वीरदास हेमगिरि के निवासी धर्मदास का तीसरा बेटा था। पढ़ता बिलकुल नहीं था। खेल-कूद में ही समय गुज़ारता था। थोड़ा बड़ा हो जाने के बाद बुरे लोगों के साथ उसकी दोस्ती हो गयी। खेती के काम में या घर के काम-काजों में न ही वह पिता की मदद करता था, न ही भाइयों की। धन पानी की तरह खर्च करता था। जहॉं-जहॉं कर्ज़ मिलता था, लेकर खर्च कर देता था।
उसने सौ अशर्फ़ियों से अधिक कर्ज ले लिया था। एक दिन सबके सब ऋणदाता धर्मदास के घर आये। उसके पिता के सामने ही वीरदास से कर्ज़ लौटाने की मॉंग पेश की। पिता धर्मदास बहुत ही चिंतित हो उठा। वीरदास के बड़े भाई नाराज़ हो उठे और ऋणदाताओं से साफ़-साफ़ कह दिया, "आज से इसका इस घर से कोई संबंध नहीं। हो सके तो आप लोग ही इससे कर्ज़ वसूल कर लीजिये। नहीं तो इसे न्यायाधिकारी को सौंप दीजिये।'' ऋणदाता भी नाराज़ हो उठे और उन्होंने वीरदास से कड़े स्वर में कहा, "दो दिनों के अंदर हमारा कर्ज़ हमें लौटा दो। नहीं तो तुम्हें न्यायाधिकारी के सामने खड़ा करेंगे।'' यों चेतावनी देकर वे चले गये।
तब कोई और चारा न पाकर वीरदास ने पिता और भाइयों से कहा, "इस बार मेरे कर्ज़ चुका दो और मुझे बचा लो। आगे से मैं मेहनत करूँगा, धन कमाऊँगा और तुम लोगों का कर्ज़ चुका दूँगा।''
"ठीक है। इसी क्षण घर छोड़कर चले जाओ और कमाना शुरू कर दो। कमाकर जो लाओगे, उससे दस गुना अधिक तुम्हें देंगे।'' पिता ने कहा। वीरदास ने बड़ी ही दीनता भरी दृष्टि से पिता की ओर देखा। उसे उम्मीद थी कि पिता नरम पड़ जायेंगे और उसकी मदद करेंगे । पर ऐसा नहीं हुआ। धर्मदास को भी लगा कि बेटे को अच्छा बनाना है तो इसके सिवा दूसरा रास्ता नहीं।
वीरदास में अभिमान उभर आया और वह सुगोप नामक मित्र से मिला। अपनी दुस्थिति बतायी। सुगोप ने क्षण भर सोचने के बाद कहा, "धन की कमाई के लिए सुगम मार्ग है, चोरी। रमाकांत इस गाँव का सबसे बड़ा धनवान है। उसके घर के सब राज़ मैं जानता हूँ। तुम्हें मंजूर हो तो आज रात ही को उसके घर चोरी करने जायेंगे। तुम्हारा भाग्य अच्छा रहा तो हो सकता है, हमें बड़ी रक़म मिले। तुम कल ही अपना कर्ज़ भी चुका सकते हो।''
वीरदास ने 'न' के भाव में सिर हिलाते हुए कहा, "मेरे घर के लोग मुझे बिगड़ा हुआ और बुरा मानते हैं और इसी वजह से मुझे घर से भी निकाल दिया। मैंने निश्र्चय कर लिया है कि मेहनत करूँगा और कमाऊँगा। कहीं नौकरी मिले तो बताना।''
इस पर सुगोप ने हॅंसते हुए कहा, "दिन भर भी मेहनत करोगे, तब भी तुम्हें एक अशर्फी भी नहीं मिलेगी। मेरी बात मानो। आज रात को हमारे गाँव के मंदिर में ठहर जाना। पुजारी के दिये प्रसाद को खाकर पेट भर लेना। पुजारी जगन्नाथ पुराण पठन करते हैं, उसे सुनते रहना। मैं आधी रात को वहाँ पहुँच जाऊँगा। दोनों मिलकर चोरी करने जायेंगे। जो मिलेगा, ले आयेंगे। इससे तुम्हारी ज़रूरत पूरी होगी। अगर तुम्हें यह काम अच्छा लगा तो और चोरियाँ कर सकते हैं। तुम्हें अच्छा न लगे तो समझ लेना, यही पहली और आखिरी चोरी है।''
"अगर हम आज पकड़े गये तो?'' वीरदास ने संदेह व्यक्त किया।
"पकड़े जायेंगे तो अवश्य ही जेल की सज़ा होगी। पर, तुमने अगर कर्ज नहीं चुकाया तो दो दिनों के बाद ही सही, तुम्हें जेल तो जाना ही पड़ेगा। समझ लेना, यह दो दिन पहले ही हो गया। मैंने अब तक चार चोरियाँ कीं। एक बार भी पकड़ा नहीं गया।
मेरी बात मानो और अपनी स्वीकृति दे दो।'' यों कहकर सुगोप चला गया। वीरदास को, सुगोप की सलाह अच्छी नहीं लगी। अब तक उसने ग़लतियाँ ही ग़लतियाँ कीं। उसने सोचा, आगे से ऐसी ग़लतियाँ बिना किये बड़ों को खुश रखना है।
अंधेरा होते-होते वीरदास कमज़ोरी महसूस करने लगा। तब उसे सुगोप की बातें याद आयीं। वह सीधे मंदिर गया और पुजारी का दिया प्रसाद खाकर पेट भर लिया। पुराण पठन सुनने बैठ गया।
पुजारी जगन्नाथ पुराण पठन में असाधारण माना जाता था। उस दिन वह गीतोपदेश पर प्रकाश डालते हुए बता रहा था, "अपने को बड़ा समझना ग़लत है, अहंकार है। अनजाने में हमसे जो ग़लती हुई, उसपर हमें ज़्यादा दुखी होना नहीं चाहिये। जो करता है और जो करवाता है, वह हममें ही बसे भगवान हैं।''
ये बातें वीरदास के दिमाग़ में खूब बैठ गयीं। वह सोचने लगा, 'भगवान ने ही सुगोप के रूप में मुझे चोरी करने के लिए प्रोत्साहन दिया। अगर मैं चोरी करूँगा तो वह ग़लती मेरी नहीं होगी, भगवान की होगी। इसलिए आज सुगोप के साथ चोरी करने जाऊँगा।' आधी रात को सुगोप मंदिर आया और वीरदास को जगाया। दोनों मिलकर धनवान रमाकांत के घर गये। दोनों धीरे से रमाकांत के शयनागार में घुसे। सुगोप ने सो रहे रमाकांत के तकिये के नीचे से चाभियाँ निकालीं और लोहे की अलमारी खोली। वह अलमारी रत्न्नों, जवाहरातों, स्वर्ण आभूषणों तथा अशर्फियों की थैलियों से खचाखच भरी हुई थी। वीरदास उन्हें देखता ही रह गया। सुगोप ने अशर्फियों की दो थैलियाँ लीं। वीरदास ने भी अशर्फियों की दो थैलियाँ लीं। उस समय सुगोप छींक पड़ा। उससे छींक रोकी नहीं गयी। इस आवाज़ को सुनकर रमाकांत चौंक पड़ा और उठ बैठा। दोनों को देखते ही वह चिल्ला पड़ा, "चोर, चोर।''
उसकी चिल्लाहट सुनते ही घर के लोग, पहरेदार दौड़े-दौड़े वहाँ आये। दोनों दोस्त पकड़े गये। सबने मिलकर उन्हें खूब पीटा।
रमाकांत दोनों को ग्रामाधिकारी के पास ले जाने ही वाला था कि, सुगोप उसके पैरों पर गिर पड़ा और दीन स्वर में कहने लगा, "हमसे बड़ी भूल हो गयी। इस बार हमें माफ़ कर दीजिये। लोगों को मालूम हो जाये तो हमारे बड़ों की बदनामी होगी।'' रमाकांत को जब मालूम हुआ कि दोनों लड़के गाँव के बड़े लोगों के बेटे हैं तो वह थोड़ा नरम पड़ गया। उसने कहा, "ऐसे बड़ों के घर में जन्म लेकर यह नीच बुद्धि तुममें कैसे पैदा हुई?''
सुगोप ने सिर झुका लिया। किन्तु, वीरदास ने साहसपूर्वक अपनी कहानी सुनायी और कहा, "मुझे अपनी ग़लती का एहसास हुआ था और मैंने निर्णय भी कर लिया था कि चोरी नहीं करूँगा।
पर जगन्नाथ पंडित के गीता पाठ को सुनने के बाद, मैंने विश्वास कर लिया कि मैं जो भी करूँगा, वह भगवान का ही आदेश होगा, इसलिए चोरी करने को तैयार हो गया और आप सबके हाथों बुरी तरह से पीटा गया। ग़लती भगवान की है और सज़ा भी उसे ही मिलनी चाहिये। या यह सज़ा पंडित जगन्नाथ को भुगतनी होगी। पर सज़ा मुझे भुगतनी पड़ी। इसका उत्तर पंडित जगन्नाथ को देना होगा।''
रविकांत चुप रहा, पर उसने दूसरे दिन सवेरे सुगोप व वीरदास के पिताओं व जगाथ को ख़बर भेजी। जब वे सब आये, तब उसका पूरा वृत्तांत सविस्तार सबको बताया। तब जगन्नाथ ने कहा, "गीता का सार बड़ा ही गहरा है। उसे ठीक समझने पर अच्छा ही होता है। सही अर्थ न समझने पर बुरा होता है।''
"आपने कहा जो करता और कराता है, वह हमारे मन में बसा भगवान है। क्या यह नादानों को गुमराह नहीं करता?'' रमाकांत ने पूछा।
जगन्नाथ ने कहा, "मैंने जब कहा, भगवान हमीं में हैं, तो वीरदास ने उसका विश्वास किया। सुगोप ने चोरी करने को कहा तो उसने समझा कि भगवान ने ही उससे यह कहलवाया। चोरी करने के बाद वह समझ बैठा कि यह भगवान का ही दोष है। बात यहाँ तक तो ठीक है। पर आप और आपके घर के लोग जब उसे पीट रहे थे, तब उसका यह समझना कि चोटें वह खुद खा रहा है उसका अज्ञान नहीं तो क्या है। सच कहा जाये तो पीटा आपने नहीं, बल्कि आपके रूप में भगवान ने । इसका यह मतलब हुआ कि भगवान से जो ग़लती हुई, भगवान ने खुद इसके लिए सज़ा भुगती। परंतु, चूँकि भगवान हमीं में हैं, इसलिए उसे ही सज़ा क्यों न भुगतानी पड़े, इसे हमें ही बदाश्त करना होगा। मैंने मंदिर में कल रात को जो बताया था, उसका यही अर्थ है।''
वीरदास तुरंत जगन्नाथ के पैरों पर गिर पड़ा और माफ़ी माँगी। धर्मदास जान गया कि बेटे में सचमुच ही परिवर्तन आ गया है। उसने उसे घर बुलाया और उसके कर्ज़ चुका दिये।
इस के बाद वीरदास में ही नहीं, बल्कि उसके दोस्तों में भी परिवर्तन हुआ।
30 मार्च 2010
भगवान को सज़ा
Posted by Udit bhargava at 3/30/2010 08:41:00 pm
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