परशुराम रामायण काल के दौरान के मुनी थे।
पूर्वकाल में कन्नौज नामक नगर में गाधि नामक राजा राज्य करते थे। उनकी सत्यवती नाम की एक अत्यन्त रूपवती कन्या थी। राजा गाधि ने सत्यवती का विवाह भृगुनन्दन ऋषीक के साथ कर दिया। सत्यवती के विवाह के पश्चात् वहाँ भृगु जी ने आकर अपने पुत्रवधू को आशीर्वाद दिया और उससे वर माँगने के लिये कहा। इस पर सत्यवती ने श्वसुर को प्रसन्न देखकर उनसे अपनी माता के लिये एक पुत्र की याचना की। सत्यवती की याचना पर भृगु ऋषि ने उसे दो चरु पात्र देते हुये कहा कि जब तुम और तुम्हारी माता ऋतु स्नान कर चुकी हो तब तुम्हारी माँ पुत्र की इच्छा लेकर पीपल का आलिंगन करें और तुम उसी कामना को लेकर गूलर का आलिंगन करना। फिर मेरे द्वारा दिये गये इन चरुओं का सावधानी के साथ अलग अलग सेवन कर लेना। "इधर जब सत्यवती की माँ ने देखा कि भृगु जी ने अपने पुत्रवधू को उत्तम सन्तान होने का चरु दिया है तो अपने चरु को अपनी पुत्री के चरु के साथ बदल दिया। इस प्रकार सत्यवती ने अपनी माता वाले चरु का सेवन कर लिया। योगशक्ति से भृगु जी को इस बात का ज्ञान हो गया और वे अपनी पुत्रवधू के पास आकर बोले कि पुत्री! तुम्हारी माता ने तुम्हारे साथ छल करके तुम्हारे चरु का सेवन कर लिया है। इसलिये अब तुम्हारी सन्तान ब्राह्मण होते हुये भी क्षत्रिय जैसा आचरण करेगी और तुम्हारी माता की सन्तान क्षत्रिय होकर भी ब्राह्मण जैसा आचरण करेगा। इस पर सत्यवती ने भृगु जी से विनती की कि आप आशीर्वाद दें कि मेरा पुत्र ब्राह्मण का ही आचरण करे, भले ही मेरा पौत्र क्षत्रिय जैसा आचरण करे। भृगु जी ने प्रसन्न होकर उसकी विनती स्वीकार कर ली। "समय आने पर सत्यवती के गर्भ से जमदग्नि का जन्म हुआ। जमदग्नि अत्यन्त तेजस्वी थे। बड़े होने पर उनका विवाह प्रसेनजित की कन्या रेणुका से हुआ। रेणुका से उनके पाँच पुत्र हुये जिनके नाम थे रुक्मवान, सुखेण, वसु, विश्वानस और परशुराम। एक बार रेणुका सरितास्नान के लिये गई। दैवयोग से चित्ररथ भी वहाँ पर जल-क्रीड़ा कर रहा था। चित्ररथ को देख कर रेणुका का चित्त चंचल हो उठा। इधर जमदग्नि को अपने दिव्य ज्ञान से इस बात का पता चल गया। इससे क्रोधित होकर उन्होंने बारी-बारी से अपने पुत्रों को अपनी माँ का वध कर देने की आज्ञा दी। रुक्मवान, सुखेण, वसु और विश्वानस ने माता के मोहवश अपने पिता की आज्ञा नहीं मानी, किन्तु परशुराम ने पिता की आज्ञा मानते हुये अपनी माँ का सिर काट डाला। अपनी आज्ञा की अवहेलना से क्रोधित होकर जमदग्नि ने अपने चारों पुत्रों को जड़ हो जाने का शाप दे दिया और परशुराम से प्रसन्न होकर वर माँगने के लिये कहा। इस पर परशुराम बोले कि हे पिताजी! मेरी माता जीवित हो जाये और उन्हें अपने मरने की घटना का स्मरण न रहे। परशुराम जी ने यह वर भी माँगा कि मेरे अन्य चारों भाई भी पुनः चेतन हो जायें और मैं युद्ध में किसी से परास्त न होता हुआ दीर्घजीवी रहूँ। जमदग्नि जी ने परशुराम को उनके माँगे वर दे दिये। "इस घटना के कुछ काल पश्चात् एक दिन जमदग्नि ऋषि के आश्रम में कार्त्तवीर्य अर्जुन आये। जमदग्नि मुनि ने कामधेनु गौ की सहायता से कार्त्तवीर्य अर्जुन का बहुत आदर सत्कार किया। कामधेनु गौ की विशेषतायें देखकर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने जमदग्नि से कामधेनु गौ की माँग की किन्तु जमदग्नि ने उन्हें कामधेनु गौ को देना स्वीकार नहीं किया। इस पर कार्त्तवीर्य अर्जुन ने क्रोध में आकर जमदग्नि ऋषि का वध कर दिया और कामधेनु गौ को अपने साथ ले जाने लगा। किन्तु कामधेनु गौ तत्काल कार्त्तवीर्य अर्जुन के हाथ से छूट कर स्वर्ग चली गई और कार्त्तवीर्य अर्जुन को बिना कामधेनु गौ के वापस लौटना पड़ा। "उपरोक्त घटना के समय वहाँ पर परशुराम उपस्थित नहीं थे। जब परशुराम वहाँ आये तो उनकी माता छाती पीट-पीट कर विलाप कर रही थीं। अपने पिता के आश्रम की दुर्दशा देखकर और अपनी माता के दुःख भरे विलाप सुन कर परशुराम जी ने इस पृथ्वी पर से क्षत्रियों के संहार करने की शपथ ले ली। पिता का अन्तिम संस्कार करने के पश्चात् परशुराम ने कार्त्तवीर्य अर्जुन से युद्ध करके उसका वध कर दिया। इसके बाद उन्होंने इस पृथ्वी को इक्कीस बार क्षत्रियों से रहित कर दिया और उनके रक्त से समन्तपंचक क्षेत्र में पाँच सरोवर भर दिये। अन्त में महर्षि ऋचीक ने प्रकट होकर परशुराम को ऐसा घोर कृत्य करने से रोक दिया। अब परशुराम ब्राह्मणों को सारी पृथ्वी का दान कर महेन्द्र पर्वत पर तप करने हेतु चले आये हैं।
05 मार्च 2009
भगवान परशुराम
Labels: संत महापुरुष
Posted by Udit bhargava at 3/05/2009 07:25:00 am 0 comments
03 मार्च 2009
बेताल पच्चीसी
बेताल पच्चीसी – दूसरी कहानी
बेताल पच्चीसी – तीसरी कहानी
बेताल पच्चीसी – चौथी कहानी
बेताल पच्चीसी – पाँचवीं कहानी → असली वीर कौन?
बेताल पच्चीसी – छठी कहानी→ स्त्री का पति कौन?
बेताल पच्चीसी – सातवीं कहानी→ राजा या सेवक- किसका बड़ा काम ?
बेताल पच्चीसी – आठवीं कहानी
बेताल पच्चीसी – नवीं कहानी → राजकुमारी किसको मिलनी चाहिए ?
बेताल पच्चीसी – दसवीं कहानी → सबसे बड़ा त्याग किसका ?
बेताल पच्चीसी – ग्यारहवीं कहानी → सबसे कोमल कौन सी राजकुमारी ?
बेताल पच्चीसी – बारहवीं कहानी
बेताल पच्चीसी – तेरहवीं कहानी → सांप, बाज, और ब्रह्मणि, इन तीनो में अपराधी कौन ?
बेताल पच्चीसी – चौदहवीं कहानी → चोर क्यों रोया और फिर क्यों हँसते-हँसते मर गया ?
बेताल पच्चीसी – पंद्रहवीं कहानी → किस की पत्नी ?
बेताल पच्चीसी – सोलहवीं कहान
बेताल पच्चीसी – सत्रहवीं कहानी → कौन अधिक साहसी ?
बेताल पच्चीसी – उन्नीसवीं कहानी → पिण्ड किसको देना चाहिए?
बेताल पच्चीसी – बीसवीं कहानी → वह बालक क्यों हंसा ?
बेताल पच्चीसी – इक्कीसवीं कहानी → विराग में अँधा कौन ?
बेताल पच्चीसी – बाईसवीं कहानी → शेर बनाने का अपराध किसने किया ?
बेताल पच्चीसी – तेईसवीं कहानी → योगी पहले रोया क्यों फिर हंसा क्यों ?
बेताल पच्चीसी – चौबीसवीं कहानी → रिश्ता क्या हुआ ?
बेताल पच्चीसी – पच्चीसवीं और अन्तिम कहानी
Labels: कहानियां
Posted by Udit bhargava at 3/03/2009 09:00:00 am 0 comments
01 मार्च 2009
श्री काली देवी क़ी आरती
आरती
आरती श्री काली देवी जी क़ी
मंगल क़ी सेवा सुन मेरी देवा, हाथ जोड़ तेरे द्वार खड़े ।
पान सुपारी ध्वजा नारियल, ले ज्याला तेरी भेंट धरे ।
सुन जगदम्बे न कर विलम्बे, जय काली कल्याण करे। सन्तन प्रतिपाली ॥
बुद्धि विधाता तू जगमाता, मेरा कारज सिद्ध करे ।
चारण कमल का लिया आसरा, शरण तुम्हारी आन परे ।
जब जब भीर पड़े भक्तन पर, तब तब आय सही करे। सन्तन प्रतिपाली ॥
गुरु के बार सफल जब मोह्यो, तरुणी रूप अनूप धरे ।
माता होकर पुत्र खिलावैकहा भार्या भोग करे ।
सब सुखदायी सदा सहाई, संत खड़े जयकार करे। सन्तन प्रतिपाली ॥
ब्रह्मा विष्णु महेश फल लिये, भेंट देन तेरे द्वार खड़े ।
अटल सिंहासन बैठी माता, सर सोने का छात्र फिरे ।
बार शनिश्चर कुमकुम वरणी, जब लुंकड पर हुकम करे । सन्तन प्रतिपाली ॥
खंग खप्पर त्रिशूल हाथ लिये, रक्त बीज कूं भस्म करे ।
शुम्भ निशुम्भ क्षणहि में मारे, महिषासुर को पकड दले ।
आदित बारी आदि भवानी, जन अपने का कष्ट हरे । सन्तन प्रतिपाली ॥
कुपित होय कर दानव मारे, चण्ड मुण्ड सब चूर करे ।
जब तुम देखो दयररूप हो, पर में संकट दूर टरे ।
सौम्य स्वभाव धरयो मेरीमात, जन की अर्ज कबूल करे । सन्तन प्रतिपाली ॥
सात बार की महिमा बर्नी, सब गुण कौन बखान करे ।
सिंह पीठ पर चढी भवानी, अतल भवन में राज्य करे ।
दर्शन पावें मंगल गावें, सिध साधक तेरी भेंट धरे । सन्तन प्रतिपाली ॥
ब्रह्मा वेद पढे तेरे द्वारे, शिवशंकर हरि ध्यान करे ।
इन्द्र कृष्ण तेरी करें आरती, चंवर कुबेर डुलाये करे ।
जय जननी जय मातु भवानी, अचल भवन में राज्य करे ।
संतान प्रतिपाली सदा खुशहाली, जय काली कल्याण करे । सन्तन प्रतिपाली ॥
Posted by Udit bhargava at 3/01/2009 04:41:00 pm 0 comments
संत महिमा क़ी आरती
आरती
सुख-दुःख पाप-पुण्य दिन राती ।
साधू-असाधु सुजाति कुजाती ॥
दानव देव उंच अरु नीचू ।
अमित सुजीवंहू माहुरु मीचू ॥
माया ब्रहम जीव जगदीसा ।
लच्छे- अल्लाच्चे रंक अवनीसा ॥
कासी मग सुरसरी क्रम नासा
मरू मारव माहि देव गवासा ॥
सरग नरक अनुरागा बिरागा ।
निगमागम गनु दोष विभागा ॥
जड़- चेतन गुण दोषमय, विस्व कीन्ह करतार ।
संत साँस गुण गहहिं पय, परिहरि वारि विकार ॥
Posted by Udit bhargava at 3/01/2009 04:29:00 pm 0 comments
श्री गुरु श्री चन्द्र जी क़ी आरती
आरती
आरती श्री गुरु श्री चन्द्र जी क़ी
ॐ जय श्री चन्द्र बाबा, स्वामी जय श्री चन्द्र बाबा।
सुर नर मुनिजन ध्यावत, संत से व्य साहिबा॥
कलियुग घोर अँधेरा, तुम लियो अवतार।
शंकर रूप सदाशिव, यश अपरम्पार॥
योगी तुम अवधूत सदा हे बाल भ्रम्चारी।
भेष उदासी धारे, महिमा अतिभारी॥
रामदास गुरु अर्जुन सोढी कुल भूषण॥
सेवत चारण तुम्हारे, मिटे सकल दूषण॥
रिद्धि सिद्धि के दाता, भक्तन के त्राता।
रोग शोक को काटे जो शरनी आता॥
भक्त गिरी सन्यासी चरणां विच गिरयो।
काट दियो भवबंधन अपना शिष्य कियो ॥
उदासीन जन जग मेइन पालक सलक दुख घालक ।
तुम आचर्य जगत मेइन सदगुण संचालक ॥
वेदि वंश रखियो जग भीतर, कृपाकारी भारी।
धर्म चंद उपदेशियों, जावां बलिहारी॥
गौर वर्ण तनु भस्म कान में में सजे हुए मदुरा।
बाव्रियां शिर भाजें, लाख जग सब उघरा॥
पद्मासन को बाँधा योग लियो पारो।
ऐसो ध्यान तुम्हारो, मन में नित धारो॥
जो जन आरती निशदिन बाबे क़ी गावे।
बसे जाय बैकुंठहि सुख पुल पावे॥
Posted by Udit bhargava at 3/01/2009 04:13:00 pm 0 comments
श्री खाटू श्याम जी क़ी आरती
आरती
आरती श्री खाटू श्याम जी क़ी
ॐ जय श्री श्याम हरे, बाबा जय श्री श्याम हरे॥
खाटू धाम विराजत, अनुपम रूप धरे॥ ॐ जय॥
रतन जडित सिंहासन, सिर पर चंवर ढुरे।
तन के सरिया बातो, कुंडल श्रवण पड़े॥ ॐ जय॥
गल पुष्पों क़ी माला, सर पर मुकुट धरे।
खेवत धुप अग्नि पर, दीपक ज्योति जले ॥ ॐ जय॥
मोदक खीर चूरमा, सुवरण थाल भरे।
सेवन भोग लगावत, सेवा नित्य करे॥ ॐ जय ॥
झांझ कटोरा और घडियावल, शंख मृदंग धुरे।
भक्त आरती गाव, जय-जयकार करे॥ ॐ जय॥
जो ध्यावे फल पावे, सब दुःख से उबरे।
सेवक जन निज मुख से, श्री श्याम-श्याम उचरे॥ ॐ जय॥
श्री श्याम बिहारी जी क़ी आरती जो कोई नर गावे।
कहत सदानंद स्वामी, मंवांचित फल पावे॥ ॐ जय॥
तन मन धन सब कुछ तेरा, जो बाबा सब कुछ है तेरा।
तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे मेरा॥ ॐ जय॥
जय श्री श्याम हरे, बाबा श्री श्याम हरे।
निज भक्तों के तुमने, पूरण काज करे॥ ॐ जय॥
Posted by Udit bhargava at 3/01/2009 03:59:00 pm 0 comments
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