31 मार्च 2010

उत्तम वैद्य


वल्लभापुर का निवासी रमेश पांडे प्रख्यात वैद्य था। सब लोग कहते थे कि उनसे बढ़कर कोई वैद्य है ही नहीं। वह निस्संतान था। उसका विश्वास था कि यह शास्त्र किसी के सिखाने मात्र से कोई सीख नहीं सकता। इसके लिए सीखनेवाले में होनी चाहिये, लगन और इच्छा शक्ति।

एक दिन रमेश पांडे के दूर का रिश्तेदार कमल पांडे अपने दोनों बेटों के साथ चिकित्सा कराने उसके यहाँ आया। शहर में उसकी आभूषणों की दुकान थी। कुछ समय से वह नासूर-विशेष से पीडित था। उसके दोनों बेटे धनुंजय व राघव वैद्य वृत्ति के प्रति आकर्षित हुए।

रमेश पांडे की चिकित्सा से दो ही हफ्तों में कमल पांडे के रोग में सुधार आया। शहर लौटते हुए उसने रमेश पांडे से कहा, ‘‘भाई साहब, आप साक्षात् धन्वंतरी हैं। परंतु मैं यह नहीं चाहता कि वैद्य वृत्ति में आपकी यह प्रवीणता आप ही के साथ ख़त्म हो जाए।'' रमेश पांडे ने कहा, ‘‘मैं कर भी क्या सकता हूँ। मैं किसी और को यह शास्त्र तभी सिखा सकता हूँ, जब कि उसमें इसके प्रति लगन हो ।''

‘‘मेरे दोनों बेटों में इस शास्त्र के प्रति रुचि है। आप इन दोनों को अपने शिष्यों के रूप में स्वीकार कीजिये।'' कमल पांडे ने विनती की।

रमेश पांडे ने बता दिया कि उनकी परीक्षा के बाद ही यह निर्णय लूँगा कि उन्हें शिष्य के रूप में स्वीकार करना है या नहीं । उसके इस उत्तर से संतुष्ट कमल पांडे शहर चला गया।

इन दोनों में से धनुंजय अ़क्लमंद था। वह विषय जल्दी ही समझ जाता ता। राघव शांत स्वभाव का था। विषय को एक-दो बार सुन लेने के बाद ही वह किसी निर्णय पर आता था। रमेश पांडे दस दिनों तक तरह-तरह के पत्तों और जड़ी-बूटियों की विशिष्टता के बारे में उन्हें बताया। साथ ही उसने उनसे यह भी कहा कि वे उसकी चिकित्सा-पद्धति को ग़ौर से देखें।

एक दिन, रमेश पांडे को ख़बर मिली कि पास ही के गाँव का भूस्वामी बहुत बीमार है, जो खाता है, वह पचता नहीं और कोई अज्ञात रोग उसे कमज़ोर बनाये जा रहा है। जो आदमी यह ख़बर लेकर आया, उससे रमेश पांडे ने भूस्वामी के बारे में और भी जानकारी ली। रमेश पांडे समझ गया कि वह भूस्वामी अजीर्ण रोग से पीड़ित है। उसने धनुंजय को उस भूस्वामी के इलाज का भार सौंपा। जाते समय उसे यह भी समझाया कि इस अजीर्ण रोग के लिए किन-किन दवाओं को उपयोग में लाना चाहिये।

दो दिनों तक धनुंजय ने गुरु की बतायी दवाओं से भूस्वामी का इलाज किया। उनके कहे पत्तों व जड़ी-बूटियों को पीसा और उनकी गोलियाँ बनाकर भूस्वामी को खिलाने लगा। लगता था कि वह सुधर गया, पर देखते-देखते भूस्वामी फिर से उस रोग से पीडित होने लगा। धनुंजय की समझ में नहीं आया कि क्या किया जाए। वह निराश होकर लौट आया।

राघव ने, गुरु से भूस्वामी की चिकित्सा की अनुमति माँगी। रमेश पांडे ने मान लिया। भूस्वामी के यहाँ पहुँचने के बाद उसने वह आहार मँगवाया, जिसे भूस्वामी हर दिन खाता है। उसने उस आहार की परीक्षा की। उसके भोजन में घी और तेल की भरमार है। अनेक प्रकार के बलवर्धक पदार्थ आवश्यकता से अधिक हैं। राघव की समझ में आ गया, त्रुटि कहाँ है।

राघव ने भूस्वामी से कहा, ‘‘महाशय, आपको परहेज़ से रहना होगा। दस दिनों तक इमली के रस व मथे मट्ठे से भोजन करना होगा। तभी जाकर गुरु की दी हुई दवा उपयोगी साबित होगी।''

भूस्वामी ने ‘‘हाँ'' कह दिया । एक सप्ताह के अंदर ही उसका रोग कम होने लगा। भूस्वामी ने राघव को उचित भेंट देकर बिदा किया।

राघव जब लौटा तब रमेश पांडे घर में नहीं था। धनुंजय ने राघव से विषय की पूरी जानकारी ली । शाम को जब रमेश पांडे लौटा तब धनुंजय ने कहा, ‘‘गुरुदेव, मैं जान गया कि राघव ने भूस्वामी की कैसे चिकित्सा की और उसमें सफल हुआ। उसने जीरा, काली मिर्च और थोडा सा गुड़ मिश्रित कषाय मात्र दिया। मैंने भी आप का बताया इलाज ही किया पर कोई फायदा नहीं हुआ। ऐसा क्यों हुआ?''


रमेश पांडे ने मुस्कुराते हुए कहा, ‘‘धनुंजय, वैद्य को चाहिये कि वह रोगी की ही नहीं, बल्कि रोग की भी परीक्षा करे। रोग के मूल कारण को पहचानना चाहिये। भूस्वामी आवश्यकता से अधिक खाता है। इसकी चिकित्सा के लिए दवाओं से अधिक प्रभावशाली है, पथ्य। इसी कारण राघव का इलाज कामयाब हुआ।''

दूसरे दिन, जब दोनों जड़ी-बूटियों को इकठ्ठा करने वन में घूम रहे थे, तब उन्होंने एक आदमी को पेड़ के नीचे बेहोश पड़ा देखा। वह बहुत ही दुबला-पतला था और उसके कपड़े फटे हुए थे। धनुंजय ने कहा, ‘‘कोई भिखारी लगता है। भूख से बेहोश है। चलो, अपना काम करते हैं।''

‘‘हाँ, हाँ, जिस काम पर आये, वह तो करेंगे ही। परंतु, इस स्थिति में इसे छोड़कर जाना भी तो उचित नहीं है।'' कहते हुए राघव ने उस आदमी के चेहरे पर पानी छिड़का। जब वह आदमी उठ बैठा, तब राघव ने धनुंजय से कहा, ‘‘धनुंजय, इसे घर ले जाकर भर पेट खाना खिलायेंगे। यह भी जानेंगे कि क्या भूख के कारण ही इसकी यह दुस्थिति हुई है या किसी रोग से यह पीड़ित है। गुरुजी से इसकी परीक्षा करायेंगे।'' कहकर वे उसे गुरु के पास ले आये।

रमेश पांडे ने सब कुछ सुनने के बाद धनुंजय से कहा, ‘‘निस्सहाय के प्रति और रोगियों के प्रति वैद्य में सहानुभूति होनी चाहिये। उसकी आर्थिक परिस्थितियों को दृष्टि में रखकर उससे धन लेना चाहिये। हम रोगी का मित्र बनकर उससे व्यवहार करेंगे तो हम अपनी वृत्ति में निखरेंगे।''

गुरुदेव की बातें सुनकर धनुंजय का चेहरा फीका पड़ गया। उसने कहा, ‘‘क्षमा कीजिये गुरुदेव। वैद्य वृत्ति के द्वारा अधिकाधिक कमाने के उद्देश्य से यहाँ आया था। पर अब लग रहा है कि व्यापार की तुलना में यह कमाई नहीं के बराबर है। वैद्य वृत्ति मेरे स्वभाव के अनुकूल नहीं है। मुझे घर लौटने की अनुमति दीजिये।'' यों कहकर धनुंजय वहाँ से चला गया।

राघव ने गुरु रमेश पांडे के यहाँ रहकर वैद्य वृत्ति अपनायी और थोड़े ही समय में उत्तम वैद्य बना । वह गुरु से भी अधिक प्रसिद्ध हुआ।