- भारतीय संस्कृति" href="http://hi.wikipedia.org/wiki/à¤à¤¾à¤°à¤¤à¥€à¤¯_संसà¥à¤•à¥ƒà¤¤à¤¿">भारतीय संस्कृति के मूल वेद हैं। ये हमारे सबसे पुराने धर्म-ग्रन्थ हैं और हिन्दू धर्म" href="http://hi.wikipedia.org/wiki/हिनà¥à¤¦à¥‚_धरà¥à¤®">हिन्दू धर्म का मुख्य आधार हैं।
- न केवल धार्मिक किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से भी वेदों का असाधारण महत्त्व है। वैदिक युग के आर्यों की संस्कृति और सभ्यता जानने का एकमात्र साधन यही है।
- मानव-जाति और विशेषतः आर्य जाति ने अपने शैशव में धर्म और समाज का किस प्रकार विकास किया इसका ज्ञान वेदों से ही मिलता है।
- विश्व के वाङ्मय में इनसे प्राचीनतम कोई पुस्तक नहीं है।
- आर्य-भाषाओं का मूलस्वरूप निर्धारित करने में वैदिक भाषा बहुत अधिक सहायक सिद्ध हुई है।
- वेद हिन्दुओं के प्राचीनतम धार्मिक ग्रंथ हैं।
- संस्कृत शब्द “वेद” का अर्थ है “ज्ञान”। “विद्” शब्द इसका मूल है।
- प्राचीनकाल में वेदों को लिखने की प्रथा नहीं थी वरन उनमें निहित श्लोकों को गुरु से सुनकर शिष्य उन्हें याद रखा करते थे।
- सर्वमान्य विश्वास के अनुसार वेदों की रचना ईसा पूर्व लगभग1500-500 में हुई थी।
- वेदों की कुल संख्या चार है – ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद।
- वेदों को संहिता के नाम से भी जाना जाता है।
- ऋग्वेद में 1,028 श्लोक हैं।
- ऋग्वेद के श्लोकों का होत्रि ब्राह्मणों के द्वारा सस्वर पाठ किया जाता था।
- वेद के श्लोकों में देवताओं की स्तुति की गई है।
- देवताओं में युद्ध तथा ऋतओं के देवता इन्द्र का सर्वाधिक वर्णन पाया जाता है।
द्वितीय स्थान अग्नि देवता का है।
04 नवंबर 2009
वेद
Posted by Udit bhargava at 11/04/2009 10:58:00 pm 1 comments
भारतीय इतिहास – झलकियाँ
- निस्सन्देह भारत की सभ्यता विश्व के प्राचीनतम सभ्यताओं में से एक है।
- सिन्धु घाटी में ईसा पूर्व 2300 से 1750 तक जगमगाते रहने वाली उच्च सभ्यता के अवशेष आज भी विद्यमान हैं।
- ऐसा माना जाता है कि ईसा पूर्व 2000 से 1500 के मध्य इन्डो-यूरोपियन भाषाई परिवार से सम्बन्ध रखने वाले आर्यों ने हिमालय के उत्तर-पश्चिम दर्रों से भारत में प्रवेश किया और सिन्धु घाटी की सभ्यता को नष्ट कर दिया।
- वे आर्य सिन्धु घाटी एवं पंजाब में बस गये। कालान्तर में वे भारत के पूर्व तथा दक्षिण दिशाओं में स्थित स्थानों में फैल गये।
- आर्यों ने ही भारतीय सभ्यता से संस्कृत भाषा तथा जाति प्रणाली का परिचय करवाया।
- ईसा पूर्व छठवीं शताब्दी में उत्तर-भारत फारसी साम्राज्य का अंग बन गया।
- ईसा पूर्व 326 में मेकेडोनिया के अलेक्जेंडर महान ने फारसियों राज्यों को विजित किया। यद्यपि मेकेडोनियन्स का नियन्त्रण अधिक समय तक नहीं रहा किन्तु उनके अल्पकाल के नियन्त्रण के फलस्वरूप भारत एवं भूमध्यरेखीय देशों के मध्य व्यापारिक सम्बंध अवश्य स्थापित हो गया। रोमन संसार भारत को एक मसालों, औषधियों और कपास के कपड़ों से परिपूर्ण देश के रूप में जानने लगा।
- मेकेडोनियन शासनकाल के पश्चात् भारत पर मूल राजवंशों और सुदूर पहाड़ों पर बसने वाले जनजातियों का नियन्त्रण हो गया। मूल राजवंशों में मौर्य तथा गुप्त वँश सर्वाधिक प्रसिद्ध हुये।
- मौर्य साम्राज्य प्रथम सम्राज्य था जिसने लगभग सम्पूर्ण भारत को एक शासन के नियन्त्रण में अधीन बनाया।
- मौर्य साम्राज्य का काल ईसा पूर्व लगभग 324 से 185 तक रहा।
- चन्द्रगुप्त मौर्य ने अपने शासनकाल, जो कि ईसा पूर्व लगभग 298 तक चला, में उत्तर-भारत, बांग्लादेश, पाकिस्तान और अफगानिस्तान के अधिकतम स्थानों को अपने साम्राज्य में सम्मिलित कर लिया।
- चन्द्रगुप्त के पुत्र बिन्दुसार और बिन्दुसार के पुत्र अशोक ने अपने साम्राज्य का विस्तार सुदूर दक्षिण भारत तक कर लिया।
- पाटलिपुत्र (वर्तमान पटना) उनकी राजधानी थी।
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Posted by Udit bhargava at 11/04/2009 10:49:00 pm 0 comments
कृष्ण और राम – असमानता में समानता
श्री कृष्ण और श्री राम दोनों ही भगवान विष्णु के अवतार हैं किन्तु यदि देखा जाए तो दोनों एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत प्रतीत होते हैं। दोनों के जन्म से ही क्रमों का उलटा हो जाना आरम्भ हो जाता है जो कि दोनों के जीवनपर्यन्त चलते जाता है।
श्री राम का जन्म त्रेता युग में चैत्र शुक्ल नवमी को दिन के ठीक बारह बजे हुआ था जबकि श्री कृष्ण का जन्म द्वापर युग में भादों के कृष्णपक्ष अष्टमी को रात्रि के बारह बजे हुआ। जहाँ राम के जन्म के समय चारों ओर उजाला ही उजाला है वहीं कृष्ण के जन्म के समय घटाटोप अंधेरा है, मूसलाधार वर्षा होने के कारण अंधेरे की कालिमा अत्यधिक बढ़ गई है। सिर्फ रात और दिन तथा उजाला और अंधेरा का ही अन्तर नहीं है बल्कि पंचांग के हिसाब से तिथि भी एकदम विपरीत है। हिन्दू वर्ष बारह चन्द्रमासों का होता है और चैत्र माह से ठीक छः माह बीतने के बाद भादों माह आता है। जहाँ राम का जन्म शुक्लपक्ष में हुआ है वहीं कृष्ण का जन्म कृष्णपक्ष में हुआ है।
दूसरा बहुत बड़ा अन्तर है दोनों के वैवाहिक जीवन में। राम एकपत्नी व्रत रखते हैं तो कृष्ण की सोलह हजार एक सौ आठ रानियाँ हैं। राम स्वयं को सद् गृहस्थ दर्शाते हैं जबकि देखा जाये तो गृहस्थी का सुख उन्हें नहीं के बराबर ही मिला है। विवाह के कुछ दिनों पश्चात ही वनवास हो जाता है। वन में भी रावण उनकी पत्नी को हर कर ले जाता है। रावण का वध कर के पत्नी को जब वे वापस लाते हैं तो लोकापवाद के भय से उन्हें पत्नी का त्याग करना पड़ जाता है। तात्पर्य यह कि गृहस्थी का सुख उन्हें मिला ही नहीं फिर भी वे स्वयं को सद् गृहस्थ कहते हैं। इसके ठीक विपरीत कृष्ण को सदैव ही गृहस्थी का सुख मिला है, रुक्मणी; जाम्बवन्ती; सत्यभामा; कालिन्दी; मित्रबिन्दा; सत्या; भद्रा; लक्ष्मणा आठ पटरानियों के साथ ही साथ उनकी शेष सभी रानियाँ सदैव उनकी सेवा में प्रस्तुत रहती हैं किन्तु वे स्वयं को ब्रह्मचारी कहते हैं। जी हाँ अभिमन्यु के वध के पश्चात् जब सुभद्रा को मोह हो जाता है तो वे स्वयं के ब्रह्मचर्य शक्ति से ही सुभद्रा से अभिमन्यु की आत्मा का मिलाप करा के उनका मोह भंग करते हैं।
श्री राम मर्यादापुरषोत्तम कहलाते हैं क्योंकि उन्होंने सभी कार्य मर्यादा में रह कर ही किया किन्तु श्री कृष्ण ने मर्यादा को कभी बहुत अधिक महत्व नहीं दिया, अर्जुन की सहायता करने के लिये अपना वचन भंग करके शस्त्र धारण कर लिया, द्रोणाचार्य के वध के लिये धर्मराज युधिष्ठिर को असत्य का सहारा लेने के लिये प्रेरित कर दिया।
राम अपने मित्रों को बिना माँगे ही उनकी वांछित वस्तु दे देते हैं जैसे कि सुग्रीव और विभीषण को उन्होंने बिना माँगे ही क्रमशः बालि और रावण का राज्य प्रदान कर दिया। इसके विपरीत कृष्ण ने अपने मित्र सुदामा को उसके याचना करने के बाद ही वैभव प्रदान किया।
देखा जाये तो बहुत सारी विपरीतियाँ हैं दोनों अवतारों में किन्तु सभी विपरीतियों के बावजूद भी सबसे बड़ी समानता है कि दोनों अवतारों ने अपने काल में लोगों को त्रास, अन्याय, अधर्म आदि से मुक्ति दिलाई।
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Posted by Udit bhargava at 11/04/2009 10:40:00 pm 0 comments
भारतीय संस्कृति – एक नजर में
भारतीय संस्कृति के ढाँचे में अलग-अलग युगों में समय, काल और परिस्थितियों के अनुसार तथा उन युगों की परंपरा, रीति-रिवाज और लोगों के विचारों एवं मान्यताओं के अनुसार अनेकों बार परिवर्तन हुआ है। इसी कारण से आज भी भारतवर्ष के अलग-अलग क्षेत्रों में अनेक प्रकार की संस्कृतियाँ, भाषायें,
परंपराएँ, रीति रिवाज और मान्यताएँ पाई जाती हैं।
भारत में हिंदू, बौद्ध, जैन, सिख जैसे अनेक धर्मों और संप्रदायों का आविर्भाव हुआ जिनका प्रभाव न केवल भारत के वरन विश्व के अनेकों देशों के निवासियों पर आज भी देखने को मिलता है। दसवीं शताब्दी के बाद से भारत में पारसी, तुर्क, मुस्लिम आदि विदेशी संस्कृतियों का प्रभाव पड़ना आरम्भ हो गया
जिसके कारण यहाँ की संस्कृति में विभिन्नता और अधिक हो गई।
मार्क ट्वेन का मत है कि भारत मानव वंश का उद्गम, अनेक भाषाओं तथा बोलियों की जन्म-स्थली, इतिहास की माता, पौराणिक एवं अपूर्व कथाओं की मातामह (दादी) और अनेक परम्पराओं की प्रमातामह (परदादी) है। मानव इतिहास की अत्यंत बहुमूल्य उपलब्धियाँ भारत के खजाने की ही देन है। (India is the cradle of the human race, the birthplace of human speech, the mother of history, the grandmother of legend, and the great grand mother of tradition। Our most valuable and most astrictive materials in the history of man are treasured up in India only!) भारत के विभिन्न क्षेत्रों में प्रचलित भारतीय संस्कृति को अनेक भागों में वर्गीकृत किया जा सकता है। भारत पर विश्व के अनेकों धर्मों तथा संप्रदायों का भी प्रभाव रहा है जिसके परिणामस्वरूप यहाँ पर विभिन्न धार्मिक-सांप्रदायिक भावनाओं के मिश्रण से परिपूर्ण संस्कृतियों का भी प्रादुर्भाव भी हुआ। जहाँ भारत के ग्रामीण तथा कस्बाई क्षेत्रो में आज भी प्राचीन संस्कृतियों का प्रभाव बना हुआ है वहीं देश के बड़े नगरों में इन संस्कृतियों का विलोप होता जा रहा है और वैश्वीकरण का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
भाषा
प्रारम्भ से ही भारत में मूलतः दो प्रकार की भाषाएँ रही हैं – आर्य (उत्तर भारतीय) और द्रविड़ (दक्षिण भारतीय)। किंतु भारत का विस्तार अत्यंत विशाल होने के कारण यहाँ के विभिन्न क्षेत्रों में अनेकों प्रकार की भाषाओं तथा बोलियों का प्रचलन है तथा इन सभी भाषाओं और बोलियों पर भारत की मूल दो भाषाओं में से किसी न किसी का प्रभाव रहा है।
वेष-भूषा
जिस प्रकार से भारत के विभिन्न क्षेत्रों में अनेक प्रकार की भाषाएँ एवं बोलियों का प्रचलन है उसी प्रकार उन क्षेत्रों की वेश-भूषाएँ भी अलग-अलग प्रकार की हैं।
साहित्य
यद्यपि आज भारतीय साहित्य में विदेशी साहित्य का प्रत्यक्ष प्रभाव देखा जा सकता है किंतु प्राचीन काल में भारतीय साहित्य पर शुद्धतः धार्मिक भावनाओं का ही प्रभाव था। प्राचीन काल में विचारों को लिपिबद्ध करने का प्रचलन नहीं था। इस देश में प्रथा यह थी कि गुरु अपने शिष्य से अपना अर्जित ज्ञान को कहते थे और शिष्य उसे स्मरण के द्वारा संचित रखते थे। इसीलिये भारत में एक लंबे अंतराल तक श्रुतियों (सुना गया) और स्मृतियों (स्मृत रखा गया) की प्रथा चलती रही। चूंकि गद्य को याद रखना कठिन होता है और पद्य आसानी के साथ याद हो जाते हैं, इस देश में पद्यों की ही रचनाएँ होती रहीं जिसके परिणामस्वरूप अनेकों महाकाव्य बने।
दर्शन
वास्तव में वैदिक एवं पौराणिक साहित्य भारतीय दर्शन को ही प्रकट करते हैं। दर्शन का भारत पर सर्वाधिक प्रभाव रहा है। जहाँ एक ओर इस देश के ऋषि-मुनि पूर्णतः आध्यत्मिकता की शिक्षा देते हैं वहीं चार्वाक पूर्णतः सांसारिकता पर ही जोर देते हैं और दोनों ही सार्वजनिक रूप से मान्य हैं।
नृत्य एवं संगीत
भारत के निवासियों पर प्राचीन काल से ही नृत्य एवं संगीत का बहुत अधिक प्रभाव रहा है इसी कारण से संस्कृत में अनेकों नाटकों की रचनाएँ हुई जिनका नृत्य एवं संगीत के माध्यम से रसास्वादन किया जा सकता था। कालान्तर में नृत्य एवं संगीत भी दो मुख्य वर्गों में विभाजित हो गईं – उत्तर भारतीय और कर्णाटक।
चित्रकला
हमारे देश में यद्यपि विचारों को लिपबद्ध करने का प्रचलन नहीं था किंतु प्राचीन काल से अपने विचारों की अभिव्यक्ति चित्रकला के रुप में करने में लोगों की रुचि अवश्य ही रही है। यहाँ पाये जाने वाली अनेकों भित्तिचित्र इसी बात के उदाहरण हैं।
शिल्पकला
अजंता, एलोरा आदि गुफाओं में बनीं मूर्तियाँ इंगित करती हैं कि भारत के लोगों में प्राचीन काल से ही शिल्प कला के प्रति अत्यंत ही रुचि रही है।
वास्तुकला
उत्तर तथा दक्षिण भारत के अनेकों मंदिर, दुर्ग आदि इस देश की वास्तुकला की प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।
संक्षेप में कहा जाये तो भारतीय संस्कृति अनेकता में एकता का सबसे बड़ा उदाहरण है।
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Posted by Udit bhargava at 11/04/2009 10:29:00 pm 0 comments
महाभारत की कथाएँ – दुष्यंत एवं शकुन्तला की कथा
एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गये। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, “हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।” उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, “बालिके! आप कौन हैं?” बालिका ने कहा, “मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।” उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, “महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?” उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, “वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला – ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।”
शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, “शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।” शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, “प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।” इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये।
एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, “बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।” दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, “अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।”
महाराज दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, “पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।” इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई।
महाराज दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, “महाराज! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।” महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।
जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला।
कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, “हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा।” यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये।
महाराज दुष्यंत और शकुन्तला के उस पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।
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Posted by Udit bhargava at 11/04/2009 10:17:00 pm 0 comments
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