14 मई 2012

पन्नों पर फ़ैली पीड़ा

 पन्नों पर फ़ैली पीड़ा

रात थी की बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी। सफलता और असफलता की आशानिराशा के बीच सब के मन में एक तूफ़ान चल रहा था। आँपरेशन थिएटर का टिमटिम करता बल्ब कभी आशंकाओं को बढ़ा देता तो कभी दिलासा देता प्रतीत होता। नर्सों के पैरों की आहट दिल की धड़कनें से तेज लगती। नवीन बेचैनी से इधर से उधर टहल रहा था। हॉस्पिटल के इस तल पर सन्नाटा था। नवीन कुछ गंभीर मरीजों के रिश्तेदारों के उदास चेहरों पर नजर दौड़ाता, फ़िर सामने बैठी अपनी मां को ध्यान से देखता और अंदाजा लगाता कि क्या मां वास्तव में परेशान हैं।
   अंदर आई.सी.यू. में नवीन की पत्नी सुजाता जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रही थी। नवीन पूरे यकीन के साथ सोच रहा था कि अभी डाक्टर आ कर कहेगा, सुजाता ठीक है।
  कल कितने चोटें आई थीं सुजाता को।
नवीन, सुजाता और उन के दोनों बच्चे दिव्यांशु और दिव्या पिकनिक से लौट रहे थे। कार नवीन ही चला रहा था। सामने से आ रहे ट्रक ने सुजाता की तरफ़ की खिडकी में जोरदार टक्कर मारी। नवीन और पीछे बैठे बच्चे तो बच गए, लेकिन सुजाता को गंभीर चोटें आईं। उस का सिर भी फ़ट गया था। कार भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी। नवीन किसी से लिफ़्ट ले कर घायल सुजाता और बच्चों को ले कर यहां पहुंच गया था।
   नवीन ने फ़ोन पर अपने दोनों भाइयों विनय और नीरज को खबर दे दी थी। वे उस के यहां पहुंचने से पहले ही मां के साथ पहुंच चुके थे। विनय की यहां कुछ डाक्टरों से जानपहचान थी, इसलिए इलाज शुरू करने में कोई दिक्कत नहीं आई थी।
   नवीन ने सुजाता के लिए अपने दोनों भाइयों की बेचैनी भी देखी। उसे लगा, बस मां को ही इतने सालों में सुजाता से लगाव नहीं हो पाया। वह अपनी जीवनसंगिनी को याद करते हुए थका सा जैसे ही कुरसी पर बैठा तो लगा जैसे सुजाता उस के सामने मुसकराती हुई साकार खडी हो गई है। झट से आंखे बंद कर लीं ताकि कहीं उस का चेहरा आंखों के आगे से गायब न हो जाए।
   नवीन ने आखें बंद कीं तो पिछली स्मृतियां दृष्टिपटल पर उभर आईं...

20 साल पहले नवीन और सुजाता एक ही कालेज में पढते थे। दोनों की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला।
पढाई खत्म करने के बाद जब दोनों की अच्छी नौकरी भी लग गई तो उन्होंने विवाह करने का फ़ैसला किया।
   सुजाता के मातापिता से मिल कर नवीन को बहुत अच्छा लगा था। वे इस विवाह के लिए तैयार थे, लेकिन असली समस्या नवीन को अपनी मां वसुधा से होने वाली थी। वह जानता था कि उस की पुरातनपंथी मां एक विजातीय लडकी से उस का विवाह कभी नहीं होने देंगी। उस के दोनों भाई सुजाता से मिल चुके थे और दोनों से सुजाता की अच्छी दोस्ती भी हो गई थी। जब नवीन ने घर में सुजाता के बारे में बताया तो वसुधा ने तूफ़ान खडा कर दिया। नवीन के पिताजी नहीं थे।
   वसुधा चिल्लाने लगीं, ’क्या इतने मेहनत से तुम तीनों को पालपोस कर इसी दिन के लिए बडा किया है कि एक विजातीय लडकी बहू बन कर इस घर में आए? यह कभी नहीं हो सकता।’
   कुछ दिनों तक घर में सन्नाटा छाया रहा। नवीन मां को मनाने की कोशिश करता रहा, लेकिन जब वे तैयार नहीं हुईं, तो उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली।
   नवीन को याद आ रहा था वह दिन जब वह पहले बार सुजाता को ले कर घर पहुंचा तो मां ने कितनी क्रोधित नजरों से उसे देखा था और अपने कमरें में जा कर दरवाजा बंद कर लिया था। घंटों बाद निकली थीं और जब वे निकलीं, सुजाता अपने दोनों देवरों से पूछपूछ कर खाना तैयार कर चुकी थी। यह था ससुराल में सुजाता का पहला दिन।
   नीरज ने जबरदस्ती वसुधा को खाना खिलाया था। नवीन मूकदर्शक बना रहा था। रात को सुजाता सोने आई तो उस के चेहरे पर अपमान और थकान के मिलेजुले भाव देख कर नवीन का दिल भर आया और फ़िर उस ने उसे अपने बांहों में समेट लिया था।
   नवीन और सुजाता दोनों ने वसुधा के साथ समय बिताने के लिए आंफ़िस से छुट्टियां ले ली थीं। वे दिन भर वसुधा का मूड ठीक करने की कोशिश करते, मगर कामयाब न हो पाते।
   जब सुजाता गर्भवती हुई तो वसुधा ने एलान कर दिया, ’मुझ से कोई उम्मीद न करना, नौकरी छोडो और अपनी घरगृहस्थी संभलो।’
   यह सुजाता ही थी, जिस ने सिर्फ़ मां को खुश करने के लिए नौकरी छोड दी थी। माथे की त्योरियां कम तो हुईं, लेकिन खत्म नहीं।
   दिव्यांशु का जन्म हुआ तो विनय की नौकरी भी लग गई। वसुधा दिनरात कहती, ’इस बार अपनी जाति के बहू लाउंगी तो मन को कुछ ठंडक मिलेगी।’
   सुजाता अपमानित सा महसूस करती। नवीन देखता, सुजाता मां को एक भी अपशब्द न कहती। वसुधा ने खोजबीन कर के अपने मन की नीता से विनय का विवाह कर दिया। नीता तो वसुधा ने पहले दिन से ही सिर पर बैठा लिया। सुजाता शांत देखती रहती। नीता भी नौकरीपेशा थी। छुट्टियां खत्म होने पर वह आंफ़िस के लिए तैयार होने लगी तो वसुधा ने उस की भरपूर मदद की। सुजाता इस भेदभाव को देख कर हैरान खडी रह जाती।

कुछ दिनों बाद नीरज ने भी नौकरी लगते ही सुधा से प्रेमविवाह कर लिया। लेकिन सुधा भी वसुधा की जातिधर्म की कसौटी पर खरी उतरती थी, इसलिए वे सुधा से भी खुश थीं। इतने सालों में नवीन ने कभी मां को सुजाता से ठीक तरह से बात करते नहीं देखा था।
   दिव्या हुई तो नवीन ने सुजाता को यह सोच कर उस के मायके रहने भेज दिया कि कम से कम उस के वहां शांति और आराम तो मिलेगा। नवीन रोज आंफ़िस से सुजाता और बच्चों को देखने चला जाता और डिनर कर के ही लौटता था।
   घर आ कर देखता मां रसोई में व्यस्त होतीं। वसुधा जोडों के दर्द की मरीज थीं, काम अब उन से होता नहीं था। नीत और सुधा शाम को ही लौटती थीं, आ कर कहतीं, ’सुजाता भाभी के बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है।’
   सुन कर नवीन खुश हो जाता कि कोई तो उस की कद्र करती है।
   फ़िर विनय और नीरज अलगअलग मकान ले लिए, क्योंकि यह मकान अब सब के बढते परिवार के लिए छोटा पडने लगा था। वसुधा ने बहुत कहा कि दूसरी मंजिल बनवा लेते हैं, लेकिन सब अलग घर बसाना चाहते थे।
   विनय और नीरज चले गए तो वसुधा कुछ दिन बहुत उदास रहीं। दिव्यांशु और दिव्या को दिव्या प्यार करतीं, लेकिन सुजाता से तब भी एक दूरी बनाए रखतीं। सुजाता उन से बात करने के सौ बहाने ढूंढती, मगर वसुधा हां, हूं में ही जवाब देतीं।
  बच्चे स्कूल चले जाते तो घर में सन्नाटा फ़ैल जाता। बच्चों को स्कूल भेज कर पार्क में सुबह की सैर करना सुजाता का नियम बन गया। पदोन्नति के साथसाथ नवीन की व्यस्तता बढ गई थी। सुजाता को हमेशा ही पढनेलिखने का शौक रहा। फ़ुरसत मिलने ही वह अपनी कल्पनाओं की दुनिया में व्यस्त रहने लगी। उस के विचार, उस के सपने उसे लेखने की दुनिया में ले आए और दुख में तो कल्पना ही इंसान के लिए मां की गोद है। सुबह की सैर करतेकरते वह पता नहीं क्याक्या सोच कर लेखन सामग्री जुटा लेती।
   पार्क से लौटते हुए कितने विचार, कितने शब्द सुजाता के दिमाग में आते, लेकिन अकसर वह जिस तरह सोचती, एकाग्रता के अभाव में उस तरह लिख न पाती, पन्ने फ़ाडती जाती, वसुधा कभी उस के कमरे में न झांकती, बस उन्हें कूडे की टोकरी में फ़टे हुए पन्नों का ढेर दिखता तो शुरू हो जातीं, ’पता नहीं, क्या बकवास किस्म का काम करती रहती है। बस, पन्ने फ़ाडती रहती है, कोई ढंग का काम तो आता नहीं।’
   सुजाता ने गंभीरता से लिखना शुरू कर दिया था। उस समय उस के सामने था, सालों से मिलता आ रहा वसुधा से तानों का सिलसिला, अविश्वास और टूटता हौसला, क्योंकि वह खेदसहित रचनाओं के लौटने का दौर था। लौटी हुई कहानी उसे बेचैन कर देती।
   उस की लौटी हुई रचनाओं को देख कर वसुधा के ताने बढ जाते, ’समय भी खराब किया और लो अब रख लो अपने पास, लिखने में नहीं, बच्चों की पढाई पर ध्यान दो।’

   सुजाता को रोना आ जाता। सोचती, अब वह नहीं लिखेगी, तभी दिल कहता कि न घबराना है, न हारना है। मेहनत का फ़ल जरूर मिलता है और वह फ़िर लिखने बैठ जाती। धीरेधीरे उस की कहानियां छपने लगीं।
   सुजाता को नवीन का पूरा सहयोग था। वह लिख रही होती तो नवीन कभी उसे डिस्टर्ब न करता, बच्चे भी शान्ति से अपना काम करते रहते। अब सुजाता को नाम, यश, महत्त्व, पैसा मिलने लगा। उसे कुछ पुरस्कार भी मिले, वह वसुधा के पैर छूती तो वे तुनक कर चली जातीं। सुजाता अपने शहर के लिए सम्मानित हस्ती हो चुकी थी। उसे कई शैक्षणिक, सांस्कृतिक समारोहों मे विशेष अतिथि की हैसियत से बुलाया जाने लगा।
   वसुधा की सहेलियां, पडोसिनें सब उन से सुजाता के गुणों की वाहवाह करतीं।

"नवीनजी, आप की पत्नी अब खतरे से बाहर है," डाक्टर की आवाज नवीन को वर्तमान में खींच लाई।
   वह खडा हो गया, "कैसी है सुजाता?"
   "चोटें बहुत हैं, बहुत ध्यान रखना पडेगा, थोडी देर में उन्हें होश आ जाएगा, तब आप चाहें तो उन से मिल सकते हैं।"
   मां के साथ सुजाता को देखने नवीन आई.सी.यू. में गया। सुजाता अभी बेहोश थी। नवीन ने थोडी देर बाद मां से कहा, "मां, आप थक गई होंगी, घर जा कर थोडा आराम कर लो, बाद में जब नीरज घर आए तो उस के साथ आ जाना।"
   वसुधा घर आ गईं, नहाने के बाद सब के लिए खाना बनाया, बच्चे नीता के पास थे। वे सब हौस्पिटल आ गए। विनय और नीरज तो नवीन के पास ही थे। सारा काम हो गया तो वसुधा को खाली घर काटने को दौडने लगा। पहले वे इधरउधर देखती घूमती रहीं, फ़िर पता नहीं उन के मन में क्या आया कि ऊपर सुजाता के कमरे की सीढियां चढने लगीं।
   साफ़सुथरे कमरे में एक और सुजाता के पढनेलिखने की मेज पर रखे सामान को वे ध्यान से देखने लगीं। अब तक प्रकाशित 2 कहनी संग्रह, 4 उपन्यास और बहुत सारे लेख जैसे सुजाता के अस्तित्व का बखान कर रहे थे। सुजाता की डायरी के पन्ने पलटे तो बैड पर बैठ कर पढती चली गईं।
   एक जगह लिखा था, "मांजी के साथ 2 बातें करने के लिए तरस जाती हूं मैं। कोमल, कांतिमय देहयष्टि, मांजी के माथे पर चंदन का टीका बहुत अच्छा लगता है मुझे। मम्मीपापा तो अब रहे नहीं, मन करता है मांजी की गोद में सिर रख कर लेट जाऊं और वे मेरे सिर पर अपना हाथ रख दें, क्या ऐसा कभी होगा?"
   एक पन्ने पर लिखा था, "आज फ़िर कहानी वापस आ गई। नवीन और बच्चे तो व्यस्त रहते हैं, काश, मैं मांजी से अपने मन की उधेडबुन बांट पाती, मांजी इस समय मेरे खत्म हो चले नैतिक बल को सहारा देतीं, मुझे उन के स्नेह के 2 बोलों की जरूरत है, लेकिन मिल रहे हैं ताने।"
   एक जगह लिखा था, "अगर मांजी समझ जातीं कि लेखन थोडा कठिन और विचित्र होता है, तो मेरे मन को थोडी शांति मिल जाती और मैं और अच्छा लिख पाती।"
   आगे लिखा था, "कभीकभी मेरा दिल मांजी के व्यंगबाणों की चोट सह नहीं पाता, मैं घायल हो जाती हूं, जी में आता है उन से पूछू, मेरा विजातीय होना क्यों खलता है कि मेरे द्वारा दिए गए आदरसम्मान व सेवा तक को नकार दिया जाता है? नवीन भे अपनी मां के स्वभाव से दुखी हो जाते हैं पर कुछ कह नहीं सकते। उन का कहना है कि मां ने तीनों को बहुत मेहनत से पढायालिखाया है, बहुत संघर्ष किया है पिताजी के बाद। कहते हैं, मां से कुछ नहीं कह सकता। बस तुम ही समझौता कर लो। मैं उन के स्वभाव पर सिर्फ़ शर्मिंदा हो सकता हूं, अपमान की पीडा का अथाह सागर कभीकभी मेरी आंखों के रास्ते आंसू बन कर बह निकलता है।"

एक जगह लिखा था, "मेरी एक भी कहाने मांजी ने नहीं पढी, कितना अच्छा होता जिस कहानी के लिए मुझे पहला पुरस्कार मिला, वह मांजी ने भी पढी होती।"
   वसुधा के स्वभाव से दुखी सुजाता के इतने सालों के मन की व्यथा जैसे पन्नों पर बिखरी पडी थी।
   वसुधा ने कुछ और पन्ने पलटे, लिखा था, "हर त्योहार पर नीता और सुधा के साथ मांजी का अलग व्यवहार होता है, मेरे साथ अलग, कई रस्मों में, कई आयोजनों में मैं कोने में खडी रह जाती हूं आज भी। मां की द्रष्टि में तो क्षमा होती है और मन में वात्सल्य।"
   पढतेपढते वसुधा की आंखें झमाझम बरसने लगीं, उन का मन आत्मग्लानि से भर उठा। फ़िर सोचने लगीं कि हम औरतें ही औरतों की दुश्मन क्यों बन जाती हैं? कैसे वे इतनी क्रूर और असंवेदनशील हो उठीं? यह क्या कर बैठीं वे? अपने बेटेबहू के जीवन में अशांति का कारण वे स्वयं बनीं? नहीं, वे अपनी बहू की प्रतिभा को बिखरने नहीं देंगी। आज यह मुकदमा उन के मन की अदालत में आया और उन्हें फ़ैसला सुनाना है। भूल जाएंगी वे जातपांत को, याद रखेंगी सिर्फ़ अपनी होनहार बहू के गुणों और मधुर स्वभाव को।
   वसुधा के दिल में स्नेह, उदारता का सैलाब सा उमड पडा। बरसों से जमे जातिधर्म, के भेदभाव का कुहासा स्नेह की गरमी से छंटने लगा।  
                                                                                                                                                                                    - पूनम अहमद