14 अगस्त 2010

नजर दोष ( Evil Eyes )

वैज्ञानिक आधार, लक्षण और निवारण


भारतीय समाज में नजर लगना और लगाना एक बहु प्रचलित शब्द है। लगभग प्रत्येक परिवार में नजर दोष निवारण के उपाय किये जाते हैं। घरेलु महिलाओं का मानना है कि बच्चों को नजर अधिक लगती है। बच्चा यदि दूध पीना बंद कर दे तो भी यही कहा जाता है कि भला चंगा था, अचानक नजर लग गई। लेकिन क्या नजर सिर्फ बच्चों को ही लगती है? नहीं। यदि ऐसा ही हो तो फिर लोग ऐसा क्यों कहते हैं कि मेरे काम धंधे को नजर लग गई। नया कपड़ा, जेवर आदि कट-फट जाएँ, तो भी यही कहा जाता है कि किसी की नजर लग गई।

लोग अक्सर पूछते हैं कि नजर लगती कैसे है? इसके लक्षण क्या हैं? नजर लगने पर उससे मुक्ति के क्या उपाय किये जाएँ? लोगों कि इसी जिज्ञासा को ध्यान में रखकर यहाँ नजर के लक्षण, कारण और निवारण के उपाय का विवरण प्रस्तुत है।

नजर के लक्षण
नजर से प्रभावित लोगों का कुछ भी करने को मन नहीं करता। वे बैचैन और बुझे-बुझे-से रहते हैं। बीमार नहीं होने के बावजूद शिथिल रहते हैं। उनके मानसिक स्थिति अजीब-सी रहती है, उसके मन में अजीब-अजीब से विचार रहते हैं। वे खाने के प्रति अनिच्छा जाहिर करते हैं। बच्चे प्रतिक्रया व्यक्त न कर पाने के कारण रोने रोने लगते हैं। कामकाजी लोग काम करना भूल जाते हैं और अनर्गल बातें सोचने लगे हैं। इस स्थिति से बचाव के लिये वे चिकित्सा भी करवाना नहीं चाहते। विद्यार्थियों का मन पढ़ाई से उचाट जाता है। नौकरीपेशा लोग सुनते कुछ हैं, करते कुछ और हैं।
इस प्रकार नजर दोष के अनेकानेक लक्षण हो सकते हैं।

नजर किसे लगती है?
नजर सभी प्राणियों, मानव निर्मित सभी चीजों आडू के लोग सकती है। नजर देवी देवताओं को भी लगती है। शास्त्रों में उल्लेख है कि भगवान् शिव और पार्वती के विवाह के समय सुनयना ने शिव की नजर उतारी थी।

कब लगती है नजर?
कोई व्यक्ति जब अपने सामने के किसी व्यक्ति अथवा उसकी किसी वास्तु को ईर्ष्यावश देखे और फिर देखता ही रह जाए, तो उसकी नजर उस व्यक्ति अथवा उसकी वास्तु को तुरंत लग जाती है। ऐसी नजर उतारने हेतु विशेष प्रत्यं करना पड़ता है अन्यथा निकसान की प्रबल हो जाती है।

नजर किस की लग सकती है?
किसी व्यक्ति विशेष को अपनी ही नजर लग सकती है। ऐसा तब होता है जब वह स्वयं ही अपने बारे में अच्छे या बुरे विचार्व्यक्त करता है अथवा बार-बार दर्पण देखता है। उससे ईर्ष्या करने वालों, उससे प्रेम करने वालों और उसके साथ काम करने वालों की नजर भी उसे लग सकती है। यहाँ तक की किसी अनजान व्यक्ति, किसी जानवर या किसी पक्षी की नजर भी उसे लग सकती है।

नजर की पहचान क्या है?
नजर से प्रभावित व्यक्ति की निचली पलक, जिस पर हलके रोएंदार बाल होते हैं, फूल सी जाती है। वास्तव में यही नजर की सही पहचान है। किन्तु, इसी सही पहचान कोई पारखी ही कर सकता है।

नजर दोष का वैज्ञानिक आधार क्या है?
कभी-कभी हमारे रोमकूप बंद हो जाते हैं। ऐसे में हमारा शरीर किसी भी बाहरी क्रिया को ग्रहण करने में स्वयं को असमर्थ पाता है। उसे हवा, सर्दी और गर्मी की अनुभूति नहीं हो पाती। रोमकूपों के बंद होने के फलस्वरूप व्यक्ति के शरीर का भीतरी तापमान भीतर में ही समाहित रहता है और बाहरी वातावरण का उस पर प्रभाव नहीं पड़ता, जिससे उसके शरीर में पांच तत्वों का संतुलन बिगड़ने लगता है और शरीर में आयरन की मात्रा बढ़ जाती है। यही आयरन रोमकूपों से न निकलने के कारण आँखों से निकलने की चेष्टा करता है, जिसके फलस्वरूप आँखों की निचली पलक फूल या सूज जाती है। बंद रोमकूपों को खोलने के लिये अनेकानेक विधियों से उतारा किया जाता है।

संसार की प्रत्येक वास्तु में आकर्षण शक्ति होती है अर्थात प्रत्येक वातावरण से स्वयं कुछ न कुछ ग्रहण करती है। आमतौर पर नजर उतारने के लिये उन्हयें वस्तुओं का उपयोग किया जाता है, जिनी ग्रहण करने के क्षमता तीव्र होती है। उदहारण के लिये, किसी पात्र में सरसों का तेल भरकर उसे खुला छोड़ दें, तो पायेंगे कि वातावरण के साफ़ व स्वच्छ होने के बावजूद उस तेल पर अनेकानेक छोटे-छोटे कण चिपक जाते हैं। ये कण तेल की आकर्षण शक्ति से प्रभावित होकर चिपकते हैं।

तेल की तरह ही नीबू, लाल मिर्च, कपूर, फिटकरी, मोर के पंख, बूंदी के लड्डू तथा ऐसी अन्य अनेकानेक वस्तुओं की अपनी-अपनी आकर्षण शक्ति होती है, जिनका प्रयोग नजर उतारने में किया जाता है।
इस तरह उक्त तथ्य से स्पष्ट हो जात है कि नजर का अपना वैज्ञानिक आधार है।

उतारा : उतारा शब्द का तात्पर्य व्यक्ति विशेष पर हावी बुरी हवा अथवा बुरी आत्मा, नजर आदि के प्रभाव को उतारने से है। उतारे आमतौर पर मिठाइयों द्वारा किये जाते हैं, क्योंकि मिठाइयों की और यह शीघ्र आकर्षित होते हैं।

उतारा करने की विधि :
उतारे की वास्तु सीधे हाथ में लेकर नजर दोष से पीड़ित व्यक्ति के सिर से पैर की और साथ अथवा ग्यारह बार घुमाई जाती है। इससे वह बुरी आत्मा उस वास्तु में आ जाती है। उतार के क्रिया करने के बात वह वास्तु किसी चौराहे, निर्जन स्थान या पीपल के नीचे रख दी जाती है और व्यक्ति ठीक हो जाता है।

किस दिन किस मिठाई से उतारा करना चाहिए, इसका विवरण यहाँ प्रस्तुत है।
रविवार को तबक अथवा सूखे फलयुक्त बर्फी से उतारा करना चाहिए। सोमवार को बर्फी से उतारा कर लड्डू कुत्ते को खिला दें। बुधवार को इमरती से उतारा करें व उसे कुत्ते को खिला दें। गुरूवार को सायं काल एक दोने में अथवा कागज़ पर पांच मिठाइयां रखकर उतारा करें। उतारे के बाद उसमें छोटी इलाइची रखें व धूपबत्ती जलाकर किसी पीपल के वृक्ष के नीचे पश्चिम दिशा में रखकर घर वापस जाएँ। ध्यान रहे, वापस जाते समय पीछे मुकदर न देखें और घर आकर हाथ और पैर धोकर व कुल्ला करके ही अन्य कार्य करें। शुक्रवार को मोती चूर के लड्डू से उतारा कर लड्डू कुत्ते को खिला दें या किसी चौराहे पर रख दें। शनिवार को उतारा करना हो तो इमरती या बूंदी का लड्डू प्रयोग में लायें व उतारे के बाद उसे कुत्ते को खिला दें।
इसके अतिरिक्त रविवार को सहदेई की जड़, तुलसी के आठ पत्ते और आठ काली मिढ़क किसी कपडे में बांधकर काले धागे से गले में बाँधने से उपरी हवाएं सताना बंद कर देती हैं।

नजर उतारने अथवा उतारा आदि करने के लिये कपूर, बूंदी का लड्डू, इमरती, बर्फी, कडवे तेल की रूई की बाती, जायफल , उबले चावल, बूरा, राई, नमक, काली सरसों, पीली सरसों मेहँदी, काले तिल, सिन्दूर, रोली, हनुमान जी को चढ़ाए जाने वाले सिन्दूर, नींबू उबले अंडे, दही, फल, फूल, मिठाइयों, लाल मिर्च, झाड़ू, मोर चाल, लौंग, नीम के पत्तों की धूनी आदि का प्रयोग किया जाता है।

स्थायी व दीर्घकालीन लाभ के लिये संध्या के समय गायत्री मंत्र का जप और जप के दशांश का हवं करना चाहिए। हनुमान जी की नियमित रूप से उपासना, भगवान् शिव की उपासना व उनके मूल मंत्र का जप, महामृत्युंजय मंत्र का जप, माँ दुर्गा और माँ काली की उपासना करें। स्नान के पश्चात तांबे के लोटे से सूर्य को जल का अर्ध्य दें। पूर्णमासी को सत्यनारायण की कथा स्वयं करें अथवा किसी कर्मकांडी ब्रह्मण से सुनें। संध्या के समय घर में दीपक जलायें, प्रतिदिन गंगाजल छिडकें और नियमित रूप से गूगल की धूनी दें। प्रतिदिन शुद्ध आसन पर बैठकर सुन्दरकाण्ड का पाठ करें। किसी के द्वारा दिया गया सेव व केला न खाएं। रात्रि बारह से चार बजे के बीच कभी स्नान न करें।

बीमारी से मुक्ति के लिये नीबू से उतारा करके उसमें एक सुए आर-पार चुभो कर पूजा स्थल पर रख दें और सूखने पर फेंक दें। यदि रोग फिर भी दूर न हो, तो रोगों की चारपाई से एक बाण निकालकर रोगी के सिर से पैर तक छुआते हुए उसे सरसों के तेल में अच्छी तरह भिगोकर बराबर कर लें व लटकाकर जला दें और फिर राख पानी में बहा दें।

उतारा आदि करने के पश्चात भलीभांति कुल्ला अवश्य करें।

इस तरह, किसी व्यक्ति पर पड़ने वाली किसी अन्य व्यक्ति की नजर उसके जीवन को तबाह कर सकती है। नजर दोष का उक्त लक्षण दिखते ही ऊपर वर्णित सरल व सहज उपायों के प्रयोग कर उसे दोषमुक्त किया जा सकता है।

ज़रा याद करो कुर्बानी ( Just remember the sacrifices )



15 अगस्त 1947 को देश आजाद हुआ। सम्पूर्ण भारत में जश्न-ए-आजादी का पर्व मनाया गया। देश का अपना संविधान बना, हर नागरिक को स्वतन्त्रता व समानता का अधिकार मिला। देश में लोकतंत्र का उदय हुआ। आज हम आजादी की 63वीं वर्षगाँठ के अवसर पर आजाद भारत के आईने में उन वीर सपूतों और वीरांगनाओं के सपनों को ढूंढते हैं, जिन्होंने देश की राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक आजादी के लिये सन 1857-1947 तक स्वतन्त्रता आन्दोलन में अपने तन-मन और जीवन को हमेशा के लिये अर्पित कर दिया, जिनका अदम्य साहस, अटूट राष्ट्रप्रेम और गौरवमयी बलिदान भारतीय इतिहास की एक जीवंत दासता बना है। आइए जानते हैं, देश की आजादी के हमसफ़र में उन वीरान्नाओं के बारे में, जिन्होंने देश के लिये अपना सब-कुछ न्योछावर कर दिया....

कर्नाटक (कित्तूर) की रानी चेनम्मा ने 1824 में अंग्रेजों को देश से भगाने के लिये 'फिरंगियों भारत छोड़ो' की ध्वनि गुंजित की। इतिहास के पन्नों में अंग्रेजों से लोहा लेने वाली प्रथम वीरांगना रानी चेनम्मा को ही माना जाता है।
1857 की क्रांती में झांसी का नेतृत्व करने वाली रानी लक्ष्मीबाई की वीरता और शौर्य के किस्से आज भी जन-जन में सुने जाते हैं। घुड़सवारी व हथियार चलाने में माहिर रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी में अँग्रेजी  सेना को कड़ी टक्कर दी और बाद में तात्या टोपे की मदद से ग्वालियर पर भी कब्जा किया। उनकी मौत पर जनरल ह्यूगरोज ने कहा था की- 'यहाँ वह महिला सोई हुई है, जो विद्रोहियों में एकमात्र मर्द थी।'
कुश्ती, घुड़सवारी और धनुर्विद्या में माहिर झलकारीबाई, रानी लक्ष्मीबाई के महिला दल 'दुर्गा दल' की मुखिया थी। अंग्रेजों ने जब झांसी का किला घेरा तो झलकारीबाई जोशो-खरोश के साथ लड़ी। झलकारीबाई के साथ 'दुर्गादल' की सैनिक मोतीबाई, काशीबाई, दुर्गाबाई और जूही आदि ने अँग्रेजी सैनिकों से डटकर सामना किया और वीरगति को प्राप्त हुईं।
लखनऊ में 1857 की क्रांति का नेतृत्व बेगम हजरत महल ने किया। उन्होंने अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कादर को लखनऊ की गद्दी पर बिठाकर अँग्रेजी सेना का मुकाबला किया। अवध के जमींदार, किसान और सैनिकों के साथ मिलकर बेगम हजरत महल ने अपने अभूतपूर्व क्षमता व साहस से अंग्रेजों के खिलाफ कई युद्ध किये।
मुग़ल सम्राट बहादुर शाह जफ़र की बेगम जीनत महल ने दिल्ली और आसपास के क्षेत्रों में अपने लोगों को अंग्रेजों के खिलाफ संगठित कर देशप्रेम का परिचय दिया। 1857 की क्रांती का नेतृत्व करने के लिये बहादुर शाह जफ़र को प्रोत्साहित करते हुए उन्होंने कहा था की 'यह समय गजलें कहकर दिल बहलाने का नहीं है। बिठूर से नाना साहब का पैगान लेकर देशभक्त सैनिक आए हैं। आज सारे हिन्दुस्तान की आँखें दिल्ली की ओर लगी हैं। खानदान-ए-मुगलिया का खून हिंद को गुलाम होने देगा तो इतिहास उसे कभी माफ़ नहीं करेगा।'
दिल्ली के शहजादे फिरोज शाह की बेगम तुकलाई सुलतान जमानी को जब दिल्ली में क्रांती की सूचना मिली तो उन्होंने ऐशोआराम का जीवन जीने की बजाए, युद्ध शिविरों में रहना पसंद किया और वहीँ से अपने सैनिकों को रसद पहुंचाने तथा तथा घायलों की सेवा करने का जिम्मा अपने हाथों में लिया। इस पर अंग्रेजों ने भयभीत होकर उन्हें मुम्बई में नजरबन्द कर दिया और दिल्ली आने पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
सिकंदराबाग़ के किले पर अंग्रेजों के हमले के दौरान उदा देवी ने पीपल के घने पेड़ पर छिपकर करीब 32 अंग्रेज सैनिकों को मार गिराया। उदा देवी के साहस भरे कार्य का वर्णन अमृतलाल नागर ने अपनी करती 'ग़दर के फूल' में किया है।
8 मई 1857 को अँग्रेजी सेना का सामना करते हुए आशा देवी को शहादत मिली थी। आशा देवी के साथ कई वीरांगनाओं ने अंग्रेजों से युद्ध किया था, जिनमें रंवीरी बाल्मीकी, शोभा देवी, बाल्मीकि महावीरी देवी, सहेजा बाल्मीकी नाम्कौर, राजकौर, हबीबा गुर्जरी देवी, भगवानी देवी, भगवती देवी, इन्द्रकौर, कुशल देवी और रहीमे गुज़री आदि शामिल थीं, ये सभी वीरांगनाएं अँग्रेजी सेना के साथ लड़ते हुए शहीद हो गईं।
कानपुर में पेशे से तवायफ अजीजन्बाई ने 1857 की क्रांती में काफी बढ़-चढ़कर हिसा लिया। जब कानपुर में नाना साहब के नेतृत्व में तात्या टोपे, अजीमुल्ला खान, बालासाहब, सूबेदार टीका सिंह व शमसुद्दीन खान क्रांति की योजना बना रहे थे तो उनके साथ उस बैठक में अजीजनबाई भी थीं। उन्हों 400 वेश्याओं की एक मस्तानी टोली बनाकर अंग्रेजों की खिलाफ लड़ाई लड़ी। इतिहास में दर्ज है- 'बगावत की सजा हंस कर सह ली अजीजन ने, लहू देकर वतन को।'
अवध की बेगम आलिया ने भी अपने अदम्य साहस से अँग्रेजी हुकूमत को खुली चुनैती दी थी। वे 1857 क्रांति शुरू होने से पहले ही पानी सेना में शामिल महिलाओं को शास्त्रकला का प्रशिक्षण देकर संभावित क्रांति की योजनाओं को मूर्तरूप देने में शामिल हो गईं थीं। अपने महिला गुप्तचर के जरिये बेगम आलिया ने अवध से कई बार अंग्रेजों से युद्ध कर उन्हें खदेड़ा था।
मुजफ्फरनगर के मुन्द्भर की महावीरी देवी ने 1857 के संग्राम में 22 महिलाओं के साथ मिलकर अंग्रेजों पर हमला किया। इतिहास गवाह है कि 1857 की क्रांति के दैरान दिल्ली के आस-पास के गावों की करीब 255 महिलाओं को मुजफ्फरनगर में गोली से उड़ा दिया गया था।
गोंडा से 40 किलोमीटर दूर स्थित तुलसीपुर रियासत की रानी राजेश्वरी देवी ने अवध के मुक्ति संग्राम के दौरान होपग्रांट के सैनिकों से जमकर मुकाबला लिया था।
बाराबंकी के मिर्जापुर रियासत की रानी और अवध के सालों के तालुकदार बसंत सिंह बीस की पत्नी तलमुन्द  कोइर ने भी अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई लड़ी।
मध्यप्रदेश में रामगढ़ की रानी अवंतीबाई ने 1857 के संग्राम के दौरान अंग्रेजों का प्रतिकार किया और घिरे जाने पर आत्मसमर्पण करने की बजाए खुद को ख़त्म कर लिया।
स्वामी श्रद्धानंद की पुत्री वेद कुमारी और अज्ञावती ने 1905 के बंग-भंग आन्दोलन के दौरान महिलाओं को संगठित किया और विदेशी कपड़ों की होली जलाई।
1928 में सत्यवती (वेद कुमारी की पुत्री) ने साइमन कमीशन के दिल्ली आगमन पर काले झंडों से उसका विरोध किया था।
1930 के सविनय अवज्ञा आन्दोलन के दौरान अरूणा आसफ अली ने विरोध करते हुए अकेले दिल्ली में 1600 महिलाओं के साथ गिरफ्तारी दी।
1912-1914 में बिहार में जात्रा भगत ने जनजातियों को लेकर ताना आन्दोलन चलाया। उनकी गिरफ्तारी के बाद उसी गाँव की महिला देवमनियाँ उरांइन ने इस आन्दोलन की बागडौर संभाली।
1931-32 के कोल आन्दोलन में भी आदिवासी महिला बिरसा मुंडा के सेनापति गया मुंडाक की पत्नी 'माकी' ने बच्चे को गोद में लेकर फरसा-बलुआ से, अंग्रेजों से लड़ाई लड़ी।
1930-32 में मणिपुर में अंग्रेजों के खिलाफ नागा रानी गुइंदाल्यू ने शास्त्र संघर्ष का नेतृत्व किया।
1930 में बंगाल में सूर्यसेन के नेतृत्व में हुए चटगाँव विद्रोह में युवा महिलाओं ने पहली बार क्रांतिकारी आन्दोलन में स्वयं भाग लिया। क्रांतिकारी महिलाओं में एक प्रीतिलता वादेयर ने एक यूरोपीय क्लब पर हमला किया और कैद से बचने हेतु आत्महत्या कर ली।
दिसंबर 1931 में कोमिल्ला की दो स्कूली छात्रा शांति घोष और सुनीति चौधरी ने जिला अंग्रेज अधिकारी को दिनदहाड़े गोली मार दी।
6 फरवरी 1932 को बीना दास ने कलकत्ता विश्वविधालय के दीक्षांत समारोह में उपाधि ग्रहण समारोह के दौरान गवर्नर पर गोली चलाकर अँग्रेजी हुकूमत को चुनौती दी।
क्रांतिकारी भगवतीचरण वोहरा की पत्नी 'दुर्गा भाभी' नाम से मशहूर दुर्गा देवी बोहरा ने अंग्रेजों के खिलाफ कई सफल योजनाएं बनाईं। बंबई के गवर्नर हेली को मारने की योजना में एक अंग्रेज अफसर घायल हो जाने के केस के मामले में 12 सितम्बर 1931 को उन्हें लाहौर में गिरफ्तार कर लिया गया।
काकोरी काण्ड के कैदियों के मुक़दमे की पैरवी के लिये सुशीला दीदी ने 10 तोला सोना और 'मेवाद्पति' नामक नाटक खेलकर चंदा इकट्ठा किया था। 1930 के सविनय अविज्ञा आन्दोलन में 'इंदुमती' के छद्य नाम से सुशील दीदी ने हिस्सा लिया था।
1925 में कानपुर में हुए कांग्रेस अधिवेशन की अध्यक्षता कर 'भारत कोकिला' के नाम से मशहूर सरोजिनी नायडू को कांग्रेस की प्रथम भारतीय महिला अध्याख्स बनने का गौरव प्राप्त हुआ। सरोजिनी नायडू ने भारतीय स्वाधीनता आन्दोलन के इतिहास में कई महत्वपूर्ण कार्य किये।
1921 में असहयोग आन्दोलन में कमला देवी चटोपाध्याय ने बढ़-चढ़कर भाग लिया और बर्लिन में अन्तराष्ट्रीय महिला सम्मलेन में भारत का प्रतिनिधित्व कर तिरंगा झंडा फहराया।
1921 के दौर में अली बंधुओं की माँ बाई अमन ने लाहौर से निकल तमाम महत्वपूर्ण नगरों का दौरा किया और जगह-जगह हिन्दू-मुस्लिम एकता का सन्देश फैलाया।
सितम्बर 1922 में बाई अमन ने शिमला दौरे के समय वहां की फैशनपरस्त महिलाओं को खादी पहनने की प्रेरणा दी और 1942 के 'भारत छोड़ो आन्दोलन' में भी महिलाओं ने प्रमुख भूमिका निभाई।
अरूणा आसफ अली व सुचेता कृपलानी ने आन्दोलनकारियों के साथ भूमिगत होकर आन्दोलन को आगे बढाया और ऊषा मेहता ने इस दौर में भूमिगत रहकर कांग्रेस-रेडियो से प्रसारण किया।
अरूणा आसफ अली को तो 1942 में उनकी सक्रीय भूमिका के कारण मीडिया में '1942 की रानी झांसी' नाम दिया। उन्होंने 'नमक क़ानून तोड़ो आन्दोलन' में हिस्सा लिया।
स्वतन्त्रता संघर्ष के दौरान कस्तूरबा गांधी ने महात्मा गांधी का साथ दिया. उन्होंने अपने व्यक्तिगत हितों व राष्ट्र की खातिर तिलांजलि दे दी। 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के दौरान महात्मा गांधी के साथ कस्तूरबा गांधी जेल भी गयीं।
1942-44 तक डाँ. सुशील नैयर 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के दौरान महात्मा गांधी के साथ जेल में रहीं।
6 अप्रैल 1930 को इंदिरा गाँधी ने बच्चों को लेकर 'वानर सेना' का गठन किया, जिसने स्वतंत्रता संग्राम के दौरान महत्वपूर्ण योगदान दिया।
विजयलक्ष्मी पंडित, जिन्होंने गाँधी जी के साथ जंग-ए-आजादी के आन्दोलन में  बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। उन्होंने 1945 में संयुक्त राष्ट्र संघ के सैन फ्रांसिस्को सम्मलेन में भारत का प्रतिनिधित्व भी किया।
सुभाषचंद्र बोस की 'आरजी हुकूमते आजाद हिंद सरकार' में आजाद हिंद फ़ौज की रानी झांसी रेजीमेंट की कमांडिंग आफिसर रहीं कैप्टन लक्ष्मी सहगल और लेफ्टिनेंट मानवती आर्य ने आजादी में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।
लन्दन में जन्मीं एनीबेसेंट ने 'न्यू इंडिया' और 'कामन वील' पत्रों का सम्पादन करते हुए सितम्बर 1916 में भारतीय स्वराज्य लीग की स्थापना कर स्वशासन के लिये लोगों को प्रेरित किया। आज एनीबेसेंट को कांग्रेस की प्रथम महिला अध्यक्ष होने का गौरव भी प्राप्त है।
भारतीय मूल की फ्रांसीसी नागरिक मैडम भीकाजी कामा ने लन्दन, जर्मनी तथा अमेरिका का भ्रमण कर, भारत की स्वतन्त्रता के पक्ष में माहौल बनाया उनके द्वारा पेरिस से प्रकाशित 'वन्देमातरम' पत्र प्रवासी भारतीयों में कई लोकप्रिय हुआ। उन्होंने लोगों से भारत को दासता से मुक्ति दिलाने में सहयोग की अपील की और भारतवासियों का आह्वान किया की 'आगे बढ़ो, हम हिन्दुस्तानी हैं और हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों का है।'
आयरलैंड की मूल निवासी और स्वामी विवेकानंद की शिष्या मारग्रेट नोबुल (भगिनी निवेदिता) ने भी भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में सक्रिय भूमिका निभाई।
इंग्लैण्ड की ब्रिटिश नौसेना के एडमिरल की पुत्री मैडेलिन ने भी गाँधी जी से प्रभावित होकर भारत को अपनी कर्मभूमि बनाया। 'मीरा बहन' के नाम से मशहूर मैडेलिन 'भारत छोड़ो आन्दोलन' के दौरान महात्मा गाँधी के साथ आगा खान महल में कैदी रहीं। उन्होंने अमेरिका व ब्रिटेन में भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया।

12 अगस्त 2010

एक सपना जो सच हो गया ( A dream that came true )

ओबराँय  होटल के मालिक रायबहादुर ओबराँय के सामने 18-20 साल का युवक खडा था। रायबहादुर ने उसे गौर से देखते हुए पुछा, 'क्या बनना चाहते हो?

युवक ने आँख मिलाकर उत्तर दिया, 'आपसे भी बड़ा होटलियर, सर।'

गंवारों जैसी वेशभूषा, पांवों में कोह्लापुरी चप्पल पहने, सीधे-सादे दिखने वाले युवक के मुंह से ऐसी बात सुनकर रायबहादुर थोड़ा हैरान तो हुए लेकिन उसका सपना पूरा होने का आशीर्वाद भी दिया। यह सपना देखने वाला युवक था, विट्ठल व्यंकटेश कामत और तीस साल बाद उसका सपना एक दिन सच हुआ, जब दरबान के इंटरनेशनल सेंटर में कामत के होटल को 'पर्यावरण का संतुलन बनाए रखने वाला विश्व का सर्वोत्कृष्ट होटल आर्किड' का सम्मान प्राप्त हुआ।

बंबई के ग्रांट रोड स्टेशन के पास ही एक छोटे से घर में रहने वाले भूरे-पूरे परिवार में विट्ठल कामत का जन्म हुआ था। विट्ठल के पिता व्यंकटेश का एक छोटा सा रेस्टोरेंट था। उसकी माँ भी एक शिक्षित और कर्मनिष्ठ महिला थीं। अपनी सफलता का पूरा श्रेय वे अपने माता- पिता को ही देते हैं, 'अपनी सच्चाई, अनुशाशन और कर्मनिष्ठ के बल पर ही उन्होंने होटल क्षेत्र में 'कामत' नाम को बुलंदियों तक पहुंचा दिया था... विरासत में मिली उत्तर गुणों और प्रवृत्तियों की संपत्ति के लिये मैं अपने माता-पिता का हमेशा ऋणी रहूँगा।' पिता के रेस्टोरेंट से ही विट्ठल को आरंभिक व्यवहारिक प्रशिक्षण प्राप्त हुआ।

किताबें पढ़ना, नाटक खेलना और भाषण सुनना, ये सारी बातें बचपन से ही विट्ठल के शौक में शुमार थीं। मगर ये केवल मनबहलाव का साधन भर ही नहीं थी, बल्कि विट्ठल के व्यक्तित्व के विकास में भी इनका भरपूर योगदान रहा। किताबें पढने और भाषण सुनाने से जहाँ बौद्धिक रूप से परिपक्व हुए, वहीँ सीखने की प्रवृत्ति भी बनी रही। नाटक खेलने से सामाजिक चेतना का विकास हुआ। तरह-तरह के आयोजनों में शिरकत करने से भी किसी भी काम के लिये तुच्छता का एहसास मन से हमेशा कल इए चला गया। अनजाने ही कोई भी जिम्मेदारी उठाने की भावना भी विकसित हुई।

तालाम्की वादी के मराठी प्राइमरी स्कूल और रांबर्टमणी हाईस्कूल से शिक्षा प्राप्त करने के बाद उन्होंने इंजीनियरिंग की डिग्री प्राप्त की। माँ की इच्छा थी की पिता के होटल  व्यवसाय में ही बच्चे हाथ बंटाएं। दूसरी ओर, विट्ठल का इरादा कुछ और था, लेकिन नियति को शायद यही मंजूर था। उन्हीं दिनों विट्ठल के पिता व्यंकटेश का एक रेस्टोरेंट किसी अपने ने ही धोखे से हथिया लिया। इससे उन्हें भारी आघात पहुंचा और घाटा भी हुआ। ऐसी परिस्थिति में विट्ठल को पिता के बाकी बचे एक रेस्टोरेंट 'सत्कार' में जुटना पडा। सत्कार की भूमि ही उनकी पहली कर्मभूमि सिद्ध हुई। स्वच्छता, समय का मूल्य, अविलम्ब सेवा, नवीनता, विविधता, मानवता जैसे संस्कारों की कीमत विट्ठल ने यन्हीं से सीखी और इन्हीं गुणों की बदौलत 'सत्कार' की लोकप्रियता आसमान छूने लगी।

इसके बाद विट्ठल ने देश-विदेश घूमकर होटल व्यवसाय के सम्बन्ध में अधिक से अधिक जानकारी इकट्ठा करने का निश्चय किया। बस पिता की स्वीकृति मिलते ही वे लन्दन पहुँच गए। वहां एक परिचित के घर रूकते ही उन्होंने 75 पौंड प्रति सप्ताह पर एक रेस्टोरेंट में कुक की नौकरी कर ली। इसी रेस्टोरेंट से अनुभव और पैसा कमाकर विट्ठल ने कई देशों की सैर की। इसके बाद भारत लौटकर अपने होटल व्यवसाय को और भी आगे बढाया। रेस्टोरेंट से छोटा होटल और फिर थ्री स्टार होटल, फोर स्टार और फिर फाइव स्टार होटल आर्किड। आर्किड के बनने की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं। सांताक्रूज एयरपोर्ट के पड़ोस में स्थित एयरपोर्ट प्लाज्मा नाम का फोर स्टार होटल बिकने वाला था। विट्ठल ने जब यह खबर सुनी, तो मन में उसे खरीदने की लालसा जाग उठी मगर कीमत सुनकर होश उड़ गए। फिर भी, जो ठान लिया, उसे पूरा करके ही दम लेने की विट्ठल की जिद ने इसे भी सम्भव कर दिखाया। एयरपोर्ट प्लाज्मा खरीदकर वहां पहले कामत प्लाजा बनाया गया, फिर उसके बाद फाइवस्टार आर्किड का निर्माण हुआ।

आज तक विश्व भर में लगभग 450 से अधिक रेस्टोरेंट और होटल खोले हैं। विट्ठल ने पिता के अलावा अपने जीवन में दो लोगों से बहुत सीखा, पहले तो उनके रिश्तेदार और बेंगलौर में कई होटलों के मालिक आर.पी.कामत और बेहराम कांट्रेक्टर। उनका मानना है की पंख पसारकर आकाश को बाहों में भरने का सामर्थ्य और इच्छा भले ही असंभव लगती हो, लेकिन अगर मन में किसी काम को पूरा करने का दृढ संकल्प हो, तो कोई भी मंजिल पाना मुश्किल नहीं होता। हम सभी में एक अनमोल हीरा छिपा होता है। बस, उसे तराशने का उत्तरदायित्व हमें उठाना होता है।

कर्म मंत्र
-  डिटर्मिनेशन डेडिकेशन और डिसिप्लिन  यानी दृढ निश्चय, समर्पण और अनुशासन।
-  योग्य व्यक्तियों से हमेंशा कुछ न कुछ सीखने का प्रयत्न करते रहना चाहिए।
-  कुछ नया करने के उत्साह के साथ व्यावहारिक सोच होनी भी जरूरी है।
-  असफलता मिलने पर उसका कारण खोजकर निदान करें।
-  अपने लक्ष्य पर हमेशा अर्जुन की तरह एकाग्र दृष्टि रखें।
-  दूसरों की भलाई करते समय हमेशा उसका अच्छा फल मिलने की उम्मीद न करें।

10 अगस्त 2010

महाभारत - वेद व्यास का जन्म ( Mahabharat - The birth of Ved Vyas )

प्राचीन काल में सुधन्वा नाम के एक राजा थे। वे एक दिन आखेट के लिये वन गये। उनके जाने के बाद ही उनकी पत्नी रजस्वला हो गई। उसने इस समाचार को अपनी शिकारी पक्षी के माध्यम से राजा के पास भिजवाया। समाचार पाकर महाराज सुधन्वा ने एक दोने में अपना वीर्य निकाल कर पक्षी को दे दिया। पक्षी उस दोने को राजा की पत्नी के पास पहुँचाने आकाश में उड़ चला। मार्ग में उस शिकारी पक्षी को एक दूसरी शिकारी पक्षी मिल गया। दोनों पक्षियों में युद्ध होने लगा। युद्ध के दौरान वह दोना पक्षी के पंजे से छूट कर यमुना में जा गिरा। यमुना में ब्रह्मा के शाप से मछली बनी एक अप्सरा रहती थी। मछली रूपी अप्सरा दोने में बहते हुये वीर्य को निगल गई तथा उसके प्रभाव से वह गर्भवती हो गई।

गर्भ पूर्ण होने पर एक निषाद ने उस मछली को अपने जाल में फँसा लिया। निषाद ने जब मछली को चीरा तो उसके पेट से एक बालक तथा एक बालिका निकली। निषाद उन शिशुओं को लेकर महाराज सुधन्वा के पास गया। महाराज सुधन्वा के पुत्र न होने के कारण उन्होंने बालक को अपने पास रख लिया जिसका नाम मत्स्यराज हुआ। बालिका निषाद के पास ही रह गई और उसका नाम मत्स्यगंधा रखा गया क्योंकि उसके अंगों से मछली की गंध निकलती थी। उस कन्या को सत्यवती के नाम से भी जाना जाता है। बड़ी होने पर वह नाव खेने का कार्य करने लगी एक बार पाराशर मुनि को उसकी नाव पर बैठ कर यमुना पार करना पड़ा। पाराशर मुनि सत्यवती रूप-सौन्दर्य पर आसक्त हो गये और बोले, "देवि! मैं तुम्हारे साथ सहवास करना चाहता हूँ।" सत्यवती ने कहा, "मुनिवर! आप ब्रह्मज्ञानी हैं और मैं निषाद कन्या। हमारा सहवास सम्भव नहीं है।" तब पाराशर मुनि बोले, "बालिके! तुम चिन्ता मत करो। प्रसूति होने पर भी तुम कुमारी ही रहोगी।" इतना कह कर उन्होंने अपने योगबल से चारों ओर घने कुहरे का जाल रच दिया और सत्यवती के साथ भोग किया। तत्पश्चात् उसे आशीर्वाद देते हुये कहा, तुम्हारे शरीर से जो मछली की गंध निकलती है वह सुगन्ध में परिवर्तित हो जायेगी।"

समय आने पर सत्यवती गर्भ से वेद वेदांगों में पारंगत एक पुत्र हुआ। जन्म होते ही वह बालक बड़ा हो गया और अपनी माता से बोला, "माता! तू जब कभी भी विपत्ति में मुझे स्मरण करेगी, मैं उपस्थित हो जाउँगा।" इतना कह कर वे तपस्या करने के लिये द्वैपायन द्वीप चले गये। द्वैपायन द्वीप में तपस्या करने तथा उनके शरीर का रंग काला होने के कारण उन्हे कृष्ण द्वैपायन कहा जाने लगा। आगे चल कर वेदों का भाष्य करने के कारण वे वेदव्यास के नाम से विख्यात हुये।

वेद व्यास के विद्वान शिष्य~~~

पैल
जैमिन
वैशम्पायन
सुमन्तुमुनि
रोम हर्षण

वेद व्यास का योगदान~~~

महर्षि व्यास त्रिकालज्ञ थे तथा उन्होंने दिव्य दृष्टि से देख कर जान लिया कि कलियुग में धर्म क्षीण हो जायेगा। धर्म के क्षीण होने के कारण मनुष्य नास्तिक, कर्तव्यहीन और अल्पायु हो जावेंगे। एक विशाल वेद का सांगोपांग अध्ययन उनके सामर्थ से बाहर हो जायेगा। इसीलिये महर्षि व्यास ने वेद का चार भागों में विभाजन कर दिया जिससे कि कम बुद्धि एवं कम स्मरणशक्ति रखने वाले भी वेदों का अध्ययन कर सकें। व्यास जी ने उनका नाम रखा - ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों का विभाजन करने के कारण ही व्यास जी वेद व्यास के नाम से विख्यात हुये। ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद को क्रमशः अपने शिष्य पैल, जैमिन, वैशम्पायन और सुमन्तुमुनि को पढ़ाया। वेद में निहित ज्ञान के अत्यन्त गूढ़ तथा शुष्क होने के कारण वेद व्यास ने पाँचवे वेद के रूप में पुराणों की रचना की जिनमें वेद के ज्ञान को रोचक कथाओं के रूप में बताया गया है।। पुराणों को उन्होंने अपने शिष्य रोम हर्षण को पढ़ाया। व्यास जी के शिष्योंने अपनी अपनी बुद्धि के अनुसार उन वेदों की अनेक शाखाएँ और उप शाखाएँ बना दीं। अंत में व्यास जी ने महाभारत की रचना की।

09 अगस्त 2010

मिल्क है वंडरफुल ( Milk is wonderful )

मिल्क है वंडरफुल, रोज पिएं तीन गिलास फुल। इससे हडि््डयां तो मजबूत रहती ही हैं कमर भी सुडौल बनी रहती है। अब यदि सेहत का ध्यान रखना है, तो सभी को दूध पीना चाहिए। लेकिन, महिलाओं को खासतौर पर दूध पीने में जरा भी कोताही नहीं बरतनी चाहिए ,क्योंकि दूध से ब्रेस्ट कैंसर का खतरा काफी कम हो जाता है। यह बात नॉरवेन अध्ययन में साबित हुई है।

5,000 महिलाओं पर किए गए इस अध्ययन के बाद अनुसंधानकर्ताओं ने पाया कि जो महिलाएं प्रतिदिन तीन गिलास दूध पीती हैं उनको उन महिलाओं की तुलना में 44 प्रतिशत ब्रेस्ट कैंसर का खतरा कम हो जाता है, जो बिल्कुल दूध नहीं पीतीं। स्किम्ड दूध मोटी महिलाओं के लिए काफी फायदेमंद होता है। दूध से संबंघित एक और अध्ययन में यह निकलकर आया है कि दूध में पाए जाने वाला संयोगी लिनोलिक एसिड कई सुरक्षात्मक लाभ भी प्रदान करता है।

08 अगस्त 2010

सबसे संपन्न मंदिर तिरुपति ( Tirupati, the richest temple )

तिरुपतिमंदिर में जब फिल्म अभिनेता अमिताभ बच्चन भगवान वेंकटेश्वरके दर्शन के लिए पहुंचे, तो उन्होंने बारह करोड रुपये का दान दिया। यही वजह है कि यह भारत का सबसे अमीर मंदिर कहलाता है।

कहते हैं कि भगवान वेंकटेश्वरके चरणों में भक्तगण हीरे की थैली भी भेंट करते हैं। यहां सभी धर्मो के लोग बडी संख्या में पहुंचते हैं। ऐसी मान्यता है कि यहां आप भगवान से जो कुछ मांगते हैं, वह मिल जाता है। सात पहाडों वाला मंदिर सात पहाडों से मिलकर बना है तिरुमाला पहाड और इस पर स्थित है तिरुपतिमंदिर। सातों पहाड को शेषाचलमया वेंकटाचलमभी कहते हैं। तिरुमाला पहाड की चट्टानें पूरे विश्व में दूसरी सबसे पुरानी चट्टानें हैं। तिरुपतिमंदिर में निवास करते हैं भगवान वेंकटेश्वर।

भगवान वेंकटेश्वरको विष्णु का अवतार भी माना जाता है। यह मंदिर समुद्र से 28सौ फीट की ऊंचाई पर स्थित है। तिरुपतिएक महत्वपूर्ण तीर्थस्थान है, जहां भक्त अपने भगवान की एक झलक पाने के लिए घंटों लाइन में खडे रहते हैं। यह मंदिर तिरुपतिबालाजीमंदिर भी कहलाता है। अद्भुत वास्तुकला यह मंदिर आंध्रप्रदेश के चित्तूरजिले में स्थित है। इसे तमिल राजा थोंडेईमानने बनाया था। बाद के समय में चोल और तेलुगू राजाओं ने इसे और विकसित किया। यही वजह है कि इस पर द्रविडियन[तमिल] कला की स्पष्ट छाप देखी जा सकती है।

वास्तव में, मंदिर की वास्तुकला अद्भुत है। विजयनगरके राजा कृष्णदेवराय ने इस मंदिर में सोना, हीरे-जवाहरात आदि का दान दिया था। उसी समय से भक्तगण इस मंदिर को खूब दान देते आ रहे हैं। इस मंदिर का गोपुरम आकर्षण का मुख्य केंद्र है। मंदिर के गर्भगृह के ऊपर स्थित है आनंद निलयम,जो पूरी तरह सोने के प्लेटों से बना है। मंदिर की बनावट मंदिर को तीन भागों में बांटा जा सकता है। बाहरी प्रांगण को ध्वजास्तंभकहते हैं। मंदिर स्थल पर विजयनगरके राजा कृष्णदेवराय और उनकी पत्नी की मूर्ति भी स्थापित है। इसके अलावा, अकबर के एक मंत्री टोडरमलकी मूर्ति भी लगी हुई है। मुख्य मंदिर में भगवान की मूर्ति रखी हुई है, जिसमें भगवान विष्णु और शिव दोनों का रूप समाया हुआ है। सेवा और उत्सव तिरुपतिमंदिर में प्रतिदिन भगवान वेंकटेश्वरकी पूजा होती है। दिन की शुरुआतसुबह तीन बजे सुप्रभातम, यानी भगवान को जगाने से होती है। सबसे अंत में एकांत सेवा, यानी भगवान को सुलाया जाता है। यह सेवा रात के एक बजे तक संपन्न होती है।

भगवान की प्रार्थना-स्तुति प्रतिदिन, साप्ताहिक और पक्षीय रूपों में आयोजित की जाती है, जिसे सेवा और उत्सव कहते हैं। देवता को दिया जाने वाला चढावा या दान हुंडी कहलाती है। हर वर्ष सितंबर महीने में यहां ब्रह्मोत्सवमनाया जाता है।

महाकाल नमोऽस्तुते ( Mahakala namostute )

शिप्रानदी के किनारे बसी है उज्जयिनी।यह भारतवर्ष के महत्वपूर्ण प्राचीन नगरों में से एक है। उज्जयिनी शब्द का अर्थ है विजयनी।
कहते हैं कि यदि यहां की तीर्थयात्रा की जाती है, तो विजय का भाव प्राप्त होता है। उज्जयिनीको प्राचीन ग्रन्थों में अवंतिका के नाम से पुकारा गया है। अवंतिका का शाब्दिक अर्थ है-सबकी रक्षा करने वाली।
पुराणों में इसे मोक्षदायिनीपुरी माना गया है। मान्यता है कि यहां महाकालेश्वर का वास है। भारतवर्ष के मानचित्र में अवंतिका[उज्जयिनी] मध्य बिन्दु यानी नाभिचक्रमें स्थित है। इसे वैदिक साहित्य अमृतग्रंथि में कहा गया है- अमृतस्यनाभि:। इसलिए यहां प्रत्येक बारह वर्ष में सिंहस्थ गुरु के समय पूर्ण कुंभ का आयोजन होता है। अवंतिकामें महाकालेश्वर आदिकाल से ही स्वयंभू ज्योतिर्लिङ्गके रूप में विराजमान हैं। कहते हैं कि इनकी आराधना करने वाले को अकाल मृत्यु का भय ही नहीं रहता है। ब्रह्मर्षि वशिष्ठ कहते हैं कि महाकालं नमस्कृत्यनरोमृत्युंन शोचयेत्।महाकाल के उपासक को मृत्यु की चिंता नहीं रहती है। धर्म ग्रंथों के अनुसार, सृष्टि का प्रारंभ महाकाल से हुआ है और अंत भी इसी से होगा। यही वजह है कि उज्जयिनीको काल-गणना का केंद्र कहा जाता है।

द्वादश ज्योतिर्लिङ्गोंमें केवल महाकाल ही दक्षिणमुखीहैं। सनातन धर्म के अनुसार, दक्षिण दिशा में मृत्यु के देवता यमराज का निवास है। महाकालेश्वर का दक्षिणमुखीहोना, उन्हें स्वत:मृत्युलोक का शासक बना देता है। प्रति दिन ब्रह्ममुहूर्तमें श्रीमहाकालेश्वरकी अनूठी भस्म-आरती होती है।

इस आरती को देखने के लिए दूर-दूर से लोग उज्जैनआते हैं। वर्षो पूर्व इसमें चिता की भस्म का प्रयोग होता था, लेकिन महात्मा गांधी के अनुरोध पर स्थानीय विद्वानों ने उपलों से निर्मित भस्म से आरती करने की व्यवस्था की, जो आज तक चली आ रही है।

फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष में षष्ठी से चतुर्दशी तिथि तक के नौ दिनों को महाकालेश्वर-नवरात्र का नाम दिया गया है। इसमें महाकाल के दर्शन-पूजन और अभिषेक का बडा माहात्म्य है। देशभर से भक्तगण नवरात्रमें उज्जयिनीके महाकालेश्वर में आकर पूजा-अर्चना करते हैं। ऐसा कहा जाता है कि काल के शासक महाकाल की संपूर्ण महिमा का बखान शब्दों में संभव नहीं है। इसलिए उनके श्रीचरणोंमें साष्टांग प्रणाम अर्पित है:
महाकाल महादेव, महाकाल महाप्रभो।
महाकाल महारुद्र,महाकाल नमोऽस्तुते॥

सामाजिक बंधन तो निभाने ही होंगे ( If social bonds are about to play )

हेलो दोस्तो! इस समाज में सही- गलत के न जाने कितने ही पैमाने बने हुए हैं। अच्छा-बुरा, नैतिक-अनैतिक, धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य आदि जैसे भारी-भरकम शब्दों से हम हर समय दबे रहते हैं।

देखा जाए तो इस समाज में खुलकर साँस लेना बेहद मुश्किल है। पंडित, मुल्ला-काजी जैसे धर्मगुरुओं के अलावा भी समाज के नियम-कानून तय करने वाले अनेक ठेकेदार हैं। परंपरा की दुहाई देने वाले केवल कट्टरपंथी दकियानूस लोग ही नहीं बल्कि मौजूदा व्यवस्था को हर दृष्टिकोण से नकारा करार देने वाले अति प्रगतिशील लोग भी रिश्तों के घिसे-पिटे नियमों को ही सही एवं उचित मानते हैं। शायद वे भूल जाते हैं कि हम और हमारे रिश्ते व्यवस्था से भिन्न तो नहीं हो सकते। व्यवस्था पर होने वाला प्रहार और बदलाव हमें भी उतना ही प्रभावित करता है।

रिश्तों का बदला हुआ रूप सब तरह के लोगों को तिलमिला देता है और उनका तरह-तरह का मुखौटा उतरने लगता है। ऐसे तमाम लोगों के खिलाफ जाना बहुत बड़ी चुनौती होती है। खासकर धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुँचाने वाला मामला तो इतना नाजुक एवं संवेदनशील होता है कि वहाँ आपका जीना मुहाल हो जाता है। आप पश्चाताप की आग में इस कदर जलते हैं कि आपका जीना दूभर हो जाता है। ऐसी ही ग्लानि और गुनाह की आग में जल रहे हैं जगत कुमार (बदला हुआ नाम)। अब न तो उन्हें अपनी भूल को सही रूप देने का कोई रास्ता नजर आ रहा है और न ही उन्हें अपने पापों के प्रायश्चित का कोई उपाय समझ में आता है।

हुआ यह है कि जगत अपनी ममेरी बहन से प्यार कर बैठे हैं और शादी करना चाहते हैं। यदि शादी नहीं हुई तो इस पाप का प्रायश्चित उन्हें इस संसार में मुमकिन नहीं लगता है।

जगत जी, अपने अधीन किसी नासमझ आश्रित को डराकर या बहकाकर उसकी मजबूरी का फायदा उठाना सबसे बड़ा गुनाह होता है पर आपने ऐसा कोई पाप नहीं किया है। हाँ, समाज में प्रचलित नियमों का जिस प्रकार आपने उल्लंघन किया है उसे आमतौर पर लोग माफ नहीं करेंगे। ऐसा आपको नहीं करना चाहिए था। आप जिस धर्म से ताल्लुक रखते हैं वहाँ तो यूँ भी यह रिश्ता नाजायज है पर जिन धर्मों में ऐसी शादी की इजाजत है वहाँ भी इस प्रकार के रिश्ते बनाना मर्यादा के खिलाफ माना जाता है।

आपने पूछा है कि क्या आप शादी कर सकते हैं? आपके धर्म के अनुसार जवाब है, नहीं। किसी और धर्म का सहारा लेकर भी यदि आपने शादी कर ली तो आप बेइंतहा अकेले पड़ जाएँगे और तबाह हो जाएँगे। आपका परिवार किसी रूप में इसे स्वीकार नहीं करेगा। यह इतना संवेदनशील मुद्दा है कि आपके संगी-साथी भी आपसे मुँह मोड़ लेंगे। इस प्रकार के सामाजिक बहिष्कार को झेलने में इनसान हर प्रकार से टूट जाता है। आप आत्मनिर्भर भी नहीं हैं। थोड़ी देर के लिए मान भी लें कि आप सबसे दूर चले जाएँगे तो इस समाज में यूँ सबसे कटकर जीना आसान नहीं होगा।

इस रिश्ते को हर प्रकार से भूल जाना ही उचित है। इस समय समझदारी का यही तकाजा है कि अब आप अपनी रिश्ते की बहन से न मिलें।अब रही बात अपने को कोसने और ग्लानि में घुलकर मरने की तो खुद को किसी भी प्रकार का नुकसान पहुँचाने वाली सोच से आप तौबा करें। यदि आप दिल से यह महसूस करते हैं कि आपने गलती की है तो यही आपकी सजा है। जगत जी, हर मनुष्य, नैतिक-अनैतिक की अवधारणा अपने परिवार, परंपरा और धार्मिक नियम कानून से सीखता है। कई बार एक ही धर्म में आस्था होने के बाद भी अलग भाषा, राज्य और प्रांत का होने के कारण रिश्तों की परिभाषा भिन्न होती है।

दक्षिण भारतीय समाज में सगे मामा-भांजी में शादी सबसे उत्तम संबंध माना जाता है जबकि अन्य राज्यों में इसी धर्म के लोग इसे घोर पाप समझेंगे। यहाँ तक कि जिस धर्म में ममेरे, चचेरे, फूफेरे भाई-बहनों में शादी जायज है, वहाँ भी सगे मामा, चाचा, मौसा आदि के साथ ऐसे रिश्ते की कल्पना नहीं की गई है यानी उनके लिए भी वह गुनाह है। एक ही संबंध किसी के लिए पाप है तो किसी के लिए बेहद पवित्र, आदरणीय और स्वीकार्य।

हम जिस राज्य, प्रांत, समाज और परिवार में पैदा हुए हैं वहाँ के नियम ही पाप-पुण्य की परिभाषा तय करते हैं। और, उन नियमों को मानकर चलने में ही हमारी भलाई है।

आपकी गलती होते हुए भी इसकी पूरी जिम्मेदारी समाज को जाती है। हमारा समाज नौजवानों को ऐसा स्वस्थ वातावरण नहीं दे पा रहा है जहाँ वह अपनी हमउम्र लड़की-लड़के से खुलकर दोस्ती कर सके। हँसी-मजाक के लिए उचित माहौल हो। अपनी सोच, रचनात्मकता और जिज्ञासा के लिए कोई परिपक्व मार्गदर्शक हो। किसी प्रश्न का उत्तर जानने का सही तरीका हो। जब कुछ भी नहीं है तो सारी उत्सुकता बहुत ही संकीर्ण रूप में सामने आती है। इसे प्रेम का नाम देना भी उचित नहीं जान पड़ता है। यह तो मजबूरी में एक अनजान भावना को जानने की चाह है।

ऐसा नहीं है कि आप जीवन में १०-२० लड़कियों के दोस्त रहे हों। उन्हें करीब से जाना है और फिर आपने अपनी इस रिश्ते की बहन में ऐसा विशेष गुण और विचारोत्तेजक बुद्धि व ज्ञान देखा कि आपके सोचने का तरीका बदल गया। आप उसके विचारों से इतने वशीभूत हो गए कि आपके सामने धर्म-अधर्म जैसे तर्क का कोई मतलब नहीं रह गया पर ऐसा कुछ नहीं हुआ।

यदि ऐसा होता तो आपको ग्लानि नहीं होती क्योंकि आप इस भावना को अपने दिल-दिमाग में लाने के पहले हजार दफा विचार करते। विचार द्वारा उठाया गया कदम न केवल साहस देता है बल्कि आपको सही व सच्चे होने की ताकत भी देता है। तब व्यक्ति, हाय यह मैंने क्या कर दिया, कहकर न तो मुँह छुपाता है और न ही अपना सीना कूटता है। आपका यह रिश्ता हर दृष्टिकोण से निहायत ही उथला, बचपना भरा और अनैतिक है। इस पर सियापा करने के बजाय इस अध्याय को चुपचाप बंद कर दें। अपने मन को स्थिर करें। आपका विश्वास भगवान में है तो मंदिर जाकर माफी माँग लें।

मीरा कुमार ( Meera Kumar )


मारे देश में जातीय भेदभाव का दंश ग्रामीण अनपढ़ स्त्रियाँ ही नहीं, पढीलिखी शहरी औरतें भी झेल रही है, इसे लोकसभा की पहली महिला अध्यक्ष मीरा कुमार से अधिक और कौन महसूस कर सकता है। सार्वजनिक बैठकों में भी मीरा कुमार सामाजिक भेदभाव का जिक्र जरूर करती हैं और उसे मिटाने के लिये अपील भी।

15वीं  लोकसभा के अध्यक्ष पद के लिये मीरा कुमार को नामित किया गया। लेकिन लोकसभा के विभिन्न सत्रों में शोरशराबे के बीच अपनी मधुर आवाज का जादू बिखरने वाली इस विनम्र महिला ने अपनी काबिलीयत की चाप से विरोधियों की बोलती बंद कर दी।

63 वर्षीय मीरा कुमार को राजनीति विरासत में मिली। पूर्व उप प्रधानमंत्री एवं विद्यात दलित नेता बाबू जगजीवन राम और स्वतन्त्रता सेनानी इन्द्रानी देवि की पुत्री मीरा कुमार ने 1985 में राजनीति में कदम रखा। कांग्रेस की ओर से 1985 में वे उत्तर प्रदेश के बिजनौर से लोकसभा सदस्य चुनी गईं। इस के बाद उन्होंने दिल्ली के करोल बाग़ और फिर पिता की परम्परागत सीट बिहार के सासाराम से चुनाव जीते।

2004 में वे केंद्र में समाज कल्याण एवं अधिकारित मंत्री बनीं। इस मंत्रालय में रहते उन्होंने सामाजिक उत्थान वाली योग्नाओं पर काम किया। मीरा कुमार से ही समाज सुधर आन्दोलन में सक्रिय रही हैं। उन्होंने हमेशा जातिवादी व्यवस्था का विरोध किया। मानवाधिकार और लोकतंत्र की पैरवी की।

दलितों के साथ छुआछूत को लेकर उन्होंने आवाज उठाई। उन्होंने अंतरजातीय विवाह करने वालों को 50 हजार रूपये सरकार की ओर से दिलाने के प्रयास किये।

भेदभाव के खिलाफ
निचली जातियों के साथ हुई भेदभाव की घटनाओं पर वे कई जगहों पर गईं। सभाएं की और जाती उन्मूलन के लिये काम किया। जातीय भेदभाव के खिलाफ बैठकें की, प्रदर्शनों में भाग लिया तथा सुप्रीम कोर्ट में दलितों को न्याय दिलाने के लिये जनहित याचिकाएं दायर कीं।

राजनीति में आने से पहले मीरा कुमार भारतीय विदेश सेवा में थीं। वे स्पेन, यू.के. और मारीशस दूतावास में रहीं। वे इंडियामारीशस जौइंट कमीशन में सदस्य भी रहीं।

मीरा कुमार एक अच्छी खिलाड़ी भी रही हैं। राइफल शूटिंग में उन्होंने कई मैडल प्राप्त किये।
1 पुत्री व 3 पुत्रों की माँ मीरा कुमार का जन्म बिहार के भोजपुर जिले में आरा के निकट चंदवा में हुआ था। उन का विवाह सुप्रीम कोरे के वकील मंजुल कुमार के साथ हुआ था। मीरा कुमार देश में सामाजिक समानता चाहती हैं।