हमारे कुछ रीति-रिवाज और मान्यताएं अनजाने में ही कुछ शिशुओं के स्वास्थ्य के साथ गंभीर खिलवाड़ कर बैठते हैं। पुरानी प्रथाएं कब और कैसे जन्मी तथा कैसे जनमानस में पैठ कर गई, इसके इतिहास में जाने के बजाय विज्ञान के धरातल पर कसकर देखना चाहिए। किसी भी मान्यता के अच्छे या बुरे परिणाम हो सकते हैं। इस पर विचार किये जाने की आवश्यकता है।
शिशु के जन्म पर हर समाज में अपने पारंपरिक रीति-रिवाज होते हैं। ये रिवाज पीढ़ियों से चले आ रहे हैं। घर के बुजुर्गों में इन रिवाजों के लिए आस्था तो होती ही है, साथ ही उन्हें पूर्ण विशवास भी होता है की इन रिवाजों का माँ एवं बच्चे पर सकारात्मक प्रभाव रहेगा। कुछ परम्पराओं में वे सही भी होते हैं, लेकिन कई बार अनजाने में ही सही, ये रिवाज माँ-बच्चे को नुकसान पहुंचा सकते हैं। ऐसे ही कुछ रिवाज व उनके पीछे के तथ्यों को इस लेख में शामिल किया गया है।
रिवाज : आँखों में कोलोस्ट्रम (प्रसव के बाद पहले दो-तीन दिन में स्तन से आने वाला गाढा दूध) डालना।
तथ्य : यह एक अच्छी परम्परा है, क्योंकि कोलोस्ट्रम में विशेष प्रकार के एंटीबाँडीज (आईजीए) होते हैं, जो की शिशु की आँखों को इन्फेक्शन से बचाता है।
रिवाज : माँ-बच्चे को सवा महीने अलग कमरे में रखना एवं घर के अन्य सदस्यों को उन्हें नहीं छूना।
तथ्य : इसके कई फायदें हैं।
1. माँ एवं बच्चे को इन्फेक्शन की आशंका कम हो जाती है।
2. माँ-बच्चों में अपनत्व की भावना जागती है।
3. ठण्ड के दिनों में माँ के शरीर की गर्मी से ही बच्चे का शरीर गर्म रहता है एवं वह अपने शरीर का तापमान आसानी से नियंत्रित कर लेता है।
4. माँ घर की अन्य दैनिक गतिविधियों से चिंतामुक्त रहती है, जिससे माँ के दूध की मात्रा भी बढ़ती है एवं उसका पूरा ध्यान सिर्फ शिशु पर ही रहता है।
भ्रान्ति : आँखों में काजल या सूरमा लगाना।
तथ्य : नवजात की आँखें अत्यंत संवेदनशील होती हैं।
काजल लगाने से आँखों में संक्रमण का खतरा होता है, जिसे कंजंक्टिवाइटस कहते हैं। इसमें आँखों से पानी या मवाद आता है। सूरमा में लेड या सींसा की मात्रा अधिक होती है, जो की बच्चे के रक्त में पहुंचकर प्लाम्बिजब नाम की बीमारी की आशंका को बढ़ा देता है, जिससे बच्चे का शारीरिक एवं मानसिक विकास अवरूद्ध हो जाता है तथा खून की कमी एवं अपक की शिकायत होती है, साथ ही काजल लगाते वक्त सीधे अंगुली द्वारा भी आँखों को नुकसान हो सकता है। काजल में कार्सिनोजेंट्स होते हैं, जिससे कैंसर होने की आशंका होती है।
भ्रान्ति : जन्म के तुरंत बाद बच्चे को गुड, शक्कर का पानी, शहद, गाय का दूध आदि देना।
तथ्य : शुरू के तीन दिन का दूध गाढा एवं पीला होता है एवं बच्चे की सभी आवश्यकताओं की पूर्ती करता है। यह अत्यंत जरूरी होता है। अन्य पेय पदार्थों को देने से स्तनपान स्थापित करने में रूकावट तो आती है, साथ ही साथ बच्चे को इन्फेक्शन का खतरा भी बढ़ जाता है। बच्चे को डायरिया आसानी से हो सकता है।
भ्रान्ति : बच्चे की नाभि पर मिट्टी, घी, गाय का गोबर, कुमकुम आदि लगाना।
तथ्य : ऊपर बताई हुई चीजें लगाने पर टिटेनस की बीमारी की आशंका हो जाती है। शिशु की नाभि से लटकने वाली नाल का बाकी हिस्सा खुला छोड़ देना चाहिये।
भ्रान्ति : कान व नाक में तेल, दूध आदि डालना।
तथ्य : सर्वथा अनुचित है। ऐसा करने पर कान में पपड़ी जमाना, फंगल इन्फेक्शन एवं सुनाने के क्षमता कम होने की आशंका रहती है। नाक में कुछ डालने से सांस में रूकावट हो सकती है, जो कभी-कभार खतरनाक भी हो सकता है।
भ्रान्ति : नवजात शिशु को पुराने उपयोग किये हुए कपडे पह्नानन।
तथ्य : नवजात के कपडे नर्म, मुलायम, वजन में हलके व पसीना सोखने वाले होना चाहिए। एकदम नए कपडे कड़क होते हैं, साथ ही उनसे एलर्जी की आशंका रहती हैं, इसलिए नवजात को या तो नए कपडे एक बार धोकर पहनाए या फिर पुराने कपडे बराबर धोकर एवं प्रेस किये हुए पहनाएं।
भ्रान्ति : बच्चे को जन्मघुट्टी या ग्राइपवाटर देना।
तथ्य : जन्मघुट्टी देने के पीछे सोच यह है की इससे बच्चे को उसकी पेट की तकलीफ जैसे गैस बनाना, मरोड़ आना, दूध नहीं पचना आदि में सहायता मिलाती है, लेकिन इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है एवं साथ ही यह देखा गया है कि जन्मघुट्टी से बच्चे को दस्त अधिक लगते हैं। ऐसे ही ग्राइपवाटर में अल्कोहल होता है, जिससे बच्चे को कुछ समय के लिए नींद अवश्य आ जाती है, लेकिन यह बच्चे की तकलीफ का स्थायी हल नहीं होता है।
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