पालक हस्तवर नामक गाँव का निवासी था। वह धन-पिपासु व अव्वल दर्जे का कंजूस था। उसने सूद के व्यापार से बहुत धन कमाया।
वह एक दिन सूद वसूल करने पड़ोस के गाँव में गया। लौटते समय अंधेरा छा चुका था। फिर भी स्वग्रम पहुँचने निकल पड़ा। उस समय सामने से आते हुए घोडा गाडीवाले ने उसे पहचान लिया और कहा, ‘‘पालक जी, एक रुपये का किराया देंगे तो आपको सुरक्षित गाँव पहुँचा दूँगा।''
पालक ने चिढ़ते हुए कहा, ‘‘मैं पैदल जा सकता हूँ। इतना तेज़ जा सकता हूँ कि तुम्हारा घोड़ा भी मेरी बराबरी नहीं कर सकता।''
‘‘एक रुपया देने के लिए भी आप इतनी आनाकानी कर रहे हैं। जानते हैं, मार्ग में भूत-प्रेत भी हैं।'' गाड़ीवाले ने पालक को डराने के उद्देश्य से कहा।
परंतु, पालक ने उसकी बातों की परवाह नहीं की और पैदल चल पड़ा। चांदनी रात थी, इसलिए रास्ता साफ़ दिखायी दे रहा था। रास्ते में, जटाओं से घिरा बरगद का एक विशाल वृक्ष था, जिसके पास ही एक पुरानी व उजडी सराय भी थी। सराय के सामने खड़े वृद्ध पुरुष ने उसे देखते ही कहा, ‘‘कुशल पूर्वक हो, पालक?''
पालक ने उसे ग़ौर से देखते हुए कहा, ‘‘मैंने तो इसके पहले तुम्हें कभी नहीं देखा। तुम हो कौन?''
‘‘मैं तुम्हारे सात पुश्तों के पहले का हूँ। यानी मैं तुम्हारा परदादा हूँ।'' वृद्ध ने कहा।
‘‘मेरे परदादा तो मेरे जन्म के पहले ही मर चुके। मैं यह विश्वास ही नहीं कर सकता कि उनका परदादा अब भी जीवित है।'' उसने कह तो डाला, पर उसमें भय पैदा हो गया। फिर भी अपने को संभालते हुए पूछा, ‘‘तुम कहीं उस परदादा के परदादा के भूत तो नहीं हो न?''
‘‘हाँ, हाँ, तुमने सही समझा। पालक, डरना मत। तुम्हें मैं बहुत चाहता हूँ। इसी वजह से तुम्हें वह सारी धन-राशि देने आया हूँ, जिसे मैंने अपने जीवन-काल में छिपा रखा था। उस गुप्त धन-राशि के बारे में व अपने बारे में बताऊँगा। सुनो।'' वृद्ध ने यों कहाः
उस भूत का नाम प्रकाश था। वह पालक से भी बड़ा धनवान और कंजूस था। धन कमाना ही उसका एकमात्र लक्ष्य था। उसके बेटों या पोतों में से कोई भी उसके जैसा नहीं था। वे न ही कंजूस थे, न ही धन के पीछे पागल। यही चिंता उसे खाये जा रही थी। वे दयालु थे। मौक़ा मिला तो दान देने के लिए आगे आते थे। खुलकर पैसे खर्च करते थे। जब उसने देखा कि उसका कमाया हुआ पूरा धन बर्फ की तरह पिघल रहा है तो उसे बड़ा ही दुख हुआ।
खूब सोच-विचार के बाद प्रकाश ने एक कठोर निर्णय लिया। उसने सबको घर से निकाल दिया। मरने के बाद भूत बनकर उस धन-राशि की रक्षा करने लगा। हाल ही में उसे पालक के बारे में मालूम हुआ। उसे लगा कि चूँकि पालक उसी का वारिस है तो यह धन-राशि उसके सुपुर्द क्यों न कर दिया जाए। इससे धन सुरक्षित रहेगा और साथ ही उसमें वृद्धि भी होगी।
पालक ने भूत का कहा ध्यान से सुना और बेहद खुश हुआ। भूत ने कहा, ‘‘देखो पालक, अपनी सारी आमदनी तुम्हें सौंपूगा, पर एक शर्त पर।''
पालक ने आतुरता-भरे स्वर में पूछा, ‘‘कहो, वह शर्त क्या है?'' ‘‘अदृश्य रहकर मैं सदा तुम्हारे ही साथ रहूँगा। घर की पूरी जिम्मेदारी मुझे सौंपनी होगी। मैं जो कहूँगा, वही होगा।'' भूत ने कहा ।
धन के पिपासु पालक ने आगे-पीछे सोचे बिना भूत की शर्त को सहर्ष स्वीकार कर लिया। इसके बाद भूत प्रकाश ने पूरी धन-राशि पालक के सुपुर्द कर दी। अब पालक के घर की देखभाल की जिम्मेदारी भूत ने संभाली। उस क्षण से घर नरक बन गया। घर में पालक की माँ, उसकी पत्नी व तीन बच्चों सहित कुल छे लोग रहते थे । उसकी शर्तों के अनुसार उनके भोजन के लिए जितना चावल चाहिये, उसमें से चौथे भाग की बचत करनी थी। स्वादहीन आहार-पदार्थों व पानी जैसे पतले छाछ से पेट भरना था । त्योहारों के दौरान पकवानों पर निषेध था ।
पहले पालक इतनी कठोरता बरतता नहीं था। घर के लोगों की समझ में नहीं आया कि पालक इतना क्रूर क्यों बन गया। उसकी व्यवहार-शैली में अकस्मात् इतना परिवर्तन क्यों आया।
एक दिन पालक की दस साल की बेटी पार्वती अचानक बीमार पड़ गयी। ‘‘पार्वती को बग़ल के गाँव के वैद्य के पास ले जाना है। क्या संदूक से थोड़ी-सी रक़म निकाल सकता हूँ?'' पालक ने भूत से दबे स्वर में पूछा।
‘‘नहीं। बड़े कहते हैं कि उपवास परम औषध है। उपवास रखेगी तो बुखार आप ही आप घट जायेगा।'' भूत ने कड़े स्वर में कहा।
‘‘घटने के आसार नहीं दीख रहे हैं। अगर कुछ हो गया तो,'' पालक ने दीन स्वर में कहा।
‘‘ऐसा हुआ तो वह हमारे लिए लाभदायक ही है। आजकल लड़की की शादी करना कोई मामूली बात नहीं है। काफी धन खर्च करना पड़ता है। हम खर्च से बच जायेंगे।'' भूत ने ठठाकर हँसते हुए कहा।
भूत की ये बातें सुनकर पालक निश्चेष्ट रह गया।
बेटी की तबीयत के बारे में पति की उदासीनता को देखकर पालक की पत्नी लक्ष्मी एकदम नाराज़ हो उठी। उसने संदूक को खोलने के लिए एक चाभी ढूँढ़ निकाली। पति की ग़ैरहाजिरी में उसने संदूक से पैसे निकाले। बेटी की चिकित्सा करवायी। अब बेटी का बुख़ार कम होने लगा।
भूत को संदेह हुआ कि उसकी जानकारी के बिना घर में कोई गड़बड़ी हो रही है । तो एक दिन पालक के साथ गये बिना घर में ही रह गया। उसे मालूम हो गया कि घर में क्या हो रहा है।
पालक रात को जैसे ही घर लौटा, भूत ने छाती पीटते हुए कहा, ‘‘अरे, देखो तो सही, संदूक में क्या बच गया?''
पालक ने संदूक खोला तो उसमें दो प्रकार के भस्म, लेह, कषाय की एक बोतल दिखायी पड़ी। इतने में वहॉं आयी पत्नी से उसने पूछा, ‘‘यह सब क्या है?''
‘‘हाँ, मैंने ही संदूक खोला, रक़म ली और बेटी का इलाज करवाया। ऐसा करके क्या मैंने कोई ग़लती की? जो धन बेटी के इलाज के लिए भी उपयोग में नहीं आये उसकी हमें क्या ज़रूरत है? तुम्हारे लिए धन ही सब कुछ है तो कहो, खायेंगे-पीयेंगे नहीं, भूखा रहेंगे और हम सब एक साथ आत्महत्या कर लेंगे।'' पत्नी लक्ष्मी ने आँसू बहाते हुए कहा।
पालक कुछ कहे बिना वहाँ से चला गया। रात भर वह सो नहीं पाया। सबेरे-सबेरे उसने एक निर्णय लिया। संदूक खोलकर थोड़ी-सी रक़म पत्नी को देते हुए उसने कहा, ‘‘मुझे माफ़ कर देना लक्ष्मी। समय पर इलाज करवाकर तुमने पार्वती बेटी को बचा लिया। इस रक़म से घर के लिए जो भी आवश्यक चीज़ें खरीदनी है, खरीदो। ख्याल रखना, बच्चों को कोई कमी महसूस न हो।''
भूत यह सब देख रहा था। वह पालक को पिछवाड़े में ले गया और क्रोध से कहा, ‘‘अरे पालक, तुम अपने वचन से मुकर गये।''
‘‘मैं व्यापारी हूँ। वचन से मुकरना मेरी आदत है,'' पालक ने निश्चिंत होकर कहा।
‘‘मैं चाहता था कि पीढ़ियों दर पीढ़ियों तक हम संपन्न रहें। इसी को दृष्टि में रखकर मैंने यह सब कुछ किया। वचन नहीं निभाओगे तो तुम कहीं के न रहोगे।'' भूत ने कर्कश स्वर में कहा।
‘‘इसका निर्णय तो समय ही करेगा। आख़िर संपन्नता हो किसलिए? उसका भोग न करके उसे संदूकों में बंद कर उस पर पहरा देने के लिए? अपनी बेटी के इलाज के लिए भी जिस धन का उपयोग न किया जाए तो वह धन क्यों और किस लिए? धन के मोह में आकर तुमने सब बंधुओं को दूर रखा। अमूल्य प्रेम और अनुराग से दूर होकर, मरने के बाद भी धन-पिपासु बनकर, भूत बनकर अशांत रह रहे हो। तुम्हारी इस दुर्गति व दुस्थिति को देखते हुए मैंने निर्णय कर लिया कि भविष्य में मेरी भी ऐसी दुर्गति न हो।'' पालक ने आवेश में आकर कहा।
‘‘वाह पालक, वाह, तुमने मेरी आँखें खोल दीं। तुम्हारी बातें सौ फी सदी सच हैं। अपने परिवार की ही नहीं, अडोस-पडोस के लोगों की भी सहायता करते हुए सुखी जीवन बिताना।'' यह कहकर भूत ग़ायब हो गया और फिर कभी नहीं लौटा।
30 मार्च 2010
धन-पिपासु
Posted by Udit bhargava at 3/30/2010 09:37:00 pm
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
एक टिप्पणी भेजें