03 अप्रैल 2010

दशहरा या विजयादशमी

दशहरा या विजयादशमी के संबंध मे लोकजीवन में कई तरह के विश्वास प्रचलित हैं। वि‍भिन्नज मतों पर आधारित इन सभी विश्वासों का आख़िरी उद्देश्य हमेशा ही एक समान होता है - लोककल्यारण। ज्योतिष एवं धर्मग्रंथों में भी इस संबंध में विस्तृत चर्चा की गई है।
आइए एक नज़र डालते हैं इस पर:
त्वां नियोक्ष्यामहे विष्णो लोकानां हितकाम्या।
तत्र त्वं मानुषो भूत्वा प्रवृद्धं लोककष्टकम् ।
अवध्यं देवर्तेविष्णो समरे जहि रावणम्।।

अयोध्या के राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ में भाग लेने के लिए देवतागण आकर वहाँ भगवान विष्णु से लोककल्याण हेतु रावण-वध के लिए प्रार्थना करते हैं। लंका के राजा रावण के अत्याकचार से पूरी पृथ्वीन पर हाहाकार मचा हुआ था। वो विष्णु से प्रार्थना करते हैं कि, “हे प्रभु! लोकहित की कामना से हम आपको इस काम में लगाना चाहते हैं। आप मनुष्यस रूप में अवतार लेकर पृथ्वीअवासियों के लिए कंटक बन चुके और देवताओं से न मारे जा सकने वाले रावण का युद्ध में संहार कीजिए।”

देवताओं की प्रार्थना को सुनकर भगवान विष्णु ने लोककल्याण के हित में असत्य पर सत्य की विजय के लिए, विप्र, धेनु, संत और पृथ्वी पर होने वाले अत्याचार को ख़त्म करने के लिए एवं रावण द्वारा जो भय उत्पन्न हो गया था, उसको मिटाने के लिए भगवान श्रीराम के रूप में जन्म लिया।

युद्ध में रावण का वध कर उसके अत्यानचार से मुक्ति दिलाने वाले भगवान श्रीराम को मैं प्रणाम करता हूँ। जिस दिन रावण मारा गया उस दिन अश्विन शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि थी। वही दिन विजय दशहरे के रूप में मनाया जाता है और असत्यन पर सत्यम के, बुराई पर अच्छेम के विजय का प्रतीक है। रावण का संहार कर भगवान राम ने यह संदेश दिया कि शत्रु की बुराई को खत्म करो, परंतु उसके परिवार के प्रति श्रद्धा एवं दया का भाव रखना चाहिए।

यही कारण है कि राम ने रावण के छोटे भाई विभीषण को अपनी शरण में आने की अनुमति दी। रावण के मारे जाने के बाद भी श्रीराम ने विभीषण के प्रति अपनी सहज नम्रता ही दिखलाई। रावण की मृत्यु पर घर की सभी स्त्रियों को रोते देखकर विभीषण भी दुःखी हो जाता है। इसे देख श्रीराम लक्ष्मण को विभीषण को धैर्य बंधाने और सांत्वना देने का निर्देश देते हैं। लक्ष्मण द्वारा अपने शत्रु की मृत्यु पर भी शोक और संवेदना प्रकट करने पर विभीषण का मन कुछ हल्का होता है और वह श्रीरामजी के पास आता है।

कृपा दृष्टि प्रभु ताहि विलोका। करहु क्रिया परिहरि सब सोका।।
कीन्हि क्रिया प्रभु आयसु मानी। विधिवत देस काल जियँ जानी।।

श्रीराम विभीषण की ओर देखकर कहते हैं कि हर तरह की मोह-माया और शोक त्याग कर अपने भाई रावण की अंतिम क्रिया विधिपूर्वक अपने देश के रीति-रिवाज़ के अनुसार करने का प्रबंध करो। स्पष्ट है कि मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम ने रावण के प्रति शत्रुता का त्याग कर अपनी नम्रता, प्रेम और उदारता का ही उदाहरण प्रस्तुत किया। यही दशहरे का उद्देश्य है। दुश्मन की बुराई पर विजय प्राप्त करो, उसका संहार मत करो, उसकी बुराई का संहार करो। कवि तुलसीदासजी कहते हैं-

पर हित सरिस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नहिं अधमाई।
निर्नय सकल पुरान वेद कर। कहेऊँ तात जानहि कोबिद नर।।
नर सरीर धरि जे पर पीरा। करहि ते सहहिं महा भव धीरा।
करहि मोह बस नर अध नाना। स्वारथरत परलोक नसाना।।

अर्थात दूसरों पर दया कर उनकी भलाई करने से बड़ा कोई धर्म नहीं है और दूसरों के साथ हिंसा करने या उन्हें पीड़ा पहुँचाने से बड़ा कोई पाप नहीं है। गुरु अर्जुन देव का कहना है-

भई परापति मानुख देहु‍‍रिआ। गोविंद मिलन की इह तेरी बरीआ।।
अबरि काज तेरे कितै न काम। मिलु साधसंगति भजु केवल नामा।।
सरंजामि लागु भवजल तरन कै। जनमु व्रिधा जात रंगि माइआ कै।।

अर्थात मनुष्यक-जन्म का दुर्लभ अवसर भवसागर को पार करने और भगवान से निकटता हासिल करने के लिए मिलता है। इसे माया के झूठे धंधों में उलझाने के लिए नहीं।

दशहरे के दिन हर मनुष्य को माया के झूठ, अन्याय, हिंसा रूपी रावण को जलाकर भगवान से जीवन में मंगल की प्रार्थना करनी चाहिए एवं अपने अंदर के रावण के संहार के लिए इस दिन प्रभु श्रीराम से विनय-निवेदन करना चाहिए।

करउ सो मम उर धाम।
करउ सो राम हृदय मम अयना।
मम हिय गगन इंद्र इव वसह सदा निहकाम।
मम हृदय करहु निकेत।
हृदि बसि राम काम मद गंजय।

अर्थात: हे प्रभु, मेरे हृदय में निवास करें। हे राम, मेरे हृदय में अपना घर कर लो। आप स्थिर होकर मेरे हृदय रूपी आकाश में चंद्रमा के समान हमेशा निवास करें। मेरे हृदय को अपना घर बना लें। हे प्रभु राम! हमारे हृदय में बस कर काम, क्रोध और अहंकार को नष्टब कर दें।

प्रभु श्रीराम की इस प्रकार प्रार्थना करें। वे दया के असीम सागर हैं। श्रीराम प्रभु की प्रार्थना, सेवा, भजन कर सभी दोषों और विकारों को दूर कर मन को स्वच्छ और निर्मल बनाया जा सकता है। प्रभु श्री राम स्वयं कहते हैं-

निर्मल मन जन सो मोहि पावा।
मोहि कपट छल छिद्र न भावा।

जिस सेवक का मन निर्मल होता है, वही मुझे पाता है। मुझे कपट और छली व्यमक्ति नहीं सुहाते। अत: प्रभु का स्मरण कर जीवन सुधार लें और उसे सद्गति की राह पर अग्रसर करें। क्योंकि

का वरषा सब कृषी सुखानें।
समय चुके पुनि का पछतावें।।

अर्थात खेतों में फसल सूख जाने के बाद वर्षा का कोई लाभ नहीं होता। उसी प्रकार समय हाथ से निकल जाने पर पश्चाताप करने का कोई लाभ नहीं होता।