सुधीर और शंभु एक ही गाँव के निवासी थे। सुधीर बढ़ई तो शंभु लोहार। दोनों अपने -अपने पेशों में माहिर थे। एक बार एक व्यापारी उस गाँव में आया, जो कांसे व तांबे के बरतनों का व्यापार करता था। शंभु के बनाये कांसे व तांबे के बरतनों का काम उसे बहुत अच्छा लगा। उसने तगड़ा वेतन देने का आश्वासन देकर उसे शहर बुलाया।
शंभु जाने को उतावला था, पर उसकी पत्नी ने एतराज जताया। उस समय उसका साला भी वहाँ मौजूद था। उसने शंभु को प्रोत्साहन देते हुए कहा, ‘‘ज़रूर जाना। अच्छा वेतन मिलेगा। अगर चार-पांच महीनों के बाद भी तुम्हारी कमाई में कोई बरकत नहीं हुई तो लौट आना।''
उसकी यह सलाह शंभु और उसकी पत्नी को अच्छी लगी। दूसरे ही दिन वह व्यापारी के साथ शहर गया। यह जो सब कुछ हुआ, उसकी पूरी जानकारी बगल की गली में रहनेवाली बढ़ई सुधीर की पत्नी भानुमति को मिली। उसका पक्का विश्वास था कि आसपास के गाँवों में उसके पति की बराबरी का बढ़ई कोई है नहीं। उस दिन से वह अपने पति से कहती रही, ‘‘हम भी शहर जायेंगे। खूब कमायेंगे और वहीं एक घर बनाकर आराम से ज़िन्दगी बितायेंगे।''
सुधीर की पत्नी की जिद जोर पकड़ती गयी। वह उससे कहने लगी, ‘‘शंभु ने अपना परिवार छोड़ दिया और कमाने शहर चला गया। हम तो निस्संतान हैं। हमारा अपना कोई नहीं है। जब से हमारी शादी हुई है, तब से देखती आ रही हूँ कि तुम कायर हो। तुममें साहस है ही नहीं।''
लाचार होकर सुधीर को भी शहर जाना पड़ा। वहाँ शंभु से मिला और अपने लिए कोई काम ढूँढ़ने की विनती की। शंभु ने भी बहुत कोशिश की पर सुधीर को कोई काम दिला नहीं सका। सब यही कहते थे कि शहर में बढ़इयों की भरमार है । जो बढ़ई हैं, उन्हीं के पास जब काम नहीं है - तो नये बढ़ई को कहाँ से काम दिलायें।
सुधीर चार महीनों तक शहर में काम की खोज में लगा रहा। जो रक़म वह गाँव से ले आया, वह भी ख़त्म होने को थी। उसने आख़िर तंग आकर गाँव वापस जाने का निर्णय लिया। परंतु उसे इस बात का डर था कि एक कौड़ी के भी बिना लौटे उसे देखकर उसकी पत्नी ताने कसेगी। उसने खूब सोचा और नाक से लेकर सिर तक के भाग को कपड़े से ढक लिया और रात को घर पहुँचकर दरवाज़ा खटखटाया।
पत्नी भानुमति ने दरवाजा खोलते ही उसे देखकर घबराते हुए पूछा, ‘‘यह क्या? न ही नाक दिखायी दे रही है, न ही कान। अपने चेहरे को यों क्यों छिपा रहे हो?''
सुधीर ने आत्मविश्वास के साथ जवाब दिया, ‘‘शहर में मैंने जो रक़म कमायी, उसे एक थैली में बंद करके ले आ रहा था। गाँव की सरहदों पर चोरों ने मुझपर हमला कर दिया। पसीना बहाकर कमाया, इतनी आसानी से वह रक़म उन्हें थोड़े ही दूँगा ! मैं भी उनपर टूट पड़ा। इतने में चोरों में से एक ने तलवार निकाली और कहा, ‘‘तुम्हें धन चाहिये या प्राण, इसका फ़ैसला अभी कर लेना। चुपचाप वह थैली हमें दे दोगे तो तुम्हें छोड़ देंगे। अगर तुमने हमारी बात नहीं मानी तो हम तुम्हारी नाक और कान काट डालेंगे।''
‘‘इतनी बड़ी नाइन्साफी! वह रक़म उन्हें दे डालते तो कितना अच्छा होता। इससे बढ़कर अपमान की बात क्या हो सकती है?'' कहकर भानुमति अपने पति के चेहरे पर के कपड़े को खींचने ही वाली थी कि सुधीर ने खुद खींचते हुए कहा, ‘‘तुमने अब जो कहा, वही काम मैंने किया। शहर में जितना भी कमाया, उन बदमाशों ने छीन लिया। अच्छा हुआ, कम से कम इस नाक और कान को बचाकर लौट पाया,'' स्वर को कंपाते हुए उसने कहा।
‘‘उन्होंने आपसे धन ही तो छीन लिया है, न कि आपके बढ़ई का काम। चिंतित मत होइये।'' कहती हुई भानुमति ने पति को ढाढ़स बंधाया।
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