इस सुन्दर हिरण को पकड़ कर आश्रम में रखने की दृष्टि से सीता ने राम को पुकार कर अपने पास बुलाया और बोली, "हे नाथ! आप लक्ष्मण के साथ यहाँ शीघ्र आइये। देखिये, यह स्वर्णमृग कितना सुन्दर और प्यारा है।" उस माया मृग को देख कर लक्ष्मण ने राम से कहा, "तात! स्वर्ण का मृग आज तक न तो कभी हमने देखा और न सुना। मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि हमें छलने के लिये किसी राक्षसी माया की रचना की गई है।" लक्ष्मण के कथन को अनसुना कर के सीता बोली, "हे प्रभो! यह मृग शावक विधाता की अद्भुत रचनाओं में से एक है। आप इसे पकड़ कर अवश्य लाइये। मैं इससे अपना मन बहलाया करूँगी। जब हम वनवास समाप्त कर के अयोध्या लौटेंगे तो यह हमारे प्रासाद की शोभा बढ़ायेगा। अवधवासी इसे देख कर कितने प्रसन्न होंगे। यदि यह जीवित न पकड़ा जा सके तो इसे मार कर मृगछाला ही ले आइये। मैं उस पर बैठ कर ईश्वर आराधना करूँगी। जाइये, शीघ्रता कीजिये न।"
सीता के आग्रह को देख कर राम लक्ष्मण से बोले, "हे लक्ष्मण! इसमें सन्देह नहीं कि इस मृग का रूप वास्तव में आकर्षक है। यदि यह पकड़ा भी नहीं गया तो मारा तो अवश्य ही जायेगा। इसकी मृगछाला निःसन्देह मनोमुग्धकारी होगी। इसलिये इस अवश्य पकड़ना चाहिये। और यदि यह राक्षसी माया है तो भी इस राक्षस को मारना उचित ही होगा क्योंकि मैं राक्षसों को मारने की प्रतिज्ञा कर चुका हूँ। तुम सावधान हो कर सीता की रक्षा करो। मैं इसे जीवित पकड़ने या मारने के लिये जाता हूँ। इतना कह कर राम धनुष बाण और तीक्ष्ण कृपाण ले कर मायावी मृग के पीछे चल पड़े। राम को अपनी ओर आता देख मृग भी उछलता कूदता गहन वन में घुस गया। वह प्राणों के भय से विविध वृक्षों, झाड़ियों के बीच छिपता प्रकट होता द्रुत गति से भागने लगा। उसका पीछा करते-करते रामचन्द्र बहुत आगे निकल गये। तब क्रुद्ध हो कर मृग के दृष्टिगत होते ही राम ने एक तीक्ष्ण बाण छोड़ा जो उसके मायावी छद्म वेश को चीर कर मारीच के हृदय तक पहुँच गया। बाण के लगते ही मारीच उछल कर अपने असली वेश में धराशायी हो गया और उच्च स्वर में 'हा लक्ष्मण! हा जानकी!' कहता हुआ मर गया। उसका विशाल मृत शरीर पृथ्वी पर ताड़ के वृक्ष की भाँति निश्चल पड़ा था।
मारीच का मृत शरीर देख कर राम को लक्ष्मण का कथन स्मरण हो आया। वास्तव में यह राक्षसी माया निकली। उन्हें ऐसा प्रतीत हुआ कि इस राक्षसी माया के पीछे कोई षड़न्त्र है। अनिष्ट की आशंका से वे तीव्र गति से आश्रम की ओर लौट पड़े। उन्हें यह भी ध्यान आया कि यह दुष्ट उच्च स्वर में 'हा लक्ष्मण! हा जानकी!' कह कर मरा है। कहीं ऐसा न हो कि लक्ष्मण सीता को अकेला छोड़ कर मेरी सहायता के लिये चल पड़े और सीता का कोई हरण कर ले जाये।
राम की आशंका सही निकली। जब सीता ने अपने पति के स्वर में 'हा लक्ष्मण! हा जानकी!' सुना तो उन्होंने घबरा कर लक्ष्मण से कहा, "हे लक्ष्मण! ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारे भैया संकट में पड़ गये हैं। तुम शीघ्र जा कर उनकी सहायता करो। मेरा हृदय चिन्ता से व्याकुल हो रहा है। ये उन्हीं के दुःख भरे शब्द थे।" सीता के आतुर वचन सुन कर लक्ष्मण बोले, "हे आर्ये! मैं आप को अकेला छोड़ कर नहीं जा सकता। भैया की ऐसी ही आज्ञा है। आप धीरज रखें वे अभी आते ही होंगे।"
लक्ष्मण के उत्तर से दुःखी हो कर सीता बोलीं, "लक्ष्मण! मुझे लगता है, तुम भाई के रूप में उनके शत्रु हो। जो उनके ऐसे आर्त स्वर सुन कर भी उनकी सहायता के लिये नहीं जाना चाहते। जब उनको ही कुछ हो गया तो मेरी रक्षा से क्या लाभ?" इस प्रकार कहते हुये उनके नेत्रों से अश्रुधारा बहने लगी। सीता की यह दशा देख कर लक्ष्मण हाथ जोड़ कर बोले, "माता! आप व्यर्थ दुःखी हो रही हैं। संसार में ऐसा कौन सा देव, दानव है जो भैया को परास्त कर सके या उनका बाल भी बाँका कर सके। आप थोड़ी देर प्रतीक्षा करें, वे आते ही होंगे। आप नहीं जानतीं कि मायावी राक्षस नाना प्रकार के रूप धारण करते हैं और नाना प्रकार की बोलियाँ बोलते हैं। मैं जाने को तैयार हूँ, परन्तु ऐसा न हो कि अकेली रह कर आप किसी विपत्ति में पड़ जायें। इसीलिये मैं आप को अकेली नहीं छोड़ना चाहता।"
लक्ष्मण के तर्क ने सीता के क्रोध को और बढ़ा दिया। वे बोलीं, "लक्ष्मण! मैं तुम्हारी मनोवृति को भली-भाँति समझ रही हूँ। तुम राम के मर जाने पर मुझ पर अपना अधिकार जमाने की बात सोच रहे हो तो मैं तुम्हारी दुष्ट इच्छा को कभी पूरा नहीं होने दूँगी। राम के बिना मैं अपने प्राण त्याग दूँगी।" सीता के ये वचन सुन कर लक्ष्मण का हृदय पीड़ा से भर उठा। उन्हें मूर्छा सी आने लगी। बड़ी कठिनाई से स्वयं को सँभाल कर बोले, "जानकी! मैं आपकी बातों का कोई उत्तर नहीं दे सकता, क्योंकि आप मेरी माता के स्थान पर हैं। मैं केवल यही कह सकता हूँ कि आज आप की बुद्धि नष्ट हो गई है जो अपने अग्रज की आज्ञा पालन करने वाले अनुज पर ऐसा दुष्टतापूर्ण लांछन लगा रही हैं। आज आप पर अवश्य कोई संकट आने वाला है। यह सब उसी की भूमिका है। मैं आपके द्वारा बलात् भेजा जा रहा हूँ। वन के देवता इसके साक्षी हैं।" यह कह कर कन्धे पर धनुष रख लक्ष्मण उधर चल दिये जिधर राम मारीच के पीछे गये थे।
10 अप्रैल 2010
रामायण – अरण्यकाण्ड - राम का स्वर्णमृग के पीछे जाना
Posted by Udit bhargava at 4/10/2010 05:50:00 pm
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