलस्य तो खत्म हो जाता है परन्तु रेडियो पर प्रसारित आधी बात ही उसकी समझ में आती है। स्वदेश कुमार के साथ अक्सर ही ऐसा होता है क्योंकि पूरी बात कभी भी उसकी समझ में नहीं आती।
अपना देश छोडकर विदेश में पडा है। इतना घूमने के बाद भी अपने देश के बारे में अधिक नहीं जानता। बचपन में ही उसे पढाई के लिये गांव से शहर आना पडा। अभावग्रस्त जिंदगी में आधा पेट ही खाना खाया। यदि भरपेट खाता, तो शायद यहां नहीं होता। पाठकों यह स्वदेश कुमार मैं ही हूँ।
पिताजी सही कहते थे, यह लडका दिमाग से भी आधा है, गांव में खेती-बारी, मां-बाप, घरबार छोडकर शहर में रहना चाहता है। उस समय उनकी बातें मेरे लिए कोई अर्थ नहीं रखती थीं, परन्तु अशिक्षित व्यक्ति में भी असीमित ज्ञान होता है।
गणतंत्र दिवस के अवसर पर पिता जी से अंतिम मुलाकात दिल्ली में हुई थी। इस अवसर पर वह दो दिन मेरे साथ रहे। उनके साथ समय अच्छा कटा। विदाई के वक्त उनके चेहरे और आँखों में निराशा और खुशी के मिश्रित भाव थे। आशीर्वाद के सिवाय उनके पास देने के लिए कुछ नहीं था। बस, चलते वक्त उन्होंने मेरे सिर और पीठ पर हाथ फेरा था।
जिस समय एक व्यक्ति स्वयं रोजी-रोटी से जूझ रहा हो, दूसरों को क्या दे सकता है? दूसरी ओर जो लोग अपने इष्ट मित्रों एवं रिश्तेदारों को स्टेशन तक छोडने आये थे, वह उपहार स्वरूप देने के लिये कुछ न कुछ वस्तुएं अपने साथ लाये थे। इनमें से कुछ के व्यावसायिक रिश्ते और कुछ को बिछडने का गम भी था। एकाएक पिताजी ट्रेन से उतरे और वापस मेरे पास आ गये।
बोले- बेटा, यह उपहार तुम्हें किसी ने दिया था, जो शर्म के मारे मैं तुम्हें दे नहीं पा रहा था। गांव वापस जाकर, मैं उसे क्या जवाब दूंगा। अतएव उसकी अमानत तुम्हें सौंप रहा हूं। कभी तुम दोनों प्राथमिक पाठशाला में पढते थे, उस समय यह तुम दोनों ने मिलकर बनाया था।
एक दिन मैं अपने सूट की मैचिंग टाई ढूंढ रहा था कि थैले के अन्दर अखबार में लिपटा हुआ, एक गुलदस्ता दिखा। बबूल के काटों वाला सूखा पौधा, कांटों के किनारे लगे रंग-बिरंगे मोती और पारदर्शी पन्नी का कवर जो वर्षो पुराना होकर भी नया लग रहा था।
उस गुलदस्ते को लेकर मैं कक्ष में आ गया। प्यास लगने पर पानी पीने के बाद मैंने बचे हुए पानी को उस गुलदस्ते के गमले में डाल दिया। कुछ समय बाद कमरे में भीनी-भीनी खुशबू आने लगी, साथ ही चिट-चिट की आवाजें भी। तभी मेरी नजर उस पर पडी जो पानी सोख रहा था, क्योंकि यह खुशबू भी उधर से ही आ रही थी। यह तो मिट्टी की खुशबू थी, क्योंकि इस मिट्टी से मैं बचपन में खेला करता था। तभी मैंने उस गमले को उठाया।
उसी समय दरवाजे पर लगी घंटी बजी। मेरा मित्र शेष खाली समय में इधर ही आ जाता है। उसके आ जाने पर मैं विदेश में अकेला नहीं होता। मैंने कहा, दरवाजा खुला है अंदर आ जाओ। शेष ने आते ही टी.वी. ऑन कर दिया। प्रसारित समाचार ने दोनों को सोचने पर मजबूर कर दिया कि गुयाना के राष्ट्रपति भारत आकर अपने पूर्वजों की मातृभूमि देखना चाहते हैं, जिसके लिये वह वर्षो से बेचैन थे।
यह भीनी-भीनी खुशबू कहां से आ रही है। शेष ने कहा।
मैंने, उस गुलदस्ते को शेष के हाथ में थमा दिया।
अरे! यह गुलदस्ता तुम्हें कहां से मिला।
यह किसी का दिया हुआ उपहार है।
यार! उपहार भी क्या शब्द है? प्रकृति द्वारा दिये गये उपहार के रहस्य को कितने लोग जानते हैं। ये नदियां, झरने, पर्वत, पेड-पौधे, जडी बूटियां आदि-आदि। उपहार देने वाले के भाव और उसमें छिपे रहस्य को कौन जानता है।
खाली समय में क्यों न इस उपहार की व्याख्या की जाये। तुम्हें यह कहां से प्राप्त हुआ, इसके बारे में मुझे भी बताओ? तो मुझे इसकी व्याख्या करने में आसानी होगी। तभी मैं पुन: रेलवे स्टेशन पर आ जाता हूँ। मुझे पिताजी के चेहरे पर विदाई के भाव आते जाते नजर आने लगते हैं, जो मैं उस समय समझ नहीं सका था। उनका निराश और रुआसा सा चेहरा, मेरी आंखों के सामने घूमने लगता है। वह आंखों को बार-बार झपकाते और चेहरे का छिपाते, आंख की कोरों में अध टपके आंसू को गमछे से मुंह पोंछने के बहाने, पोंछ लेते। फिर ट्रेन से उतरना और कांपते हुए हाथों से गुलदस्ता देना।
अपने वतन और वतन की मिट्टी से सभी प्रेम करते हैं। शायद ही कोई इसको कभी भूलता हो? जो लोग अपने वतन की मिट्टी से नहीं जुडे होते, उनका हाल इस सूखे वृक्ष के समान होता है। उनके पत्ते, हरियाली विहीन और वृक्ष से गिर कर अलग हो जाते हैं। वे अपना वास्तविक सौंदर्य खो चुके होते हैं। तुलनात्मक दृष्टि से हम इन सूखे वृक्षों की शाखाओं को यहां की सडकें मान सकते हैं और इन लम्बे कांटों को ककंड-पत्थर की बहुमंजिली इमारतें और इन रंग बिरंगे मोतियों को रंग विहीन जीवन जो यथार्थ से परे हैं। इनके जीवन में कोई सच्चा मोती नहीं होता है। इसमें रहने वाले मशीनी व्यक्ति बस, मृग तृष्णा भागमभाग जिन्दगी के बीच जीते रहते हैं। जब कभी किसी अप्रवासी की मृत्यु अकस्मात हो जाती है तो वह इसी प्रकार पारदर्शी पन्नी में लिपटकर अपने वतन वापस आते हैं।
अब मेरी समझ में आने लगा है कि मैं स्वदेश कुमार आधा क्यों हूं। कोई बात मेरी समझ में क्यों नहीं आती? जिसे मैं कूडा समझ रहा था, उसकी व्याख्या के दौरान शरीर में सिरहन सी होने लगी और रोंये खडे हो गए। यह देख कर शेष बोला, यार क्या आज वतन की याद आ गयी? काश! मैं भी विवेकशील होता, तो कभी भी अपनी मातृभूमि और जन्मस्थल को छोडकर यहां नहीं आता। यहां न चैन है और न ही शांति।
पिताजी का क्या हाल होगा पता नहीं? मनुष्य अपने बच्चे को किस प्रकार पालता है। इसका एहसास अब होने लगा है। जब तक बच्चा अपने पैरों पर नहीं खडा होता। उसके मां-बाप अपने सुखों को भूलकर बच्चों के लिये क्या-क्या नहीं करते। जिससे बच्चों को कष्ट न उठाना पडे। जब उनका पौरुष थक जाता है और उन्हें सहारे की जरूरत होती है, उस वक्त हम अपना भविष्य संवारने के चक्कर में उनके बारे में नहीं सोचते हैं।
शेष ने कहा, जब मैं घर से चला था, तो मेरी मां ने भी मेरे गले में एक ताबीज बांधी थी और कहा था, बेटा, मैं तुझे कुछ और तो दे नहीं सकती परन्तु यह ताबीज तेरी सदैव रक्षा करेगा। इसे मां का उपहार समझ सदैव गले में धारण किये रहना।
स्वदेश कुमार ने उसके ताबीज को गले से उतारकर अपने हाथ में लिया ही था कि वह उसके हाथ से छूट कर फर्श पर गिर पडा है। उसके सिरे पर लगा ढक्कन खुल गया है। दोनों यह देखकर आश्चर्यचकित हो गए हैं कि उस ताबीज के अन्दर केवल चुटकी भर मिट्टी मात्र थी।
जरूर तेरी मां ने इस मिट्टी को इसलिए इसमें रखा होगा कि जब कभी तू इस मिट्टी को देखेगा तो मां और मातृभूमि की अवश्य याद आयेगी। और हो सकता है, तुझे अपने वतन की भी याद आ जाये।
यहां प्यार, प्रेम, स्नेह, दुलार, लाड का अर्थ बेमानी है। जीवन का अर्थ (धन) भाग-दौड, आधा-धापी, डालर, शिलिंग, पौण्ड के बीच का अन्तर, यह कुछ सोचने समझने का मौका नहीं देता। तभी गमले में रखे एक कागज पर स्वदेश की नजर पडी है। जिसे निकालकर वह पढने लगा।
नदी के तट पर बैठे बुद्धिजीवी से,
जलजीवी ने पूछा,
परिवार को साथ नहीं लाये
बेटा श्रमजीवी हो गया है,
काम पर गया है,
पत्नी भ्रमजीवी हो गयी है,
मायके गयी है,
यहां भी बुरा हाल है,
प्रदूषण की वजह से,
बेटा जन्म स्थली छोड गया,
पत्नी ने जल समाधि ली है,
इस शहर के बुद्धिजीवियों को,
न जाने क्या हो गया है।
यह कागज का टुकडा दोनों को मुंह चिढाने लगा। अब मुझे लगा कि वह मछली का बेटा और बुद्धिजीवी मैं ही हूं। कहीं ऐसा तो नहीं मां ने वास्तव में समाधि ली हो और पिताजी ने हमें सूचित नहीं किया कि अनावश्यक हम परेशान होंगे तथा आने-जाने पर खर्च भी करना पडेगा। अब दिल में बुरे-बुरे ख्याल आने लगे।
बस वतन की मिट्टी है, न पिता की चिट्ठी है,
न हवा का झोंका है, लगा सब नजरों का धोखा है।
विदेश में जब भी मैं किसी अप्रवासियों को देखता हूँ, तो मुझे अपना देश, अपना गांव उनकी वेशभूषा याद आ जाती है। अब लगने लगा कि इतनों दिनों से हम किसी के मेहमान बनकर रह रहे हैं। यहां की हर चीज पर यह प्रतिबंध लगा है।
दोनों मित्र वृद्ध पिता के झरझर बहते आंसू देख रहे हैं, यहां विछोह के आंसू और कोरों में छिपे आंसुओं का अन्तर स्पष्ट नजर आ रहा है। यहां बेबसी और खुशी छिपाने से नहीं छिपती। यह प्रेम का अविरल झरना जो बहे जा रहा है। विदेश में रहते हुए वर्षो से आंसू नहीं देखे।- पिताजी, अब मैं सदैव के लिए अपने वतन आ गया हूं।- बेटे, जब नहर-तालाब सूख जाते हैं और घनघोर बारिश होती है तो किसान को अपने खेत हरे और पेट भरे से लगते हैं। इसलिए आज इन आंसुओं की बारिश हो जाने दो। आज गांव के लोग पिता पुत्र के इस मिलाप को देख रहे हैं। विदेश में हम लोगों के बीच अकेले खडे थे। वहां कोई अपना नहीं था। यहां एक व्यक्ति के चारों ओर मेला लगा हुआ है।
जरूर, यह सद्बुद्धि तेरे मित्र शेष ने दी होगी। पिता ने कहा।
नहीं, पिताजी, यह सद्बुद्धि हमारे वतन की मिट्टी ने दी है और अब मुझे अपने वतन की मिट्टी की कीमत का अहसास हो गया है। क्यों लोग जीतेजी अपने देश की मिट्टी के लिए जान देते हैं और मिट्टी में मिल जाते हैं?
पिताजी अब मैं भी अपने घर जाना चाहूंगा क्योंकि मुझे अपनी मां को भी आश्चर्यचकित करना है कि तेरे बेटे ने ताबीज में रखी मिट्टी को देख लिया है और मैं वतन वापस लौट आया हूं। जो कार्य हम वहां करते थे उसी कार्य को हम दोगुनी लगन और मेहनत के साथ अपने देश में करेंगे। इतना कहते हुए शेष वहां से अपने घर के लिए प्रस्थान करता है।
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 09:06:00 pm 0 comments
वचन
आलीशान बंगले का शयनकक्ष है यह..। मानसी के हाथो डेकोरेट किया गया यह कमरा, आज भी उसे मानसी के करीब होने का एहसास कराता है। बिस्तर के ठीक सामने दीवार पर जो कैनवास है उसमे शोख, चंचल, गहरी आँखो वाली एक लडकी कही शून्य मे ताक रही है। खिडकियो पर डोलते हुए झीने आसमानी पर्दो से झांकती हुई हरियाली, नीला आकाश सब कुछ अत्यन्त मोहक, सपनो के घर जैसा। पर उसका मन आज भी विचलित है सदा की तरह। मानसी की यादे आदित्य के जीवन की एकमात्र धरोहर है। वह सोचने मे मग्न था तभी मेन गेट की कुण्डी खटकी और पोस्टमैन की आवाज आई। वह लिफाफा लेकर शयनकक्ष मे आ गया। लिफाफे की हस्तलिपि से पहचान गया, मानसी का पत्र! उसका दिल तीव्र गति से धडकने लगा, पूरे पाँच वर्ष हो गये थे मानसी से अलग हुए कुछ देर असमंजस की स्थिति मे रहने के बाद उसने लिफाफा खोला, और पत्र पढने लगा।
आदित्य,
पाँच वर्षो मे पहला पत्र है यह मेरा, आज पूरे पाँच वर्ष हो गये तुमसे जुदा हुए, शादी के लिए मैने ही मना किया था, तुम यह सोचकर मुझसे नफरत करते रहे होगे कि मैने तुम्हारा जीवन तहस नहस कर दिया, आज तुम कुछ अधिक उदास हो मै जानती हूँ। एक सपना है मेरे पास, जिसे संवारकर रखा है मैने, वह यह कि एक बार तुम्हारे साथ पाँच वर्ष पूर्व बिताये हुए प्रेम से ओत-प्रोत क्षण पुन: दोहराऊँ। आदित्य, मैने तुम्हारे साथ न्याय नही किया, आज भी मै अपने बोझिल उदास क्षणो को क्या तुम पर थोपकर अन्याय नही कर रही हूँ? जब मै अमेरिका आयी शुरू मे तुम्हारी कमी बहुत खलती थी फिर धीरे-धीरे आदत सी हो गयी, तुम सोचते होगे मेरा एक सुखी संसार है। पति और बच्चे है। परन्तु आज बताती हूँ मैने विवाह नही किया। मैने तुमसे झूठ बोलकर भारत छोडा था कि मै अमेरिका के एक बडे लेखक से शादी करने जा रही हूँ। सच तो यह है मेरा अमेरिका मे कोई राईटर मित्र था ही नही। मुझे कंधा चाहिए, तुम्हारा स्पर्श, मै टूट चुकी हूँ मेरे हिस्से मे अभी भी सपने है आदित्य..। उन सपनो का एक घरौदा बनाकर मैने अपने अन्तर्मन मे संभालकर रख छोडा है। मै जीवन से कभी निराश नही हुई तुम्हारी आँखे आज भी मुझे जीने के लिए प्रेरित करती रहती है। तुम्हारे साथ बिताये हुए क्षणो मे से एक क्षण मै कभी भूल नही सकती। उस रोज की एक-एक बात मेरे मन की गहराईयो मे दर्ज है। जब प्रथम बार हम दोनो एक नई राह पे चले थे और तुमने मेरा हाथ पकडकर कहा था मानसी..! तुम इतनी पढी लिखी लडकी, तुम्हारा हाई सोसाइटी का जीवन, मै एक गरीब इन्सान। कही तुम्हे आगे चलकर पछताना न पडे।
तब मैने ही तो कहा था। आदित्य, मैने कसम खायी है एक दिन मै तुम्हे अपने बराबर लाकर खडा करूँगी, तुम्हे अपने काबिल बनाकर पापा से तुमको मिलाऊँगी।
अक्सर तुम परेशान होकर कह उठते थे।
मानसी! तुम मुझपर तरस खाकर तो मेरा जीवन नही संवारना चाहती हो..?
तब मेरा जवाब होता। वास्तव मे मै तुम्हे बहुत प्रेम करती हूँ तुम्हे बदलकर रहूँगी देखना। तब तुम मुझे आलिंगन मे बाँध लेते और अधीर होकर कहते, मानसी! तुम मुझे संसार की हर वस्तु से अधिक प्रिय हो, तुमसे अधिक प्रिय मुझे कुछ भी नही। कभी हमे बिखरने मत देना, तुम बिन जी न सकूँगा। तुम कभी भी परिस्थिति के आगे विवश होकर कोई निर्णय मत लेना, मै हर हाल मे तुम्हारे साथ हूँ। तुम्हारी ये बात, ये वचन ही तो है जिनके सहारे मै जी सकी हूँ। राज की बात बताऊँ! मैने तुमसे बेवफाई इसलिए की थी, पापा ने अपनी कसम दी थी कि उनके जीते जी मै तुम्हारे साथ शादी न करूँ। और मैने उनकी सौगन्ध मान ली थी, परन्तु तुमसे किया वादा भी मैने निभाया है मैने किसी और से शादी नही की! अगर मै तुमसे यह न कहती कि मै अमेरिका एक बडे लेखक से शादी करने जा रही हूँ। तो तुम शायद वह न बन पाते जो आज हो। तुम्हारे पास बिजनेस, धन-दौलत, हाई सोसाइटी का जीवन सभी कुछ तो है। आशा करती हूँ प्रिय आदित्य, तुम मुझे माफ कर दोगे। अब पापा भी नही रहे, यहाँ तन्हाई मे मेरा दम घुटता है। अपना पता दे रही हूँ।
केवल तुम्हारी मानसी..।
पत्र पढने के बाद आदित्य ने आँखे मूंद ली, मानसी का चेहरा मुंदी पलको मे सेध लगाकर पुतलियो पर नाचने लगा, वह कराह उठा, मानसी..! एक बार फिर तुम मेरे अधूरे जीवन को पूर्ण कर दो। तुमने कठिन घडी मे भी मुझे बिखरने न दिया और आज, आज तो सम्पूर्ण जीवन की खुशियाँ लौटा दी। मानसी! तुम्हे कितना मेरा ख्याल रहा।
मानसी को आदित्य से गहरा प्रेम था परन्तु वह अपने लेखन कैरियर के प्रति भी बहुत सजग थी। उसके दो सपने थे एक तो वह स्वयं एक उच्चकोटि की लेखिका बनना चाहती थी दूसरे वह आदित्य को एक कामयाब इन्सान के रूप मे देखना चाहती थी, उसके दोनो ही सपने परिपूर्ण हो गये थे। परन्तु पाँच वर्षो की लम्बी प्रतीक्षा वेदना के बाद..। आदित्य ने बेमन से नाश्ता किया और आफिस पहुँच गया। उसके नीरस जीवन मे बसंत का मौसम आ गया था।
पहली बार जब उसका परिचय मानसी से हुआ था, तो क्या पता था कि बस मे सफर कर रहे दो अजनबी मुसाफिर एक डगर पे चल पडेगे, फिर उन दोनो मे दोस्ती हुई। धीरे-धीरे प्रेम ने जन्म लिया। जाने उसके व्यक्तित्व का जादू था या संयोग, आदित्य लगातार उसकी ओर झुकने लगा था।
आदित्य उसे बहुत अधिक चाहता था उसने मानसी को वचन दिया था वह आखिरी साँस तक केवल उसी का रहेगा।
फिर, वह उसे बीच राह पर अकेला छोडकर अमेरिका जा बसी अपने पापा के पास। वह अकेली सन्तान थी जब तक बेटी इण्डिया मे नानी के पास रह रही थी वह मिलने आया करते थे फिर उन्हे पता चला उनकी लाडली ने एक साधारण युवक के साथ घर बसाने का फैसला कर लिया है। वह तो इस बार इण्डिया यह सोचकर आये थे कि बेटी के सामने अपने करोडपति दोस्त के बेटे का प्रस्ताव रखेगे। किन्तु आदित्य से संबंधो को लेकर उन्हे बेटी के भविष्य की चिंता हुई। उन्होने सदैव बेटी की हर फरमाईश आगे बढकर पूरी की थी, लेकिन आदित्य के मामले मे उन्होने मानसी को अपनी कसम देकर बाँध दिया था कि वह उनके जीते जी इस लडके से शादी हरगिज नही कर सकती। वहाँ पहुँचकर उसने भी सोच लिया कि आखिरी साँस तक आदित्य की याद को गले लगाये रहेगी और लेखन कार्य मे जीजान से जुट गई। होनी और अनहोनी के बीच आदमी की जिन्दगी गुजरती रहती है। वह अपने लेखन कैरियर मे खुश थी, अचानक उस रात को पापा के हार्ट अटैक ने उसके जीवन की दिशा ही मोड दी थी। एक शाम वह उसे अकेला छोड कर चले गये तब वह बहुत रोई थी। परदेश मे उसको सहारा देने वाला आस बंधाने वाला कौन था सिवाय उसकी दोस्त जूली के। ऐसे मे आदित्य उसे बेहद याद आता।
जूली उसे हमेशा समझाती, कि आदित्य को भूलकर वह किसी और से विवाह कर ले। पर उसका कहना था,
नही जूली..! वह उसे धोखा नही देना चाहती, यदि विवाह करेगी तो केवल आदित्य से। आदित्य के साथ गुजारे हुए दिन स्मृति पटल पर जम से गये थे, पाँच वर्ष होने को थे परन्तु उसकी तस्वीर दृष्टि से धूमिल तक न हुई थी। वह उसके बारे मे हर सप्ताह इण्डिया मे अपनी दोस्त रंजना से पूछताछ करती रहती थी। वह बहुत बडा आदमी बन गया था उससे भी बडी बात थी उसने आज तक विवाह नही किया था सुनकर वह खुशी से सराबोर हो जाती। आदित्य को करीब से देखने की चाह उसके अन्दर और भी प्रबल हो गई। जिज्ञासा मनुष्य को अधीर बना देती है वह अपने को रोक नही पायी और आदित्य को पत्र लिखकर पोस्ट कर दिया। आदित्य को पत्र मिले दस दिन हो गये थे, परन्तु उसने अभी तक जवाब न दिया था।
उस रोज सुबह ऑफिस पहुँचकर जैसे ही आदित्य ने अपने केबिन का दरवाजा खोला, केबिन मे एक स्मार्ट लेडी को बैठा देखकर ठगा सा रह गया। वह झुकी हुई कोई पत्रिका देख रही थी, उसने पहचान लिया यह तो मानसी थी, आँखो पर चश्मा चढाये वह जरा भी नही बदली थी। इतने वर्षो के बाद एक दूसरे को सामने पाकर वह रोमांचित हो उठे थे। मानसी उसे एकटक देखती रही, आदित्य बहुत बदल गया था, वह पहले से कही अधिक आकर्षक और स्मार्ट हो गया था।
कैसे हो..? मानसी का स्वर आर्द्र हो उठा।
ठीक हूँ... तुम कैसी हो..? पूछते हुए उसकी आँखे भर आयीं थीं, वह आशा भरी दृष्टि से उसे निहार रही थी, आदित्य..! मेरा सपना पूरा हो गया। तुम वह बन गये जो मै तुम्हे बनाना चाहती थी, काश! आज पापा जिन्दा होते तो वह तुम्हारी हैसियत तुम्हारा स्टेटस देखकर इन्कार न कर पाते। मानसी यह सब तुम्हारे प्यार के सहारे हुआ। क्या तुम मुझे आज भी उतना ही प्रेम करते हो..? वह पूछ रही थी। मानसी प्यार कभी छुपता है क्या..? वो तो उस सूरज की तरह होता है जो काले बादलो के बीच अपने होने का एहसास दिलाता है।
आदित्य...! मेरा इण्डिया आने का मकसद सिर्फ वह वचन है जो पाँच वर्ष पूर्व मैने तुम्हे दिया था। मैने कहा था न.. संभाला है तो साथ निभाऊँगी, मै तुम्हे कभी बिखरने नही दूँगी।
ओ मानसी॥! तुम कितनी अच्छी हो, मै बडा खुशनशीब हूँ, जो तुम जैसी लडकी मुझे मिली। मै तुम्हे कभी दुख नही दूँगा, आई प्रॉमिज यू..। यह कह कर आदित्य ने उसे आलिंगन मे बाँध लिया था।
Posted by Udit bhargava at 1/12/2010 09:05:00 pm 0 comments
एक टिप्पणी भेजें