02 जुलाई 2010

प्यार में अहंकार कहाँ?

अहंकार की अनु‍पस्थिति ही प्रेम है

सुरेश और रिया ने लगभग 2 वर्ष पहले ही प्रेम विवाह किया है। दोनों ही सर्विस करते हैं। शादी के बाद शुरू के 3 महीने तक तो सब ठीक चला। लेकिन फिर छोटी-छोटी बातों को लेकर दोनों ने लड़ना-झगड़ना शुरू कर दिया। आखिर में दोनों ने तंग आकर तलाक का फैसला किया। दोनों ने अपने वकील से बात की जोकि उन दोनों का ही दोस्त भी है। इस वकील ने सलाह थी कि रिया कुछ दिनों के लिए अपने मायके चले जाए और ठंडे दिमाग से अपने निर्णय के बारे में विचार करें। रिया और सुरेश दोनों सहमत हो गए। रिया अनपे मायके चली गई। उसका मायका दूसरे शहर में है।

अगले दिन सुबह उठते ही सुरेश ने आवाज लगाई। रिया मेरा न्यूज पेपर और चाय...। दूसरे ही क्षण उसे याद आया कि रिया तो अब उसके घर में है नहीं। खुद ही उठकर दरवाजे से उठाकर न्यूज पेपर लाया और थोड़ी देर बाद चाय बनाने किचन में चला गया।

अब उसे रह-रहकर रिया की अच्छी-अच्छी बातें याद आ रही थीं। साथ ही यह भी कि रिया के रहने पर उसे यह छोटे-छोटे काम कभी खुद नहीं करने पड़े थे। खुद पर झल्लाते हुए उसने जैसे-तैसे चाय बनाई और दफ्तर की तैयारी करने लगा। बाथरूम में टॉवेल से लेकर ड्रेस का प्रबंध खुद ही किया और बगैर लंच के दफ्तर रवाना हुआ। लंच का ऑर्डर उसने टिफिन सेंटर पर दिया।

ऑफिस से लौटते हुए डिनर होटल में लिया और घर पहुँच गया।‍ बिस्तर पर लेटने के बाद नींद उससे कोसों दूर थी। उसके दिमाग में बस रिया की बातें ही चल रही थी। उसका लड़ना-झगड़ना। बात-बात पर टोका-टाकी करना आदि।

उसके जेहन में वह सभी बातें आ रही थी‍ जिन पर रिया आपत्ति लेती थी वह विचार करता जा रहा था कि क्या वास्तव में रिया सही है? और उसे ही अपनी आदतों में सुधार लाना चाहिए। सुरेश के घर पर रहने पर कई लड़कियों के फोन आते थे जबकि दफ्तर में रिया के फोन करने पर उसे बिजी होने का वास्ता देकर हमेशा टाल दिया करता था।

सिगरेट के साथ-साथ उसने शराबी दोस्तों का संग कर लिया था और अब वह इनका आदि हो चला था जबकि पहले कभी-कभी ऑफिस की पार्टी वगैरह में ही ड्रिंक लेता था। लेकिन वह अपनी गलती मानने को तैयार नहीं था और अभी भी सोच रहा था कि कुछ भी हो। यदि आज वह झुक गया तो रिया उससे हमेशा अपनी बात मनवाती रहेगी। इसलिए वह रिया से माफी नहीं माँगेगा और अपनी बात पर कायम रहेगा।

दूसरी ओर रिया भी मायके में विचार कर रही थी। सही होने के बावजूद उसे लगा क्या वाकई सुरेश उसे तलाक दे देगा। शादी से पहले जब उनका प्रेम प्रसंग चल रहा था तब तो बहुत साथ जीने-मरने की बात करने वाला सुरेश अचानक इतना बदल कैसे गया। सुरेश का यह रूप उसके लिए बहुत अप्रत्याशित था और उसने कभी इसकी कल्पना भी नहीं की थी। उसके माता-पिता उसे ढाढस बँधाते रहते थे। बेटी सुरेश ऐसा लड़का नहीं है। उसे जरूर अपनी गलती का अहसास होगा और वह तुम्हें आकर ले जाएगा। पति-पत्नी में ऐसा चलता रहता है। तुम कहो तो मैं उससे बात करूँ। लेकिन रिया उन्हें यह कहकर रोक देती थी कि आपका कहा न मानकर शादी का फैसला मैंने ही किया था अब मैं अपनी गलती के लिए आपको जलील नहीं होने दूँगी।

दिन सुरेश के धर्मगुरु उसी शहर में थे और उनके प्रवचन हो रहे थे। सुरेश भी समय निकालकर वहाँ गया और उन्हें सुना। सुरेश गुरुजी को दिल से मानता था। आज जिस बात पर गुरुजी बोल रहे थे वह था अहंकार। आदमी के जीवन में अहंकार कितने रोड़े खड़े करता है। किस तरह से प्रताड़ित करता है। यह अहंकार आदमी को कुछ देता नहीं, उसे तोड़कर जरूर रख देता है। गुरुजी का एक-एक शब्द उसे लग रहा था कि सुरेश के लिए ही बोल रहे हों। क्योंकि इस समय वह काफी तनाव के दौर से गुजर रहा था।

" उसने अपने गुरुजी का ही कहा मानकर रिया को फोन लगाया। रिया ने तुरंत फोन उठाया मानो वह सुरेश के ही फोन का इंतजार कर रही थी। मन में आए खुशी के भावों को दबाते हुए बोली हेलो।"
एक प्रवचन सुनने में देरी हो जाने के कारण लगभग होटलें बंद हो चुकी थीं। उसने सोचा थोड़ा-बहुत खाना बनाना तो वह जानता है और घर पर सभी सामान रखा है। वह खुद बना लेगा। दिल में गुरुजी की बातें लेकर रवाना हुआ। रास्ते में उसे अपनी गलती का अहसास हुआ कि वाकई गलत तो वही है लेकिन रिया की कोई बात मानने को तैयार नहीं होता था। सुरेश घर पहुँचा।

किचन में जाकर खाना बनाना शुरू किया। सब्जी बनाते समय मसाले का आइडिया उसे नहीं लग रहा था। मन में विचार आया इस वक्त उसकी हेल्प रिया कर सकती है। लेकिन फोन लगाने को तैयार नहीं हुआ। उसने मन में विचार किया कि वह रिया को आखिर फोन क्यों नहीं लगा रहा है। कारण वही उसका ईगो, (अहंकार)। एक यही चीज आड़े आ रही है और गुरुजी की बातें उसके जेहन में फिर से आने लगी। उसने अपने गुरुजी का ही कहा मानकर रिया को फोन लगाया। रिया ने तुरंत फोन उठाया मानो वह सुरेश के ही फोन का इंतजार कर रही थी। मन में आए खुशी के भावों को दबाते हुए बोली हेलो।

सुरेश की हिम्मत सीधे उससे सॉरी बोलने की तो नहीं हुई। बोला रिया, मैं सेंव की सब्जी बना रहा था लेकिन मसाले के लिए तुम्हारी हेल्प की जरूरत थी। क्या तुम मुझे बता सकती हो। रिया भी सभी चीजें उसे बताती गई। अंत में सुरेश ने एक दो अनौपचारिक बातों के बाद फोन रख दिया। खाना खाकर सोने गया। उसे ध्यान आया ‍कि जब से रिया गई है अब उसकी महिला दोस्तों के फोन तक आना बंद हो गए। उसे अहसास हुआ कि आखिर तक कोई साथ देगी तो वह है उसकी पत्नी रिया और कोई नहीं।

सुबह उठकर उसने बॉस को छुट्‍टी के लिए फोन लगाया और रिया को लेने उसके घर की गाड़ी पकड़ी। घर पर उसे देखते ही रिया और उसके माता-पिता बहुत खुश हुए। रिया को समझते देर नहीं लगी कि सुरेश को अपनी गलती का अहसास हो चुका था और फौरन उसके साथ आने की तैयारी करने लगी। लौटकर जब उनका वकील मिला तो उसने तलाक की फीस से ज्यादा फीस उनका साथ बनाए रखने की ली और रिया और सुरेश ने सहर्ष दे भी दी। आखिर उसने सच्चे दोस्त की भूमिका निभाई थी।

सृष्टि की सबसे अनुपम कृति है मानव

शिव शक्ति मंदिर में पण्डित भोलानाथ ने प्रवचनों में कहा कि मनुष्य जीवन इस सृष्टि की सबसे अनुपम कृति है। अत:मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को सुधारने के लिए अच्छे कर्म करने के साथ-साथ रामनाम का जाप करे।

राम नाम का जाप करने से जहां मनुष्य का मन शुद्ध होता है। वहीं मनुष्य इससे परोपकारी भी हो जाता है। उन्होंने कहा कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपनी इच्छाओं को त्याग कर दूसरों के भले ही सोचे और अपने मन को स्थिर करे। इस प्रकार सत्कर्म करने का फल उसे अवश्य मिलेगा और उसका जीवन व्यर्थ नहीं जाएगा।

उन्होंने कहा कि मनुष्य द्वारा श्रेष्ठ लक्ष्य की प्राप्ति में अनेक बाधाएं आना स्वाभाविक है, परन्तु मनुष्य अध्यात्म के बल पर सभी बाधाओं को आसानी से पार कर लेता हैं। अध्यात्म की शक्ति मनुष्य को प्रेरणा देती है कि वह कर्म फल की प्राप्ति के लिए आत्म समर्पण कर दे। साधना करने के परिणाम काफी सुखद होते हैं। हालांकि प्रारंभ में साधना करते हुए मनुष्य को कुछ परेशानियों का सामना करना पडता है परंतु आखिरकार इसके परिणाम काफी सुखद होते हैं। उन्होंने कहा कि धर्म जीवन का अभिन्न अंग है और धर्म के सेवन से ही प्रकृति में परिवर्तन आता है और मनुष्य के जीवन में आध्यात्मिक ऊर्ज का आविर्भाव होता है। ईश्वर की उपासना समर्पण भाव से की जानी चाहिए और मनुष्य को चाहिए कि वह अपने अंदर के रोग-द्वेष को अपने विवेक की कैंची से काट डाले तभी कल्याण का मार्ग प्रशस्त होगा। इसके लिए मानव को इंद्रियों पर काबू पाना सीखना चाहिए।

भगवान श्रीकृष्ण ने इंद्रियों का संचालन करना मानव को सिखाया है। इंद्रियों का संचालन ही हृदय का गोकुल है। उन्होंने कहा कि भोजन थाली में होगा तो पेट में भी होगा और अगर थाली ही खाली हो तो पेट भरने की आश छोड देनी चाहिए। कुछ लोग मूर्ति पूजा में विश्वास नहीं रखते, लेकिन इस पूजा से ही अंदर की पूजा तक पहुंचा जा सकता है।

उन्होंने कहा कि अंदर की पूजा को जानने से पहले यानी भगवान को जानने के लिए अंदर की पूजा से पहले बाहर की पूजा बहुत जरूरी है। आंखें जो बाहर देखती हैं उसी का ध्यान अंदर करती हैं। इसी प्रकार से कान बाहर से सुनकर उसका अंदर चिंतन करते हैं इसलिए पूजा की जोत की ज्वाला शरीर के बाहर तक ही नहीं बल्कि अंदर तक भी जानी बहुत जरूरी है।

नन्दगोपसुतं देवि पतिं में कुरू ते नम:

वृंदावन। भगवान् श्रीकृष्ण की लीलास्थलीवृंदावन के प्राचीन कात्यायनी शक्तिपीठ परिसर के कण-कण में आध्यात्मिकता ऐसे रची बसी हुई है कि मानो यह स्थान इस धरा में नहीं बल्कि किसी दूसरे ही लोक में अवस्थितहो।

नगर की भीड-भाड से अलग यमुना नदी से कुछ ही दूरी पर एकांत राधाबागक्षेत्र में स्थित इस परिसर में प्रवेश करते ही दुनिया की आपाधापी और चिल्लम-पौंसे तो निजात मिलती ही है, साथ ही ऐसी अनुभूति भी होने लगती है कि मानो देवी कात्यायनी यहां साक्षात विराजमान होकर श्रद्धालुओं को उनके कुशलक्षेम की रक्षा करने का वरदान दे रही हो। शोरगुल से दूर यहां पूरी नीरवताछाई रहती है। केवल मंदिर की घंटियोंकी ध्वनि और श्रद्धालुओं के सुमधुर भजन गायन की मनमोहकगूंज वातावरण के सन्नाटे को चुनौती देती प्रतीनहोती है।

सामान्य धारणा यह है कि देवी के शक्तिपीठों की संख्या 51ही है लेकिन यहां के धर्माचार्योने बताया कि कुल शक्तिपीठों की संख्या तो 108है लेकिन अभी तक ज्ञात 51ही हैं।

धर्मशास्त्रों के अनुसार देवी सती ने जब अपने पिता दक्ष प्रजापति के घर में स्वयं को योगाग्निमें भस्म कर डाला था तो क्रुद्ध होकर भगवान् शंकर देवी की मृत देह को लेकर भूमंडल में विचरने लगे। भगवान के इतने उग्र रूप से समूचे लोक में सृष्टि के विनाश का खतरा उत्पन्न हो गया। तब जगत कल्याण के लिए भगवान श्रीविष्णुने अपने चक्र से देवी सती के शरीर को विखंडित किया। इस दौरान देवी के विभिन्न अंग 108स्थानों पर गिरे और इन्हीं स्थानों पर अब शक्तिपीठ हैं। बाकी 57शक्तिपीठ अभी भी अज्ञात हैं।

गोपियों ने भगवान् श्रीकृष्ण को पति रूप में प्राप्त करने के लिए कात्यायनी मंदिर में पूजा की थी लेकिन कालांतर में यह पीठ लुप्त हो गई थी। सन 1923में स्वामी श्री केशवानंदजीने इस लुप्त शक्तिपीठ का पता लगाकर इसका पुनरूद्धारकराया। तभी से इसकी नित नई-नई महिमा उद्घाटित होती जा रही है। वृंदावन के इस स्थान पर देवी सती के केश गिरे थे। आर्यशास्त्र,ब्रह्मवैवर्तपुराण, आद्या स्त्रोत आदि में इसका उल्लेख है। व्रजेकात्यायनी परा अर्थात वृंदावन स्थित पीठ में ब्रह्मशक्तिमहामाया श्री माता कात्यायनी के नाम से प्रसिद्ध है।

30 जून 2010

लोक परंपराओं का शास्त्र

हिन्द स्वराज भारतीय संस्कृति की आत्मा ('स्व') को समकालीन परिस्थिति के शरीर (संरचना) में संप्रभु (राज करने वाली स्वायत्ता शक्ति) के रूप में स्थापित करने का मंत्र (रणनीतिक सिध्दांत) है।

भारतीय सभ्यता सनातन परंपरा का एक ऐतिहासिक रूप है। विविधाता इसका स्थायी स्वरूप या भाव है। यहाँ एकरूपता या एकरसता का भाव अस्वाभाविक, अप्राकृतिक एवं कृत्रिम माना जाता रहा है। भारतीय सभ्यता की व्याख्या या विश्लेषण्ा के लिए कम से कम नौ प्रकार के दर्शनों (पूर्व मीमांसा, सांख्य, वैशेषिक, न्याय, योग एवं उत्तर मीमांसा (वेदांत) जैसे वैदिक, बौध्द एवं जैन जैसे श्रमणिक एवं लोकायत जैसे प्राकृतिक अनुभववादी) की सहायता ली जाती रही है। मनुष्य, प्रकृति एवं ब्रह्माण्डीय शक्ति के लीलात्मक संबंधों के शिवत्व, सत्य एवं सौन्दर्य की थाह पाने के लिए नौ प्रकार के भाव या रस (शांत, करूण, वात्सल्य, श्रृंगार, वीर, रौद्र, अद्भूत, जुगुप्सा, वीभत्स) की अवधारणा विकसित की गई है। प्रकृति एवं संस्कृति के द्वन्दात्मक संबंधों के विभिन्न सोपानों को ऋतु-चक्र परिवर्तन (वसंत, ग्रीष्म, वर्षा, शरत्, हेमंत, पतझड़ (शिशिर)) को अभिव्यक्ति दी गई। मनुष्य के स्वभाव को समझने के लिए चार वर्णों (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) की अवधारणा विकसित की गई। हर व्यक्ति के जीवन में चार पुरूषार्थों (धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष) की प्राप्ति सहजता से हो सके इसके लिए चार आश्रमों (ब्रह्मचर्य, गार्हस्थ्य या गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास) की व्यवस्था की गई। चार आश्रमों के अंतगर्त सोलह संस्कारों (गर्भाधान, पुंसवन, सीमंतोन्न्यन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूड़ाकरण, कर्णभेद, विद्यारंभ, उपनयन, वेदारंभ, केशान्त, समावर्तन, विवाह, अंत्येष्टि) की विधिा विकसित की गई। जो लोग वैकल्पिक माधयम से जीवन जीना चाहते हैं उनके लिए श्रमण एवं प्राकृतिक अनुभववादी रास्ते सुलभ रहे हैं। तीनों रास्तों से वैवाहिक जीवन शुरू किया जा सकता है अत: 8 प्रकार के विवाह (ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य, आसुर, गंधार्व, राक्षस, पिशाच) व्यवस्था की गई है। विवाह का मूल उद्देश्य सृजन (संतान प्राप्ति/ संतानोप्राप्ति) एवं पितृऋण से छुटकारा पाना रहा है भारतीय संस्कृति का क्रेंद्र सूर्य है। प्रकाश-पुंज सूर्य की किरणों में सात रंग (बैंगनी, नीला, आसमानी, हरा, पीला, नारंगी, लाल) हैं। इन विविधाताओं के बीच व्यवस्था की कम से कम चार वैकल्पिक (समानांतर) पध्दतियाँ फलती-फूलती रही हैं - संप्रदायों एवं पंथों की धार्मिक पध्दति, जातियों की सामाजिक पध्दति, कुटुम्बों की नातेदारी पध्दति एवं राज्यों की राजनैतिक पध्दति। ये चारो व्यवस्थायें एक-दूसरे की पूरक रही हैं। इनके अधिाकार एवंर् कत्तव्य की सीमाएं संस्थाबध्द रहीं हैं।

भारतीय सभ्यता में विचारधारा के तार्किक आग्रह की तुलना में आस्था एवं आस्तिकता का महत्तव ज्यादा रहा है। किसी एक लक्ष्य के लिए विविधाता धारण करने वाले संप्रदायों, जातियों, समूहों में समन्वय स्थापित करने की कोशिश करने के बदले एक-दूसरे के स्वतंत्र अस्तित्व को स्वीकारते हुए, एक-दूसरे की समस्याओं को समझते हुए, सभ्यता-मूलक एकता को संवर्धित करने की ओर ज्यादा जोर रहा है।
भारतीय सभ्यता में एकात्मता की तुलना में तादात्म्यता पर ज्यादा जोर रहा है। भूतकाल के वैभव की स्मृति के महत्तव को स्वीकारने के बावजूद वर्तमान में आस्था रखना और वर्तमान में भविष्य केन्द्रित पुरूषार्थ करने पर ज्यादा जोर रहा है। सनातन जीवन दृष्टि एवं धर्म में सतत अधययन, मनन, चिन्तन, अभ्यास, अनुभूति, साधाना, भक्ति एवं यज्ञ का महत्तव वर्तमान में आस्था का अकाटय प्रमाण है।
भारत के अंतर्गत रह रहे करीब 80 करोड़ सनातन धर्म के विभिन्न रूपों के अनुयायियों की अपनी-अपनी आस्थायें हैं। इन 80 करोड़ लोगों को किसी एक संगठन से जोड़ने का हर प्रयास अब तक असफल रहा है। भारतीय सभ्यता की विभिन्न इकाईयों में संस्कृति और सांस्कृतिक अवस्थाओं का स्वरूप तरल, लचीली, विस्तृत तथा गहरी अनुभूतियों के स्तर पर समझा एवं समझाया जाता रहा है। समझने एवं समझाने का सबसे प्रमुख माधयम, किसी व्यक्ति के जीवन का जीता जागता उदाहरण रहा है, किताबी अवधारणायें या पुरातात्तिवक तत्व चिन्तन नहीं। संस्कृति नदी के जल और उसके बहाव जैसी चीज मानी जाती है और अवधारणायें इस चीज की अभिव्यक्ति न होकर इसकी ओर संकेत करने वाले प्रतीक या इस नदी के जल के ऊपर चलने वाली नाव जैसी चीज मानी जाती रही है।

पश्चिमी मानस में रसे-बसे-प्रशिक्षित विद्वानों एवं व्यक्तियों के लिए सनातन भारतीय सभ्यता एवं इसकी परंपराओं को समझना सदैव काफी मुश्किल रहा है। उस वक्त भी था जब स्वामी रामकृष्ण परमहंस अपना प्रवचन कर रहे थे और उस वक्त भी जब महात्मा गांधी हिन्द स्वराज लिख रहे थे। आज भी स्थिति करीब-करीब वैसी ही है।
एक व्यक्ति के रूप में संस्कृति को जीना एक बात है। हर प्रतिबध्दता के बावजूद एक व्यक्ति संस्कृति को उपभोक्ता के रूप में ही जीता है और संस्कृति के विभिन्न रूपों को एक स्वाभाविक स्थिति के रूप में ही स्वीकारता है। इस प्रक्रिया में एक निष्क्रियता है। आम आदमी मूलत: एक व्यक्ति के रूप में ही या एक परिवार के रूप में ही तात्कालिक परिस्थिति को स्वाभाविक स्थिति मानकर जीता है। लेकिन वह उसके बहुआयामी स्वरूपों, निहितार्थों, फलितार्थों को भी समझता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। यह काम विशेषज्ञों का है।
हर संस्कृति की अपनी समस्यायें होती हैं और उन समस्याओं के समाधान के लिए हर संस्कृति के अपने विशेषज्ञ होते हैं। परंतु विशेषज्ञों और गैर विशेषज्ञों के बीच हर संस्कृति में एक जैसा संबंधा नहीं होता। उदाहरण के लिए, भारतीय संस्कृति में पारंपरिक रूप से विशेष ज्ञान या विशेष अनुभव रखने वाले किसी भी व्यक्ति या परिवार को विशेषज्ञ कहा जाता रहा है। परंतु पश्चिमी समाजों की तरह भारतीय समाज में विशेषज्ञों का कभी अलग वर्ग और गैर विशेषज्ञों का कोई अलग वर्ग नहीं रहा है। हमारे यहाँ हर व्यक्ति, परिवार, जाति एवं संप्रदाय का लक्ष्य किसी-न-किसी प्रकार की विशेष अनुभूति या विशेष ज्ञान या विशेष दक्षता (कुशलता) प्राप्त करना रहा है। इस प्रकार के विशेष ज्ञान, अनुभूति या दक्षता प्राप्ति के सामान्यतया तीन स्रोत रहे हैं (1) शास्त्रीय प्रशिक्षण (2) लौकिक प्रशिक्षण (3) व्यक्तिगत साधाना, तपस, अभ्यास। लेकिन सामान्यतया एक ही परिवार में तीनों तरह से विशेषज्ञता प्राप्त की जाती रही है। इन्हें क्रमश: मार्ग कहा जाता है (ज्ञान मार्ग, कर्म मार्ग, भक्ति मार्ग)।
उसी तरह हर राज्य, साम्राज्य एवं राजनैतिक व्यवस्था को बनाने, चलाने एवं विस्तारित करने के लिए अपने विशेषज्ञ होते हैं। करीब-करीब हर राज्य, सामा्रज्य एवं व्यवस्था के विशेषज्ञों का धीरे-धीरे एक वर्ग (प्रभु वर्ग) बन जाता है जो आम आदमियों की तुलना में ज्यादा साधान एवं अधिाकार संपन्न होते हैं। संस्कृति में एक प्रकार की लोकतांत्रिकता या सहभागिकता होती है जिसकी जगह राज्य इत्यादि में अधिाकारर्-कत्ताव्य में गैर-बराबरी किसी-न-किसी तरह आ ही जाती है। प्रभु वर्ग की विशेषज्ञता हर राज्य व्यवस्था के लिए सामान्यत: आवश्यक समझी जाती है।
गुलामी के लंबे दौर में भारतीय संस्कृति को तो आम आदमियों ने व्यक्ति, परिवार, जातियों एवं संप्रदायों के स्तर पर कुछ हद तक बचाये रखा लेकिन इस संस्कृति के विशेषज्ञों और उनको पोषित करनेवाली संस्थाओं को नहीं बचाया जा सका। इनके गुरूकुल नष्ट कर दिये गये। उनके विशेषज्ञों को या तो मार दिया गया या उनकी संस्थायें बर्बाद कर दी गई या उन्हें इतना लांछित किया गया कि उन लोगों ने अपने आप धीरे-धीरे स्वधर्म निभाना छोड़ दिया। फिर उनको लोभ-लालच देकर दूसरे कामों में लगा दिया गया; या, भारतीय संस्कृति को विरूपित और विखंडित करके विधार्मी साम्राज्य को पोषित करने वाली गतिविधिायाँ चलाने का ''प्रोजेक्ट'' दे दिया गया। इस प्रोजेक्ट का दिशा-निर्देश, गति, निहितार्थ, फलितार्थ आदि साम्राज्य के विशेषज्ञों द्वारा पहले से तय कर दिये जाते थे। विधार्मी साम्राज्य बनते-बिगड़ते रहे। राज्य और इसके संसाधानों पर कब्जा करने के लिए केवल सैनिकों और सेनापतियों की आवश्यकता नहीं पड़ती, बुध्दिजीवियों और कलाकारों की भी आवश्यकता पड़ती है।
कोई भी साम्राज्यवादी सामान्यतया किसी देश पर विजय प्राप्त करने के उपरांत उस देश के निवासियों और उनकी संस्कृति को पूरी तरह नष्ट नहीं करना चाहता। हर साम्राज्य को अपनी सुविधा एवं अपने लाभ के लिए गुलाम चाहिए, कुशल कारिंदे चाहिए, देशी परिस्थितियों में साम्राज्य के अनुकूल इंफ्रास्ट्रक्चर एवं संस्थायें चाहिए। इनके विकास में बहुत समय, श्रम और साधान लगता है। अत: साम्राज्य के रणनीतिकार अक्सर देशी परिस्थिति को अनुकूल बनाना, उस देश की संस्थाओं एवं विशेषज्ञों को नष्ट करने से बेहतर मानते हैं और केवल अपनी प्रभुता बनाये रखना चाहते हैं। स्पेन वालों ने कोलंबस द्वारा अमेरिका खोजने के बाद वहाँ के मूल निवासियों और वहाँ की संस्कृतियों के साथ जो किया वह एक तरह का अतिवाद था जिसकी जड़े धार्मान्धाता में थी, साम्राज्यवाद में नहीं। अधिाकांश साम्राज्यवादी मूलत: दो काम करते हैं (1) उस देश के कानून को अपने देश के कानून के अनुकूल बनाते हैं और (2) उस देश की व्यवस्था एवं सभ्यतामूलक संस्थाओं को पोषित करने वाली, विशेष को पैदा करने वाली शास्त्रीय प्रणाली को तोड़ देते हैं। अन्य चीजों को नये साम्राज्य के फ्रेमवक से जोड़कर विरूपित कर दिया जाता है। इस दृष्टि से अंग्रेजों ने मैकॉले की शिक्षा नीति के तहत अपनी साम्राज्यवादी नीतियों को सूत्रबध्द किया। इसके तहत भारत की शास्त्रीय प्रणाली को इसके जीवंत स्रोतों से काट कर सुखा दिया गया। देश की परंपराओं, रीति-रिवाजों, कानूनों को अप्रासंगिक बना दिया गया और इनके स्थान पर अंग्रेजी साम्राज्य को पोषित करने वाले, तथाकथित आधुनिक कानून एवं आधुनिक शास्त्रीय प्रणालियाँ लाद दी गई। भारत के देशी विशेषज्ञों को संरक्षण एवं प्रोत्साहन देने की बजाय, उनके खिलाफ तरह-तरह के कुतर्क रचकर हर तरह की गड़बड़ी, कुरीतियाँ, असहिष्णुता एवं जलालत के लिए जिम्मेदार ठहराया गया और लांछित किया गया। दूसरी ओर, भारतीय परंपरा एवं शास्त्रीय प्रणाली के यूरोपीय विशेषज्ञ (इंडोलॉजिस्ट एवं ओरिएन्टैलिस्ट) तैयार किए गए जिन्होंने कुछ तो नासमझी बस और बहुत कुछ साम्राज्यवादी साजिश के तहत एक जीती-जागती सनातनी सभ्यता को एक ऐतिहासिक एवं पुरातात्तिवक खिलौने की तरह पेश किया। अंग्रेजों द्वारा प्रायोजित एवं आधुनिक पश्चिमी दृष्टि से प्रस्तुत इस भारतीय सभ्यता की सुन्दरता और सम्पूर्णता पर गर्व तो किया जा सकता था परंतु यहर् वत्तमान या भविष्य में एक स्वस्थ, समृध्द एवं संतोषप्रद सामाजिक जीवन की आधारशिला नहीं बन सकती थी। अंग्रेजों के आने तक देश में जितने भी पारंपरिक शास्त्र एवं ग्रंथ भोजपत्र, ताड़-पत्र, ताम्र-पत्र, या अन्य माधयमों में संप्रेषित थे उनका संग्रह एवं संपादन करने का साम्राज्यवादी उत्साह रंग लाया। आज जितने भी ग्रंथ एवं शास्त्र पुस्तकालयों या बाजारों में मिलते हैं उनके संस्करण या तो अंग्रेजी राज द्वारा तैयार कराये गये या अन्य यूरोपीय संस्थाओं द्वारा तैयार कराये गये हैं। उस वक्त के देशी रियासतों द्वारा तैयार किये गये संस्करण भी यूरोपीय विद्वानों द्वारा या यूरोपीय मानकों पर यूरोपीय पध्दति द्वारा तैयार किये गये। फलस्वरूप, जब भारतीय लोगों में अपनी परंपराओं को एवं शास्त्रीय पध्दतियों को जानने की आवश्यकता महसूस की जाने लगी तो गैर-यूरोपीय स्रोतों का अकाल दिखने लगा।
परंतु हमारे सौभाग्य से सनातन सभ्यता के भारतीय स्वरूप को गैर-यूरोपीय स्रोतों से समझना अब भी संभव है। शास्त्रीय परंपरा से हमारा जीवंत संबंधा भले ही टूट गया है परंतु लोक परंपरा में जीवंत स्रोत अब भी बचे हुए हैं। सामी (सेमेटीक) परंपरा में दीक्षित होने के कारण अंग्रेज साम्राज्यवादियों ने अंग्रेजी राज के दौरान लोक परंपरा को निरीह और अशक्त समझकर अपने भरोसे जीने मरने के लिए छोड़ दिया था। उन्होनें अपनी पृष्ठभूमि के कारण भारत की लोक परंपरा की शक्ति को कम करके आंका। उन्हें केवल संस्कृत भाषा में लिखित और ब्राह्मणों द्वारा संरक्षित शास्त्रीय ज्ञान से खतरा लगा जबकि वाचिक परंपरा और लोक भाषाओं में उपस्थित लोकशास्त्रों की वे ठीक से पहचान नहीं कर सके। उन्होंने दर्शन, गणित और धर्मशास्त्रों को अपना निशाना बनाया। परंतु साहित्य, कला एवं लोक में व्याप्त पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान, तकनीक, विधिायों एवं रीतियों को या तो समझ नहीं पाये या इनके निहितार्थ एवं फलितार्थों के महत्तव का आकलन नहीं कर पाये। वे इन्हें मनोरंजन के साधान एवं कौतूहल की वस्तु मानते रहे। सामान्यतया इनके प्रति अंग्रेजों की नीति सामान्यत: उदासीनता की रही परंतु कई बार मनोरंजन के साधान एवं सांस्कृतिक विविधाता के साधान के रूप में उन्होंने इनको प्रोत्साहन एवं संरक्षण भी दिया। वे समझ नहीं पाये कि पश्चिमी सामी सभ्यता के विपरीत भारतीय सभ्यता के केन्द्र में गणित, यांत्रिकी एवं धर्मशास्त्र की यूरोपीय अवधारणाओं से ज्यादा महत्तवपूर्ण मिथक, साहित्य, कला एवं संगीत की गुणात्मक रूप से अलग, सनातनी अवधारणाएँ रही हैं। यह आकस्मिक नहीं है कि महात्मा गांधी को प्रभावित करने वाले जॉन रस्किन मूलत: कला समीक्षक एवं कला-इतिहासकार थे और आनन्द कुमारस्वामी खुद ही कला समीक्षक एवं कला-इतिहासकार बन गये थे। भारत में विज्ञान एवं तकनीक की लोक-साधाना कला के रूप में ही हुई है और संसार को लीला (नाटक) माना जाता रहा है। भारत में जब भी बड़ा सामाजिक परिवर्तन हुआ है तो उसका मानक एवं वाहक मिथकों एवं महाकाव्यों के रूपांतरण को माधयम बनाकर हुआ है।
हर व्यक्ति अपनी समझ से ही विरोधियों को झुकाता, तोड़ता या लाचार बनाता है। विरोधियों की समझ और सभ्यता को समझकर बहुत कम तोड़ता-फोड़ता है। विजेताओं के अहंकार से की गई हत्या सामान्यत: सम्पूर्ण सभ्यता की हत्या नहीं होती। ठीक उसी तरह लोक साहित्य, लोक कलायें, लोक के रीति-रिवाज, कहावतें, मुहावरों एवं लोक धर्म की सांप्रदायिक परंपरायें अंग्रेजी राज में भी अक्षुण्ण रह गईं। परंपराओं को समझने का यह सूत्र भारत के आम जन को तो मालूम है हीं चीन, रूस और यूरोप के गैर आधुनिक मनीषियों को भी मालूम रहा है। उदाहरण के लिए रस्किन, टाल्सटाय, विलियम मॉरिस, रेने गुयेनो, लुई रेनेयू, जोसेफ कैम्पबेल, कार्ल जुंग, आनन्द कुमारस्वामी, मार्को पैलिस और कनफ्युशियस के समकालीन अनुयायियों जैसे माओत्से तुंग आदि लोगों को भी मालूम रहा है। गांधीजी के हिन्द स्वराज के स्रोत ऐसी ही लोक परंपरायें रही हैं। हिन्द स्वराज का उद्देश्य देशी विशेषज्ञों की एक स्वराजी जमात पैदा करके सनातनी सभ्यता को पोषित करने वाली प्रणाली विकसित करना रहा है।

आज के भारत में उपरोक्त पारंपरिक अवधारणाओं, इसकी शब्दावलियों और इसके ऐतिहासिक रूपों को पुनर्जीवित करने की न तो कोई संभावना बची है और न इसकी कोई आवश्यकता ही है। समकालीन समस्याओं के समाधान के लिए की जाने वाली किसी भी गंभीर और प्रतिबध्द कोशिश में इनसे प्रेरणा अवश्य ली जा सकती है। इनका पुनर्नवीनीकरण (रिमेनीफेस्टेशन) तो अवश्य हो सकता है लेकिन वह भी एक दिन में या एक साल में नहीं। इसमें समय लगता है। पीढ़ियां लगती हैं। यह भारत का सौभाग्य है कि स्वामी रामकृष्ण परंमहंस, महात्मा गांधी, आनन्द कुमारस्वामी, डा0 भीमराव अंबेडकर आदि के प्रयासों से उन्नीसवीं सदी के उत्तारार्धा से इस पुनर्नवीनीकरण की प्रक्रिया चल पड़ी है। अब यह रंग लाने लगी है। संभव है कि पाँच-दस सालों में सनातन संस्कृति को पोषित करने वाली संस्थाएं और इन संस्थाओं को पोषित करने वाले विशेषज्ञ सामने आयें। हिन्द स्वराज में महात्मा गांधी का उद्देश्य पारंपरिक मूल्यों, संस्थाओं और पध्दतियों को युगानुकूल भाषा में अभिव्यक्त कर इनके पुनर्नवीनीकरण की प्रक्रिया को संबल देना था।
हिन्द स्वराज लिखने के पीछे महात्मा गांधी का मूल उद्देश्य अंग्रेजी राज या आधुनिक व्यवस्था के भीतर ऐसी ही संस्थाओं और विशेषज्ञों के स्वभाविक विकास के लिए सभ्यतामूलक विमर्श का निर्माण करना था। आज भी सनातन जीवन मूल्यों के प्रति प्रतिबध्द लोगों की दृष्टि से हिन्द स्वराज ऐसी एकमात्र समकालीन पुस्तिका है जिससे संप्रदाय निरपेक्ष, सभ्यतामूलक विमर्श बनाने की प्रेरणा और मार्गदर्शन प्राप्त हो सकता है। इसे भारतीय संस्कृति के संप्रदाय निरपेक्ष सभ्यतामूलक स्वरूप से परिचय कराने वाली प्रारंभिक पुस्तिका के रूप में भी नई पीढ़ी को दिया जा सकता है। एक भारतीय व्यक्ति को गांधीजी का हिन्द स्वराज एक सनातनी व्यक्ति के रूप में अपने समय और समकालीन चुनौतियों का न सिर्फ सामना करने का आत्मबल देता है बल्कि 'सत्यम, शिवम, सुन्दरम' को सफलता का मानदंड मानते हुए परम वैभव की प्राप्ति के लिए प्रेरित भी करता है।

29 जून 2010

महाभारत - भीम नागलोक में

पाँचों पाण्डव - युधिष्ठिर, भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव - पितामह भीष्म तथा विदुर की छत्रछाया में बड़े होने लगे। उन पाँचों में भीम सर्वाधिक शक्तिशाली थे। वे दस-बीस बालकों को सहज में ही गिरा देते थे। दुर्योधन वैसे तो पाँचों पाण्डवों ईर्ष्या करता था किन्तु भीम के इस बल को देख कर उससे बहुत अधिक जलता था। वह भीमसेन को किसी प्रकार मार डालने का उपाय सोचने लगा। इसके लिये उसने एक दिन युधिष्ठिर के समक्ष गंगा तट पर स्नान, भोजन तथा क्रीड़ा करने का प्रस्ताव रखा जिसे युधिष्ठिर ने सहर्ष स्वीकार कर लिया।
गंगा के तट पर दुर्योधन ने विविध प्रकार के व्यंजन तैयार करवाये। स्नानादि के पश्चात् जब सभी ने भोजन किया तो अवसर पाकर दुर्योधन ने भीम को विषयुक्त भोजन खिला दिया। भोजन के पश्चात् सब बालक वहीं सो गये। भीम को विष के प्रभाव से मूर्छा आ गई। मूर्छित हुये भीम को दुर्योधन ने गंगा में डुबा दिया। मूर्छित अवस्था में ही भीम डूबते-उतराते नागलोक में पहुँच गये। वहाँ पर उन्हें भयंकर विषधर नाग डसने लगे तथा विषधरों के विष के प्रभाव से भीम के शरीर के भीतर का विष नष्ट हो गया और वे सचेतावस्था में आ गये। चेतना लौट आने पर उन्हों ने नागों को मारना आरम्भ कर दिया और एक के पश्चात् एक नाग मरने लगे।

भीम के इस विनाश लीला को देख कर कुछ नाग भागकर अपने राजा वासुकि के पास पहुँचे और उन्हें समस्त घटना से अवगत कराया। नागराज वासुकि अपने मन्त्री आर्यक के साथ भीम के पास आये। आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया और उनका परिचय राजा वासुकि को दिया। वासुकि नाग ने भीम को अपना अतिथि बना लिया। नागलोक में आठ ऐसे कुण्ड थे जिनके जल को पीने से मनुष्य के शरीर में हजारों हाथियों का बल प्राप्त हो जाता था। नागराज वासुकि ने भीम को उपहार में उन आठों कुण्डों का जल पिला दिया। कुण्डो के जल पी लेने के बाद भीम गहन निद्रा में चले गये। आठवें दिन जब उनकी निद्रा टूटी तो उनके शरीर में हजारों हाथियों का बल आ चुका था। भीम के विदा माँगने पर नागराज वासुकी ने उन्हें उनकी वाटिका में पहुँचा दिया।

उधर सो कर उठने के बाद जब पाण्डवों ने भीम को नहीं देखा तो उनकी खोज करने लगे और उनके न मिलने पर राजमहल में लौट गये। भीम के इस प्रकार गायब होने से माता कुन्ती अत्यन्त व्याकुल हुईं। वे विदुर से बोलीं, "हे आर्य! दुर्योधन मेरे पुत्रों से और विशेषतः भीम से अत्यन्त ईर्ष्या करता है। कहीं ऐसा तो नहीं है कि उसने भीम को मृत्युलोक में पहुँचा दिया?" उत्तर में विदुर ने कहा, "हे देवि! आप चिन्तित मत होइये। भीम की जन्मकुण्डली के अनुसार वह दीर्घायु है तथा उसे अल्पायु में कोई भी नहीं मार सकता। वह अवश्य लौट कर आयेगा।" इस प्रकार हजारों हाथियों का बल प्राप्त कर के भीम लौट आये।

27 जून 2010

देव नदी है गंगा

ज्येष्ठ शुक्ल दशमी (२१ जून) पावन गंगा नदी के पृथ्वी पर अवतरण का पवित्र दिन है। पृथ्वी पर वह पवित्र तीर्थ जहां गंगा उतरी, गंगोत्री धाम है। हिन्दू धर्म में गंगा को मोक्षदायिनी और पापनाशिनी माना गया है। इसके साथ ही प्रमुख ग्रंथों और पुराणों में गंगा नदी की पवित्रता और देवीय रुप की महिमा बताई गई है। जानते हैं पावन गंगा से जुड़ी कुछ पौराणिक बातों को -
- हिन्दू धर्म की सबसे प्रचलित धार्मिक मान्यताओं में पवित्र गंगा राजा सगर के 60 हजार पुत्रों के कपिल ऋषि के शाप से भस्म होने के बाद उनके मोक्ष के लिए राजा सगर के वंशज राजा भगीरथ के घोर तप के बाद हिमालय क्षेत्र में स्वर्ग से भू-लोक में उतरी।
- श्रीमद्भागवत की कथा अनुसार भूलोक के पापों का नाश करने के लिए विष्णु अवतार भगवान वामन के बाएं पैर के अंगूठे से गंगा प्रगट हुई।
- महाभारत में गंगा को श्रेष्ठ तीर्थ बताया गया है।
- पद्मपुराण में लिखा है कि गंगा जहां से प्रवाहित होती सभी पवित्र तीर्थ है, किंतु इनमें से गंगोत्री, प्रयाग और गंगासागर श्रेष्ठ हैं।
- पुराणों में लिखा है कि देव-दानवो द्वारा किए गए समुद्र मंथन से निकले विष से सृ़ष्टि को बचाने के लिए भगवान शिव ने वह विष पीकर अपने कंठ में भर लिया। जिससे वह नीलकंठ कहलाए। ऐसा माना जाता है कि इसी विष की दाह से शांति के लिए आज भी शिव पर गंगा जल चढ़ाने की पंरपरा है। इसी श्रद्धा और भक्ति के साथ रामेश्वरम में भगवान शिव पर गंगोत्री का जल चढ़ाया जाता है। इस परंपरा को आदि गुरु शंकराचार्य द्वारा शुरु किया गया था।

जानें बच्चों का स्वभाव

पसंदीदा कलर से जानें

बच्चे के फेवरेट रंग सिर्फ उसकी पसंद या नापसंद नहीं होते, ये उसकी पर्सनैलिटी के बारे में भी बताते हैं।

हर माता-पिता की ख्वाहिश होती है कि उनका बच्चा दुनिया का सबसे अच्छा, बच्चा हो, वो जहाँ भी जाए, लोगों की जबान पर उसकी तारीफ हो वो खूब नाम कमाए, कामयाबी के आसमान को छुंए, लेकिन क्या आप जानते हैं कि ये सब आपकी और बच्चे की कोशिशों पर तो निर्भर करता ही है, आपके बच्चे के पसंदीदा रंग पर भी निर्भर करता है, क्योंकि ये रंग उसकी पर्सनैलिटी के बारे में बहुत कुछ कहता हैं।

वाँयलेट - वाँयलेट यानी बैंगनी रंग पसंद करनेवाले बच्चे प्रोडब्टिव और आध्यात्मिक होते हैं। इन्हें दूसरों की हमेशा फिक्र रहती है। वाँयलेट रंग पसंद करनेवाले बच्चे हाजिरजवाब और नियमों के पके होते हैं। इन्हें ऐशो-आराम की जिंदगी पसंद होती है।

ब्लू - ब्लू रंग का चुनावर् इमानदारी, संतुलन और दूरदर्शिता दर्शाता है। अगर आपके बच्चे को ब्लू रंग पसंद है तो इसका मतलब है और अनुशासित भी। इनके पास विश्लेषण की अद्भुत क्षमता होती है और इन्हें हर बात का पूर्वाभास हो जाता है। क्योंकि इनका इंट्यूशन पावर गजब का होता है। ये बेहद संवेदनशील होते हैं और तनाव से बचना चाहते हैं।

ग्रीन - हरा रंग पसंद करनेवाले आदर्शवादी होते है। और नैतिक मूल्यों की अहमियत को समझते हैं। इन्हें संस्कारों व परपराओं से गहरा लगाव होता हैं। इन बच्चों को लोगों से मिलना-जुलना अच्छा लगता है, लेकिन ये इष्र्यालु और पवेसिव स्वभाव के होते हैं।

यलो - अगर आपके बच्चे को पीला रंग पसंद है, तो वह बुद्धिमान। भरोसेमंद और समझदार बच्चा है। ऐसे बच्चे क्रिएटिव होते हैं और इनकी कल्पनाओं में न जाने कितने रंग होते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे थोड़े रिर्जव यानी अंतर्मुखी स्वभाव के भी होते है।

आँरेज - आँरेज रंग से खास लगाव ये दर्शाता है कि आपका बच्चा महत्वकांशी, एनजेटिक और क्रिएटिव है, साथ ही, ये इस बात का भी सबूत है कि आपका बच्चा खूबसूरत पर्सनैलिटी का मालिक है और वो जहां भी जाएगा, सबके आर्कषण का केन्द्र बन जाएगा। लेकिन आँरेंज रंग पसंद करनेवाले बच्चे थोडे नर्वस और हमेशा बेचैन रहते हैं।

रेड - अगर आपके बच्चे का पसंदीदा रंग लाल है, तो वो बेहद एनर्जेटिक, उत्साही, धैर्यवान और दूरदर्शी है लेकिन ऐसे बच्चे बेहद भावुक होते है। और बहुत जल्दी गुस्से में आ जाते हैं। ये चाहे जहां जाएं, किसी भी आर्गनाइजेशन या पोजीशन में हों-ये हमेशा टाँप पर ही होते हैं।

सोने की पोजीशन से जानें

हर बच्चा अपने माता पिता की आखों का तारा होता हैं । यही वजह है कि अपने बच्चे की हर हरकत पर उनकी नजर रहती हैं । यदि आप भी जानना चाहती है कि आपके लाडले का स्वभाव कैसा होगा तो बस उसकी स्लीपिंग पोजीशन को गौर से देखें, क्योंकि स्लीपिंग पोजिशन से भी उनके स्वभाव का पता चलता है ।

पेट मे बल सोने वाला बच्चा
जो बच्चा ज्यादातर पेट के बल सोते हैं, वे समझदार और संतुलित स्वभाव के होते हैं, लेकिन ऐसे बच्चे थोडे संकर् विचारों के भी होते हैं । उनका अपना दायरा होता है,जिसके बाहर वो दूसरों का सुझाव सुनना पसंद नहीं करते, ऐसे बच्चे नियम के पक्के होते है ये जल्दी किसी से घुल मिल नहीं पाते है पर उनके ढेर सारे मित्र होते हैं और ये अपने दोस्तों में काफी लोकप्रिय होते है ।

करवट के बल सोने वाले बच्चे
जो बच्चे करवट के बल सोते हैं और जिनके घ्टने भी सीधे रहते है उनमें गजब का आत्मविश्वास रहता हैं, जिसके कारण सफलता उनके कदम चुमती है। ऐसे बच्चे मेहनती और अपने काम के प्रति समर्पित होते हैं अगर आपका बच्चा दाहिना हाथ सिर के नीचे रखकर दाहिना करवट सोता है तो समझिए उसके भाग्य का सितारा प्रबल है।

उकडं सोने वाले बच्चे
जो बच्चे अपने घुटनों को पेट में घुसाकर सोते हैं वे बेहद भावुक होते हैं। इनमें असुरक्षा की भावना रहती है।छोटी- छोटी बातें इन्हें दुखी कर देती है। ये बच्चे अपनी जरूरतों को ज्यादा अहमियत देते हैं, जिसके चलते कभी-कभी उनका स्वभाव उन्हें स्वार्थी बना देता है

एक पैर मोडकर सोने वाले बच्चे
जो बच्चे करवट के बल पर पैर मोडकर और एक पैर सीधा रखकर सोते है,ये अंतर्मुखी होने के साथ-साथ बुद्धिमान भी होते हैं। ये कम बोलते हैं। भावुकता इन्हें पसंद नहीं। ये बच्चे दिल की बजाए दिमाग से फैसला लेते हैं।

घुटनों को हल्का-सा मोडकर सोने वाला बच्चे
जो बच्चे घुटनों को मोंडकर सोते हैं,वे दिल के सच्चे और प्यार करने वाले होते हैं। ये स्वभाव से भावुक, नम्र और शांत स्वभाव के होते है ये कई बार कठोर निर्णय लेते हैं। कुल मिलाकर इनका दिल बहुत साफ होता हैं ।

हाथों को सिर के पीछे रखकर सोने वाले बच्चे
जो बच्चे अपने दोनों हाथों को सिर के नीचे रखकर सीधे सोते हैं, वे बहुत बुद्धिमान होते हैं। ऐसे बच्चे का स्वभाव बहुत दोस्ताना होता है। ये बच्चे उन लोगों को पंसद करते हैं,जो इनके स्वभाव से मेल खाते हैं,लेकिन प्यार के मामले में ये कुछ चुजी होते हैं ।

पैरों को क्रा“स करके सोने वाले बच्चे
जो बच्चे पैरो को क्राँस करके सीधे सोते हैं,वे स्वभाव से घमंडी और धुन के पक्के होते हैं। जीवन में ठहराव को पसंद करने वाले ये बच्चे परिवर्तन को बड़ी मुश्किल से अपनाते हैं। ऐसे बच्चे हमेशा अतीत में खोये रहते हैं, इसलिए इन्हें अकेले रहना पसंद होता हैं।

हाथों और पैरों को फैलाकर सीधे सोने वाले बच्चे
ऐसे बच्चे आजाद ख्याल के होते हैं। इन्हें बंधकर रहना पसंद नही। अपनी आजादी इन्हें बहुत पसंद है। ऐसे बच्चों को गँासिप करने में मजा आता है। इन्हें ऐशो -आराम पसंद होता है, जिसके चलते ये फिजूलखर्च भी होते हैं ।

ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (101-125) ( Knowledge of the ocean - precious promise (101-125)

101    उठो, जागो और लक्ष्य प्राप्ति होने तक मत रुको।
102    जिस तेजी से विज्ञान की प्रगति के साथ उपभोग की वस्तुएँ प्रचुर मात्रा में बनाना शुरू हो गयी हैं, वे मनुष्य के लिये पिंजरा बन रही हैं।
103    जिस व्यक्ति का मन चंचल रहता है, उसकी कार्यसिधि नहीं होती।
104    अपराध करने के बाद डर पैदा होता है और यही उसका दण्ड है।
105    अभागा वह है, जो कृतज्ञता को भूल जाता है।
106    पूर्वजों के गुणों का अनुसरण करना ही उन्हें सच्ची श्रद्धांजलि देना है।
107    वृद्धावस्था बीमारी नहीं, विधि का विधान है, इस दौरान सक्रिय रहें।
108    अतीत की स्म्रतिया और भविष्य की कल्पनाएँ मनुष्य को वर्तमान जीवन का सही आनंद नहीं लेने देतीं। वर्तमान में सही जीने के लिये आवश्य है अनुकूलता और प्रतिकूलता में सम रहना।
109    मानसिक शांति के लिये मन-शुद्धी, श्वास-शुद्धी एवं इन्द्रिय-शुद्धी का होना अति आवश्यक है।
110    अडिग रूप से चरित्रवान बनें, ताकि लोग आप पर हर परिस्थिति में विश्वास कर सकें।
111    जैसे एक अच्छा गीत तभी सम्भव है, जब संगीत व शब्द लयबद्ध हों; वैसे ही अच्छे नेतृत्व के लिये जरूरी है कि आपकी करनी एवं कथनी में अंतर न हो।
112    अपने व्यवहार में पारदर्शिता लाएं। अगर आप में कुछ कमियाँ भी हैं, तो उन्हें छिपाएं नहीं; क्योंकि कोई भी पूर्ण नहीं है, सिवाय एक ईश्वर के।
113    मनुष्य सफलता के पीछे मुख्यता उसकी सोच, शैली एवं जीने का नजरिया होता है।
114    गुण व कर्म से ही व्यक्ति स्वयं को ऊपर उठाता है। जैसे कमल कहाँ पैदा हुआ इसमें विशेषता नहीं, बल्कि इसमें है कि कीचड में रहकर भी उसने स्वयं को ऊपर उठाया है।
115    हमें अपने अभाव एवं स्वाभाव दोनों को ही ठीक करना चाहिए; क्योंकि ये दोनों ही उन्नति के रास्ते में बाधक होते हैं।
116    अगर हर आदमी अपना-अपना सुधर कर ले तो सारा संसार सुधर सकता है; क्योंकि एक-एक के जोड़ से ही संसार बनता है।
117    अपनों के लिये गोली सह सकते हैं, लेकिन बोली नहीं सह सकते। गोली का घाव भर जाता है, पर बोली का नहीं।
118    भगवान् से निराश कभी मत होना, संसार से आशा कभी मत करना; क्योंकि संसार स्वार्थी है। इसका नमूना तुम्हारा खुद शरीर है।
119    धन अच्छा सेवक भी है और बुरा मालिक भी।
120    जिसका मन-बुद्धि परमात्मा के प्रति वफादार है, उसे मन की शांति अवश्य मिलती ह।
121    राग-द्वेष की भावना अगर प्रेम, सदाचार और कर्त्तव्य को महत्व दें तो मन की सभी समस्याओं का समाधान हो सकता है।
122    कुमति व कुसंगति को छोड़ अगर सुमति व सुसंगति को बढाते जायेंगे तो एक दिन सुमार्ग को आप अवश्य पा लेंगे।
123    यह सच है कि सच्चाई को अपनाना बहुत अच्छी बात है, लेकिन किसी सच से दूसरे का नुक्सान होता हो तो ऐसा सच बोलते समय सौ बार सोच लेना चाहिए।
124    स्वर्ग व नरक कोई भौगोलिक श्तिति नहीं है, बल्कि एक मनोस्थिति है। जैसा सोचोगे, वैसा ही पाओगे।
125    पूरी तरह तैरने का नाम तीर्थ है। एक मात्र पानी में डूबकी लगाना ही तीर्थस्नान नहीं।