20 जुलाई 2012

बिना औषध के रोगनिवारण

अनियमित क्रिया के कारण जिस तरह मानव-देह में रोग उत्पन्न होते हैं, उसी तरह औषध के बिना ही भीतरी क्रियाओं के द्वारा नीरोग होने के उपाय भगवान् के बनाए हुए हैं। हम लोग उस भागवत्प्रदत्त सहज कौशल को नहीं जानते इसी कारण दीर्घ काल तक रोगजनित दुःख भोगते हैं। यहाँ रोगों के निदान के लिये स्वरोदयशास्त्रोक्त कुछ यौगिक उपायों का उल्लेख किया जा रहा है जिनके प्रयोग से विशेष लाभ हो सकता है-
ज्वर (बुखार) - ज्वर का आक्रमण होने पर अथवा आक्रमण की आशंका होने पर जिस नासिका से श्वास चलता हो, उस नासिका को बंद कर देना चाहिये। जब तक ज्वर न उतरे और शरीर स्वस्थ न हो जाय, तब तक उस नासिका को बंद ही रखना चाहिए। ऐसा करने से दस-पंद्रह दिनों में उतरने वाला ज्वर पांच-सात दिनों में अवश्य ही उतर जाएगा।  ज्वरकाल में मन-ही-मन सदा चांदी के सामान श्वेत वर्ण का ध्यान करने से अति शीघ्र लाभ होता है।
सिंदुवार की जड़ रोगी के हाथ में बाँध देने से सब प्रकार के ज्वर निश्चय ही दूर हो जाते हैं।

अँतरिया ज्वर  - श्वेत अपराजिता अथवा पलाश के कुछ पत्तों को हाथ से मलकर कपडे से लपेटकर एक पोटली बना लेनी चाहिए और जिस दिन ज्वर की बारी हो उस दिन सवेरे से ही उसे सूंघते रहना चाहिये। अँतरिया-ज्वर बंद हो जाएगा

सिरदर्द - सिरदर्द होने पर दोनों हाथों की केहुनी के ऊपर धोती के किनारे अथवा रस्सी से खूब कसकर बाँध देना चाहिये। इससे पांच-सात मिनट में ही सिरदर्द जाता रहेगा। ऐसा बाँधना चाहिये की रोगी को हाथ में अत्यंत दर्द मालूम हो। सिरदर्द अच्छा होते ही बाँहें खोल देनी चाहिए।
सिरदर्द दूसरे प्रकार का एक और होता है, जिसे साधारणतः 'अधकपाली' या 'आधासीसी' कहते हैं। कपाल के मध्यसे बाईं या दायीं और आधे कपाल और मस्तक में अत्यंत पीड़ा मालूम होती है। प्रायः यह पीड़ा सूर्योदय के समय आरम्भ होती है  और दिन चढ़ने के साथ-साथ यह भी बढ़ती जाती है। दोपहर के बाद घटनी प्रारम्भ होती है और सायंतक प्रायः नहीं ही रहती। इस रोग का आक्रमण होने पर जिस तरफ के कपाल में दर्द हो, ऊपर लिखे अनुसार उसी तरफ की केहुनी के ऊपर जोर से रस्सी बाँध देनी चाहिए। थोड़ी ही देर में दर्द शांत हो जायगा और रोग जाता रहेगा। दूसरे दिन यदि पुनः दर्द शुरू हो और प्रतिदिन एक ही नासिका से श्वास चलते समय हो तो सिरदर्द मालूम होते ही उस नाक को बंद कर देना चाहिये और हाथ को भी बाँध रखना चाहिए। 'अधकपाली' सिरदर्द में इस क्रिया से होने वाले आश्चर्यजनक फल को देखकर आप चकित रह जायेंगे।

सर में पीड़ा- जिस व्यक्ति के सर में पीड़ा हो उसे प्रातःकाल शय्या से उठाते ही नासापुटसे शीतल जल पीना चाहिए। इससे मष्तिष्क शीतल रहेगा, सर भारी नहीं होगा और सर्दी नहीं लगेगी यह क्रिया विशेष कठिन भी नहीं है। एक पात्र में ठंडा जल भरकर उसमें नाक डुबाकर धेरे-धीरे गले के भीतर जल खींचना चाहिए। यह क्रिया क्रमशः अभ्यास से सहज हो जायगी। सर में पीड़ा होने पर चिकित्सा रोगी के आरोग्य होने की आशा छोड़ देता है, रोगी को भी भीषण कष्ट होता है; परन्तु इस उपाय से निश्चय ही आशातीत लाभ पहुंचेगा।

उदरामय अजीर्ण आदि - भोजन तथा जलपान आदि जो कुछ भी करना हो वह सब दायीं नासिका से श्वास चलते समय करना चाहिये। प्रतिदिन इस नियमद्वारा आहार करने से वह बहुत आसानी से पच जायगा और कभी अजीर्ण-रोग नहीं होगा। जो लोग इस रोग से दुखी हैं वे भी यदि इस नियम के अनुसार प्रतिदिन भोजन करें तो खाई हुई चीज पच जायगी और धीरे-धीरे उनका रोग दूर हो जायगा। भोजन के बाद थोड़ी देर बाईं करवट सोना चाहिए।
जिन्हें समय न हो उन्हें ऐसा उपाय करना चाहिए की  भोजन के बाद दस-पंद्रह मिनट तक दायीं नासिका से श्वास चले अर्थात पूर्वोक्त नियम के अनुसार रूईद्वारा बायीं नासिका बंद कर देनी चाहिए। गुरूपाक (भरी भोजन करने पर भी इस नियम से वह शीघ्र पच जाता है।
स्थिरता के साथ बैठकर नाभिमंडल में अपलक (एकटक) दृष्टि जमाकर नाभिकंद का ध्यान करने से एक सप्ताह में उदरामय (उदार-संबंधी) रोग दूर हो जाता है।
श्वास रोककर नाभि को खींचकर नाभि की ग्रंथि को एक सौ बार मेरूदंड से मिलाने पर आमादी उदारामयजनित सब तरह की पीडाएं दूर हो जाती है और जठराग्नि तथा पाचन शक्ति बढ़ जाती है।

प्लीहा - रात को बिछौने पर सोकर और प्रातः शय्या-त्याग के समय हाथ और पैरों को सिकोड़कर छोड़ देना चाहिए। फिर कभी बाईं और कभी दायीं करवट टेढ़ा-मेढ़ा शरीर करके समस्त शरीर को सिकोड़ना और फैलाना चाहिए। प्रतिदिन चार-पांच मिनट ऐसा करने से प्लीहा-यकृत (तिल्ली, लिवर) -रोग दूर हो जायगा। सर्वदा इसका अभ्यास करने से प्लीहा-यकृत- रोग की पीड़ा कभी नहीं  पड़ेगी अर्थात निर्मूल हो जायेगी।

दंतरोग- प्रतिदिन जितनी बार मल-मूत्र का त्याग करे, उतनी बार दांतों की दोनों पंक्तियों को मिलाकर जोर से दबाये रखे। जबतक मॉल या मूत्र निकलता रहे, तब तक दांतों से मिलाकर दबाये रहना चाहिए। दो-चार दिन ऐसा करने से कमजोर दांतों की जड़ मद्बूत हो जायगी। नियमित अभ्यास करने से दंतमूल दृढ हो जाता है और दांत दीर्घ कालतक काम देते हैं तथा दाँतों में किसी प्रकार की बीमारी होने का कोई भय नहीं रहता।

स्नायविक वेदना - छाती पीठ या बगल में - चाहे जिस स्थान में स्नायविक या अन्य किसी प्रकार की वेदता हो तो वेदना प्रतीत होते ही जिस नासिका से श्वास चलता हो उसे बंद कर देने से दो-चार मिनट के पश्चात अवश्य ही वेदना शांत हो जायगी।

दमा या श्वासरोग - जब दमेका जोर का दौरा हो तब जिस नासिका से निश्वास चलता हो, उसे बंद करके दूसरी नासिका से श्वास चलाना चाहिए। दस-पंद्रह मिनट में दमेका जोर कम हो जायगा। प्रतिदिन ऐसा करने से महीने भर में पीड़ा शांत हो जायगी। दिन में जितने ही अधिक समय तक यह क्रिया की जायगी, उतना ही शीघ्र यह रोग दूर होगा। दमा के समान कष्टदायक कोई रोग नहीं, दमाका जोर होने पर इस क्रिया से बिना किसी दवा के बीमारी चली जाती है।

वात - प्रतिदिन भोजन के बाद कंघी से सर झाडना चाहिए। कंघी इस प्रकार चलानी चाहिये जिसमें उसके कांटे सर को स्पर्श करें। उसके बाद लगाकर अर्थात दोनों पैर पीछे की और मोड़कर उनके ऊपर पंद्रह मिनट बैठना चाहिए। प्रतिदिन दोंनों समय भोजन के बाद इस प्रकार बैठने से कितना भी पुराना वात क्यों न हो निश्चय ही अच्छा हो जायगा। यदि स्वस्थ आदमी इस नियम का पालन करे तो उसे वातरोग होने की कोई आशंका नहीं रहेगी।

नेत्ररोग - प्रतिदिन सवेरे बिछौने से उठते ही सबसे पहले मुंह में जितना पानी भरा जा सके उतना भरकर दूसरे जल से आँखों को बीस बार झपटा मारकर धोना चाहिए।
प्रतिदिन दोनों समय भोजन के बाद हाथ-मुंह धोते समय कम-से-कम सात बार आँखों में जल का झपटा देना चाहिए।
जितनी बार मुँह में जल डाले उतनी बार आँख और मुँह को धोना न भूले।
प्रतिदिन स्नान-काल में तेल मालिश करते समय पहले दोनों पैरों के अंगूठों के नखों को तेल से भर देना चाहिए और फिर तेल लगाना चाहिए।
ये नियम नेत्रों के लिए विशेष लाभदायक हैं। इनसे दृष्टिशक्ति तेज होती हैं, आँखे स्निग्ध  हैं और आँखों में कोई बीमारी होने की संभावना नहीं रहती। नेत्र मनुष्य के परमधन हैं।  प्रतिदिन नियमपालन में कभी आलस्य नहीं करना चाहिए।

14 मई 2012

पन्नों पर फ़ैली पीड़ा

 पन्नों पर फ़ैली पीड़ा

रात थी की बीतने का नाम ही नहीं ले रही थी। सफलता और असफलता की आशानिराशा के बीच सब के मन में एक तूफ़ान चल रहा था। आँपरेशन थिएटर का टिमटिम करता बल्ब कभी आशंकाओं को बढ़ा देता तो कभी दिलासा देता प्रतीत होता। नर्सों के पैरों की आहट दिल की धड़कनें से तेज लगती। नवीन बेचैनी से इधर से उधर टहल रहा था। हॉस्पिटल के इस तल पर सन्नाटा था। नवीन कुछ गंभीर मरीजों के रिश्तेदारों के उदास चेहरों पर नजर दौड़ाता, फ़िर सामने बैठी अपनी मां को ध्यान से देखता और अंदाजा लगाता कि क्या मां वास्तव में परेशान हैं।
   अंदर आई.सी.यू. में नवीन की पत्नी सुजाता जीवन और मृत्यु के बीच संघर्ष कर रही थी। नवीन पूरे यकीन के साथ सोच रहा था कि अभी डाक्टर आ कर कहेगा, सुजाता ठीक है।
  कल कितने चोटें आई थीं सुजाता को।
नवीन, सुजाता और उन के दोनों बच्चे दिव्यांशु और दिव्या पिकनिक से लौट रहे थे। कार नवीन ही चला रहा था। सामने से आ रहे ट्रक ने सुजाता की तरफ़ की खिडकी में जोरदार टक्कर मारी। नवीन और पीछे बैठे बच्चे तो बच गए, लेकिन सुजाता को गंभीर चोटें आईं। उस का सिर भी फ़ट गया था। कार भी बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गई थी। नवीन किसी से लिफ़्ट ले कर घायल सुजाता और बच्चों को ले कर यहां पहुंच गया था।
   नवीन ने फ़ोन पर अपने दोनों भाइयों विनय और नीरज को खबर दे दी थी। वे उस के यहां पहुंचने से पहले ही मां के साथ पहुंच चुके थे। विनय की यहां कुछ डाक्टरों से जानपहचान थी, इसलिए इलाज शुरू करने में कोई दिक्कत नहीं आई थी।
   नवीन ने सुजाता के लिए अपने दोनों भाइयों की बेचैनी भी देखी। उसे लगा, बस मां को ही इतने सालों में सुजाता से लगाव नहीं हो पाया। वह अपनी जीवनसंगिनी को याद करते हुए थका सा जैसे ही कुरसी पर बैठा तो लगा जैसे सुजाता उस के सामने मुसकराती हुई साकार खडी हो गई है। झट से आंखे बंद कर लीं ताकि कहीं उस का चेहरा आंखों के आगे से गायब न हो जाए।
   नवीन ने आखें बंद कीं तो पिछली स्मृतियां दृष्टिपटल पर उभर आईं...

20 साल पहले नवीन और सुजाता एक ही कालेज में पढते थे। दोनों की दोस्ती कब प्यार में बदल गई, उन्हें पता ही नहीं चला।
पढाई खत्म करने के बाद जब दोनों की अच्छी नौकरी भी लग गई तो उन्होंने विवाह करने का फ़ैसला किया।
   सुजाता के मातापिता से मिल कर नवीन को बहुत अच्छा लगा था। वे इस विवाह के लिए तैयार थे, लेकिन असली समस्या नवीन को अपनी मां वसुधा से होने वाली थी। वह जानता था कि उस की पुरातनपंथी मां एक विजातीय लडकी से उस का विवाह कभी नहीं होने देंगी। उस के दोनों भाई सुजाता से मिल चुके थे और दोनों से सुजाता की अच्छी दोस्ती भी हो गई थी। जब नवीन ने घर में सुजाता के बारे में बताया तो वसुधा ने तूफ़ान खडा कर दिया। नवीन के पिताजी नहीं थे।
   वसुधा चिल्लाने लगीं, ’क्या इतने मेहनत से तुम तीनों को पालपोस कर इसी दिन के लिए बडा किया है कि एक विजातीय लडकी बहू बन कर इस घर में आए? यह कभी नहीं हो सकता।’
   कुछ दिनों तक घर में सन्नाटा छाया रहा। नवीन मां को मनाने की कोशिश करता रहा, लेकिन जब वे तैयार नहीं हुईं, तो उन्होंने कोर्ट मैरिज कर ली।
   नवीन को याद आ रहा था वह दिन जब वह पहले बार सुजाता को ले कर घर पहुंचा तो मां ने कितनी क्रोधित नजरों से उसे देखा था और अपने कमरें में जा कर दरवाजा बंद कर लिया था। घंटों बाद निकली थीं और जब वे निकलीं, सुजाता अपने दोनों देवरों से पूछपूछ कर खाना तैयार कर चुकी थी। यह था ससुराल में सुजाता का पहला दिन।
   नीरज ने जबरदस्ती वसुधा को खाना खिलाया था। नवीन मूकदर्शक बना रहा था। रात को सुजाता सोने आई तो उस के चेहरे पर अपमान और थकान के मिलेजुले भाव देख कर नवीन का दिल भर आया और फ़िर उस ने उसे अपने बांहों में समेट लिया था।
   नवीन और सुजाता दोनों ने वसुधा के साथ समय बिताने के लिए आंफ़िस से छुट्टियां ले ली थीं। वे दिन भर वसुधा का मूड ठीक करने की कोशिश करते, मगर कामयाब न हो पाते।
   जब सुजाता गर्भवती हुई तो वसुधा ने एलान कर दिया, ’मुझ से कोई उम्मीद न करना, नौकरी छोडो और अपनी घरगृहस्थी संभलो।’
   यह सुजाता ही थी, जिस ने सिर्फ़ मां को खुश करने के लिए नौकरी छोड दी थी। माथे की त्योरियां कम तो हुईं, लेकिन खत्म नहीं।
   दिव्यांशु का जन्म हुआ तो विनय की नौकरी भी लग गई। वसुधा दिनरात कहती, ’इस बार अपनी जाति के बहू लाउंगी तो मन को कुछ ठंडक मिलेगी।’
   सुजाता अपमानित सा महसूस करती। नवीन देखता, सुजाता मां को एक भी अपशब्द न कहती। वसुधा ने खोजबीन कर के अपने मन की नीता से विनय का विवाह कर दिया। नीता तो वसुधा ने पहले दिन से ही सिर पर बैठा लिया। सुजाता शांत देखती रहती। नीता भी नौकरीपेशा थी। छुट्टियां खत्म होने पर वह आंफ़िस के लिए तैयार होने लगी तो वसुधा ने उस की भरपूर मदद की। सुजाता इस भेदभाव को देख कर हैरान खडी रह जाती।

कुछ दिनों बाद नीरज ने भी नौकरी लगते ही सुधा से प्रेमविवाह कर लिया। लेकिन सुधा भी वसुधा की जातिधर्म की कसौटी पर खरी उतरती थी, इसलिए वे सुधा से भी खुश थीं। इतने सालों में नवीन ने कभी मां को सुजाता से ठीक तरह से बात करते नहीं देखा था।
   दिव्या हुई तो नवीन ने सुजाता को यह सोच कर उस के मायके रहने भेज दिया कि कम से कम उस के वहां शांति और आराम तो मिलेगा। नवीन रोज आंफ़िस से सुजाता और बच्चों को देखने चला जाता और डिनर कर के ही लौटता था।
   घर आ कर देखता मां रसोई में व्यस्त होतीं। वसुधा जोडों के दर्द की मरीज थीं, काम अब उन से होता नहीं था। नीत और सुधा शाम को ही लौटती थीं, आ कर कहतीं, ’सुजाता भाभी के बिना सब अस्तव्यस्त हो जाता है।’
   सुन कर नवीन खुश हो जाता कि कोई तो उस की कद्र करती है।
   फ़िर विनय और नीरज अलगअलग मकान ले लिए, क्योंकि यह मकान अब सब के बढते परिवार के लिए छोटा पडने लगा था। वसुधा ने बहुत कहा कि दूसरी मंजिल बनवा लेते हैं, लेकिन सब अलग घर बसाना चाहते थे।
   विनय और नीरज चले गए तो वसुधा कुछ दिन बहुत उदास रहीं। दिव्यांशु और दिव्या को दिव्या प्यार करतीं, लेकिन सुजाता से तब भी एक दूरी बनाए रखतीं। सुजाता उन से बात करने के सौ बहाने ढूंढती, मगर वसुधा हां, हूं में ही जवाब देतीं।
  बच्चे स्कूल चले जाते तो घर में सन्नाटा फ़ैल जाता। बच्चों को स्कूल भेज कर पार्क में सुबह की सैर करना सुजाता का नियम बन गया। पदोन्नति के साथसाथ नवीन की व्यस्तता बढ गई थी। सुजाता को हमेशा ही पढनेलिखने का शौक रहा। फ़ुरसत मिलने ही वह अपनी कल्पनाओं की दुनिया में व्यस्त रहने लगी। उस के विचार, उस के सपने उसे लेखने की दुनिया में ले आए और दुख में तो कल्पना ही इंसान के लिए मां की गोद है। सुबह की सैर करतेकरते वह पता नहीं क्याक्या सोच कर लेखन सामग्री जुटा लेती।
   पार्क से लौटते हुए कितने विचार, कितने शब्द सुजाता के दिमाग में आते, लेकिन अकसर वह जिस तरह सोचती, एकाग्रता के अभाव में उस तरह लिख न पाती, पन्ने फ़ाडती जाती, वसुधा कभी उस के कमरे में न झांकती, बस उन्हें कूडे की टोकरी में फ़टे हुए पन्नों का ढेर दिखता तो शुरू हो जातीं, ’पता नहीं, क्या बकवास किस्म का काम करती रहती है। बस, पन्ने फ़ाडती रहती है, कोई ढंग का काम तो आता नहीं।’
   सुजाता ने गंभीरता से लिखना शुरू कर दिया था। उस समय उस के सामने था, सालों से मिलता आ रहा वसुधा से तानों का सिलसिला, अविश्वास और टूटता हौसला, क्योंकि वह खेदसहित रचनाओं के लौटने का दौर था। लौटी हुई कहानी उसे बेचैन कर देती।
   उस की लौटी हुई रचनाओं को देख कर वसुधा के ताने बढ जाते, ’समय भी खराब किया और लो अब रख लो अपने पास, लिखने में नहीं, बच्चों की पढाई पर ध्यान दो।’

   सुजाता को रोना आ जाता। सोचती, अब वह नहीं लिखेगी, तभी दिल कहता कि न घबराना है, न हारना है। मेहनत का फ़ल जरूर मिलता है और वह फ़िर लिखने बैठ जाती। धीरेधीरे उस की कहानियां छपने लगीं।
   सुजाता को नवीन का पूरा सहयोग था। वह लिख रही होती तो नवीन कभी उसे डिस्टर्ब न करता, बच्चे भी शान्ति से अपना काम करते रहते। अब सुजाता को नाम, यश, महत्त्व, पैसा मिलने लगा। उसे कुछ पुरस्कार भी मिले, वह वसुधा के पैर छूती तो वे तुनक कर चली जातीं। सुजाता अपने शहर के लिए सम्मानित हस्ती हो चुकी थी। उसे कई शैक्षणिक, सांस्कृतिक समारोहों मे विशेष अतिथि की हैसियत से बुलाया जाने लगा।
   वसुधा की सहेलियां, पडोसिनें सब उन से सुजाता के गुणों की वाहवाह करतीं।

"नवीनजी, आप की पत्नी अब खतरे से बाहर है," डाक्टर की आवाज नवीन को वर्तमान में खींच लाई।
   वह खडा हो गया, "कैसी है सुजाता?"
   "चोटें बहुत हैं, बहुत ध्यान रखना पडेगा, थोडी देर में उन्हें होश आ जाएगा, तब आप चाहें तो उन से मिल सकते हैं।"
   मां के साथ सुजाता को देखने नवीन आई.सी.यू. में गया। सुजाता अभी बेहोश थी। नवीन ने थोडी देर बाद मां से कहा, "मां, आप थक गई होंगी, घर जा कर थोडा आराम कर लो, बाद में जब नीरज घर आए तो उस के साथ आ जाना।"
   वसुधा घर आ गईं, नहाने के बाद सब के लिए खाना बनाया, बच्चे नीता के पास थे। वे सब हौस्पिटल आ गए। विनय और नीरज तो नवीन के पास ही थे। सारा काम हो गया तो वसुधा को खाली घर काटने को दौडने लगा। पहले वे इधरउधर देखती घूमती रहीं, फ़िर पता नहीं उन के मन में क्या आया कि ऊपर सुजाता के कमरे की सीढियां चढने लगीं।
   साफ़सुथरे कमरे में एक और सुजाता के पढनेलिखने की मेज पर रखे सामान को वे ध्यान से देखने लगीं। अब तक प्रकाशित 2 कहनी संग्रह, 4 उपन्यास और बहुत सारे लेख जैसे सुजाता के अस्तित्व का बखान कर रहे थे। सुजाता की डायरी के पन्ने पलटे तो बैड पर बैठ कर पढती चली गईं।
   एक जगह लिखा था, "मांजी के साथ 2 बातें करने के लिए तरस जाती हूं मैं। कोमल, कांतिमय देहयष्टि, मांजी के माथे पर चंदन का टीका बहुत अच्छा लगता है मुझे। मम्मीपापा तो अब रहे नहीं, मन करता है मांजी की गोद में सिर रख कर लेट जाऊं और वे मेरे सिर पर अपना हाथ रख दें, क्या ऐसा कभी होगा?"
   एक पन्ने पर लिखा था, "आज फ़िर कहानी वापस आ गई। नवीन और बच्चे तो व्यस्त रहते हैं, काश, मैं मांजी से अपने मन की उधेडबुन बांट पाती, मांजी इस समय मेरे खत्म हो चले नैतिक बल को सहारा देतीं, मुझे उन के स्नेह के 2 बोलों की जरूरत है, लेकिन मिल रहे हैं ताने।"
   एक जगह लिखा था, "अगर मांजी समझ जातीं कि लेखन थोडा कठिन और विचित्र होता है, तो मेरे मन को थोडी शांति मिल जाती और मैं और अच्छा लिख पाती।"
   आगे लिखा था, "कभीकभी मेरा दिल मांजी के व्यंगबाणों की चोट सह नहीं पाता, मैं घायल हो जाती हूं, जी में आता है उन से पूछू, मेरा विजातीय होना क्यों खलता है कि मेरे द्वारा दिए गए आदरसम्मान व सेवा तक को नकार दिया जाता है? नवीन भे अपनी मां के स्वभाव से दुखी हो जाते हैं पर कुछ कह नहीं सकते। उन का कहना है कि मां ने तीनों को बहुत मेहनत से पढायालिखाया है, बहुत संघर्ष किया है पिताजी के बाद। कहते हैं, मां से कुछ नहीं कह सकता। बस तुम ही समझौता कर लो। मैं उन के स्वभाव पर सिर्फ़ शर्मिंदा हो सकता हूं, अपमान की पीडा का अथाह सागर कभीकभी मेरी आंखों के रास्ते आंसू बन कर बह निकलता है।"

एक जगह लिखा था, "मेरी एक भी कहाने मांजी ने नहीं पढी, कितना अच्छा होता जिस कहानी के लिए मुझे पहला पुरस्कार मिला, वह मांजी ने भी पढी होती।"
   वसुधा के स्वभाव से दुखी सुजाता के इतने सालों के मन की व्यथा जैसे पन्नों पर बिखरी पडी थी।
   वसुधा ने कुछ और पन्ने पलटे, लिखा था, "हर त्योहार पर नीता और सुधा के साथ मांजी का अलग व्यवहार होता है, मेरे साथ अलग, कई रस्मों में, कई आयोजनों में मैं कोने में खडी रह जाती हूं आज भी। मां की द्रष्टि में तो क्षमा होती है और मन में वात्सल्य।"
   पढतेपढते वसुधा की आंखें झमाझम बरसने लगीं, उन का मन आत्मग्लानि से भर उठा। फ़िर सोचने लगीं कि हम औरतें ही औरतों की दुश्मन क्यों बन जाती हैं? कैसे वे इतनी क्रूर और असंवेदनशील हो उठीं? यह क्या कर बैठीं वे? अपने बेटेबहू के जीवन में अशांति का कारण वे स्वयं बनीं? नहीं, वे अपनी बहू की प्रतिभा को बिखरने नहीं देंगी। आज यह मुकदमा उन के मन की अदालत में आया और उन्हें फ़ैसला सुनाना है। भूल जाएंगी वे जातपांत को, याद रखेंगी सिर्फ़ अपनी होनहार बहू के गुणों और मधुर स्वभाव को।
   वसुधा के दिल में स्नेह, उदारता का सैलाब सा उमड पडा। बरसों से जमे जातिधर्म, के भेदभाव का कुहासा स्नेह की गरमी से छंटने लगा।  
                                                                                                                                                                                    - पूनम अहमद 

04 मई 2012

चंदन एक फायदे अनेक

चंदन एक फायदे अनेक

कीलमुंहासों के ठीक होने के बाद चेहरे पर किसी प्रकार के दागधब्बों को भी चंदन के लेप से साफ़ किया जा सकता है। 
  चंदन का लेप केवल कीलमुंहासों को, ठीक नहीं करता बल्कि त्वचा को साफ़ कर नमी भी प्रदान करता है। 1 चम्मच चंदन पाउडर में आधा चम्मच पाउडर मिला कर पेस्ट बना कर चेहरे पर 20 मिनट लगाए रखने से केवल कीलमुंहासे कम नहीं हो, आप का चेहरा भी खिलाखिला प्रतीत होता है। बराबर मात्रा में चंदन पाउडर हलदी पाउडर मिला कर थोड़े दूध के साथ पेस्ट बनाएं, इस में चुटकी भर कपूर भी मिलाएं। इस लेप की चेहरे पर मालिश कर रात भर लगा रहने दें। इस से आप को ठंडक के एहसास के साथसाथ चेहरे के दागधब्बे दूर होने का फायदा भी मिलेगा।
   समान मात्रा में चंदन पाउडर, हल्दी और नीबू का रस मिला कर चेहरे पर लगाएं। आधे घंटे बाद ठंडे पानी से धो लें। इस से आप की त्वचा नरम और दागरहित होगी।
  चंदन पाउडर और रोज वाटर का पेस्ट नियमित लगाने से अगर आप की त्वचा तैलीय है तो मुंहासे होने का डर नहीं रहेगा। इस के अलावा चंदन पाउडर में काले चने का पाउडर सामान मात्रा में मिला कर दूध गुलाबजल के साथ मिला कर चेहरे पर लगा कर रात भर रखने से आप कीलमुंहासों को हमेशा के लिए बायबाय कह सकेंगे।

साइड इफैक्ट नहीं 
चंदन  का प्रयोग प्राचीन काल से चला आ रहा है। खासकर आयुर्वेद में चंदन का प्रयोग खूब किया गया है। किसी प्रकार का घाव, फोड़ेफुंसी, कटनाछिलना आदिसभी पर चंदन के लेप से आराम मिलता है। यह एक कीमती पेड़ है, जो दक्षिण भारत में ज्यादातर पाया जाता है। चंदन का उबटन शादी से पहले नववधू लगाती है ताकि उस के चेहरे और काया की चमक बनी रहे। यह एक प्राकृतिक पदार्थ है, इसलिए इस के नियमित प्रयोग से किसी प्रकार का साइड इफेक्ट नहीं होता। 

इस की खूबियाँ 
- चंदन में कीटाणुनाशक विशेषता होने की वजह से यह हर्बल एंटीसेप्टिक है, इसलिए किसी भी प्रकार के छोटे घाव और खरोंच को ठीक करता है। यह जलने से हुए घाव को भी ठीक कर सकता है।
- शरीर के किसी भाग पर खुजली होने पर चंदन पाउडर में हल्दी और एक चम्मच नीबू का रस मिला कर लगाने से खुजली तो दूर होगी ही, साथ में त्वचा की लालिमा भी कम होगी।
- चंदन का तेल सूखी त्वचा के लिए गुणकारी होता है। यह सूखी त्वचा को नमी प्रदान करता है।
- अगर खटमल या मच्छर ने काटा है तो खुजली और सूजन को चंदन का लेप लगा कर कम किया जा सकता है।
- शरीर के किसी भाग का रंग अगर काला पड़ गया हो तो 5 चम्मच नारियल तेल के साथ 2 चम्मच नारियल तेल के साथ 2 चम्मच बादाम तेल और 4 चम्मच चंदन पाउडर मिला कर उस खुले भाग पर लगाएं। इस से कालापन तो  जाएगा ही, फिर से त्वचा काली नहीं होगी।
- शादी से पहले नववधू उबटन लगाए तो हल्दी में चंदन मिला कर लगाने से त्वचा में निखार आएगा।
- अगर किसी को अधिक पसीना आता है तो चंदन पाउडर में पानी मिला कर बदन पर लाने से पसीना कम होगा।
  इतना ही नहीं, चंदन का किसी भी रूप में प्रयोग गुणकारी होता है, चाहे वो साबुन, तेल या पाउडर किसी भी रूप में हो। चंदन शरीर की प्रक्रिया प्रक्रिया का संतुलन बनाता है, पाचन क्रिया को ठीक करता है, साथ ही श्वास प्रक्रिया और स्नायुतंत्र को मजबूत बनाता है।



मुगालते अपने अपने


रूठे चेहरे अब हँसते नजर आते हैं,
बंजर वीरानियाँ भी खिलते गुलज़ार नजर आते हैं।

कोई कसर न छोडी जिन्होंने दुश्मनी निभाने में,
शुक्र है, अब उन्हीं से दोस्ती के आसार नजर आते हैं।

ताउम्र हम जिन की याद में तड़पते रहे, 
शाम ए सहर क्या बात है, वे भी आज बेकरार नजर आते हैं।

गमे मुफलिसी में जिंदगी गुजारी हम ने,
आज सपने खुशियों के बेशुमार नजर आते हैं।

उन से नजरें जो मिलीं, खिल उठा नसीबा अपना,
महफिलें ऐसी सजीं कईं त्योहार नजर आते हैं।

अपने मतलब के लिए हर किसी ने रिश्ते बनाए हम से,
शायद इस जहां में हम ही उन्हें बेकार नजर आते हैं।
                                                                 
       - एस. अहमद 




03 मई 2012

वास्तु शास्त्र और समृद्धि टिप्स

वर्तमान समय में सुविधा जुटाना आसान है। परंतु शांति इतनी सहजता से नहीं प्राप्त होती। हमारे घर में सभी सुख-सुविधा का सामान है, परंतु शांति पाने के लिए हम तरस जाते हैं। वास्तु शास्त्र द्वारा घर में कुछ मामूली बदलाव कर आप घर एवं बाहर शांति का अनुभव कर सकते हैं।

- घर में कोई रोगी हो तो एक कटोरी में केसर घोलकर उसके कमरे में रखे दें। वह जल्दी स्वस्थ हो जाएगा।
- घर में ऐसी व्यवस्था करें कि वातावरण सुगंधित रहे। सुगंधित वातावरण से मन प्रसन्न रहता है।
- घर में जाले न लगने दें, इससे मानसिक तनाव कम होता है।
- दिन में एक बार चांदी के ग्लास का पानी पिये। इससे क्रोध पर नियंत्रण होता है।
- अपने घर में चटकीले रंग नहीं कराये।
- किचन का पत्थर काला नहीं रखें।
- कंटीले पौधे घर में नहीं लगाएं।
- भोजन रसोईघर में बैठकर ही करें।
- शयन कक्ष में मदिरापान नहीं करें। अन्यथा रोगी होने तथा डरावने सपनों का भय होता है।
इन छोटे-छोटे उपायों से आप शांति का अनुभव करेंगे।

कौन सी वस्तु कहां रखें:
- सोते समय सिर दक्षिण में पैर उत्तर दिशा में रखें। या सिर पश्चिम में पैर पूर्व दिशा में रखना चाहिए।
- अलमारी या तिजोरी को कभी भी दक्षिणमुखी नहीं रखें।
- पूजा घर ईशान कोण में रखें।
- रसोई घर मेन स्वीच, इलेक्ट्रीक बोर्ड, टीवी इन सब को आग्नेय कोण में रखें।
- रसोई के स्टेंड का पत्थर काला नहीं रखें।दक्षिणमुखी होकर रसोई नहीं पकाए।
- शौचालय सदा नैर्ऋत्य कोण में रखने का प्रयास करें।
- फर्श या दिवारों का रंग पूर्ण सफेद नहीं रखें।
- फर्श काला नहीं रखें।
- मुख्य द्वार की दांयी और शाम को रोजाना एक दीपक लगाएं।

घर का बाहरी रंग कैसा हो-
- घर के आगे की दिवारों के रंग से भी वास्तु दोष दूर किया जा सकता है। यदि आपका घर
- पूर्वमुखी हो तो फ्रंट में लाल, मेहरून रंग करें।
- पश्चिममुखी हो तो लाल, नारंगी, सिंदूरी रंग करें।
- उत्तरामुखी हो तो पीला, नारंगी करें।
- दक्षिणमुखी हो तो गहरा नीला रंग करें।
- किचन में लाल रंग।बेडरूम में हल्का नीला, आसमानी।
- ड्राइंग रूम में क्रीम कलर।
- पूजा घर में नारंगी रंग।
- शौचालय में गहरा नीला।
- फर्श पूर्ण सफेद न हो क्रीम रंग का होना चाहिए।

कमरो का निर्माण कैसा हो?
कमरों का निर्माण में नाप महत्वपूर्ण होते हैं। उनमें आमने-सामने की दिवारें बिल्कुल एक नाप की हो, उनमें विषमता न हो। कमरों का निर्माण भी सम ही करें। 20-10, 16-10, 10-10, 20-16 आदि विषमता में ना करें जैसे 19-16, 18-11 आदि।बेडरूम में शयन की क्या स्थिति।बेडरूम में सोने की व्यवस्था कुछ इस तरह हो कि सिर दक्षिण मे एवं पांव उत्तर में हो।यदि यह संभव न हो तो सिराहना पश्चिम में और पैर पूर्व दिशा में हो तो बेहतर होता है। रोशनी व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए कि आंखों पर जोर न पड़े। बेड रूम के दरवाजे के पास पलंग स्थापित न करें। इससे कार्य में विफलता पैदा होती है। कम-कम से समान बेड रूम के भीतर रखे।

वास्तु शास्त्र और साज-सज्जा
घर की साज सज्जा बाहरी हो या अंदर की वह हमारी बुद्धि मन और शरीर को जरूर प्रभावित करती है। घर में यदि वस्तुएं वास्तु अनुसार सुसज्जित न हो तो वास्तु और ग्रह रश्मियों की विषमता के कारण घर में क्लेश, अशांति का जन्म होता है। घर के बाहर की साज-सज्जा बाहरी लोगों को एवं आंतरिक शृंगार हमारे अंत: करण को सौंदर्य प्रदान करता है। जिससे सुख-शांति, सौम्यता प्राप्त होती है।
भवन निर्माण के समय ध्यान रखें। भवन के अंदर के कमरों का ढलान उत्तर दिशा की तरफ न हो। ऐसा हो जाने से भवन स्वामी हमेशा ऋणी रहता है। ईशान कोण की तरफ नाली न रखें। इससे खर्च बढ़ता है।
शौचालय: शौचालय का निर्माण पूर्वोत्तर ईशान कोण में न करें। इससे सदा दरिद्रता बनी रहती है। शौचालय का निर्माण वायव्य दिशा में हो तो बेहतर होता है।
कमरों में ज्यादा छिद्रों का ना होना आपको स्वस्थ और शांतिपूर्वक रखेगा।


कौन से रंग का हो स्टडी रूम?
रंग का भी अध्ययन कक्ष में बड़ा प्रभाव पड़ता है। आइए जानते हैं कौन-कौन से रंग आपके अध्ययन को बेहतर बनाते हैं। तथा कौन से रंग का स्टडी रूम में त्याग करना चाहिए।अध्ययन कक्ष में हल्का पीला रंग, हल्का लाल रंग, हल्का हरा रंग आपकी बुद्धि को ऊर्जा प्रदान करता है। तथा पढ़ी हुयी बाते याद रहती है। पढ़ते समय आलस्य नही आता, स्फुर्ती बनी रहती है। हरा और लाल रंग सर्वथा अध्ययन के लिए उपयोगी है। लाल रंग से मन भटकता नहीं हैं, तथा हरा रंग हमें सकारात्मक उर्जा प्रदान करता है।नीले, काले, जामुनी जैसे रंगो का स्टडी रूम में त्याग करना चाहिए, यह रंग नकारात्मक उर्जा के कारक है। ऐसे कमरो में बैठकर कि गयी पढ़ाई निरर्थक हो जाती है।

29 अप्रैल 2012

किनारा

मैं धड़कते दिल से डाकिये का इंतज़ार कर रही थी। मैं ही क्यों? माँ और पिताजी भले ही ऊपर से शांत दिखाई पद रहे थे, लेकिन मैं जानती हूँ कि वे अन्दर से कितने बेचैन थे।
  बात यह थी कि पिछले हफ्ते सुशांत मुझे देखने आए थे और आज उन का जवाब आने की उम्मीद थी। वैसे अपनी शादी के बारे में मैं कुछ निराश और तटस्थ सी हो गयी हूँ। लेकिन मेरे कारण पिताजी को जो चिंता थी, उस से मेरा मन ज्यादा ही व्यथित होता था। मेरे कारण माँ भी कहीं बाहर ज्यादा उठाने बैठने नहीं जाती थीं।
  अडोसपड़ोस की स्त्रियाँ अकसर मुझ से कहतीं, "अरे, शादी क्यों नहीं करती, कुसुम? तेरे छोटे भाई और दोनों छोटी बहनों की शादी हो गयी और तू किस राजकुमार का इंतज़ार कर रही है?"
  "कुसमम, तेरे जैसी सुन्दर और गुणवती लडकी की 30 साल की उम्र तक शादी नहीं हुई? कुछ अटपटा सा लगता है। सचसच बता, क्या बात है?"
   उन्हें मैं कैसे समझाऊँ कि मैं खुद इस बात से परेशान हूँ। मांबाप की मैं लाडली पहली सन्तान थी। रंगरूप सुन्दर, खानदान अच्छा, पढीलिखी। जब मेरी शादी की उम्र हुई, पिताजी कौतुक से कहते, "कुसुम के लिए मैं राजकुमार ही खोजूंगा।"
  "यह लड़का आई.ए.एस. है तो क्या हुआ, रंग तो काला है..." "यह डाक्टर लड़का होशियार है, लेकिन ठिगना है..." "इस लड़के का खानदान अपने बराबरी का नहीं है," कह कर कितने ही लड़के उन्होंने किसी न किसी वजह से नापसंद कर दी। 
 मेरी उम्र बढ़ती चली गयी। हमारी शर्तें भी कम हो गयी। लेकिन हमारी इच्छापूर्ति न हुई। इस दरम्यान भाई और दो बहनों की शादी हो गई। उन का सुखी संसार बसा। लेकिन मैं जहाँ की तहां रही। बड़ी उम्र की कारण अब लड़के मुझे नकारने लगे। समय काटने के लिए मैं ने चित्रकला और शास्त्रीय संगीत का अभ्यास शुरू कर दिया।
  गेट खुलने की आवाज आते ही पिताजी बाहर गए। मैं ने अपने कमरे से देखा, सचमुच डाकिया था। पिताजी के हाथ में उस ने लिफाफा दिया। सांस रोक कर मैं कमारे में ही खादी रही, "अरे कुसुम, तू ने बाजी मार ली," कह कर खुस हो कर पिताजी के हंसने का मैं इन्त्ताजार कर रही थी। पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ तो मैं समझ गई कि इनकार है। मन को ठेस पहुँची, थोड़ी देर बाद मन स्थिर किया और ऊपरी उत्साह से हाल में गई।
  माँ और पिताजी उदास बैठे थे।
  "माँ, मैं ने कल जो चित्र बनाया था, उस को दिखाना भूल गई। अभी ले आती हूँ।"
  मैं चित्र लाई। माँ और पिताजी ने उस की तारीफ़ की, तब मैं ने कहा, "माँ, आप को कमलाजी ने मदद के लिए जल्दी बुलाया है। आप दोनों जाइए न?"
  "कमलाजी का और हमारा निकट का सम्बन्ध अहि। उन की इकलौती बेटी मंजू का ब्याह है। जितनी मदद हम से होगी, उतने तो करेंगे ही, "पिताजी बोले, "लेकिन आज कुछ सुस्ती लग रही है।"
  "नहीं पिताजी, आप का जाना जरूरी है। आप दोनों जाइए। शादी के वक्त मैं आउंगी। शाम को 6 बजे शादी है न।"
  "हाँ बेटी," पिताजी ने कहा।
  "कुसुम, तुम को भी वहीं दोपहर का खाना खाना है," माँ ने कहा।
  "माँ, मैं घर पर ही कुछ बना लूंगी और शाम को वहां आउन्गीए।"
  माँ सब समझ गई थीं। कुछ ज्यादा बोलीं नहीं। थोड़ी देर बाद माँ और पिताजी दोनों कमलाजी के यहाँ चले गए।
  उन के जाने के बाद मेरा मन घोर निराशा से भर गया, "उफ़, मेरे साथ ऐसा क्यों हो रहा है?" असहाय सी मैं बिस्तर पर पड़े चुपचाप आंसू बहा रहे थी। पहला आवेग थमने के बाद मेरा मन कहने लगा, "अगले पगली, उठ, शादी ही जीवन का सर्वस्व नहीं है। उस तरफ का मार्ग बंद है तो दुखी होने की, घबराने की क्या जरूरत है? सुखी जीवन के अनेक मार्ग है। उन में से एकाध चुन ले। मुझ को गायन तथा चित्रकला का शौक है उसी से अपना दिल लगा ले। उठउठ, अपने जीवन के प्रवाह को चट्टान से टकराने से क्या लाभ? दूसरा सुगम मार्ग अपना ले। अब उठ और अपना जीवन नए मोड़ पर उत्साह से ले चल।"
  आश्चर्य, इस बोध से मैं चकित हुई। मेरे मन का बोझ हल्का हुआ। सच तो है कि तीव्र निराशा के बाद जीवन की आशाकिरण किखती है।
  मैं स्फूर्ति से उठी, शैम्पू से बाल धोए। नहाने से मन प्रफुल्लित हुआ। हेयर ड्रायर से बाल सुखाए। मेकप कर के हलकी गुलाबी रंग की शिफोर की सादी पहनी। आईने में अपना चेहरा देख कर मैं खुश हुई। गाना गुनगुनाते हुए हाल में गई। मेरी बनाई हुए कलाकृति वहीँ मेज पर रखी थी। उसको बड़े स्नेह से देखा मैं ने।
  इतने में दरवाजे की घंटी बजी।
दरवाजा खोला तो देखा कमलाजी का लड़का समीर और एक युवक खडा था।
  "कुसुम दीदी, यह हैं मेरे भाई अभय। आप से मिलाने आए हैं," समीर ने कहा।
  नमस्कार का आदानप्रदान हुआ।
  "आइये, बैठिये।"
  "दीदी, घर में काम है, मैं जाता हूँ। अभय भैया बैठेंगे। बाद में आप कार से उन्हें ले आइये। और हाँ, माँ ने कहा है कि आज आप को हमारे यहाँ ही खाना है। जरूर आइयेगा।" कह कर समीर चला गया।
  "मुझे पहचाना?" अभय हंस कर पूछ रहा था। मैं उसे देख रही थी। उसे पहचानने की कोशिश कर रही थी, लेकिन कुछ याद नहीं आया।
  "नहीं पहचाना न? मैं अभय हूँ। 20 साल पहले आप के पिताजी और मेरे पिताजी जबलपुर में साथ थे। दोनों के बंगले एकदूसरे से लगे हुए थे। आप करीब 9-10 साल की थीं और मैं 12 साल का था। मेरी छोटी बहन सुधा के साथ खेलने आप आती थीं। अब कुछ याद आया?"
  मुझे कुछ धुंधली याद आई, "अरे, तू हम को फल तोड़ के देता था न?"
  "चलो, कुछ थोडाबहुत तो पहचाना।" कह कर अभय हंस पडा, उस का गोराचिट्टा रंग, ऊंचापूरा गँठीला बदन, प्रसन्न व्यक्तित्व देख कर मैं बहुत प्रभावित हुई। उस के साथ बचपन की बातें कर के बहुत अच्छा लग रहा था।
  "अभय, पहले बता, तुझे कैसे पता चला कि मैं यहाँ हूँ और तू ने मुझे कैसे पहचाना?"
  "बहुत सरल तरीके से। कमलाजी मेरी सगी मौसी हैं। इसलिए मंजू की शादी में माँ और पिताजी के साथ मैं भी आया।
कमलाजी के यहाँ तुम्हारे पिताजी से भेंट हुई। बातचीत के दौरान मैं ने तुम्हारे बारे में पूछा, तब सब पता चला और तुम से मिलाने आ गया।"
 "इतने साल बाद मेरा नाम कैसे याद आया?"
  "कोइ अचरज की बात नहीं। बचपन में कुसुम नाम की गुडिया सी लडकी ने मेरे मन पर चाप छोटी थी। वह काल प्रवाह में धूमिल अवश्य हुई थी, पर आज तुम्हारी माँ और पिताजी से मिलाने के बाद एकदम साफ़ हुई। वह छोटी गुडिया अब कैसी दिखती होगी, यह जानने के लिए मैं बड़ा उत्सुक था और एकाएक यहाँ आ गया।"
  "अब आप कहाँ रहते हैं? क्या करते हैं? सब बताइए न।" बचपन की बातें चली थीं, तब 'तुम' संबोधन सहज रूप से बोला गया। लेकिन संभाषण का रूख जब वर्त्तमान पर आया, तब अभय को युवक के रूप में देख कर 'तुम' की जगह 'आप' संबोधन आदतन आ गया।
  अभय हंस पडा, "अरे, उम्र में बड़ा हुआ तो क्या हुआ, मैं तो पुराना ही 'तुम' वाला अभय हूँ। 'आप' सम्भोधन की औपचारिकता की जरूरत नहीं।"
  मेरे चेहरे पर भी मुस्कराहट आ गई। किंचित लजाते हुए मैं ने कहा, "अच्छा बाबा, 'तुम' कहूंगी। अब सब बताओ।"
  "मेरे पिताजी की बदली जबलपुर से इंदौर हो गई। वहीं पर मैं ने एम.बी.बी.एस. और एम.दी. की डिगरी हासिल की। स्वर्ण पदक भी मिला। फिर छात्र के रूप में वीजा से लेकर 25 साल की उम्र में अमरीका गया। मुझे शोध में रुचि है। अमरीका में शोध ही कर रहा हूँ। अपने अमरीकी प्राध्यापकों की मदद से बहुत संघर्ष के बाद पिचले साल मुझे ग्रीन कार्ड मिल गया। शोध की सुविधाएं अमरीका में बहुत ज्यादा हैं, इसलिए वहीँ रहना चाहता हूँ। इस साल 1 महीने के लिए भारत आया हूँ," फिर रूक कर बोला, "इतना जीवन परिचय काफी है न?"
  मेरे मन में जिज्ञासा हुई कि इस की शादी कब हुई। पत्नी कैसी है? यह सब जानने के इच्छा थी, लेकिन न मालूम क्यों मैं यह सीधा सवाल नहीं पूछ सकी। इधरउधर की कुछ बातें होने लगीं। फिर मुझ से रहा न गया।
  "पत्नी भी साथ आई है न?"
  "अरे, पत्नी हो तो साथ आएगी। हम तो अभी कोरा कागज़ ही हैं।"
  फिर कुछ गंभीर ह कर स्थिर दृष्टि से मुझे देख कर वह बोला, "पत्नी की खोज के लिए ही यहाँ आया हूँ।"
  मैं एकदम सकुचाई। मेरा दिल जोर से धड़कने लगा। अभय का 'यहाँ' का क्या मतलब-हिन्दुस्तान में या मेरे यहाँ? इस विचार सेमिन स्तब्ध हो गई। मेरे मन में आशा की किरणें चमकने लगीं। अभय का जादू मुझ पर हावी होने लगा था। उस की स्निग्ध और गंभीर नजर मुझ पर टिकी थी। अपनी आँखों का भाव छिपा कर मैं ने पलकें झुका लीं। दोनों की स्तब्धता और आँखों के भाव बहुत कुछ कह गए।
  थोड़ी देर में संयत हो कर मैं ने सहज ढंग से कहा, "अभय, मैं आजकल चित्रकला में रुचि ले रही हूँ। मेरे बनाए चित्र देखोगे?" कह कर मैं हाल में रखी कलाकृति के पास गई। मेरे पीचेपीचे अभय भी आया।
  उस की निकटता मुझे उत्तेजित करने लगी। मेरे मुंह से शब्द नहीं निकल रहे थे। मैं मुग्ध सी खडी रही। डर लग रहा था कि मेरे मन में उभरने वाली प्रणयभावना का अंदाजा कहीं अभय को न लगे। तभी पीछे से अभय ने कहा, "कुसुम, तुम से कुछ पूछना है। उस का मृदु आतुर स्वर सुन कर मेरा मन खुशी से नाचने लगा। लचीली आँखों से मैं ने उस की तरफ देखा।
  "कुसुम, तुम मेरी पत्नी बनोगी।"
  मुझे लगा जैसे कोइ दोनों हाथों से मुह पर खुशियाँ बिखेर रहा है। मेरी पलकें झुक गईं। शब्दों की स्वीकृति की जरूरत ही नहीं थी। मंद मधुर, मुसकराते हुए उस ने मेरे कंधे पर हाथ रखा, "अपने प्रश्न का उत्तर 'हाँ' समझूं?"
  मैं ने कब 'हाँ' कहा, कैसे और कब उस के बाहुपाश में बंध गई, मुझे पता न चला।  

                                                                                                                                                                              - कमल भालेराव 

टोने टोटके - कुछ उपाय - 15 (Tonae Totake - Some Tips - 15)

पढाई में मन लगाने के लिए : 
जो बच्चे गूंगे हैं अथवा हकलाते हैं, बार-बार परिक्षा में फेल हो जाते हैं और जिनका मन पढाई में नहीं लगता है। उन बच्चों को रविवार के दिन इस मंत्र से 21 बार अभिमंत्रित कर जल पिलायें। जो बच्चे जप कर सकते हैं वे प्रतिदिन एक माला जप करें। मंत्र: ॐ वान्याई ऐं वाण्यै स्वाहा 11 इसी से पढ कर जल भी पिलायें। चमत्कारिक लाभ होगा।

ऊपरी बाधा को छुडाने के लिए :
हजार दाना नमक एक छोटा सा एकदम लहसन के आकार में, यह मंद होता है तथा दुर्लभ वनस्पति है। इसकी एक कली को तोडने पर सैकडों की तादाद से अत्यंत सूक्ष्म सफ़ेद बीज निकलते हैं। यह पौधा तालाब में कहीं कहीं पाया जाता है। इसका कंद या कली जो भी उपलब्ध हो लाकर किसी भी शुभ मुहूर्त में ताबीज में डालकर गले या भुजा में धारण करें। किसी तांत्रिक द्वारा अभिचार किये जाने पर एक बार में इसका मात्र एक दाना चटक जाता है और लोग सुरक्षित बच जाते हैं। जब कि एक कली में सैकडों की संख्या में बीज पाये जाते हैं।

मजबूरी दूर करने के लिए :
कई बार इच्छा न होते हुए भी मजबूरी में काम करना पड़ता है। इसे दूर करने के लिए। उपाय - 2 लौंग और एक कपूर का टुकड़ा लें। इनको 3 बार गायत्री मंत्र पढ़कर अभिमंत्रित करें। इसके बाद इन्हें जला दें। जलते समय आपका मुख पूर्व की तरफ हो तथा गायत्री मंत्र का पाठ भी करते रहें। फिर भस्म को दिन में दो तीन बार जीभ पर लगाएं धीरे-धीरे आपकी मजबूरी में काम करने की आदत छूट जाएगी।    

परदेश गए व्यक्ति या दिए गए धन की वापसी हेतु उपाय :
प्रातःकाल स्नान करने के बाद परदेश गए व्यक्ति का नाम कागज़ पर लिख कर रख लें। एक और दीपक बनाएं। उसमें सरसों का तेल डालें फिर उसे जला दें। पहले धरती पर नमक रखें उस पर दिया रख कर गए व्यक्ति का ध्यान कर 43  दिन तक प्रतिदिन लगातार 11 बार हनुमान चालीसा का पाठ करें।
गया व्यक्ति वापस आ जाएगा तथा पैसा भी मिल जाएगा।

दूध लाने का उपाय :
अनार का दाना दूध में पीसकर देने से जिन माताओं को दूध नहीं है उनके दूध आने लग जाएगा।

श्वास व दमा रोगों के लिए  :
अपामार्ग के बीजों को लाकर साफ़ कर लें व लाल कपडे से ढक दें। कार्तिक पूर्णिमा के दिन उन्हें धोकर गाय के दूध की खीर बना लें फिर रात्री में उनको छलनी या किसी जाली ढक दें। पूरी चांदनी रात में जो ओस पड़ेगी उस खीर को प्रातः काल में खा लें। यह दमा रोग की पक्की औषधि है। करें व लाभ उठायें।

लाल रंग का रिवन घर के मुख्य द्वार पर बांधें। इससे घर में सुख सम्रद्धि आती है और कैसा भी वास्तु दोष हो वह दूर हो जाता है लेकिन किसी शुभ मुहूर्त में रिबन बांधें। 

कोई भीगा स्पर्श

कच्ची बूंदों की
फुहारों में सिहर कर
 जब किसी फूल का अंतर
झील सा काँप कर
गुनगुनाने लगता है,
अथवा किसी पक्षी की
रोमिल बरौनियों की छाँव में
कोई एकांत प्रतीक्षा तीव्रतर हो
सुगबुगाने लगती है,
तब लगता है कि आकाश ने
जरूर किसी मेघखंड की
काव्य ऋचा लिखी है।

वक्त का थोड़ा सा बदलाव
कितने एहसासों को
जन्म दे देता है,
कितने अनगूंजे, अनकहे स्वर
पुरवाई के आसपास
मंडराने लगते हैं।

ऐसे में यदि बादल का
कोई भीगा स्पर्श
सुबह का आँचल थाम
उठाता है और द्वार पर,
मौसम फुर्सत से आवाज
लगा कर पुकारता है,
तब जैसे दिन के पूरे पृष्ट का
शीर्षक ही बदल जाता है।
शायद ऐसे ही क्षण
बस सार्थक होते हैं,
हमारे निजी होते हैं।

                          - सावित्री परमार
    

20 मार्च 2012

मार्गरेट आने वाली है

ऋतु ने एक बार सारे घर में घूम कर देखा। कहीं कोई गंवारपन नहीं दिखाई दिया। दीवार पर टंगी घड़ी तथा कलाकृतियाँ, खिड़की पर रखा नन्हा कैक्टस का गमला, बाहर रखे बोनसाई पौधे। सभी कुछ तो आधुनिक था। अब कोई घर देख कर यह नहीं कह सकता था की घर में कोई पिछडापन है।
  उस ने घड़ी देखी, "ओह, मार्गरेट के आने में बस आधा घंटा रह गया है।" पता नहीं इस नई मेहमान के आने की खबर से उस के दिल में क्यों धुकधुक हो रही थी? एक तो आने वाले ईसाई थीं, ऊपर से गोआ की रहने वालीं। इसलिए वह अपने व्यक्तित्व के साथसाथ घर की साजसंवार के प्रति अतिरिक्त सजग हो उठी थी। अन्दर रखी हुई सजावट की वस्तुएं निकाली थीं। कुशन, परदे, यहाँ तक की तकिये के गिलाफ तक बदल दिए थे।
  एक बार फिर वह श्रृंगार मेज के सामने खडी हो गयी। कितने महीनों बाद उस ने भिड़ी पहनी थी। कमर में 'सफ़ेद धातु' की चेन भी बांधी थी, वरना शादी के बाद मन कैसाकैसा हो जाता है। लड़कपन की पोशाक पहनने में स्वयं ही संकोच होने लगता है। हालांकि अनिल को कोई मतलब नहीं था। उस की बला से कुछ भी पहनो, फिर भी भिड़ी रात में कहीं बाहर जाते समय ही पहन पाती थी।
  उस ने सोचने की कोशिश की कि मार्गरेट कैसी होंगी। उम्र तो उन की 40 वर्ष के आसपास होगी, क्योंकि उन के पति डेविड भी कम से कम 45-46 वर्ष के लगते हैं। देखने में भी वह जरूर चुस्त होंगी, क्योंकि डेविड भी तो कम आकर्षण नहीं हैं। अच्छा तो भिड़ी पहन कर आएंगी या भिड़ी पेंट पहन कर या जींस पहन कर?
  धत, तीन दिनों से मार्गरेट किस कदर उस के दिमाग पर छाई हुई हैं। कितनी बार उस ने इस बात को दिमाग से झटकना चाहा है की मार्गरेट उस के घर आने वाली हैं, किन्तु हर बार वह दिमाग में घुसती ही जा रही है। वह भी क्या करे? डेविड से उन के बारे में व उन के परिवार की शानशौकत के बारे में इतना सुना है की वह उन्हें बिना देखे ही मोहित हो गयी थी। चाचाजी हमेशा बताते रहते थे आजादी से पहले मार्गरेट के पिता किस तरह अंग्रेज अफसरों के साथ शिकार पर जाया करते थे। उन लोगों के परिवार के साथ उन के परिवार का दिन भर का उठनाबैठना था।
  तभी तो वह तीन दिनों से परेशान थी की मार्गरेट यहाँ आ कर उस में या उस के घर में कोई गंवारूपन न नोट कर लें। मन ही मन उस ने उन से बात करने के लिए बेहतर से बेहतर अंगरेजी वाक्य छांट रखे थे। वह किसी पब्लिक स्कूल में नहीं पड़ पाई तो क्या, लेकिन अंगरेजी माध्यम के अच्छे स्कूल में तो पढी हुई थी।
  अनिल और डेविड का परिचय तो बहुत पुराना था। वह नौकरी की खातिर गोआ से इतनी दूर चले आए थे। उन की पत्नी बच्चों के साथ गोआ में निजी मकान में अपनी बूढ़े सासससुर के कारण रह रही थीं।उन की कनपटियों के पास के कुछ सफ़ेद बाल उन की उम्र की चुगली खाते थे, वरना उन के अलमस्त व्यक्तित्व का उम्र से कोई लेनादेना नहीं था।
  "चीं...चीं...चीं..." चिडियानुमा घंटी बजी। वह हाथ का कंघा छोड़ झटपट दरवाजे की तरफ भागी। उफ़! मार्गरेट इतनी जल्दी आ गईं। वह जल्दी में बैठक में कोने की मेज से टकरा गई। मेज के उलटने से उस पर रखी एश ट्रे गिर गई। उस ने एश ट्रे को झटपट मेज पर रख कर दरवाजा खोला।
  दरवाजे पर खड़े डाकिए ने उस के हाथ में तीन पत्र थमा दिए। उन ने झल्ला कर जोर से दरवाजा बंद कर दिया।
  तीनों पत्र पढने के बाद फिर सोचा, चलो रसोई में एक चक्कर लगा आए। सूप, उबली हुई सब्जियां व अंडे तैयार थे। पुडिंग बना कर भी फ्रिज में रख दी थी।
  उन लोगों के आने पर सैंडविच तो शान्ति सेक देगी। रसोई का एक चक्कर लगा कर वह खुश हो गई। कितना मजा है यूरोपीय खाना बनाने में। न मेहनत, न कोई झंझट। अगर हिन्दुस्तानी खाना बनाया होता तो अब तक तो वह रसोई में ही लगी होती। रसोई भी तो कितनी साफसुथरी लग रही है। नहीं तो इस में मसाले व इलायची की खुशबू ही भरी होती।
  बहुत दिनों पहले देखी किसी अंगरेजी फिल्म की नायिका की तरह वह ऊंची एडी के सैंडिल को खटखट करती चलती बैठक में 'शिक' पत्रिका ले कर बैठ गई। हाथ पत्रिका को उलटपुलट रहे थे, लेकिन अभी भी उस के दिल में मार्गरेट के आने की उत्तेजना भरी हुई थी।
  "चीं...चीं...चीं..." इस बार दरवाजे पर अनिल, डेविड व साथ में एक महिला साड़ी में लिपटी, माथे पर सिन्दूर की बिंदी लगाए खडी हुई थी. वह खीज उठी। "उफ़, सारी मेहनत पर पानी फिर गया। आखिर मार्गरेट नहीं आईं।"
  वह उन से चहक कर "हाय!" कहे इस से पहले ही उस महिला ने हाथ जोड़ कर कहा, नमस्ते, ऋतुजी, मैं मार्गरेट हूँ।"
  उसे सहज होने में कुछ सेकण्ड लगे, "नमस्ते, आइये...आइये।"
  ऋतु को गुस्सा आया। यह तो हिन्दुस्तानी में ही बात कर रही है। इस के छांट कर रेट हुए अंगरेजी वाक्यों का क्या होगा?
  ऋतु उन की ओर लगातार कनखियों से देखती जा रही थी। जिस शिष्टाचार को सिखाने में उस के मांबाप ने जान लगा दी, मार्गरेट उन में से एक का भी पालन नहीं कर रहीं थी।
  उफ़, मेज पर बैठते ही उन्होंने गिलास फूल की तरह सजा नेपकिन टांगों पर न बिछा कर बेदर्दी से मेज पर पटक दिया था। प्लेट के एक तरफ रखे हुए छुरीकांटे को उन्होंने छुआ भी नहीं था। सैंडविच हाथ में ले कर आराम से खा रही थीं।
  "ओह", वह झुंझला उठी। कहाँ तो वह कल्पना कर रही थी की मार्गरेट धीमे से खाने की मेज की कुरसी खिसका कर आहिस्ता से उस पर बैठेंगी। उँगलियों की पोरों से नेपकिन उठा कर अपनी टांगों पर फैला कर बातों के बीच धीमेधीमे सूप सिप करेंगी। बाद में नजाकत से छुरीकांटे से सेंडविच खाएंगी। खैर, इतना न सही, कम से कम पुडिंग की ही तारीफ़ कर दें।
  जब उस से रहा नहीं गया तब वह पूछ बैठी, "क्या आप को खाना पसंद नहीं आया?"
  "ऐसी बात नहीं है, सब चीजें बहुत स्वादिष्ट हैं। ख़ास तौर से यह पुडिंग, लेकिन हमें तो उम्मीद थी की आप के यहाँ आज तो पूरी, बटाटा वाली कचौरी व खीर खाने को मिलेगी। मुझ को तो वही पसंद आता है। घर में भी मैं रोटी बनाती हूँ। ब्रेड से अधिक पौष्टिक होती है।"
  उसे लगा उस के चेहरे का मेकप एकदम से किसी ने पोंछ दिया हो। वह तो तीन दिन से परेशान होती रही की कौनकौन सा यूरोपीय भोजन बनाए और मेम साहब हैं की अभी भी पूरी कचौरी के ज़माने में रह रही हैं।
  "एक दिन हम आप के घर पूरी कचौरी खाने फिर आएँगे। और हाँ, कल आप सुबह हमारे साथ नाश्ता करने आइये आप लोगों को हलुआ और पिजा बना कर खिलाऊँगी।" फिर वह शालीनता से नमस्ते कर के चल दीं।
  हलुआ और पिजा ! क्या अद्भुद संगम है, हिन्दुस्तानी और यूरोपीय खाने का। वह विस्मित थी। वह क्यों बावली बनी, पश्चिम सभ्यता के पीछे भागती जा रही है? क्यों नहीं उस ने समन्वय ढूँढने की कोशिश की? मार्गरेट का यह संतुलन सचमुच मोहक है।
  वह खिसियाई हुई बाहर जाती हुई मार्गरेट को देख रही थी। उस का मन हुआ की जोरजोर से चीख कर वह तीन दिन से रटे हुए अंगरेजी वाक्यों में कुछ हिन्दी वाक्य मिला कर उन्हें अंगरेजी में जोर से सुना दे।

                                                                                                                                                                             - नीलम कुलश्रेष्ठ

जब मैंने अपने जालिम पति को खुश करना चाहा

जब मैं ने डा.अनिता श्रीवास्तव का "पति को खुश करने के अचूक नुस्खे" लेख पढ़ा तो मन खुशी से झूम उठा। मेरे दिल के मुरझाए फूल खिल उठे। मेरे पतझड़ जैसे जीवन में लगने लगा की वसंत ऋतु का आगमन शुरू होने लगा है। विश्वास कीजिये, तब से रक्त संचार की गति सामान्य गति से तीव्र हो गई।
   मैं भी उस दिन को कोस रही हूँ की पहली रात मैं ने बिल्ला क्यों नहीं मारा। क्यों मैं लाज की मारी छुईमुई कली बनी बैठी रही? काश, मैं बिल्ला मार पाती। खैर, जो हुआ सो हुआ, अब क्या होना है, उस पर विचार किया जाए। मैं ने ठान ली की जैसे भी हो, अब तो हर सम्भव तरीके से अपने पति को खुश रखना है, बस फिर क्या था? सोच लिया की इन अचूक फार्मूलों से मेरे पति बच नहीं पाएंगे, और मैं? मेरा सर कढाही में और पाचों उंगलिया घी में होंगी।
   सोचा, शुभ कार्य में देरी नहीं करनी चाहिए। क्यों न आज से ही यह कार्य शुरू किया जाए? बस फिर क्या था, सोचने की देर थी की बदन में अजीब तरह की स्फूर्ति आ गयी। पैरों में हलचल मच गई। यानी आज तो घर की सफाई सुव्यवस्थित और जाले, वगैरहवगैरह सब साफ़ हो गए। हम भी हैरान हो गए की जो काम पांच बरस में नहीं हो पाया, वह केवल पांच मिनटों में कैसे निबट गया। खैर, यह सब करने के बाद पुरानी पत्रिकाएँ निकालीं, सौन्दर्य नुसखे ढूंढें और पढ़पढ़ कर वही दिया, जो लिखा था-यानी लिपाईपुताई, रगड़ाई, रंगाई सारे काम एक साथ। अब हाथ छिले चाहे पाँव, चाहे खून ही निकल आए। भई, जब कार्य पहली बार शुरू किया तो वह ठीक ढंग से होना चाहिए।
   रूप तो अब काफी निखर चुका था। थोड़ा सा मेकप भी किया। आज वही साडी पहन ले जो इन्हें कभी प्रिय होती थी और मुझे अप्रिय। मगर इन्हें खुश जो करना था। बालों में नई शैली की केशसज्जा कर डाली। शीशे के आगे खडी थी। यकीन नहीं आ रहा था की मैं सचमुच सुन्दर लग रही हूँ। अब तो इंतज़ार था उन के आने का। कम्बखत सूरज को भी आज ही देर से ढलना था और मुई सुई थी की छः पर ही नहीं आ रही थी। आखिर अंदरबाहर आतेजाते सुई हम पर मेहरबान हुई। और ठीक छः बजे मेरा दिल भी बुरी तरह धड़क रहा था। सोचा, आज तो जालिम पति बड़े प्यार से आँखों में आखें डाल कर कहेंगे, "प्रिय, बड़ा गजब ढा रही हो, क्या इरादा है?" और मैं शरमा कर कह दूंगी, वही सब जो कहते होंगे। तभी हमारे खटारे से स्कूटर की आवाज सुनाई पडी, पर मुझे अन्य दिनों की तरह फटे बांस के सुर जैसी नहीं लग रही थी, बल्कि यों लग रहा था जैसी मीठी ध्वनी कानों पर पड़ रही हो।
   जनाब ने अन्दर प्रवेश किया और मुझे देखते ही अवाक रह गए। कहने लगे, "माफ़ करना, मैं गलती से इस घर में घुस आया, श्रीमतीजी," जाने लगे तो मैं ने कहा, "अजी, मुझे और अपने घर को नहीं पहचाना? मैं हूँ तुम्हारी..."
   उन्होंने खूंखार नजरों से देखा और अन्दर चले गए। मैं कुछ सोचती की उन की भयंकर...नहीं...नहीं बड़ी प्यार भरी आवाज सुनाई पडी। दासी तो एकदम तैयार थी हुजूर के लिए। मेरे रोबीले पति ने कड़क कर कहा, "यह तुम्हें क्या सूझी थी श्रृंगार करने की? इतने सालों तक क्या सोई थीं? जाओ और खिचडी बना दो, पेट गड़बड़ हो रहा है।"
   लो, बस पेट को भी आज ही ख़राब होना था, जब की उन की पसंद की तरकारी मैं ने कितने प्यार और मेहनत से बनाई थी। अब क्या करूंगी उस का? बर्तन वाली माई भी नहीं ले जाएगी। मैं ने फिर मन को ढाढस बंधाया। कोई बात नहीं, अब तो रोज वही तरकारी ही बनेगी। मैं तो अचार से भी खा लूंगी। आखिर उन्हें खुश जो करना है।
   मैं तो फार्मूले पर फार्मूले पढ़े जा रही थी, मगर जादुई असर नहीं हो रहा था।
   मैं भी हिम्मत हारने वालों में से नहीं हूँ। एक दिन उन के यही दोस्त आ धमके जिन की शक्लों से मुझे बड़ी चिढ थी। यह मुझे टेढ़ी आँख भी न भाते थे। दोस्त क्या वे, आफत थे। उन्हें देख कर मैं नाक भौं सिकोड़ती की मुझे याद आया की पति को खुश रखना है। शायद यही नुसखा कामयाब हो जाए। उन को एक मीठी मुस्कान के साथ अन्दर लाई, चाय पिलाई, पकौड़े खिलाए, फिर हाथ के बने गुलाब जामुन। रात को भी बगैर खाए नहीं जाने दिया। मित्र हैरान परेशान, डरेडरे, बारबार यही दोहरा रहे थे, "भाभीजी, तबीयत तो ठीक है न?" मैं कहती जा रही थी, "अरे, तबीयत को क्या हुआ, आप के सामने हूँ।"
   मैं तो अपना कार्य पूरे लगन से करती जा रही थी। आज 100 प्रतिशत तो नहीं 50 प्रतिशत यकीन था की मेरे पति वाहवाह कर उठेंगे, कहेंगे, पत्नी हो तो ऐसी, जो मेरे आने वालों का इतना ख़याल रखती है।
    सोचसोच कर फूली नहीं समा रही थी की दोस्तों के जाते ही वह गरजे, "ये क्या हो गया है तुम्हें? क्या जरूरत थी इतना महँगा नाश्ता कराने की? बड़ी हंसहंस कर बतिया रही थें, ठीक है दुआसलाम हुई, यह क्या की उन्हीं पर चिपक गई।"
   लीजिए, सुना आप ने? मेरे किए कराए पर पानी फिर गया। छि:, बेकार हाथ भी दुखाए गुलाबजामुन बनाने में। कितने कठोर हैं यह। गुस्सा भी आ रहा था, मगर सोचा, अभी कुछ फार्मूले बाकी हैं। मुझे ऐसे हालात देख कर लग रहा था मंजीर दूर छूटती जा रही है। फिर भी मंजिल पाने की लालसा ने मुझे प्रोत्साहित किया। मैं फिर बड़ी।
   यानी वक्त आ गया "हाँ" में "हाँ" करने का। तू कहे दिन में तारे हैं तो बिलकुल सही, तो कहे रात में सूरज उग आया है तो भी सही। पर हफ्ते गुजर गए, उन्होंने ऐसा वैसा नहीं कहा। शायद आप के पति ने जरूर कहा होगा, आप के पति शायद इतने जालिम नहीं है, पर यहाँ तो नैया डूब रही थी।
   न जाने क्यों, न परिस्थति साथ दे रही थी, न फार्मूले, न ये जालिम पति। कैसे और किस काम से पति खुश होंगे, सोचसोच कर दिमाग की नसें तन गई थीं।
   खैर, अगला फार्मूला एक नजर में पढ़ा और पति के दफ्तर से आते ही उन की बाहों में बाहें डालते उन की आँखों का जाम पीने जा रही थी की उन्होंने हाथ छुडा कर झल्लाते हुए कहा, "आजकल तुम्हारा दिमाग घूम गया है। न जाने कैसी कैसी हरकतें करती हो? आज जा कर अपना दिमाग एक्सरे करा आओ।" आप अच्छी तरह मेरी स्थति समझ सकते हैं। मुझे गश आ गया और सचमुच डाक्टर आ गया, पर  मुझे कुछ हुआ होता तब न। इलाज किस चीज का होता?
   मैं ने टूटे दिल से थके लफ्जों में खुद से कहा, 'आखिरी बार कोशिश कर लो, शायद सफलता आप के कदम चूमे! उन का यानी उन्हीं का जन्म दिन आ गया और मैं झटपट एक कमीज और पैंट का कपड़ा खरीद लाई। शाम को उन के आते ही शुभकामनाओं सहित उन्हें भेंट दी। वह तपाक से बोले, "खर्च करना कोई तुम से सीखे।" भेंट खोली गई। मैं ने सोचा, अब तो जरूर खुश होंगे। पर सुनने को मिला, "यह क्या चटक रंग उठा लाई? क्या मैं यह पहनूंगा? दे देना अपने भाई को, उस पर अच्छा लगेगा।"
   बस, मेरा टूटा दिल जोर से गा उठा, "दिल के टुकडे टुकडे कर के जनाब चल दिए।"
   सभी प्रयत्न कर चुकी हूँ। एक वह हैं, एकदम उसी पटरी पर चल रहे हैं, जहाँ चलते थे।
   अगर कोई और फार्मूला आप के पास हो तो जरूर खबर करें, जिस से मेरे टेढ़े पति सीधे हो जाएं। मेरा सर कढाई और पाँचों उंगलिया घी में हों।
    

18 मार्च 2012

बदलते माहौल से मिलते नए विचार

हार्पिक, जो एक टांयलेट क्लीनर है, को प्राइमरी पैकेजिंग के हिसाब से श्रेष्ट माना जाता है। इसके बनावट कुछ इस तरह की है की व्यक्ति इसकी बाँटल सीधी पकड़कर क्लीनीनिंग लिक्विड को ऊपर की और उड़ेल सकता है, लेकिन दुनिया में हार्पिक जैसी कुछ ही डिजाइन हैं। कारपोरेट जगत में अमूमन यह मानना जाता है की जैसे-जैसे कंपनी का आकार बड़ा होता जाता है, वह डिजाइन के बारे में सोचना उतना ही कम कर देती है और यही कारण है की बड़ी कम्पनियां डिजाइन के मामले में ज्यादा प्रयोगधर्मी नहीं होतीं।
  स्ट्रेटेजिक मैनेजमेंट के प्रोफ़ेसर और 'द डिजाइन आँफ बिजनेस' किताब के लेखक रोजर मार्टिन का कहना है की आगे चलकर वैश्विक प्रतिस्पर्धा में वही बढ़त की स्थिति में होगा, जो डिजाइन के बारे में ज्यादा सोचेगा। बकौल मार्टिन, 'कारोबार में सबूत का मतलब होता है अतीत के विश्लेक्षण से जुटाए गए सटीक आंकड़े। किसी नए विचार के लिए कोइ पिचले आंकड़े नहीं होते। प्रतीकात्मक तौर पर नए विचार हमारे आस-पास के माहौल में हो रहे बदलाव के संकेतों के जरिये आते हैं, जिनकी मात्रा निर्धारित नहीं की जा सकती।'
  कैलीफिर्निया में मैक्डोनल्ड ब्रदर्स ने जब पहले-पहल ड्राइव-इन रेस्टोरेंट शुरू करने के बारे में सोचा, तो वे इस बार को लेकर उलझन में थे की युद्ध के बाद, बेबी बूम कल्चर के दौर में अमेरिकी उनके उत्पाद लेना पसंद करेंगे या नहीं। उन्हें इसके बारे में कुछ भी पता नहीं था। कुछ बुनियादी जांच-परख की तकनीकों को अपनाने के बाद उन्हें लगा की ड्राइव-इन रेस्टोरेंट के बजाय ऐसा रेस्टोरेंट खोलना सही रहेगा,जो ग्राहकों को त्वरित सेवा दे, जिसके मेन्यु में सीमित आइटम हों और एक सर्विस विंडो हो।मैनेजमेंट में इसे सीखने की 'स्वतः शोध तकनीक' कहा जाता है। इसका मतलब है की किसी के सम्बन्ध में खुद ही सीखना या सीखने की ऐसी तकनीक अपनाना जो प्रशिक्षुओं  को अपने बलबूते समाधान तलाशने के लिए प्रेरित करे। मैक्डोनल्ड ब्रदर्स ने अमेरिकियों से सीखा की वे क्या खाना चाहते हैं, इसे किस तरह से पाना चाहते हैं और किस मात्रा या साइज में खाना चाहते हैं। बाद में मैक्डोनल्ड ने बर्गर का एक स्टैण्डर्ड साइज तय कर दिया। इस तरह एक डिजाइन तैयार हो गयी। उन्होंने बेकार के ताम-झाम को हटा दिया और फास्ट-फ़ूड रेस्टोरेंट के हर भाग का मानकीकरण कर दिया। यही कारण है कि आज मैक्डोनल्ड कैलीफोर्निया के कुछ रेस्टोरेंट्स से बढ़कर दुनिया की सबसे बड़ी फास्ट फ़ूड चेन में तब्दील हो गया।
 

17 मार्च 2012

जेल भी बन सकती है कमाई का जरिया

आखिर हमें किराए पर क्या-क्या मिल सकता है? पुराने दिनों में हमें माकन, साइकिल या अन्य वाहन किरय पर मिल सकते थे। इसके बाद कपडे, शादी के परिधान, हवाई जहाज (क्रू सेवाओं समेत या बगैर क्रू) और यहाँ तक की भूर्ण को गर्भ में रखने के लिए कोख भी करिये पर उपलब्ध होने लगी। अब एक देश द्वारा अन्य देशों को जेल भी किराए पर देने की नई अवधारणा सामने आई है।
  हालाकि, अपने यहाँ अतिरिक्त पड़े किसी सामान को किराए पर देकर आय कमाना कदाचित ही श्रेष्ठ अवधारणा मानी जाए, लेकिन नीदरलैंड्स ने किराए जैसे शब्द को पुनर्परिभाषित करने की दिशा में एक बड़ा कदम उठाया है। इसके आधिकारिक तौर पर बेल्जियम जैसे देश को अपनी कौल्कोथारिया किराए पर देने का फैसला किया है, जो अपने यहाँ अपराधियों को कैद में रखें के लिए जगह की कमी से जूझ रहा है। अपने यहाँ बड़ी मात्रा में अतिरिक्त कालकोठरियों को देखते हुए नीदरलैंड्स ने दक्षिणी इलाके में स्थित डच सिटी आँफ टिलबर्ग की जेल में 500 बेल्जियम कैदियों को रखने पर सहमती जताई है। इसके बदले में बेल्जियम उसे तीन साल के अनुबंध के तहत सालाना 30 मिलियम यूरो की राशि देगा।
  हम इससे क्या सीख ले सकते हैं? यदि हम कुछ सीखें नहीं, तो भी कम से कम इस विचार को कांपी कर ही सकते हैं। देश में ऐसे सैकड़ों गाँव और छोटे कसबे हैं जहाँ बड़ी मात्रा में खाली जमीन है। बिल्डर लंबी सिर्फ बड़े-बड़े आकार की कालोनियां बनाती है। आखिर अंतरराष्ट्रीय स्टार के जेल बनाकर इन्हें मुंबई, दिल्ली, चेन्नई और कोलकाता की जेल अथांरिटीज को किराए पर क्यों नहीं दिया जा सकता? देखा जाए तो सम्बंधित राज्य सरकारें अपने यहाँ अंदरूनी इलाकों में इस तरह के बड़ी जेलें बना सकती हैं और विभिन्न केन्द्रीय कारागारों की और से कब्जे में राखी गयी जमीनों को इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास के लिए मुक्त किया जा सकता है। इसके लिए गाँवों में व्यापक भूमि आधार चाहिए, जो हमारे देश में कोई समस्या नहीं है। एक सुदृढ़ दीर्घकालीन बिजनेस प्लान और राजनीतिक इच्छाशक्ति के जरिये ऐसा हो सकता है। फिलहाल जेल की कम से कम नब्बे प्रतिशत जगह ऐसे लोगों से भरी रहती है, जिनके बारे में तमाम कोर्ट फैसला सुना चुके हैं और जो सिर्फ अपनी सजा काट रहे हैं। सिर्फ दस प्रतिशत विचारधीन कैदियों की सुनवाई बड़े शहरों की अदालतों में होती है। यदि इन नब्बे प्रतिशत कैदियों को कोर्ट के आदेश के बाद स्थानांतरित कर दिया जाए तो इन भीडभाड भरे शहरों में काफी जगह निकल सकती है और इससे ग्रामें जनता के लिए भी बड़ी मात्रा में रोजगार के अवसर पैदा होंगे।

15 मार्च 2012

ग्राहक की भावनाओं का करें सम्मान

आपको फिल्म 'सारांश' में अनुपम खेर का मर्मस्पर्शी अभिनय याद ही होगा, जिसमें उन्होंने युवा बेटे के असामयिक निधन से टूट चुके पिता की भूमिका निभाई थी। फिल्म में अनुपम का किरदार मुख्यमंत्री के सामने दुखी होते हुए कहता है की वह कोई वीडियो या रेफ्रिजरेटर नहीं मांग रहा है, बल्कि अपने मृत बेटे की अस्थियाँ पाना चाहता है।
   मध्यप्रदेश के उज्जैन जिले में रहने वाले सेवानिवृत्त बैंक कर्मचारी एम.एस. श्रीवास्तव का भी कुछ ऐसा ही हाल है। वह अपने बच्चों के सोनी इरिक्सन मोबाइल T -100 की बैटरी बदलवाना चाहते थे, जिसे सात साल पहले खरीदा गया था। उनके लिए यह उपकरण अपने प्रिय बच्चों की आख़िरी निशानी है, जिनकी एक दुखद दुर्घटना में अकाल मौत हो गयी। एम.एस. श्रीवास्तव की दो बेटियाँ और एक बेटा था। जून 2003 में उनकी बेटी ने अपने भाई के लिए एक सोनी मोबाइल हैंडसेट खरीदा। श्रीवास्तव की बड़ी बेटी, जो शादी के बाद सूरत में सैटल हो चुकी थी, ने जुलाई 2004 में उन्हें अपने घर बुलाया। श्रीवास्तव के भाई का लड़का भी उनके साथ वहां गया।
  श्रीवास्तव के दामाद के साथ चारों बच्चे सूरत के निकट सुवाई बीच पर पिकनिक मनाने के लिए गए। सुर्भाग्य से नियती को कुछ और ही मंजूर था। श्रीवास्तव खानदान के चारों बच्चों की डूबने से मौत हो गई, जबकि उनके दामाद को हेलीकाप्टर की मदद से बचा लिया गया। बच्चों की मौत से पूरी तरह टूट चुके श्रीवास्तव इस मोबाइल के साथ घर लौटे, जो बच्चों और उनके माता-पिता के बीच साझा कड़ी था। जब यह फोन बजता, श्रीवास्तव को यूं महसूस होता मानों उनके बच्चे उन्हें पुकार कर रहे हैं।
   श्रीवास्तव ने मोबाइल का इस्तेमाल करना शुरू कर दिया। हालांकि पिछले कुछ महीनों से इसकी बैटरी दागा देने लगी थी। उन्होंने बाजार में जगह-जगह इसकी नई बैटरी तलाशी। कंपनी का यह मोबाइल सेट चलन से बाहर हो चुका था, लिहाजा कहीं भी इसकी बैटरी उपलब्ध नहीं थी।
  लेकिन श्रीवास्तव भावनात्मक कारणों की वजह से इसे खुद से अलग नहीं करना चाहते थे। उन्होंने कंपनी के सर्वित सेंटर से कई बार संपर्क किया, इसके बावजूद उन्हें बैटरी नहीं मिल सकी। आखिरकार उन्होंने फर्म के अध्यक्ष बर्ट नोर्डबर्ग को अमेरिका में एक इमेल भेजा। इस इमेल में उन्होंने अपने मरहूम बच्चों के साथ अपने 'पाक रिश्ते' का मर्मस्पर्शी अंदाज में जिक्र किया था। ईमेल भेजने के कुछ ही दिन बाद इस कंपनी को भारतीय इकाई के मुखिया और कस्टमर रिलेशन डिपार्टमेंट द्वारा उन्हें सूचित किया गया की बैटरी की वैश्विक स्तर पर खोज की जा रही है और वे जल्द ही इसकी उपलब्धता के बारे में उन्हें जानकारी देंगें। एक हफ्ते बाद उन्हें बताया गया की सिंगापुर में इसकी बैटरी मिल गई है और इसे दिल्ली लाया जा रहा है।
  दो दिन बाद उन्हें सूचित किया गया की बैटरी दिल्ली पहुँच चुकी है और अगले तीन दिनों में इसे उज्जैन में उनके पते पर कोरियर कर दिया गया। ईमेल भेजने से लेकर रिल्प्लेस्मेंट बैटरी के उन तक पहुँचने तक यह पूरा मामला 22 दिनों में निपट गया। हालांकि उन्हें अपने इस अथक प्रयास के लिए एक भी पैसा नहीं चुकाना पडा।

13 मार्च 2012

पारदर्शिता बहुत जरूरी

हमारा सामाजिक जीवन जो आरम्भ होता है, जन्म लेते हैं हम, समाज में रहते हैं। कुछ सिखाया जाता है समाज में कैसे रहना, पारदर्शिता बहुत जरूरी है। आपका व्यक्तित्व ऐसा हो, जैसे लाइब्रेरी की टेबल पर पडा हुआ अखबार। कोई भी पढ़ ले कोई शक की गुंजाइश न रहे। महाभारत में जितने भी पात्र आए, उनके जीवन की पारदर्शिता खंडित हो चुकी थी। पिता पुत्र से रहस्य बनाया हुआ था। माँ-बाप बच्चों को जानकारी नहीं दे रहे थे। भाई, भाई से छुपा रहा था। मित्र, मित्र से षड़यंत्र कर रहा था। पारदर्शिता नहीं थी तो कितनी बड़ी कीमत चुकाना पडी। भागवत में भी चर्चा आती है की दुर्योधन, दुर्योधन क्यों बन गया। इसलिय बन गया क्योंकि जब पैदा हुआ तो उसके मन में जितने प्रश्न थे उसके उत्तर उनको दिए ही नहीं गए। जब उसने होश सम्भाला तो सबसे पहले उसने ये पूछा की मेरी माँ इस तरह से अंधी क्यों है? कोई समझ में आता है की प्रकृति ने किसी को अंधा कर दिया पर इसकी आँखों पर पट्टी क्यों बांधी। मुझको जवाब चाहिए और उसको राजमहल में कोई जवाब नहीं देता था, क्योंकि सब जानते थे की गांधारी ने अपने श्वसुर भीष्म के कारण पट्टी बांधी थी। क्योंकि भीष्म को चिंता थी की राजगद्दी कौन संभालेगा और ध्रतराष्ट्र अंधा था तो उन्होंने आदेश दिया था गांधारी के पिता को की आपकी पुत्री से मेरे इस पुत्र का विवाह करना होगा। विवाह दबाव में कराया गया और दबाव में दाम्पत्य आरम्भ होता हो तो फिर, जब गांधारी आई और पता लगा की भीष्म की आज्ञा से यह हुआ। गांधारी उस समय की सबसे योग्य युवती थी। भीष्म ने सोचा, योग्य युवती अंधे के साथ बांधेंगे तो गृहस्थी, राज, सिंहासन अच्छा चलेगा। जैसे ही गांधारी को पता लगा की मेरा पति अंधा है, तो उसने संकल्प लिया की वह आजीवन स्वैच्छिक अन्धत्त्व स्वीकार करेगी, उसने आँख पर पट्टी बाँध ली। अब आप बताइये, जिस घर में पिता पहले से अंधा हो और माँ आए और वो भी अंधी हो जाए तो फिर उस घर में कौरवों का जन्म होता है, जहाँ माँ-बाप दोनों पट्टी बाँध लें मोहांध की बच्चों के लालन-पालन के प्रति तो उस घर में कौरव पैदा हो जाएंगे। होना तो यह था की इनके पास नेत्र नहीं हैं तो मैं देखती रहूँ। ये प्रश्न हमेशा दुर्योधन के मन में खडा होता था की मेरी माँ ने ये मूर्खता क्यों की। चुनौती देनी थी तो खुलकर देते और गांधारी की चुनौती दुर्योधन में उतर गयी और दुर्योधन ने बगावत कर दी भीष्म के खिलाफ।

12 मार्च 2012

कौन?

कौन नशीले नैनों को
मधुशाला कहता होगा,
कौन छलकते होठों को
हालाप्याला कहता होगा?

कौन गुलाबी गालों को
गुंचा गुलाब कहता होगा,
कौन तुम्हारे मुखड़े को
जन्नत का ख्वाब कहता होगा?

किस को स्याह घटाओं में
एक आफताब दीखता होगा,
ए माहताब! हो कर बेताब
फिर लाजवाब कहता होगा।

                                       - सुनीति रावत       

निष्काम कर्मयोग को जानें

निष्काम कर्मयोग क्या है? कौन से काम करने लायक हैं और कौन से करने लायक नहीं हैं? जिन लोगों ने उचित काम किए, उनको क्या परिणाम मिला और जो अनुचित मार्ग से गए उनको क्या परिणाम मिला।
  तीसरी बात इसमें जीवन का व्यवहार है जो बहुत आवश्यक है। आज जिन प्रसंगों में हम प्रवेश कर रहे हैं, इनमें  जीवन के व्यवहार के अनेक पक्ष आएँगे। हम जिस तरह का जीवन जीते हैं, इसमें चार तरह के व्यवहार होना हैं। हमारा पहला जीवन होता है सामाजिक, दूसरा व्यावसायिक व्यावहारिक जीवन कह लें प्रोफेशन, तीसरी बात हमारा पारिवारिक जीवन और चौथी हमारा निजी जीवन। हमारा सामाजिक जीवन जो होता है वह पारदर्शिता पर टिका है। व्यावसायिक जीवन परिश्रम पर टिका है। पारिवारिक जीवन प्रेम पर टिका है और निजी जीवन पवित्रता पर टिका है। ये चार बातें ध्यान रखियेगा। हमारे जीवन के ये चार हिस्से भागवत के प्रसंगों में बार-बार झलकते मिलेंगे। परिवार में, समाज में, निजी जीवन में, व्यवसाय में कैसे रहें, अनेक प्रसंग इसमें आने वाले हैं। पहली बात हमारा महत्वपूर्ण जीवन जो भागवत के प्रसंग से अब हम जानने का प्रयास करेंगे। हमारे व्यावसायिक जीवन में परिश्रम हो, लेकिन परिश्रम के अर्थ समझिएगा। परिश्रम नशा न बन जाए। परिश्रम बीमारी न बन जाए कितना परिश्रम करते हैं लोग आज? पर परिश्रम होना चाहिये तन का और विश्राम मिलना चाहिये मन को। होता उलटा है। जितना परिश्रम हम तन से करते हैं, उससे तिगुना परिश्रम मन करने लगता है। इससे आदमी या तो थक जाता है, चिडचिडा हो जाता है, बैचेन हो जाता है, बीमार हो जाता है। परिश्रम का अर्थ समझिये। आज के परिश्रम ने इतना दौड़ा दिया है आदमी को बाहर से और भीतर से की उसकी जितनी भी प्रतिभा थी वह सब प्रचंडता में बदल गई। उसकी योग्यता थी वह छीना-झपटी में बदल गई और आदमी आक्रामक हो गया, जिसको निवेदक होना था। विनम्रता ढूंढें नहीं मिलाती। तो इस परिश्रम को समझिये। देह खूब परिश्रम करे, देह के तीव्रता होनी चाहिये। लेकिन मन उसी क्षण बहुत विश्राम में रहे तब आप इस परिश्रम का आनंद उठा पायेंगे। इसी परिश्रम को पूजा कहा गया है।

                                                                                                    - पं. विजय शंकर मेहता 

11 मार्च 2012

जीवन के लिए जरूरी पवित्र स्वभाव

मित्र के बीच का अपनापन कहाँ चला गया, काका-भतीजे के एक साथ नहीं बैठे, मित्र-मित्र एक-दूसरे पर संदेह करते हैं और सबसे बड़ी बात तो यह है की पति-पत्नी के बीच का प्रेम अनुराग समाप्त हो गया। ये परिवार ठीक नहीं हैं। ये सब करने के लिए प्रयास करना पड रहा है। जो स्वयं होना चाहिए आदमी को प्रयास करना पड रहा है की मैं उससे प्रेम करूं, मैंने उससे विवाह किया है तो मेरे जीवनसाथी के प्रति स्नेह प्रदर्शित करूं। वह तो स्वभाव का विषय है और आदमी के व्यवहार में उतर गया। बार-बार भागवत चेतावनी दे रहा है। मैं आपको फिर आगाह कर रहा हूँ, भागवत स्वभाव का विषय है। इसे केवल व्यवहार से न सुन लीजिये। जब आप बैठे, भागवत सुनें तो अपने भीतर स्थापित करीए और स्वयं भी स्थापित होइए।
  अंतिम बात, आपका निजी जीवन पवित्रता पर टिकेगा। हर एक का निजी जीवन होता है। कितने ही सार्वजनिक, कितने सामाजिक और पारिवारिक हो जाएं, पर आपका जो निजीपन है, निजी जीवन है, आप ही जानते हैं और निजी जीवन में पवित्रता बनाए रखियेगा। पवित्रता परमात्मा की पहली पसंद है। परमात्मा हमारे जीवन में तभी उतरेंगे जब हमारा निजी जीवन पवित्र होगा और बड़े अफसोस की बात है की आज बड़े-बड़े लोगों का एकांत दुर्गन्ध मार रहा है, हम लोग समाज में रहते हैं, बहुत सुशील, सभी आचरणशील और बहुत ही भद्र नजर आते हैं। पर अपने कलेजे पर हाथ रख कर देखिये। जैसे ही हम एकांत में होते हैं, अपने चिंतन में, अपने आचरण में पशु से भी अधिक पतित हो जाते हैं।

                                                                                                 - पं. विजय शंकर मेहता

10 मार्च 2012

अंधों की सरकार बनी

चिड़िया की जाँ लेने में इक दाना लगता है
पालन कर के देखो एक जमाना लगता है ॥1॥

अंधों की सरकार बनी तो उनका राजा भी
आँखों वाला होकर सबको काना लगता है ॥2॥

जय-जय के नारों ने अब तक कर्म किये ऐसे
हर जयकारा अब ईश्वर पर ताना लगता है ॥3॥

कुछ भी पूछो, इक सा बतलाते सब नाम-पता
तेरा कूचा मुझको पागलखाना लगता है ॥4॥

दूर बजें जो ढोल सभी को लगते हैं अच्छे
गाँवों का रोना, दिल्ली को गाना लगता है ॥5॥

कल तक झोपड़ियों के दीप बुझाने का मुजरिम
सत्ता पाने पर, अब वो परवाना लगता है ॥6॥

टूटेंगें विश्वास, कली से मत पूछो कैसा
यौवन देवों को देकर मुरझाना लगता है ॥7॥

जाँच समितियों से करवाकर कुछ ना पाओगे
उसके घर में शाम-सबेरे थाना लगता है ॥8॥

जय हिन्द !!
                                           - धर्मेन्द्र कुमार सिंह ’सज्जन’


08 मार्च 2012

सफ़ेद पोशाक

आज भी मुझे वह दिन अच्छी तरह से याद है जब हम पहली बार सेक्टर 31 के बस स्टाप पर मिले थे।
"क्या आप बताएंगी की कौन सी बस सैक्टर 17 जाएगी?"
"10 नंबर."
चूंकि मुझे भी उसी बस में जाना था, इसलिए मैं भी उसी बस में चढ़ कर आगे निकल गई। न चाहते हुए भी मैं ने पीछे मुड कर देखा तो वह पीछे आ रहा था। सैक्टर 17 पहुँचाने तक बस काफी खाली हो चुकी थी और वह मेरी आगे वाली सीट पर आ कर बैठ गया था। सैक्टर 17 आने पर भी वह नीचे नहीं उतारा था। शायद उसे पता हे न था की सैक्टर 17 यही है। मेडिकल इंस्टीट्यूट आने पर मैं बस से उतरी। बस भी वहीं ख़त्म होती थी। अब वह कुछ परेशान सा दिख रहा था। बहरहाल, मैं अस्पताल के अन्दर चली गई।
    दूसरी सुबह मैं ने उसे फिर उसी स्टाप पर खडा पाया। मेरे नजदीक आते उस ने शिकायत सी की, "कल तो आप ने सैक्टर 17 आने पर बताया ही नहीं।"
    मैं ने भी करारा सा जवाब देते हुए कहा, "जनाब, आप ने बस नंबर पूछा था, यह नहीं पूछा था की सैक्टर 17 कहाँ है? उस ने महसूस किया की उस की शिकायत उचित नहीं थी। वह मुसकराने लगा।
    फिर उस ने बताया की वह फ़्लाइंग अफसर है, उस का कलकत्ता से चंडीगढ़ तबादला हुआ है। उस ने अपना नाम भी बताया, आशुतोष। मैं ने भी औपचारिकता निभाई और अपना परिचय दिया की मैं मेडिकल इंस्टीट्यूट में एम.एस. कर रही हूँ, यहाँ वायु सेना की बस्ती में अपने चाचा के पास रहती हूँ।
   कुल मिलाकर आशुतोष काफी अच्छा लगा था मुझे। आकर्षक व्यक्तित्व, सांवला रंग और बंगालियों के नैननक्श तो  वैसे भी जादू सा कर देते हैं। इस के अलावा वायु सेना के लोग मुझे हमेशा ही अच्छे लगे थे। झट जहाज से जहां से वहां। कितना अच्छा लगता होगा हवा से बातें करना, आकाश को छु सा लेना। बस आ गई और हम दोनों इकट्ठे ही बस में चढ़े और इकट्ठे बैठे भी।
   बातों ही बातों में उस ने बताया की वह चंडीगढ़ का दौरा करना चाहता है। कलकत्ता के भीडभरे शहर से चंडीगढ़ कहीं ज्यादा साफसुथरा और शांत शहर है। यहाँ के लोग भी उसे सभी और अच्छे लगे थे। यह भी बताया की वह 6-02 पर हफ्ते में तीन बार दिल्ली उड़ान पर जाता है। बाकी दिन वैसे ही अभ्यास करता है या फिर हवाई अड्डे पर काम करता है। इसी बीच सैक्टर 17 आ गया। मैं ने कहा "लो आ गया तुम्हारा सेक्टर 17। फिर न कहना बताया नहीं।"
"फिर मिलेंगे" यह कह कर वह नीचे उतर गया। सारे रास्ते मैं उस के बारे में सोचती रही। वह कितना अच्छा और चुस्त था तथा डीलडौल में लंबातगड़ा। जल्दी ही हम ने एकदूसरे का परिचय प्राप्त कर लिया था। उस की गहरी काली आँखें, उस का हंसने का मोहक अंदाज। सब कुछ अच्छा लगा था।
  उस के बाद हमारा मिलना आम बात हो गयी। या तो मुझे बस स्टाप पर मिल जाता या शाम को वायु सेना की बस्ती के बाजार में टहलता हुआ।
  एक दिन मैं ने उसे मेडिकल इंस्टीट्यूट आने का निमंत्रण दिया। करीब दो बजे वह आया। हम ने इकट्ठे कैंटीन में चाय पी। उस दिन आशु ने बताया की वह कलकत्ता में ही पढ़ा था। फिर एन.डी.ए. में चुन लिया गया। उस के पिता की मृत्यु हो चुकी थी। उस की मां उस के दादाजी के पास कलकत्ता में ही रह रही थी।
  "कनु, चलो कल 'कोमा' फिल्म देखें। वैसे भी यह तुम्हारे विषय के अनुरूप है।
फिर देखें कैसे तुम लोग मरीजों को 'कोमा' में रख कर उन के अंगों की तस्करी करते हो?"
  "आशु, मेरे व्यवसाय के खिलाफ ऐसी बात न करना। डाक्टर का पेशा ही सब से अधिक विश्वसनीय होता है।"
  "ठीक है। पर कल का कार्यक्रम पक्का रहा।"
  अगले दिन हम ने फिल्म देखी। फिर बाहर ही खाना खाया। अब मुझे लगने लगा था की न सिर्फ मैं ही उस के तरफ आकर्षित हूँ, बलिक आग दोनों तरफ बराबर लगी हुई थी, रोज सुबह किसी न किसी बहाने बस स्टाप पर पहुंचना इस बात का प्रमाण था। एक दिन मैं ऐसे ही बस स्टाप पर आई तो एक मोटर साइकिल आ कर रूकी।
  "हैलो, कनु।"
  "अरे आशु, तुम। यह मोटरसाइकिल किस की है?"
  "अपन की, भई। मैं ने नई खरीदी है। मैं ने सोचा, रोजरोज अब हम से डाक्टर साहर के साथ बसों में धक्के नहीं खाए जाते। हम तो पहले ही घायल हैं। और अधिक घाया हो गए तो एंबुलेंस मंगवानी पड़ेगी। पडल भी नहीं चल पाएंगे।" उस की ऐसी बातें बहुत दिलचस्प होती थी। उस दिन हम मोटरसाइकिल पर खूब घूमें।
  "आशु, तुम मोटरसाइकिल बहुत धीरे चलाते हो।" मैं ने कहा।
  "अरे भी, आकाश में बहुत रोमांच है, इसलिए सड़क पर सावधान रहना चाहता हूँ। खासकर जब तुम मेरे साथ हो।"
  उस दिन हम ने मेडिकल इंस्टीट्यूट की कैंटीन में ही दोपहर का खाना खाया। इधरउधर कैंटीन में डाक्टरों को घूमते देख, आशु ने पूछा, "कनु, यह तेरे डाक्टर तो आजकर मुझ से खूब जलाते होंगे। इन में तेरा कोइ ख़ास प्रेमी तो नहीं है?"
  "मुझे तो इन डाक्टरों का सवभाव ही अच्छा नहीं लगता। पहले तो दोस्ती कर लेते हैं। फिर जब चाहे तोड़ देते हैं। जहां दाल न गले, वहां बहनभाई बन जाते हैं। जो सम्बन्ध होना चाहिय, वही बताना चाहिये। इसीलिए, ऐसे लोगों के साथ मैं होस्टल में न रह कर चाचा के पास रहती हूँ।"
  "डाक्टर साहब, तभी तो हम आप के दीवाने हैं।"
  "ओह, आशु। मुझे डाक्टर साहब कह कर मत बुलाया करो। मुझे अच्छा नहीं लगता।"
  "अच्छा भी," और अक्सर ऐसे मौकोंपर वह अपना फौजियों वाला सैल्यूट मार देता।
  "कनु, कल हमारे नए विंग कमांडर आने की खुशी में बहुत बड़ी पार्टी हो रही है, क्या आ सकोगी मेरे साथ?
   "चचा भी तो रात की ड्यूटी लगवा देते हैं। फिर चाची आएंगी ही नहीं। और तुम जगदीश की लडकी के साथ आने का बहाना कर लेना।"
  "हाँ, ऐसा ठीक रहेगा।"
  अगले दिन सुबह ही मैं ने अपना सफ़ेद सूट प्रेस किया। फेशियल किया, थ्रेडिंग की। नेल पालिश लगाई। एक सफ़ेद फूल की तलाश में मैं इस घर से उस घर, एक गली से दूसरी गली तक भटकती रही, पर अंत में सफल हो गयी। शाम को तैयार होते मुझे ऐसा लग रहा था, जैसे मैं आज आशु के लिए ही तैयार हो रही हूँ। बारबार इधरउधर जाते आइना देखती।
  निश्चित समय पर मैं वहां पहुँच गयी। आशु पहले से ही बाजार में खडा मेरा इंतज़ार कर रहा था।
  "कनु, जल्दी उठो, इतनी देर लगा दी। तुम्हे पता है मुझे वहां ठीक समय पर पहुंचना है। और तुम लडकियां बेकार में इतना वक्त खराब कर देती हो।"
  मुझे इतना गुस्सा आया। मैं ने सारी छुट्टी बननेसंवरने में लगा दी। और यह इतना खुदगर्ज है की इस से दो बोल तारीफ़ के भी नहीं कहे गए। जैसेतैसे गुस्सा पी गयी। आखिर हम मिस पहुँच गए।
  मिस का भी एक अपना ही माहौल होता है। हर तरफ खूबसूरत चुस्तदुरूस्त औरतें दिख रही थीं। कईयों के बाल कटे हुए थे। कईयों ने जुड़े बनाए हुए थे। सब फ़्लाइंग अफसर इधर से उधर मंडराते नजर आ रहे थे। मेरा हाथ पकड़ कर आशु मुझे अपने स्कवाडरन लीडर मानवेन सिंह की बीवी के पास ले जा कर बोला, "मालतीजी, मेरी दोस्त से मिलें। यह है कनु।"
  "हैलो, कैसी हो? तुम्हें बहुत अच्छा दोस्त मिला है। यह हमारे यहाँ का सब से बहादुर सैनिक है। आओ, मैं तुम्हारा परिचय कुछ और दोस्तों से करवाऊं।"
  वह मुझे ले कर जा रही थीं कि स्कवाडरन लीडर मानवें सिंह मिल गए।
  "अरे, मैडम, यह खूबसूरत लडकी कौन है?"
  "यह आशु की दोस्त है," मालती बोलीं।
  "बहुत खुशी हुई आप से मिल कर।"
  तभी विंग कमांडर और उन की बीवी आ गए। सब उधर व्यस्त हो गए। नाच का कार्यक्रम शुरू हो गया। मानवें सिंह मेरे पास आ कर बोला, "क्या मैं आप के साथ नाच कर सकता हूँ?" इस से पहले कि मैं कुछ कहती, वह मुझे लगभग खींचता हुआ नृत्य के क्षेत्र (डांस फ्लोर) पर ले गया। नाच के दौरान मुझ से कहने लगा, "तुम बहुत अच्छा नाच करती हो। मुझे आशु से ईर्ष्या हो रही है।"
  परन्तु इन सब बातों का मुझ पर कोई आर नहीं हो रहा था। मेरी आँखें तो इधरउधर आशु की खोज में भटक रही थीं। वैसे तो मैं मेडिकल कालिज की कई पार्टियों में शामिल हुई थी। वहां बड़ा अनौपचारिक माहौल होता था। परन्तु यहाँ के वातावरण में कुछ घुटन महसूस हो रही थी। हो सकता है कि यह शायद आशु की अनुपस्थिति के कारण हो या उस के रूखे रवैये के कारण।
  उसी वक्त मैं ने आशु को अपनी और आते देखा। शायद वह मुझे मानवें सिंह के साथ नाच करते सहन नहीं कर पा रहा था। वह मुझे खींच कर कोने में ले कर बोला, "कनु, तुम अपने आप को क्या समझती हो? तुन ने मानवें सिंह के साथ नाच करना स्वीकार क्यों किया? तुम्हें नहीं पता कि इन लड़कों पर विशवास नहीं किया जा सकता। इन से अपनी बीवियां तो संभालतीं नहीं, पर ये दूसरों की लड़कियों पर नजर रखते हैं। चलो, बाहर खाना खाएंगे यहाँ नहीं। वहीं चलते हैं जहां हम अकसर खाना खाते हैं।"
  मेरे आसुओं की धारा बहे जा रही थी। वह इधर ध्यान दिए बिना उस ने हेलमेट पहन ली। मोटरसाइकिल चालू कर के उस ने मुझे बैठने के लिए कहा। मैं पीछे बैठ गयी। आज पता चल रहा था कि वायु सेना वाले कितने कठोर होते हैं।
  रेस्तोरां पहुँचने पर मैं ने आसूं पोंछ लिए। आशु ने जल्दिजल्दी चीनी भोजन का आदेश दे दिया, जो कि मुझे बहुत पसंद था। फिर बोला, "कनु, नाराज हो?"
  अब तो जैसे सब का पैमाना छलक चुका था। मैं ने बहुत गुस्से में कहा, "आशु, मुझे पुराने विचारों वाले मर्द बहुत बुरे लगते हैं। मुझे तो खुले विचारों वाले मर्द बहुत पसंद है जो लोग इन चोतीचोती बातों से ग्रस्त नहीं होते। मुहे तुम से यह उम्मीद नहीं थी।"
  "मैं समझता हूँ, कनु। लेकिन पता नहीं क्यों आज जब तुम तैयार हो कर आईं और मुझ से मिलीं, तो इतनी अच्च्ची लग रही थीं कि मैं ने सोचा वहां ले कर न जाऊं। वे लोग कहीं तुम्हें मुझ से चीन न लें। मेरा मूड कहीं खराब न कर दें। मुझे तुम पर पूरा विशवास है। मगर मैं क्या करून, कनु? मैं तुम्हें प्रेम करता हूँ। मैं तुम्हें बहुत प्यार करता हूँ। मैं तुम से शादी करना चाहता हूँ। अब तो तुम्हारे बगैर कुछ भी अच्छा नहीं लगता। मैं नहीं चाहता कि कोई और तुम्हारे साथ नाच करे। बताओ, मुझ से शादी करोगी?" वह यह सब एक सांस में कह गया। मैं स्तंभित सी उसी की और देख रही थी। कुछ भी बोला नहीं जा रहा था, जुबान खुल ही नहीं रही थी। अजीब स्थिति थी।
  "ठीक है। सोच लो कुछ दिन। ऐसे फैसले जल्दी नहीं करने चाहिये। पर इस बात का ख़याल करना की मैं तुम्हें जितना प्यार करता हूँ उतना तुम्हें चाहता भी हूँ। तुम्हें तो बताया ही है कि मैं छोटा सा था तो पिता चल बसे। मेरी मान ने ही मुझे इस योग्य बनाया है। तुम नहीं जानतीं कि मेरी माँ तुम्हें पा कर कितनी खुश होंगी। अरे बोलो न। मानवेन सिंह के नृत्य की याद आ रही है क्या?"
  "आशु, मजाक न करो।"
  "ठीक है, नूडल्स खाओ फिर।"
  "अच्छा यह बताओ कि यह सफ़ेद सूट कभी पहले क्यों नहीं पहना? तुम इस में बहुत अच्छी लग रही हो, पता है, बंगाली में ऐसी स्थिति में क्या कहते हैं, 'एई पोशाके तोमाके सुन्दर लागछे,' समझ आए क्या? और यह नन्हा सा फूल तो तुम्हारी खूबसूरती में चार चाँद लगा रहा है। यह सफ़ेद रंग तो तुम पर खूब फबता है। वैसे तो डाक्टरों का सफ़ेद रंग के कोट वगैरह से काफी सम्बन्ध होता है, परन्तु यह सफ़ेद पोशाक तो तुम पर कहीं ज्यादा अच्छी लग रहीए है। तुम्हें पता है सफ़ेद रंग पवित्रता की निशानी है। मैं आज की माँ को लिखूंगा कि तुम्हारे लिए ढेरों सफ़ेद सूत व सफ़ेद फूल और बाडर वाली साड़ियाँ खरीद लें।"
  उस के बाद मैं ने आशु को चाचाजी, माँ और पिता से मिलवा दिया। मेरे मातापिता सोलन रहते थे। जल्दी ही आशु ने घर में अपना स्थान बला लिया। चाचा के साथ घंटो राजनीति पर बहस करता था। चाची के साथ रसोई में चाय बनवाता, सलाद काट देता। सब कुछ अच्छा लगाने लग गया था। अब तो चाचा की रात की ड्यूटी भी करवाने की जरूरत नहीं पड़ती थी। सब कुछ खुलेआम हो रहा था।
   अब मैं और आशु ख्यालों में ही घर के लिए तिनके इकट्ठे करने लग गए थे। ख्यालों में ही कभी कुछ खरीदते तो कभी कुछ बनवाते। आज मुझे सुबह सात बजे अस्पताल जाना था। मैं जल्दी ही बस स्टाप पर पौंच गयी। तभी आशु वहां आ कर बोला, "आज माँ 10 बजे की गाडी से आ रही हैं। मैं ने अभ्यास के लिए जाना है। तुम साढे नौ तैयार रहना। मैं मेडिकल इंस्टीट्यूट आ जाउंगा। फिर इकट्ठे ही स्टेशन चलेंगे। आज तो जनाब के लिए ढेरों सफ़ेद सूट और साड़ियाँ आ रही हैं। रोज घायल हुआ करेंगे। अच्छा, साढे नौ बजे मिलेंगे।"
  बस मैं यही सोचती रही कि कहीं आशु की माँ इनकार न कर दे। वह बंगाली और मैं पंजाबी। पता नहीं क्या होगा? मेरा दिल धकधक कर रहा था। पर फिर सोचा आशु के रहते हुए मुझे किस का दर।
  अस्पताल पहुँचने पर मैं ने वरिष्ठ सर्जन डा. सुखदेव के साथ वार्डों में मरीजों को देखने जाना था। डा. सुखदेव मरीजों में बहुत लोकप्रिय थे। हर मरीज से बात करना, उन्हें हंसना, उन का स्वभाव था। मुझे तो वह एक बेटी की तरह मानते थे। अभी वार्ड नं. तीन के पास पहुंचे ही थे कि डा. सुखदेव के लिए बुलावा आ गया कि एक विमान चालाक और उस के एक साहायक चालाक हवाई दुर्घटना में बहुत बुरी तरह घायल हुए हैं। मामला गंभीर है। डा. सुखदेव ने मुझे साथ चलने के लिए कहा। मेरे पैर अनायास किसी बही के कारण कांपने से लगे थे।
  कहीं यह आशु न हो। नहीं, नहीं, वह तो एक अच्छा विमानचालक है। धड़कते दिल से मैं आपरेशन थिएटर में पहुँची। यह क्या, आशु अचेत अवस्था में पडा था। साथ में सहायक विमान चालाक था। अन्य डाक्टर भी आ गए थे। आँखों के आगे अन्धेरा छाने लगा था। डाक्टर सुखदेव के संभालने पर मैं ने उन्हें आशु और अपने संबंधों के बारे में बताया।
  उन के घायल, उपचार, एंबुलेंस आदि शब्द मेरे कानों पर हथोड़े चला रहे थे। मैं असमंजंस में पड़ी नसों आदि को इकट्ठे कर रही थी। पागलों की तरह हरेक को आपरेशन थिएटर की चीजें तैयार करने को कहती।
  परन्तु डाक्टर सुख्दें ने मुझे बुला कर कहा, "देखो, कनु, मामला बहुत गंभीर है। केवल चमत्कार ही उसे बचा सकता है। तुम एक डाक्टर हो। इसीलिये मैं तुम्हें सच्चाई से अवगत करा रहा हूँ। मुझे बहुत दुःख होगा अगर मैं उसे बचा न सका। आशा रखो। अब तो दुआ ही काम करेगी।"
  वायु सेना के कुछ लोग पहुँच चुके थे। आशु की नब्ज धीरेधीरे चल रही थी। खून काफी बह चुका था। दिमाग पर काफी गहरी चोट थी। मैं परेशान थी। परन्तु मैं ने फैअला किया कि माँ को मैं स्टेशन पर अकेले ही लेने जाउंगी। आशु की माँ को पहचानना इतना मुश्किल काम नहीं लग रहा था।
  पौने दस बजे मैं स्टेशन पहुँच गई। आज हर वास्तु नीरस लग रही थी। इदह्र उधर हँसते हुए लोगों को देख कर अच्छा नहीं लग रहा था।तकदीर ने कितना पलता खाया था। कहाँ इकट्ठे आने वाले थे। और अब तो शायद कुछ भी इकठ्ठा न हो पाए। ठीक 10 बजे गाडी रूकी। मेरी आँखें आशु की माँ को तलाश करने लगीं। तभी मैं ने एक बंगाली औरत को देखा। वह भी मेरी तरफ हे देख रही थी।
  "आप आशु की माँ?"
  "और तुम कनु?"
  "जी।"
अरे, जैसा लिखा था वैसी ही हो। कितनी सुन्दर। आशु क्यों नहीं आया? वह तो शुरू से लापरवाह है। कही वक्त पर नहें पहुंचता। पता नहीं जहाज कैसे वक्त पर पहुंचा देता है।"
  "माँ, आप पहले मेरे अस्पताल चलिए।" मेरे डाक्टर होने के नाते किसी बात के शक की कोई गुंजाइश नहीं थी।
  सारे रास्ते में कुछ बोल न पा रही थी यह बताने का साहस नहीं जुटा पा रही थी कि आशु क्यों नहीं आया। वह तो मौत और जिन्दगी के बीच झूल रहा था। यूं तो मैं ने हजारों मरीजों को घायल अवस्था में देखा था। परन्तु आशा। ओह, नहीं, मैं ने आखिर क्या किया था? जो मुझे यह दिन देखना पड़ रहा है।
  टैक्सी मेडिकल इंस्टीट्यूट पहुँचने पर मैं माँ को अपने कमरे में ही ले गई। वहां चाय पिलाई, कितने धैर्य से बैठी थीं। और तभी वहीं अपना सूटकेस खोलने लग गई और बोली, "लो कनु, मैं तुम्हारे लिय काफी सफ़ेद सूट व साड़ियाँ लाई हूँ। मैं ने तो आशु को समझाया था कि कोई सफ़ेद कपडे पहनने के दिन थोड़े ही हैं। फिर मैं ने सोचा कि यह जिद्दी है, लाडला है। न ले कर गई तो कहीं नाराज न हो जाए। तुम्हें तो बताया ही होगा कि इस के पिता के बाद अब यही एक सहारा है। इसलिए इस की हर बात माँ लेती हूँ। है भी तो कितना प्यारा और कितनी प्यारी बहू ढूंढी है उस ने?"
  वह अपनी धुन में मस्त, साड़ियाँ, सूट निकाले जा रही थीं, और बोले जा रही थीं। मेरा आसूं का बाँध टूट चुका था। जब उन्होंने मेरी हिचकियाँ सुनीं तो बोलीं, "अरे कनु, बेटी क्या हुआ? इतना क्यों रो रही है? वह अभी आ जाएगा, वह तो ऐसे हे करता है। आने दो आज कान खीचून्गी उस के।" कितना आत्मविश्वास था माँ को।
  और तभी डाक्टर सुखदेव ने आ कर वहीं खबर सुनाई जिस से साफ़ जाहिर था कि अब मेरी दुनियां में कभी बहार न आएगी। बहार का मौसम होने पर भी पतझड़ नजर आ रहा था। हर तरफ अँधेरा ही अन्धेरा लग रहा था।
  और माँ। माँ का जितना बड़ा दिल था उस से कहीं बड़ा सदमा। फिर भी मुझे धीरज बांधते हुए बोलीं, "मत रोओ, कनु। मैं ने तो आशा को पहले ही कहा था कि ये सफ़ेद सूट, ये सफ़ेद साड़ियाँ, क्या मैं अपनी बहू को मुंहदिखाई में दूंगी? मैं ने तो बेटी तुम्हें बिन ब्याही विधवा बना दिया।" वह मुझ से लिपट कर रो रही थीं और मैं एक बच्चे की तरह उन के कंधे पर सिर रखे हुए थी।
  शायद अब, हम दोनों का दुःख एक हो गया था।
   
                                                                                                                                                                              -अनुजा भाम्बी

06 मार्च 2012

आएगें आज...

आएगें आज पिया।

यौवन को सजने दे
पैजनियाँ बजने दे
मेरे मन आँखों में
अंजन को लगने दे

नाचेगा रात हिया।

घायल है सारा तन
घायल है सारा मन
ख्यालों के जंगल में
खोयाखोया जीवन

सुधियों ने छेड दिया।

आग लगे बस्ती में
आग लगे हस्ती में
करना क्या चिंता है
डूबे हैं मस्ती में

मौसम ने लूट लिया।

                        - हेमंत नायक  
      
 

चाँद की ओट में

काश,
प्रभात के सिंदूरी सूर्य से
तुम्हारी मांग भर पाता।

समुद्र की नीली गहराई
तुम्हारे नयनों में भर पाता
और काले मेघों से तुम्हारे
नयन आंज पाता,
इन्द्रधनुष के रंगों से
तुम्हारी बिंदिया सजाता।

भरपूर प्रीत की मेहंदी से
हथेलियाँ,
ललाई कचनार सी, महावर
पांवों में सजा कर
चाँद की ओट में, प्यार भरा
एक चुम्बन, सिर्फ एक चुम्बन
तुम्हारे गालों का ले पाता।

                             - रामनिवास शर्मा      

आज मन कुछ गा रहा है।

सतरंगी मौसम में
किसी की प्रीति लिए,
नयनों में नीर भरे
दिल की आवाज लिए,
चेहरे पर भाव भरे
होंठों पर मुसकान लिए,
        प्रीति सागर हिलोरें ले रहा है
        आज मन कुछ गा रहा है।
भंवरी का मन विकल क्यों है
भंवरे से मिलने के लिए,
गगन क्यों झुक रहा है
धरा के चुंबन के लिए?
तार मन के बजते हैं
प्रिय की सांसों में बसने के लिए,
         कौन स्वप्नों में हलचल मचा रहा है,
         आज मन कुछ गा रहा है।
यहांवहां लक्ष्य की तलाश में
क्षणक्षण गुजरता दीर्घ श्वास में,
मन घूमता आस में, विश्वास में
चपला का कोलाहल लिए हुए,
बादलों की महफ़िल व्योम में,
मिलन आकांक्षा को मन में लिए,
         प्रतीक्षारत पलपल गुजार रहा है,
         आज मन कुछ गा रहा है।

                                        - नीता माहेश्वरी       

21 फ़रवरी 2012

नागचंद्रेश्वर मंदिर में सर्पशैय्या पर आसीन है शिव परिवार

उज्जैन।देश के बारह ज्योतिर्लिगोंमें प्रमुख प्रसिद्ध महाकालेश्वर मंदिर के शीर्ष पर स्थित नागचंद्रेश्वरमंदिर में देवाधिदेव भगवान शिव की एक ऐसी विलक्षण प्रतिमा है, जिसमें वह अपने पूरे परिवार के साथ सर्प सिंहासन पर आसीन है।
हिंदू मान्यताओं के अनुसार सर्प भगवान शिव का कंठाहारऔर भगवान विष्णु का आसन है लेकिन यह विश्व का संभवत:एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां भगवान शिव, माता पार्वती एवं उनके पुत्र गणेशजीको सर्प सिंहासन पर आसीन दर्शाया गया है। वर्ष में केवल एक दिन नागपंचमी पर इस मंदिर के पट 24घंटे के लिए खुलते है और इस दौरान दूरदराज से आने वाले श्रद्धालुओं की भारी भीड उमड पडती है। शनिवार को नागपंचमी का पर्व होने की वजह से शुक्रवार की मध्यरात्रि से ही इस मंदिर में भगवान शिव के दर्शनों के लिए भक्तों की कतार लगने का सिलसिला आरंभ हो जाएगा।

महाकाल भक्त मंडल के अध्यक्ष एवं महाकालेश्वर मंदिर के पुजारी पंडित रमण त्रिवेदी ने बताया कि पौराणिक मान्यता के अनुसार सर्पोके राजा तक्षक ने भगवान शंकर की यहां घनघोर तपस्या की थी। तपस्या से भगवान शिव प्रसन्न हुए और तक्षक को अमरत्व का वरदान दिया। ऐसा माना जाता है कि उसके बाद से तक्षक नाग यहां विराजितहै, जिस पर शिव और उनका परिवार आसीन है। एकादशमुखीनाग सिंहासन पर बैठे भगवान शिव के हाथ-पांव और गले में सर्प लिपटे हुए है।

इस अत्यंत प्राचीन मंदिर का परमार राजा भोज ने एक हजार और 1050ईस्वी के बीच पुनर्निर्माण कराया था। 1732में तत्कालीन ग्वालियर रियासत के राणाजीसिंधिया ने उज्जयिनीके धार्मिक वैभव को पुन:स्थापित करने के भागीरथी प्रयास के तहत महाकालेश्वर मंदिर का जीर्णाेद्धार कराया। प्रतिवर्ष श्रावण मास के कृष्ण पक्ष की पंचमी के दिन नागपंचमी का पर्व पडता है और इस दिन नाग की पूजा की जाती है।

इस दिन कालसर्पयोग की शांति के लिए यहां विशेष पूजा के आयोजन भी होते है। श्री महाकाल ज्योतिष अनुसंधान केंद्र के संचालक और ज्योतिषाचार्य पंडित कृपाशंकर व्यास ने बताया कि नागचन्द्रेश्वरमंदिर दुनिया में अपनी तरह का एक ही मंदिर है।उन्होने कहा कि यहां पूजा-पाठ का विशेष महत्व है।