रामनाथपुरम के एक धनी व्यापारी ने अपने बेटे का नाम भाग्यनाथन इस आशा से रखा कि वह एक दिन उसके धन का वारिस बनेगा । लेकिन वह गोबर गणेश निकल गया। वह लड़का अपने दोस्तों के साथ बाहर जाकर हमेशा खेलता रहता, जो मुँह पर तो चिकनी-चुपड़ी बातें बनाते और पीठ पीछे उसे मूर्ख कहते।
व्यापारी का उदास और दुखी होना स्वाभाविक था। ‘‘यह आशा करना बेकार है कि भाग्य हमारे वृद्ध हो जाने तक कुछ बन पायेगा'', उसने एक दिन अपनी पत्नी से कहा।
‘‘लेकिन आपने भी तो व्यापार में उसकी रुचि पैदा करने का कोई कष्ट नहीं उठाया'', उसकी पत्नी ने जवाब दिया। रात्रि भोजन के समय व्यापारी ने अपने बेटे से कड़े शब्दों में कहा, ‘‘देख भाग्य, कल से तुम मेरे साथ दुकान पर जाओगे। मेर जीते जी व्यापार सीख लो ताके मेरे जाने के बाद इसे संभाल सको।''
दूसरे दिन भाग्य अपने पिता के साथ दुकान पर आ तो गया लेकिन अधिकांश समय नौकरों अथवा ग्रहकों से गप्प करने में लगा रहा। उसके अगले दिन दुकान पर बहुत भीड़ थी। भाग्य किसी के साथ चला गया और कुछ देर के बाद लौटा। तीसरे दिन भी वह बाहर चला गया और दिन भर वापस नहीं आया।
कुछ दिनों के बाद भाग्य की माँ एक प्रस्ताव लेकर आई, ‘‘हमलोग उसका विवाह कर देते हैं, तब वह दिन भर घर ही पर रहेगा और जिम्मेदार भी बन जायेगा।''
व्यापारी को आश्चर्य हुआ, लेकिन उसने यह मान लेने का निश्चय किया। ‘‘लेकिन उसे एक और मौका मिलना चाहिये, पर साथ में उसके लिए बहू भी ढूँढ़ते रहो,'' उसने कहा, ‘‘कल उसे तीन रुपये दे दो और कहो कि एक रुपये का कुछ लेकर खा ले, एक रुपया नदी में फेंक दे और बाकी एक रुपये से कुछ खाने, पीने, बोने और उपजाने तथा गाय के लिए खरीद ले।''
भाग्य को माँ से यह सुन कर आश्चर्य हुआ। फिर भी खाने के नाम पर वह खुश हो गया और तुरन्त सीधा बाजार चला गया। उसने एक रुपये का पकौड़ा लेकर खाया। अब उसे माँ के दूसरे आदेश का पालन करना था। वह पकौड़ा खाते-खाते नदी की ओर चल पड़ा। नदी किनारे पहुँच कर जेब से उसने एक रुपये का सिक्का निकाला और नदी की धारा में फेंकने के लिए हाथ उठाया। अचानक उसके हाथ रुक गये। क्या यह मूर्खता नहीं है? उसने सोचा। लेकिन यह माँ के आदेश के विपरीत होगा। वह एक शिला पर बैठ कर सोचने लगा।
अचानक उसे महसूस हुआ कि उसके निकट कोई खड़ा है। वह स्थानीय मन्दिर के पुजारी की बेटी भागीरथी थी। उसने देखा कि भाग्य किसी बात से चिन्तित है। ‘‘तुम नदी में छलांग लगाने के लिए तो नहीं सोच रहे हो न!'' उसने थोड़ी परेशानी से और थोड़ा मज़ाक से भाग्य से पूछा।
भागीरथी उसके दोस्त हरि की बहन थी। ‘‘नहीं भागीरथी, मैं यह सोच रहा हूँ कि इस सिक्के को नदी में फेंकू या नहीं!''
‘‘क्या तुम गंभीरतापूर्वक कह रहे हो?'' भागीरथी ने मुस्काते हुए कहा।
भाग्यनाथ ने तब उसे पूरी कहानी सुना दी। उसे ध्यानपूर्वक सुनने के बाद लड़की हँसी, ‘‘नहीं, सिक्का फेंको नहीं। माँ के कहने का तात्पर्य समझो। माँ चाहती हैं कि यह पैसा अपने ऊपर खर्च न करो और उन्हें वापस कर दो।''
‘‘और एक रुपये से पाँच-पाँच वस्तुएं कैसे खरीदूँ?'' भाग्य ने हास्यास्पद ढंग से भागीरथी से पूछा। भागीरथी जोर से हँस पड़ी, ‘‘तुम सचमुच भोंदू हो। तुम्हारी माँ के कहने का मतलब तरबूज से है; इसमें खाने और पीने के लिए भी है, इसका बीज बोने और उगाने के लिए है और छिलका गाय के लिए भोजन है!''
‘‘मैं तो यह नहीं समझ पाया था, भागीरथी'', भाग्य ने शिला पर से उठते हुए कहा।
‘‘आ जाओ, मैं तुम्हारे लिए एक अच्छा रसीला तरबूज खरीद दूँगी'', लड़की ने कहा।
बाद में जब भाग्य ने अपनी मॉं के हाथ में तरबूज लाकर दिया, तब वह खुशी से दौड़ी हुई पति के पास जाकर बोली, ‘‘देखो, देखो! हमारा भाग्य भोंदू नहीं है, अब वह चतुर हो गया है!''
‘‘उसे यहाँ बुलाओ'', व्यापारी ने आदेश दिया। उसने पूछा, ‘‘मुझे पूरा विश्वास है कि तुमने स्वयं तरबूज के बारे में कभी नहीं सोचा होगा। किसने तुम्हें यह सलाह दी?''
भाग्य ने सोचा कि मुझे ईमानदारी से पिता को सच बता देना चाहिये। ‘‘हरि की बहन भागीरथी ने'', उसने कहा।
‘‘ओह! हमारे पुजारी की बेटी! सचमुच उसकी बुद्धि प्रखर है। उसने और क्या सलाह दी?'' व्यापारी ने पूछा।
‘‘उसने नदी में एक रुपया फेंकने नहीं दिया। यह रहा एक रुपया!'' भाग्य ने जेब से सिक्का निकाल कर पिता को दे दिया।
भाग्य के जाने के बाद व्यापारी ने पत्नी से कहा, ‘‘भाग्य के लिए बहू मिल गई है।''
‘‘क्या पुजारी की बेटी?'' पत्नी ने पूछा मानो पति से अपनी बात की पुष्टि चाहती हो।
‘‘और कौन?'' व्यापारी ने कहा, ‘‘वह काफी चतुर और तीक्ष्ण-बुद्धि है। वह हमारे भाग्य की देखभाल कर लेगी।''
भाग्य के माता-पिता पुजारी और उसकी पत्नी से मिले जिन्होंने प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया।
विवाह के एक दिन बाद भाग्य दुकान पर जाना नहीं चाहता था। लेकिन भागीरथी ने जोर देकर उसे दुकान पर भेज दिया। लेकिन दुकान पर भाग्य का मन नहीं लगा। इसलिए उसके पिता ने उसे घर वापस जाने की स्वीकृति दे दी।
एक सप्ताह के बाद प्रथा के अनुसार भाग्य भागीरथी को अपने माता-पिता के घर छोड़ आया। दूसरे दिन वह पूरा दिन दुकान पर काम करता रहा। उसका पिता सन्तुष्ट था। उसने निश्चय किया कि भाग्य को अपनी योग्यता को प्रमाणित करने के लिए अवसर देना चाहिये।
दूसरे दिन व्यापारी ने दुकान में भाग्य को सलाह दी कि वह पड़ोसी शहर में जाकर गाँव में विक्रय के लिए सौदा खरीद लाये। साथ में रुपये और एक नौकर को भी ले जाये। वह रात को शहर में ठहर जाये और दूसरे दिन सुबह वापस आ जाये।
तदनुसार, दूसरे दिन भाग्य पैसे और एक नौकर को साथ लेकर घोड़ागाड़ी में शहर चल पड़ा। वे दोपहर के बाद देर से शहर पहुँचे। घोड़ागाड़ी को उन्होंने वापस भेज दिया। दोनों ने बाजार में घूम कर कुछ सौदा तय किया और दूसरे दिन मूल्य की अदायगी का वादा कर रात में ठहरने के लिए सराय ढूँढ़ने लगे। उन्हें एक सराय मिल गई जिसकी मालकिन एक युवा स्त्री थी।
भाग्य और उसके नौकर को खाना खिलाते समय सराय की मालकिन ने जूए का प्रस्ताव रखा। आखिर एक होनहार व्यापारी होने के नाते भाग्य कुछ अतिरिक्त धन प्राप्त करने की आकांक्षा रखे। एक मद्धिम प्रकाश में द्युत आरम्भ हुआ। महिला ने भाग्य को पहले दो खेलों में जीत जाने दिया और उसके अन्दर आत्म-विश्वास जगा दिया। अगला खेल महिला ले गई। चौथा खेल भाग्य जीत लेगा, ऐसा वह समझ रहा था कि तभी महिला की बिल्ली ने बत्ती को उलट दिया। महिला को बत्ती जलाने में कुछ समय लगा। किस्मत ने पल्टा खाया और महिला जीत गई। भाग्य के उतार-चढ़ाव के मध्य बिल्ली बार-बार दीपक को उलटती रही, हर बार बत्ती गुल होती रही और खेल महिला के पक्ष में खत्म होता रहा। भाग्य इस बात को याद न रख सका कि बिल्ली महिला के संकेत पर बत्ती को उलट देने के लिए प्रशिक्षित की गई है । भाग्य सर्वस्व हार जाने तक खेलता रहा।
दूसरे दिन सुबह महिला ने इस बात पर दबाव डाला कि नौकर गाँव जाकर उसका बकाया भरने भर पैसे ले आये और उसके लौटने तक भाग्य सराय के बाग और रसोई में उसकी मदद करे।
जब भाग्य दो दिनों तक गाँव नहीं लौटा तो उसके माता-पिता चिन्तित हो गये। नौकर तीसरे दिन भूखा-मरियल होकर घर पहुँचा।
तब तक भागीरथी भाग्य की प्रतीक्षा करने के बाद स्वयं ही ससुराल आ गई। उसने भी नौकर से भाग्य की कहानी सुनी और उसके साथ भाग्य को लाने के लिए शहर जाने को तैयार हो गई। उसने पुरुष वेश बना लिया।
शहर पहुँचने पर नौकर भागीरथी को सराय पर ले गया। भागीरथी ने नौकर को सराय से दूर हट कर गाड़ी में ही रहने को कहा।
भाग्य ने जैसा कि नौकर को बताया था कि कैसे महिला और उसकी पालतू बिल्ली ने उसे धोखा देकर हरा दिया, भागीरथी सावधानी बरतने के लिए अपने साथ एक चूहा ले आई थी। उसने सराय में एक कमरा लिया और महिला को सूचित किया कि वह द्युत में रुचि रखती है। सराय की मालकिन गुप्त रूप से धन कमाने की आशा से बहुत प्रसन्न हो गई।
खेल आरम्भ हुआ। और आगन्तुक (छद्मवेश में भागीरथी) महिला के लिए अधिक चतुर साबित होने लगा। पर भागीरथी सावधान थी। और जैसे ही महिला ने बिल्ली को संकेत भेजा, भागीरथी ने अपने वस्त्रों से चूहे को बाहर निकाल दिया।
बिल्ली चूहे के पीछे दौड़ी और महिला दावं हार गई। क्योंकि बिल्ली सहायता के लिए मौजूद न थी, महिला उसके बाद के सबी दावं हारती चली गई। भागीरथी ने शीघ्र ही दक्षतापूर्वक सिक्कों का एक छोटा-सा ढेर एकत्र कर लिया। भाग्यनाथन ने जो कुछ हारा था, इस प्रकार वापस आ गया।
दूसरे दिन प्रातः भागीरथी किसी बहाने गाड़ी के पास गई और नौकर को पैसे देकर महिला से भाग्य को मुक्त करा कर लाने के लिए कहा। सराय की मालकिन ने नौकर से पैसे लेकर भाग्य को छोड़ दिया और आगन्तुक से पैसे लेने के लिए प्रतीक्षा करने का निश्चय किया। भाग्य को गाड़ी में अपनी पत्नी को देख कर आश्चर्य हुआ। नौकर ने उसे बताया कि कैसे उसे मुक्त करने के लिए दोनों ने योजना बनाई। वे सब बाजार में गये और तय किये गये सौदों का मूल्य चुकाया। फिर वापस अपने गाँव के लिए चल पड़े।
उन्हें देख कर व्यापारी और उसकी पत्नी अति प्रसन्न हुए। भागीरथी से सारा विवरण सुनने के बाद व्यापारी ने एक ही टीका की, ‘‘भाग्य कभी नहीं बदलेगा, किन्तु हमारी सम्पति हमारी बहू के हाथों में सुरक्षित रहेगी।''
30 मार्च 2010
बुद्धिमती बहू
Posted by Udit bhargava at 3/30/2010 08:26:00 pm
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