22 मई 2010

हरे फूलों वाला पौधा बेल्स आफ आयरलैंड

घंटी के आकार वाला फूल बेल्स आफ आयरलैंड को हम हरा समझते हैं। जबकि फूल के ऊपर कटोरे की आकृति जैसी गोलाकार पत्तियाँ फूल को ढक लेती हैं। वैसे वास्तविक फूल सफ़ेद रंग का होता है।


अनूठे अंदाज में खिलने वाला, हरे फूलों वाला 'बेल्स आफ आयरलैंड' का वनस्पतिक  नाम 'मोलूसैला लीविस' है। यह एकनथिएसी (लेमीएसी) परिवार का पौधा है। हम प्रजाति के वार्षिक और बहुवार्षिक  पौधे अपने फूलों के लिये खासकर उगाये जाते हैं। इस कुल में तुलसी, पुदीना जैसे औषधीय उपयोगी पौधे भी शामिल हैं।

बेल्स आफ आयरलैंड को आसानी से सुखाया जा सकता है। इस के फूल कटफ्लावर्स (लम्बे तनेयुक्त फूल) 7 से 10 दिन तक गुलदस्ते में ताजा बने रहते हैं और सूखने पर उन्हें ड्राई फ्लावर्स की पुष्प सज्जा की तरह सजावट के लिये इस्तेमाल करते हैं।

अक्सर लोग 'बेल्स आफ आयरलैंड' के प्रचलित नाम से भ्रमित हो कर इसे आयरलैंड देश का फूल समझने की गलती कर बैठते हैं, जबकि वास्तविक तौर पर इस फूल का जन्मस्थान पश्चिम एशिया के देश तुर्की, सीरिया हैं। वैसे यह इंडोनेशिया में भी पाया जाता है और इस तरह का वानस्पतिक नाम मोलूसैला लीविस इंडोनेशिया के मोलूक्का दीपों के नाम पर ही रखा गया है।

घंटियों के आकार वाले फूलों के आयरिश हरे रंग को देख कर ही शायद इसे 'बेल्स आफ आयरलैंड' नाम मिला, हरेपीले आवरण के लिये फूलों के गुच्छे  आकर में छोटे घोंघे के खोल की मुखाकृति से समानता के चलते ही इसे 'शैल फ्लावर' भी कहते हैं। लेडी इन बात तब' इस का एक और नाम है और यह नाम बाह्य पुष्पदल के आवरण के अन्दर की तरफ स्थित फूलों के होने के कारण दिया गया है।

जिसे हम सब हरा फूल समझते हैं दरअसल, वह फूल के ऊपर कटोरे की आकृति जैसी गोलाकार पत्तिया हैं, जो फूल को उस के आधार से चारों तरफ से ढके होती हैं और इस का वास्तविक फूल इन पत्तियों के भीतर सफ़ेद रंग लिये होता है। फूल गोल चक्र (वर्ल) में 6 की संख्या में पत्तेदार फूलों वाले तनों के इर्दगिर्द लगते हैं।

बेल्स आफ आयरलैंड को क्यारियों में अनोखी छटा  और सुंदरता के लिये उगाया जाता है। इस की सुंदरता इस के फूलों के ऊपर सजावटी पुटकों के कारण है, जो घंटी जैसी आकार लिए हुए होते हैं। ऊंचाई में 60 से 90 सेंटीमीटर तक बढ़ने वाला यह वार्षिकी पौधा है। इस में ताने पर गोलाकार, 2 इंच लम्बे पत्ते ऊपर तथा नीचे की तरफ समूह में उगते हैं। पत्ते तने  के इर्दगिर्द एकदूसरे से 4 के गुणांक में उगते हैं।

बेल्स आफ आयरलैंड के खुशबूदार छोटेछोटे फूल गुच्छे में होते हैं, जो बाहरी सजावटी पत्तों के बगल से निकलते हैं। अपारदर्शी हलके पीले हरे बारीक नाड़ियों से युक्त घंटी के आकार के फूल तने पर पासपास, समूहों में बहुत जयादा संख्या में खिल कर अदभुत सौंदर्य प्रदान करते हैं।

हर घंटी दोन के आकार वाले सजावटी पत्तों के बीच में सफ़ेद, गुलाबी पंखुड़ियों वाले छोटे सुगन्धित फूल हैं जो पौधे के परिपक्व होने पर झड कर गिर जाते हैं। लेकिन आकर्षक सजावट वाले घंटीनुमा फूलों की डंडियों को समय रहते काट लिया जाए तो अंत तक जीवित बने रहते हैं, इन्हें कोई नुक्सान नहीं पहुंचता। सुखाने पर डंडियों में लगी पट्टियां हलके क्रीमी या पीले सफ़ेद रंग में बदल जाती हैं। वर्षों तक ये सूखे नोकदार फूलों के डंठल खराब नहीं होते।

कैसे उगाएं
मोलूसैसा लीविस यानी बेल्स आफ आयरलैंड कठोर वार्षिकी पौधा है। इसे गमलों और क्यारियों में बीजों द्वारा उगाया जा सकता है। मैदानी इलाकों में इस के बीज सितम्बर अक्टूबर में और पहाडी इलाकों में मार्च अप्रैल में बोये  जाते हैं। अंकुर फूटने के 1 महीने बाद इन्हें स्थायी क्यारियों में लगा दिया जाता है। पहाडी इलाकों में वसंत के शुरू होने पर इस के बीजों को कांच (ग्लास कवर) के नीचे रख कर कंपोस्ट खाद की तरह बिछा कर ढक दिया जाता है और पौधे को कठोरता प्रदान करने के लिये ठन्डे फ्रेमों के नीचे रखा जाता है फिर मई में इसे बाहर निकाला जाता है।

पौधों में कुछ कठोरता होने के कारण इन्हें अप्रैल में भी सीधा क्यारियों में बोया जा सकता है। एक पौधे से दूसरी पौधे की दूरी 9 इंच रखनी चाहिए।

मैदानी इलाकों में फूल फरवरी से ले कर मार्च अप्रैल तक खिलते रहते हैं। पहाडी इलाकों में गरमियों के आखिर तक इस के फूल पौधों पर खिलते हैं।

इसे उगाने के लिये कुछ नमी लिये, अच्छी जल निकासी वाली उपजाऊ दोमट मिटटी अति उत्तम रहती है। धूपदार स्थान जहाँ सूर्य का प्रकाश 6 घंटे तक रहे, ऐसे स्थान का चयन करें। पौधों को समयसमय पर गोबर और पत्तों की कम्पोस्ट खाद देने से अच्छे फूल खिलते हैं।

बेल्स आफ आयरलैंड के फूल को दीर्घायु होने के कारण फूलदान तथा पुष्प सज्जा में सजाने के काम में लिया जाता है। यह ताजा एवं सूखी दोनों ही अवस्थाओं में उपयोग में लाया जाता है। 6-8 समूहों में सजे फूलों में डंठल इंटीरियर में नया लुक देते हैं। कटाई के लिये उन पुष्प डंठलों का चुनाव करें जिन में तीनचौथाई फूल खिल चुके हों।

फूलों वाली डंडियों को सूखी अवस्था में संरक्षित  करना हो तो कटाई तब करें जब सारे फूल खिल चुके हों। कटाई के बाद फूलों वाले डंठल से पट्टियों को हटा कर उन्हें ठन्डे, हवादार कमरे में उलटा (ऊपर का हिस्सा नीचे कर के) लटका कर सुखाएं, थोड़े दिनों बाद सजावटी हरा रंग पीले रंग में बदल जाता हैं जो तनों पर लम्बे समय तक बना रहता है।

ताजे कटे फूल वाली डंडियों को यदि कुछ देर मुरझाने के लिये छोड़ दिया जाए तो इस के तनों को आसानी से अलगअलग आकार दे कर मोड़ा जा सकता है। इन हलके मुरझाये तनों में पानी का संचार कर पुनः इन्हें ताजा बनाए रख सकते हैं और रचनात्मक सज्जा तैयार की जा सकती है।

21 मई 2010

नित्य उपयोगी बातें

 नित्य उपयोगी बातें नामक स्तम्भ लेख व्यक्ति के जीवन में नित्य उपयोग में आने वाली वार्ताओं से सम्बंधित है। व्यक्ति को अपनी दिनचर्या के साथ-साथ कुछ इस प्रकार के साधारण नियम होते हैं, जो भाग्यवृद्धि  में सहायक होते हैं तथा कुछ भाग्यावृद्धि में रूकावट पैदा करते हैं। ऐसी परिस्थिति में सावधानी पूर्वक कुछ आवश्यक नियमों का अनुसरण करना चाहिए।

1. अधिकाँशतया  सभी मनुष्य तर्जनी ऊंगली से मुखवास एवं दंतमंजन करते हैं, जबकि यह दरिद्रता की निशानी एवं विविध दुर्घटनाओं को देने वाली होती हैं। तर्जनी ऊंजली का तो माला जपते हुए भी निषेध है। अतः ध्यान रखें।

2. तर्जनी ऊंगली को भोजन मुद्रा में कभी भी अलग नहीं करना चाहिए। अलग करने पर इससे दरिद्रता एवं अल्प आयु प्राप्त होती है।

3. भोजन में तर्जनी, मध्यमा, अनामिका एवं अंगूठे का सहारा लेकर भोजन करें। जबकि कनिष्ठा को पृथक रखें।

4. मध्यमा ऊंगली से दन्त मंजन करने से दीर्घ आयु, स्वस्थ जीवन सम्पन्नता एवं सफलता प्राप्त होती है।

5. अधिकांशत: मनुष्य अनामिका अंगुली से अपने मष्तिष्क पर तिलक लगाते हैं जो कि निषेध है। तर्जनी उंगली से तिलक लगाना देव, गऊ, ब्रह्मण, गुरु, कन्या, वर एवं अन्य सभी पूजनीय व्यक्तियों के लिये अधिकार है स्वयं के लिये कदापि नहीं।

6. स्वयं के लिये तिलक लगाने के लिये मध्यमा ऊंगली का प्रयोग करें। इससे दीर्घायु, यश और ऐश्वर्या की वृद्धि होती है। जबकि अनामिका ऊंगली से स्वयं के तिलक लगाने पर गुरुजन, आचार्यगण, वृद्धजन, माता-पिता एवं अन्य सौहार्द रखने वाले सभी शुभ चिंतकों का आशीर्वाद नष्ट हो जाता है।

7. अधिकांशतः कान, नाक में ऊंगली करना एवं बिना किसी कारण के लगभग हर समय उंगलीयों को चटकाना, खींचना मूर्खता की निशानी है एवं शिष्टाचार के विरूद्ध है।

8. हवन करते समय यह ध्यान रखें कि हवन सामग्री से तर्जनी ऊंगली का स्पर्श होने से हवन करने वाले स्वयं का अनिष्ट होता है एवं कनिष्टा ऊंगली के स्पर्श करने से मंत्र बोलने वाले आचार्य एवं ब्राह्मणों का अहित होता है।

9. हवन करते समय केवल मात्र मध्यमा, अनामिका एवं अंगूठे के सहारे से ही आहुती प्रदान करें।

जीवन के शुभ - लाभ का बखान

प्रतिकूलता में अनुकूलता
जीवन में अनुकूलता/प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती रहती हैं। प्रथम दृष्टी में हमें प्रतिकूलता बिलकुल ही नहीं सुहाती तथा हम इससे सदैव दूर रहने का प्रयास करते हैं किन्तु यह सम्भव नहीं हो पाता। पिछले जन्म में हमने जैसे कर्म किये हैं उनका फल परमपिता ने पूर्व में निर्धारित किया हुआ है जिसके अनुपालन में प्रतिकूलता प्राप्त होती है। इससे घबराएं नहीं। इसमें भी हमारा हित है (1) पूर्व जन्म में किये गए दुष्कर्म का बोझ जो हमारे कन्धों पर था, उससे  मुक्ति मिल जायेगी (2) दुःख की अवधि में परमपिता की ओर ध्यान रहेगा। (3) हमारा यह ध्यान ही परमपिता को हमारी ओर आकर्षित करेगा तथा परमपिता हम पर कृपा कर दुःख को सहन करने की शक्ति प्रदान करेंगे। बहुत से व्यक्ति दुःख के लिये परमात्मा को कोसते दिखाई देते हैं। ऐसा करने वालों की दुःख को सहन करने की शक्ति घटेगी तथा परमपिता की कृपा से वंचित होना पडेगा। बाहरी रूप में प्रतिकूलता हमें सुहाती नहीं किन्तु वास्तव में प्रत्येक प्रतिकूलता में अनुकूलता छिपी हुई होती है। भले ही हम उसकी अनुभूति करें या नहीं। अनुकूलता की अनुभूति होते ही चिंता की लहर स्वतः ही समाप्त हो जायेगी। कुन्ती ने भगवान् कृष्ण से दुःख ही माँगा तथा कहा-
सुख के माथे सिला पड़े तो नाम ह्रदय से जाए। बलिहारी वा दुःख की जो पल पल नाम रटाये।

हम समय को काट रहे हैं या समय हमें काट रहा है
जब हम अपने किसी मित्र, भाई- बन्धु इत्यादि से उनकी कुशल-क्षेम पूछते हैं तो 90 प्रतिशत बन्धु यही कहते सुनाई देते हैं कि टाइम पास कर रहें हैं या समय को काट रहे हैं। इन बंधुओं को अपना ध्यान गीता 1-(33) पर केन्द्रित करना श्रेयस्कर रहेगा। इस श्लोक में ब्रह्म स्वरुप भगवान् कृष्ण ने अर्जुन से यही कहा है कि महाकाल मैं ही हूँ तथा सब ओर मुखवाला विराट स्वरुप, सबका पालन-पोषण करने वाला भी मैं ही हूँ।। ज़रा सोचिये ऐसी महा अपरमपारी  सत्ता काल के लिये हम जैसे एक मच्छर द्वारा यह कहना कि काल (समय या टाइम) को काट रहे हैं या पास कर रहे हैं, न्यायसंगत होगा। अंत समय जब हम उसके दरबार में जायेंगे तो ऐसे महाकाल का अपमान करने वाले को निश्चित रूप से दण्ड का भागीदार बनना ही पडेगा। अतः यही अनुरोध है कि सदैव ध्यान रखें कि काल (समय, टाइम) हमको प्रति क्षण काट रहा है न कि हम उसे काट रहे हैं। काल अपने निर्धारित विधान के अनुसार दैनिक हमको काटता हुआ मृत्यु की ओर धक्का देता हुआ जीवन का संचालन कर रहा है।

सूर्या में त्रिदेव - ब्रह्म, विष्णु महेश स्थित हैं
हमारा दिन-प्रात:, मध्यान्ह और सायं तीन भागों में विभाजित होता है तथा इन तीनों में सूर्य रश्मियाँ सत तत्त्व प्रधान शान्तिक होती है तो मध्यकाल की राजप्रधान पौष्टिक होती है तथा सायं की तम प्रधान अभिधारिक होती है। इन्हीं के प्रभाव से हम प्रातः भजन, पूजा, पाठ करने को प्रेरित होते हैं तथा मध्यान्ह में गृहती  सम्बन्धी अच्छे व बुरे कार्य करने को प्रेरित होते हैं। सूर्य अस्त होने पर रात्री में तामसिक कार्य, मनोरंजन वा अन्य गृहस्थी कार्यों में व्यस्त हो जाते हैं। यही क्रम जीवन के अंत तक चलता है। इस प्रकार संसार में ब्रह्म प्रकृति के तीन गुणों - सत, रज, तम का आश्रय स्थल सूर्य ही है। सतगुन उपासना में सत गुण को विष्णु, रज गुण को ब्रह्म तथा तमगुन को महेश रूप में प्रतिपादित किया गया हैं। (देखिये विष्णु पुराण द्वितीय अंश का अध्याय 11 के श्लोक 7 से 16) ऋग्वेद 5/6228 में कहा गया है कि सूर्या के उदय होने पर उषा काल में साक्षात ब्रह्म के दर्शन होते हैं तथा इसके बाद ब्रह्म प्रकृति के तीन गुण सत, रज, तम क्रियाशील होकर सृष्टी का संचालन निर्धारित विधि के अनुसार करते हैं। सूर्यतापिन्युपनिषद 1/6 में कहा गया है कि सूर्य ही ब्रह्म, विष्णु, शिव है तथा त्रिमूर्तियात्मक और त्रिदेवात्मक सर्व देवमय हरि ब्रह्म है। सूर्यापनिषद  2/4 में भी कहा गया है कि सूर्य से ही समस्त प्राणियों की उत्पत्ति होती है, सूर्य से पालन होता है और सूर्य में ही लय होता है और जो सूर्य है वही मैं ही हूँ।

अतः हमारे लिये श्रेयस्कर रहेगा कि सूर्य के उदय होने पर उषा काल में साक्षात ब्रह्म, विष्णु, महेश त्रिदेवों से सद्विचार, सद्व्यवहार, सद्कर्मकी प्रेरणा देने की याचना करते हुए दैनिक कार्यों का सम्पादन करें।

परमात्मा से क्या याचना करें
साधारणतया हम परमात्मा से यही याचना करते हैं कि हमें धन-संपत्ति से तथा परिजनों को सभी प्रकार से फलावें और फूलावें। यदि इस पर थोड़ा सा ध्यान पूर्वक विचार करें तो ऐसी याचना लगभग निरर्थक ही साबिक हो सकती है। इसके मूल में कारण यह है कि हमारे जीवन की सुखद एवं दुखद भोगों का निर्धारण तो विधाता अपने विधान के आधार पर पूर्व में ही कर चुके हैं।

अतः परमात्मा से पूर्वोक्त धन, संपत्ति, वैभव आदि की याचना करने के स्थान पर निम्नलिखित याचनाएं  करनी चाहिए-
1. सदविचार  हो 2. सद व्यवहार करने की प्रेरणा की प्रेरणा दो 3. सद्कर्मों की ओर क्रियाशील बनाओं 4. परहित चिंतन एवं सेवा की भावना जाग्रत करो। इन सभी को अपने दैनिक क्रिया- कलापों में प्रमुखता दो और फल का निर्णय परमपिता पर छोड़ दो। वह स्वयं अपने आप हमें संभालेगा।

मानव धर्म
मानव समाज विभिन्न धर्म एवं सम्प्रदायों हिन्दु, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध आदि-आदि में विभाजित है तथा उनके ही निर्धारित सूत्रों अनुसार भिन्न- भिन्न नाम, रूपों एवं मत मतान्तरों के अनुसार परमपिता के दर्शन, चिंतन, मनन करते हुए अपनी जीवन शैली बनाते हैं। मत मतान्तरों एवं जीवन शैलियों में भिन्नता होना कोइ बुरी बात नहीं। इसमें यदि कोई बुराई है तो यह कि अपने धर्म सम्प्रदाय को दूसरों के धर्म सम्प्रदायों से श्रेष्ठ समझना तथा दूसरों के साथ शत्रुता भाव बनाना। ऐसा करते समय वे यह भूल जाते हैं कि जिस प्राणी का अपमान या उससे शत्रुता कर रहें हैं उसमें भी वही परमात्मा है जो उसके भीतर हैं। दूसरे शब्दों में हम अपने परमपिता के अपमानकर्ता  या शत्रु बन गए हैं। अतः श्रेयस्कर रहेगा कि दूसरे धर्म एवं सम्प्रदाय के व्यक्ति के प्रति हम उतना ही सम्मानजनक व्यवहार करें एवं भावना बनायें जैसे अपने धर्म एवं सम्प्रदाय के व्यक्तियों के साथ करते हैं। हम सभी एक ही पिता की संतान होने से सगे भाई- बहन हैं।

20 मई 2010

डहेलिया मनमोहक रंगों का संगम

गुलाब और गुलदाऊदी के बाद डहेलिया ही एक ऐसा फूल है जिस की सैकड़ों किस्में अलग-अलग रंगों तथा आकार में खिलती हैं। गमलों, क्यारियों एवं बार्डर में लगे इस के फूलों की छटा देखते ही बनती है।


फूलों में डहेलिया अपने रंग एवं आकार के कारण सब से आकर्षक लगता है। जब बगीचे में यह फूल खिला हो तो बगीचा खिल उठता है। नए घरों एवं उद्यानों में इसे आप भी उगा सकते हैं।

स्थान का चुनाव
डहेलिया को क्यारियों और गमलों दोनों में उगाया जा सकता है। इसे उगाने के लिये पूर्ण रूप से खुला स्थान हो, जहाँ 4 से 6 घंटे धूप आती हो। क्यारियों में कंकड़पत्थर न हों। उस की मिट्टी में गोबर की सड़ी खाद (10 किलो प्रति वर्ग मीटर ) अवश्य मिला दें। गमलों में उगाना चाहें तो मिट्टी व गोबर की खाद की बराबर मात्रा को गमलों में भर दें। ध्यान रहे गमलों का ऊपरी हिस्सा लगभग 2 से ढाई इंच खाली हो ताकि पानी के लिये स्थान हो। गमले आकार में 12 इंच या 14 के चुने।

पौधे स्वयं तैयार करें
डहेलिया के नए पौधे आप स्वयं भी तैयार कर सकते है। सब से अच्छी विधि कटिंग द्वार पौधा तैयार करना है। पुराने पौधों की शाख़ाओं के ऊपरी भाग से सितम्बर के महीने में 8 सेंटीमीटर लम्बी कटिंग काट लें। इन को मोटे रेट या बदरपुर में 2 इंच की दूरी पर डेढ इंच गहराई में लगाएं। लगाने के बाद 3 दिन तक कटिंग लगाए गए गमलों को छायादार स्थान पर रखें। इन से 15 दिन के बाद जड़ें निकल जाती हैं। इस के बाद ही इन्हें 10 से 12 इंच के गमलों में लगाते हैं।

कैसे उगायें
यदि गमलों में उगाना हो तो उस में दोमट मिटटी एवं गोबर की खाद बराबर हिस्सों में मिला कर भर दें। एक गमले में एक ही पौधा रोपें। पौध रोपने के तुरंत बाद पानी देना चाहिए। क्यारी में लगाना हो तो 45 सेंटीमीटर दूरी पर पौधे रोपें। क्यारी को 10 इंच गहरा खोद लें। इस के बाद 100 ग्राम सुपर फास्फेट, 100 ग्राम सल्फेट पोटेशियम, 25 ग्राम मैग्नेशियम सल्फेट प्रति वर्ग मीटर क्षेत्र के हिसाब से दें। साथ ही फूल में चमक लाने के लिये खादी फसल में एक चम्मच मैग्नेशियम  सल्फेट को 10 लीटर पानी में घोल कर छिडकाव कर दें।

देखभाल
डहेलिया  के पौधे जब 1 फुट ऊंचे हो जाएँ तथा उन पर 8 से 12 पत्तिया आ जाएँ तब पौधे के ऊपरी भाग को हाथ से नोच दें। ऐसा करने से बगल की शाकाएं अधिक निकलेंगी तथा पौधे पर कई फूल आएँग। साथ ही पौधा घना दिकाई देगा। प्रति पौधा 4 से 6 शाखाओं को ही रखना चाहिए।

सहारा देना
 पौधों को सीधा बढ़ने और रखने के लिये सहारा देना आवश्यक होता है। सहारा देने के लिये बांस की पतली डंडियाँ जमीन अथवा गमले में गाड़ दी जाती है। पौधे को सुतली से 2 स्थानों पर बाँध देते हैं। ध्यान रखें, पौधों को सुतली या तार से ज्यादा कस कर न बांधें।

कलियों को तोड़ना

पौधों पर फूल के आकार व गुणवत्ता को देखते हुए प्रति पौधा 3 पुष्प कलिकाओं को ही रखा जाता है। केवल शीर्ष कालिका को ही रखना चाहिए, बाकी को मटर के आकार का होने पर तोड़ देते हैं। प्रदर्शनी के लिये पौधे पर 3 शाखाओं को ही रखना चाहिए, ताकि फूल का आकार बड़ा हो सके, शेष सभी सहाखाओं एवं कलिकाओं को तेज चाकू से काटते रहें।

पानी देना
गरमी पड़ने पर सप्ताह में 2 बार पाने देने की जरुरत पड़ती है। जाड़े के मौसम में 8 से 10 दिन के अन्तराल पर पौधों को पानी देना चाहिए।

गुलाब उगाइए गृहवाटिका में

गुलाब के फूल की ख़ूबसूरती की मिसाल नहीं दी जा सकती। गुलाब में जितने रंगों के फूल देखने को मिलते हैं उतने शायद किसी दूसरे फूल में नहीं। आप चाहें तो उस खूबसूरत फूल से अपनी गृहवाटिका में चार चाँद लगा सकते हैं।


फूलों का गुण हैं खिलना, खिल कर महकना, सुगंध बिखेरना, सौंदर्य देना और अपने देखने वाले को शांति प्रदान करना। फूलों की इस खूबसूरत दुनिया में गुलाब का एक ख़ास स्थान  है क्योंकि इसे सौंदर्य, सुगंध और खुशहाली  का प्रतीक  माना गया है। तभी तो इसे 'पुष्प सम्राट' की  संज्ञा दी गयी है और 'गुले-आप', यानी फूलों की रौनक भी कहा गया है। इस की भीनीभीनी मनमोहक सुगंध, सुन्दरता, रंगों की विविध किस्मों के कारण हर प्रकृति  प्रेमी इसे अपनाना चाहता है।

भारत में गुलाब हर जगह उगाया जाता है। बागबगीचों, खेतों, पार्कों, सरकारी व निजी इमारतों के अहातों में, यहाँ तक कि घरों की ग्रह-वाटिकाओं की क्यारियों और गमलों में भी गुलाब उगा कर उस का आनंद लिया जाता है।

गुलाब पूरे उत्तर भारत में, खासकर राजस्थान में तथा बिहार और मध्य प्रदेश में जनवरी से अप्रैल तक खूब खिलता है। दक्षिण भारत में खासतौर पर बंगलौर में और महारास्ट्र और गुजरात में भी गुलाब की भरपूर खेती होती है।


उगाने का समय
आमतौर पर जुलाई-अगस्त में मानसून आते ही  गुलाब लगाया जाता है। सितम्बर-अक्टूबर में तो यह भरपूर उगाया जाता है। गुलाब लगाने की सम्पूर्ण विधि और प्रक्रिया अपनाई जाए तो यह फूल मार्च तक अपने सौंदर्य, सुगंध और रंगों से न केवल हमें सम्मोहित करता है बल्कि लाभ भी देता है।

किस्में - भारत में उगाई जाने वाली गुलाब की परम्परागत किस्में हैं, जो देश के अलगअलग इलाकों में उगाई जाते हैं, विदेशों से भी अलगअलग किस्में मांगा कर उन का 'संकरण' (2 किस्मों के बीच क्रास) कर  के अनेक नई व उन्नत किस्में तैयार की गयी हैं, जो अब अपने देश में बहुत लोकप्रिय हैं।

गुलाब की विदेशी किस्में जर्मनी, जापान, फ्रास, इंग्लैण्ड, अमेरिका, आयरलैंड, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया से मंगाई गयी हैं। भारतीय गुलाब विशेषज्ञों ने देशी किस्मों में भी नयी विकसित 'संकर' (हाईब्रिड) किस्में जोड़ कर गुलाब की किस्मों की संख्या में वृद्धि की है। इस दिशा में दिल्ली स्थित भारती कृषि अनुसंधान संस्थान का अनुसंधान कार्य ख़ास उल्लेखनीय है। दक्षिण भारत में भारतीय बागबानी अनुसंधान संसथान, बंगलौर ने भी किस्मों के विकास और  वृद्धि में भरपूर कार्य किया है।

वैसे तो विश्व भर में गुलाब की किस्मों की संख्या लगभग 20 हजार से अधिक है, जिन्हें विशेषज्ञों ने विभिन्न वर्गों में बांटा है लेकिन तक्तीकी तौर पर गुलाब के 5 मुख्य वर्ग हैं, जिन का फूलों के रंग, आकार, सुगंध और प्रयोग के अनुसार विभाजन किया गया है, जो इस प्रकार  है: हाईब्रिड टीज, फ्लोरीबंडा, पोलिएन्था वर्ग, लता वर्ग और मिनिएचर वर्ग।

हाईब्रिड टीज वर्ग : यह बड़े आकार के गुलाबों का एक महत्वपूर्ण वर्ग है, जिस में टहनी के ऊपर या सिरे पर एक ही फूल खिलता है, इस वर्ग की अधिकतर किस्में यूरोप और छीन के 'टी' गुलाबों के 'संकर' (क्रास) से तैयार की गयी है, इस वर्ग की भारतीय किस्में हैं : डा. होमी भाभा, चितवन, भीम, चित्रलेखा, चंद्बंदीकली, गुलजार, मिलिंद, मृणालिनी, रक्त्गंधा, सोमा, सुरभी, नूरजहाँ, मदहोश, डा. बैंजमन पाल आदि।

फ्लोरीबंडा वर्ग : यह हाईब्रिड टीज और पोलिएन्था गुलाबों के संकर (मिलन) से विकसित किये गए गुलाबों का वर्ग है। इस के फूल उपेक्षाकृत छोटे किन्तु गुच्छों में खिलतें हैं और आकार व वजन में बढ़िया होते हैं। इस वर्ग के फूल गृहवाटिका  की क्यारियों और गमलों में ज्यादा देखने को मिलते हैं। इस किस्म की विशेषता है कि इन के पौधे कम जगह में ही उगा कर पर्याप्त फूल प्राप्त किये जा सकते हैं। ठन्डे मौसम में जब दूसरे  गुलाब नहीं खिलते हैं, इस वर्ग के फूल दिल्ली सहित उत्तर भारत के सभी राज्यों में खूब खिलते हैं। इस की मुख्य किस्में हैं : दिल्ली, प्रिन्सिस, बंजारन, करिश्मा, चन्द्रमा, चित्तचोर, दीपिका, कविता, जन्तार्मंतर, सदाबहार, लहर, सूर्यकिरण, समर, बहिश्त, आइसबर्ग, शबनम आदि।

पोलिएन्था वर्ग : इस वर्ग के गुलाब के पौधे छोटे, पत्तियां  छोटी  और फूल भी छोटे होते हैं। पौधे कलामों से उगाये जाते हैं। फूल गुच्छों  में और साल भर लगते रहते हैं। इन्हें  पोमापन  या डवार्फ  (बौने) पोलिएन्था भी कहते हैं। पौधे मजबूत होते हैं और गृहवाटिका की क्यारियों व खेतों में भरपूर खिलते हैं।
इस वर्ग की लोकप्रिय भारती किस्में हैं : प्रीती, स्वाति, इको, पिंक शावर, आइडियल, कोरल कलस्टर, आदि।

मिनिएचर वर्ग : इस के पौधे, पट्टियां  और फूल सभी छोटे  होते हैं। पौधे कलामों द्वार उगे जाते हैं। यह गमलों, पतियों आदि में उगाने की उपयुक्त किस्म है। गृहवाटिका की क्यारियों के चारों ओर बार्डर लगाने के लिये भी उपयुक्त है। गुलाब के फूल खिलने का मौसम (अक्टूबर से मार्च) में इस किस्म के गुलाब खूब खिलते हैं। विभिन्न रंगों में ये गुच्छों और डंडियों पर अलग भी उगते हैं। बेबी डार्लिंग, बेबी गोल्ड, स्टार, ग्रीन इसे, ब्यूटी सीकृत, ईस्टर मार्निंग, संड्रीलो आदि इस की लोकप्रिय किस्में हैं।

लता वर्ग : (क्लैंग्बिंग एंड रैंबलिंग रोज) : इस वर्ग के गुलाब के पौधे लताओं के रोप में बढ़ते हैं और पैराबोला पर या दीवार का सहारा पा कर बढ़ते हैं। ये साल में केवल एक बार खिलते हैं। इस की मुख्य किस्में है  : सदाबहार, समर स्नो, डा. होमी भाभा, मार्शल नील, दिल्ली वाईट पर्ल आदि।

गुलाब में जितने रंगों के फूल देखने को मिलते हैं उतने शायद किसी दूसरे फूल में नहीं। यदि सफ़ेद गुलाब हैं तो पीले, लाल, नारंगीलाल, रक्त्लाल, गुलाबी लेवेंडर रंग के दोरंगे, तींरंगे और यहाँ तक कि अब तो नीले और काले रंग के गुलाब भी पाए जाते है।

गमलों में गुलाब : निसंदेह गुलाब के पौधे गृहवाटिका में मिटटी के गमलों में आसानी से उगे जा सकते हैं, जो कम से कम 30 सेंटीमीटर घेरे के और उतने ही गहरे हों। मिनिएचर गुलाब के लिये 20 से 25 सेंटीमीटर आकार के गमले पर्याप्त हैं। गमलों को स्वाच वातावरण में रखा जाए। जैसे ही नयी कोपलें और शाखाएं अंकुरित होने लगें, उन्हें  हीसूरज ई रोशनी में रखें। दिन भर इन्हें 4-5 घंटे धूप अवश्य मिलनी चाहिए। हाँ, गरमी की कडकती धूप में 1-2 घंटे ही पर्याप्त हैं।

मिट्टी का मिश्रण : गमलों के लिये मिट्टी का मिश्रण कुछ इस तरह से रखें। 2 भाग खेत की मिटटी, एक भाग खूब सड़ी गोबर की खाद, एक भाग में सूखी हरी पत्ते की खाद (लीफ मॉल्ड) और लकड़ी  का बुरादा मिला लें। सम्भव हो तो कुछ मात्रा में हड्डी का चुरा भी मिला लें। इस से पौधों और जड़ों का अच्छा विकास होता है।

याद रहे कि गमलों में पौधों का रखरखाव वैसा ही हो, जैसी कि क्यारियों में होता है, उन की उचित निराईगुडाई में होता है। मसलन, पौधों को पूरी खुराक मिले, उन की उचित निराईगुडाई और सिंचाई हो, कीट व्याधियों से बचाव हो, गमलों के पौधों को मौसम के अनुसार समयसमय पर पानी दिया जाए और उन की कटाईछंटाई  भी की जाए। सप्ताह में एक बार गमलों की दिशा भी अवश्य बदलें और उन के तले से पानी निकलने का चित्र भी उचित रूप से खुला रखें।

                      सावधानियां                     
  • बरसात के मौसम में गमलों और क्यारियों में बहुत देर तक पानी भरा न रहने दें।
  • हर साल, पौधों की छंटाई कर, गमले के ऊपर की 2-3 इंच मिट्टी निकाल कर उस में उतनी ही गोबर की सड़ी खाद भर दें।
  • हर 2-3 साल के बाद सम्पूर्ण पौधे को मिट्टी सहित नए गमले में ट्रांसफर कर दें। चाहें तो गमले की मिट्टी बदल कर ताजा मिश्रण भरें।
  • यह प्रक्रिया सितम्बर-अक्टूबर में करें।
मात्र शौक और सजावट के लिये गुलाब का पौधा जब गमले में उगाया जाए तो किस्मों का चुनाव भी उसी के अनुसार किया जाना चाहिए। व्यावसायिक स्तर पर गुलाब की खेती करनी  हो तो वैसी ही किस्मों का चयन करें। इस बारे में प्राय: सभी बड़ी नर्सरियों में पूरी जानकारी मिल सकती है। दिल्ली में हों तो भारतीय कृषि अनुसंधान पूसा के पुष्प विज्ञान विभाग से उचित जानकारी प्राप्त की जा सकती है।

जब जहाँ भी चारों ओर गुलाब खिलता है तो सब ओर इस की सुरभि व्याप्त हो जाती है। फरवरी-मार्च में गुलाब अपने पूर्ण यौवन और बहार पर होता है। आओ, इसे अपनी गृहवाटिका में उगायें और इस के सौंदर्य और महक का आनंद लें।

18 मई 2010

सुकून एवं आनन्द के लिये प्रतिदिन पन्द्रह मिनट मंत्रोचार पूजन कीजिये

प्रात: काल उठकर नित्यक्रिया से निव्रत होकर अपनी प्रतिदिन की पूजा सही विधि-विधान से करनी चाहिये। पूजा आरंभ करने से पहले हमें सभी आवश्यक सामग्री एकत्रित कर लेनी चहिये पूजा करते समय हमारा मुख पूर्व दिशा की ओर रहना चहिये।

आसन:- पूजा में आसन का महत्व अत्यधिक होता हैं। आसन सफ़ेद/लाल रंग का गर्म होना चहिये। आसन की शुद्धि अत्यधिक ध्यान देना चाहिए। पूजा के आरंभ में हमें सर्वप्रथम आसन पर बैठते समय आसन मंत्र बोलना चाहिए।

आसन मंत्र : मुलतो ब्रह्मरूपाय मध्यतो विष्णु सपिते।
नमो दु:स्वनाशाय सुस्वप्र फ़लदायिने ॥
ॐ अश्व्त्थाय नम:, आसनं स:।

आचमनीय मंत्र : आसन पर बैठने के बाद आचमनीय करना चाहिए। आचमनीय से हम केवल अपनी ही शुद्धि नहीं करते अपितु ब्रह्मा से लेकर trin तक प्रप्त कर देते हैं। आचमन न करने पर हमारे सारे कार्य व्यर्थ हो जाते है हमें आचमन करते समय आचमनीय मंत्र बोलना चाहिए।

आचमनीय मंत्र : त्वंक्षीर फ़लकशचैव शीतलश्च वनस्पत।
त्वमाराध्य नरोविंधात दैहिकामुष्मिकं फ़लम॥
ॐ अश्वत्थान नम: आचमनीयं समर्पयामि
(बायीं हथेली पर जल लेकर दायें हाथ की अंगुलियों से मुहं पर जल के छींटे के लिये जो जल दिया जाता है उसे आचमन कहते है)

मूर्ती स्नान: आचमन करने के पश्चात हम पूजा आरंभ करते हुए मूर्ती स्नान हेतु स्नान मंत्र बोलते हुए भगवान को जल के छींटो से स्नान करायें।

स्नान मंत्र : चलद्दलाय वृक्षाय सर्वदाश्रित विष्णवे।
बोधितत्वाय देवाय हयश्वथाय नमो नम:।।
ॐ अश्वत्थाय नम: स्नानीयं समर्पयामि

रोली, अक्श्त एवं पुष्प चढाना: रोली तिलक लगाने के बाद पुष्प चढाये।

पुष्प मंत्र: यं दृष्टवामुच्यते रोगै: स्प्रष्ट: पापै: प्रमुच्यते॥
यदाश्रियाच्चिरंजीवी तमश्वत्थं म नमाम्यहम॥
ॐ अश्वत्थाय नम: पुष्प समर्पयामि

धूप प्रज्जवलित करना : पुष्प चढाने के पश्चात धूप प्रज्जवलित करनी चाहिये।

दीप दर्शन : धूप जलाने के बाद दीप दर्शन मंत्र बोलने के साथ दीप प्रज्जवलित करना चाहिए।

दीप दर्शन मंत्र : साज्यं च वर्ति संयुक्तं वहिनिना च योजितं मया।
देपं गृहाण देवेश ममज्ञान प्रदोभव॥
ॐ अश्वत्थाय नम: दीपं दर्शयामि।

नैवैध चढाना : दीप दर्शन करने के पश्चात भगवान को नैवैध मंत्र बोलते हुए नैवैध चढाना चाहिए।

नैवैध मंत्र : नैवैध ग्रहयतां देव भक्तिं में हय चलां कुरू।
ई च वरंदेहि परत्रेह परांगतिम।
ओम अश्वत्थाय नम: नैवैधं समर्पयामि

नैवैध अर्पित करने के बाद आचमन हेतु जल देना (किसी पात्र से भगवान की तस्वीर/मूर्ती के सामने जल की कुछ बूंदे जमीन पर गिरा दें) चाहिए।

इसके पश्चात पूजा को आगे बढाते हुए प्रतिदिन की देव मंत्रोचार पूजा गणपति मंत्र से प्रारम्भ करें।

1. गणपति मंत्र : ॐ गं गणपतेय नम:

गायत्रीमंत्र को 108 बार रुद्राक्ष की माला से करें-
2. गायत्री मंत्र : ॐ भूभुर्व: स्व: तस्य वितुर्वरेण्यम भर्गो देवस्य धीमहि धियो योन: प्रचोदयात

शिव मंत्र का जप 108 बार रुद्राक्श की माला से करना चाहिये।
3. शिव मंत्र : ॐ नम: शिवाय

सूर्य मंत्र न्यूनत्म 28 बार बोलना चाहिये
4. सूर्य मंत्र : ॐ भास्कराय विदमेह दिवाकराय
धीमहि तन्नो सूर्याय प्रचोदयात

इसके बाद श्री दुर्गा देवी जी का स्मरण करते हुए हमें दुर्गा सप्तश्लोकी मंत्र बोलना चाहिये-
5. दुर्गा सप्त श्लोकी मंत्र :
ओम ग्यानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा।
बलादाक्रिष्य मोहाय महामाया प्रयच्छ्ति॥
दुर्गे स्म्रता हरसि भीतिमशेषजन्तो:,
स्वस्थै: स्म्रता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्रादु:खभयाहारिणि का त्वदन्या, सर्वोपकारकरणाय सदाद्र्चित्ता॥
सर्वमंगलमांगल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरी नारायणि नमोSस्तुते॥
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणें।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोSस्तु ते॥
सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।
भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोSस्तुते॥
रोगानाशेषानपहंसि तुष्टा, रूष्टा तु कामान सकलानभीष्टान।
त्वामाश्रितानां न विपत्रराणां, त्वामाश्रिता ह्र्याश्रयतां प्रयान्ति॥
सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम॥

श्री राम का स्मरण करते हुए हम तारक मंत्र बोलेंगे:
6. श्री राम जय-राम जय-जय राम

पूजा के अंत में हम श्री लक्ष्मी जी का ध्यान करते हुए लक्ष्मी मंत्र बोलेंगे।

7. लक्ष्मी मंत्र :- श्री महालक्षम्यै विदमहे हरि प्रियायै
धीमहि: तन्नो महालक्ष्मी प्रचोदयात।

स्वस्थ्य जीवन के दिन की शुरूआत ऐसे कीजिये

जीवन की सफ़लता के लिये स्वस्थ्य रहना महत्वपूर्ण होता है इसीलिये कहा गया है पहला सुख निरोगी काया। आयुर्वेद का भी प्रथम उद्देश्य जीवन को स्वास्थ्य रखना है जैसा कि वर्णित है।
स्वस्स्थ्यस्य स्वास्थ्य रक्षणम् आतुरस्थ विकार प्रशमनम् च ॥
प्रत्येक व्यक्ति स्वस्थ्य रहने का प्रयास करता है तथा इच्छा भी रखता है। स्वस्थ्य रहने हेतु केवल पौष्टिक आहार ही आवश्यक नहीं है अपितु संयमित और प्राकृतिक दिनचर्या भी अवश्यक है। पौष्टिक आहार स्वस्थ्य जीवन के लिये सहायक अवश्य है लेकिन प्राकृतिक जीवनचर्या जरूरी है। व्यक्ति को ब्रह्ममुहूर्त में उठना, स्नान, ध्यान, व्यायाम आदि सम्यक समय व मात्रा में प्राकृतिक तरीके से करना चहिये। इन सबको सही प्रकार से एक सन्तुलित मात्रा में करना ही स्वस्थ्य जीवन के लिये आवश्यक है।

आज के भागमभाग एवं व्यस्त दौर में व्यक्ति की दिनचर्या भी अस्त व्यस्त हो गई। व्यस्त दौर के कारण हम प्राकृतिक जीवनचर्या से दूर होते जा रहे हैं। किसी-किसी परिवार में ही आज के समय में प्राकृतिक दिनचर्या के फ़ायदों के बारे में निर्देश बच्चों को दिये जाते है। ज्यादातर व्यक्ति अपनी सुविधा और इच्छा के अनुसार दैनिक दिनचर्या बना लेते है। दिनचर्या के मामले में व्यक्ति स्वेच्छाचारी हो चुके है। स्वस्थ्य जीवन की अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति को वास्तव में विचार करना चाहिए कि हमें, कब प्रात: शयन बैड त्याग करना, कब स्नान करना है, कब व्यायाम मालिश, भोजन आदि करना है। इन सब दिनचर्या विषयक बिन्दुओं की सही प्रकार से स्थूल रूप में जानकारी इस प्रकार है:-

प्रात:काल सूर्योदय से पहले जागना चाहिये
      व्यक्ति को प्रात:काल सूर्योदय पूर्व जगकर बिस्तर त्याग देना चाहिये। जैसा कि आयुर्वेद के शास्त्र अष्टांग संग्रह में लिखा हुआ है कि-
बह्मे मुहूर्त उत्तिष्ठेज्जीणाजीर्ण निरूपयन्।
रक्शार्थमायुष: स्वस्थो............................
         प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व जागना स्वस्थ्य जीवन के लिये आवश्यक है। विद्वानों के मतानुसार प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व उठने से व्यक्ति का शरीर स्वस्थ्य एवं फ़ुर्तीला बनता है। उपरोक्तानुसार जगने से शरीर में दिनभर ताजगी बनी रहती है। जो इन्सान देर तक सोते रहते हैं उनको सुर्य की किरणों का उक्त लाभ नहीं मिलता है। प्रात:काल उक्त समय में स्वस्छ एवं ताजी हवा बहती है जिसमें पैदल घूमना स्वस्थ्य वर्धक एवं लाभदायक होता है। योग-शास्त्र के अनुसार प्रात:काल सुषमा नाडी भी जाग्रत रहती है। जिससे स्वस्छ वायु का लाभ शरीर को मिलता है। प्रात:काल सूर्योदय से पूर्व जगने के लिये आवश्यक है कि रात्रि को जल्दी सोया जावे। यदि देर से सोयेंगे तो सुबह जल्दी उठ पाना मुश्किल होगा।

          सिद्ध पुरूष एवं योगी भी ब्रह्ममुहूर्त में उठकर चिरायु बने थे। स्वस्थ्य रहने के लिये व्यक्ति का सोने एवं जगने का समय निश्चित होना चाहिये। देर से सोने एवं जगने की आदतों से लोग अनेक बीमारियों से ग्रसित हो जाते है, चिकित्सकों के चक्कर लगाते हैं, आर्थिक व्यय करते हैं अत: सूर्योदय से पूर्व जगना चाहिये।

प्रात:उठकर तांबे के बर्तन में रखें पानी से आंखे धोयें
           प्रात:काल उठने के पश्चात आंखो को धोना चाहिये। इसके लियें अलग से तांबे के एक बर्तन में शाम को पानी भर कर रख देवे। प्रात:जगकर इस पानी से आंखो में धीरे-धीरे हल्के-हल्के छीटें मारना चाहिये। इससे आंखो के अन्दर मैल आदि शीघ्र निकल जात है। इससे नेत्र ज्योति ठीक बनी रहती है। प्रात:आंखें धोने से चश्मे की आवश्यकता नहीं पडती है। आंखो की अन्य कोई बीमारी भी नहीं होती है। शाम को सोते समय आंखों को पानी से धोना भी लाभदायक होता है।

रातभर तांबे के बर्तन में रखे पानी का प्रात:काल उठकर पीना चाहिये
          शौच जाने से पहले चार गिलास पानी (तांबे के बर्तन में रखा हुआ) पीना चाहिये। पेट भर कर पानी पीने से दस्त साफ़ आती है। कब्ज की शिकायत नहीं होती। मूत्र भी सही प्रकार से आता है। प्रात:काल खाली पेट पीये जाने वाले पानी को उषा पान कहा जाता है।

शौच जाने की प्रक्रिया
          जब व्यक्ति को जगने के पश्चात प्रात:काल पानी पीने के बाद यदि चाय की आदत हो तो पानी पीने के 20 मिनिट बाद चाय पीकर शौच के लिये जाना चाहिये। मल का विसर्जन बलपूर्वक नहीं करना चहिये। इससे बवासीर आदि बीमारी होने की संभावना रहती है। शौच दिन में उत्तर की और तथा रात्रि में दाक्शिन की ओर मुख करके तथा मौन रहकर करना चाहिये। जिन व्यक्तियों को शौच सही प्रकार से नहीं आता हो वे नीबू मिलाकर पानी पीयें तथा कुछ देर तक घूमने के पश्चात शौच जावें। यदि इस प्रक्रिया से दस्त साफ़ न हो तो किसी हल्की औषधि का सेवन भी कर सकते है परन्तु औषधि की आदत न बनावें।

दांतों की सफ़ाई
         टूथपेस्ट की अपेक्शा नीम की दातुन लाभप्रद एवं सुरक्शित है। दांतों को साफ़ करने के लिये नीम की दातुन उपलब्ध न हो तो अच्छी टूथब्रश से टूथपेस्ट लगाक दांतों को साफ़ करें। दांतों को भोजन के पश्चात एवं प्रात:साफ़ करना चाहिये, जिससे दांतो के रोग होने की संभावना नहीं रहती है। स्वस्थ्य जीवन हेतु दांतों की देखभाल अति आवश्यक है।

जीभ को साफ़ करना
         दांत साफ़ करने के पश्चात जीभ को भी साफ़ करना चाहिये। जिससे रात्रि में जमा जीभ का मैल साफ़ हो जावे। जीभ को साफ़ करने से मुख की दुर्गन्ध दूर होती है, तथा भोजन में रूचि बढती है। जीभ साफ़ करने के लिये बाजार में जीभी उपलब्ध है।

स्नान से पूर्व शरीर की मालिश करनी चाहिये
         शरीर को स्वस्थ एवं प्रसन्न रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति को किसी उपयुक्त तेल से शरीर की मालिश अवश्य करनी चाहिये इस हेतु सरसों का तेल उपयुक्त होता है। मालिश के लिये सर्दियों में हल्का एवं सुहाता गुनगुना तैल तथा गर्मियों में ठंडा तैल काम लेना चाहिये। तेल मर्दन करने से शरीर की पुष्टि होती है, शरीर दृढ, मजबूत होता है तथा अच्छी नींद आती है। मालिश करने वाले को बुढापा देर से आता है।

प्रतिदिन कम से कम 15 मिनट योगासन करना चाहिये
         स्वस्थ्य शरीर हेतु व्यायाम अति आवश्यक है। प्रात: टहलने जाना चाहिये तथा योगासन करने चाहिये। प्रतिदिन कम से कम 15 मिनट व्यायाम करने से शरीर में रक्त संचार ठीक प्रकार से होता है व्यायाम करने से शरीर फ़ुर्तीला बनता है जठ्राग्रि प्रदीप्त होती है। मोटापा नहीं होता है। शरीर का प्रत्येक अंग मजबूत होता है।

स्नान विधि
        स्नान करने से आयु बढती हैं एवं बल वृद्धि भी होती है। अत: प्रत्येक व्यक्ति को स्नान अवश्य करना चाहिये। आयुर्वेद में स्नान के महत्व को इस प्रकार बताया गया है-
दीपनं वृष्यमायुष्यं स्नानमूर्जा बल प्रदम्। कण्डू मल श्रमस्वेद तन्द्रातृड दाहपाष्मजित॥
स्नान यथा संभव ताजा पानी से ही करना चाहिये। स्नान के पश्चात शरीर को सूती कपडे (तौलिये) से अच्छी तरह पोंछना चाहिये जिससे शरीर के रोम-कूप अच्छी तरह खुल जावें। आयुर्वेद के मन्तव्य में मुख, आंखे व कान के रोगी, दस्त रोगी को तथा भोजन के पश्चात स्नान नहीं करना चाहिये।

प्रतिदिन अपने इष्ट एवं अराध्य देव का ध्यान कीजिये
        दीर्घायु एवं अच्छे स्वास्थ्य की कामना रखने वाले व्यक्ति को सदाचार रूपी रसायन का सेवन करते हुए भगवान का ध्यान एवं उपासना करनी चाहिये। भगवान का ध्यान करने से मानसिक शान्ति प्राप्त होती है। भगवान का ध्यान करने से मानसिक एकाग्रता एवं विश्वास की प्राप्ति होती है। अत: व्यक्ति को अपने-अपने इष्ट एवं अराध्य देव की पूजा करनी चहिये। विश्वास एवं श्रद्धा के साथ ध्यान, पूजा एवं अर्चना करनी चाहिये, जिससे आयु, विद्या एवं बल वृद्धि  होती है।

स्वस्थ्य जीवन हेतु कुछ अन्य उपयोगी टिप्स:-

1. लंच एवं डिनर के बीच की समयावधि में पर्याप्त अन्तर रखना चाहिये।
2. देर रात खान नहीं खाना चाहिये।
3. रात के खाने में गरिष्ट चीजों का उपयोग नहीं करे।
4. खाना खाने के तुरन्त बाद पानी नहीं पिये। कम से कम 45 मिनट बाद ही जल पियें।
5. खाने में अत्यन्त बारीक आटे की जगह थोडा मोटा पिसा आटा काम में लेना चाहिये। गेहूं के आटे में चना एवं जौ का आटा मिश्रित कर लेना चाहिये।
6. प्रतिदिन दाल एवं शुद्ध सलाद का सेवन अच्छा रहता है।
7. प्रात:काल नाशते में अंकुरित मूंग, मेथी, इत्यादि का सेवन करना चाहिये।
8. मैदा एवं बेसन का कम से कम उपयोग करना चाहिये।
9. प्रतिदिन छाछ का सेवन करना चाहिये।

महाभारत - मय दानव की शिल्पकला

खाण्डव वन के दहन के समय अर्जुन ने मय दानव को अभय दान दे दिया था। इससे कृतज्ञ हो कर मय दानव ने अर्जुन से कहा, "हे कुन्तीनन्दन! आपने मेरे प्राणों की रक्षा की है अतः आप आज्ञा दें, मैं आपकी क्या सेवा करूँ?" अर्जुन ने उत्तर दिया, "मैं किसी बदले की भावना से उपकार नहीं करता, किन्तु यदि तुम्हारे अन्दर सेवा भावना है तो तुम श्री कृष्ण की सेवा करो।" मयासुर के द्वारा किसी प्रकार की सेवा की आज्ञा माँगने पर श्री कृष्ण ने उससे कहा, "हे दैत्यश्रेष्ठ! तुम युधिष्ठिर की सभा हेतु ऐसे भवन का निर्माण करो जैसा कि इस पृथ्वी पर अभी तक न निर्मित हुआ हो।"

मयासुर ने श्री कृष्ण की आज्ञा का पालन करके एक अद्वितीय भवन का निर्माण कर दिया। इसके साथ ही उसने पाण्डवों को देवदत्त शंख, एक वज्र से भी कठोर रत्नजटित गदा तथा मणिमय पात्र भी भेंट किया।

कुछ काल पश्चात् धर्मराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ का सफलतापूर्वक आयोजन किया। यज्ञ के समाप्त हो जाने के बाद भी कौरव राजा दुर्योधन अपने भाइयों के साथ युधिष्ठिर के अतिथि बने रहे। एक दिन दुर्योधन ने मय दानव के द्वारा निर्मित राजसभा को देखने की इच्छा प्रदर्शित की जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार किया। दुर्योधन उस सभा भवन के शिल्पकला को देख कर आश्चर्यचकित रह गया। मय दानव ने उस सभा भवन का निर्माण इस प्रकार से किया था कि वहाँ पर अनेक प्रकार के भ्रम उत्पन्न हो जाते थे जैसे कि स्थल के स्थान पर जल, जल के स्थान पर स्थल, द्वार के स्थान दीवार तथा दीवार के स्थान पर द्वार दृष्टिगत होता था। दुर्योधन को भी उस भवन के अनेक स्थानों में भ्रम हुआ तथा उपहास का पात्र बनना पड़ा, यहाँ तक कि उसका उपहास करते हुये द्रौपदी ने कह दिया कि 'अन्धों के अन्धे ही होते हैं।' दुर्योधन अपने उपहास से पहले से ही जला-भुना किन्तु द्रौपदी के कहे गये वचन उसे चुभ गये।

प्रवेश द्वार पर निर्भर घर की उन्नति

प्राचीन ऋषियों ने भवन की बनावट, आकृति तथा मुख्य प्रवेश द्वार के माध्यम से प्रवेश होने वाली ऊर्जा के सकारात्मक व नकारात्मक प्रभाव का गहनता से अध्ययन किया है। आदिकाल से प्रमुख द्वार का बड़ा महत्वा रहा, जिसे हम फाटक, गेट, दरवाजा, प्रवेश द्वार आदि के नाम से जानते हैं, जो अत्यंत मजबूत व सुंदर होता है। वास्तु के अनुसार प्रमुख द्वार सदियों तक सुखद व मंगलमय अस्तित्व को बनाए रखने में सक्षम होते हैं। प्रवेश द्वार चाहे किसी घर का हो, फैक्ट्री, कारखाने, गोदाम, आँफिस, मन्दिर, अस्पताल, प्रशासनिक भवन, बैंक, दुकान आदि का हो, लाभ-हानि दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, इससे जुड़े सिद्धांतों का सदियों से उपयोग कर मानव अरमानों के महल में मंगलमय जीवन बिताता चला आ रहा है।

मुख्य प्रवेश द्वार के जरिये शत्रुओं, हिंसक पशुओं व अनिष्टकारी शक्तियों से भी रक्षा होती है, इसे लगाते समय वास्तुपरक बातों जैसे, प्रवेश द्वार के लिये कितना स्थान छोडा जाए, किस दिशा में पट बंद हो एवं किस दिशा में खुलें तथा वे लकड़ी व लोहे किसी धातु के हों, उसमें किसी प्रकार की आवाज हो या नहीं। प्रवेश द्वार पर कैसे प्रतीक चिन्ह हों, मांगलिक कार्यों के समय किस प्रकार व किसे सजाना इत्यादि बातों पर ध्यान देना उत्तम, मंगलकारी व लाभदायक रहता है। इस बातों का ध्यान रख मानव सकारात्मक के सहारे उन्नति कर सकता है।

इनका रखें ध्यान

जिस घर में नियमों का सावधानीपूर्वक पालन किया जाता है, वहां सदैव लक्ष्मी, धन, स्वास्थय लाभ व आरोग्य रहता है.....
1. किसी भी मकान का एक प्रवेश द्वार शुभ माना जात है। अगर दो प्रवेश द्वार हों, तो उत्तर दिशा वाले द्वार का प्रयोग करें।
2. पूरब मुखी भवन का प्रवेश द्वार पूरब या उत्तर की ओर होना चहिये। इस्से सकारात्मक उर्जा प्राप्त होती है तथा दीर्घ आयु व पुत्र धन आता है।
3. पश्चिम मुखी मकान का प्रवेश द्वार पश्चिम या उत्तर पाश्चिम में किया जा सकता है, परंतु दक्षिण-पश्चिम में बिल्कुल नहीं होना चाहिए। भूखंड कोई भी मुखी हो, अगर प्रवेश द्वार पूरब की तरफ़ या उत्तर-पूरब की तरफ़ या उत्तर की तरफ़ हो तो उत्तम फ़लों में वृद्धि होती है।
4. उत्तर मुखी भवन का प्रवेश उत्तर या उत्तर-पूरब में होना चहिये। ऐसे प्रवेश द्वार से निरंतर धनी, लाभ, व्यापार और सम्मान में व्रिद्धि होती है।
5. दक्षिण मुखी भूखंड का द्वार दक्षिण या दक्षिण-पूरब में कतई नहीं बनाना चाहिए। पश्चिम या अन्य किसी दिशा में मुख्य द्वार लाभकारी है।
6. उत्तर-पश्चिम का मुख्य द्वार लाभकारी है और व्यक्ति को सहनशील बनाता है।
7. मेन गेट को ठीक मध्य (बीच) में नहीं लगाना चहिए।
8. प्रवेश द्वार को घर के अन्य दरवाजों की उपेक्षा बडा रखें।
9. प्रवेश द्वार ठोस लकडी या धातु से बना होना चाहिए। उसके ऊपर त्रिशूलनुमा छडी नहीं लगी होनी चाहिए।
10. ध्यान रखें, प्रवेश द्वार का निर्माण जल्दबाजी में नहीं करें।

विशेष बातें

सूर्यास्त व सूर्योदय होने से पहले मुख्य प्रवेश द्वार की साफ़-सफ़ाई हो जानी चाहिए। सायंकाल होते ही यहां पर उचित रोशनी का प्रबंध होना भी जरूरी है।

दरवाजा खोलते व बंद करते समय किसी प्रकार की आवाज नहीं आनी चाहिए। बरामदे और बालकनी के ठीक सामने भी प्रवेश द्वार का होना अच्छा नहीं माना गया है।

पूरब व उत्तर दिशा में अधिक स्थान छोडना शुभ है।

प्रवेश द्वार पर गणेश व गज लक्ष्मी कुबेर के चित्र लगाने से सौभाग्य व सुख में निरंतर व्रिद्दि होती है।

मांगलिक कार्यो व शुभ अवसरों पर प्रवेश द्वार को आम के पत्ते व हल्दी तथा चंदन जैसे शुभ व कल्याण्कारी वनस्पतियों से सजाना शुभ होता है।

इसे सदैव साफ़ रखना चाहिए। किसी प्रकार का कूडा या बेकार सामान प्रवेश द्वार के सामने कभी न रखें। प्रात: व सायंकाल कुछ समय के लिए दरवाजा खुला रखना चाहिए।

17 मई 2010

गहरा रहस्य छुपा है देवताओं के वाहनों में

इतने विशाल गणेश जी का वाहन चूहा ? किसी की सवारी एक नाजुक सा हंस तो किसी ने राष्ट्रीय पक्षी मोर को ही अपना वाहन बना लिया। क्या यह संभव है ? अगर यूं ही सतही दृष्टि से सोचेंगे तो शायद किसी निर्णय पर पहुंच भी नहीं पाएंगे। इसलिये जरूरत है गहन चिंतन-मनन की। मंथन से निकला नवनीत ही हमें किसी सुनिश्चत निर्णय पर पहुंचा सकता है। आइये जानिये विभिन्न देवी-देवताओं के अद्भुत.... वाहनों के विषय में ताकि चिंतन-मनन का सिलसिला चल पड़े-
- गणेश : चूहा
- शिव : नंदी बैल
- दुर्गा : सिंह
- हनुमान : ऊंट, पृथ्वी
- कार्तिकेय : मोर
- विष्णु : गरुड़
- सरस्वती : हंस
- ब्रह्मा : हंस
- गायत्री : हंस
- दत्तात्रेय : कुत्ता
- भैरव : कुत्ता
- यमराज : भैंसा
- इंद्र : ऐरावत हाथी
- सूर्य : अश्व
- मंगल : मेढ़ा
- कुबेर  : पुष्पक विमान
- कालरात्रि : गधा
- शैलपुत्री : बैल
- गणगौरी : बैल
- बुध : सूंड वाला शेर
- शुक्र : घोड़ा
- चंद्र : काला हिरण
- ब्रहस्पति : हाथी
- केतु : गिद्ध
- राहु : शेर
- शनि : कौआ

16 मई 2010

भारत में ग्रामीण-नगरीय विभाजन की मुख्य विशेषता

भारतीय संस्कृति में ग्रामीण- नगरीय विभाजन की मुख्य विशेषताओं को समझने से पहले ग्रामीण एवं नगरीय समुदाय की अवधरणा पर विचार आवश्यक है। इस दृष्टि से पहली महत्तवपूर्ण बात यह है कि किसी भी मापदण्ड से इसे स्थापित नहीं किया जा सकता कि व्यवहारिक रूप से गाँव की सीमा कहाँ समाप्त होती है एवं नगर की सीमा कहाँ से आरंभ होती है। दूसरा, अधिकांश कारक जो परिवर्तन के लिए उत्तारदायी हैं गाँवों एवं नगरों में समान रूप से काम करते रहते हैं। तीसरा, भारतीय गाँव एवं नगर की अवधारणा पश्चिमी देशों के गाँव एवं नगर की अवधारणा से पूर्णतया भिन्न हैं। भारतीय संदर्भ में ग्रामीण - नगरीय विभाजन की मुख्य विशेषताओं को उपरोक्त संदर्भ में निम्नलिखित शीर्षकों के अंतर्गत प्रस्तुत् किया जा सकता है :

1. सामाजिक संगठन: गाँवों में संयुक्त परिवार की अवधरणा साधारणतया संयुक्त घर-बार को भी इंगित करता है यद्यपि नगरीय केन्द्र में यह बात नहीं है। नगरों में संयुक्त परिवार के सदस्य साधारणतया एकाकी परिवार को पसन्द करते हैं। रिश्तेदारी के संबंधों को मुख्यत: राजनीतिक या आर्थिक लाभ के लिए प्रयोग किया जाता है परन्तु सदस्यों के निजी जीवन में ये बंधन प्राय: दुर्बल ही होता है।
भारत में विवाह को अखण्ड एवं अपरिवर्तनीय बंधन माना जाता है। यह एक ञर्मिक संस्कार है। ग्रामीण परिवेश में अंतर्जातीय विवाह कम ही होते हैं। नगरों में प्रेम-विवाह, अंतर्जातीय विवाह एवं विवाह करने की उम्र में वृध्दि हो रही है। ग्रामीण समाज में पड़ोसियों का आपसी संबंध पारस्परिक सहयोग, समुदाय-भाव एवं हम की भावना पर आधारित होता है। अधिकाँश नगरों में लोग अपने पड़ोस में रहने वालों से प्राय: संबंध नहीं रखते हैं। बढ़ते व्यक्तिवाद के कारण पारस्परिक सहयोग और सहानुभूति की कमी देखी जाती है। निहित स्वार्थ और यांत्रिक प्रतिस्पर्धा इसके अन्य कारण हैं । ग्रामीण जीवन में सामाजिक स्थिति जाति पर आधारित होती है जबकि नगरीय परिवेश में जाति सहवर्ती हो सकती है। परन्तु वर्ग भिन्नता प्रधान होती है।

2। सामाजिक संबंध एवं अंत:क्रिया : ग्रामीण समाज में संबंधों का संचालन प्राथमिक समूह के द्वारा होता है। वे व्यक्तिगत, अनौपचारिक एवं स्थायी होते हैं। प्रतियोगिता कम तीव्र होती है क्योंकि ग्रामीणों में अपने स्वभाविक विकास पर जोर होता है जबकि आधुनिक नगरों में तुलनात्मक विकास पर जोर होता है। नगरीय समाज में व्यक्तिगत संबंञ् अधिकांशत: औपचारिक एवं अवैयक्तिक होते हैं। सामुदायिक शक्ति दुर्बल होती है एवं व्यक्तिगत स्वतंत्रता अधिक होती है।

3। सामाजिक गतिशीलता : व्यवसायिक एवं सामाजिक गतिशीलता गाँवों में जाति व्यवस्था को कठोरता से संचालित करती है। नगरीय समाज प्रदत्ता प्रस्थिति की तुलना में अर्जित प्रस्थिति पर अधिक बल देता है। नगरीय संरचना क्षैतिजीय गतिशीलता एवं ऊधर्वगामी गतिशीलता के अधिक अवसर प्रस्तुत करती है। अर्जित प्रस्थिति जन्मना जाति पर आधारित न होकर सामाजिक - आर्थिक वर्ग पर आधारित होती है।

4। सामाजिक नियंत्रण : ग्रामीण समाजों में सामाजिक नियंत्रण अनौपचारिक साञ्नों द्वारा किया जाता है जैसे जनरीतियां, रूढ़ियां, मानक निषेध एवं उपहास इत्यादि। विचलन को जाति पंचायत अथवा गाँव पंचायत की धमकी से नियंत्रित किया जाता है।नगरीय समाज में केवल जनमत, अनौपचारिक शक्ति एवं नैतिक संरचना के आधार पर ही व्यवस्था को स्थापित नहीं किया जा सकता। नगरीय समाज इतना जटिल होता है कि सामाजिक नियंत्रण विशेषज्ञों द्वारा प्रतिपादित होता है, विधायकों द्वारा निर्मित होता है, अदालतों द्वारा संगठित एवं पुलिस बल द्वारा इनका क्रियान्वयन किया जाता है। नगरीय समाज में सामाजिक नियंत्रण निरोधक की अपेक्षा सुधारात्मक होता है।

5। सामाजिक परिवर्तन : ग्रामीण परिवेश मे नवीनता की तुलना में प्रामाणिकता पर जोर होता है। प्रामाणिकता का मानक परंपरा से प्राप्त होता है। आधुनिक नगरों में नवीनता एवं मौलिकता पर जोर होता है। नगरीय केंद्रों में नवाचार, अनुकूलन एवं अनुकरण अधिक होता है क्योंकि खुलापन अधिक अवसर उपलब्ध कराता है। ऐसे परिवर्तन सरकारी ढाँचों द्वारा प्रोत्साहित होते हैं एवं नगरीय संस्थाएँ इन्हें बनाए रखती हैं।

6। सांस्कृतिक जीवन : गाँवों में सांस्कृतिक एकता होती है। सामान्य मूल्यों एवं समूह के मानदंडों को उत्सवों, ञर्मिक कर्मकाण्डों तथा सामाजिक प्रथाओं के द्वारा शक्तिशाली बनाया जाता है। आज भी भारतीय गाँव भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के वाहक एवं सभ्यता की इकाई हैं। वे आज भी परंपरागत भारतीय पंचांग द्वारा संचालित होते हैं। दूसरी तरफ, नगरीय समाज में सांस्कृतिक स्वरूप गुणात्मक रूप से परिवर्तित हुए हैं।

7। आर्थिक जीवन : ग्रामीण क्षेत्रों में उत्पादन का प्रमुख आधार कृषि है। कृषि आधारित कुटीर उद्योग एवं पशुपालन भी अर्थव्यवस्था का अंग होता है। नकदी फसलें, खाद्य-संस्करण एवं छोटे उद्योग भी व्यवसाय एवं आय को बढ़ाते हैं। सामान्यतया ग्रामीण लोगों की आय एवं औसत खपत का स्तर नीचा है और लोगों की जीवन पध्दति सरल है।

नगरीय समाजों में औद्योगिकी ने विकास के उत्प्रेरक का कार्य किया है। नगरों में रोजगार के अच्छे साधन उपलब्ध हैं क्योंकि यहाँ पर साक्षरता, गतिशीलता, विशेषीकरण एवं प्रशिक्षित प्ररिश्रम का विभिन्न प्रकार से उपयोग होता है। नगरीय लोगों के पास आय के अनेक स्रोत होते हैं। वे अधिकांशत: औद्योगिक क्षेत्रों एवं नौकरियों में कार्यरत हैं। नगरों की प्रौद्योगिकी एवं भौतिकवाद ने, जो कि पश्चिमीकरण एवं आधुनिकीकरण्ा से भी प्रभावित होती है, एक ऐसी संस्कृति को जन्म दिया है जो भारत में किसी व्यक्ति का मूल्य उसकी आय एवं जीवन-शैली द्वारा निर्धारित करती है और उसके आय के स्रोतों की अवहेलना की जाती है। अन्य कारकों के साथ यह भी एक कारक है जो 'काले-धन' को नगरीय केंद्रों में बढ़ावा देता है।

इस प्रकार, यह स्पष्ट है कि गाँवों एवं नगरीय समुदायों में अनेक विभिन्नताएँ हैं। लेकिन यह भी याद रखा जाना चाहिए कि इनके मधय निरंतरता एवं विरोधाभास भी है। एस। सी. दुबे ने समकालीन भारतीय परिवेश में ग्रामीण-नगरीय विभाजन एवं संयोजन को दर्शाने का प्रयत्न किया है। यद्यपि भारत गाँवों की भूमि के रूप में जाना जाता है तथापि यहाँ नगरीय केन्द्रों की प्राचीन परंपरा रही है। यदि गाँव सहयोग के क्षेत्र हैं तो संघर्ष मुक्त भी नहीं हैं। विकास की इकाई के रूप में अब गाँवों में भी नगरों की भांति विभिन्न संस्थाएं विद्यमान हैं। राजनीतिक दलों के प्रतिनिधि गाँवों एवं नगरों दोनों में विद्यमान हैं। गाँव नगरों की भाँति एक निगम समूह नहीं है। इसकी स्वयं की पहचान है, निश्चित सीमाएँ हैं (राजस्व एवं वन) और साझा सम्पदा (जैसे कुएँ एवं तालाब इत्यादि) हैं। इसमें मंदिर, मस्जिद, चर्च एवं गुरूद्वारा भी हो सकते हैं। अधिकांश जातियाँ किसी पेशे अथवा शिल्प से जुड़ी हैं लेकिन यह आवश्यक नहीं है कि एक जाति के सभी सदस्य एक ही शिल्प अथवा व्यवसाय में हों। कुछ व्यवसाय ऐसे भी हैं जो ''खुले'' हैं अथवा कोई भी उन्हें अपना सकता है। जाति की कोई बाधा नहीं होती।

गाँवों एवं नगरों के लोगों के मध्य आर्थिक, धार्मिक क्रियाएँ, राजनीतिक एवं सामाजिक आदान-प्रदान होता रहता है। जाति-पंचायत नगरों में विद्यमान नहीं है पंरतु गाँवों की तरह बड़े नगरों में नए जाति संगठन अस्तित्तव में आ गए हैं। कुछ जाति संगठन क्षेत्रीय हैं जबकि कुछ अखिल-भारतीय स्तर के भी हैं। नगरों के बाजार ने जजमानी व्यवस्था को प्रतिस्थापित कर दिया है। इस परिवर्तन की प्रक्रिया ने विभिन्न गाँवों को एक दूसरे से एवं आस पास के नगरों से अच्छी तरह से जोड़ दिया है। यदि परंपरागत गाँव एवं परंपरागत नगर एक दूसरे के पूरक थे तो समकालीन गाँव एवं नगरीय केन्द्र भारतीय राज्य की पूरक इकाई हैं।

भारतीय दृष्टि से गाँव और शहर दो अलग प्रकार के समुदाय हैं। इस बात को गाँधीजी ने हिन्द स्वराज में बार-बार उठाया है। 'शहर' के बारे में पश्चिम के सांस्कृतिक मन में एक निश्चित धारणा है। वागीश शुक्ल ने पश्चिम की संस्कृति में शहर की अवधारणा को सामी (सेमेटिक) धर्मों में लोकप्रिय आदम और उसके वंशजों की कहानी से जोड़ कर समझने पर बल दिया है। बाइबिल के अनुसार पहला शहर केन ने बसाया था जो आदम की पहली संतान था और जिसके मत्थे संसार की पहली हत्या है - अपने भाई आवेल की हत्या। केन ईश्वर कृपा से वंचित है। उसी की संतानों ने संगीत वाद्यों का और ढ़लाई के कारखानों का अविष्कार किया फलस्वरूप पश्चिमी मानस में कला और प्रौद्योगिकी दोनों ही ईश्वर कृपा से वंचित हैं। टॉल्सटॉय जैसे चिंतको के मन में यही शहर है। गाँधीजी के मन में कौन सा शहर था, हम नहीं जानते। किन्तु वे उसे वैसे ही याद करते हैं जैसे बाइबिल में केन को याद किया गया है। सभ्यता का जो स्वरूप यूरोप ने प्रस्तुत किया उसमें गाँव और शहर का एक साथ रहना संभव ही नहीं है। यूरोपीय सभ्यता में एक शहर बसता है जिसमें जंगली जानवर के लिए जगह नहीं है और उसके आगे कहीं एक जंगल दिखता है जो यूरोपीय सभ्यता का एक नया शहर बनने का इंतजार कर रहा होता है। इसलिए उसमें ऐसा भूगोल ही संभव नहीं, जिसमें उदाहरण के लिए, वनवासी के लिए कोई जगह हो। यह ऑस्ट्रेलिया से लेकर अमेरिका तक देखा जा सकता है। पारंपरिक रूप से भारत थोड़ा भिन्न रहा, यहाँ शहर और जंगल में वैसा द्वेष नहीं रहा। हर शहरी को बचपन में पढ़ने के लिए और बुढ़ापा आने पर ब्रह्म-चिन्तन के लिए, जंगल में जाना ही था। इसलिए जो हम हैं उसके अलावा कुछ और भी हैं की समझ यहाँ शुरू से थी जो अभी भी पूरी तरह गायब नहीं हुई है।

बीसवीं सदी के प्रारंभ में गाँधीजी ने भारत की ग्राम संस्कृति को उसकी वास्तविक संस्कृति घोषित किया। हम जानते हैं कि बीसवीं सदी के मध्य में, भारत के स्वतंत्र होने के समय, उन्होंने अपनी बात को फिर उठाया था। उनकी बात नहीं मानी गयी और भारत के विकास का वही मॉडल स्वीकार किया गया जो पश्चिम के विकास का मॉडल था। आज हमारा गाँव बहुत कुछ बदल चुका है। नवीनतम संचार माध्यम उसे एक दयनीय शहर में बदलने की लगभग सफल कोशिश कर चुके हैं। गाँधीजी ने इस सभ्यता को अधर्म कहा था और इसका अभिलक्षण यह बताया था कि यह शरीर सुख को जीवन का लक्ष्य समझती है। आज जब हम जीवन स्तर और उपभोक्तावादी खुले बाजार की बात करते हैं तो इस सभ्यता की ही बात करते हैं।

भारतीय सभ्यता में ग्रामीण समुदायों का महत्त्व नगरीय केन्द्रों से ज्यादा था। दोनों के कार्य अलग-अलग थे। परंपरागत भारतीय गाँव संस्कृति की पूर्णता को प्रदर्शित करते थे एवं नगर या तो प्रशासनिक इकाई अथवा धार्मिक केन्द्र होते थे। भारतीय सांस्कृतिक आवश्यकताओं को पूरा करने के लिए नगर एक प्रमुख केन्द्र था। समकालीन भारतीय गाँवों की भूमिका अब इस प्रकार की नहीं है। अब गाँव खाद्य, श्रम एवं कच्चे उत्पादों के आपूर्तिकर्ता हैं। समकालीन भारतीय राज्य गाँवों के विकास के लिए विभिन्न कार्यक्रमों को प्रोयोजिक करता है । गाँवों का विकास श्रमिकों एवं साधनों के आपूर्तिकर्ता के रूप में किया जा रहा है। अब नगर आधुनिक औद्योगिक सभ्यता की पूर्णता को प्रदर्शित करते हैं तथा ज्यादातर गाँव अब इन केन्द्रों से अपने अस्तित्व के लिए जुड़े हुए हैं। समकालीन गाँवों की भूमिका एवं स्वरूप अब उस प्रकार का नहीं रहा जैसा कुछ वर्षों पहले तक हुआ करता था; और जो महात्मा गाँधी के हिन्द स्वराज में वर्णित सभ्यता का आधार स्तंभ था। स्वतंत्र भारत की पहली सरकार ने सामुदायिक विकास कार्यक्रम के तहत पारंपरिक गाँवों के स्वरूप एवं स्वभाव को बदल कर आधुनिक गाँव के रूप में रूपांतरित करने का काम शुरू किया जिसमें गाँव का मुख्य काम नगरों को खाद्य, श्रम एवं कच्चे उत्पादों की आपूर्ति करना हो गया। बाद की सभी सरकारों ने इस काम को तीव्रता से आगे बढ़ाया। 15 अगस्त 1947 से भारत की आत्मा नगरों एवं आधुनिक उद्योगों में बसने लगी है और सरकारी दृष्टि में गाँव गरीबी, अशिक्षा और कुपोषण के केन्द्र हैं। फलस्वरूप गाँवों को शहरों की अनुकृति बनाने का सफल/असफल प्रयास किया जा रहा है। 1990 के दशक से वैश्वीकरण की प्रक्रिया के तहत एक तरफ शहरीकरण, औद्योगिकरण, सामाजिक गतिशीलता एवं स्थानांतरण (माइग्रेशन) की प्रक्रिया बहुत बढ़ गई है और नई पीढ़ी में से अधिकांश लोग गाँव छोड़कर शहरों में रहना चाहते हैं। दूसरी ओर, वैश्वीकरण की पूरक प्रक्रिया के तहत विदेशों में रहने वाले भारतीय, महानगरों में कई पीढ़ी से रह रहे परिवारों के कुछ बच्चे एवं युवा, पर्यावरण-प्रदूषण से परेशान कुछ संवेदनशील लोग तथा हिन्दी फिल्मों के कुछ प्रमुख निर्देशकों में पारंपरिक गाँवों के प्रति रूमानी एवं आर्दशवादी लगाव बढ़ता जा रहा है। इस लगाव की एक अभिव्यक्ति महँगे फार्महाउसों में पारंपरिक गाँवों के परिवेश निर्माण के रूप में सामने आ रहा है तो दूसरा इन्हीं फार्महाउसों का उपयोग पर्यटन उद्योग द्वारा ग्रामीण जीवन की अनुभूति देने के नाम पर व्यवसायिक रूप से फल-फूल रहा है। ऐसे फार्महाउसों का आकर्षण भारत के प्रति आकर्षित विदेशी, भारतीय मूल के विदेशी, महानगर में रह रहे मध्यवर्गीय छात्र-छात्राओं एवं पर्यावरण के प्रति संजीदा पेशेवर वर्गों में सबसे ज्यादा है। इसी प्रकार गाँव से जुड़ी लोक संस्कृति, लोककला, लोकनृत्य, लोकसंगीत, वेश-भूषा एवं खान-पान आदि का विविधता की अनुभूति दे सकने वाले उत्तर आधुनिक फैशन उत्पाद के रूप में व्यवसायिक एवं कलात्मक उपयोग बढ़ रहा है। इन समकालीन प्रवृतियों का भारतीय संस्कृति एवं गाँवों पर सम्मिलित प्रभाव अंत में क्या रूप लेगा यह भविष्य के गर्भ में है परंतु महात्मा गाँधी द्वारा प्रस्तुत हिन्द स्वराज का गाँव केन्द्रित सभ्यतामूलक विमर्श अपने प्रकाशन काल की तुलना में आज ज्यादा प्रासंगिक हो गया है।