31 मार्च 2010

भूत का पिंड छूट गया



वाणी और वर्मा के कोई संतान न थी। पर वे इतने भले थे कि सारे गाँव के लोग उनके भलेपन की सदा चर्चा किया करते थे।

एक दिन रात को मूसलधार वर्षा हो रही थी। वर्मा और वाणी खाने के लिए बैठने ही वाले थे कि बाहर से किसी ने जोर से दर्वाजे पर दस्तक दी। किवाड़ खोलकर देखा तो वर्षा में भीगा एक युवा दंपति उन्हें दिख़ाई दिया।

‘‘शहर में जाते हम वर्षा में फंस गये। क्या आज की रात आप के घर में आश्रय मिल सकता है?'' उस दंपति ने पूछा।

‘‘अन्दर आ जाइये।'' इन शब्दों के साथ वाणी ने उनका स्वागत किया, खाना खिलाकर उनके सोने का प्रबंध किया।

उनके भोजन करने के बाद थोड़ा ही खाना बचा था। वाणी ने उसे अपने पति को खाने को कहा। क्योंकि फिर से खाना बनाने के लिए लकड़ियाँ न थीं, भीग गई थीं।

वर्मा ने हठ किया, ‘‘हम दोनों आधा-आधा खा लेंगे।'' इसके बाद दोनों ने बात करते थोड़ा-थोड़ा खा लिया और सो गये।

सवेरे किसी के रोने की आवाज़ सुनकर वे चौंककर उठ बैठे। घर के किवाड़ खुले थे। ड्योढ़ी पर रात को आई हुई औरत फूट-फूटकर रो रही थी। इस पर वाणी और वर्मा अचरज में आ गये और उसके रोने का कारण पूछा।

‘‘मैं क्या बताऊँ? मेरी गृहस्थी डूब गई। रात को मैं इस घर में न आती तो अच्छा होता। मेरे पति आप दोनों का सरल प्रेम देख बोले, ‘‘क्या तुमने कभी इस गृहिणी जैसा मेरे साथ प्यार किया है? जो पत्नी अपने पति के साथ प्यार नहीं कर सकती, वह पत्नी ही क्यों?''

इसके बाद मेरे समझाने पर भी चले गये। वे बड़े ही हठी हैं, फिर लौटकर आनेवाले नहीं हैं।'' सिसकियाँ लेते बोली। उसका नाम चन्द्रमती था।

वर्मा ने बड़ी उद्विग्नता के साथ चन्द्रमती के पति की खोज़ की। पर कहीं उसका पता न चला।

‘‘मैं जानती हूँ, वे लौटकर नहीं आयेंगे। मेरा अपना तो कोई नहीं है। किसी कुएँ में कूदकर जान दे दूँगी।'' यों कहते चन्द्रमती फिर रो पड़ी।

उसकी हालतपर उस दंपति का दिल पिघल उठा। उन लोगों ने समझाया, ‘‘तुम बिलकुल चिंता न करो। अपने पति के लौटने तक तुम हमारे ही घर रहो।'' उस दिन से चन्द्रमती उस परिवार की एक सदस्या के रूप में रहने लगी। वह देखने में नरम स्वभाव की सी लगी। रात को वही रसोई बनाती थी।

एक महीना बीत गया। वर्मा का बचपन का दोस्त मुरारी चार-पाँच दिन वर्मा के घर बिताने के ख़्याल से आया। वह दो-चार महीनों में एक बार अवश्य आया करता था। पिछली बार जब आया था, चन्द्रमती न थी। उसने वर्मा के द्वारा चन्द्रमती की सारी कहानी जान ली। उस दिन रात को चन्द्रमती ने ही सब को खाना परोसा। भोजन के बाद मुरारी दालान में खाट लगाकर लेट गया।

मगर बड़ी देर तक मुरारी को नींद नहीं आई। आधी रात के व़क्त कोई आहट पाकर उसकी आँख खुल गई। चन्द्रमती हाथ में दिया लेकर धीरे से रसोई घर के किवाड़ खोल रही थी। रसोई घर के उस पार की खिड़की पर किसी के द्वारा दस्तक देने की आवाज़ सुनाई दी।

मुरारी को चन्द्रमती का व्यवहार और खिड़की पर से आहट सुनकर संदेह हुआ। चन्द्रमती के रसोई घर में पहुँचते ही मुरारी झट से उठ बैठा। छोटी खिड़की में से रसोई घर के अन्दर झांका। चन्द्रमती एक पात्र में चावल, दाल, सब्जी और दही रखकर खिड़की में से भीतर पहुँचे हाथों में थमा रही थी।

खिड़की के उस पार का व्यक्ति कह रहा था, ‘‘और कितने दिन यों आधी रात को भोजन करना होगा? किसी उपाय से तिजोरी का धन हड़पकर जल्दी आ जाओ।'' वह व्यक्ति अंधेरे में था, इसलिए मुरारी को दिखाई नहीं दिया।

‘‘इन लोगों का विश्वास अभी अभी मुझ पर जम रहा है। जल्दी ही चाभियों का गुच्छा मेरे हाथ में आ जाएगा। तुम थोड़ा सब्र करो।'' चन्द्रमती ने कहा।

‘‘अरी चोर की बच्ची! बाहर से भोली बनकर मेरे दोस्त की उदारता को आसरा बनाकर अपने मर्द के साथ मिल कर यह नाटक रच रही हो! हाँ, देखती रह जाओ, मैं तुम्हारा नाटक बंद करवा देता हूँ।'' यों मुरारी ने अपने मन में सोचा। तब जाकर वह लेट गया। फिर उसने निश्चय किया कि चन्द्रमती का यह समाचार वाणी-वर्मा को सुनाकर उनके मन को दुखाये बिना उनके घर से भूत का पिंड़ छुड़ा देना है।

दूसरे दिन सवेरे मुरारी ऊँची आवाज़ में वर्मा से कहने लगा, ‘‘बाप रे बाप! रात को मैं पल भर भी सो नहीं पाया। लगता है कि इस घर में कोई भूत घुस आया है। मैंने पूरब की ओर जो खाट लगाई थी, उसे पश्चिम की ओर खींच ले गया है। खिड़की में पीने के जल का जो बर्तन रखा था, वह ख़ाट के नीचे पहुँच गया है। मैं तो हिम्मतवर हूँ, दूसरा होता तो मर जाता।''

वाणी और वर्मा ये बातें सुन घबरा गये और बोले, ‘‘तब क्या ओझा को बुलवा लें?''

‘‘आप घबराइये नहीं। मैं सब प्रकार के भूतों को भगा सकता हूँ।'' मुरारी ने उन्हें हिम्मत बंधवाई। दूसरे दिन वह बाजार से पायल ख़रीद लाया और रात को जब-तब आवाज़ करने लगा। इसके बाद उसने तकिये को चारपाई पर सीध में लगाया, उस पर दुपट्टा डाल कर पिछवाड़े में गया, रसोई घर की खिड़की पर दस्तक दी।

बड़ी देर बाद हिम्मत कर चन्द्रमती आई, पात्र में सारी चीज़ें लगाकर उसने मुरारी के हाथों में वह पात्र थमा दिया। मुरारी झट से घर के अंदर आया। उस पात्र को चन्द्रमती की चारपाई पर रखकर मुरारी ने चारपाई को दूसरी ओर खींचा, तब चुपचाप आकर अपनी खाट पर लेट गया।

चन्द्रमती थोड़ी देर तक पात्र की प्रतीक्षा में खड़ी रही, खिड़की के समीप बाहर अपने पति का पता न पाकर रसोई घर के किवाड़ बंद किये, अपने कमरे में पहुँचकर चीख़ उठी।

उस चिल्लाहट से वर्मा और वाणी चौंककर जाग चन्द्रमती की खाट के पास दौड़े आये। वहाँ पर मुरारी भी इस तरह आ पहुँचा, मानो उसी व़क्त उठा हो।


चन्द्रमती सहमती आवाज़ में बोली, ‘‘भूत की बात सच है। मुझे भी पायलों की आवाज़ सुनाई दी है। उस ओर की खाट इस ओर आ लगी है। इसलिए घबड़ाकर उठ बैठी हूँ। देखिये, रसोई घर का पात्र मेरी खाट पर आ गया है।''

मुरारी ने ढाढ़स बंधाकर कहा, ‘‘आप लोग डरियेगा नहीं, मैं भूत की ख़बर लूँगा।'' इसके बाद वह दो दिन तक रात में पायलों की आवाज़ करता ही रहा। इसलिए अपने पति के द्वारा रसोई घर की खिड़की पर दस्तक देने पर भी चन्द्रमती अपने कमरे से बाहर आने में डर गई।

तीसरे दिन रात को मुरारी बाहर ताक में बैठा रहा। चन्द्रमती के पति को पिछवाड़े के रास्ते में जाते देख वह भी उसी रास्ते जानेवाले जैसा अभिनय करते गुनगुनाने लगा, ‘‘क्या वह मेरी बहन के प्रति ऐसा द्रोह करेगा? मैं भी देख लूँगा।''

चन्द्रमती का पति बाहर खड़ा रहा। उसने शंका भरी आवाज़ में पूछा, ‘‘अजी, बात क्या है? क्या हुआ है?''

‘‘और क्या होना है जी! इस घर के मालिक मेरे बहनोई साहब हैं, मेरी बहन के कोई संतान नहीं है। इस घर में कोई औरत आकर जम गई है जिसे उसके पति ने त्याग दिया है। अब मेरे बहनोई कहते हैं कि वे उस औरत के साथ शादी करेंगे। वह औरत भी इसके लिए तैयार है।'' यों कहते तेजी के साथ चला गया, फिर दूसरे रास्ते से आकर अपनी ख़ाट पर सो गया। मुरारी की बात पर चन्द्रमती के पति का विश्वास जम गया। क्योंकि वह उधर तीन दिन से खिड़की के पास खाना देने नहीं आई थी।

फिर क्या था, दूसरे दिन सवेरे चन्द्रमती के पति ने प्रवेश करके वर्मा से कहा, ‘‘मैं मूर्खता वश अपनी पत्नी को यहाँ पर छोड़ गया था। अब कृपया उसे मेरे साथ भिजवा दीजिए।''

भूत के भय से कांपनेवाली चन्द्रमती अपने पति के साथ खुशी-खुशी चली गई। उसके जाने पर वाणी और वर्मा यह सोचकर दुखी हो रहे थे कि चन्द्रमती के चले जाने पर उनका घर एक दम सूना-सा लगता है। तब मुरारी ने कहा, ‘‘तुम लोगों को यह सोचकर खुश होना चाहिए कि तुम्हें भूत से पिंड छूट गया है। उल्टे दुखी हो रहे हो?'' इसके बाद मुरारी ने उन्हें सारी सच्ची कहानी सुनाई और उनसे विदा लेकर चला गया।