पंचवटी की ओर जाते हुये राम, सीता और लक्ष्मण की दृष्टि एक पर्वताकार बलिष्ठ व्यक्ति पर पड़ी। लक्ष्मण ने इस असाधारण आकार वाले मनुष्य को देखकर समझ लिया कि यह कोई राक्षस है। इसलिये धनुष पर प्रत्यंचा चढ़ाते हुये उससे बोले, "तुम कौन हो?" लक्ष्मण के इस प्रश्न का उसने कोई उत्तर नहीं दिया, किन्तु राम की ओर दोनों हाथ जोड़ कर बोला, "हे रघुकुलतिलक! जब से मुझे ज्ञात हुआ कि आप दण्डकारण्य में पधारे हुये हैं, तभी से आपकी प्रतीक्षा में मैं यहाँ पड़ा हुआ हूँ। आपकी प्रतीक्षा करते हुये मुझे अनेक वर्ष व्यतीत हो गये हैं। मेरा नाम जटायु है और मैं गृद्ध जाति के यशस्वी व्यक्ति अरुण का पुत्र हूँ। मेरा निवेदन है कि आप मुझे अपने साथ रहने की अनुमति दें ताकि मैं सेवक की भाँति आपके साथ रहकर आपकी सेवा कर सकूँ।" यह कह कर वह राम और लक्ष्मण के साथ चलने लगा।
पंचवटी में पहुँच कर राम ने लक्ष्मण से कहा, "भैया लक्ष्मण! ऐसा प्रतीत होता है कि महर्षि अगस्त्य ने जिस पंचवटी का वर्णन किया था, वह यही है और हम सही स्थान पर आ पहुँचे हैं। सामने गोदावरी नदी भी कल-कल करती हुई बह रही है। इसलिये कोई अच्छा सा स्थान खोज कर उस पर आश्रम बनाने की तैयारी करो।" राम के प्रस्ताव का समर्थन करते हुये सीता ने भी कहा, "हाँ नाथ! यह स्थान वास्तव में उपयुक्त है। गोदावरी के तट पर पुष्पों से लदे वृक्ष कितने अच्छे लग रहे हैं। वृक्षों पर लगे अनेक प्रकार के फल-फूल स्वर्ण, रजत एवं ताम्र के सदृश चमक रहे हैं। इन रंग-बिरंगे पुष्पों वाले वृक्षों से युक्त पर्वत ऐसे प्रतीत होते हैं, मानों गजों के समूह ने ऋंगार किया हो। मुझे तो ताल, तमाल, नागकेशर, कटहल, आम, अशोक, देवदारु, चन्दन, कदम्ब आदि के वृक्षों से तथा केवड़ा, मोतिया, चम्पक, गेंदा, मौलसिरी आदि रंग-बिरंगे पुष्पों से सुसज्जित वन अत्यन्त मनोरम प्रतीत होता है। आप अपना आश्रम यहीं बनाइये। मेरा मन भी यहाँ भली भाँति रम जायेगा।"
राम का प्रस्ताव और सीता का अनुमोदन पाकर लक्ष्मण ने लकड़ियों तथा घास-फूसों की सहायता से एक कुटिया का निर्माण कर लिया। जब यह कुटिया बनकर पूरी हो गई तो उसी के निकट उन्होंने एक और कुटिया का निर्माण सुन्दर लता-पल्लवों से किया और उस में सुन्दर स्म्भों से युक्त यज्ञ वेदी बनाई। तत्पश्चात् उन्होंने पूरे आश्रम के चारों ओर काँटों की बाड़ लगा दी। फिर राम और सीता को बुला कर आश्रम का निरीक्षण कराया। वे इस सुन्दर आश्रम को देख कर बहुत प्रसन्न हुये और लक्ष्मण की सराहना करते हुये बोले, "लक्ष्मण! तुमने तो इस बीहड़ वन में भी राजप्रासाद जैसा सुविधाजनक निवास स्थान बना दिया। तुम्हारे कारण तो मुझे वन घर से भी अधिक सुखदायक हो गया है।" इसके पश्चात् उन दोनों के साथ बैठ कर राम ने यज्ञ-कुटीर में हवन किया। वे वहाँ सुखपूर्वक रहने लगे और लक्ष्मण दत्तचित्त होकर उन दोनों की सेवा करने लगे। इस प्रकार उन्होंने शरद ऋतु के दो मास सुख से बिता दिये।
एक दिन हेमन्त ऋतु की प्रातः बेला में राम सीता के साथ गोदावरी में स्नान करने के लिये जा रहे थे। लक्ष्मण उनके पीछे-पीछे घड़ा उठाये चल रहे थे। शीतल वायु बह रही थी जिससे शरीर सुन्न हुआ जा रहा था। सरिता के तट पर पहुँच कर लक्ष्मण को ध्यान आया कि हेमन्त ऋतु रामचन्द्र जी की कितनी प्रिय ऋतु रही है इसलिये वे तट पर घड़े को रख कर बोले, "भैया! यही वह हेमन्त ऋतु है जो आपको सदा सर्वाधिक प्रिय रही है। इस ऋतु को आप वर्ष का आभूषण कहा करते थे। अब कठोर शीत पड़ने लगी है। पृथ्वी अन्नपूर्णा बन गई है। ग्रीष्म ऋतु में जितना जल सुहावना लगता था, आज उतनी ही अग्नि सुहावनी लगती है। नागरिक लोग धूमधाम से यज्ञों में अन्न की हवि देकर उसका पूजन करने लगे हैं। सम्पूर्ण भारत भूमि में दूध-दही की नदियाँ बहने लगी हैं। राजा-महाराजा अपनी-अपनी चतुरंगिणी सेनाएँ लेकर शत्रुओं को पराजित करने के लिये निकल पड़े हैं। सूर्य के दक्षिणायन होने से उत्तर दिशा की शोभा समाप्त हो गई है। आजकल सूर्य का ताप और अग्नि की उष्मा दोनों ही प्रिय लगते हैं। रात्रियाँ हिम जैसी ठण्डी हो गई हैं। उधर देखिये प्रभो! जौ और गेहूँ से भरे खेतों में ओस के बिन्दु मोतियों की भाँति झिलमिला रहे हैं। इधर ओस के जल से भीगी हई रेत पैरों को घायल कर रही है। उधर भैया भरत अयोध्या में रहते हुये भी वनवासी का जीवन व्यतीत करते हुये ठण्डी भूमि पर शयन करते होंगे। वे भी सब प्रकार के ऐश्वर्यों को लात मार कर आपकी भाँति त्याग एवं कष्ट का जीवन व्यतीत कर रहे होंगे। हे तात! विप्रजन कहते हैं कि मनुष्य का स्वभाव उसकी माता के अनुकूल होता है, पिता के नहीं, परन्तु भरत ने इस कहावत को मिथ्या सिद्ध कर दिया है। उनका स्वभाव अपनी माता के क्रूर स्वभाव से कदापि मेल नहीं खाता। उनकी माता का क्रूर स्वभाव वास्तव में हमारे और सम्पूर्ण देश के दुःख का कारण बन गया है।"
लक्ष्मण के मुख से कैकेयी के लिये निन्दा भरे वचन सुन कर राम बोले, "लक्ष्मण! इस प्रकार माता कैकेयी की निन्दा मत करो। वनवास में मैंने तापस धर्म ग्रहण किया है और तपस्वी के लिये किसी की निन्दा करना या सुनना दोनों ही पाप है। फिर कैकेयी जैसी भरत की माता हैं, वैसी ही मेरी भी माता हैं। हमें भरत के उन विनम्र, मधुर एवं स्नेहयुक्त वचनों को स्मरण रखना चाहिये जो उन्होंने चित्रकूट में आकर कहे थे। मैं तो व्यग्रता से उस दिन की प्रतीक्षा कर रहा हूँ जब हम चारों भाई फिर एकत्रित होकर एक दूसरे के गले मिलेंगे।" इस प्रकार भरत के वियोग में व्याकुल होते हुये राम सीता और लक्ष्मण के साथ गोदावरी के शीतल जल में स्नान कर के अपने आश्रम लौटे।
10 अप्रैल 2010
रामायण – अरण्यकाण्ड - पंचवटी में आश्रम
Posted by Udit bhargava at 4/10/2010 05:59:00 pm
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