17 जून 2010

कर्मों में ब्रह्म शक्ति का प्रयोग ही भक्ति है

मानव योनि का परम लक्ष्य ईश्वर-प्राप्ति ही है। गीता के सातवें अध्याय के 18वें श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं कि, 'चार प्रकार के भक्तों- आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी में से ज्ञानीजन तो साक्षात मेरा स्वरुप ही हैं। मुझमें और ज्ञानी भक्त में कुछ भी अंतर नहीं है। भक्त है, सो मैं हूँ और मैं हूँ तो भक्त है।

ऐसे भक्त के मन और बुद्धि पूर्णतया ईश्वर में रमे रहते हैं।' भगवान् के मुख से उच्चारण किये गए शब्द जिज्ञासु के मन में ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा तो जाग्रत करते हैं, लेकिन वह यह समझ नहीं पाता है कि इस ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति वह कहाँ से करे। धर्मग्रंथों के आधार पर प्रवचन करने वाले ऐसे प्रचारकों की तो कोई कमी नहीं जो मानव को सत्य की अनुभूति करने की प्रेरणा देते हैं। परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि वे स्वयं भी इस संकेत से अनभिज्ञ हैं। जिसके द्वारा इस सर्वशक्तिमान निराकार परमात्मा को जाना जा सके, इसकी अनुभूति की जा सके। इसलिए वे जिज्ञासु का समाधान करने की उपेक्षा उसे कर्मकांड, जप-तप आदि करने के लिये कहते हैं।

आज का मानव अनपढ़ या गंवार नहीं है, वह बुद्धिमान हैं। प्रत्येक कथन पर सोच-समझकर तर्क के आधार पर विचार करता है। वह अन्धविश्वासी नहीं है। फिर भी वह ब्रह्म ज्ञान के लिये धार्मिक ग्रंथों में वर्णित कसौटी का प्रयोग क्यों नहीं करता? हमारे पास गीता, रामायण, बाईबिल, पवित्र कुरआन, गुरुग्रंथ साहिब आदि जैसे ग्रन्थ कसौटी के रूप में उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त हमें प्राचीन गुरु-पीर-पैगम्बरों के आदेश-उपदेश भी विदित हैं। इनके अनुसार नेक धर्म, धार्मिक ग्रंथों का पठान-पठान कर्मकांड आदि के द्वार ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती। केवल ब्रह्म देवता पूर्ण सदगुरु के प्रति सब धर्मों का परित्याग करके समर्पित होने पर ही ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति हो सकती है। जैसे गीता के चौथे अध्याय के 34वें श्लोक में भगवान् श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि, 'ब्रह्म ज्ञान को तू तत्वदर्शी ज्ञानियों के पास जाकर समझ, उनको भलीभांति दण्डवत प्रणाम करने से और कपट छोड़कर सरलतापूर्वक प्रश्न करने से वे तुझे तत्त्वज्ञान का उपदेश प्रदान करेंगे।'

अतन मानव को चाहिए कि ईश्वर की खोज करने की उपेक्षा ब्रह्म वेत्ता सदगुरु की खोज करें जो उसे ब्रह्म ज्ञान प्रदान कर सकें। वर्तमान समय में भी मानव जब किसी गुरु के पास जाए, तो उससे आदरपूर्वक सीधा और स्पष्ट सवाल करे कि मैं ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ, ईश्वर की अनुभूति करना चाहता हूँ, आय कृपा करके मुझे ब्रह्म ज्ञान प्रदान करें, अगर वह आपको सर्वव्यापक ईश्वर की जानकारी दे दे, तो उसके प्रति पूर्णरूप से समर्पित हो जाएँ। इसके विपरीत यदि वह कर्मकांड आदि करने के लिये कहे, तो आगे बढ़ जाएँ और उस समय तक खोज जारी रखें जब तक कि आपको ब्रह्म वेत्ता सदगुरु न मिल जाए।

सदगुरु से पूर्ण सद्ज्ञान प्राप्त करने के पश्चात मानव सर्वशक्तिमान, सर्व्यापक, सर्वज्ञ ईश्वर को अपने चारों ओर पाता है। सम्पूर्ण सृष्टि को ईश्वर में और ईश्वर को समूर्ण सृष्टि में देखता है। इसके विराट स्वरुप का दर्शन करता है।

ईश्वर एक ऐसी शक्ति है जिसके द्वारा पूरी सृष्टि संचालित होती है। प्रत्येक जीव इसी शक्ति द्वारा गतिशील रहता है। सभी कर्मों का करता यह ईश्वर ही है। इसकी आज्ञा के बिना पत्ता भी नहीं हिलता सभी क्रियाओं का नियंता यही है, ब्रह्म ज्ञान के पश्चात मानव की वास्तविक भक्ति आरम्भ होती है। इससे पूर्व उसके द्वारा की जा रही भक्ति परमात्मा की खोज मात्रा ही थी अर्थात वह ज्ञान प्राप्ति के मार्ग पर था। ब्रह्म ज्ञान के पश्चात उसके द्वार की जा रही भक्ति की प्राप्ति ही भक्ति है, क्योंकि वह ईश्वर की प्राप्ति कर चुका है। अब वह ब्रह्म शक्ति को सब कर्मों का करता मानता है। उसे प्रतिक्षण-प्रीतपल इस शक्ति का एहसास रहता है। अब उसके द्वारा किये जा रहे सांसारिक कार्य भी शक्ति बन जाते हैं, क्योंकि वह उन कार्यों को करते समय उनमें ब्रह्म शक्ति को सम्मलित कर लेता है। उसका प्रत्येक कार्य ईश्वर के प्रति समर्पण तथा प्रार्थना से प्रारंभ होता है और इसी से संपन्न होता है। इस प्रकार ब्रह्म ज्ञान के पश्चात मानव द्वारा ब्रह्म शक्ति के कारण उसका प्रत्येक कर्म शक्ति बन जाता है।

पांच अनंत सत्य और स्वामी नारायण सम्प्रदाय

समय-समय पर लोगों को सद्मार्ग दिखाने के लिये परमात्मा जीवात्मा के रूप में धरती पर आते हैं। वह कुछ ऐसा कर दिखाते हैं कि लोग उनके शरणागत हो जाते हैं। बचपन से ही कुछ ऐसे गुण थे स्वामीनारायण सम्प्रदाय के संस्थापक भगवान् स्वामीनारायण में। उन्होंने अपने जीवन दर्शन के माध्यम से लोगों को आदर्श जीवन जीने का सन्देश दिया।

उनके अनुयायी लगातार उनके सन्देश को प्रचारित-प्रसारित करने का काम कर रहे हैं। आज देश ही नहीं विदेशों में भी इस जीवन-दर्शन पद्वति को मानने वाले करोड़ों की संख्या में हैं।

चैत्र सुद 9 संवत 1837 को अयोध्या के निकट छपिया गाँव में जन्मे भगवान् स्वामी नारायण का नाम माता-पिता ने घनश्याम रखा था। बचपन से ही वे ऐसे चमत्कार करने लग गए थे कि लोगों को उनमें देवत्व का आभास होने लगा था। दस वर्ष की उम्र में ही उन्होंने सारे वैदिक ज्ञान को प्राप्त कर लिया था। उनकी विद्वता तब उजागर हुई थी जब उन्होंने काशी में पंडितों के बीच शास्त्रार्थ में रामानुज के विशिष्ट द्वैत के व्यवहारिक महत्व को दूसरे दर्शन से तुलना कर बताया। इसके बाद वहां उपस्थित काशी नरेश समझ गए थे कि यह कोई साधारण मानव नहीं है। ग्यारह वर्ष की अवस्था में उन्होंने गृह त्याग कर दिया। इसके बाद उन्होंने कल्याण यात्रा शुरू की। इसके माधाम से धार्मिक स्थलों की पवित्रता को अक्षुण बनाए रखने और लोगों को ईश्वर की उपासना कर उद्दार का रास्ता बताने का काम किया। इस यात्रा के दौरान वह नीलकंठ के नाम से प्रख्यात हुए। उन्होंने 187 पवित्र समाधिस्थालों का भ्रमण किया। देशभर में हिमालय, नेपाल, बंगाल, कन्याकुमारी, गुजरात आदि स्थानों पर उनके चमत्कारिक गुण से प्रभावित होकर उन्हें धन-दौलत और राज्य आदि उपहारस्वरूप दिया जाने लगा, लेकिन उन्होंने सब ठुकरा दिया।

स्वामीनारायण की फिलासफी को स्वामीनारायण दर्शन के नाम से जाना जाता है। इसमें पांच अनंत सत्य पर विश्वास किया जाता है। जीव, ईश्वर, माया, ब्रह्म और परम्प्रह्म। इसमें ब्रह्म को अक्षर या अक्षरब्रह्म के रूप में जाना जाता है। इसी से मन्दिर का नाम अक्षरधाम मन्दिर पडा। भगवान् स्वामीनारायण ने शिक्षापत्री में जीवन जीने की राहें बताई हैं। इसमें पांच चीजों पर जोर दिया गया है। धर्म, ज्ञान, वैराग्य और भक्ति। उन्होंने इहलोक और परलोक में खुश रहने के लिये निम्न बाते बताई हैं-

अहिंसा -- जीव की ह्त्या न ही यज्ञ के लिये करें और न ही भोजन के लिये। आत्महत्या या नरहत्या महापाप है।
भक्ति -- शिवरात्री, रामनवमी, जन्माष्टमी  और एकादशी मनाएं। प्रतिदिन पूजा करें और प्रसाद वितरण करें। प्रतिदिन मन्दिर जाएँ, भगवान् की गाथा से सम्बंधित भजन गायें और शास्त्रों का अध्ययन करें।
सत्संग -- चोर, नशाबाज, विधर्मी, दुराचारी और लालची व्यक्ति से दूर रहें।
दान -- आमदनी का दसवां भाग भगवान् और भिक्षा के नाम खर्च करें।
पर्यावरण जागरूकता -- सार्वजनिक स्थानों, नदी, बगीचा और झील जैसी जगहों पर थूकना और मल विसर्जन नहीं करना चाहिए।
शिक्षा -- संस्कृत और धार्मिक अध्ययन का प्रबंध करना चाहिए।
वित्तीय प्रबंधन -- दोस्त, औलाद या रिश्तेदार किसी से भी लेनदेन लिखित में करें। आय से अधिक व्यय नहीं करना चाहिए। प्रतिदिन के खर्च को अपने हाथ से लिखें, कर्मचारी को सहमती के हिसाब से मजदूरी दें।
स्वस्थ और खानपान -- प्रतिदिन स्नान करें, स्वच्छ पानी पीयें, दूध और अन्य तरल पर्दार्थ ग्रहण करें, शाकाहारी बनें, शराब और तम्बाकू जैसे नशीले पर्दार्थों का सेवन न करें।
नैतिकता -- अनैतिकता सम्बन्ध न बनाएं, अभद्र कपडे न पहने, विवाहित महिला, विधवा, नौकरानी और साधु का ख़ास ख़याल रखें। विष्णु, गणपति, पार्वती और आदित्य के प्रति आस्था रखें। आठ शास्त्रों में विशवास करें - चारों वेद, व्यास के वेदान्त सूत्र, श्रीमद्भागवत गीता, विष्णु सहस्त्रनाम, भगवद्गीता, विदुरनीति, वासुदेव महात्म्य और याज्ञवल्क्य स्मृति।
आदर -- अपने से बड़ों, साधु और पवित्र स्थानों का आदर करें।

15 जून 2010

महाभारत - पाण्डवों का वन गमन

इसके पश्चात् धृतराष्ट्र ने दुर्योधन से पाण्डवों का राज्य लौटाने के लिये कहा। इस पर दुर्योधन ने कहा कि राज्य हमने जुए में जीता है अतः युधिष्ठिर को वह केवल जुए का दाँव जीत कर ही वापस मिल पायेगा। युधिष्ठिर यदि चाहे तो एक दाँव और खेल सकता है। इस बार जीतने पर उसे राज्य सहित हारा हुआ समस्त धन-सम्पत्ति लौटा दिया जायेगा। किन्तु हारने पर पाण्डवों को बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना होगा। अज्ञातवास के समय यदि उनका पता चल जाता है तो उन्हें फिर से बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास भोगना होगा। और यदि पाण्डव बारह वर्ष का वनवास और एक वर्ष का अज्ञातवास सफलतापूर्वक व्यतीत कर वापस आ जायेंगे तो उन्हें उनका राज्य वापस लौटा दिया जायेगा।" यद्यपि भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य आदि ने दुर्योधन के इस बात का घोर विरोध किया, किन्तु दैवयोग को कौन टाल सकता है? युधिष्ठिर ने इस दाँव के लिये अपनी स्वीकृति दे दी। शकुनि ने पुनः कपट भरे पासे डाल-डाल कर युधिष्ठिर को हरा दिया।

इस प्रकार हार जाने के पश्चात् युधिष्ठिर अपने भाइयों और पत्नी समेत वल्कल धारण कर वन जाने के लिये तैयार हो गये। इसी समय दुःशासन ने द्रौपदी से कहा, "सुन्दरी! तुम वन के योग्य नहीं हो। तुम हमारे साथ आ जाओ और महलों का सुख उठाओ। पाण्डव नपुंसक हो गये हैं, आज उनके सारे राज्य पर हमारा अधिकार हो चुका है, अब उनका साथ छोड़ देने में ही तुम्हारी भलाई है।" यह सुनते ही भीम अत्यन्त क्रोधित होकर बोले, "दुष्ट पापी! तुमने यह राज्य छल-कपट से प्राप्त किया है, युद्ध से नहीं। वनवास से लौटने के बाद मैं तुम्हारा खून पीकर अपनी प्यास बुझाउँगा।" अर्जुन ने भी कहा, "मैं भी शपथ ले कर कहता हूँ कि युद्ध क्षेत्र में कर्ण का वध अवश्य करूँगा।" सहदेव बोले, "मैं गान्धार के कलंक दुष्ट शकुनि को युद्ध क्षेत्र में मार गिराउँगा।"

इस प्रकार पाण्डवों ने बहुत सी प्रतिज्ञायें कीं और फिर सभी गुरुजनों से भेंट कर वन जाने लगे। उनके वन के लिये प्रस्थान करते समय विदुर ने समझाया, "पुत्रों! तुम्हारी माता अब बहुत वृद्ध हो गई हैं, वन के कष्टों को झेलना उनके लिया असाध्य है। अतएव तुम उन्हें मेरे पास छोड़ दो।" पाण्डवों ने अपने दादा विदुर की इस बात को मान लिया और अपने माता कुन्ती को वहीं छोड़ कर वन को प्रस्थान कर गये।

पाण्डवों के वन चले जाने के पश्चात् विदुर धृतराष्ट्र के पास आकर बोले, "धृतराष्ट्र! जो कुछ भी हुआ है वह केवल आपकी कुबुद्धि का परिणाम है। इसका फल चौदह वर्षों के बाद आपको प्रत्यक्ष देखने को मिलेगा। पाण्डवों के वन जाते समय सारी प्रजा आपको और आपके पुत्रों को कटु वचन कह रही थी। विनाशकाल आने पर बुद्धि विपरीत हो जाती है। आपकी भी बुद्धि विपरीत हो गई है। आपको इस द्यूत-क्रीड़ा के आयोजन को रोकना था किन्तु आपने उसे नहीं रोका। आपके पुत्रों ने पाण्डवों के राज्य को छलपूर्वक हड़प लिया और आपने इस कार्य में अपने पुत्रों का साथ दिया है। निश्चय ही आपको अपने पापों का फल भोगना होगा।"

दैवीय शक्ति का स्त्रोत चंदन ( Sandalwood source of divine power )

हिन्दू धर्म में चंदन का प्रयोग अक्षर धार्मिक अनुष्ठïन के लिए किया जाता है। चंदन का प्रयोग मंदिरों में मूर्तियों पर लगाने के लिए भी किया जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसे लगाने से व्यक्ति दैवीय शक्ति के नजदीक हो जाता है। चंदन की लकड़ी के तेल का प्रयोग जो कि बहुत मंहगा है यह मुख्यत: आयुर्वेद में इलाज के लिए भी काम में लाया जाता है। इसके प्रयोग से तनाव कम करने मदद मिलती है। ऐसा विश्वास किया जाता है चंदन की सुगंध से व्यक्ति को ध्यान लगाने में मदद मिलती है। चंदन का प्रयोग चीन और जापान में भी धार्मिक अनुष्ठानों में किया जाता है।

चंदन एक भारतीय पौधा है जिसकी असाधारण खुशबू होती है। चंदन के पेस्ट का प्रयोग विष्णु और शिव के भक्त तिलक लगाने में भी करते है। ऐसी भी मान्यता है कि इस तिलक से भोंहे के बीच अग्न चक्र की रक्षा होती है। चंदन की लकड़ी वैसे भवन निर्माण के लिए ठीक नहीं है फिर भी भारत में कुछ मंदिर चंदन की लकड़ी से बनाए गए है। उन मंदिरों मे चंदन की खुशबू शताब्दियों तक रही। चंदन का प्रयाग ज्वैलरी बॉक्स बनाने में भी किया जाता है।

छींक भी देती है कुछ सीख

शायद ही कोई ऐसा व्यक्ति होगा जिसे अपने जीवन में छींक न आई हो। एक बार नहीं हजारों बार हमें विवश होकर छींकना पड़ता है, क्योंकि यह एक स्वाभाविक प्रक्रिया है, जिस पर किसी का कोई नियंत्रण नहीं होता है। छींक आना वैसे एक शारीरिक प्रक्रिया है, परंतु इसे प्राचीन समय से ही अनेक अर्थों में लिया जाता रहा है। उदाहरण के लिए, एक छींक आई तो अशुभ है, दो आई तो शुभ है, जाते हुए आई तो अशुभ है, आदि।

प्राय: नजला-जुकाम होने पर छींक अधिक आती है, एक के बाद एक छींक आती ही रहती है। लेकिन इस प्रकार की छींक को किसी संकेत से नहींं जोड़ा जाता है। जो छींक अचानक आती है, उसी से प्राय: शुभ-अशुभ का अनुमान लगाया जाता है। छींक आने के

भी तरीके अलग-अलग हैं। किसी व्यक्ति को इतनी जोर से छींक आती है कि आस-पास केलोगों का ध्यान उसकी ओर आकर्षित हो जाता है। वहीं बहुत से लोगों को छींक इतनी धीमी आवाज के साथ आती है कि

पता ही नहीं चलता कि कोई आस-पास छींका भी है। कोई जोर की आवाज के साथ छींके या कोई धीमी आवाज के साथ, कोई बार-बार छींके या कोई केवल एक बार लेकिन हर छींक का कोई-न-कोई मतलब होता ही है। जानें छींक से जुड़ी कुछ रोचक बातें:

जहां कहीं भी पुरानी लोक परंपराएं प्रचलित हैं, वहां छींकना ईश्वर का उपहार माना जाता है। यही वजह है कि छींकने के बाद कहा जाता है कि ईश्वर आपको प्रसन्न रखे या आप चिरायु हों।

हिंदुओं में छींक को लेकर अनेक तरह की मान्यताएं प्रचलित हैं। कई बार एक ही छींक के अनेक मतलब निकाले जाते हैं। जैसे, यात्रा पर निकलने से पूर्व स्वाभाविक ढंग से छींक का आना, किसी अप्रिय घटना का सूचक होता है। लेकिन नसवार सूंघकर या सर्दी-जुकाम के समय की छींक का कोई अर्थ नहीं होता।

अगर आपकी उपस्थिति में कोई लगातर छींके तो यह आपके लिए समृद्धि के आगमन का संकेत है।

एक छींक अशुभ मानी जाती है, किंतु उसके साथ की दूसरी छींक उसके अशुभ प्रभाव को काटने वाली कही जाती है। कहीं-कहीं मान्यता इसके विपरीत भी है। नींद में बिस्तर से उठते समय या खाने के समय का छींकना अशुभ लक्षण माना जाता है। पर, भोजन के बाद छींक का आना शुभ और सुस्वादु भोजन की पुन: प्राप्ति का संकेत होता है।

किसी अशुभ प्राकृतिक संकेत को देखते समय छींकने से उसका प्रभाव जाता रहता है। किसी नए कार्य की योजना बनाते या किसी यात्रा पर जाते समय की छींक आने वाले अवरोधों की सूचक होती है। यात्रा या पदयात्रा के समय छींक आने पर कुछ देर रुककर जाने की मान्यता है।

किसी बस्ती या मोहल्ले में प्रवेश करते समय अगर कोई छींक दे तो माना जाता है कि जिस कार्य के लिए आप आए हैं, वह पूरा नहीं होगा।

नई पोशाक पहनते समय छींकने का अर्थ शुभ लगाया जाता है यानी और भी नए वस्त्र प्राप्त हो सकते हैं।

मरीज जब इलाज के लिए दवाखाने में प्रवेश करता है, उस समय उसे छींक आने का अर्थ शुभ निकाला जाता है, पर कहीं-कहीं धारणा इसके विपरीत भी है।

किसी गृहस्वामी के दरवाजे पर छींकना उसके लिए नुकसानदेह माना जाता है। कोई अगर आपके सामने छींक दे तो कुप्रभाव को दूर करने के लिए प्रभु की स्तुति करनी चाहिए या ढाई श्वास रुककर फिर आगे बढऩा चाहिए, इससे कुप्रभाव दूर हो जाता है।

एक लोकोक्ति के अनुसार, दवा लेते समय, किसी वाहन में सवार होते समय, झगड़ा शुरू करते समय, सोने से पूर्व, किसी नए पाठ्यक्रम में दाखिले के समय और खेतों में बुआई के समय छींकना शुभ होता है। मुसलमानों में छींक आने पर ईश्वर का शुक्रिया अदा किया जाता है। यह सोचकर कि मालिक ने नई जिंदगी दी है।

चाहिए पूरब को विज्ञान पश्चिम को धर्म

पूरब ने कोशिश की एक पंख से उडऩे की, और बुरी तरह गिरा। पश्चिम ने भी कोशिश की एक पंख से उडऩे की, बुरी तरह गिरा। दोनों वैसे तो बड़े विपरीत दिखाई पड़ते हैं, मगर एक बात में राजी हैं कि एक ही पंख से उडऩा है। उनकी अपनी-अपनी जिद है। इस जिद ने सारी मनुष्यता को दुख से भर दिया है। दोनों ही पंख प्यारे हैं। पदार्थ में कुछ बुरा नहीं है। पदार्थ भी परमात्मा की अभिव्यक्ति है। पदार्थ असत्य नहीं है और परमात्मा भी असत्य नहीं है। परमात्मा पदार्थ में ही छुपा है। जैसे बीज में फूल छिपे होते हैं। बीज तोड़ो, तो फूलों को न पा सकोगे। यह कोई ढंग न हुआ फूलों को पाने का। बीज को जमीन दो, भूमि दो, जल दो, तब ठीक समय पर, ठीक मौसम में आएगा वसंत और फूल खिलेंगे, झर झर झरेंगे। आपको आनंद मिलेगा। बीज को काट के फूल नहीं पाए जाते। बीज को उगाना होता है।

मेरे हिसाब से, ध्यान की पूरी कला, तुम्हारे भीतर जो छिपी हुई संभावना है, उसको वास्तविक बनाने की कला है। तुम्हारी संभावनाओं को यथार्थ बनाने की कला है। तुम्हारे बीज को फूल तक ले जाने की कला है। मैं दरिद्रता का पक्षपाती नहीं हूं। दरिद्रता किसी भी रूप में अच्छी नहीं। मैं चाहता हूं कि प्रत्येक व्यक्ति समृद्ध होना चाहिए। आज विज्ञान प्रत्येक व्यक्ति को समृद्ध करने में कुशल है। उसमें अथाह शक्ति है। उसका उपयोग करना चाहिए। इसलिए कोई जरूरत नहीं कि हम चरखा लिए बैठे रहे। यह मूढ़ता की हद है। यह जड़ता की आखिरी सीमा है कि लोग चरखे चला रहे हैं। जैसे दरिद्र होने की हमने कसम खा ली है। जैसे द्ररिद्रता से छुटकारा नहीं चाहते।

किसी को अब दरिद्र होने की जरूरत नहीं है। दरिद्रता इस पृथ्वी से यूं ही मिट सकती है कि जैसे कभी थी ही नहीं। आज इस बात की संभावना है, पहले इस बात की संभावना नहीं थी। इसलिए थोड़े प्रयासों से इस दरिद्रता को मिटाया जा सकता है। पर न मालूम कैसे-कैसे झूठे सिद्धांत लोगों ने गढ़े हैं। आखिर कुछ तो समझाना पड़ेगा। सवाल सामने था कि लोग गरीब क्यों हैं। हमने सिद्धांत गढ़े कि पिछले जन्मों के पापों के कारण गरीब हैं। या सिद्धांत गढ़ा कि भारत के भाग्य में ही गरीबी लिखी है। परमात्मा ने पहले ही हमें गरीबी दे दी है।

पिछले जन्म का सिद्धांत और भी जहरीला है। उसका जाल लंबा है। अनंत जन्म! स्वभावत: न मालूम कितने पाप किए होंगे। अब न मालूम कितने अनंत जन्मोंं तक पापों का फल भोगना पड़ेगा। मुश्किल यह है कि अब अनंत जन्मों तक तुम पुराने पापों का फल ही थोड़े भोगते रहोगे। कुछ और भी तो करोगे। या बस पापों का फल ही भोगते रहोगे। पापों का फल भोगने में फिर पाप हो जाएंगे, तो समझ लो कि छुटकारे का कोई उपाय नहीं रहेगा।

एक ऐसा दुष्टचक्र पैदा कर दिया है कि उसमें गरीब ही रहना पड़ेगा। और इसमें अमीर को भी एक तरह की सुरक्षा दे दी। यह मान लिया गया कि उन्होंने पुण्य कर्म किए थे, इसलिए वे अमीर हुए हैं। इससे अमीरों को एक कवच मिल गया। गरीब आवाज नहीं उठा सकता कि उन्हें चूसा गया है, या उन्हें चूसा जा रहा है। इसका दर्शन यही है कि चूसने का सवाल ही नहीं, वे अपने पुण्यों का और तुम अपने पापों का फल भोग रहे हो। फिर अपने साथ हुए शोषण की बात कहां कहोगे।

इन थोथी धारणाओं की कोई जरूरत नहीं है। न तो भाग्य में कुछ लिखा है, न कोई विधाता है जो कुछ लिख रहा है। न तुम्हारे पिछले जन्मों के कर्मों का कोई सवाल है। असल मेंं जब तुम कर्म करते हो, तब उसका फल भोग लेते हो। इतनी देर लगेगी क्या? पिछले जन्म में आग में हाथ डाला इस जन्म में जलोगे? जरा मूढ़ता भी तो देखो। कुछ हिसाब भी तो सोचो। पिछले जन्म में आग में हाथ डाला तभी जल गए होंगे। तभी जल गए होंगे। इतनी देर की जरूरत क्या है? कार्य- कारण इतनी देर तक नहीं ठहरते। अगर पिछले जन्म में क्रोध किया होगा तो क्रोध करने में ही तो आदमी जल भुनता है। खूब भोगता है। किसी की हत्या की होगी तो अपराध की पीड़ा, ग्लानि, महसूस हुई होगी।

अब और क्या चाहिए। उतनी लपटें काफी हैं, बहुत हैं। हर जन्म का निपटारा उसी जन्म में हो जाता है। तुम जब भी पैदा होते हो, कोरी स्लेट लेकर पैदा होते हो। आज इस तरह की बातों की जरूरत नहीं। विज्ञान इस पूरी पृथ्वी को समृद्ध कर सकता है। मगर चरखों को तो जलाना पड़ेगा। कुछ मूढ़ तो और आगे बढ़ गए हैं। वे तकलियां चला रहे हैं। उन्होंने तय कर लिया है कि बाबा आदम के आगे नहीं जाना है। गरीबी का मैं पक्षपाती नहीं हू। न बाहरी गरीबी का न भीतरी गरीबी का । इसलिए पूरब को विज्ञान चाहिए पश्चिम को धर्म। पश्चिम भी बावला है। समृद्धि को ही संतोष मान बैठा है। दोनों को पंख मिल जाएं तो मनुष्य आनंद के आकाश में उड़ानें भरने लगता है।

ऐसे पाएं अशुभ जन्म योग से छुटकारा ( Get rid of that sum born evil )

जन्म और मृत्यु पर किसी का वश नहीं होता। कहते हैं, जो जैसा कर्म करता है उसी के अनुरूप उसे जीवन में सुख और दुख मिलता है। यानी सुख-दुख का निर्धारण जातक के जन्म कुंडली से ही हो जाता है। जब भी शिशु पैदा होता है, उस समय कोई न कोई तिथि, पक्ष, करण, नक्षत्र एवं योग आदि होते हैं। इनमें से अमावस्या, भद्रा करण, संक्रांति, दग्धदि योग तथा ग्रहणकाल आदि अशुभ योग कहलाते हैं। ये योग मनुष्य को विभिन्न प्रकार से हानि, दुख एवं असफलता देने वाले होते हैं। तंत्र शास्त्र में अशुभ जन्म योग के दुष्प्रभावों से बचने के लिए शास्त्र सम्मत उपाय दिए गए हैं। आप भी इन उपायों को अपनाकर अपना जीवन सुखमय बना सकते हैं।

अमावस्या तिथि में जन्म होना माता-पिता की आर्थिक स्थिति पर बुरा प्रभाव डालता है। जो व्यक्ति अमावस्या तिथि में जन्म लेते हैं, उन्हें जीवन में आर्थिक तंगी का सामना करना होता है। वहीं अमावस्या तिथि में भी जिस व्यक्ति का जन्म पूर्ण चंद्र रहित अमावस्या में होता है, वह अधिक अशुभ माना जाता है। इस अशुभ प्रभाव को कम करने के लिए सूर्य एवं चंद्रमा की शांति के उपाय करें। रुद्राभिषेक करें तथा घी सहित छायापात्र का दान करें। उपरोक्त योग नष्ट हो जाएगा।

कृष्ण पक्ष की चतुर्दशी में जन्म होने पर जातक की माता, पिता, मामा, वंश या स्वयं का नाश होता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए नियमित रूप से ब्राह्मïणों को भोजन कराएंं। प्रतिदिन महामृत्युंजय मंत्र का जप करें और शिवजी का पूजन करें। इससे चतुर्दशी का प्रभाव कम होता है।

भद्रा में जन्म होने पर जातक को सुख-ऐश्वर्य नहीं प्राप्त होता। अनेक रोगों एवं कष्टों का सामना करना पड़ता है। इसके निवारण के लिए किसी शुभ लग्न में रुद्राभिषेक कराएं। पीपल की पूजा एवं प्रदक्षिणा करें। सूर्य सूक्त तथा गणपति सूक्त का पाठ करें। इससे भद्रा के दुष्प्रभावों को काफी हद तक कम किया जा सकता है। यदि पुत्र और पिता, माता एवं पुत्री अथवा दो भाइयों, दो बहनों या एक भाई-एक बहन का जन्म नक्षत्र एक ही हो, तो दुर्बल ग्रह स्थिति वाले व्यक्ति को मृत्यु तुल्य कष्ट, दरिद्रता एवं अपयश भोगना पड़ता है। इस योग के निवारण के लिए गणेशाम्बिका का पूजन करें। नवग्रहों का पूजन करना भी काफी लाभदायक होता है।

सोमवार को ग्यारहवीं, मंगलवार को पचंमी, बुधवार को तृतीया, गुरुवार को षष्ठी, शुक्रवार को अष्टम, शनिवार को नवमी तथा रविवार को द्वादशी तिथि होने पर दग्धदि योग कहलाता है। इस योग में उत्पन्न होने वाले जातक को विभिन्न प्रकार की विपत्तियों का सामना करना पड़ता है। इस योग के दुष्प्रभावों का शमन करने के लिए वार एवं तिथि विशेष देवता की पूजा-अर्चना करना उपयोगी होता है। इसके अलावा महामृत्युंजय मंत्र का पाठ करने से भी काफी लाभ होता है। सूर्य द्वारा एक राशि से दूसरी राशि में प्रवेश का समय संक्रांति कहलाता है। स्पष्ट मान से 6 घंटा 24 मिनट आगे और 6 घंटा 24 मिनट पीछे तक संक्रांति का दुष्प्रभाव बहुत अशुभ होता है। यदि जातक का जन्म संक्रांति के समय हुआ है, तो उसे अशांति, असफलता, दरिद्रता एवं हानि का सामना करना पड़ता है। इस योग से बचने के लिए गोदान एवं स्वर्णदान करें तथा ब्राह्मणों को भोजन कराएं। यदि सूर्य और चंद्र दोनों एक अयन में हों तथा उनकी सक्रांति एक समान हो तो वैधृति योग होता है। यदि सूर्य एवं चंद्र की सक्रांति एक समान हो परंतु दोनों अलग-अलग अयन में हों तो व्यतिपात योग कहलाता है। ये दोनों योग बहुत अशुभ होते हैं। इसके निवारणार्थ छायापात्र का दान करें तथा महामृत्युंजय मंत्र का जप करें।

यदि जातक सूर्य या चंद्र के ग्रहणकाल में जन्म लेता है तो उसे शारीरिक, मानसिक एवं आर्थिक कष्ट के साथ-साथ मृत्यु का भी भय रहता है। इसके लिए सूर्य, चंद्र एवं राहु की पूजा-अर्चना करने से लाभ मिलता है।