31 मार्च 2010

परिवर्तन


अवंती राज्य में विनोद नामक एक युवक राजदरबार के एक छोटे कर्मचारी के पद पर नियुक्त हुआ। उसका पिता राजदरबार में नौकरी करते मर गया था, इसलिए विनोद को वह नौकरी प्राप्त हुई। काफी समय तक विनोद ने शादी नहीं की क्योंकि वह बड़ी नौकरी पाकर अपनी पत्नी की दृष्टि में बड़ा आदमी कहलाना चाहता था।

मगर अपनी माँ के जोर देने पर विनोद ने आख़िर एक गरीब किसान की बेटी चन्द्रा से शादी कर ली। वह खूबसूरत और सुशील भी थी। वह किफ़ायत के साथ ख़ातिर करना अच्छी तरह जानती थी। वह अपने पति और सास के साथ विनयपूर्वक व्यवहार भी करती थी।

पर विनोद अपनी पत्नी की नज़र में ऊँचा व्यक्ति कहलाने के ख्याल से पैसे पानी की तरह बहाने के कारण कर्जदार बन गया।

चन्द्रा अपने पति की कमाई से भली भांति परिचित थी। लेकिन वह कभी अपने पति को नहीं कहती कि हम संपन्न नहीं हैं, लेकिन अनावश्यक ख़र्च कम करने की सलाह देती रही।

विनोद क़िफ़ायत करना अपमान की बात मानता था। इसलिए वह पत्नी से कहा करता था, ‘‘हमें कंजूसी दिखाने की क्या जरूरत है? अपने पद के अनुकूल खर्च करना ही होगा।''

जब कर्जदार उसे कर्ज चुकाने का तकाजा करने लगे, तब उसने एक अच्छी नौकरी पाने की कोशिश की। लेकिन वह बेकार गई।

एक बार विनोद का मामा अपनी बहन व भानजे को देखने आया। वह राज दरबार में बड़े पद पर थे। विनोद ने सोचा कि अगर वे चाहें तो उसे अच्छी नौकरी दिला सकते हैं, इस ख्याल से उसने उनके सामने अपनी समस्या रखी।

विनोद से ये बातें सुन उसके मामा को आश्चर्य हुआ, क्योंकि विनोद की नौकरी कोई ख़राब न थी। उसकी योग्यता से कहीं ऊँची थी। अलावा इसके, विनोद की आमदनी उसके परिवार के ख़र्च के लिए पर्याप्त थी। वह उसमें से थोड़ा-बहुत बचा भी सकता था। साथ ही, वह अपनी नौकरी में दक्षता दिखाये तो ऊँचे पद पर भी जा सकता था।

इन सब बातों की जानकारी रखनेवाले विनोद के मामा अपने भानजे की इस बेवकूफी पर रहम खाकर बोले, ‘‘देखो विनोद! तुम्हें सबसे पहले अपनी नौकरी के प्रति विश्वास और आदर होना चाहिए। तभी तुम उस नौकरी में चमक सकते हो! ऊँचे अधिकारी अगर तुम्हारी प्रतिभा को पहचान लें तो तुम्हारा भला होगा। इसलिए तुम अपनी आमदनी से संतुष्ट होना सीखो।''

विनोद को अपने मामा की बातें अच्छी न लगीं। उसे गलतफ़हमी हो गई कि उसके मामा बहाना बना रहे हैं। विनोद के मन की बात उसके मामा ने भांप ली। उन्होंने पूछा, ‘‘सुनो बेटा, बताओ, किस तरह की नौकरी तुम चाहते हो?''

विनोद को लगा कि उसके भीतर नई स्फूर्ति आ गई है। उसने कहा, ‘‘अगर मुझे कोशाध्यक्ष या मण्डलाधिकारी का पद मिल जाये तो ओहदे के साथ अच्छी आमदनी भी हो सकती है।''

अपने भानजे की यह महत्वाकांक्षा देख उन्हें हँसी के साथ क्रोध भी आया। वे बोले, ‘‘अच्छी बात है! कोशाध्यक्ष मेेरे परिचित हैं। कल तुम मेेरे साथ चलो, मैं उनके द्वारा तुम्हें अच्छी नौकरी दिलाने की कोशिश करूँगा।''

दूसरे दिन विनोद अपने मामा के साथ राजधानी जाकर कोशाध्यक्ष के घर पहुँचा। कोशाध्यक्ष से एकांत में बात करने के बाद मामा ने उनके साथ विनोद का परिचय कराया।

कोशाध्यक्ष ने विनोद को एड़ी से चोटी तक परख कर देखा, उसकी नौकरी का हाल जान लिया, तब वे बोले, ‘‘तुम्हारा विचार वाकई अच्छा है, लेकिन जैसा तुम समझते हो, कोशाध्यक्ष का पद सुखदायक नहीं है। यह तो तलवार की धार है। इसमें धन के साथ संबंध है, इसमें थोड़ा भी अंतर आ गया तो दण्ड भोगना पड़ेगा। इस पद को संभालने के लिए बुद्धिमत्ता के साथ साहस और अनुभव की भी ज़रूरत है।''

पर विनोद को ये बातें अच्छी न लगीं।


कोशाध्यक्ष ने आगे यों बताया, ‘‘कोशाध्यक्ष का यह पद मुझे अचानक नहीं मिला। इस पद पर आने के पहले मैंने दरबार में घंटी बजाई, बाद में द्वारपाल बना, फिर दुर्ग पर पहरेदार नियुक्त हुआ। इसके बाद कोशागार का रक्षक बना। राजा ने कई बार मेरी कठिन परीक्षाएँ लीं, उनमें सफल होने के बाद ही उन्होंने मुझे यह पद दिया है। कई सीढ़ियाँ पार किये बिना क्या हम ऊपरी मंजिल पर पहुँच सकते हैं?''

विनोद को ये सारी बातें अनावश्यक लगीं। उसके चेहरे के बदलते रंग को मामा देख रहे थे। फिर कोशाध्यक्ष से विदा लेकर दोनों वहाँ से चल पड़े।

मामा ने विनोद को समझाया, ‘‘बेटा, उनकी बातों पर ध्यान न दो। मण्डल के अधिकारी भी मेरे दोस्त हैं। क्या हम उनसे भी मिलें?'' इस बात को सुनने के बाद विनोद के मन में फिर से आशा जगी। थोड़ी दूर जाने पर रास्ते में उन्हें दस युवक मिले। विनोद के मामा ने उनसे पूछा, ‘‘बेटे, तुमलोग कहॉं जा रहे हो?''

उनमें से एक ने जवाब दिया, ‘‘हम लोग बेकार शिक्षित व्यक्ति हैं। हमारी अ़क्लमंदी और शिक्षा हमारे पेट भरने का साधन न बन सकी। राजधानी में भी हमारी शिक्षा को जब मान्यता न मिली तो हम वहाँ क्यों रहें? इसलिए देहातों में जाकर हमलोग खेती-बाड़ी करके अपने पेट भरना चाहते हैं!''

यों बताकर वे लोग आगे बढ़ गये। ये बातें सुनने पर विनोद के मन में अचानक कोई परिवर्तन हुआ। उसके सारे भ्रम दूर हो गये।

मामा बोले, ‘‘विनोद, मण्डल के अधिकारी का घर समीप आ गया है, चलो, हम उनसे जाकर मिल लेंगे।''

‘‘मामाजी, अब किसी से मिलने की ज़रूरत नहीं है ! अपनी नौकरी से मैं संतुष्ट हूँ! आप की सलाह के मुताबिक ईमानदारी के साथ मेहनत करके मैं ऊँचा पद पाने की कोशिश करूँगा। मैंने नाहक़ आप को कष्ट दिया, मुझे माफ़ कर दीजिएगा।'' विनोद ने कहा।

विनोद की बातें सुन मामा बहुत प्रसन्न हुए।