ओशो
दुःख का बोध दुःख से मुक्ति है , क्योंकि दुःख को जान कर कोई दुःख को चाह नहीं सकता और उस क्षण जब कोई चाह नहीं होती और चित वासना से विक्षुब्ध नहीं होता हम कुछ खोज नहीं रहे होते उसी क्षण उस शांत और अकंप क्षण में ही उसका अनुभव होता है जो की हमारा वास्तविक होना है !
कबीर
यदि सदगुरु मिल जाये तो जानो सब मिल गए फिर कुछ मिलना शेष नहीं रहा ! यदि सदगुरु नहीं मिले तो समझों कोई नहीं मिला क्योंकि माता पिता पुत्र और भाई तो घर घर में होते है ! ये सांसारिक नाते सभी को सुलभ है परन्तु सदगुरु की प्राप्ति दुर्लभ है !
स्वामी रामतीर्थ
त्याग निश्चय ही आपके बल को बढ़ा देता है आपकी शक्तियों को कई गुना कर देता है आपके पराक्रम को दृढ कर देता है वाही आपको ईश्वर बना देता है ! वह आपकी चिंताएं और भय हर लेता है आप निर्भय तथा आनंदमय हो जाते हैं !
शुक्र नीति
समूचे लोक व्यव्हार की स्तिथि बिना नीतिशास्त्र के उसी प्रकार नहीं हो सकती जिस प्रकार भोजन के बिना प्राणियों के शरीर की स्तिथि नहीं रह सकती !
बेंजामिन फ्रेंकलिन
यदि कोई व्यक्ति अपने धन को ज्ञान अर्जित करने में खर्च करता है तो उससे उस ज्ञान को कोई नहीं छीन सकता ! ज्ञान के लिए किये गए निवेश में हमेशा अच्छा प्रतिफल प्राप्त होता है !
भर्तृहरी शतक
जिनके हाथ ही पात्र है भिक्षाटन से प्राप्त अन्न का निस्वादी भोजन करते है विस्तीर्ण चारों दिशाएं ही जिनके वस्त्र है पृथ्वी पर जो शयन करते है अन्तकरण की शुद्धता से जो संतुष्ट हुआ करते है और देने भावों को त्याग कर जन्मजात कर्मों को नष्ट करते है ऐसे ही मनुष्य धन्य है !
लेन कर्कलैंड
यह मत मानिये की जीत ही सब कुछ है, अधिक महत्व इस बात का है की आप किसी आदर्श के लिए संघर्षरत हो ! यदि आप आदर्श पर ही नहीं डट सकते तो जीतोगे क्या ?
शेख सादी
जो नसीहतें नहीं सुनता , उसे लानत मलामत सुनने का सुक होता है !
संतवाणी
दूसरों की ख़ुशी देना सबसे बड़ा पुण्य का कार्य है !
ईशावास्यमिदं सर्व यत्किज्च जगत्यां जगत
भगवन इस जग के कण कण में विद्यमान है !
चाणक्य
आपदर्थे धनं रक्षेद दारान रक्षेद धनैरपि !
आत्मान सतत रक्षेद दारैरपि धनैरपि !!
विपति के समय काम आने वाले धन की रक्षा करें !धन से स्त्री की रक्षा करें और अपनी रक्षा धन और स्त्री से सदा करें !
टी एलन आर्मस्ट्रांग
विजेता उस समय विजेता नहीं बनाते जब वे किसी प्रतियोगिता को जीतते है ! विजेता तो वे उन घंटो सप्ताहों महीनो और वर्षो में बनते है जब वे इसकी तयारी कर रहे होते है !
विलियम ड्रूमंड
जो तर्क को अनसुना कर देते है वह कटर है ! जो तर्क ही नहीं कर सकते वह मुर्ख है और जो तर्क करने का साहस ही नहीं दिखा सके वह गुलाम है !
औटवे
ईमानदार के लिए किसी छदम वेश भूषा या साज श्रृंगार की आवश्यकता नहीं होती ! इसके लिए सादगी ही प्रयाप्त है !
गुरु नानक
शब्दे धरती , शब्द अकास , शब्द शब्द भया परगास !
सगली शब्द के पाछे , नानक शब्द घटे घाट आछे !!
01 मई 2010
अनमोल वचन ( Priceless words )
Posted by Udit bhargava at 5/01/2010 04:25:00 pm 0 comments
कब और किसे मिलते हैं भगवान ?
प्यास जगे तो बात बने: अध्यात्म क्षेत्र के तत्व ज्ञानियों का यह अनुभव सिद्ध मत है कि, जिसके बिना इंसान किसी भी कीमत पर रह ही न सके वो चीज उसे तत्काल और भरपूर मात्रा में मिल जाती है। हवा, पानी, प्रकाश आदि चीजें जितनी जरूरी हैं, ईश्वर ने उन्हैं उतना ही सुलभ बना रखा है। यही बात ईश्वर प्राप्ति के विषय में भी लागू होती है। यदि किसी भक्त के मन में ईश्वर को पाने की प्यास सांस को लेने की प्यास जितनी तीव्र हो जाए तो तत्काल ईश्वर मिल सकता है। मीरा, नानक, रैदास, कबीर, रामकृष्ण-परमहंस, सूर तथा तुलसी आदि भक्तों को भगवान तभी मिले, जब उनके मन में ईश्वर प्राप्ति की तीव्र प्यास जाग गई।
Labels: ज्ञान- धारा
Posted by Udit bhargava at 5/01/2010 08:33:00 am 0 comments
जानें वीआईपी सिक्योरिटी सिस्टम
जेड प्लस : यह सबसे मजबूत सिक्योरिटी कैटिगिरी है। उसमें 36 सिक्योरिटी पर्सोनल होते हैं। इनमें एनएसजी के ब्लैक कैट कमांडोज, एसपीजी (स्पेशल प्रोटेक्शन ग्रुप), सीआरपीफ और आईटीबीपी सुरक्षा एजेंसियों के जवान शामिल होते हैं। इसमें दो बुल्लेट प्रूफ गाड़ियां, पायलट कार और सिक्योरिटी पर्सनल्स की एस्कार्ट गाडी शामिल होती है। ऐसे सिक्योरिटी आमतौर पर वीवीअईपी, केबिनेट मंत्री, मुख्यमंत्रियों, वरिष्ठम राजनीतिज्ञ और नौकरशाहों को दी जाती है।
जेड : इस सिक्योरिटी में 22 लोग होते हैं. इस तरह का सिक्योरिटी कवर उन लोगों को दिया हाता है जो महत्वपूर्ण तो हैं लेकिन अतिमहत्वपूर्ण नहीं। इसमें दो से चार पर्सनल गार्ड होते हैं। ज्यादातर यह सिक्योरिते मशहूर लोगों को दी जाती है।
वाई : ये सुरक्षा जिस वीआईपी को मिलती है उसकी जान की हिफाजत के लिये 11 सिक्योरिटी पर्सनल और एस्कोर्ट कार को तैनात किया जाता है। वी कैटेगिरी की सुरक्षा श्रेणियों में दो लोगों को नियुक्त किया जाता है।
Posted by Udit bhargava at 5/01/2010 12:09:00 am 1 comments
30 अप्रैल 2010
दृढ़ता से डटे रहें
अपने आप से सवाल पूछना, अपनी योग्यता जांचने का अच्छा तरीका है। ज्यादातर लोग समय की कमी के कारण अपने कामों को ठीक ढंग से निपटा नहीं पते। इसके अलावा जब कभी उन्हें अतिरिक्त समय भी प्राप्त होता है, तो वे उसका सही इस्तेमाल नहीं कर पाते। इसलिये सबसे जरूरी है कि आप अपने समय का प्राथमिकता के अनुसार प्रयोग करना सीखें।
कभी-कभी जीवन में ऐसी परिस्थितिया आ जाती हैं कि आप स्वयं को असहाय महसूस करने लगते हैं। ऐसी परिस्थितियों में उस सही समय की प्रतीक्षा करें, जब आप उनसे पार पा सकते हों। कुछ दिन पहले, एक सज्जन दिल्ले से मुंबई होते हुए कोयम्बटूर पहुँचने पर मालूम पडा कि उनका समान नहीं आ पाया, वह दिल्ली में ही छूट गया, उनके पास कुछ भी नहीं था, सिवा उन कपड़ों के, जो उन्होंने पहने हुए थे। बजाय रोने-धोने के, उन्होंने स्थिति को यथास्थिति स्वीकार किया। टांयलेट का समान और रात को पहनने के लिये कपडे खरीदे। दूसरे दिन जब वह मुंबई पहुंचे, तो उन्हें अपना समान मिल गया। इन परिस्थितियों में सर्वोत्तम यही है कि चुपचाप उपलब्ध विकल्प का उपयोग किया जाए और सही समय का इंतज़ार किया जाय। यदि ऐसा नहीं करते तो इससे सिर्फ उनकी पीड़ा बढती। जिस काम के लिये (भाषण देने के लिये) वहां आये थे, वह बिगड़ जाता। कहावत भी है, चिंता करने से चावल तो नहीं पकते।
असली मुद्दों पर ही अपना कीमती वक्त लगाना चाहिए। सोचें कि आपने फालतू कार्यों पर कितना समय जाया किया है। किया हुआ कार्य और प्राप्त परिणाम का मोटा-मोटा अनुपात-समीकरण बना लें। इस तरह आपको अपने काम के प्रतिफल का काफे अंदाजा हो जायेगा। इस तरीके से प्रमुख और काम जरूरी कामों का एक अनुपात-समीकरण भी बना सकते हैं। यानी बिना हिमात हारे मैदान में डटे रहें। आपको आपकी मंजिल जरूर मिल जायेगी।
Posted by Udit bhargava at 4/30/2010 11:48:00 pm 0 comments
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (76-100)
76 न तो दरिद्रता में मोक्ष है और न सम्पन्नता में, बंधन धनी हो या निर्धन दोनों ही स्थितियों में ज्ञान से मोक्ष मिलता है।
77 कोई भी व्यक्ति क्रुद्ध हो सकता है, लेकिन सही समय पर, सही मात्रा में, सही स्थान पर, सही उद्देश के लिये सही ढंग से क्रुद्ध होना सबके सामर्थ्य की बात नहीं है।
78 हीन से हीन प्राणी में भी एकाध गुण होते हैं. उसी के आधार पर वह जीवन जी रहा है।
79 सुखों का मानसिक त्याग करना ही सच्चा सुख है जब तक व्यक्ति लौकिक सुखों के आधीन रहता है, तब तक उसे अलौकिक सुख की प्राप्ति नहीं हों सकती, क्योंकि सुखों का शारीरिक त्याग तो आसान काम है, लेकिन मानसिक त्याग अति कठिन है।
80 लोगों को चाहिए कि इस जगत में मनुष्यता धारण कर उत्तम शिक्षा, अच्छा स्वभाव, धर्म, योग्याभ्यास और विज्ञान का सम्यक ग्रहण करके सुख का प्रयत्न करें, यही जीवन की सफलता है।
81 विधा, बुद्धि और ज्ञान को जितना खर्च करो, उतना ही बढ़ते हैं।
82 सब कर्मों में आत्मज्ञान श्रेष्ठ समझना चाहिए; क्योंकि यह सबसे उत्तम विद्या है। यह अविद्या का नाश करती है और इससे मुक्ति प्राप्त होती है।
83 अपनी स्वंय की आत्मा के उत्थान से लेकर, व्यक्ति विशेष या सार्वजनिक लोकहितार्थ में निष्ठापूर्वक निष्काम भाव आसक्ति को त्याग कर समत्व भाव से किया गया प्रत्येक कर्म यज्ञ है।
84 परमात्मा वास्तविक स्वरुप को न मानकर उसकी कथित पूजा करना अथवा अपात्र को दान देना, ऐसे कर्म क्रमश: कोई कर्म-फल प्राप्त नहीं कराते, बल्कि पाप का भागी बनाते हैं।
85 जिस कर्म से किन्हीं मनुष्यों या अन्य प्राणियों को किसी भी प्रकार का कष्ट या हानि पहुंचे, वे ही दुष्कर्म कहलाते हैं।
86 यज्ञ, दान और तप से त्याग करने योग्य कर्म ही नहीं, अपितु अनिवार्य कर्त्तव्य कर्म है; क्योंकि यज्ञ, दान व तप बुद्धिमान लोगों को पवित्र करने वाले हैं।
87 परोपकारी, निष्कामी और सत्यवादी यानी निर्भय होकर मन, वचन व कर्म से सत्य का आचरण करने वाला देव है।
88 परमात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव के सद्रिशय अपने स्वयं के गुण, कर्म व स्वभावों को समयानुसार उन सभी को धारण करना ही परमात्मा की सच्ची पूजा है।
89 जो कार्य प्रारंभ में कष्टदायक होते हैं, वे परिणाम में अत्यंत सुखदायकी होते हैं।
90 जो दानदाता इस भावना से सुपात्र को दान देता है कि तेरी (परमात्मा) वस्तु तुझे ही अर्पित है; परमात्मा उसे अपना प्रिय सखा बनाकर उसका हाथ थामकर उसके लिये धनों के द्वार खोल देता है; क्योंकि मित्रता सदैव समान विचार और कर्मों के कर्ता में ही होती है, विपरीत वालों में नहीं।
91 जो मनुष्य अपने समीप रहने वालों की तो सहायता नहीं करता, किन्तु दूरस्थ की सहायता करता है, उसका दान, दान न होकर दिखावा है।
92 दान की वृत्ति दीपक की ज्योति के समान होने चाहिए, जो समीप से अधिक प्रकाश देती है और ऐसे दानी अमरपद को प्राप्त करते हैं।
93 समय मूल्यवान है, इसे व्यर्थ नष्ट न करो। आप समय देकर धन पैदा कर रखते हैं और संसार की सभी वस्तुएं प्राप्त कर सकते हैं, लेकिन स्मरण रहे - सब कुछ देकर भी समय प्राप्त नहीं कर सकते अथवा गए समय को वापिस नहीं ला सकते।
94 यदि ज्यादा पैसा कमाना हाथ की बात नहीं तो कम खर्च करना तो हाथ की बात है; क्योंकि खर्चीला जीवन बनाना अपनी स्वतन्त्रता को खोना है।
95 ज्यादा पैसा कमाने की इच्छा से ग्रसित मनुष्य झूठ, कपट, बेईमानी, धोखेबाजी, विश्वाघात आदि का सहारा लेकर परिणाम में दुःख ही प्राप्त करता है।
96 इन दोनों व्यक्तियों के गले में पत्थर पानी में डूबा देना चाहिए। एक दान न करने वाल धनिक तथा दूसरा परिश्रम न करने वाला दरिद्र।
97 ज्ञान से एकता पैदा होती है और अज्ञान से संकट।
98 भगवान् प्रेम के भूखे हैं, पूजा के नहीं।
99 परमात्मा इन्साफ करता है, पर सदगुरु बख्शता है।
100 जिसके पास कुछ नहीं रहता, उसके पास भगवान् रहता।
Posted by Udit bhargava at 4/30/2010 05:36:00 pm 0 comments
क्यों और कैसे किये जाते हैं सोलह श्रंगार ?
शौच- यानि कि शरीर की आन्तरिक एवं बाह्य पूर्ण शुद्धि।
उबटन- यानि हल्दी, चंदन, गुलाब जल, बेसन तथा अन्य सुगंधित पदार्थौ के मिश्रण को शरीर पर मलना।
स्नान- यानि कि स्वच्छ, शीतल या ऋतु अनुकूल जल से शरीर को स्वच्छता एवं ताजगी प्रदान करना
केशबंधन- केश यानि बालों को नहाने के पश्चात स्वच्छ कपड़े से पोंछकर,सुखाकर एवं ऋतु अनुकूल तेलादि सुगंधित द्रव्यों से सम्पंन कर बांधना।
अंजन- यानि कि आंखों के लिये अनुकूल व औषधीय गुणों से सम्पंन चमकीला पदार्थ पलकों पर लगाना।
अंगराग- यानि ऐक ऐसा सुगंधित पदार्थ जो शरीर के विभिन्न अंगों पर लगाया जाता है।
महावर-पैर के तलवों पर मेहंदी की तरह लगाया जाने वाला एक सुन्दर व सुगंधित रंग।
दंतरंजन-यानि कि दांतों को किसी अनुकूल पदार्थ से साफ करना एवं उनके चमक पैदा करना।
ताम्बूल- यानि कि बढिय़ा किस्म का पान कुछ स्वादिष्ट एवं सुगंधित पदार्थ मिलाकर मुख में धारण करना।
वस्त्र- ऋतु के अनुकूल तथा देश, काल, वातावरण की दृष्टि से उचित सुन्दर एवं सोभायमान वस्त्र पहनना।
भूषण- यानि कि शोभा में चार चांद लगाने वाले स्वर्ण, चांदी, हीरे-जवाहरात एवं मणि-मोतियों से बने सम्पूर्ण गहने पहनना।
सुगन्ध- वस्त्राभूषणों के पश्चात शरीर पर चुनिंदा सुगंधित द्रव्य लगाना। पुष्पहार-सुगंधित पदार्थ लगाने के पश्चात ऋतु-अनुकूल फूलों की मालाएं धारण करना।
कुंकुम- बालों को संवारने के बाद में मांग को सिंदूर से सजाना।
भाल तिलक- यानि कि मस्तक पर चेहरे के अनुकूल तिलक या बिन्दी लगाना।
ठोड़ी की बिन्दी-अन्य समस्त श्रृंगार के पश्चात अन्त में ठोड़ी यानि चिबुक पर सुन्दर आकृति की बिन्दी लगाना।
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Posted by Udit bhargava at 4/30/2010 08:30:00 am 0 comments
29 अप्रैल 2010
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (51-75)
51 जिस तरह से एक ही सूखे वृक्ष में आग लगने से सारा जंगल जलकर राख हो सकता है, उसी प्रकार एक मूर्ख पुत्र सारे कुल को नष्ट कर देता है।
52 जिस प्रकार सुगन्धित फूलों से लदा एक वृक्ष सारे जंगले को सुगन्धित कर देता है, उसी प्रकार एक सुपुत्र से वंश की शोभा बढती है।
53 पांच वर्ष की आयु तक पुत्र को प्यार करना चाहिए। इसके बाद दस वर्ष तक इस पर निगरानी राखी जानी चाहिए और गलती करने पर उसे दण्ड भी दिया जा सकता है, परन्तु सोलह वर्ष की आयु के बाद उससे मित्रता कर एक मित्र के समान व्यवहार करना चाहिए।
54 दुःख देने वाले और ह्रदय को जलाने वाले बहुत से पुत्रों से क्या लाभ? कुल को सहारा देने वाला एक पुत्र ही श्रेष्ठ होता है।
55 यदि पुत्र विद्वान् और माता-पिता की सेवा करने वाला न हो तो उसका धरती पर जन्म लेना व्यर्थ है।
56 जो न दान देता है, न भोग करता है, उसका धन स्वतः नष्ट हो जाता है। अतः योग्य पात्र को दान देना चाहिए।
57 बुरी मंत्रणा से राजा, विषयों की आसक्ति से योगी, स्वाध्याय न करने से विद्वान्, अधिक प्यार से पुत्र, दुष्टों की संगती से चरित्र, प्रदेश में रहने से प्रेम, अन्याय से ऐश्वर्य, प्रेम न होने से मित्रता तथा प्रमोद से धन नष्ट हो जाता है; अतः बुद्धिमान अपना सभी प्रकार का धन संभालकर रखता हा, बुरे समय का हमें हमेशा ध्यान रहता है।
58 पापों का नाश प्रायश्चित करने और इससे सदा बचने के संकल्प से होता है।
59 जब मनुष्य दूसरों को भी अपना जीवन सार्थक करने को प्रेरित करता है तो मनुष्य के जीवन में सार्थकता आती है।
60 जो मिला है और मिल रहा है, उससे संतुष्ट रहो।
61 सब जीवों के प्रति मंगल कामना धर्म का प्रमुख ध्येय है।
62 जीवन को विपत्तियों से धर्म ही सुरक्षित रख सकता है।
63 दूसरों के जैसे बनने के प्रयास में अपना निजीपन नष्ट मत करो।
64 सत्य बोलने तक सीमित नहीं, वह चिंतन और कर्म का प्रकार है, जिसके साथ ऊंचा उद्देश अनिवार्य जुडा होता है।
65 महान प्यार और महान उपलब्धियों के खतरे भी महान होते हैं।
66 कभी-कभी मौन से श्रेष्ठ उत्तर नहीं होता, यह मंत्र याद रखो और किसी बात के उत्तर नहीं देना चाहते हो तो हंसकर पूछो- आप यह क्यों जानना चाहते हों?
67 अच्छा व ईमानदार जीवन बिताओ और अपने चरित्र को अपनी मंजिल मानो।
68 जब कभी भी हारो, हार के कारणों को मत भूलो।
69 धीरे भोल। जल्दी सोचो और छोटे-से विवाद पर पुरानी दोस्ती कुर्बान मत करो।
70 जब भी आपको महसूस हो, आपसे गलती हो गयी है, उसे सुधारने के उपाय तुरंत शुरू करो।
71 दुष्कर्मों के बढ़ जाने पर सच्चाई निष्क्रिय हो जाती है, जिसके परिणाम स्वरुप वह राहत के बदले प्रतिक्रया करना शुरू कर देती है।
72 क्रोध बुद्धि को समाप्त कर देता है। जब क्रोध समाप्त हो जाता है तो बाद में बहुत पश्चाताप होता है।
73 भले बनकर तुम दूसरों की भलाई का कारण भी बन जाते हो।
74 अपनी कलम सेवा के काम में लगाओ, न कि प्रतिष्ठा व पैसे के लिये। कलम से ही ज्ञान, साहस और त्याग की भावना प्राप्त करें।
75 समाज में कुछ लोग ताकत इस्तेमाल कर दोषी व्यक्तियों को बचा लेते हैं, जिससे दोषी व्यक्ति तो दोष से बच निकलता है और निर्दोष व्यक्ति क़ानून की गिरफ्त में आ जाता है। इसे नैतिक पतन का तकाजा ही कहा जायेगा।
Posted by Udit bhargava at 4/29/2010 08:50:00 pm 1 comments
जीवन में बहुत टेंशन है...
परंतु आज के दौर में जब हमारे समयाभाव है और इसी के चलते हम मंदिर नहीं जा पाते, विधि-विधान से पूजा-अर्चना नहीं कर पाते हैं। ऐसे में भगवान की कृपा कैसे प्राप्त हो? क्या किया जा जिससे कम समय में ही हमारे सारे दुख-कलेश, परेशानियां दूर हो जाए?
अष्ट सिद्धि और नवनिधि के दाता श्री हनुमान... जिनके हृदय में साक्षात् श्रीराम और सीता विराजमान हैं... जिनकी भक्ति से भूत-पिशाच निकट नहीं आते... हमारे सारे कष्टों और दुखों को वे क्षणांश में ही हर लेते हैं। ऐसे भक्तवत्सल श्री हनुमान की स्मरण हम सभी को करना चाहिए।
तो आपकी सभी समस्या का सबसे सरल और कारगर उपाय है हनुमानचालीसा का जाप। कुछ ही मिनिट की यह साधना आपकी सारी मनोवांछित इच्छाओं को पूरा करने वाली है। हनुमान चालिसा का जाप कभी भी और कहीं भी किया जा सकता है। गोस्वामी तुलसी दास द्वारा रचित हनुमान चालीसा अत्यंत ही सरल और सहज ही समझ में आने वाला स्तुति गान है। हनुमान चालीसा में हनुमान के चरित्र की बहुत ही विचित्र और अद्भुत व्याख्या की गई हैं। साथ ही इसके जाप से श्रीराम का भी गुणगान हो जाता है। हनुमानजी बहुत ही कम समय की भक्ति में प्रसन्न होने वाले देवता है। हनुमान चालीसा की एक-एक पंक्ति भक्ति रस से सराबोर है जो आपको हनुमान के उतने ही करीब पहुंचा देगी जितना आप उसका जाप करेंग। कुछ समय में इसके चमत्कारिक परिणाम आप सहज ही महसूस कर सकेंगे।
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Posted by Udit bhargava at 4/29/2010 08:28:00 am 0 comments
28 अप्रैल 2010
क्या है मृत्यु - क्या है मोक्ष?
इस मृत्युलोक में हजार ही नहीं करोड़ों बार जनम लेने पर भी जीव को कदाचित ही संचिद पुण्य के प्रभाव से मानव योनि प्राप्त होती है। यह मानावे योनि मोक्ष की सीढ़ी है। चौरासी लाख योनियों में स्थित जीवात्माओं को बिना मानव योनि मिले तत्त्व का ज्ञान नहीं हो सकता। अतः इस दुर्लभ योनि को प्राप्त करके जो प्राणी स्वयं अपना उद्धार नहीं कर लेता, उससे बढ़कर मूढ इस जगत में दूसरा कौन हो सकता है? कोई भी कर्म शरीर के बिना सम्भव नहीं है, अतः शरीर रूपी धन की रक्षा करते हुए पुण्यकर्म करना चाहिए। शरीर की रक्षा के लिये, धर्म की रक्षा ज्ञान के लिये और ज्ञान की रक्षा ध्यान योग के लिये तथा ध्यान योग की रक्षा तत्काल मुक्ति प्राप्ति के लिये होती है। यदि स्वयं ही अहितकारी कार्यों से अपने को दूर नहीं कर सकते हैं तो अन्य कोई दूसरा कौन हितकारी होगा जो आत्मा को सुख प्रदान करेगा? जैसे फूटे हुए घड़े का जल धीरे-धीरे बह जाता है, उसी प्रकार आयु भी क्षीण होती है। जब तक यह शरीर स्वस्थ है तब तक ही तत्त्व ज्ञान की प्राप्ति के लिये सम्यक प्रत्यन किया जा सकता है। सौ वर्ष का जीवन अत्यल्प है। इसमें भी आधा निद्रा तथा आलस्य में चला जाता है। इसके साथ ही कितना ही समय बाल्यावस्था, रुग्णावस्था, वृद्धावस्था एवं अन्य दुखों में व्यतीत हो जाता है, इसके बाद जो थोड़ा बच जात है वह भी निष्फल जो जाता है। अपने हित-अहित को न जानते हुए जो नित्य कुपथगामी हैं, जिनका लक्ष्य मात्रा पेट भरना है वे मनुष्य नारकीय प्राणी हैं। अज्ञान से मोहित होकर प्राणी अपने शरीर, धन एवं स्त्री आदि में अनुरक्त होकर जन्म लेते हैं और मर जाते हैं। अतः व्यक्ति को उनकी बढी हुई अपनी आसक्ति का परित्याग करना चाहिए। यदि उस आसक्ति न छोडी जा रही हो तो महापुरुषों के साथ उस आसक्ति को जोड़ देना चाहिए, क्योंकि आसक्ति रुपी रोग की औषधि सज्जन पुरुष ही हैं।
सत्संग और वेवेक ये दो प्राणी के मलरहित स्वस्थ दो नेत्र हैं। जिसके पास ये दोनों नहीं हैं, वह मनुष्य अंधा है। वह कुमार्ग पर कैसे नहीं जाएगा अर्थात वह अवश्य ही कुमार्गगामी होगा। जो व्यक्ति दंभ के वशीभूत हो जाता है, वह अपना ही नाश करता है, जटाओं का भार और मृगचर्म से युक्त साधु का वेश धारण करने वाले दाम्भिक ज्ञानियों की भांति इस संसार में भ्रमण करते हैं और लोगों को भ्रमित करते हैं। लौकिक सुख में आसक्त "मैं ब्रह्म को जानता हूँ।" ऐसा कहने वाले, कर्म तथा ब्रह्म दोनों से भ्रष्ट, दम्भी और ढोंगी व्यक्ति का परित्याग करना चाहिए।
बंधन और मोक्ष के लिये इस संसार में दो ही पद हैं- एक पद है 'यह मेरा नहीं है' और दूसरा पद है 'ये मेरा है'। 'यह मेरा है' इस ज्ञान से वह बंध जाता है और 'यह मेरा नहीं है' इस ज्ञान से वह मुक्त हो जाता है।
ब्रह्मपद या निर्वाण प्राप्त करने के लिये बहुत कुछ करना पड़ता है, बहुत से यत्न और परिश्रम करना होता है, श्रद्धावान होकर ब्रह्म में लीन होना पड़ता है। अंत समय आने पर व्यक्ति को भयरहित होकर संयम रूपी शास्त्र से शारीरिक आसक्ति को काट देना चाहिए। अनासक्त भाव से धीरवान पुरुष पवित्र तीर्थ में जाकर उसके जल में स्नान करे, इसके पश्चात वहीं पर एकांत में किसी स्वछंद एवं शुद्ध भूमि में विधवत आसन लगाकर बैठ जाए तथा एकाग्रचित होकर गायत्री आदि मन्त्रों के द्वारा उस शुद्ध परम ब्रह्माक्षर का ध्यान करे। ब्रह्म के बीजमंत्र को बिना भुलाए वह अपने श्वास को रोककर मन को वश में करे तथा अन्या कर्मों से मन को रोककर बुद्धि के द्वारा शुभकर्म में लगाएं। जो मनुष्य 'ॐ' इस एकाक्षर मंत्र का जप करता है, वह अपने शरीर का परित्याग कर परम पद को प्राप्त होता है।
मान-मोह से रहित, आसक्ति दोष से परे, नित्य आध्यात्म चिंतन में दत्तचित्त, सांसारिक समस्त कामनाओं से रहित और सुख-दुःख नाम के द्वन्द से मुक्त ज्ञानी पुरुष ही उस अव्यय पद को प्राप्त करते हैं। विर्द्धावस्था में भी स्थिर मन से एवं पूर्ण श्रद्धा व भक्तिभाव से जो परम ब्रह्म का भजन करता है, वह प्रसन्नात्मा व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है।
गृहस्थ आश्रम को त्यागकर मृत्यु की अभिलाषा से जो तीर्थ में निवास करता है और मुक्ति क्षेत्र में मृत्यु को प्राप्त होता है, उसे मुक्ति प्राप्त होती है।
तत्त्व का ज्ञान रखने वाले तत्त्व तो प्राप्त करने वाले मोक्ष प्राप्त करते हैं, धर्मनिष्ठ स्वर्ग जाते हैं, पापी नरक में जाते हैं। पशु-पक्षी आदि इस संसार में अन्य योनियों में प्रविष्ट होकर घूमते एवं भटकते रहते हैं।
उपरोक्त विवेचन से आप भी समझ ही गए होंगे कि व्यक्ति चाहे तो कोई भी कार्य असंभव नहीं है, मोक्ष को भी सहज ही प्राप्त किया जा सकता है।
Posted by Udit bhargava at 4/28/2010 11:07:00 pm 0 comments
तो डेट बन जाएगी यादगार
- अगर आप पहली बार किसी से मिल रहे हैं, तो सबसे पहला सवाल यही होगा कि मुलाकात की कहां जाए। वैसे, अधिकतर कपल्स इस मामले में मॉल को प्रेफर करते हैं। लेकिन जरूरी नहीं है कि आप जिसके साथ डेट पर जा रहे हैं, उसे भी मॉल या फिर रेस्तरां में जाना पसंद हो। दरअसल, कुछ लोग शांत जगह पर मिलना पसंद करते हैं, ताकि आराम से बात की जा सके। इसलिए आप अपने साथ दूसरे व्यक्ति की भी पसंद का ध्यान रखकर चलें।
- लड़के/ लड़कियां डेट के लिए अपनी ड्रेस सोचते समय भी बहुत कन्फ्यूज होते हैं। वैसे, पहली मुलाकात के लिए सिंपल व सोबर ड्रेस पहनें, ताकि आपका फर्स्ट इंप्रेशन अच्छा जाए। अक्सर लड़कियां ज्यादा खूबसूरत दिखने के लिए डार्क कलर व हैवी मेकअप करना पसंद करती हैं, वहीं लड़कों को भी ज्यादा रफ ऐंड टफ लुक फॉलो करने से बचना चाहिए।
- चूंकि आप लड़के/ लड़की को इंप्रेस करना चाहते हैं, इसलिए तय समय पर पहुंचें। इससे आपका इंप्रेशन अच्छा बनेगा और उसे भी लगेगा कि आप मिलने के लिए वाकई उत्सुक थे।
- डेट पर जाने से पहले अपने फ्रेंड की पसंद-नापसंद जान लें, ताकि मिलते वक्त आप इन बातों का ध्यान रख सकें। जाहिर है कि उसकी पसंद से चलने से आपकी इमेज अच्छी बनेगी।
- अगर आप पहली डेट पर ही फिल्म देखने का प्लान बना रहे हैं, तो लाइट मूवी देखें। आप कॉमिडी या रोमांटिक मूवी प्रेफर कर सकते हैं। इससे आप दोनों का मूड अच्छा रहेगा। अगर आपको ऐक्शन या हॉरर फिल्में पसंद आती हैं, तो भी आप अपनी पसंद को इग्नोर करके लाइट फ्लेवर की फिल्म ही देखें।
- फिल्म देखने में इतने मशगूल न हो जाएं कि साथ बैठे अपने फ्रेंड को ही भूल जाएं। इससे उसे लगेगा कि आप उसकी कंपनी इंजॉय नहीं कर रहे हैं। आप फिल्म के बीच-बीच में अपनी फ्रेंड से भी बात करते रहें।
- अगर आप डेट पर नर्वस फील कर रहे हैं, तो अपने फ्रेंड को जरूर बताएं। इससे वह आपकी फीलिंग्स को समझेगा और आपके असहज होने को वह अच्छी तरह समझ सकेगा।
- आप जब खाने का ऑर्डर करें, तो अपने फ्रेंड की पसंद जरूर जान लें। खाने व ड्रिंक में उसकी पसंद पूछते रहें। इससे उसे लगेगा कि आपकी उसकी बहुत केयर करते हैं और जाहिर है कि इस तरह आपकी दूसरी मुलाकात जरूर होगी।
- अपनी डेट की तारीफ करना न भूलें। तुम्हारी आंखें बहुत सुंदर है, ड्रेस का कलर तुम पर खिल रहा है, तुम्हारी स्माइल बहुत अच्छी है जैसी बातें आपकी दोस्ती को अच्छा बनाएंगी। लेकिन इस दौरान आपको ओवर होने की जरूरत नहीं है।
- वापस जाने के बाद अपनी डेट को एक प्यारा-सा मेसेज जरूर करें और उसे बताएं कि उसके साथ दिन बिता कर आपको कैसा लगा।
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Posted by Udit bhargava at 4/28/2010 07:18:00 pm 0 comments
...तो कंसीव करना होगा आसान
प्रोसेस छिपाना
कंसीव न कर पाने पर डॉक्टर्स अक्सर कपल को फर्टिलिटी टेस्ट कराने के लिए रिफर करते हैं। दरअसल , डॉक्टर्स कपल्स को यह कहने से बचते हैं कि कंसीव न कर पाने का कारण हो सकता है कि उनकी इंटरकोर्स प्रोसेस ठीक न हो , वे सही तरीका इस्तेमाल न कर रहे हों या बहुत दिनों बाद संबंध बना रहे हों। इसलिए कपल्स को इंटरकोर्स से पहले प्रॉपर सेक्स एजुकेशन के साथ इमोशनल और फिजिकल बारीकियों की जानकारी होना बेहद जरूरी है।
उम्र ज्यादा होना
उम्र बढ़ने के साथ कंसीव करने की क्षमता भी कम होती जाती है। इसकी शुरुआत 32 साल के बाद होने लगती है। दरअसल , हर महिला में लिमिटेड एग्स होते हैं , जिनकी क्वॉलिटी उम्र बढ़ने के साथ घटने लगती है। वहीं पुरुषों में भी उम्र आगे बढ़ने के साथ सीमन की क्वॉलिटी कम होने लगती है।
तुरंत उठना
पार्टनर के साथ फिजिकल रिलेशनशिप बनाने के बाद तुरंत उठकर वॉशरूम न जाएं। थोड़ी देर रुकें। इससे मैक्सिमम सीमन वजाइना में जाएगा। लीकेज से बचने के लिए इंटरकोर्स के दौरान हिप्स के नीचे पिलो रखना भी फायदेमंद रहेगा।
लुब्रिकेंट का इस्तेमाल
हर दिन एक जैसी सेक्स प्रोसेस करने से सेक्स के प्रति रुचि कम होती जाती है और वजाइना में ड्राईनेस आने लगती है। ऐसे में सेक्स को आसान बनाने के लिए कपल्स आर्टिफिशल चीजों मसलन , वैसलीन या किसी क्रीम का इस्तेमाल करते हैं। लेकिन इन चीजों का पीएच लेवल स्पर्म्स को नुकसान पहुंचा सकता है। यानी इनके इस्तेमाल से आपकी सारी मेहनत खराब चली जाती है। इनकी जगह फोरप्ले के ऑप्शन पर जाना बेहतर रहेगा।
गैप करना
अगर लंबे समय तक फिजिकल रिलेशनशिप न बनाया जाए , तो भी कंसीव करने के चांस कम हो जाते हैं। दरअसल , यह स्पर्म्स बनने की क्षमता पर असर डालता है। अगर आप हर एक दिन छोड़कर फिजिकल रिलेशनशिप बनाते हैं , तो स्पर्म्स बनने की प्रक्रिया तेज हो जाती है और ऐसे में प्रेग्नंट होने के चांस ज्यादा रहते हैं।
बॉडी साइकल को समझें
महिलाओं के ऑव्युलेशन पीरियड के दौरान फिजिकल रिलेशनशिप बनाना ज्यादा फायदेमंद रहता है। पीरियड्स शुरू होने के दिन से 12 वें से 18 वां दिन कंसीव करने के लिए बेहतर माने जाते हैं। जो कपल्स काम के सिलसिले में अक्सर ट्रिप पर रहते हैं , वे इस शेड्यूल के मुताबिक अपने अपॉइंटमंट तय कर सकते हैं। 12 वें से 18 वें दिन के दौरान एक दिन छोड़कर सेक्स करने से कंसीव करने के चांस बढ़ जाते हैं।
सीमन अनैलिसिस करवाएं
कंसीव न कर पाने की स्थिति में सीमन भी चेक करवाएं। पुरुष की ' पोटेंसी ' और ' फर्टिलिटी ' दो अलग - अलग बातें हैं। यह टेस्ट तीन दिन तक सेक्स न करने के बाद करवाया जाना चाहिए। वैसे , सीमन को बॉडी से बाहर आने के 10 मिनट के अंदर ही लैब में पहुंचाया जाना चाहिए , इसलिए देर से बचने के लिए लैब में ही सैंपल देना सही रहता है।
स्मोकिंग से बचें
इस दौरान महिलाएं सिगरेट अवॉइड करें। निकोटिन आपको कम उम्र में ही उम्रदराज तो दिखाता ही है , साथ ही बच्चा पैदा करने की क्षमता में भी कमी लाता है। सिगरेट पीने से मिसकैरिज और प्रेमचर डिलिवरी के चांसेज़ भी बढ़ जाते हैं। वहीं स्मोकिंग करने से पुरुषों में स्पर्म्स बनने की मात्रा में कमी आती है , इसलिए अपने आने वाले बेबी के लिए ऐसा कोई रिस्क न लें और सिगरेट पीना तुरंत छोड़ दें।
सेक्स को फन की तरह लें
सेक्स को निपटाने वाला प्रोसेस न मानकर फन की तरह लें। अगर आप इसे एक काम की तरह लेने लगेंगे , तो आपका मूड तो इससे प्रभावित होगा ही साथ ही सेक्स के प्रति रुचि में कमी , वजाइना में ड्राइनेस जैसी कई तरह की दिक्कतें हो सकती हैं। अगर आप इसे फन की तरह लेंगे , तो यह आपको अच्छी फीलिंग देगा।
इन्फेक्शन्स से बचें
सेक्सुअल ट्रांसमिशन डिज़ीज सेक्स की वजह से एक व्यक्ति से दूसरे में पास होती हैं। इनकी वजह से कंसीव करने का चांस भी कम हो जाता है और ये बच्चे को भी नुकसान पहुंचा सकती हैं। इन बीमारियों के खास लक्षण नहीं होते , इसलिए आपको और भी सावधानी बरतने की जरूरत है। ऐसे में बच्चे के लिए ट्राई करने से पहले इस बारे में चेकअप जरूर करवाएं।
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Posted by Udit bhargava at 4/28/2010 07:11:00 pm 0 comments
श्राद्ध का भार पुत्र पर क्यों?
मनुष्य अपनी करणी से आप तरता है, परन्तु पुत्र पर यह श्राद्ध करने का भारी भोझा क्यों? भला जीवन भर तो वह माता पिता की सेवा इसलिए करता रहता है कि वह उनसे उत्पन्नं हुआ था। परन्तु जबकि पिता माता का वह देह भी भस्मसात हो गया फिर भी वह श्राद्ध करे-यह तो अनावश्यक ढकोसला है। फ़िर जीव तो किसी का बाप बेटा नहीं होता पुन: उसके उद्वार के नाम पर श्राद्ध का नाटक कोरी पोपलीला है।
हम पीछे पूर्वाद्ध के अन्येष्टि प्रकरण में यह प्रकट कर चुके हैं कि यदि कोई व्यक्ति संतान उत्पन्न न करके नैष्टिक पदार्थ ब्रह्मचर्य व्रत धारण करें तो एकमात्र इस साधन से वह दशम द्वार से प्राण निकालकर सूर्य-मण्डल को भेदन करता हुआ अपुनरावृति मार्ग का पथिक बन जाता है, परन्तु सभी मनुष्य इस कठिन मार्ग में आरूद हो जाएँ तो सबके आश्रयदाता गृहस्थ आश्रम के अभाव में अन्याय आश्रमों का आपाततः वर्णाश्रम धर्म का ही उच्छेद हो जाए जो भगवान् को कथमपि इष्ट नहीं है। इसलिए बड़े बड़े ज्ञानी ध्यानी ऋषीमुनि भी जगत्प्रवाह के संचालनार्थ गृहस्थाश्रम में प्रवेश करते हैं। सो संतानोत्पादन के व्यापार से दशमद्वार से प्राणा प्रयाण की स्वाभाविकी शक्ति क्षीण हो जाती है अतः पिता की इस हानि का दायित्य पुत्र पर है। दाह कर्म के समय पुत्र पिता की कपालास्थी को बांस से तीन बार स्पर्श करता हुआ अंत में तोड़ डालता है जिसका स्वारस्य यही है कि पुत्र शम्शानस्थ समस्त बांधवों के सामने संकेत करता है कि यदि पिता जी मुझसे पामर जंतु को उत्पन्न करने का प्रयास न करते तो ब्रह्मचर्य के बल से उनकी यह कपालास्थी स्वतः फूटकर इसी दशम द्वार से प्राण निकलते और वे मुक्त हो जाते। परन्तु मेरे कारण उनकी यह योग्यता विनष्ट हो गयी है। मैं तीन बार प्रतिज्ञा करता हूँ कि इस कमी को मैं श्रद्धादि औधर्वदैहिक वैदिक क्रियाओं द्वारा पूरी करके पिताजी का अन्वर्थ-’पुं’ नामक नरक से ’त्र’ त्राण करने वाला ’पुत्र’ बनूंगा। वास्तव में शास्त्र में पुत्र की परिभाषा करते हुए पुत्रत्व का आधार ’श्राद्ध’ कर्म को ही प्रकट किया गया है यथा-
एक ही मार्ग है जिससे दो वस्तुएं उत्पन्न होती है एक 'पुत्र' और दूसरा 'मूत्र'। सो जो व्यक्ति उपयुर्क्त तीनों कार्य करता है वही 'पुत्र' है। शेष सब कोरे 'मूत्र' हैं। मूत्रालय में किलबिलाते हुए 'कीट' भी हमारे ही वीर्यकणों से समुद्भूत है, इसी प्रकार वे नास्तिक भी साढे तीन हाथ के मूत्रकीट ही समझे जाने चाहिए जो कि श्राद्धादी कर्म करके अपने पुत्र होने का प्रमाण नहीं देते।
Posted by Udit bhargava at 4/28/2010 05:40:00 pm 0 comments
स्वर्ग नरक व्यवस्था आखिर क्यों?
इसी प्रकार जिन जीवों के दुष्कर्म अत्युग्र होते हैं जिनका कि प्रतिफल उग्र यातनाएं मृत्युलोक में भोगी जानी सम्भव न हों वे प्राणी नरक आदि कष्टप्रद लोकों में यातना शरीर धारण करके दुष्कर्म फलोप्भोग काल पर्यंत निवास करते हैं। शास्त्रों में ऐसे कष्टप्रद लोकों का "अन्धेन तमसा वृता:" आदि भयानक शब्दों में निरूपण किया गया है।
पीछे चन्द्र कक्षान्तरवर्ती उप्रितन भाग में जिसे कि 'प्रघौ:' नाम से वेद ने स्मरण किया है-'पितृलोक' की अवस्थी प्रकट की जा चुकी है। इससे ऊपर ब्रह्मलोक पर्यंत प्रकाशमय 'घौ:' नामक विस्तृत प्रदेश में अनेक पुण्यलोकों की अवस्थिति बतलाई गयी है जिनका अमष्टिनाम 'स्वर्ग' है। वेद में सुस्पष्ट लिखा है कि-
(क) घौवै सर्वेषां देवानामायतनम्।
(ख) तिर इव वै देवलोको मनुष्लोकात्।
अर्थात्- (क) समस्त देवताओं का आवास स्थान ’घौ:’ है
(ख) देवलोक की मनुष्य लोक से पृथक सर्वथा सत्ता है।
इसी प्रकार शनिग्रह की कक्षा से ऊपर के अन्धकारमय प्रदेश में प्रधानतया इक्कीस पाप अवस्थित है जिनका समष्टिनाम 'नरक' है। वेद में सुस्पष्ट लिखा है कि-
"तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जना:"
अर्थात- जो कोई आत्म हत्यारे मानव शरीर पाकर भी आत्मोद्वार का प्रत्यन न करे वाले प्राणी हैं, वे मृत्यु के पश्चात उन अन्धकारमय नरकी लोकों में जाते हैं।
सौ उग्रकर्मा प्राणी सकाम सत्कर्मों को भोगने के लिये स्वर्ग में और पापकर्मों को भोगने के लिये नरक में जाता है, परन्तु भोगते-भोगते जब वे कर्म उग्रकोती के नहीं रहते किन्तु मृत्युलोक में भोग सकने योग्य रह जाते हैं तब उस जीव का जन्म अवशिष्ट सत्कर्मों के उपभोग के निमित्त ब्रह्मवेत्ता योगी, धनी-मानी के रूप में होता है और दुष्कर्मों के उपभोग के लिये रूगण, कुष्ठी चाण्डालादि के रूप में होता है इस आशय की छान्दोग्य की श्रुति प्रसिद्ध है-
ये रमणीयाचरण रमणीयां योनिमापघेरन्।
कपूयाचरणा: कपूयां योनिमापघेरन्।
अर्थात- शास्त्रविहित आचरण करने वाले व्यक्ति उत्तम योनियों को प्राप्त होते हैं और पापाचारी पाप योनियों को प्राप्त होते हैं।
वेद में एक अधमाधम ’जायस्व भ्रियस्व’ गति का भी उल्लेख मिलता है जिसमें अतीव प्राणी एक ही दिन में कीट पतंग आदि के रूप में कई-कई बार उत्पन्न होता और मरता रहता है। यही कर्मानुसार जीवन की विविध गतियों का रहस्य है। अमुक रजरोगादि के प्रत्यक्ष दर्शन से पूर्व-जन्मकृत पापों के परिपाक का भी बहुत कुछ अनुमान हो सकता है। नन्वादी धर्मशास्त्रों के अमुक-अमुक पाप का परनाम अमुक-अमुक योनी किंवा अमुक राजयोग-ऐसा स्पष्ट उल्लेख उपलब्ध होता है।
यहाँ इतना और अधिक समझ लेना आवश्यक होगा कि मनुष्य योनि को छोड़कर एनी योनि केवल भोग्योनी हैं। अर्थात उनमें केवल पूर्व जन्म के कर्मों का उपभोग मात्रा होता है। किसी नए कर्म की सृष्टी नहीं होती, परन्तु मनुष्य योनि में जहाँ पूर्व जन्मों के किये हुए संचित कर्म्कोश के प्रारब्ध नामक कुछ अंश का उपभोग होता है, वहीँ नए कर्मों की सृष्टि भी होती है। इसलिये मनुष्य योनि 'कर्मयोनि' के नाम से भी विख्यात है। अतः यही स्वर्ग और नरक आदि लोक लोकान्तरों की अवस्थिति और उनकी व्यवस्थाओं का विवेचन है।
जीव मरने पर कहाँ जाता है?
मृत्यु पश्चात जीव कहाँ जाता है- इसके लिये कोई समान सार्वतिक नियम नहीं है किन्तु प्रत्येद जीवन की स्व-स्व-कर्मानुसार विभिन्न गति होती है यही कर्मविपाक का सर्वतंत्र सिद्धांत है। मुख्यता प्रथम दो गति समझनी चाहिए, पहली यह कि -
(1 ) जिसमें प्राणी जीवत्व भाव से छूटकर जन्म मरण के प्रपंचसे सदा के लिये उन्मुक्त हो जाय और दूसरी यह कि
(2 ) कर्मानुसार स्वर्ग्नारक आदि लोकों को भोग कर पुनरपि मृत्युलोक में जन्म धारण कारें|
वेदादि शास्त्रों में उक्त दोनों गतियों को कई नामों से प्रपंचित किया गया है तथा-
(क) द्वे सृतो अश्रण्वं देवानामुत मानुषाणाम।
(ख) शुक्लकृष्णे गती ह्योते जगत: शाश्वती मते॥
अर्थात-(क) देव मनुष्य आदि प्राणियों की मृत्यु के अनंतर दो गति होती है
(ख) इस जनम जगत के प्राणियों की अग्नि, ज्योति, दिन शुक्ल-पक्ष और उत्तरायण के उपलक्षित अपुनरावृत्ति-फलक प्रथाम्गति तथा धूम, कृष्णपक्ष और दक्षिणायन से उपलक्षित भेदन करके सर्वदा के लिये जन्म मरण के बंधन से छूट जाता है और दुसरे मार्ग से प्रयास करने वाला जीवन कर्मानुसार पुहन जन्म मरण के चक्र में न पड़कर आ-ब्रह्मलोक परिभ्रमण करता रहता है।
Posted by Udit bhargava at 4/28/2010 03:05:00 pm 0 comments
सबसे पहले स्वयं बदलने पर दें अपना ध्यान
हर इंसान दूसरों को अपने हिसाब से ढालना चाहता है। जबकि वह स्वयं तो अपने बीवी-बच्चों की कसोटी पर ही खरा नहीं है,दुनिया की बात ही कोन करे। लाख चाहकर भी कोई किसी को बदल नहीं पाता,उसे स्वयं ही बदलना होता है। जीवन का अनुभव यही सिखाता है कि दूसरों को बदलने की कोशिस करना अपना समय और श्रम बर्बाद करना है। इंसान की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि ईश्वर ने उसे स्यमं को बदलने की पूरी अथारिटी दे रखी है। जब वह खुद को बदल लेता है तो उसकी दुनियां में कमाल हो जाता है, चमत्कार ही उतर आता है। यदि जीवन और दुनिया के प्रति हमारा दृष्टिकोण या नजरिया बदल जाता है तो, निश्चित रूप से हमारा जीवन और हमारी दुनिया खुद ब खुद बदल जाते हैं। किसी के लिये जिंदगी और जहान में आनंद ही आनंद है तो किसी को सबकुछ दु:ख और उदासी से भरा हुआ लगता है। भले ही दोनों की आर्थिक व सामाजिक हालत समान हो। अत:हकीकत यही है कि इंसान का दृष्टिकोण बदलने से उसकी दुनिया भी बदल जाया करती है।
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Posted by Udit bhargava at 4/28/2010 08:27:00 am 0 comments
भक्ति क्या है?
श्रवण = श्री भगवान् के नाम स्वरुप, गुण और लीलाओं का प्रभाव सहित प्रेम पूर्वक राजापरिक्षित और प्रेत आत्मा धुंधकारी के अनुसार सुनने का नाम ही श्रवण भक्ति है।
रामचरित मानस मिएँ प्रभु राम ने शबरी से श्रवण भक्ती के अंतर्गत यह कहा :
- " दूसरी रति मम कथा प्रसंगा"
कीर्तन = श्री शुकदेवजी और देवऋषि नारद की भाँती वाणी से उच्चारण करना यह दुसरों के प्रति कहने का नाम कीर्तन भक्ति है।
रामचरित मानस =
- "चौथी भक्त इ मम गुणगान, करे कपट तजि गान"
स्मरण = ध्रुव तथा प्रहलाद आदि की तरह मन में चिंतन करने का नाम स्मरण भक्ति है
रामचरित मानस के शबरी संवाद में =
- "मंत्र जाप मम दृढ विश्वासा। पंचम भजन जो वेद प्रकाशा"
पाद सेवन
प्रभु के चरणों की, भरत और लक्ष्मी के अनुसार सेवा करने का नाम पाद सेवन है।
रामचरित मानस के शबरी संवाद में =
- "गुर पद पंकज सेवा, तीसरी भक्ति अमां ....."
कबीर साहेब ने बड़ी सुंदर वाणी में कुछ ऐसा दर्शाया है :
गुरु गोविन्द दोउ खड़े, काके लागूं पांये
बलिहारी गुरु आपने, जो गोविन्द दिया मिलाये
दास भाव
श्री हनुमानजी और लक्ष्मणजी की भांति दास भाव से आज्ञा का पालन करने का नाम दास भक्ति है। इस कलियुग में भगवान् का प्रतेक्ष दर्शन होना असंभव है, इस लिये हमें शास्त्रों के अनुकूल कर्मों को भगवान् के आदेश समझ कर के उन्हें पालन करते रहना चाहिए। माता पिता, संतों और गुरु जनों में भगवान् को देखना और उन की आज्ञा का पालन करना..
सखा भाव
अर्र्जुन एवं उद्दव की तरह सखा भाव से उन के अनुकूल चलना ही सखा भक्ति है। हम सब जब अकेले में भगवान् के सामने बैठ कर उन से प्रार्थना करते हैं, तो हम भी भगवान् को अपना सखा ही के रूप में मानते हैं. यहाँ कौन भक्त भगवान् से किस तरह बातें करता है, यह तो वही जाने। लालची तो भगवान् को भी ठगता है पर सच्चा सखा भगवान् में अपनी सारे कर्मों को अर्पण कर देता है। भगवान् से वह "तुम" कह कर बाते करता है, कोई दूरियां नहीं होती। सारे प्राणी मात्रा में भगवान् को देखो और सखा के रूप में भगवान् को पहचानो।
निवेदन भाव
राजा बली की भांति सर्वस्व अर्पण कर देना ही का नाम है निवेदन भक्ति। साधारण व्यक्ति लालची होने के कारण इस भक्ति से वंचित रह जाता है।
हम सब कहते है "तेरा तुझ को अर्पण क्य लागे हैं मेरा" पर शायद लाखों में किसी एक में यह योग्यता होती। हम सब गाते हैं..."सब सौंप दिया इस जीवन का सब भार तुम्हारे हाथों में" पर क्य हम कभी सचमुच में अपने आप को भगवान् के हवाले सौंपते है?
वन्दना भाव
भीष्मादि की भांति नमस्कार करनी ही वन्दना भक्ति है।
अपने समान यह अपने से छोटे गुणवान और चरिवान व्यक्ति के संग भी वैसा ही भाव होना चाहिए। भीष्मादि कृष्ण से उम्र और पद में बड़े थे पर वे जानते थे की कृष्ण ईश्वर है और यदपि नाते में वे उन से छोटे हैं, फिर भी वे पूजनिये हैं। इधर अहंकारी दुर्योधन से इन की तुलना कीजिये। एक दुसरे की भावना को देखिये।
अर्चना भाव
भगवान् के स्वरुप की मानसिक यह पवित्र धातु आदि की मूर्ती का गुण और प्रभाव सहित राजा अम्बरीश और राजा पृथु की तरह पूजा करना, को अर्चना भक्ति कहते हैं। इस भक्ति की शक्ति को देखिये दुर्वासा और अम्बरीश की कथा मे।
भक्ति को
गोस्वामी तुलसीदास जी श्री राम चरित्र मानस में कुछ इस प्रकार दर्शाया है:
1. प्रथम भक्ति संतान कर संगा
2. दूसरी रति मम कथा प्रसंगा
3. गुरु पद पंकज सेवा, तीसरी भक्ति अमां
4. चौथी भक्ति मम गुनगान करे कपट तजि गान
5. मंत्र जाप मम दृढ विश्वासा, पंचम भजन जो वेद प्रकाशा
6. षठ दम शील विरक्ति बहू करमा, निरत निरंतर सज्जन धर्मा
7. सप्तम सब जग मोहि मैं देखे, मोटे संत अधिक करी लेखे
8. अष्टम यथा लाभ संतोषा, सपनेउ नहीं देखे परदोशा
Posted by Udit bhargava at 4/28/2010 12:48:00 am 0 comments
27 अप्रैल 2010
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (26-50)
26 इस दुनिया में भगवान् से बढ़कर कोई घर या अदालत नहीं है।
27 मां है मोहब्बत का नाम, मां से बिछुड़कर चैन कहाँ।
28 सत्य का पालन ही राजाओं का दया प्रधान सनातन अचार था। राज्य सत्य स्वरुप था और सत्य में लोक प्रतिष्ठित था।
29 सत्य के समान कोई धर्म नहीं है। सत्य से उत्तम कुछ भी नहीं हैं और जूठ से बढ़कर तीव्रतर पाप इस जगत में दूसरा नहीं है।
30 अच्छा साहित्य जीवन के प्रति आस्था ही उत्पन्न नहीं करता, वरन उसके सौंदर्य पक्ष का भी उदघाटन कर उसे पूजनीय बना देता है।
31 सत्य भावना का सबसे बड़ा धर्म है।
32 व्रतों से सत्य सर्वोपरि है।
33 वह सत्य नहीं जिसमें हिंसा भरी हो। यदि दया युक्त हो तो असत्य भी सत्य ही कहा जाता है। जिसमें मनुष्य का हित होता हो, वही सत्य है।
34 मनुष्य को उत्तम शिक्षा अच्चा स्वभाव, धर्म, योगाभ्यास और विज्ञान का सार्थक ग्रहण करके जीवन में सफलता प्राप्त करनी चाहिए।
35 जीवन का महत्वा इसलिये है, ख्योंकी मृत्यु है। मृत्यु न हो तो जिन्दगी बोझ बन जायेगी. इसलिये मृत्यु को दोस्त बनाओ, उसी दरो नहीं।
36 कर्म करनी ही उपासना करना है, विजय प्राप्त करनी ही त्याग करना है। स्वयं जीवन ही धर्म है, इसे प्राप्त करना और अधिकार रखना उतना ही कठोर है जितना कि इसका त्याग करना और विमुख होना।
37 संसार की चिंता में पढ़ना तुम्हारा काम नहीं है, बल्कि जो सम्मुख आये, उसे भगवद रूप मानकर उसके अनुरूप उसकी सेवा करो।
38 मृत्यु दो बार नहीं आती और जब आने को होती है, उससे पहले भी नहीं आती है।
39 मां प्यार का सुर होती है। मां बनी तभी तो प्यार बना, सब दिन मां के दिए होते हैं। इसलिये सब दिन मदर्स दे होता है।
40 ज्ञान मूर्खता छुडवाता है और परमात्मा का सुख देता है। यही आत्मसाक्षात्कार का मार्ग है।
41 संसार के सारे दुक्ख चित्त की मूर्खता के कारण होते है। जितनी मूर्खता ताकतवर उतना ही दुःख मजबूत, जितनी मूर्खता कम उतना ही दुःख कम। मूर्खता हटी तो समझो दुःख छू-मंतर हो जायेगी।
42 पढ़ना एक गुण, चिंतन दो गुना, आचरण चौगुना करना चाहिए।
43 दण्ड देने की शक्ति होने पर भी दण्ड न देना सच्चे क्षमा है।
44 उसकी जय कभी नहीं हो सकती, जिसका दिल पवित्र नहीं है।
45 सच्चा दान वही है, जिसका प्रचार न किया जाए।
46 पाप आत्मा का शत्रु है और सद्गुण आत्मा का मित्र।
47 हमारा शरीर ईश्वर के मन्दिर के समान है, इसलिये इसे स्वस्थ रखना भी एक तरह की इश्वर-आराधना है।
48 सैकड़ों गुण रहित और मूर्ख पुत्रों के बजाय एक गुणवान और विद्वान् पुत्र होना अच्छा है; क्योंकि रात्री के समय हजारों तारों की उपेक्षा एक चन्द्रमा से ही प्रकाश फैलता है।
49 एक ही पुत्र यदि विद्वान् और अच्छे स्वभाव वाला हो तो उससे परिवार को ऐसी ही खुशी होती है, जिस प्रकार एक चन्द्रमा के उत्पन्न होने पर काली रात चांदनी से खिल उठती है।
50 ब्रह्मविधा मनुश्य को ब्रह्म-परमात्मा के चरणों में बिठा देती है और चित्त की मूर्खता छुडवा देती है।
Posted by Udit bhargava at 4/27/2010 11:15:00 pm 0 comments
महाभारत - अर्जुन के अन्य विवाह
अर्जुन अपनी नगरी छोड़ कर अनेक देशों का भ्रमण करने लगे। एक दिन हरिद्वार में गंगा-स्नान करने हेतु जैसे ही वे जल में उतरे कि उलूपी नामक एक नाग-कन्या उन्हें खींचती हुई जल के अन्दर ले गई और अर्जुन से बोली, "हे नरश्रेष्ठ! मैं ऐरावत वंश की नाग-कन्या हूँ तथा आप पर आसक्त हो गई हूँ। आप मेरे साथ विहार कीजिये। यदि आपने मेरी इच्छा की पूर्ति न किया तो मैं तत्काल अपने प्राण त्याग दूँगी।" उलूपी को प्राण त्यागने के लिये तत्पर देख कर अर्जुन ने उसकी इच्छा पूर्ण की और फिर तीर्थ यात्रा के लिये आगे निकल पड़े।
यात्रा करते-करते अर्जुन मणिपुर जा पहुँचे और वहाँ के राजा चित्रवाहन की पुत्री चित्रांगदा को देख कर वे उस पर आसक्त हो उठे। अर्जुन ने राजा चित्रवाहन के पास जा कर अपना परिचय दिया तथा उनसे अपनी पुत्री का विवाह स्वयं के साथ कर देने का निवेदन किया। अर्जुन का निवेदन सुनकर चित्रवाहन ने कहा, "हे महाधनुर्धारी! मुझे आपके साथ अपनी पुत्री का विवाह करने में आपत्ति नहीं है, किन्तु आपको वचन देना होगा कि मेरी पुत्री के गर्भ से आपका जो पुत्र होगा उसे मैं अपने दत्तक पुत्र के रूप में अपने पास ही रखूँ।" अर्जुन ने चित्रवाहन की बात स्वीकार कर ली और चित्रांगदा से विवाह कर लिये। चित्रांगदा से अर्जुन के पुत्र होने के उपरान्त अर्जुन वहाँ से आगे तीर्थ यात्रा के लिये निकल पड़े।
कुछ काल पश्चात् अर्जुन श्री कृष्ण के प्रभास नामक क्षेत्र में पहुँचे। श्री कृष्ण अर्जुन को देख कर अत्यन्त प्रसन्न हुये और उन्हे अपना अतिथि बना लिया। वहाँ रहते हुये अर्जुन की दृष्टि बलराम तथा कृष्ण की बहन सुभद्रा पर पड़ी और वे उस पर आसक्त हो गये। अर्जुन के पराक्रम के विषय में सुनकर सुभद्रा पहले से ही उनसे प्रेम करती थी। श्री कृष्ण को दोनो के प्रेम के विषय में ज्ञात हो गया और वे अर्जुन से बोले, "अर्जुन! तुम्हारे साथ सुभद्रा का विवाह करने के लिये मेरे बड़े भाई बलराम कदापि तैयार नहीं होंगे। अतएव तुम वर्तमान प्रथा के अनुसार सुभद्रा का हरण कर के उससे विवाह कर लो। एक दिन रैवत पर्वत में एक महोत्सव के आयोजन से अर्जुन ने बलपूर्वक सुभद्रा को अपने रथ पर चढ़ा कर उसका हरण कर लिया। सुभद्रा के हरण का समाचार सुनकर यादव बहुत क्रोधित हुये और बलराम के नेतृत्व में अर्जुन से युद्ध की योजना बनाने लगे। इस पर श्री कृष्ण ने बलराम समेत समस्त यादवों को समझा बुझा कर शान्त किया और अर्जुन एवं सुभद्रा को बुलवा कर उनका विवाह कर दिया। इस विवाह के बाद अर्जुन एक वर्ष तक द्वारिका में रहे, फिर पुष्कर होते हुये सुभद्रा के साथ इन्द्रप्रस्थ लौट आये क्योंकि बारह वर्षों के निष्कासन की अवधि पूर्ण हो चुकी थी।
समय आने पर सुभद्रा के गर्भ से अर्जुन का पुत्र उत्पन्न हुआ जिसका नाम अभिमन्यु रखा गया। अभिमन्यु ने अल्पकाल में ही विद्याभ्यास तथा अस्त्र-शस्त्रों की शिक्षा प्राप्त कर ली और अपने पिता के समान ही पराक्रमी हो गये।
द्रौपदी के भी यधिष्ठिर, भीमसेन, अर्जुन, नकुल और सहदेव से पाँच पुत्र उत्पन्न हुये जिनका नाम क्रमशः प्रतिविन्ध्य, सुतसोम, श्रुतकर्मा, शतानीक और श्रुतसेन रखा गया।
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Posted by Udit bhargava at 4/27/2010 07:30:00 pm 0 comments
क्या हनुमानजी का भी पुत्र था...
Posted by Udit bhargava at 4/27/2010 08:25:00 am 0 comments
26 अप्रैल 2010
अपनी प्रॉपर्टी के आप स्वयं बनें वास्तुकार
आप अपनी जमीन-जायदाद, प्रॉपर्टी व व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के वास्तुकार स्वयं बन सकते हैं। यदि आप कुछ मूलभूत तथ्यों को ध्यान में रखें और कुछ मूलभूत सिद्धांतों को जान लें, तो आप स्वयं वास्तुकार बनकर निरीक्षण व उपाय कर सकेंगे।
जब भी कोई वास्तुकार किसी जगह वास्तु के लिए जाता है, तो उसे निम्न परिस्थितियों में वास्तु निरीक्षण करना होता है।
दूसरी स्थिति होती है कि व्यक्ति कोई नया मकान खरीदना चाहता है, तो उसके मकान खरीदने के कई विकल्प होते हैं। तब वास्तुकार को वास्तु नियमों को ध्यान में रखते हुए सर्वोत्तम मकान का चयन करना होता है। ऐसी स्थिति में वास्तु का तुलनात्मक अध्ययन करना पड़ता है। इसके लिए वास्तु निरीक्षण तुलनात्मक अधिक गंभीर हो जाता है तथा वास्तुकार को निर्णय बहुत ही समझ बूझ से लेना पड़ता है।
तीसरी स्थिति में व्यक्ति नई जमीन खरीदना चाहता है, जिस पर उसे मकान बनाना होता है। उसका विश्लेषण करने के लिए तथ्य निम्न हो जाते हैं।
इसमें वास्तुकार को सर्वप्रथम भूखंड की दिशा देखनी होती है। इसके पश्चात वहां की मिट्टी की गुणवत्ता की जांच करनी होती है। साथ ही आसपास के मार्गों पर विचार करना होता है तथा देखना होता है कि कहीं किसी मार्ग द्वारा भूखंड का वेध तो नहीं हो रहा है। इसके अतिरिक्त भूखंड की आकृति पर विचार करना होता है कि वह कैसी है? विषम संख्या वाले साइड के प्लॉट अशुभ और सम संख्या वाले साइड के प्लॉट शुभ माने जाते हैं। साथ ही प्लॉट की लंबाई और चौड़ाई का अनुपात भी देखना होता है कि यह समान है या नहीं। इसे १ः३ से अधिक बिल्कुल नहीं होना चाहिए। यह इसलिए देखना आवश्यक होता है क्योंकि सम संख्या वाली साइड के भूखंडों में बना मकान मजबूती और भार वितरण की दृष्टि से अधिक परिपक्व होता है। यदि हम ध्यान दें तो हम पाएंगे कि संकरे प्लॉट में कमरों का आपसी संबंध ठीक नहीं हो पाएगा, क्योंकि हो सकता है कि कमरों के मुख्य द्वार की दिशा एक ही हो जाए। ऐसी स्थिति में कमरों में रहने वालों का आपसी मेल नहीं हो पाएगा, आपस में सहयोग की भावना भी कम रहेगी और घर के सदस्य स्वार्थी और अपने तक ही सीमित रह जाएंगे।
- मुख्य द्वार की दिशा उत्तर, पूर्व या ईशान कोण में होना चाहिए।
- यदि उपर्युक्त दिशा में मुख्य द्वार न हो, तो घर के मुखिया की जन्मकुंडली के आधार पर भी घर की मुख्य दिशा के चुनाव हेतु दिशाओं पर भी विचार किया जा सकता है। जैसे अन्य वृष, कन्या, मकर राशि वालों के लिए दक्षिण दिशा के द्वार का तथा मिथुन, तुला, कुंभ राशि वालों के लिए पश्चिम द्वार का चयन भी किया जा सकता है, जबकि ये दिशाएं वास्तु के आधार पर अशुभ मानी जाती हैं। लेकिन मुख्य द्वार का पद निम्न आधार पर किया जाना चाहिए।
- यदि मुख्य द्वार सही दिशा में नहीं बन पा रहा हो, तो आप घर के अंदर प्रवेश हेतु ऐसे द्वार का प्रयोग कर सकते हैं, जिसकी दिशा वास्तुसम्मत हो।
- मोटे तौर पर निरीक्षण करें कि ईशान दिशा में भारी भरकम निर्माण न हुआ हो, बल्कि नीचा, हल्का और रोशनी और हवा से भरपूर, बगीचा या कार रखने की जगह के कारण खुला हुआ हो।
- घर में ऊपरी मंजिल पर जाने की सीढ़ियां उत्तर से दक्षिण की ओर चढ़ते हुए क्रम में पूर्व से पश्चिम की ओर चढ़ते हुए क्रम में हों। सीढ़ियों की पद संख्या विषम हो।
- घर में एक साथ एक सीध में तीन या तीन से अधिक दरवाजे न हों। अगर हों, तो बीच वाले दरवाजे पर पर्दा डालकर या अधिकतम बंद रखा जाना चाहिए। ऐसा होने से घर की सकारात्मक ऊर्जा को बाहर जाने से तथा नकारात्मक ऊर्जा को घर में प्रवेश करने से रोका जा सकता है।
- घर के बीचोबीच का स्थान ब्रह्मस्थान कहलाता है। इसे घर की लंबाई और चौड़ाई के केंद्र देखकर जाना जा सकता है। यह घर के अन्य भागों से नीच नहीं होना चाहिए, न ही यहां पर कोई खंभा या दीवार होनी चाहिए। जहां तक संभव हो भाररहित होना चाहिए।
- घर का मास्टर बेडरूम दक्षिण-पश्चिम दिशा में होना चाहिए। यदि घर के इस भाग में घर का मुखिया नहीं सोएगा, तो इस भाग में रहने वाला व्यक्ति घर में शासन करता होगा।
- उत्तर पश्चिम में कोई महत्वपूर्ण वस्तु नहीं रखी जानी चाहिए। जो भी कीमती वस्तु या महत्वपूर्ण व्यक्ति इस दिशा में रहेगा वह जल्द ही बीमार हो जाएगा या वस्तु है तो वह अक्सर खराब पड़ी रहेगी। अतः प्रयास करें कि ऐसी जगह पर स्नानागार या शौचालय रहे। इससे घर की नकारात्मक ऊर्जा तुरंत घर से बाहर निकल जाएगी। क्योंकि इस दिशा का दूसरा नाम वायव्य कोण भी है, अतः इस कोण में जो भी वस्तु होगी वह वायु के समान चली जाएगी।
- रसोईघर या घर का ड्राइंगरूम दक्षिण-पूर्व दिशा में रखें, क्योंकि यह शुक्र की दिशा है और शुक्र का संबंध कलात्मक व वैभवपूर्ण वस्तु और क्षेत्र से होता है। इस दिशा का दूसरा नाम आग्नेय कोण भी है, अतः रसोईघर में अग्नि का वास होता है। यही कारण है कि इस जगह पर रसोई घर का प्रावधान किया जाता है।
- दक्षिण-पूर्व दिशा में पृथ्वी तत्व होता है। अतः इस दिशा में स्थायित्व अधिक रहता है तथा घर के मुखिया को स्थिरता व स्थायित्व देने के लिए उसे इस दिशा में रहने की सलाह दी जाती है तथा भारी सामान व निर्माण की सलाह भी इस दिशा में रखने की सलाह भी इसीलिए दी जाती है।
- उत्तर-पूर्व दिशा को जल तत्व का स्थान माना जाता है। अतः इस स्थान पर स्थायित्व नहीं होता है। इसलिए ऐसी जगह पर भारी निर्माण करने व वस्तुओं को रखने की सलाह नहीं दी जाती है।
- घर का खजाना, सेफ, आलमारी इत्यादि को घर के उत्तर में रखना चाहिए क्योंकि यह दिशा कुबेर की दिशा मानी जाती है। इस दिशा में धन रखने से उसकी वृद्धि निरंतर होती रहती है।
- टी. वी. या मनोरंजन की कोई भी वस्तु नैर्ऋत्य कोण में नहीं रखनी चाहिए अन्यथा घर में रहने वाले व्यक्ति इन चीजों का प्रयोग अधिक करेंगे तथा अन्य महत्वपूर्ण कार्यों से उनका मन हट जाएगा। जैसे घर के बच्चे पढ़ाई में मन न लगाकर अधिकतर टी. वी. ही देखते रहेंगे।
- बच्चों का कमरा उत्तर दिशा में होना चाहिए क्योंकि उत्तर दिशा में बुध की होती है और बुध का संबंध बुद्धि और विद्या से होता है। अतः यदि बच्चे इस दिश में रहेंगे तो उनकी बुद्धि और विद्या का विकास निरंतर होता रहेगा।
- उत्तर-पूर्व दिशा का दूसरा नाम ईशान कोण है। जैसा कि नाम से भी पता चलता है, यह दिशा ईश्वर के लिए अर्थात पूजा स्थल से है। यदि घर में अध्यात्म या ईश्वर का स्थान नहीं होगा, तो घर में सकारात्मक ऊर्जा का हमेशा अभाव रहेगा, जिससे वहां रहने वालों की सुख-समृद्धि, भाग्य, विकास और सात्विकता में कमी होकर घर में क्लेश का वातावरण व्याप्त रहेगा, प्रत्येक कार्य में बाधाएं आएंगी व दुर्र्भाग्य का वास होगा।
- घर में खिड़की और दरवाजे इस प्रकार होने चाहिए कि प्राकृतिक रोशनी व हवा का कभी भी अभाव न रहे। साथ ही अप्राकृतिक रोशनी जैसे बहुत तेज रोशनी घर में नहीं होनी चाहिए क्योंकि घर आराम करने की जगह होती है तथा मानसिक शांति की आवश्यकता रहती है। दूसरी तरफ, रेस्टोरेंट व होटलों आदि में अधिक चकाचौंध, ग्लेमर व क्रियाशीलता की आवश्यकता होती है, अतः इन स्थानों पर तेज रोशनी का होना आवश्यक माना जाता है।
- जब घर के आसपास बाहर की ओर देखें तो ऐसा कोई बिजली का तार आदि घर के आगे से नहीं गुजरना चाहिए जो घर की ऊर्जा को विचलित करता हो। साथ ही घर के सामने कोई धार्मिक स्थल, अस्पताल या कोई अन्य सार्वजनिक स्थल नहीं होना चाहिए, ताकि घर में रहने वालों की मानसिक शांति व एकाग्रता बनी रहे। यदि ऐसी कोई जगह हो, तो घर के मुख्य द्वार पर पाकुआ दर्पण लगाना चाहिए जिससे वेध करने वाली वस्तुओं से घर को बचाया जा सके।
- घर के मुख्य द्वार के ठीक सामने बाहर या अंदर जल, नाली या सीवर का ढक्कन नहीं होना चाहिए।
- सीढ़ियों के नीचे का स्थान खुला, निर्माण रहित व साफ सुथरा होना चाहिए।
- सेप्टिक टैंक को नैर्ऋत्य कोण (दक्षिण-पश्चिम दिशा) से बचाएं तथा वायव्य कोण (उत्तर-पश्चिम दिशा) में बनाएं।
- ओवर हेड टैंक ईशान कोण में न बनाएं। बोरिंग, कुआं आदि यथासंभव ईशान कोण के नजदीक ही बनाएं।
- उत्तर दिशा में जल स्रोत आदि के चित्र लगाएं।
- किसी दिशा विशेष में दोष होने पर उस दिशा में दिग्दोष निवारक यंत्र या उस दिशा से संबंधित ग्रह का यंत्र लगाएं।
- जल संबंधी दोषों को दूर करने के लिए मत्स्य यंत्र लगाएं।
- घर में किसी भी प्रकार का ऐसा वास्तु दोष हो, जो किसी उपाय से न सुधारा जा सके या जाने-अनजाने में कोई वास्तु दोष रह गया हो, तो इसके निवारण के लिए पूजा स्थल में वास्तु दोषनाशक यंत्र या 81 देवताओं के चित्रों वाले वास्तु महायंत्र की स्थापना कर नियमित रूप से उसकी धूप, दीप, अगरबत्ती जलाकर पूजा करें।
घर में किसी भी स्थान की दिशा देखने के लिए उस प्रॉपर्टी का केंद्र बिंदु खोजें और फ्लोटिंग कंपास लेकर उस पर खड़े हो जाएं तथा जिस स्थान की दिशा ज्ञात करनी हो, उस ओर कंपास करके उसमें दिशा देख सकते हैं। यदि उत्तर दिशा से किसी स्थान का कोण नापना हो, तो साधारण कंपास में लाल सुंई को उत्तर दिशा के ऊपर स्थित कर दें। फिर जिस स्थान की दिशा ज्ञात करनी हो, उसका कोण कंपास में देखें।
सोसाइटी फ्लैट में कैसे जानें अपने घर की दिशा का प्रभाव
सोसाइटी के मुख्य द्वार का प्रभाव फ्लैट मालिक के लिए नगण्य के समान होता है, क्योंकि उस द्वार का प्रभाव उस सोसाइटी में रहने वाले सभी फ्लैट मालिकों के बीच समान अनुपात में विभाजित हो जाता है। उदाहरण के लिए, किसी सोसाइटी में 100 फ्लैट हों, तो उस सोसाइटी में रहने वाले 100 लोगों पर उस सोसाइटी के मुख्य द्वार का शुभ या अशुभ प्रभाव विभाजित होकर मात्र 1 प्रतिशत ही पड़ेगा। लेकिन फ्लैट के मुख्य द्वार का शुभ या अशुभ प्रभाव उस फ्लैट मालिक पर 100 प्रतिशत पड़ेगा, क्योंकि वह व्यक्ति उस फ्लैट का अकेला मालिक होता है।
इसी प्रकार, यदि कोई तीन मंजिल का भवन हो और उसकी अपनी फ्लोर में कोई दोष न हो तथा अन्य फ्लोर में दोष हों, तो उसका प्रभाव मकान मालिक पर नहीं पड़ता है, क्योंकि फ्लैट मालिक मात्र अपनी ही फ्लोर का मालिक होता है। उदाहरण के लिए, किसी प्लॉट पर तीन फ्लोर बने हों और उस बिल्डिंग में सीढ़ियां उचित दिशा में न बनी हों, तो सबसे ऊपर फ्लोर पर रहने वाले व्यक्ति को सीढ़ियों का दोष नहीं लगेगा। मध्य फ्लोर पर रहने वाले वह भी 50 प्रतिशत ही दोष लगेगा परंतु सबसे नीचे फ्लोर पर रहने वाले को 100 प्रतिशत वास्तु दोष लगेगा।
इसी प्रकार यदि किसी व्यक्ति के पास दो या दो से अधिक मकान हों तथा किसी भवन विशेष में वास्तु दोष हो, तो उस मकान को किराये पर देकर और स्वयं दोष रहित मकान में रहे तो वह व्यक्ति वास्तु दोष से बच सकता है।
Posted by Udit bhargava at 4/26/2010 10:49:00 pm 0 comments
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (1-25)
1 सत्य परायण मनुष्य किसी से घृणा नहीं करता है।
2 जो क्षमा करता है और बीती बातों को भूल जाता है, उसे इश्वर पुरस्कार देता है।
3 यदि तुम फूल चाहते हो तो जल से पौधों को सींचना भी सीखो।
4 इश्वर की शरण में गए बगैर साधना पूर्ण नहीं होती।
5 लज्जा से रहित व्यक्ति ही स्वार्थ के साधक होते हैं।
6 जिसकी इन्द्रियाँ वश में हैं, उसकी बुद्धि स्थिर है।
7 रोग का सूत्रपान मानव मन में होता है।
8 किसी भी व्यक्ति को मर्यादा में रखने के लिये तीन कारण जिम्मेदार होते हैं- व्यक्ति का मष्तिष्क, शारीरिक संरचना और कार्यप्रणाली, तभी उसके व्यक्तित्व का सामान्य विकास हो पाता है।
9 सामाजिक और धार्मिक शिक्षा व्यक्ति को नैतिकता एवं अनैतिकता का पाठ पढ़ाती है।
10 यदि कोई दूसरों की जिन्दगी को खुशहाल बनाता है तो उसकी जिन्दगी अपने आप खुशहाल बन जाती है।
11 यदि व्यक्ति के संस्कार प्रबल होते हैं तो वह नैतिकता से भटकता नहीं है।
12 सात्त्विक स्वभाव सोने जैसा होता है, लेकिन सोने को आकृति देने के लिये थोड़ा-सा पीतल मिलाने कि जरुरत होती है।
13 संसार कार्यों से, कर्मों के परिणामों से चलता है।
14 संन्यास डरना नहीं सिखाता।
15 सुख-दुःख जीवन के दो पहलू हैं, धूप व छांव की तरह।
16 अपनों के चले जाने का दुःख असहनीय होता है, जिसे भुला देना इतना आसान नहीं है; लेकिन ऐसे भी मत खो जाओ कि खुद का भी होश ना रहे।
17 इंसान को आंका जाता है अपने काम से। जब काम व उत्तम विचार मिलकर काम करें तो मुख पर एक नया-सा, अलग-सा तेज आ जाता है।
18 अपने आप को अधिक समझने व मानने से स्वयं अपना रास्ता बनाने वाली बात है।
19 अगर कुछ करना व बनाना चाहते हो तो सर्वप्रथम लक्ष्य को निर्धारित करें। वरना जीवन में उचित उपलब्धि नहीं कर पायेंगे।
20 ऊंचे उद्देश का निर्धारण करने वाला ही उज्जवल भविष्य को देखता है।
21 संयम की शक्ति जीवं में सुरभि व सुगंध भर देती है।
22 जहाँ वाद-विवाद होता है, वहां श्रद्धा के फूल नहीं खिल सकते और जहाँ जीवन में आस्था व श्रद्धा को महत्व न मिले, वहां जीवन नीरस हो जाता है।
23 फल की सुरक्षा के लिये छिलका जितना जरूरी है, धर्म को जीवित रखने के लिये सम्प्रदाय भी उतना ही काम का है।
24 सभ्यता एवं संस्कृति में जितना अंतर है, उतना ही अंतर उपासना और धर्म में है।
25 जब तक मानव के मन में मैं (अहंकार) है, तब तक वह शुभ कार्य नहीं कर सकता, क्योंकि मैं स्वार्थपूर्ति करता है और शुद्धता से दूर रहता है।
इन्हें भी देखें :-
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (26-50)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (51-75)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (76-100)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (101-125)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (126-150)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (151-175)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (176-200)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (201-225)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (226-250)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (251-275)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (276-300)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (301-325)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (326-350)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (351-375)
ज्ञान का सागर - अनमोल वचन (376-400)
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Posted by Udit bhargava at 4/26/2010 10:28:00 pm 0 comments
आत्मा, परमात्मा और प्रकृति का संगम ओंकारेश्वर
कथा-शिवपुराण के अनुसार एक बार नारदजी ने विंध्य पर्वत के समक्ष मेरु पर्वत की प्रशंसा की। तब विंध्य ने शिव का पार्थिव लिंङ्ग बनाकर उनकी आराधना की। उसकी भक्ति से शिव प्रसन्न हुए और विंध्य की मनोकामना पूरी की। कहते हैं कि तभी से शिव वहां ओंकारलिंङ्ग के रूप में स्थापित हो गए। यह लिंङ्ग दो भागों में है। एक को ओंकारेश्वर और दूसरे को ममलेश्वर या परमेश्वर कहते हैं।ओंकारेश्वर जिस पहाड़ी पर है उसे मान्धाता पर्वत भी कहते हैं। कहा जाता है कि प्राचीनकाल में सूर्यवंश के राजा मान्धाता ने यहां शिव की आराधना की थी। ऐसा भी कहा जाता है कि भगवान श्रीराम की पत्नी देवी सीता भी यहां आई थीं और महर्षि वाल्मीकि का यहां आश्रम था। वर्तमान मंदिर पेशवा राजाओं ने बनवाया।
महत्व- ओंकारेश्वर के दर्शन का महत्व है। कहते हैं कि ज्योतिर्लिंङ्ग के दर्शन मात्र से व्यक्ति सभी कामनाएं पूर्ण होती है। इसका उल्लेख ग्रंथों में भी मिलता है- शंकर का चौथा अवतार ओंकारनाथ है। यह भी भक्तों के समस्त इच्छाएं पूरी करते हैं। और अंत में सद्गति प्रदान करते हैं।
कैसे पहुंचे- इंदौर, उज्जैन, धार, महू, खंडवा और महेश्वर आदि स्थानों से ओंकारेश्वर तक के लिए बस सेवा उपलब्ध है।
रेल सुविधा- मंदिर तक पहुंचने के लिए सबसे नजदीकी स्टेशन ओंकारेश्वर रोड है। यह 12 किमी की दूरी पर है। यहां से आप लोक परिवहन के साधनों से मंदिर तक जा सकते हैं।
वायु सेवा- ओंकारेश्वर के सबसे समीप का हवाई अड्डा इंदौर में है। यह दिल्ली, मुंबई, पूना, अहमदाबाद और भोपाल हवाई अड्डों से जुड़ा हुआ है। यहां से करीब 77 किमी की दूरी पर मंदिर है।कब जाएं- ओंकारेश्वर आप कभी भी जा सकते हैं, लेकिन जुलाई से मार्च तक का समय सर्वोत्तम है।
सलाह :- श्रावण-भादौ मास में शिव की भक्ति यात्रा का विशेष महत्व है । इन मासों में वर्षा ऋतु होती है । अत: मौसम के अनुकूल वस्त्र आदि की तैयारी के साथ यात्रा करना उचित है । यहां पर पैदल यात्रा के दौरान मार्ग में पत्थर, कंकड़ और बालू होती है, इनसे सावधानी रखना चाहिए ।
Posted by Udit bhargava at 4/26/2010 08:56:00 pm 0 comments
बुराई एक स्थान पर रहेगी तो...
एक परम तपस्वी संत अपने शिष्यों के साथ देश भ्रमण पर निकले। घुमते-घुमते वे एक गांव में पहुंचे जहां गांव वालों ने उनका घोर निरादर किया। किसी ने उन्हें पानी पीने के लिए तक नहीं कहा। वहां वे कुछ दिन रुके परंतु इतने दिनों में एक भी बार किसी ने महात्माजी और उनके शिष्यों की ओर ध्यान नहीं दिया। गांव के सभी लोग स्त्रियों सहित असभ्य, दुराचारी और सभी प्रकार की बुराइयों वाले थे। सभी धर्म के पथ से विमुख थे। किसी ने कभी सपने में भी कोई अच्छा काम नहीं किया था।
जब शिष्यों ने देखा कि यहां स्वामीजी का घोर निरादर हो रहा है तो उन्होंने स्वामीजी से कही और चलने का आग्रह किया तब वे उस अधर्म से भरे गांव के बाहर आ गए। गांव से बाहर आते ही संत ने गांव वालो को आशीर्वाद दिया कि आबाद रहो, खुश रहो, यहीं इसी गांव में सदा निवास करों। ऐसे आशीर्वाद को सुनकर सभी शिष्यों को आश्चर्य हुआ पर कोई कुछ नहीं बोला।इसी तरह कुछ दिन चलने के बाद वे एक अन्य गांव में पहुंचे। उस गांव में सभी लोग धर्म के मार्ग पर चलने वाले, दान-पुण्य करने वाले, अतिथियों का सत्कार करने वाले थे। स्वामीजी को शिष्यों सहित देखकर गांव वालों को बड़ी प्रसन्नता हुई और उन्होंने उनका बहुत स्वागत सत्कार किया। उनके खाने, पीने, रहने का उत्तम प्रबंध किया और सभी स्वामीजी की सेवा सदैव लगे रहने लगे। कुछ दिन ऐसे ही बीत गए। तब स्वामीजी ने आदेश दिया अब यहां से चलना होगा। शिष्यों ने गांव छोडऩे की तैयारी शुरू कर दी। उन्हें जाता देख गांवों वालों गहरा दुख हुआ और स्वामीजी को रोकने की चेष्टा भी की परंतु वे नहीं रुके और गांव से बाहर आ गए। बाहर आकर स्वामीजी ने उस गांव को लोगों को आशीर्वाद दिया कि पूरे देश में फैल जाओ, एक साथ मत रहो।
ऐसा आशीर्वाद सुनकर शिष्यों से रहा नहीं गया और वे बोले कि स्वामीजी जिस गांव के अधर्मी और कुमार्गी लोगों हमारा घोर निरादर किया उन्हें आपने आबाद रहने और उनके गांव में रहने का आशीर्वाद दिया। परंतु यहां के लोगों ने हमारा इतना आदर सत्कार किया, सभी धर्म का सख्ती से पालन करने वाले हैं उनकों अलग होने का आशीर्वाद क्यों?
तब संत मुस्कुराए और कहा अधर्म एक ही जगह रहेगा तो वे धर्म पर चलने वाले लोगों बिगाड़ नहीं सकेगा। अधर्मी और कुमार्ग पर चलने वाला दूसरी जगह जाएगा तो वह वहां भी अधर्म फैलाएगा। इसलिए सभी अधर्मी और बुरे लोग एक जगह रहे वो ज्यादा अच्छा है। वहीं दूसरी ओर धर्म के मार्ग पर चलने वाले जहां जाएंगे वहां सभी को धर्म के मार्ग पर चलने की प्रेरणा देंगे। इससे चारों ओर धर्म और अच्छाई बढ़ेगी।
स्वामीजी का उत्तर सुनकर सभी शिष्य को परम सुख की अनुभूति हुई और वे अन्य स्थान की ओर चल दिए।
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Posted by Udit bhargava at 4/26/2010 08:19:00 pm 0 comments
25 अप्रैल 2010
धन समृधि के अचूक टोटके
1 यदि आप व्यवसायी हैं, पुराने उद्योग के चलते नया उद्योग आरम्भ कर रहे हों तो अपने पुराने कारखाने से कोई भी लोहे की वास्तु ला कर अपने नए उद्योग स्थल में रख दें। जिस स्थान पर इस को रखेंगे वहां पर स्वस्तिक बनाएं और वहां पर थोड़े से काले उडद रखें उसके ऊपर उस वस्तु को रख दें। ऐसा करने से नवीन उद्योग भी पुराने उद्योग की तरह सफलता पूर्वक चल पड़ता है।
2 यदि आप के कर्मचारी अक्सर छोड़कर जाते हैं तो इसको रोकने के लिये आपको यदि रास्ते में पडी हुए कोई कील मिले, यदि वह दिन शनिवार हो तो अति उत्तम है। इसे भैंस के मूत्र से धो लें। जिस जगह के कर्मचारी ज्यादा छोड़ कर जाते हैं। वहां पर इस कील को गाद दें इस के फलस्वरूप कर्मचारी स्थिर हो जायेंगे। इस बात का भी ध्यान रखें कि आपके कर्मचारी इस प्रकार अपना काम करें कि काम करते समय उनका मुख पूर्व या उत्तर की ओर रहे।
3 यदि धन की कमी हो या किसी का धन कहीं अटक गया हो तो शुक्ल पक्ष के गुरूवार से अपने माथे पर केसर एवं चन्दन का तिलक लगाना आरम्भ कर दें। प्रत्येक गुरूवार को रामदरबार के सामने दण्डवत प्रणाम कर मनोकामना करें, कार्य सफल हो जाएगा।
4 यदि धन टिकता नहीं है तो प्रत्येक शनिवार को काले कुत्ते को तेल से चुपड़ी रोटी खिलाएं। रोटी खिलाने के पश्चात मनोकामना करें। ऐसा प्रत्येक शनिवार को करने से धन टिकता है।
5 आर्थिक कष्टों से निपटने के लिये किसी भी मन्दिर में सिद्ध मूहर्त में केले के दो पौधे (नर एवं मादा) लगाएं तथा इन्हें नियमित सीचें। जब यह फल देने लग जाए तो समझो आपके आर्थिक कष्ट दूर होने वाले हैं।
6 अचानक धन प्राप्ति के लिये पांच गोमती चक्र ले कर लाल वस्त्र में बाँध कर अपनी दुकान की चौखट पर बाँध दें। यह कार्य शुक्रवार के दिन शुभ मूहर्त में करें।
7 दीपावली की संध्या को अशोक वृक्ष की पूजा करें ओर उस वृक्ष के नीचे दीपक जलाएं। दूज के दिन उसी पूजित वृक्ष की जड़ का एक हिस्सा अपने पास रखें। धनागमन होगा।
8 घर में या कार्यालय में 6 मोर पंख रखें इससे आपके घर व कार्यालय पर किसी की नजर नहीं लगेगी।
9 सूर्यास्त के समय आधा किलो गाय के कच्चे दूध में 9 बूँदें शहद की डाल दें। स्नान करने के पश्चात अपने मकान की छ्त से आरम्भ कर मकान के प्रत्येक कमरे व भाग में इस दूध के छीटें लगाएं। ध्यान रहे कि घर का कुछ भी हिस्सा न बचे। अब इस में बचे हुए दूध को अपने मुख्यद्वार के सामने धार देते हुए गिरा दें। ऐसा 21 दिन तक लगातार करें। छीटें डालते समय जिस देवी देवता को आप मानते हों उससे मन ही मन अपने आर्थिक कष्टों, प्रमोशन आदि की कामना करते रहें।
10 घर या दुकान के दरवाजे पर सफ़ेद सरसों रखने से दुकान में बिक्री करते है।
11 किसी भी शुभ तिथि एवं वार वाले इन दिन यदि ज्येष्ठ नक्षत्र हो तो जामुन की जड़ निकाल कर लायें। इसे आप अपने पास रखें। आपको राज्य सम्मान मिलेगा।
12 यदि आप का धन कहीं फंसा हुआ (रुका हुआ) है तो इसको निकलवाने के लिये रोजाना लाल मिर्च के ग्यारह बीज जलपात्र में डालकर सूर्य को अर्ध्य दें। ॐ सूर्याय नमः कहते हुए अपने रुके धन की प्राप्ति की प्रार्थना करें।
13 यदि आप व्यापार के लिये बाहर जा रहे हैं तथा एक नीबों ले कर उस पर चार लौंग गाड़ दें। तथा ॐ श्री हनुमते नमः का 21 बार जप करके इस नींबू को अपने साथ ले जाएँ, व्यापार में सफलता मिलेगी।
14 गेहूं पिसवाते समय उसमें 11 पत्ते तुलसी और थोड़ा सा केसर डाल कर पिसवा लें। इसको पिसवाने से पूर्व इसमें से एक मुट्ठी मिश्रण को एक रात्रि के लिये किसी मन्दिर में रख दें। उसे अगले दिन वहां से वापस लाकर इस मिश्रण में मिला दें। इसके पश्चात ही सम्पूर्ण मिश्रण को पिसवाएं। ऐसा जब भी आप आटा पिसवाने को जाएं उससे एक दिन पूर्व करें। ऐसा करने से घर में बरकत रहेगी।
15 कारोबार में उन्नति के लिये एक टोटका यह है, किसी भी शुक्ल पक्ष की शुक्रवार को सवा किलो काले चने भिगो दें। इसे अगले दिन सरसों के तेल में बना लें इसके अब तीन हिस्से कर लें। एक हिस्सा शनिवार को ही घोड़े या भैंस को खिला दें, एक हिस्सा किसी कोढी या अंग विहीन भिकारी को दे आये तथा एक हिस्सा अपने सिर से उलटा फेर कर इसे एक दोने में रख कर किसी चौराहे पर रख दें ऐसा प्रयोग 40 शनिवार को करें।
16 एक मिटटी का बना शेर बुधवार को दुर्गा माता के आगे चढाने से सब कार्य पूर्ण हो जाते हैं।
17 व्यापार में वृद्धि के लिये एक और टोटका है। एक पीपल का पत्ता शनिवार को तोड़ कर घर ले आयें। उसे गंगा जल से अच्छी तरह धो लें। इसको 21 बार गायत्री मंत्र से अभिमंत्रित कर इसे अपने कैश बाक्स में रखें। ऐसा हर शनिवार को करें। नया पत्ता रखने पर पुराना पत्ता वहां से हटा लें। इस जल में बहा दें या पीपल पर चढ़ा दें।
18 बिक्री बढाने के लिये 11 गुरूवार को अपने व्यापार स्थल के मुख्य द्वार पर हल्दी से स्वस्तिक बना लें। इस पर थोड़ी चने की दाल एवं गुड रख दें। अगले सप्ताह इस सामग्री को वहां से हटा कर किसी मन्दिर में चढ़ा दें।
19 अपनी आर्थिक स्थिति को सुधारने के लिये शुक्ल पक्ष के शुक्रवार को हरे हकीम की 54 नागों की एक माला लक्ष्मी जी को चढ़ाएं।
20 बेरोजगार को रोजगार पाने के लिये प्रत्येक बुधवार को गणेश जी को मूंगा के लड्डू चढाने चाहिए। उस दिन व्रत भी रखें। शीघ्र ही रोजगार प्राप्त होगा।
21 नौकरी प्राप्ति के लिये एक बारहमुखी रुद्राक्ष को अभिमंत्रित कर गले में धारण करें।
Labels: टोने-टोटके
Posted by Udit bhargava at 4/25/2010 07:38:00 pm 0 comments
लाभकारी वास्तु टोटके
1 भवन के उत्तर में द्वार व खिड़कियाँ रखना से धनागमन होता है।
2 भूखण्ड के उत्तर पूर्व में अण्डरग्राउण्ड पानी का टैंक रखने से स्थिर व्यवसाय एवं लक्ष्मी का वास होता है।
3 उत्तर पूर्व के अण्डरग्राउण्ड टैंक से रोजाना पानी निकाल कर पेड़ पौधे सीचने से धन वृद्धि होती है।
4 भवन के उत्तर पूर्व का फर्श सबसे नीचा होना चाहिए तथा दक्षिण पश्चिम का फर्श सबसे ऊंचा रखने से आय अधिक, व्यय कम रहता है।
5 भूखण्ड के उत्तर में चमेली के तेल का दीपक जलाने से धन लाभ होता है।
6 भवन के मुख्यद्वार को सबसे बड़ा रखना चाहिए यह सबसे सुंदर भी होना चाहिए। मुख्यद्वार के ऊपर गणेश जी बैठाने से घर में सभी प्रकार की सुख सुविधा रहती है।
7 घर में यदि पांजिटिव ऊर्जा नहीं हो तो रोजाना नमक युक्त पानी का पौंछा लगाना चाहिए। भूखण्ड के उत्तर पूर्व में साबुत नमक की डली रखने से भी घर में पांजिटिव ऊर्जा का संचालन होता है। इसे 4-5 दिन में बदलते रहना चाहिए।
8 घर के तीनों भाग व्याव्य, ईशान और उत्तर खुला रखने से तथा भूखण्ड की ढलान उत्तर पूर्व एवं पूर्व की ओर रखने से लक्ष्मी अपने आप बढती है। धन की कमी नहीं रहती है।
9 भूखण्ड या भवन के उत्तर पूर्व में शीशे की बोतल में जल भरकर रखने से तथा इस जल का सेवन एक दिन पश्चात करने से घर वालों का स्वस्थ सही रहता है।
10 सुबह एवं शाम सम्पूर्ण घर में कपूर का धुंआ लगाने से वास्तु दोषों में कमी आती है।
11 भवन में दक्षिण पश्चिम की दीवार मजबूत रखने से आर्थिक पश्चिम स्थिति मजबूत रहती है।
12 भवन का दक्षिण पश्चिम भाग ऊंचा रखने से यश एवं प्रसिधी मिलती है।
13 भवन का मध्य भाग खुला रखने से परिवार में सभी सदस्य मेल जोल से रहते हैं।
14 आरोग्यता और धन लाभ के लिये चारदीवारी की दक्षिणी एवं पश्चिमी दीवार उत्तर एवं पूर्व से ऊंची एवं मजबूत रखें।
15 अपने ड्राइंग रूम के उत्तरी पूर्व में फिश एक्वेरियम रखें। ऐसा करने से धन लाभ होता है।
16 घर के मुख्यद्वार के दोनों ओर पत्थर या धातु का एक-एक हाथी रखने से सौभाग्य में वृद्धि होती है।
17 भवन में आपके नाम की प्लेट (नेम प्लेट) को बड़ी एवं चमकती हुई रखने से यश की वृद्धि होती है।
18 स्वर्गीय परिजनों के चित्र दक्षिणी दीवार पर लगाने से उनका आशीर्वाद मिलता रहता है।
19 विवाह योग्य कन्या को उत्तर-पश्चिम के कमरे में सुलाने से विवाह शीग्रह होता है।
20 किसी भी दुकान या कार्यालय के सामने वाले द्वार पर एक काले कपडे में फिटकरी बांधकर लटकाने से बरकत होती है। धंधा अच्छा चलता है।
21 दुकान के मुख्य द्वार के बीचों बीच नीबूं व हरी मिर्च लटकाने से नजर नहीं लगती है।
22 घर में स्वस्तिक का निशाँ बनाने से निगेटिव ऊर्जा का क्षय होता है।
23 किसी भी भवन में प्रातः एवं सायंकाल को शंख बजाने से ऋणायनों में कमी होती है।
24 घर के उत्तर पूर्व में गंगा जल रखने से घर में सुख सम्पन्नता आती है।
25 पीपल की पूजा करने से श्री तथा यश की वृद्धि होती है। इसका स्पर्श मात्रा से शरीर में रोग प्रतिरोधक तत्वों की वृद्धि होती है।
26 घर में नित्य गोमूत्र का छिडकाव करने से सभी प्रकार के वास्तु दोषों से छुटकारा मिल जाता है।
27 मुख्य द्वार में आम, पीपल, अशोक के पत्तों का बंदनवार लगाने से वंशवृद्धि होती है।
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Posted by Udit bhargava at 4/25/2010 06:11:00 pm 0 comments
गहराई तक उतरने का अवसर देते हैं शब्द
शब्दों को केवल भाषा और व्याकरण से जोड़ने की भूल न करें। सूफी संतों ने भक्ति के क्षेत्र में शब्दों को च्च्नामज्ज से जोड़ा है। नाम की बड़ी महिमा रही है। नाम यानी उस परमसत्ता का जो भी नाम आप दे दें इसे अध्यात्म में पूंजी माना गया है। नानक कह गए हैं-च्च्नानक नामु न वीसरै छूटै सबदु कमाइज्ज यानी नाम को भी भूलें ना, हमेशा शब्द की कमाई करते रहें, क्योंकि जिस दिन इस शरीर का मकसद पूरा होगा उस दिन यह केवल नाम कमाई से ही होगा।जिन्हें ध्यान में उतरना हो, परमात्मा पाने की ललक हो वे मन को विचारों से मुक्त करने के लिए नाम या शब्द से मन को जोड़ दें। नाम जप जितना अंदर उतरता है, गहरा होता जाता है तब मनुष्य उस शब्द की ध्वनि में सारंगी जैसा मधुर स्वर सुन सकेगा। हम बाहर से कोई संगीत, स्वर, तर्ज सुनकर ही थिरक उठते हैं रोमांचित हो जाते हैं तो कल्पना करिए ऐसा मधुर स्वर जब भीतर से सुनाई देने लगेगा तब साधक को जो तरंग उठेगी उसी का नाम आनंद होगा। नानक ने इसी के लिए कहा है
घटि घटि वाजै किंगुरी अनदिनु सबदि सुभाइ
यह सारंगी की आवाज जब हमारे भीतर से आने लगेगी तो हमें यही सुरीला स्वर दूसरों के भीतर भी सुनाई देने लगेगा। हरेक के भीतर वही धुन। यहीं से अनुभूति होगी च्च्सिया राम मय सब जग जानीज्ज के भाव की। फिर नानक लिखते हैं च्च्विरले कउ सोझी पई गुरमुखि मनु समझाइज्ज जो इस आवाज को सुनते हैं उन्हें नानक गुरुमुख कहते हैं और ये वो लोग होते हैं जो च्च्मनु समझाएज्ज की क्रिया करते रहते हैं। सीधी बात यह है कि जो अपने मन को समझा लेते हैं वे गुरुमुख होते हैं। वे इस कला को जानते हैं कि कैसे मन से शब्द या नाम को जोड़कर परमात्मा से मिलने की तैयारी की जाए।
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Posted by Udit bhargava at 4/25/2010 08:57:00 am 0 comments
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