07 अप्रैल 2010

व्रत-उपवास

पुराणों मे इस बात का विस्तार से उल्लेख मिलता है कि हमारे ऋषि-मुनि उपवास के द्वारा ही शरीर, मन एवं आत्मा की शुद्धि करते हुए आलौकिक शक्ति प्राप्त करते थे। वेद मे कहा गया है -

व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नोति दक्षिणाम्‌।
दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते॥

अर्थात्‌ मनुष्य को उन्नत जीवन की योग्यता व्रत से प्राप्त होती है, जिसे दीक्षा कहते हैं। दीक्षा से दक्षिणा यानी जो कुछ किया जा रहा है, उसमें सफलता मिलती है। इससे श्रद्धा जागती है और श्रद्धा से सत्य की यानी जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति होती है, जो उसका अंतिम निष्कर्ष है।

आचरण की शुद्धता को कठिन परिस्थितियों में भी न छोड़ना, निष्ठापूर्वक पालन करना ही व्रत कहलाता है। वस्तुतः विशेष संकल्प के साथ लक्ष्य सिद्धि के लिए किए जाने वाले कार्य के नाम व्रत है।

असंयमित जीवन जीने के कारण जो अशुद्धियां और अनियमितताएं आ जाती है, उनके निवारण का सफल उपाय व्रताचरण ही होता है। अन्न की मादकता के कारण शरीर में आलस्य आने लगता है, जिससे पूजा-उपासना से उत्पन्न आध्यात्मिक शक्ति नष्ट होने लगती है। व्रत से हमारा शरीर और मन शुद्ध बनता है।, आत्मविश्वास बढता है और सयंम की वृति का भी विकास होता है।

आत्मविश्वास हमारी शक्तियों को बढाता है। सयंम से शक्तियों का व्यय घटता है। इस प्रकार से आत्मशोधन और शक्ति दोनों लाभ प्राप्त होते हैं।

इंद्रियो, विषय-वासना और मन पर काबू पानें के लिए उपवास एक अचूक साधन माना गया है। गीता में कहा गया है - विष्या विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः।

चिकित्सकों के मत में भी व्रत और उपवास रखने से अनेक शारीरिक-मानसिक बीमारियों मे लाभ मिलता है। सप्ताह में एक दिन का व्रत करने से हमारे आंतरिक अंगो को विश्राम करने और सफाई करने का मौका मिलता ह।, जिससे शारीरिक-मानसिक शक्ति तथा आयु बढती है। इसके अलावा व्रतानुष्ठान द्वारा आधिभौतिक, आध्यात्मिक एवं आधिदैविक त्रिविध कल्याण प्राप्त होता है।

उपवास का प्रयोजन शरीर का नही, अपितु लक्ष्य पाने का संकल्प जगाना है। महात्मा बुद्ध ने अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए संकल्प किया कि इस आसन पर बैठे-बैठे मेरा शरीर भले ही सूख जाए, चमड़ी, हड़ी और मांस भले ही विनष्ट हो जाए, किंतु दुर्लभ बोधि को प्राप्त किए बिना यह शरीर इस आसन से विचलित नही होगा । इस दृढ़ संकल्प से ही बुद्धत्व को प्राप्त हुए।