30 मार्च 2010

स्वर्ग-नरक



एक मुनि एक शिथिल आलय के सामने के मंडप में ध्यान-मग्न होकर बैठे हुए थे। वहाँ एक सैनिक योद्धा घोड़े से उतरा और मुनि के सामने खड़ा हो गया। थोड़ी देर बार जब मुनि ने आंखें खोलीं तब योद्धा ने उन्हें विनयपूर्वक प्रणाम किया और कहा, ‘‘बहुत दिनों से मेरा एक संदेह है।''

‘‘कहो'' मुस्कुराते हुए मुनि ने कहा।

‘‘स्वर्ग-नरक को लेकर लोग बातें करते रहते हैं, क्या वे सचमुच होते हैं?'' योद्धा ने पूछा।

‘‘तुम कौन हो? क्या करते हो?'' मुनि ने धीमे स्वर में पूछा।

‘‘मैं इस देश का सेनाधिपति हूँ,'' गर्व भरे स्वर में योद्धा ने कहा।

‘‘तुम जैसे मूर्ख को किसने सेनाधिपति बनाया?'' मुनि ने पूछा। मुनि की इस बात पर सेनाधिपति नाराज़ हो उठा और उसने फ़ौरन म्यान से तलवार निकाली।

‘‘अभी-अभी तुममें नरक के द्वार खुल रहे हैं,'' मुनि ने मुस्कुराते हुए कहा। मुनि की बात को सुनकर सेनाधिपति पीछे हट गया और तलवार को म्यान में रखते हुए कहा, ‘‘क्षमा कीजिये मुनिवर।''

‘‘अभी-अभी तुममें स्वर्ग के द्वार खुल रहे हैं। काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि दुर्गुण ही नरक कूप हैं। हममें सुख-संतोष भरते हैं, शांति, करुणा, दया, सहनशक्ति आदि सद्गुण। जिस हृदय में ये सद्गुण रहते हैं, वह हृदय ही स्वर्ग है। स्वर्ग और नरक कहीं और नहीं हैं, हमारे हृदय में ही हैं,'' मुनि ने कहा।

‘‘जान गया, मुनिवर। धन्यवाद'' कहते हुए योद्धा ने एक और बार प्रणाम किया और वहाँ से निकल पड़ा। उसके चेहरे को देखते हुए स्पष्ट लगता था कि अब उसके हृदय में कोई शंका नहीं रही।

(ज़ेन कहानी के आधार पर)