30 मार्च 2010

शान्ता का विशु


शान्ता बहुत उत्तेजित थी। उसकी माँ ने उसे इस शुभ समाचार के साथ जगाया कि वे गर्मी की छुट्टियों में केरल जा रहे हैं। तभी उसे याद आया कि मलयालियों का एक सबसे महत्वपूर्ण त्योहार विशु गर्मी की छुट्टियों के समय ही आता है। ‘‘मम्मी, क्या विशु के लिए हमलोग केरल में होंगे?'' उसने पूछा। उसकी माँ मुस्कुराती हुई बोली, ‘‘हाँ, इस बार विशु तुम्हारे दादा-दादी के साथ मनायेंगे।''

एक लम्बी रेलयात्रा के बाद वे केरल पहुँच गये। शान्ता खुशी के मारे पागल सी होती दौड़ कर दादी की भुजाओं में सिमट गई। ‘‘दादी माँ, विशु कब है?'' वह फूट पड़ी। दादा ने उत्तर दिया, ‘‘विशु कल है, लेकिन पहले अन्दर तो आओ!''

जब दादा ने फार्म के पुराने सेवक चिन्नन और कन्नन को बुला कर विशु कानी के लिए जरूरत की सभी चीजों को इकट्ठा करने के लिए कहा, तब शान्ता ने उनके साथ जाने की जिद की। वह चिन्नन के साथ उनके घरेलू उद्यान के अन्दर गई, जबकि कन्नन कहीं और चला गया। ‘‘वह अकेला किधर जा रहा है?'' उसने चिन्नन से पूछा।

‘‘वह शीघ्र ही हमलोगों के साथ शामिल हो जायेगा,'' चिन्नन ने इतना ही कहा।

रास्ते में उसने आम का पेड़ देखा जिस पर दादा ने उसके लिए पिछली छुट्टियों में झूला बाँध दिया था। पके हुए आम शाखाओं

से लटक रहे थे। चिन्नन ने दर्जन भर आम तोड़ कर अपनी बेंत की टोकरी में डाल दिया। शान्ता ने उन्हें सूंघा। मुम्बई के आमों से उनमें बेहतर खुशबू थी!

‘‘इसके बाद क्या?'' शान्ता ने चिन्नन से पूछा। ‘‘देखते रहो, चलो, आओ!'' उसने कहा।

शीघ्र ही वे काँटेदार बाड़े के निकट पहुँचे जिससे उनका उद्यान घिरा हुआ था। और देखो! एक आश्चर्य भरे दृश्य को देख वह विस्मित रह गई। वह अमलतास का एक ऊँचा शानदार पेड़ था जिसकी शाखाओं पर सुनहले पीले फूलों के गुच्छे लटक रहे थे। सूर्यास्त की रोशनी में खिले फूल सोने के चमकते सिक्कों के ढेर-से झलक रहे थे। इनसे कल भगवान की प्रतिमा सजायी जायेगी, चिन्नन ने समझाया। शान्ता ने उसे पेड़ पर चढ़ते और सावधानी से गुच्छों को तोड़ते हुए देखा। कन्नन ने फूलों को तोड़ कर शान्ता को बढ़ा दिया। शान्ता ने उन्हें टोकरी में रख लिया।

‘‘बस! क्या हो गया?'' उसने पूछा।

‘‘ओह, नहीं! अभी और है!'' कन्नन ने कहा और वह घर की ओर वापस मुड़ा। पास ही कटहल का एक पेड़ था। पेड़ की धड़ से कटहल के फल लटक रहे थे और जमीन को लगभग छू रहे थे। वे इतने सारे थे कि उनकी गिनती करते हुए भूल गई। शान्ता चकित हो वह पेड़ को निहारती रही।

चिन्नन ने सावधानी से पेड़ के निचले हिस्से की टहनियों को काटा और दूध सुखाने के लिए उन्हें जमीन पर छोड़ दिया। ‘‘मैं बाद में आकर इन्हें घर ले जाऊँगा।'' कन्नन बोला।

फिर वह आमों और फूलों की टोकरी के पास जाकर बैठ गया। ‘‘क्यों चिन्नन?'' शान्ता ने पूछा।

‘‘तुम्हें कन्नन यहाँ से घर ले जायेगा,'' उसने कहा। कन्नन शीघ्र ही वहाँ आ गया। ‘‘आओ, चलें।'' उसने शान्ता से कहा। चिन्नन को घर पर टोकरी ले जाने के लिए वहीं छोड़ कर शान्ता और कन्नन पिछवाड़े में गये। ‘‘यहीं तुम्हारी दादी सब्जियाँ उगाती है। मैं और चिन्नन बीज बोकर, पानी पटा कर और सब्जियाँ तोड़ कर उन्हें मदद करते हैं।'' उसने समझाया।

‘‘वहाँ हम क्या करेंगे?'' शान्ता ने पूछा। ‘‘हमलोग वहाँ विशुकानी के लिए सब्जियाँ तोड़ेंगे,'' उसने कहा। सब्जियाँ पूजा के लिए? शान्ता को आश्चर्य हुआ, फिर भी वह चुपचाप उसके साथ-साथ गई। वह उसे कुछ लताओं के पास ले गया जो साँपों की तरह जमीन पर फैली हुई थीं। कुछ लताओं में बड़ी-बड़ी ककड़ियाँ लगी थीं। शान्ता कुछ देर तक उन लताओं की भूल भुलैया के बीच खेलती रही और उनके पत्तों में छिपी छोटी-बड़ी ककड़ियों को ढूँढ़ने में मजा लेती रही। कन्नन ने उनमें से कुछ फलों को तोड़ा। फिर वे घर लौट आये। रात का भोजन कर लेने के बाद शान्ता दादा को विशुकानी सजाते हुए देखती रही।

दूसरे दिन सुबह वह चौंकती हुई उठी, जब उसने अपनी आँखों पर दो गीली ठण्ढी हथेलियों को महसूस किया। माँ के स्वर ने स्वागत किया, ‘‘विशु आ गया, मेरी प्यारी बच्ची, उठ जाओ। और जब तक न कहूँ, आँखें बन्द रखना।'' माँ ने कहा। वह शान्ता को पूजा घर में ले गई। ‘‘अब आँखें खोलो,'' उसकी माँ ने कहा।

शान्ता ने आँखें खोलीं। उसके सामने क्या था? भगवान कृष्ण की प्रतिमा सुन्दर सुनहले अमलतास के फूलों से सज्जित। प्रतिमा के दोनों ओर दो दीप प्रज्वलित थे। प्रतिमा के सामने एक बड़ा चिपटा काँसे का पात्र था जिसमें चावल, हरा चना, बटर सेम, अनेक प्रकार के फल तथा सब्जियाँ जिनमें उनके अपने उद्यान के आम और केले थे और ढेर सारी ककड़ियाँ रखी गई थीं। साथ ही बगल में था दो टुकड़ों में तोड़ा हुआ नारियल जिनके अन्दर चाँदी के सिक्के थे। पात्र के दूसरी ओर हाथ से बुने एक शॉल की तह में स्वर्णाभूषण लपेटे हुए थे।

ताम्बे की पट्टी के साथ सामने एक दर्पण रखा हुआ था जिसमें शान्ता ने अपने आप को पात्र, पुष्प, फल सब्जी, स्वर्ण तथा नारियल के बीच देखा। इसका क्या अर्थ है? यह सब हम क्यों कर रहे हैं? उसके मन में कितने प्रश्न घुमड़ने लगे।

स्नान करने के बाद इन सारे प्रश्नों की बौछार लिए वह दादा के पास पहुँची। ‘‘रुक जाओ'', मुस्कुराते हुए दादा बोले। उन्होंने उसके हाथ में सुपारी के साथ पान का एक पत्ता और एक रुपये का सिक्का रख दिया। ‘‘यह क्या है, दादा?'' उसने पहला सवाल किया। दादा ने समझाया। विशु से नया साल शुरू होता है। ऐसा विश्वास किया जाता है कि इस दिन पैसे देने और ग्रहण करने से पूरे साल समृद्दि होती है। ‘‘क्या तुम जानती हो कि इस दिन सबसे पहले विशुकानी क्यों देखते हैं?'' दादा ने पूछा।

‘‘नहीं! क्यों?'' शान्ता ने पूछा।

क्या यही सवाल उसके मन में सबसे ऊपर नहीं था?

‘‘हम अधिकांश पर्वों को नई फसल के अवसर पर मनाते हैं।'' दादा ने समझाया। ‘‘विशु भी एक वैसा ही पर्व है। हमलोग अमलतास का उपयोग करते हैं जो इस मौसम में खिलता है। हमलोग सब्जियों, फलों तथा अन्य चीजों का उपयोग करते हैं जो इसी समय उपजते हैं। जब हम दर्पण में अपने को फलों, सब्जियों तथा मौसम की अन्य फसलों तथा इनके अतिरिक्त आभूषणों, सिक्कों व समृद्धि के अन्य प्रतीकों से घिरे हुए देखते हैं, तब हम केवल अपने आप को यही याद दिलाते हैं कि हम उस प्रकृति के एक अंश हैं जिसमें पौधे, पशु तथा पूरी सृष्टि निहित है। विशुकानी हमें यह समझने में मदद करने की कोशिश करता है कि हम सब एक सम्पूर्ण सत्ता के एक अंग हैं। उस दिन दोपहर में शान्ता ने बहुत ही स्वादिष्ठ भोजन किया। भोजन में प्रमुख थे चावल और दालों से बनी यूम्मी पौरिज तथा रसदार मिश्रित सब्जी। मीठा में ताजा कटहल था जो इसी अवसर के लिए तोड़ा गया था।

भोजनोपरान्त शान्ता झूले पर गाँव के अन्य बच्चों में शामिल हो गई। उसने अपने अन्दर एक विचित्र आनन्द का अनुभव किया। अब वह विशु का महत्व जानती थी। इन त्योहारों को मनाना कितना बुद्धिमतापूर्ण और महत्वपूर्ण है! ये हमें कितना ज्ञान देते हैं! उसने सुख और शान्ति का अनुभव कियाः प्रकृति माता उसकी रक्षा करेगी!