30 मार्च 2010

धर्म की जीत


लक्ष्मीपुर नामक गाँव में अनुपम नामक एक धनी रहा करता था। धन के साथ साथ वह कितने ही उपजाऊ खेतों का मालिक भी था। गरीब किसानों से वह खेती करवाया करता था और इसके लिए आवश्यक पूंजी भी उन्हें देता था। किसान प्यार से उसे ज़मींदार कहकर बुलाते थे। बिना किसी कमी के वे आराम से ज़िन्दगी गुजार रहे थे। अनुपम के पूर्वज महान मल्लयोद्धा थे। वह भी स्वयं उत्तम कोटि का मल्लयोद्धा था। अपने पूर्वजों की स्मृति में वह हर साल मल्लयुद्ध प्रतियोगिताएँ चलाया करता था। विजेताओं को वह पुरस्कार प्रदान करता था और उन्हें प्रोत्साहन देता था। इस वजह से अनुपम का नाम सब लोग जानते थे।

लक्ष्मीपुर, समस्तपुर ज़मींदारी के गाँवों में से एक था। समस्तपुर के ज़मींदार कृष्णभूपति ने अनुपम के बारे में सुना। उसने दिवान से कहा, ‘‘लक्ष्मीपुर हमारी ज़मींदारी का एक हिस्सा ही है न? सुना है कि अनुपम ने हमसे भी अधिक ख्याति कमायी। हम अगर इसे ऐसा ही बरक़रार रहने देंगे तो वह और मशहूर हो जायेगा। चूँकि हम ज़मींदार हैं, इसलिए ऐसा कोई उपाय सोचिये, जिससे उसके खेत हमारे अधीन हो जायें।’’

इस पर दिवान ने विनयपूर्वक कहा, ‘‘प्रभु, ऐसे विषयों में बैर से बढ़कर मैत्री ही सही होगी। अनुपम की एक सुंदर बेटी है। हमारे युवराज भी शादी की उम्र के हो गये हैं। अनुपम की पुत्री को अपनी बहू बना लीजिये।’’

कृष्ण भूपति को यह सलाह अच्छी लगी। ठाठ-बाट से वह लक्ष्मीपुर गया। अनुपम ने सादर उसका स्वागत किया। दोनों ने कुछ देर तक गाँव की हालत पर आपस में चर्चा की। आख़िर कृष्ण भूपति ने विवाह का प्रस्ताव रखा।

अनुपम ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘प्रभु, आप ज़मींदार हैं। मैं सामान्य हूँ। मेरा मानना है कि मेरी बेटी ज़मींदार के परिवार में समा नहीं सकती। दूसरी बात यह है कि अपने एक जिगरी दोस्त के बेटे के साथ उसकी शादी करने का बहुत पहले ही वचन दे चुका हूँ। कुछ ही दिनों में उनका विवाह भी संपन्न होगा। क्षमा कीजिये।’’

ज़मींदार कृष्ण भूपति नाराज़ हो उठा। बग़ल ही में बैठे दिवान ने कहा, ‘‘घर में लक्ष्मी आयी है और तुम उसे ठुकरा रहे हो। यह भूल भी रहे हो इस विवाह के लिए सहमति न देने पर तुम पर क्या बीतेगा।’’

अनुपम भयभीत हो गया। उसने धीमे स्वर में कहा, ‘‘मुझे सोचने के लिए थोड़ा समय दीजिये।’’

ज़मींदार परिवार सहित लौट आया । उनके चले जाने के बाद अनुपम ने इसके परिणामों पर खूब सोचा-विचारा। उसे लगा कि ज़मींदार से डरने की कोई आवश्यकता नहीं है। उसने यह भी निर्णय लिया कि जो भी हो, दोस्त के बेटे के साथ ही उसकी बेटी की शादी होगी। उसने अपने इस निर्णय को तुरंत कार्यान्वित भी किया। दोस्त के बेटे से बेटी की शादी करा दी।

ज़मींदार ने इसे अपमान माना। उसने दिवान से कहा, ‘‘आपकी सलाह पर मैं लक्ष्मीपुर गया। देख लिया न, क्या हुआ? आपको मालूम है कि मुझे अनुपम की बेटी नहीं मुझे उसकी जायदाद चाहिये। घोषणा कर दीजिये कि आज ही उसकी संपत्ति हमारे अधीन हो जायेगी।’’ क्रोध-भरे स्वर में उसने कहा।

उस समय युवराज शांतिवर्मा भी वहाँ उपस्थित था। उसने पिता से कहा, ‘‘अनुपम ने आपका ही नहीं, मेरा भी अपमान किया। उसने मुझे दामाद बनाने से इनकार करके बड़ा अपराध किया। मैं खुद उसे सबक़ सिखाऊँगा। इसके लिए मैंने एक उपाय भी सोच रखाहै ।’’

तब शांतिवर्मा ने उस उपाय पर प्रकाश डालते हुए कहा, ‘‘आप तो जानते ही हैं कि मल्लयुद्ध में मेरी बराबरी का कोई है नहीं। उस वृद्ध अनुपम को मैं आसानी से हरा सकता हूँ। मल्लयुद्ध के नियमों के अनुसार, मैं अनुपम को प्रतियोगिता के लिए बुलाऊँगा। मैं शर्त रखूँगा कि अगर वह हार जाए तो अपनी जायदाद मेरे सुपुर्द करे। यह नाइन्साफी लगे, पर यह अचूक उपाय है।’’


जैसा सोचा था, मल्लयुद्ध की प्रतियोगिता में शांतिवर्मा ने प्रसिद्ध मल्लयोद्धाओं को भी आसानी से हरा दिया। तब उसने सबके सामने घोषणा की, ‘‘ये प्रतियोगिताएँ तभी सफल मानी जाएँगी, जब मेरा मुकाबला श्री अनुपम से हो। श्री अनुपम अगर जीत जाएँ तो मैं उन्हें बराबर का ज़मींदार मानूँगा। अगर उनकी हार हो जाए तो उनकी जायदाद मेरी हो जायेगी और वे एक सामान्य नागरिक की तरह जीवन बिताएँगे।’’

यह सुनते ही अनुपम के किसानों, ग्रामीणों तथा वहाँ उपस्थित और लोगों ने इसका ज़ोरदार विरोध किया। इसे अन्याय कहते हुए वे चिल्लाने लगे। अनुपम ने नाराज़ लोगों को शांत करते हुए कहा, ‘‘आप शांत हो जाइये। हाँ, मानता हूँ कि मैं बूढ़ा हो गया हूँ, फिर भी मुझमें लड़ने की शक्ति है। उनकी चुनौती स्वीकार करूँगा। मेरा पूरा विश्वास है कि धर्म की विजय होगी।’’ कहते हुए वह आगे आया।

अनुपम के मुख की दीप्ति और तेजस्व को देखकर एक क्षण के लिए शांतिवर्मा चौंक उठा। अंदर ही अंदर उसमें डर पैदा हो गया। ‘‘धर्म की विजय होगी’’ उसके कानों में गूँजने लगा।
अनुपम और शांतिवर्मा के बीच मल्लयुद्ध शुरू हो गया। पर, विचित्र बात यह हुई कि पहले ही दौर में युवराज ज़मीन पर गिर गया। वह अपने को असहाय महसूस करने लगा। मन ही मन उसने ठान लिया कि अनुपम को जीतना असंभव है। उसने लोगों को संबोधित करते हुए और अपनी हार मानते हुए कहा, ‘‘उम्र, बल, प्रशिक्षण की दृष्टि से मुझे ही जीतना चाहिये था, परंतु पहले ही दौर में श्री अनुपम ने मुझे ज़मीन पर पटक डाला, इसका कारण शायद उनका धर्म बल ही होगा।’’

कृष्णभूपति ने सोचा भी नहीं था कि मल्लयुद्ध का यह परिणाम होगा। उसे पूरा विश्वास था कि उसका बेटा ही जीतेगा। इस परिणाम को लेकर वह बेहद दुखी हुआ। कर भी क्या सकता था? उसने अनुपम को बधाई दी और युवराज सहित समस्तुपर लौट गया। अनुपम यथावत् किसानों का आदर करता रहा, भरसक उनकी सहायता करता रहा और यों लंबे अर्से तक उसने सुखी जीवन बिताया।