खर के एक सैनिक अकम्पन ने रावण के दरबार में जाकर खर की सेना के नष्ट हो जाने की सूचना दी। वह हाथ जोड़ कर बोला, "हे लंकापति! दण्डकारण्य में रहने वाले आपके भाई खर और दूषण अपने चौदह सहस्त्र सैनिकों सहित युद्ध में मारे गये। मैं बड़ी कठिनता से बच कर आपको सूचना देने के लिये आया हूँ।" यह सुन कर रावण को बड़ा दुःख हुआ साथ ही भारी क्रोध भी आया। उन्होंने कहा, "मेरे भाइयों को सेना सहित मार डालने वाला कौन है? मैं अभी उसे नष्ट कर दूँगा। तुम मुझे पूरा वतान्त सुनाओ।"
रावण की आज्ञा पाकर अकम्पन ने कहा, "प्रभो! यह सब अयोध्या के राजकुमार राम ने किया है। उसने अकेले ही सब राक्षस वीरों को मृत्यु के घाट उतार दिया।" रावण ने आश्चर्य से पूछा, " क्या राम ने देवताओं से सहायता प्राप्त कर के खर को मारा है?" अकम्पन ने उत्तर दिया, "नहीं प्रभो! ऐसा उसने अकेले ही किया है। वास्तव में राम तेजस्वी, बलवान और युद्ध विशारद योद्धा है। मैंने राम को अपनी आँखों से राक्षस सेना का विनाश करते देखा है। जिस खर की एक गर्जना से सारे देवता काँप जाते थे, उस रणबाँकुरे को उनकी शक्तिशाली सेना सहित उसने आनन-फानन में समाप्त कर दिया। उसका रणकौशल देख कर मुझे ऐसा आभास होता है कि आप अपनी सम्पूर्ण सेना के साथ युद्ध करके भी उसे परास्त नहीं कर सकेंगे। उस पर विजय पाने का मेरी दृष्टि में एक ही उपाय है। उसके साथ उसकी पत्नी है जो अत्यन्त रूपवती, लावण्यमयी और सुकुमारी है। राम उससे बहुत प्रेम करता है। इसलिये वह उसे अपने साथ वन में लिये फिरता है। तात्पर्य यह है कि वह उसके बिना एक पल भी नहीं रह सकता। मेरा विश्वास है, यदि आप किसी प्रकार उसका अपहरण कर के ले आयें तो राम उसके वियोग में घुल-घुल कर मर जायेगा। और यह समस्या अपने आप ही सुलझ जायेगी। आपको समरभूमि में व्यर्थ का रक्तपात भी नहीं करना पड़ेगा।"
लंकापति रावण को अकम्पन का यह प्रस्ताव सर्वथा उचित प्रतीत हुआ। उसने इस विषय में अधिक सोच विचार करना या अपने मन्त्रियों से परामर्श करना भी उचित नहीं समझा। वह तत्काल अपने दिव्य रथ पर सवार हो आकाश मार्ग से उड़ता हुआ सागर पार कर के मारीच के पास पहुँचा। मारीच रावण का परम मित्र था। सहसा अपने घनिष्ठ मित्र को अपने सम्मुख पाकर मारीच बोले, "हे लंकेश! आज अचानक बिना किसी पूर्व सूचना के आपके यहाँ आने का क्या कारण है? आप जो इतनी हड़बड़ी में आये हैं, उससे मेरे मन में नाना प्रकार की शंकाएँ उठ रही हैं। लंका में सब कुशल तो है? परिवार के सब सदस्य आनन्द से तो हैं? अपने आने का कारण शीघ्र बता कर मेरी शंका को दूर कीजिये। मेरे मन में अनेक अशुभ आशंकाएँ उठ रही हैं।"
मारीच के वचनों को सुन कर रावण ने कहा, "यहाँ आने का कारण तो विशेष ही है। अयोध्या के राजकुमार राम ने मेरे भाई खर और दूषण को उनकी सेना सहित मार कर अरण्य वन के मेरे जनस्थान को उजाड़ दिया है। इसी से दुःखी हो कर मैं तुम्हारी सहायता लेने के लिये आया हूँ। मैं चाहता हूँ कि राम की पत्नी का अपहरण कर के मैं लंका ले जाऊँ। इसमें मुझे तुम्हारी सहायता की आवश्यकता है। सीता के वियोग में राम बिना युद्ध किये ही तड़प-तड़प कर मर जायेगा और इस प्रकार मेरा प्रतिशोध पूरा हो जायेगा।"
रावण के वचन सुन कर मारीच बोला, "हे रावण! तुम्हारा यह विचार सर्वथा अनुचित है। जिसने तुम्हें सीताहरण का सुझाव दिया है वह वास्तव में तुम्हारा मित्र नहीं शत्रु है। तुम राम से किसी प्रकार भी जीत नहीं सकोगे। राम के होते हुये तुम उससे सीता को नहीं छीन सकोगे। उसके अदभुत पराक्रम के सम्मुख तुम एक क्षण भी नहीं ठहर सकोगे। तुम्हारा हित इसी में है कि तुम इस विचार का परित्याग कर चुपचाप लंका में जा कर बैठ जाओ।" मारीच के उत्तर से निराश हो रावण लंका लौट आया।
10 अप्रैल 2010
रामायण – अरण्यकाण्ड - अकम्पन रावण के पास
Posted by Udit bhargava at 4/10/2010 06:05:00 pm
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