पुराने जमाने में कांभोज राज्य पर कुमारवर्मा शासन करता था। उसका विश्वास था कि समस्त विद्याओं में उसकी समता करनेवाला कोई नहीं है और शासन के कार्यों में वह सफल व्यक्ति है।
एक बार वार्तालाप के संदर्भ में रानी कर्पूरवल्ली ने अपने पति से मजाक में बताया कि पैतृक रूप में राजा बनने में कोई महत्व की बात नहीं है, बल्कि अपनी शक्ति के बल पर राज्य का संपादन करना ही बड़ी बात है। रानी ने ये बातें परिहासपूर्वक कहीं थीं, पर राजा कुमारवर्मा पर इन बातों का गहरा असर पड़ा। राजा ने सोचा कि अपने बड़प्पन को रानी के समझ साबित करना होगा। इसके वास्ते उसने प्रतियोगिताओं का प्रबंध किया।
उन प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए देश के अनेक प्रांतों से उत्साही युवक आ पहुँचे। उन विद्याओं में कुशल व्यक्तियों ने निर्णायकों का कार्य किया। प्रतियोगिताएँ सफलतापूर्वक संप हुईं। अब केवल पुरस्कार वितरण का कार्य शेष रह गया था।
राजा कुमारवर्मा ने खड्गविद्या में प्रथम आये रामराज नामक व्यक्ति को दिखाकर कहा, ‘‘यह साबित हो गया है कि इससे बढ़्रकर खड्गविद्या-प्रवीण हमारे देश में दूसरा कोई नहीं है?''
सभी दरबारियों ने स्वीकृति दी।
‘‘इस बात का निर्णय मुझे करना होगा।'' इन शब्दों के साथ राजा अपने हाथ में खड्ग लेकर रामराज के साथ युद्ध करने के लिए प्रस्तुत हुआ। इस पर सभी लोग विस्मय में आ गये। रामराज तथा कुमारवर्मा के बीच बड़्री देर तक युद्ध होता रहा। अंत में रामराज ने कुमारवर्मा के हाथ के खड्ग को उड़ा दिया। कुमारवर्मा के चेहरे पर काटो तो खून नहीं।
वक्त निर्णायकों ने घोषणा की कि रामराज ने प्रतियोगिता के नियमों का उल्लंघन किया है। उन लोगों ने रामराज के कानों में गुप्त रूप से कुछ कहा। रामराज ने राजा कुमारवर्मा के निकट पहुँचकर हाथ जोड़ते हुए कहा, ‘‘महाराज, आप के अद्भुत कौशल के सामने न ठहरने की स्थिति में मैंने प्रतियोगिता के नियमों का उल्लंघन किया है। इसलिए फिर एक बार युद्ध करने का मौका दिलाइए।''
महाराजा पराजित होकर क्रोध में था, इसलिए उसने झट से रामराज को अनुमति दी। इस बार कुमारवर्मा ने रामराज के खड्ग को आसानी से उड़्रा दिया। पुरस्कार राजा को प्राप्त हुआ।
इसी प्रकार साहित्य-गोष्ठी में सबको पराजित करनेवाले विद्यानाथ को राजा ने ललकारा। दोनों के बीच चर्चा चल रही थी, तभी निर्णायकों ने यह घोषणा करके पुरस्कार राजा को दिया कि विद्यानाथ ने व्याकरण की अनेक गलतियाँ कीं।
इसी भांति सभी क्षेत्रों के पुरस्कार राजा ने जीत लिए। इस प्रकार एक वर्ष नहीं, लगातार पाँच साल कुमारवर्मा ने प्रतियोगिताओं में स्वयं सभी पुरस्कार प्राप्त किये। यह बात उसने रानी को बताई, पर रानी मुस्कुराकर चुप रह गई।
उन्हीं दिनों में कुमारवर्मा को एक भयंकर समाचार प्राप्त हुआ। मंत्री भैरव अनेक दिनों से राज्य को हड़पने का षड्यंत्र कर रहा है। उसकी योजना लगभग पूरी हो चुकी है। किसी भी क्षण भैरव गद्दी पर बैठ सकता है।
यह समाचार मिलते ही राजा कुमारवर्मा अपनी पत्नी के साथ गुप्त रूप से वेष बदल कर राजधानी से भाग निकला। अब राजा एक साधारण मानव था।
कुमारवर्मा तथा कर्पूरवल्ली अपने राज्य के किसी कोने में स्थित एक छोटे से गाँव में पहुँचे। अपने नाम बदलकर गरीबों की भांति मेहनत करने अपने दिन बिताने लगे। जनता के बीच अपने दिन काटते कुमारवर्मा ने उनकी जरूरतों को समझा और उनके दुख सुख का अनुभव करते हुए यह समझ लिया कि उसका शासन जनता के लिए हितकारी न रहा था।
उस वर्ष भी राजा को यह खबर मिली कि पहले की भांति इस साल भी प्रतियोगिताएँ होनेवाली हैं। वह बहुत प्रस हुआ। मगर उन प्रतियोगिताओं को लेकर युवकों में किसी भी प्रकार का उत्साह न देख वह आश्चर्य में आ गया। उसने कई लोगों से इसका कारण पूछा। सबने कहा, ‘‘इन प्रतियोगिताओं का मतलब ही क्या रहा? सारे पुरस्कार राजा को ही प्राप्त हो जायेंगे! ऐसी हालत में हम क्यों अपना समय व्यर्थ करके उनमें भाग लें!''
कुमारवर्मा यह सोचकर प्रस हुआ कि जनता ने उसकी प्रतिभा को स्वीकार कर लिया है। लेकिन उस समय का राजा भैरव राजतंत्र को छोड़ और किसी विद्या में सामर्थ्य नहीं रखता था। इस कारण कुमारवर्मा यह सोचकर राजधानी की ओर चल पड़ा कि वह उन प्रतियोगिताओं में भाग लेकर पुरस्कार प्राप्त कर ले।
विभिश्न प्रतियोगिताओं में भाग लेकर कुमारवर्मा विजयी हुआ।
सभी क्षेत्रों में विजयी हुए व्यक्तियों को अंत में राजा भैरव ने अंतिम प्रतियोगिता के लिए ललकारा! उसके तथा कुमारवर्मा के बीच खड्ग युद्ध हुआ। कुमारवर्मा ने कुछ ही क्षणों में भैरव को बेहथियार कर दिया। तुरंत निर्णायकों ने बताया कि कुमारवर्मा ने प्रतियोगिता के नियमों का उल्लंघन किया है। इसके बाद उन लोगों ने कुमारवर्मा को अलग ले जाकर समझाया, ‘‘पगले, तुम एक व्यक्ति के साथ स्पर्धा नहीं, एक बड़े पद के साथ कर रहे हो। तुम्हें भैरव के हाथों नहीं, सिंहासन के समक्ष हारना था! तुम राजा से क्षमा माँग लो और एक और मौक़ा माँगकर उनके हाथों से हार जाओ, वरना तुम खतरों में फँस जाओगे!''
लाचार होकर कुमारवर्मा ने भैरव को विजयी होने दिया। तब जाकर कुमारवर्मा की समझ में यह बात आई कि उसके राजपद पर रहते कैसे वह सभी पुरस्कार प्राप्त कर पाया!
जब कुमारवर्मा गाँव को लौट आया, तब कुछ लोगों ने उसे टोका, ‘‘क्या हुआ? राजा भैरव ही जीत गये हैं न? इसके वास्ते तुम नाहक़ राजधानी में गये ही क्यों? अगर तुम पुरस्कार पाना चाहते हो तो तुम्हें राजा बनना होगा।''
उधर भैरव के शासन में जनता का शोषण बढ़ता जा रहा था। इसे भांप कर कुमारवर्मा देशाटन पर निकल पड़ा। साहसी युवकों को अपने दल में मिला लिया और गुप्त रूप से एक सेना तैयार की। उस सेना के नायक के पद के लिए प्रतियोगिताएँ चलाई गईं। उन प्रतियोगिताओं में कुमारवर्मा विजयी हुआ और वह सेनापति चुना गया। इसके बाद कुमारवर्मा ने फिर से अपना राज्य पाने के लिए एक अच्छी योजना बनाई।
दूसरे साल की प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए कुमारवर्मा अपनी सेना के साथ चल पड़्रा और उस साल भी हर साल की तरह सभी प्रतियोगिताओं में वह विजयी हुआ।
इसके बाद भैरव ने कुमारवर्मा को खड्ग युद्ध के लिए ललकारा। कुमारवर्मा ने बड़ी सुगमता के साथ भैरव के हाथ के खड्ग को उड़ा दिया और अपनी तलवार को भैरव की छाती पर टिका कर जनता से कहा, ‘‘इस दुष्ट ने मेरा बध करना चाहा। मगर अपने विश्वासपात्रों के द्वारा चेतावनी देने पर मैं बच निकला। मैं एक जमाने का आप लोगों का राजा कुमारवर्मा हूँ। यह भैरव अगर जनता पर अच्छा शासन करता तो मैं इसके काम में दखल न देता। मैं जनता के कल्याण के वास्ते आगे आया हूँ। तुम लोग मुझे फिर से राजा के रूप में स्वीकार करोगे या मुझे इस गद्दी के वास्ते युद्ध करना होगा?'' फिर कुमारवर्मा ने अपनी नकली पोशाकें हटा दीं। दरबारियों ने कुमारवर्मा को पहचाना और जयकार किये। बिना खून खराबी के राज्य कुमारवर्मा के हाथों में आ गया।
इस पर रानी कर्पूरवल्ली ने अपने पति से पूछा, ‘‘यदि आप पहले ही अपनी सेना को बता देते कि आप ही कुमारवर्मा हैं तो आप कभी राजा बन गये होते?''
‘‘मैंने इस बार राज्य को पैतृक संपत्ति के रूप में नहीं, बल्कि अपनी शक्ति के बल पर प्राप्त किया है। यदि अपनी सेना को पहले ही बता देता तो अपने बल से राज्य पाने का मौका न मिलता और न ही इसे प्रमाणित करने का अवसर। अब अपनी शक्ति पर मुझे विश्वास है, इसलिए प्रतियोगिताओं में मुझे भाग लेने की ज़रूरत नहीं है।'' राजा ने कहा।
इसके उपरांत राजा ने प्रतियोगिताओं में भाग लेना बंद कर दिया, इस कारण राज्य की तरफ़ से चलाई जानेवाली प्रतियोगिताओं ने वास्तविक सामर्थ्य ऱखनेवाले युवकों को अपनी ओर आकृष्ट किया
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