30 मार्च 2010

विष्णु पुराण -10


श्रीमती के स्वयंवर में भाग लेने के लिए अनेक देशों के राजा-महाराजा पधारे । विष्णु के दिये हुए ‘हरि-रूप’ में नारद भी आ पहुंचे । उनका हरि यानी बानर रूप देख कर वहाँ के उपस्थित लोग हँस पड़े । जब नारद को यह मालूम हुआ तो वे पानी-पानी हो गये ।

श्रीमती ने वरमाला लेकर विष्णु का ध्यान किया । ध्यान करते ही विष्णु प्रकट हो गये । श्रीमती ने उनके गले में वरमाला डाल दी और उनके साथ वैकुण्ठ चली गई।

यह सब देख कर नारद को क्रोध आ गया । उन्होंने पर्वत को अपने पक्ष में कर लिया और दोनों अंबरीष पर बरस पड़े । क्रोध से पागल हो नारद अंबरीष को शाप देने ही जा रहे थे कि विष्णु के चक्र नारद पर टूट पड़े ।

पर्वत और नारद जान लेकर वैकुण्ठ की ओर भागे। वहाँ श्रीमती को विष्णु के साथ देख कर नारद का क्रोध और भी भड़क गया और उन्होंने विष्णु को शाप दे दिया- ‘‘जिस श्रीमती को आपने छल-बल से प्राप्त किया है वह अपहृत हो जायेगी और आप उसके वियोग में तड़पेंगे। मेरा अपमान करने के लिए आप ने मुझे जिसका रूप दिया है, वे ही आप की खोई पत्नी को ढूँढ कर लायेंगे और आप उन्हीं की शरण में जायेंगे ।’’

नारद का शाप सुन कर विष्णु मुस्कुराने लगे। तभी श्रीमती ने अपना वास्तविक रूप (लक्ष्मी का रूप) ग्रहण कर लिया और विष्णु ने पर्वत तथा नारद की आँखों से माया की पट्टी हटा ली। जब ये मुनि अपनी चेतना में वापस लौटे तो लज्जित होकर विष्णु के चरणों में गिर पड़े और क्षमा प्रार्थना करने लगे । नारद को बहुत ग्लानि हुई कि माया के बस में आकर उन्होंने विष्णु को शाप दे दिया । वे उनके चरणों में रो-रोकर पछताने लगे ।

इस पर विष्णु नारद को सान्त्वना देते हुए बोले -‘‘तुम तो त्रिकाल दर्शी हो । तुम्हें तो मालूम है कि भावी क्या है । फिर इसके लिए दुःख या पछतावा करने की क्या आवश्यकता है?

‘‘तुम्हारा शाप भी हमारे संकल्प से ही उत्पन्न हुआ है। तुम्हारी वाणी रामावतार में सच होकर रहेगी और इससे लोक-कल्याण ही होगा ।’’

इसके बाद उसी समय से अंबरीष की रक्षा के लिए विष्णु ने चक्र को नियुक्त कर दिया ।

दुर्वासा ऋषि में तपोबल का गर्व था । उनमें ईर्ष्या-द्वेष की भावना भी बहुत थी ।

एक बार जब वे अपने आश्रम से बाहर जानेवाले थे, तभी हरि भजन में लीन रहने वाले देवर्षि नारद वहॉं आ पहुंचे । दुर्वासा ने नारद से कहा- ‘‘कलह रूपी भोजन से तुम्हारा पेट बहुत भर गया है, इसलिए शायद प्रसन्न चित्त दिखाई दे रहे हो !’’

नारद ने ऋषि को प्रणाम करके कहा- ‘‘ऐसा भोजन तो अभी मिला नहीं है लेकिन भूख जरूर लगी है। अभी हमारी प्रसन्नता का कारण तो यह है कि मैं परम विष्णु भक्त अंबरीष से मिल कर चला आ रहा हूँ। उनकी भक्ति देख कर मन और प्राण आनन्द से झूम उठते हैं ।’’

अम्बरीष की प्रशंसा सुन कर दुर्वासा के मन में जलन-सी हुई । उन्होंने सन्देह भाव से पूछा- ‘‘क्या अंबरीष इतने बड़े भक्त हैं कि उनके नाम मात्र से आप में आनन्द उमड़ रहा है !’’
‘‘निस्सन्देह ऋषिवर! विष्णु की विशेष कृपा है उन पर । वे राजा होकर भी ऋषि हैं । वे नियमित रूप से द्वादशी व्रत रखते हैं। उनके दर्शन करने के बाद आप भी अनुभव करेंगे कि मैं उनकी झूठी प्रशंसा नहीं कर रहा हूँ । वे सचमुच बहुत महान हैं और विष्णु के परम प्रिय भक्त हैं । आप के दर्शन से वे अपने को कृतार्थ समझेंगे ।’’ इतना कह कर ‘नारायण-नारायण’ कहते हुए नारद देखते-देखते अंतर्धान हो गये ।

दुर्वासा ने मन ही मन सोचा -‘‘देखता हूँ यह कितना बड़ा भक्त है ! मैं इसकी परीक्षा लूँगा ।’’ वे तुरंत अंबरीष से मिलने चल पड़े ।

राजा अंबरीष एकादशी और द्वादशी व्रत का पालन करके पारण करने ही वाले थे कि दुर्वासा ऋषि के आगमन का समाचार मिला । अंबरीष ऋषि के दर्शन से बहुत प्रसन्न हुए। उन्होंने विधिवत उनका सत्कार किया और भोजन स्वीकार करने की प्रार्थना की।

दुर्वासा ऋषि ने भोजन का निमंत्रण स्वीकार कर लिया लेकिन स्नान करके बहुत देर से लौटे । इधर द्वादश व्रत के पारण का समय खत्म होने वाला था । यदि अंबरीष समय रहते पारण न करते तो उनका व्रत भंग हो जाता ।

लेकिन अतिथि को निमंत्रित करके पहले स्वयं भोजन भी नहीं कर सकते थे । धर्म के अनुसार इसमें भी दोष लगता था । इसलिए वे दुविधा में पड़ गये ।

कुछ पंडितों ने यह सलाह दी कि जल का पारण कर लेने से दोष नहीं लगेगा और पारण हो जाने के कारण व्रत भी भंग नहीं माना जायेगा । अम्बरीष ने यह सलाह मान ली ।

लेकिन तभी क्रोधाग्नि में जलते और दॉंत पीसते हुए दुर्वासा आ पहुँचे और अम्बरीष को गालियाँ देने लगे-

‘‘अरे नीच राजा, पापी, अधर्मी ! तुम अपने को व्यर्थ ही विष्णु का परम भक्त मानते हो ! तुम्हारा यह अभिमान झूठा है । तुमने मुझे निमंत्रित करके स्वयं भोजन कर लिया ! अब मेरे शाप से तुम्हें कोई नहीं बचा सकता ।’’

अम्बरीष उनके क्रोध से विचलित नहीं हुए और उनके चरणों में अपना मस्तक रख कर बोले- ‘‘मैंने पंडितों के परामर्श से, व्रत भंग होने के डर से, वेदों के नियमानुसार ही केवल जल-पारण किया है । भोजन के लिए मैं आप की प्रतीक्षा कर रहा हूँ । अतः कृपा करके शान्त हो जायें और मुझे क्षमा कर दें ।’’

‘‘क्षमा? दुर्वासा क्षमा करना नहीं जानता । तुम्हें अपने पाप का फल भोगना ही पड़ेगा। अब तुम्हें मालूम हो जायेगा कि भक्ति बड़ी है या तपस्या की शक्ति ।’’

उन्होंने क्रोध के आवेश में अपनी एक लम्बी जटा को ज़ोर से झाड़ते हुए योगदण्ड से उसका स्पर्श किया । बस ! पलक मारते ही जटा से अग्नि के कण बरसने लगे और आकाश काले धुएं से भर गया । फिर काले धुएं से पर्वत जैसा विशाल एक भयंकर राक्षस प्रकट हुआ कृत्य ।

प्रकट होते ही कृत्य अंबरीष पर झपटा । तभी, सुदर्शन चक्र प्रकट हो गया और आग की वर्षा करने लगा । देखते-देखते कृत्य जल कर भस्म हो गया ।

यह दृश्य देख कर दुर्वासा ऋषि अचंभित रह गये । सुदर्शन चक्र कृत्य को मार कर दुर्वासा ऋषिकी ओर दौड़ा ।

दुर्वासा ने एक और जटा तोड़ कर सुदर्शन चक्र की ओर फेंका । जटा से एक विशाल चट्टान निकली जिसने चक्र को रोक दिया । चक्र के स्पर्श से चट्टान छिन्न-भिन्न हो गई । दुर्वासा ने चक्र को फिर अपनी ओर आते देख कर एक जटा फेंक दी ।

इससे सारा आकाश काले मेघों से भर गया और सुदर्शन चक्र उसमें खो गया । किन्तु दूसरे ही क्षण सुदर्शन चक्र की किरणों ने उन बादलों को जला कर भस्म कर दिया।

यह देखकर दुर्वासा ऋषि बहुत घबरा गये और भयभीत हो भागने लगे । सुदर्शन चक्र उनका पीछा करने लगा । चक्र की किरणों से दुर्वासा की जटाएं जल कर भस्म हो गयीं और उनके साथ ही उनका सारा तपोबल भी नष्ट हो गया ।

दुर्वासा ऋषि तीनों लोकों में भागते-भागते ब्रह्मा के लोक में पहुँचे । वहाँ उनकी भेंट नारद से फिर हो गई । उन्होंने दुर्वासा को भागते हुए देख कर मुस्कुराते हुए पूछा-‘‘इतनी जल्दी में आप कहाँ जा रहे हैं?’’ लेकिन उनके पास ठहर कर जवाब देने का समय नहीं था। उन्होंने पीछे आते हुए चक्र की ओर संकेत भर किया और जाकर ब्रह्मा के चरणों में गिर पड़े ।

‘‘बचाइए, रक्षा कीजिए ब्रह्मदेव! सुदर्शन चक्र मेरा पीछा कर रहा है ।’’

ब्रह्मा ने अपनी लाचारी प्रकट करते हुए समझाया- ‘‘ऋषिवर ! आप तो जानते हैं कि मेरा जन्म उस कमल में से हुआ है जो विष्णु की नाभि से निकला है । मैं भला उनके चक्र को कैसे रोक सकता हूँ ?’’

दुर्वासा ऋषि वहाँ से भाग कर शिव लोक- कैलास पहुँचे और उन्होंने शिव के चरणों में गिर कर प्राण - रक्षा की प्रार्थना की ।


शिव ने ध्यान टूटते ही दुर्वासा की ओर आते हुए सुदर्शन चक्र को देखा। वे बोले- ‘‘यह तो विष्णु चक्र तुम्हें मारने आ रहा है । उनके चक्र को उनके अलावा कौन रोक सकता है ? स्वयं विष्णु ही तुम्हारी सहायता कर सकते हैं ।’’

दुर्वासा का अहंकार पिघल चुका था । उनकी तपस्या की सारी शक्तियाँ नष्ट हो चुकी थीं और अब वे असहाय और निर्बल अनुभव कर रहे थे । जब ब्रह्मा और शिव दोनों ने इनकी रक्षा करने से मुहँ मोड़ लिया तब वे लाचार हो विष्णु की शरण में पहुंचे ।

‘‘मैंने बहुत पहले ही अपने परम भक्त अंबरीष की रक्षा के लिए सुदर्शन चक्र को नियुक्त कर दिया था । अब तो मेरा चक्र उसी की आज्ञा का पालन करेगा । आप कृपा कर अम्बरीष से ही रक्षा की प्रार्थना कीजिए।’’ यह कहते हुए विष्णु ने भी रक्षा करने से इनकार कर दिया ।

बहुत हिम्मत करके तो वे विष्णु के पास आये थे क्योंकि उनके ही भक्त अंबरीष को नाहक सताने के कारण इस आपत्ति में आ फँसे थे । अब क्या मुँह लेकर वे अंबरीष के पास जायेंगे ? लेकिन प्राण-रक्षा का कोई उपाय भी न था । चक्र निरन्तर उनका पीछा कर रहा था । तीनों लोकों के स्वामी भी उनकी रक्षा में असमर्थ थे । यह सब सोच कर उनका रहा-सहा अहं भी धुल गया और वे अपने को एक क्षुद्र प्राणी समझने लगे । गर्व खत्म होते ही वे एक निर्बल व्यक्ति की तरह अंबरीष के चरणों को छूकर प्राणों की भीख माँगने लगे ।

यह दृश्य देख कर सुदर्शन चक्र स्वयं ही अदृश्य हो गया । इस घटना के बाद अंबरीष का नाम विष्णु के परम भक्तों में लिया जाने लगा ।

सूर्यवंशी राजाओं में गाधि बहुत प्रतापी राजा हुए । विश्वामित्र उन्हीं के पुत्र थे ।

विश्वामित्र ने कृताश्र्व से धनुर्विद्या सीखी थी और अनेक दिव्यास्त्रों को सिद्ध किया था । वे इस विद्या में बड़े प्रवीण माने जाते थे ।

विश्वामित्र ने कृताश्र्व से धनुर्विद्या सीखी थी और अनेक दिव्यास्त्रों को सिद्ध किया था । वे इस विद्या में बड़े प्रवीण माने जाते थे ।


राजा बनने के बाद वे एक बार वसिष्ठ ऋषि के आश्रम में गये । वसिष्ठ ने अपनी कामधेनु की कृपा से राजा विश्वामित्र तथा उनके सैकड़ों सैनिकों और अधिकारियों को बहुत भारी भोज दिया । इस पर विश्वामित्र ने वसिष्ठ से अनुरोध किया- ‘‘यह कामधेनु मुझे दे दीजिए और बदले में चाहे आप दस लाख गायें ले लीजिए ।’’

लेकिन वसिष्ठ ने इस अनुरोध को अस्वीकार कर दिया । इस पर विश्वामित्र को क्रोध आ गया और उन्होंने अपने सैनिकों को जबर्दस्ती काम-धेनु हाँक ले जाने का आदेश दिया ।
तभी एक और विचित्र घटना हो गई । कामधेनु के शरीर से हजारों सैनिक उत्पन्न हुए जिन्होंने विश्वामित्र की सेना को पलक मारते ही नष्ट कर दिया । यह दृश्य देख कर विश्वामित्र को आश्चर्य हुआ और यह सोचने लगे कि योग की शक्ति के सामने राजा की शक्ति कितनी तुच्छ है ।

यह विचार आते ही उन्होंने राज्य से वैराग्य ले लिया और तपस्या करने लगे । घोर तपस्या द्वारा उन्होंने ब्रह्मर्षि का सबसे ऊँचा पद प्राप्त किया ।

एक बार वे एक महायज्ञ प्रारम्भ कर रहे थे । उन दिनों राक्षसराज रावण के अनुचर मारीच, सुबाहु तथा राक्षसी ताड़का आर्यावर्त में आकर तपस्या और यज्ञ में विघ्न डालते थे । ये राक्षस विश्वामित्र के यज्ञ को भी भंग कर रहे थे । तंग आकर ये हिमालय में जाकर तपस्या करने लगे ।

समाधि में ही विश्वामित्र को यह ज्ञान हुआ कि विष्णु ने लोक कल्याण के लिए रघुवंश में राम के रूप में अवतार लिया है । वे धर्म को नष्ट करने वाले राक्षसों के संहार के लिए धरती पर आये हैं । समाधि में ही उन्हें यह प्रेरणा मिली कि राम को शस्त्र विद्या की शिक्षा देने के लिए वे उपयुक्त गुरु हैं। यह प्रेरणा मिलते ही वे अयोध्या के लिए चल पड़े ।