स्नान करने के पश्चात् अपनी क्लान्ति मिटा कर दोनों भाई सुग्रीव से मिलने के उद्देश्य से पम्पासर के पश्चिम तट के निकट पहुँचे। वहाँ उन्होंने एक सुन्दर, स्वच्छ एवं रमणीक आश्रम देखा। वह शबरी नामक भीलनी का आश्रम था। उसने राम-लक्ष्मण को उधर से निकलते देख उनका स्वागत किया और आदरपूर्वक उन्हें अपने आश्रम में ले आई। उनके चरण स्पर्श कर उनका यथोचित सत्कार और पूजन किया। इससे प्रसन्न हो आसन पर बैठ रामचन्द्र जी बोले, "हे तपस्विनी! तुम्हारी तपस्या में किसी प्रकार की कोई विघ्न-बाधा तो नहीं पड़ती? कोई राक्षस आदि तुम्हें कष्ट तो नहीं देते?"
राम के स्नेह भरे शब्द सुन कर वृद्धा शबरी हाथ जोड़ कर बोली, "हे प्रभो! आपके दर्शन पा कर मेरी सम्पूर्ण तपस्या सफल हो गई। मेरे गुरुदेव तो उसी दिन बैकुण्ठवासी हो गये थे जिस दिन आप चित्रकूट में पधारे थे। उन्होंने अपने अन्तिम समय में आपके विषय में मुझे बताया था। तभी से मैं आपके स्वागत के लिये इस वन के मीठे और स्वादिष्ट फल छाँट-छाँट कर एकत्रित करती रही हूँ। कृपया इन्हें ग्रहण कर के मुझे कृतार्थ करें।"
शबरी ने जो फल प्रेम और श्रद्धा से एकत्रित किये थे, उन्हें राम ने बड़े प्रेम से स्वीकार किया। वे एक-एक बेर खते जाते थे और उसकी भूरि-भूरि प्रशंसा करते जाते थे। जब वे स्वाद ले-ले कर सब बेर खा चुके तो शबरी ने उन्हें बताया, "हे राम! यह सामने जो सघन वन दिखाई देता है, मातंग वन है। मेरे गुरुओं ने एक बार यहाँ बड़ा भारी यज्ञ किया था। यद्यपि इस यज्ञ को हुये अनेक वर्ष हो गये हैं, फिर भी अभी तक सुगन्धित धुएँ से सम्पूर्ण वातावरण सुगन्धित हो रहा है। यज्ञ के पात्र भी अभी यथास्थान रखे हुये हैं। हे प्रभो! मैंने अपने जीवन की सभी धार्मिक मनोकामनाएँ पूरी कर ली हैं। केवल आपके दर्शनों की अभिलाषा शेष थी, वह आज पूरी हो गई। अब आप मुझे अनुमति दें कि मैं इस नश्वर शरीर का परित्याग कर के वहीं चली जाऊँ जहाँ मेरे गुरुदेव गये हैं।"
शबरी की अदम्य शक्ति और श्रद्धा देख कर राम ने कहा, "हे परम तपस्विनी! तुम्हारी इच्छा अवश्य पूरी होगी। मैं भी प्रार्थना करता हूँ कि परमात्मा तुम्हारी मनोकामना पूरी करें।"
रामचन्द्र जी का आशीर्वाद पा कर शबरी ने समाधि लगाई और इस प्रकार अपने प्राण विसर्जित कर दिये। इसके पश्चात् शबरी का अन्तिम संस्कार कर के दोनों भाई पम्पा सरोवर पहुँचे। निकट ही पम्पा नदी बह रही थी जिसके तट पर नाना प्रकार के वृक्ष पुष्पों एवं पल्लवों से शोभायमान हो रहे थे। स्थान की शोभा को देख कर राम अपना सारा शोक भूल गये। वे सुग्रीव से मिलने की इच्छा को मन में लिये पम्पा के किनारे-किनारे पुरी की ओर चलने लगे।
॥अरण्यकाण्ड समाप्त॥
10 अप्रैल 2010
रामायण – अरण्यकाण्ड - शबरी का आश्रम
Posted by Udit bhargava at 4/10/2010 05:43:00 pm
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