24 अप्रैल 2010

अथ ज्ञानमाला

कृष्ण अर्जुन संवाद
एक दिन राजा परीक्षित सिंहासन पर बैठे थे कि उसी समय व्यास जी के पुत्र श्री शुक्रदेव जी आयें। राजा ने देखते ही सिहासन से उतर खड़े हुए और ऋषि के चरणारविन्द में गिर के साष्टांग दंडवत की। फिर बड़े आदर और सत्कार से उन को सुंदर स्थान में ले जाकर रत्न जटित सिंहासन पर बैठा, दोनों चारण कमलों को धो कर चरणोदक लिया और विधिपूर्वक पूजन करके, नाना प्रकार की सामग्री से भोजन कराए। फिर घंटानाद सहित आरती उतारी। तब तो राजा के मन के लगन देख श्री शुक्रदेव्जी प्रसन्न हुए। उस समय राजा ने दोनों "कर" (हाथ) जोड़ करके विनती की कि हे कृपासिंधु! हे दीनदयालु आप की कृपा से सदैव वेद पुराण के सुनने से मेरे ह्रदय में प्रकाश और आनंद प्राप्त होता है, परन्तु अब मेरे मन में मोह प्राप्त हुआ कि संसार में उंच और नीच दो कर्म हैं। सो कृपा करके इन दोनों कर्मों के भेद पृथक पृथक कह कर मेरे मन का संदेह निवारण कीजेये। राजा का यह प्रश्न सुन कर श्री शुक्रदेवजी बहुत प्रसन्न हुए और आज्ञा दी कि हे राजन! तेरे प्रश्न से सारे मनुष्यों को बड़ा लाभ है और जो यह सन्देश तेरे मन में उपजा है। सोई अर्जुन के मन में भी उपन्न हुआ था, सो श्रीकृष्णजी ने जो उनके प्रश्न का उत्तर दिया सोए में तेरे आगे कहता हूँ सो सुनो।
श्री शुक्रदेवजी राजा परीक्षित से कहते हैं कि हे राजन! एक दिन प्रातः काल श्रीकृष्णजी अर्जुन के घर पधारे तो खबर पाई कि अर्जुन सोये हैं। यह बात श्रीकृष्णजी अचम्भे में हो रहे पर महावीर अर्जुन ने श्री कृष्णजी को स्वप्न में देखा और शीघ्र जाग उठे। तब सेवक ने अर्जुन से कहा कि हे स्वामी। श्रीकृष्णजी पधारे हैं। यह सुन अर्जुन दौड़ कर श्रीकृष्णजी के चरणारविन्द में गिरे और दंडवत करे के दोनों कर (हाथ) जोड़ विनती की कि, हे सचिदानंद जगदीश! हम से यह अपराध अनजान में हुआ सो आप क्षमा कर मेरी रक्षा कीजिये।
यह सुन के श्रीकृष्णजी अर्जुन से कहें - हे अर्जुन तू बड़ा बुद्धिमान और ज्ञानी है। इस समय तुझे स्वप्न अवस्था में देख बहुत सोच किया क्योंकि मनुष्य देह बहुत कठिनता से प्राप्त होती है, सो इस देहको पाकर ऐसे समय सोना बुद्धिमानों को योग नहीं हैं। श्रीकृष्ण का यह वचन सुन अर्जुन ने फिर विनती करके प्रश्न किया कि, हे दीन दयालु दीनबंधु! जो अपराध सेवक से अनजाने में हो गया है सो कृपा दृष्टी से क्षमा करके अब आप आज्ञाकारी से आज्ञा करो कि कौन कौन से अहितकारे कर्मो का त्याग करना आवश्यक है। तब श्री कृष्णजी ने उत्तर दिया, मित्र! जो बातें वेद में गुप्त और देवताओं ने नहीं जानी हैं सो तेरे आगे कहता हूँ। तू मन लगा कर सुन। इन बातों को तू और जो कोई अर्जुन के इस पद को अंगीकार करेगा सो पाप बंधन से छूटकर मुक्ति पावेगा।

आगे शिक्षा में श्रीकृष्णजी अर्जुन से कहते हैं :
  1. हे अर्जुन! प्रातःकाल जिस समय श्रीसूर्यनारायण उदय हों, उस समय मनुष्य  को सोना योग्य नहीं है, क्योंकि एक पहर रात्री बाकी रहने पर देवता का आगमन होता है। इसलिए मनुष्य को चाहिय कि दो चार घड़ी सवेरे उठ परम दयालु परमेश्वर के ध्यान में मन लगा के भजनानंद में मग्न रहे और अरुणोदय होते ही स्नान कर श्रीसूर्यनारायण को जल अर्पण कर दंडवत करे और पितृदेव को जल देवे जिस से श्रीसूर्यनारायण और पितृ  देवता बलवान होकर प्रसन्नता से आशीर्वाद देवें। जो मनुष्य इस विधि को अंगीकार करेंगे वे इस लोक और परलोक दोनों को सुख भोगेंगे।
  2. हे अर्जुन! जो कोई संध्या समय घर के आगन में झाडू देता है वह अवश्य दरिद्री होता है, क्योंकि वह समय लक्ष्मीजी के घर में आगमन करने का है। वह जिसके हाथ में झाडू देखती है उसको शाप देकर चली जाती है।
  3. हे अर्जुन! पूर्व रात्री का दीपक बाती जलने से बाकी बचे तो उस बाती को दुसरे दिन न जलावे। यदि जलावे तो महापाप है। इस पाप से मनुष्य-स्त्री बहुत काल तक बाँझ रहेगी। अर्जुन ने श्रीकृष्ण के मुखारविंद से यह शिक्षा सुनकर पश्चाताप किया और चकित हुए, फिर दोनों कर जोड़ के विनती की कि, के अनाथों के नाथ दयासिंधो वासुदेव! आपने जो शिक्षा दी उसके सुनने से दास के मन में अति आनंद प्राप्त हुआ है। कृपा करके कुछ और शिक्षा दीजिये।
  4. हे अर्जुन! मनुष्य को चाहिए कि जलते दीपक को न बुझावे। जो कोई दीपक से दीपक जोड़े तो वह पातकी होता है।
  5. हे अर्जुन! व्रती मनुष्य चारपाई(खाट) पर सोवे तो व्रत निष्फल जाता है, क्योंकि जिस देवता का व्रत धारण किये हो सो देवता व्रत के दिन मनुष्य की देह में वास करते हैं। इसलिये व्रते व्रत के दिन स्वच्छता से रहे और चारपाई पर नहीं पर पृथ्वी पर सोये। स्त्री से अलग रहे, एक बार फलाहार कर कुछ ब्रह्मण को देवे तो देवता प्रसन्न होकर आशीर्वाद देते हैं और व्रत फलदायक होता है।
  6. हे अर्जुन! व्रत के दिन किसी को अपना जूठा न देना चाहिए, क्योंकि जो कोई जूठा खायेगा तो व्रत के फल का भागी होगा। यह बड़ा दोष है।
  7. हे अर्जुन! जो मनुष्य ताम्बे के पात्र को जूठाकर अशुद्ध करे या अशौच (toilet) स्थान में ले जाय सो अन्तकाल नरकवासी होता है, क्योंकि सब धातुओं में ताम्बा महापवित्र है। इसलिए जो मनुष्य ताम्बे के पात्र में जल भरके स्नान करे सो गंगा जल के समान फल गाता है. तिल, अन्न, जल अर्पण करे तो महापुण्य है।
  8. हे अर्जुन! जो मनुष्य अपने घर में टूटी खाट फूटे बर्तन रखते हैं वे दरिद्री होते हैं।
  9. हे अर्जुन जो मनुष्य नारायण का नाम लेके खाया पीया करे और चलते फिरते उठते बैठते जो काम करे परमेश्वर का नाम लेके करे तो इस महा सुकर्म फल से इस लोक में सुखों का परम आनंद पाता हैं। यह नाम महा पुनीत है और जो मनुष्य चलते फिरते डगर बात में बार बार जो मन में आवे सो लेकर खावे और परमेश्वर का नाम ना उच्चारण करे, तो दोष है। वेह विपत्ति के बंधन से कभी नहीं छूटता।
  10. हे अर्जुन! किसी मनुष्य के संग एक पात्र में भोजन करना बड़ा दोष है क्योंकि न जाने पूर्व के जन्म में वह मनुष्य कौनसी दशा में था। भोजन के कारण उसके पूर्व जन्म की किर्तियाँ अन्तःकरण  में प्राप्त हो जायेंगी, इसलिये ऐसे नीच काम को अंगीकार न करना चाहिए।
  11. हे अर्जुन! भोजन करने के समय अन्न देवता मुख में पधारते हैं, इसलिये मौन धर कर भोजन करना उचित है, क्योंकि बतलाने में मिथ्या वचन मुख से निकले तो अन्न्देव के क्रोध से इसी जन्म में विपत्ति में बंधे। इसलिये मनुष्य को चाहिए कि एक चित होकर चौरस (पलती मार कर) बैठ कर दाहिने, बाएं देख और अन्न्देवकी बधाई करके भोजन करे तो इस कर्म से वह सदा सुखी रहे। अर्जुन ने प्रश्न किये कि हे जगदीश जगतगुरो! भोजन करते समय कुछ कहना किसी से आवश्यक हो तो कैसे कहना चाहिए? श्रीकृष्णजी ने आगया दी कि बोलना आवश्यक ह तो मन में अन्न्देव से प्रार्थना करके सच्चिदानंद भगवान् का नाम लेके पांचग्रास ले और आचमन करके बोले और किसी की बुराई न करें और न खोटा वचन बोले।
  12. हे अर्जुन! दीपक व सूर्य की ज्योति से खाट की छाया मनुष्य की देह पर पड़े तो दोष है।
  13. हे अर्जुन! यदि मनुष्य बाग़, तालाब और नदी के किनारे दिशा(toilet) जाय तो बहुत काल नरक में पड़े।
  14. हे अर्जुन! मनुष्य किसी की कोई वास्तु पुण्य देकर अथवा और भाति लेवे और भूल से या अहंकार के कारण नहीं दे तो महा पाप है। अगले जनम में देगा उस मनुष्य को उचित है जो मुख से कहे सो पूरा करे।
  15. हे अर्जुन! कोई मनुष्य किसी से कुछ मांगे और वह दे देवे तो इस पुण्य का फल अश्वमेघ यज्ञ के समान है क्योंकि जीव की प्रसन्नता ने जो दिया है उसी में संतोष रखे।
  16. हे अर्जुन! मनुष्य के अर्थ चारपाई (खाट) यह चौकी पर बैठ के ब्रह्म जगदीश का पूजन करे तो फलदायक नहीं होता। इसलिये मनुष्य को उचित है की खूब पवित्र स्थान में ऊनी वस्त्र मृगछाला कुशासन पर स्त्री सहित बैठे। पूर्व यह उत्तर की और मुख कर त्रिलोकी नाथ के ध्यान और स्मरण में मन लगावे तो फलदायक होता है।
  17. हे अर्जुन! द्वादशी के पुराण का श्रवण और पाठ अयोग्य है क्योंकि उस दिन व्यासजी दिन भर परमेश्वर के पूजन ध्यान में मनको स्थिर कर बैठते हैं। कदाचित कोई पुराण वांचे तो उनका मन ध्यानावस्था में पुराण की और चलायमान होता है।
  18. हे अर्जुन! व्रत के दिन और आदित्यवार (sunday) को दर्पण में मुख देखना अयोग्य है, तिलक लगाने के समय देखे क्योंकि तिलक नारायण रूप है।
  19. हे अर्जुन! जो मनुष्य मन को रोक एक चित हो प्रीती भाव से कथा श्रवण करते हैं वे वैकुण्ठ में नाना प्रकार के सुख पावेंगे।
  20. हे अर्जुन! दक्षिण की ओर पाँव करके सोना बड़ा अशुभ है।
  21. हे अर्जुन! गृहस्थ के घर में पीपल, इमली आदि वृक्षों को रखना नहीं चाहिए क्योंकि प्रति दिन एक बार पितृ  देवता अपने पुत्र के घर आते हैं। जो ब्रह्मण को मिठाई खाते देखें तो प्रसन्न हो आशीर्वाद देवें, पर वृक्ष के देव, भूतादिक वास देख कर उनके दर से घर में नहीं आते, श्राप दे जाते हैं। सो मनुष्य निर्धन होके सदा दुखी रहता है। इसलिये घर में ऐसे वृक्ष अशुभ है।
  22. हे अर्जुन! मनुष्य बड़ी कठिनाई और बड़े जप त़प से फल को प्राप्त होता है। इस देह में पाप के अहंकार की फांसी गले में मलना अयोग्य है। देखो सदा सिर के बाल तो मौत के हाथ में रहते हैं और न जाने की किस समय शरीर से जीव न्यारा हो जाए। इस पर भी यदि मनुष्य कहे कि अभी लड़के हैं, जवान से बुढ़ापे में भजन किया जाएगा। यह भूल है। क्षणभर भी देह में जूठा भरोसा न करे। मनुष्य को उचित है कि क्रोध लोभ को त्याग कर अहंकार और बुराई से अलग रहे। इश्वर ने जो कुछ दिया है, उसमें संतोष रखे। हर्ष और हानि लाभ, भले बुरे को समान जाने। सब जीवों में पूर्ण ब्रह्म परमेश्वर को एकसा देखे और सदा सचिदानंद नारायण के ध्यान स्मरण में मन लगावे। सदा प्रसन्न रहे क्योंकि अन्तकाल माता, पिता, और भाई सहायक नहीं होते, केवल सुकर्म ही सहायक होता है।
  23. हे अर्जुन! आम के वृक्ष तथा बाग़ के वृक्ष काटने का दोष ब्रह्महत्या के समान हैं और बाग़ लगाने का पुण्य हजार यज्ञ के समान है। इसलिये उचित हैं कि सम्पूर्ण लगाने की ससमर्थ्य न हो तो सिर्फ मेवा के पांच वृक्ष सठौर (आँगन, बगीचा, मन्दिर आदि स्थान) में लगा जीवन सफल करे क्योंकि वृक्ष लगाने का पुण्य अश्वमेघ यज्ञ के समान है। जब मेघ बरसता है तो उन वृक्षों के पत्तों से जल के बूँद पृथ्वी पर पड़ते हैं जिसका पुण्य अक्षय है। जैसे पतिव्रता स्त्री को अपने पति की सेवा अखण्ड पुण्य फलदायक है, उसी प्रकार इस पुण्य की महिमा कहने में नहीं आती। जो लगावे उसके पांच पुश्त के पुरुष वैकुण्ठ में वास पावें।
  24. हे अर्जुन! जो मनुष्य तुलसीजी का वृक्ष अपने घर में रखे यह प्रतिदिन स्नान करके जल से सीचें, चन्दन, अक्षत, पुष्पों से पूजन करे यह रात को दीपक बारे तो उस घर में भूत व प्रेत नहीं आतें। लक्ष्मी का प्रकाश रहता है यह अश्वेमेघ यज्ञ के समान फलदाई है। जो कदाचित नित्य नहीं बने तो कार्तिक में या अगहन में प्रतिदिन पूजन करें या आंवला के वृक्ष तले जाय के ब्रह्मण को भोजन करावे तो उसे अश्वमेघ यज्ञ के समान फल हो।
  25. हे अर्जुन! जो मनुष्य जिस पात्र में भोजन करके उसको मांजे नहीं और बचे हुए जूठन को उसी पात्र में रखे तो महा दोष है, अन्न के शाप से वह मनुष्य सदा दरिद्र और दुखी रहे।
  26. हे अर्जुन! जो मनुष्य अपने घर और आँगन को प्रतिदिन झाड बुहार कर साफ़ नहीं रखते वे महादोष के कारण पितृ देवता के शाप से छ: महीनों में गरीब हो जाते हैं। यह बात भी जाननी चाहिए कि पुत्र के कार्यो से पितृदेव वैकुण्ठ या नरक में जाते हैं।
  27. हे अर्जुन! जो मनुष्य स्नान करके तिलक नहीं लगाते उन का स्नान करना पशु के समान है, और कदाचित ब्रह्मण तिलक न करे तो उन को दण्डवत करना अयोग्य है। बिना तिलक किये ब्रह्मण का माथा देखना बड़ा दोष है। तिलक धारी को देख के यम दूत डरते हैं।
  28. हे अर्जुन! मनुष्य की देह बहुत कठिनता से प्राप्त होती है। कदाचित दही का भोजन प्रतिदिन प्राप्त नहीं होये तो पूर्णमासी को अवश्य भोजन करना चाहिए क्योंकि इस का महा पुण्य है।
  29. हे अर्जुन! जो मनुष्य अपने घर में एक दीप आठो पहर जलाए रखे, किसी समय बुझने न दे, तो पितृदेव अति प्रसन्नता से आशीर्वाद देते हैं और अगले जनम में भगवान् की कृपा से संतान का सुख पाकर अंत समय वैकुण्ठ धाम पाता है।
  30. हे अर्जुन! हाथ, कान, गले में सोना पहनना उत्तम है क्योंकि स्नान करने के समय जल सोने से लग के शरीर पर पड़ता है सो गंगा जल के समान है।
  31. हे अर्जुन! मेघ वर्षा के समय सूर्य उदय हो तो उस समय (घाम और पानी) का स्नान गंगा स्नान के समान हो जो देवताओं को भी प्राप्त नहीं होता।
  32. हे अर्जुन! जो मनुष्य हाथ पर रोटी धरके खाए सो थोड़े ही काल में दरिद्र हो जाता है।