31 मार्च 2010

विदुर की बहुएँ


चतुर्भुज नामक गाँव में विदुर और धर्मराज नामक दो दोस्त रहा करते थे। दोनों मध्यम वर्ग के किसान थे। गोपी और सोम विदुर के बेटे थे और धर्मराज के कोई संतान नहीं थी।

एक दिन धर्मराज ने विदुर से कहा, ‘‘विदुर, हम दोनों पचासवें साल में क़दम रख रहे हैं। तुम्हारे दोनों बेटे लायक़ हो गये हैं। उनकी शादी करा दोगे तो तुम दादा भी बन जाओगे। अपनी वृद्धावस्था में आराम से रह सकते हो। मैं तो निस्संतान हूँ। किसी शिशु को गोद लेना चाहता हूँ तो वे मेरी जायदाद के बारे में विवरण जानना चाहते हैं।'' दर्द-भरी आवाज़ में उसने कहा।

विदुर ने, धर्मराज के कंधे पर हाथ रखते हुए कहा, ‘‘एक मानव ही है, जिसे बुढ़ापे में सहारा मिलता है। उसके वारिस उसकी देखभाल करते हैं। अन्य प्राणी इस सुविधा से वंचित हैं। अब तक मैं और मेरी पत्नी सुखी हैं। बहुओं के आने के बाद क्या होगा, कुछ बता नहीं सकते। जो भी हो, हम दोनों आगे भी भाई समान रहेंगे।''

‘‘भविष्य को लेकर तुम्हें चिंतित होने की कोई ज़रूरत नहीं, क्योंकि तुम्हारे दोनों बेटे योग्य हैं, अच्छे स्वभाव के हैं। मुझे पूरा विश्वास है कि उनका विवाह भी अच्छे स्वभाव की कन्याओं से होगा।'' धर्मराज ने कहा।

गोपी और सोम ने दोनों की बातचीत सुनी। दोनों ने आपस में बातें कर लीं और उनसे मिलने उनके पास आये।

गोपी ने, धर्मराज से कहा, ‘‘चाचाजी, मैं और मेरा भाई आपका बड़ा आदर करते हैं। आपको अपना चाचा मानते हैं। हमें अपने ही बेटे समझिये।''

धर्मराज ने भाव-विह्वल होकर कहा, ‘‘मैं तुम दोनों के स्वभाव से अच्छी तरह से परिचित हूँ। तुम्हारे पिता को अच्छी बहुएँ मिल जाएँ तो मैं और मेरी पत्नी तुम दोनों की छाया में आराम से ज़िन्दगी बितायेंगे।''

सोम ने कहा, ‘‘चाचाजी, अच्छा हुआ, आपने बहुओं की अच्छाई की बात याद दिलायी। बड़े लोग कहते हैं कि ऊपर तथास्तु देवता रहते हैं। मेरे और मेरे भाई की पत्नियाँ सगी बहनें हों तो और अच्छा होगा, क्योंकि वे मिलजुलकर रहेंगी। दोनों में प्रेम बना रहेगा और उनकी तरफ़ से हमें किसी समस्या का सामना करना नहीं पड़ेगा।''

बेटे की बातों पर विदुर ने मुस्कुराकर कहा, ‘‘हम अच्छा सोचते हों तो फल भी अच्छा ही होगा। हाल ही में नारदकुंड गाँव से एक आदमी रिश्ता लेकर आया। उस गाँव के मुखिया विश्वेश्वर की दो बेटियाँ हैं। वे हमसे रिश्ता जोड़ना चाहते हैं। अच्छा यही होगा कि तुम दोनों उन लड़कियों को देख आओ। तुम दोनों को वे लड़कियाँ अच्छी लगीं तो मुझे कोई आपत्ति नहीं है। इसकी जिम्मेदारी तुम्हीं को सौंपता हूँ।''

सोम और गोपी ने कहा, ‘‘तब देरी किस बात की। हम सब मिलकर जायेंगे। और उन लड़कियों को देख आयेंगे।''

दूसरे ही दिन, विदुर ने गाँव के मुखिया विश्वेश्वर को ख़बर भिजवायी कि वे उनकी बेटियों को देखने कल ही आ रहे हैं।

दूसरे दिन वे सब किराये की गाड़ी में नारदकुंड जाने के लिए निकल पड़े। विश्वेश्र्वर के घर के पास आये कि नहीं, विदुर की छाती में ज़ोर का दर्द होने लगा। उन्हीं की प्रतीक्षा में खडा विश्वेश्वर, विदुर को तुरंत घर के अंदर ले गया और पलंग पर लिटाया। फिर तुरंत वैद्य को बुला लाने के लिए नौकर को भेजा।

वैद्य ने आकर विदुर की परीक्षा की और कहा, ‘‘मुझे नहीं लगता कि यह गंभीर दिल का दौरा है। कहते हैं कि छोटे सांप को भी बड़ी लाठी से मार डालना चाहिये। इसलिए हमें सावधानी बरतनी चाहिये। जो दबाइयाँ दूँगा, उनका सही उपयोग कीजिये। परंतु हाँ, एक सप्ताह तक पलंग पर ही इनका लेटे रहना बहुत ज़रूरी है।''

तब धर्मराज ने विश्वेश्वर से कहा, ‘‘सोचा नहीं था कि ऐसा होगा। गाँव में ही एक अच्छा-सा घर हमें किराये पर दिलाइये। ज़रूरत पड़ी तो एक हफ्ते तक ही नहीं, एक महीने तक रहकर विदुर की चिकित्सा करायेंगे।'' विश्वेश्वर कुछ कहने ही जा रहा था कि उसकी दोनों बेटियों ने इशारा करके उसे बगल के कमरे में आने को कहा।

बड़ी बेटी रागिनी ने पिता से कहा, ‘‘पिताजी, वे हमारे घर शादी का रिश्ता तय करने आये हैं। हम उन्हें अपने ही घर में रखकर आवश्यक चिकित्सा करायेंगे। यह हमारा फर्ज़ भी बनता है।''

दूसरी बेटी मोहिनी ने भी कहा, ‘‘यही अच्छा होगा नहीं तो हमपर तोहमत लग जायेगी कि हमने ससुर की देखभाल नहीं की और बाहर भेजकर अपने हाथ धो लिये। यह रिश्ता पक्का हो या न हो, पर उन्हें यहाँ से संतुष्ट भेजना हमारा कर्तव्य है। सब प्रकार से अच्छा यही होगा कि विदुरजी को अपने ही घर में रखें और उनकी चिकित्सा करायें।''

बेटियों की बातें सुनने के बाद विश्वेश्वर ने मुड़कर अपनी पत्नी की ओर देखा। मन ही मन बेटियों की प्रशंसा करते हुए विश्वेश्वर की पत्नी ने कहा, ‘‘बेटियों ने जो कहा, ठीक कहा। वैसा ही कीजिये। घर आये रिश्तेदारों को किसी और घर में रखना उचित नहीं होगा। फिर आपकी मर्जी।''

बग़ल के कमरे में ही लेटा विदुर उनकी ये बातें सुन रहा था। मन ही मन उसे इस बात पर खुशी हुई कि अपनी इस आकस्मिक बीमारी से विश्वेश्वर के परिवार के सदस्यों के स्वभाव को वह जान पाया।

विश्वेश्वर ने, अपनी पत्नी और बेटियों की बातों पर खूब सोचा-विचारा और अंत में यही निर्णय लिया कि विदुर को गाँव के किसी अच्छे घर में रखना ही ठीक होगा। उसने सब सुविधाओं से भरा एक अच्छा-सा घर ढूँढ़ा और उनके रहने का प्रबंध किया।


विदुर, धर्मराज और उसके दोनों बेटे दस दिनों तक उस घर में बिना किसी असुविधा के रहे। विदुर बहुत ही जल्दी चंगा हो गया। इसपर वैद्य ने आश्चर्य भी प्रकट किया। गाँव लौटने के पहले धर्मराज ने विदुर से कहा, ‘‘विश्वेश्वर को कृतज्ञता जतापर निकलेंगे। मेरी समझ में नहीं आता कि पत्नी और बेटियों के ज़ोर देने के बाद भी उसने तुम्हें क्योंकर एक अलग घर में रखा?''

इसपर विदुर ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘धर्मराज, विश्वेश्वर की पत्नी और बेटियों के दिल दया व करुणा से भरे हैं। वे दूसरों का आदर करना जानती हैं। अब रही, विश्वेश्वर की बात। उनमें भी ये अच्छे गुण मौजूद हैं, पर साथ ही साथ उनमें पर्याप्त व्यावहारिक ज्ञान भी है। अगर वे मुझे अपने घर में रखते तो लोग यही कहते कि अपनी बेटियों की शादी कराने के लिए उसने यह षड्यंत्र रचाहै । इसीलिए उन्होंने मुझे अलग घर में रखा और मेरी चिकित्सा करवायी। यद्यपि हम लोगों का रिश्ता अभी नहीं बना है और यह आवश्यक भी नहीं है कि ऐसा होगा, फिर भी उन्होंने अलग घर में रख कर भी हमारी देखभाल अपने परिवार के समान की। मुझे इस घर के सभी लोगों के स्वभाव अच्छे लगे। मुझे यह रिश्ता बहुत पसंद है। अगर विश्वेश्वर मान जाएँ तो मैं उनकी बेटियों को अपनी बहुएँ बनाने के लिए तैयार हूँ। गोपी और सोम को भी वे कन्याएँ अच्छी लगीं।''

दूसरे दिन औपचारिक रूप से विश्वेश्वर के घर में विवाह की तिथि पक्की हुई और एक महीने के अंदर ही उनका विवाह भी संपन्न हुआ।

धर्मराज और विदुर की अपेक्षा के अनुसार ही बहुओं ने भी उनके साथ अच्छा व्यवहार किया। अब उनके आनंद की सीमा नहीं रही। दोनों मित्रों के परिवार एक दूसरे के सुख-दुख में हाथ बँटाते हुए शान्तिपूर्वक जीवन बिताने लगे।