10 अप्रैल 2010

रामायण – अरण्यकाण्ड - कबंध का वध

पक्षिराज जटायु को जलांजलि दे कर राम और लक्ष्मण सीता की खोज में दक्षिण दिशा की ओर चले क्योंकि अब उनको यह तो ज्ञात हो ही चुका था कि लंका का राजा रावण सीता को इसी दिशा में ले कर गया है। कुछ दूर आगे चल कर वे पगडंडी विहीन वन में पहुँचे। वृक्षों, झाड़ियों एवं लताओं ने आगे का मार्ग अवरुद्ध कर दिया था। कठिनता से उसे पार कर वे क्रौंच नाम वन में पहुँचे। वह वन और भी सघन तथा अन्धकारमय जथा। उसकी सघनता तथा दुर्गमता को देख कर उन्होंने सोचा, सम्भव है रावण ने सीता को वहीं छिपा कर रखा हो, परन्तु बहुत खोजने पर भी जब कोई परिणाम नहीं निकला तो वे और आगे चले। इस वन को पार कर के मतंगाश्रम नामक वन में पहुँचे जो पिछले वन से भी अधिक भयानक और हिंसक पशुओं से पूर्ण था। घूमते-घूमते वे ऐसी पर्वत कन्दरा पर पहुँचे तो पाताल की भाँति गहरी और इतनी अन्धकारपूर्ण थी कि हाथ को हाथ नहीं सूझता था।

उस विशाल कन्दरा के मुख पर एक अत्यन्त मलिन, लम्बे पेट वाली, बड़े-बड़े दाँतों और बिखरे केश वाली, मलिनमुखी राक्षसिनी बैठी हुई हड्डी चबा रही थी। राम लक्ष्मण को देख कर वह अट्टहास करती हुई दौड़ी और लक्ष्मण से लिपट कर बोली, मेरा नाम अयोमुखी है। मैं बहुत दिनों से किसी सुन्दर युवक की प्रतीक्षा कर रही थी। अब तुम आ गये। चलो, मेरे साथ विहार करो।"

उसकी इस कुचेष्टा से क्रुद्ध हो कर लक्ष्मण ने अपनी म्यान से तलवार निकाली और उसके नाक, कान तथा उरोज काट डाले। उसके सारे शरीर पर रक्त की धाराएँ बहने लगीं और वह चीत्कार करती हुई वहाँ से भाग गई। अयोमुखी के भाग जाने के पश्चात् दोनों भाई थोड़ी दूर गये थे कि उन्हें एक भयंकर स्वर सुनाई दिया जिसकी गर्जना से सम्पूर्ण पृथ्वी और आकाश काँपते हुये प्रतीत हो रहे थे। इससे सावधान हो कर दोनों भाइयों ने तलवार निकाल कर उस दिशा में पग बढ़ाये जिधर से वह भयंकर गर्जना आ रही थी। उन्होंने गज के आकार वाले बिना गर्दन के कबंध राक्षस को देखा। उसका मुख और आँखें उसके वक्ष पर चमक रही थीं। वह दोनों मुट्ठियों में वन के जन्तुओं को पकड़े इनका मार्ग रोके खड़ा था। राम-लक्ष्मण को देखते ही उसने लपक कर दोनों को अपनी भुजाओं में दबा लिया और बोला, "बड़े भाग्य से आज ऐसा सुन्दर भोजन मिला है। तुम दोनों को खा कर मैं अपनी क्षुधा शान्त करूँगा।" इस आकस्मिक आक्रमण से लक्ष्मण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये, परन्तु रामचन्द्र ने बड़ी फुर्ती से उस राक्षस की दोनों भुजाएँ काट डालीं। वह चीत्कार करता हुआ पृथ्वी पर गिर पड़ा। पृथ्वी पर पड़े हुये वह बोला, "हे पुरुष श्रेष्ठ! आपने राक्षस योनि से मुझे मुक्ति दिला कर मेरा बड़ा उपकार किया है। इन्द्र ने मुझे पहले ही बता दिया था कि आपके हाथों से मुझे सद्गति प्राप्त होगी। अब आप मुझ पर इतनी कृपा और करना कि अपने हाथों से मेरा दाह-संस्कार कर देना।"


कबंध की प्रार्थना सुन कर राम बोले, "हे राक्षसराज! मैं तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी करूँगा। मैं तुमसे कुछ सूचना प्राप्त करना चाहता हूँ। आशा है अवश्य दोगे। दण्डक वन से मेरी अनुपस्थिति में लंकापति रावण मेरी पत्नी का अपहरण कर के ले गया है। मैं उसके बल, पराक्रम, स्थान आदि के विषय में तुमसे पूरी जानकारी चाहता हूँ। यदि जानते हो तो बताओ।" राम का प्रश्न सुन कर कबंध बोला, "हे नरश्रेष्ठ! रावण बड़ा बलवान और शक्तिशाली नरेश है। उससे देव-दानव सभी भयभीत रहते हैं। उस पर विजय प्राप्त करने के लिये आपको नीति का सहारा लेना होगा। आप ऐसा कीजिये कि यहाँ से पम्पा सरोवर चले जाइये। वहाँ ऋष्यमूक पर्वत पर वानरों का राजा सुग्रीव अपने चार वीर वानरों के साथ निवास करता है। वह अत्यन्त वीर, पराक्रमी, तेजस्वी, बुद्धिमान, धीर और नीतिनिपुण है। उसके पास एक विशाल पराक्रमी सेना भी है जिसकी सहायता से आप रावण पर विजय प्राप्त कर सकते हैं। उसके ज्येष्ठ भ्राता बालि ने उसके राज्य और उसकी पत्नी का अपहरण कर लिया है। यदि आप उसे मित्र बना सकें तो आपका कार्य सिद्ध हो जायेगा। वह राक्षसों के सब स्थानों को जानता और उनकी मायावी चालों को भी समझता है। उसे भी इस समय एक सच्चे पराक्रमी मित्र की आवश्यकता है। आपका मित्र बन जाने पर वह अपने वानरों को भेज कर सीता की खोज करा देगा। साथ ही सीता को वापस दिलाने में भी आपकी सहायता करेगा।" इतना कह कर कबंध ने अपने प्राण त्याग दिये। रामचन्द्र उसका अन्तिम संस्कार कर के लक्ष्मण सहित पम्पासर की ओर चले। पम्पासर के निकट उन्होंने एक सुन्दर सरोवर देखा जिसमें दोनों भाइयों ने स्नान किया।