सीता और लक्ष्मण के साथ राम ने दण्डक वन में प्रवेश किया। वहाँ पर उन्हें ऋषि-मुनियों के अनेक आश्रम दृष्टिगत हुये। वह क्षेत्र अत्यन्त मनोरम था। वहाँ पर बड़ी बड़ी यज्ञशालाएँ थीं तथा हवन-सामग्री भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध था। उन आश्रमों में तेजस्वी ऋषि-मुनि अपनी आध्यात्मिक साधना में लिप्त रहा करते थे। वीर तपस्वियों के वेश में राम-लक्ष्मण को देखकर वे समस्त ऋषि-मुनि अत्यन्त प्रसन्न हुये।
राम, सीता और सीता का समुचित सत्कार करने के पश्चात् वे बोले, "हे राघव! यद्यपि आप वन में हैं किन्तु हमारे लिये आप ही राजा हैं। हम वनवासियों की रक्षा करना आपका परम कर्तव्य है। आत्मचिन्तन में व्यस्त रहने वाले यहाँ के निवासी तपस्वियों को दुष्ट राक्षस निर्विघ्न रूप से ईश्वर आराधना नहीं करने देते। वे उनकी तपस्यामें विघ्न तो डालते ही हैं साथ ही साथ निरपराध तपस्वियों की हत्या भी कर डालते हैं। इसलिये हम आपसे आग्रह करते हैं कि हे रघुनन्दन! आप उनसे हमारी रक्षा करें।
रामचन्द्र ने उन्हें आश्वस्त किया कि वे शीघ्र ही इन राक्षसों का विनाश कर इस क्षेत्र को निरापद कर देंगे। वहाँ से उन्होंने महावन में प्रवेश किया जहाँ नाना प्रकार के हिंसक पशु और नरभक्षक राक्षस निवास करते थे। ये नरभक्षक राक्षस ही तपस्वियों को कष्ट दिया करते थे। कुछ ही दूर जाने के बाद बाघम्बर धारण किये हुये एक पर्वताकार राक्षस दृष्टिगत हुआ। वह राक्षस हाथी के समान चिंघाड़ता हुआ सीता पर झपटा। उसने सीता को उठा उठा लिया और कुछ दूर जाकर खड़ा हो गया।
उसने राम और लक्ष्मण को सम्बोधित करते हुए कहा, "तुम धनुष बाण लेकर दण्डक वन में घुस आये हो। ऐसा प्रतीत होता है कि तुम्हारी मृत्यु निकट आ गई है। तुम दोनों कौन हो? क्या तुमने मेरा नाम नहीं सुना? मैं प्रतिदिन ऋषियों का माँस खाकर अपनी क्षुधा शान्त करने वाला विराध हूँ। तुम्हारी मृत्यु ही तुम्हें यहाँ ले आई है। मैं तुम दोनों का अभी रक्तपान करके इस सुन्दर स्त्री को अपनी पत्नी बनाउँगा।"
उसके दम्भयुक्त वचनों को सुनकर राम लक्ष्मण से बोले, "भैया! विराध के चंगुल में फँसकर सीता अत्यन्त भयभीत एवं दुःखी हो रही है। मेरे लिये यह बड़ी लज्जाजनक बात है कि कोई अन्य व्यक्ति उसका स्पर्श करे। पिताजी की मृत्यु तथा अपने राज्य के अपहरण से मुझे इतना दुःख नहीं हुआ जितना आज भयभीत सीता को देखकर हो रहा है। मुझे यह भी नहीं सूझ रहा है कि इस दुष्ट से सीता की कैसे रक्षा करूँ।"
राम को इस प्रकार दीन वचन कहते सुनकर लक्ष्मण ने क्रुद्ध होकर कहा, "भैया! आप तो महापराक्रमी हैं। आप इस प्रकार अनाथों की भाँति क्यों बात कर रहे हैं? मैं अभी इस दुष्ट राक्षस का संहार करता हूँ।"
फिर विराध से बोले, "रे दुष्ट! अपनी मृत्यु के पूर्व तू हमें अपना परिचय दे और अपने कुल का नाम बता।"
विराध ने हँसते हुये कहा, "यदि तुम मेरा परिचय जानना ही चाहते हो तो सुनो! मैं जय राक्षस का पुत्र हूँ। मेरी माता का नाम शतह्रदा है। मुझे ब्रह्मा जी से यह वर प्राप्त है कि किसी भी प्रकार का अस्त्र-शस्त्र न तो मेरी हत्या ही कर सकती है और न ही उनसे मेरे अंगों छिन्न-भिन्न हो सकते हैं। यदि तुम इस स्त्री को मेरे पास छोड़ कर चले जाओगे तो मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं तुम्हें नहीं मारूँगा।"
विराध के वचनों से क्रोधित राम ने उसे तत्काल तीक्ष्ण बाणों से बेधना आरम्भ कर दिया। राम के बाण विराध के शरीर को छेदकर रक्तरंजित हो पृथ्वी पर गिरने लगे। इस प्रकार जब घायल होकर विराध त्रिशूल ले राम और लक्ष्मण पर झपटा तो दोनों भाइयों ने उस पर अग्निबाणों की वर्षा आरम्भ कर दी, किन्तु विराध पर उनका कुछ भी प्रभाव नहीं पड़ा। वे केवल उसके त्रिशूल को ही काट सके। फिर जब भयंकर तलवारों से दोनों भाइयों ने उस पर आक्रमण किया तो वह सीता को छोड़ राम और लक्ष्मण को दोनों भुजाओं में पकड़कर आकाशमार्ग से उड़ चला।
राम ने लक्ष्मण से कहा, "भाई! हमें जिस ओर यह राक्ष्स ले जा रहा है, बिना विरोध के हमें उधर ही चले जाना चाहिये, यही हमारे लिये उचित है।"
विराध द्वारा राम-लक्ष्मण को ले जाते देख सीता विलाप करके कहने लगी, "हे राक्षसराज! इन दोनों भाइयों को छोड़ दो। मैं तुमसे प्रार्थना करती हूँ मैं तुम्हारे साथ चलने को तैयार हूँ।"
सीता के आर्तनाद करने पर क्रोधित हो कर दोनों भाइयों ने विराध की एक-एक बाँह मरोड़कर तोड़ डाली। वह मूर्छित होकर पृथ्वी पर गिर पड़ा। लक्ष्मण उसे सचेत कर कर के बार-बार उठा-उठा कर पटकने लगे। वह घायल होकर चीत्कार करने लगा।
तभी राम बोले, "लक्ष्मण! वरदान के कारण यह दुष्ट मर नहीं सकता। इसलिये यही उचित है कि हमें भूमि में गड़्ढा खोदकर इसे बहुत गहराई में गाड़ देना चाहिये।"
लक्ष्मण गड्ढा खोदने लगे और राम विराध की गर्दन पर पैर रखकर खड़े हो गये।
तब विराध बोला, "प्रभो! वास्तव में मैं तुम्बुरू नाम गन्धर्व हूँ। कुबेर ने मुझे राक्षस होने का शाप दिया था। मैं शाप के कारण राक्षस हो गया था। आज आपकी कृपा से मुझे उस शाप से मुक्ति मिल रही है।"
राम और लक्ष्मण ने उसे उठाकर गड्ढे में डाल दिया और गड्ढे को पत्थर आदि से पाट किया। सारा वन प्रान्त उसके आर्तनाद से गूँज उठा।
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02 अप्रैल 2010
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Labels: रामायण
Posted by Udit bhargava at 4/02/2010 06:03:00 pm
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