खर की सेना की दुर्दशा के विषय में ज्ञात होने पर दूषण भी अपनी अपार सेना को साथ ले कर समर भूमि में कूद पड़ा किन्तु राम ने अपने बाणों से उसकी सेना की भी वैसी ही दशा कर दिया जैसा कि खर की सेना का किया था। क्रोधित होकर दूषण ने मेघ के समान घोर गर्जना कर के तीक्ष्ण बाणों की वर्षा आरम्भ कर दी। इस आक्रमण से कुपित हो कर राम ने चमकते खुर से दूषण के धनुष को काट डाला तथा चार बाण छोड़ कर उसके रथ के चारों घोड़ों को भूमि पर सुला दिया। फिर एक अर्द्ध चन्द्राकार बाण से दूषण के सारथी का सिर काट दिया। क्रुद्ध दूषण एक परिध उठा कर राम को मारने झपटा। उसे अपनी ओर आता देख राम ने पलक झपकते ही अपना खड्ग निकाल लिया और दूषण के दोनों हाथ काट डाले। पीड़ा से छटपटाता हुआ वह मूर्छित होकर धराशायी हो गया। दूषण की ऐसी दशा देख कर सैकड़ों राक्षसों ने एक साथ राम पर आक्रमण करना आरम्भ कर दिया। रामचन्द्र ने स्वर्ण तथा वज्र से निर्मित तीक्ष्ण बाणों को छोड़ कर उन सभी राक्षसों का नाश कर दिया। उनके पराक्रम से खर और दूषण की अपार सेना यमलोक पहुँच गई।
अब केवल खर और उसका सेनापति त्रिशिरा शेष बचे थे। खर अत्यन्त निराश हो चुका था। उसे धैर्य बँधाते हुये त्रिशिरा ने कहा, "हे राक्षसराज! आप निराश न हों। मैं अभी राम का वध करके अपने सैनिकों के मारे जाने का प्रतिशोध लेता हूँ। मैं प्रतिज्ञा करता हूँ कि यदि मैंने उस तपस्वी को न मारा तो मैं युद्धभूमि में अपने प्राण त्याग दूँगा।" इतना कह कर वह राम की ओर तीव्र गति से झपटा। उसे अपनी ओर आते देख राम ने फुर्ती के साथ बाण चलना आरम्भ कर दिया। राम के बाणों ने त्रिशिरा के सारथी, घोड़ों तथा ध्वजा को काट डाला। इस पर क्रुद्ध सेनापति हाथ में गदा ले कर राम की ओर दौड़ा, किन्तु वीर राम ने उसे अपने निकट पहुँचने के पहले ही एक ऐसा तीक्ष्ण बाण छोड़ा जो उसके कवच को चीर कर हृदय तक पहुँच गया। हृदय में बाण लगते ही त्रिशिरा धराशायी हो गया और तत्काल उसके प्रण पखेरू उड़ गये। जहाँ पर वह गिरा वहाँ की सारी भूमि रक्त-रंजित हो गई।
जब खर अकेला रह गया तो वह क्रोधित हो कर राम पर अंधाधुंध बाणों की वर्षा करने लगा। चहुँ ओर उसके बाण वायुमण्डल में फैलने लगे। बाणों की घटाओं से घिरने पर राम ने अग्निबाणों की बौछार करना आरम्भ कर दिया। इससे और भी क्रुद्ध होकर खर ने एक बाण से रामचन्द्र के धनुष को काट दिया। खर के इस अद्भुत पराक्रम को देख कर यक्ष, गन्धर्व आदि भी आश्चर्यचकित रह गये, किन्तु अदम्य साहसी राम तनिक भी विचलित नहीं हुये। उन्होंने अगस्त्य ऋषि के द्वारा दिया हुआ धनुष उठा कर क्षणमात्र में खर के घोड़ों को मार गिराया। रथहीन हो जाने पर अत्यन्त क्रुद्ध हो पराक्रमी खर हाथ में गदा ले राम को मारने के लिये दौड़ा। उसे अपनी ओर आता देख राघव बोले, "हे राक्षसराज! निर्दोषों तथा सज्जनों को दुःख देने वाला व्यक्ति चाहे सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का स्वामी ही क्यों न हो, उसे अन्त में अपने पापों का फल भोगना ही पड़ता है। तुझे भी निर्दोष ऋषि-मुनियों को भयंकर यातनाएँ देने का फल भुगतना पड़ेगा। आज तेरे पापों का घड़ा भर गया है। तुझ जैसे अधर्मी, दुष्ट दानवों का विनाश करने के लिये ही मैं वन में आया हूँ। अब तू समझ ले कि तेरा भी अन्तिम समय आ पहुँचा है। अब तुझे कोई नहीं बचा सकता।"
राम के वचनों को सुन कर खर ने कहा, "हे अयोध्या के राजकुमार! वीर पुरुष अपने ही मुख से अपनी प्रशंसा नहीं किया करते। अपने इन वचनों से तुमने अपनी तुच्छता का ही परिचय दिया है। तुममें इतनी शक्ति नहीं है कि तुम मेरा वध कर सको। मेरी इस गदा ने अब तक सहस्त्रों आर्यों को रणभूमि में धराशायी किया है। आज यह तुम्हें भी चिरनिद्रा में सुला कर मेरी बहन के अपमान का प्रतिशोध दिलायेगी।" यह कहते हुये खर ने अपनी शक्तिशाली गदा को राम की ओर उनके हृदय का लक्ष्य करके फेंका। राम ने एक ही बाण से उस गदा को काट दिया। फिर एक साथ अनेक बाण मार कर खर के शरीर को क्षत-विक्षत कर दिया। क्षत-विक्षत होने परे भी खर क्रुद्ध सर्प की भाँति राम की ओर लपका। इस पर राम ने अगस्त्य मुनि द्वारा दिया गये एक ही बाण से खर का हृदय चीर डाला। खर भयंकर चीत्कार करता हुआ विशाल पर्वत की भाँति धराशायी हो गया और उसके प्राण पखेरू सदा के लिये उड़ गये।
खर के मरने पर ऋषि-मुनि, तपस्वी आदि राम की जय-जयकार करते हुये उन पर पुष्प वर्षा करने लगे। उन्होंने राम की भूरि-भूरि प्रशंसा करते हुये कहा, "हे राघव! आज आपने दण्डक वन के निवासी तपस्वियों पर महान उपकार किया है। इन राक्षसों ने अपने उपद्रवों से हमारा जीवन, हमारी तपस्या, हमारी शान्ति सब कुछ नष्टप्राय कर दिये थे। आज से हम लोग आपकी कृपा से निर्भय और निश्चिन्त होकर सोयेंगे। परमपिता परमात्मा आपका कल्याण करें। इस प्रकार उन्हें आशीर्वाद देते हुये वे अपने-अपने निवास स्थानों को लौट गये। इसी समय लक्ष्मण भी सीता को गिरिकन्दरा से ले कर लौट आये। अपने वीर पति की शौर्य गाथा सुन कर सीता का हृदय गद्-गद् हो गया।
10 अप्रैल 2010
रामायण – अरण्यकाण्ड - खर-दूषण वध
Posted by Udit bhargava at 4/10/2010 05:55:00 pm
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