राम के राजतिलक का शुभ समाचार आँधी की भाँति अयोध्या के घर-घर में पहुँच गया। सारा नगर प्रसन्नता से झूम उठा। प्रत्येक घर में मंगलाचार होने लगे। रातभर स्त्रियाँ मधुर कण्ठ से मंगलगान करती रहीं। सूर्योदय होते ही नगरनिवासी अपने-अपने घरों को वन्दनवार, ध्वाजा-पताका आदि से सजाने लगे। नाना प्रकार के सुगन्धित एवं रंग-रंग के पुष्पों से सजे हाट बाजारों की शोभा वर्णनातीत हो गई। नट, नर्तक, गवैया आदि अपने अद्भुत खेल दिखाकर पुरवासियों का मनोरंजन करने लगे। स्थान-स्थान पर कदली-स्तम्भों के द्वार बनाये गये। ऐसा प्रतीत होता था कि अयोध्या नगरी नववधू की भाँति ऋंगार कर राम के रूप में वर के आगमन की प्रतीक्षा कर रही है।
महारानी कैकेयी कि प्रिय दासी मंथरा के हृदय को रामचन्द्र के राजतिलक का समाचार सुनकर और नगर की इस अभूतपूर्व छटा को देखकर बड़ा आघात लगा। वह सोचने लगी कि कौशल्या का पुत्र राजा बनेगा तो कौशल्या राजमाता कहलायेगी। जब कौशल्या की स्थिति अन्य रानियों से श्रेष्ठ हो जायेगी तो उसकी दासियाँ भी अपने आपको मुझसे श्रेष्ठ समझने लगेंगीं। इस समय कैकेयी राजा की सर्वाधिक प्रिय रानी है। राजमहल पर एक प्रकार से उसका शासन चलता है। इसीलिये राजप्रासाद की सब दासियाँ मेरा सम्मान करती हैं। किन्तु कौशल्या के राजमाता बनने पर वे मुझे हेय दृष्टि से देखने लगेंगीं। उनकी उस दृष्टि को मैं कैसे सहन कर सकूँगी। नहीं, यह सब कुछ मैं नहीं सह सकूँगी। मुझे इस विषय में अवश्य कुछ करना चाहिये।
मंथरा ने महल में लेटी हुई महारानी कैकेयी के पास जाकर कहा, "महारानी! उठिये, यह समय सोने का नहीं है। क्या आपको पता है कि कल महाराज दशरथ राम का युवराज के रूप में अभिषेक करेंगे?" कैकेयी मंथरा से यह समाचार सुनकर अत्यंत प्रसन्न हुईं और पुरस्कार के रूप में मंथरा एक बहुमूल्य आभूषण देते हुये बोलीं, "मंथरे! राम मुझे अत्यंत प्रिय है। तूने मुझे बड़ा प्रिय समाचार सुनाया है। यह आभूषण तो कुछ भी नहीं है, इस समाचार के लाने के लिये तू जो माँगेगी मैं तुझे दूँगी।" यह सुन कर मंथरा क्रोध से जल-भुन गई। कैकेयी द्वारा दिये गये आभूषण को फेंकते हुये उसने कहा, "रानी आप बड़ी नादान हैं। यह मत भूलिये कि सौत का बेटा शत्रु होता है। कौशल्या का अभ्युदय होगा और उसके राजमाता बन जाने पर आप उसकी दासी बन जायेंगी। आपके पुत्र भरत को भी राम की दासता स्वीकर करनी पड़ेगी। भरत के प्रभुत्व का विनाश होने पर आपकी बहू भी एक दासी का जीवन व्यतीत करेगी।" मंथरा की इस बात पर कैकेयी बोली, "मंथरा तू यह समझने का प्रयत्न क्यों नहीं करती कि राम महाराज के बड़े पुत्र हैं और सद्गुणों में सब भाइयों से श्रेष्ठ हैं। राम और भरत में अत्यधिक प्रेम भी है और राम को राज्य मिलने का अर्थ है भरत को राज्य मिलना क्योंकि वे सब भाइयों को अपने ही समान समझते हैं।"
कैकेयी के इन वचनों ने मंथरा को और भी दुःखी कर दिया। वह बोली, "रानी! आप यह बात क्यों भूल जाती हैं कि राम के बाद राम का पुत्र ही अयोध्या के राजसिंहासन का अधिकारी होगा। इस प्रकार भरत राज परम्परा से अलग हो जायेंगे। याद रखिये कि राज्य मिल जाने के बाद राम भरत को राज्य से निर्वासित कर देंगे। सम्भव है कि वे भरत को यमलोक ही भेज दें।" मंथरा के मुख से भरत के अनिष्ट की आशंका की बात सुनकर कैकेयी विचलित हो उठी। उसने मंथरा से पूछा, "ऐसी स्थिति में मुझे क्या करना चाहिये?" मंथरा बोली, "सम्भवतः आपको स्मरण होगा कि एक बार देवासुर संग्राम के समय आपको साथ लेकर आपके पति युद्ध में इन्द्र की सहायता करने के लिये गये थे। उस युद्ध में असुरों ने अस्त्र-शस्त्रों से महाराज दशरथ के शरीर को जर्जर कर दिया था और वे मूर्छित हो गये थे। आपने सारथी बन कर उनकी रक्षा की थी जिसके बदले में उन्होंने आपसे दो वरदान मांगने के लिये कहा था। इस पर आपने कह दिया था कि जब कभी मुझे आवश्यकता होगी मैं इन वरदानों को माँग लूँगी। अब उन वरदानों को माँगने का अवसर आ गया है। आप एक वर से भरत का राज्याभिषेक और दूसरे वर से राम के लिये चौदह वर्ष तक का वनवास माँग लीजिये। इस कार्य की सिद्धि के लिये आप मैले-कुचैले वस्त्र पहन कर कोपभवन में जाकर बिना बिस्तर बिछाये भूमि पर लेट जाइये। आपको दुःखी और कुपित देखकर महाराज आपको मनाने का प्रयत्न करेंगे। आप उसी समय अपने दोनों वर माँग लीजिये। वर माँगने के पूर्व उनसे वचन अवश्य ले लेना क्यों कि वचन देने के पश्चात् वे दोनों वरदानों को देने के लिये बाध्य हो जायेंगे।"
मंथरा का परामर्श मानकर कैकेयी ने ऐसा ही किया और कोपभवन में जाकर लेट गई।
24 जुलाई 2010
रामायण - अयोध्याकाण्ड - कैकेयी कोपभवन में ( Ramayana - Ayodhyakand - Kaackeyie in Kaophven )
Posted by Udit bhargava at 7/24/2010 07:52:00 am 0 comments
23 जुलाई 2010
परिक्रमा ब्रज चौरासी कोस की ( Braj Parikrama of abusing 84 )
ब्रज भूमि भगवान् श्रीकृष्ण एवं उनकी शक्ति राधा रानी की लीला भूमि है। यह चौरासी कोस की परिधि में फैली हुई है। यहां पर राधा-कृष्ण ने अनेकानेक चमत्कारिकलीलाएं की हैं। सभी लीलाएं यहां के पर्वतों, कुण्डों, वनों और यमुना तट आदि पर की गई। पुराणों में ब्रज भूमि की महिमा का विस्तार से वर्णन किया गया है। ऐसा माना जाता है कि राधा-कृष्ण ब्रज में आज भी नित्य विराजते हैं। अतएव, उनके दर्शन के निमित्त भारत के समस्त तीर्थ यहां विराजमान हैं। यही कारण है कि इस भूमि के दर्शन करने वाले को कोटि-कोटि तीर्थो का फल प्राप्त होता है। ब्रज रज की आराधना करने से भगवान् श्री नन्द नन्दन व श्री वृषभानुनंदिनी के श्री चरणों में अनुराग की उत्पत्ति व प्रेम की वृद्धि होती है। साथ ही ब्रज मण्डल में स्थित श्रीकृष्ण लीला क्षेत्रों के दर्शन मात्र से मन को अभूतपूर्व सुख-शांति व आनन्द की प्राप्ति होती है। इसीलिए असंख्य रसिक भक्त जनों ने इस परम पावन व दिव्य लीला-भूमि में निवास कर प्रिया-प्रियतम का अलौकिक साक्षात्कार करके अपना जीवन धन्य किया है। वस्तुत:इस भूमि का कण-कण राधा-कृष्ण की पावन लीलाओं का साक्षी है। यही कारण है कि समूचे ब्रज मण्डल का दर्शन व उसकी पूजा करने के उद्देश्य से देश-विदेश से असंख्य तीर्थ यात्री यहां वर्ष भर आते रहते हैं। ब्रज चौरासी कोस में उत्तरप्रदेश के मथुरा जिले के अलावा हरियाणा के फरीदाबाद जिले की होडलतहसील और राजस्थान के भरतपुरजिले की डीगव कामवनतहसील का पूरा क्षेत्रफल आता है। ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा के अंदर 1300से अधिक गांव, 1000सरोवर, 48वन, 24कदम्ब खण्डियां,अनेक पर्वत व यमुना घाट एवं कई अन्य महत्वपूर्ण स्थल हैं। ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा वर्ष भर चलती रहती हैं, किंतु दीपावली से होली तक मौसम की अनुकूलता के कारण प्रमुख रूप से चलती है। इन पद यात्राओं में देश-विदेश के विभिन्न क्षेत्रों से आए हजारों तीर्थ यात्री जाति, भाषा और प्रान्त की सीमाओं को लांघ कर प्रेम, सौहार्द्र,श्रद्धा, विश्वास, प्रभु भक्ति और भावनात्मक एकता आदि अनेक सद्गुणों के जीवन्त उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। साथ ही ब्रज संस्कृति से वास्तविक साक्षात्कार भी होता है। इन यात्राओं में राधा-कृष्ण लीला स्थली, नैसर्गिक छटा से ओत-प्रोत वन-उपवन, कुंज-निकुंज, कुण्ड-सरोवर, मंदिर-देवालय आदि के दर्शन होते हैं। इसके अलावा सन्त-महात्माओं और विद्वान आचार्यो आदि के प्रवचन श्रवण करने का सौभाग्य भी प्राप्त होता है। पुराणों में ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा का विशेष महत्व बताया गया है। कहा गया है, ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा को लगाने से एक-एक कदम पर जन्म-जन्मान्तर के पाप नष्ट हो जाते हैं। यह भी कहा गया है, ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा चौरासी लाख योनियों के संकट हर लेती है।
शास्त्रों में यह भी कहा गया है कि इस परिक्रमा के करने वालों को एक-एक कदम पर अश्वमेध यज्ञ का फल मिलता है। साथ ही जो व्यक्ति इस परिक्रमा को लगाता है, उस व्यक्ति को निश्चित ही मोक्ष की प्राप्ति होती है। गर्ग संहिता में कहा गया है कि एक बार नन्द बाबा व यशोदा मैया ने भगवान् श्रीकृष्ण से चारों धामों की यात्रा करने हेतु अपनी इच्छा व्यक्त की थी। इस पर भगवान् श्रीकृष्ण ने उनसे कहा कि आप वृद्धावस्था में कहां जाएंगे! मैं चारों धामों को ब्रज में ही बुलाए देता हूं। भगवान् श्रीकृष्ण के इतना कहते ही चारों धाम ब्रज में यत्र-तत्र आकर विराजमान हो गए। तत्पश्चात यशोदा मैया व नन्दबाबाने उनकी परिक्रमा की। वस्तुत:तभी से ब्रज में चौरासी कोस की परिक्रमा की शुरुआत मानी जाती है। यह परिक्रमा पुष्टि मार्गीयवैष्णवों के द्वारा मथुरा के विश्राम घाट से एवं अन्य सम्प्रदायों के द्वारा वृंदावन में यमुना पूजन से शुरू होती है। ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा लगभग 268कि.मी. अर्थात् 168मील की होती है। इसकी समयावधि 20से 45दिन की है। परिक्रमा के दौरान तीर्थयात्री भजन गाते, संकीर्तन करते और ब्रज के प्रमुख मंदिरों व दर्शनीय स्थलों के दर्शन करते हुए समूचे ब्रज की बडी ही श्रद्धा के साथ परिक्रमा करते हैं।
कुछ परिक्रमा शुल्क लेकर, कुछ नि:शुल्क निकाली जाती हैं। एक दिन में लगभग 10-12कि.मी. की परिक्रमा होती है। परिक्रमार्थियोंके भोजन व जलपान आदि की व्यवस्था परिक्रमा के साथ चलने वाले रसोडोंमें रहती है। परिक्रमा के कुल जमा 25पडाव होते हैं। आजकल समयाभाव व सुविधा के चलते वाहनों के द्वारा भी ब्रज चौरासी कोस दर्शन यात्राएं होने लगी हैं। इन यात्राओं को लक्जरी कोच बसों या कारों से तीर्थयात्रियों को एक हफ्ते में समूचे ब्रज चौरासी कोस के प्रमुख स्थलों के दर्शन कराए जाते हैं। यात्राएं प्रतिदिन प्रात:काल जिस स्थान से प्रारम्भ होती हैं, रात्रि को वहीं पर आकर समाप्त हो जाती हैं।
Labels: धार्मिक स्थल
Posted by Udit bhargava at 7/23/2010 09:07:00 pm 1 comments
अगर सिरदर्द हो रूममेट ( If the headache Roommate )
इसलिए अगर आपस में हमारे किन्हीं बातों को लेकर मतभेद होते हैं तो व्यावहारिकता को ध्यान में रखते हुए उन मतभेदों की अनदेखी करणी पड़ती है। इसलिए कह सकते हैं की रूममेट के साथ रहना है तो वह अगर दोस्त न भी हो तो भी दोस्त की तरह ही उस के साथ रहना होता है। आखिरकार इस के पीछे पढाई, कैरियर या ऐसा ही कोई मकसद होता है।"
वास्तव में रूममेट भले ही जीवन के किसी मोड़ का बहुत थोड़े दिनों का ही साथी क्यों न हो, फिर भी वह इतना अस्थायी भी नहीं होता जितना की साथ में सफ़र करने वाला कोई यात्री।
रूममेट्स कैसे भी हो सकते हैं। शोर मचाने वाले, हमेशा चुप रहने वाले, कमरे को अस्तव्यस्त रखने वाले, चिपकू या दूसरों पर निर्भर रहने वाले, और भी न जाने कितनी अलग तरह की आदतों वाले रूममेट्स से यंग जनरेशन को सामना करना पड़ता है। कई स्टुडेंट्स का तो रूममेट्स के साथ रहने का अनुभव इतना कड़वा होता है की वे बड़ी मुशिकल से अपना समय गुजारते हैं। कई रूममेट्स की खराब आदतों के कारण दूसरे रूममेट्स को एडजस्ट करने में काफी परेशानी होती है।
आइए जाने, रूममेट्स के साथ किस-किस तरह की समस्याएँ हो सकती हैं और उन समस्याओं पर काबू पाने के लिए हमें क्या-क्या उपाय करने चाहिए:-
जो स्टुडेंट्स होस्टल में आवास की असुविधा पाने में असफल रहते हैं, उन्हें मजबूरन कालेज के आसपास ही अलग घर ले कर रहना पडा है। दिल्ली जैसे शहर मेंम जहाँ एक कमरे का किराया एक स्टुडेंट्स को देना भारी होता है, उसे अपने साथ दूसरे स्टुडेंट्स को देना भारी होता है, उसे अपने साथ एक स्टुडेंट्स को रखना मजबूरी होती है। यदि किसी का सामना ऐसे रूममेट्स से हो जाए, जो हर समय कमरे को अस्तव्यस्त रखते हों तो ऐसा रूममेट हर समय एक समाया बने रहते हैं, क्योंकि ऐसे लोग पूरे कमरे में खाना खाने के बात जूठे बर्तनों को फैला देते हैं। उन्हें गंदे कपडे के ढेर लगा कर लम्बे समय तक रखने की भी आदत होती है। इस में यदि दूसरा रूममेट भी ऐसा ही हो तो परेशानी नहीं होती। लेकिन व्यवस्थित व अनुशाषित ढंग से रहने वाले रूममेट को ऐसे रूममेट्स के साथ काफी कठिनाई का सामना करना पड़ता है। इस तरह के रूममेट्स से निबटने के लिये थोड़ा कडा रूख अख्तियार करना होगा, क्योंकि ऐसे लोग थोड़ी सख्ती से ही सही रह सकते हैं।
पर्सनल चीजों का इसेमाल
घर से बाहर रेस्टोरेंट में खाना खाने के बाद अपना बिल न अदा करना, अपने हिस्से के किराए तमाम दूसरे खर्चों को देने में आनाकानी करने वाले रूममेट्स सिरदर्द होते हैं, ऐसे रूममेट्स से निबटने के लिये उन्हें पहले प्यार से समझाने का प्रयास करें की उन का अपने हिस्से का पैसा न देना, उन के दूसरे रूममेट्स के लिये कितनी बड़ी समस्या है। यदि वे अपनी आदत को नहीं सुधारते हों तो उन से किनारा कर लेने में ही भलाई है।
प्राइवेसी
एक रूममेट की अनुपस्थिति में दूसरे रूममेट का अपनी गर्लफ्रैंड/ बाँयफ्रैंड को रूम में आमंत्रित करना और स्वयं को सेक्स की गतिविधियों में संलग्न करना कई बार दूसरे रूममेट के लिये काफी परेशानी का विषय बन जाता है। इस विषय में भी दोनों रूममेट्स को समझदारी से काम लेना चाहिए।
बहरहाल, अगर आप स्टुडेंट्स हैं और स्कूल, कालेज या यूनिवर्सिटी के हॉस्टल में रह रहे हैं या फिर कैरियर बनाने के लिये किसी छोटे शहर से आए हैं और किराया शेयर करने के लिए साथी तालाश रहे हैं तो भी इस बात में झिझक की जरूरत नहीं है। अपनी गर्लफ्रैंड/ बाँयफ्रैंड को कमरे में आमंत्रित करने वाले रूममेट से साफ़ कह दें की वह उस की अनुपस्थिति में कमरे में इस तरह की गलत चीजों को करने से अपने आप को रोके, क्योंकि इस से मकान मालिक को भी आपत्ति हो सकती है और दोनों को वहां से बाहर किया जा सकता है।
Posted by Udit bhargava at 7/23/2010 08:50:00 am 1 comments
रोमांचक सैक्सुअल लाइफ ( Thriller Sexual life )
अलार्म क्लाक
अलार्म क्लाक से खेल खेलें। सेक्स करने से पहले टाइम सेट कर दें। सेक्स के दौरान जब यह अलार्म बजेगा तो दोनों में से एक अपनेआप को फ्रीज कर दे, साथ ही दूसरा उस के शरीर को एन्जॉय जरे। ऐसा दोनों बारीबारी से करें। इस तरह करने से आप की सेक्स की इच्छा और कैपिसिटी दोनों ही काफी बढ़ जाती हैं।
रोल प्लेइंग
इस गेम के जरिये आप बहुत कुछ अपने मन का कर सकती हैं। चाहे तो उन्हें स्ट्रिपटीज एक्ट के साथ रोमांटिक ड्रामा करने के लिये कहें या आप खुद उन की पसंद की सेक्सी ड्रेस पहन सकती हैं, साथ में कुछ नॉटी एक्ट भी हो जाए तो सौ फीसदी सम्भव है की आप के पार्टनर को फिर कुछ और तब तक नजर नहीं आयेगा जब तक आप नहीं चाहेंगी।
रंगों का महत्व
आँखों के द्वारा हमारे दिमाग को 75% जानकारी पहुँचती है। यह हम पर निर्भर करता है की हम अपनी जिन्दगी को किस तरह खुशनुमा बना सकते हैं। यदि आप अपने कमरे में कैंडल्स डेकोरेट करकर के बोर हो चुकी हैं तो आप इलेक्ट्रिक बल्ब कमरे में लगाएं, जो अलग अलग कलर्स में हो साथ ही कम वाट्स के हों। पर्पल कलर स्त्रियों में सेक्स को और अधिक बढ़ा देता है।
वनीला टी
यदि आप खाना खाने के बाद कुछ लेना चाहते हैं तो वनीला टी लें। एक सर्वेक्षण के अनुसार 342 व्यक्तियों में, जो नापुन्द्स्क थे, उन में भी वनीला लेने से कामोत्तेजना को बढ़ते हुए देखा गया। इसलिए वनीला लेने पर आप अपने पार्टनर के साथ सेक्स को और अधिक एन्जॉय कर सकेंगे।
रोले द डाइस
कागज़ पर दोनों पार्टनर नंबर के साथ काम लिख लीजिये, जैसे ही आप डाइस को घुमाएंगी, जो नंबर आयेगा, आप के पार्टनर को वही करना पडेगा। एक बार आप डाइस घुमाएंगी और एक बार वह। इसी तरह जितनी बार चाहें। डाइस घुमाती जाएं। डाइस घुमाने के बहाने आप वह करा सकती हैं जिसे कहते हुए आप को आज तक झिझक होती रही हैं।
सेक्स और खाने की हैबिट
सेक्स और खाने की हैबिट दोनों का एक दूसरे से काफी गहरा सम्बन्ध है। जिस तरह जल्दबाजी में खाया गया खाना लाभदायक नहीं होता, उसी तरह सेक्स के दौरान जल्दबाजी सही नहीं। इस से आप को पूरी तरह संतुष्टि नहीं मिल पाएगी। इसलिए सेक्स करें। लेकिन जल्दबाजी नहीं। फिर देखिएगा, आप को कितनी संतुष्टि मिलती है।
Labels: सेक्स रिलेशन
Posted by Udit bhargava at 7/23/2010 08:18:00 am 0 comments
रामायण - अयोध्याकाण्ड - राजतिलक की तैयारी ( Ramayana - Ayodhyakand - Coronation preparation )
दूसरे दिन राजा दशरथ ने अपना दरबार लगाया जिसमें सभी देशों के राजा लोग उपस्थित थे। उन्हें सम्बोधत करते हुये दशरथ ने कहा, "हे राजागण! मैं आप सबका अपनी और अयोध्यावासियों की ओर से हार्दिक स्वागत करता हूँ। यह तो आपको ज्ञात ही है कि इस अयोध्या पर कई पीढ़ियों से इक्ष्वाकु वंश का शासन चलता आ रहा है। इस परम्परा को आगे बढ़ाने के लिये इसका शासन-भार मैं अपने सब प्रकार से योग्य, वीर, पराक्रमी, मेधावी, धर्मपरायण और नीतिनिपुण ज्येष्ठ पुत्र राम को सौंपना चाहता हूँ। मैंने अपनी प्रजा को सब प्रकार से सुखी और सम्पन्न बनाने का प्रयास किया है। अब वृद्ध होने के कारण मैं प्रजा के कल्याण के लिये अधिक सक्रिय रूप से कार्य करने में असमर्थ हूँ और मुझे विश्वास है कि राम अपने कौशल और सूझ-बूझ से प्रजा को मुझसे भी अधिक सुखी रख सकेगा। इस विचार को कार्यान्वित करने के लिये मैंने राज्य के ब्राह्मणों, विद्वानों एवं नीतिज्ञों से अनुमति ले ली है। वे सब सहमत हैं कि राम शत्रुओं के आक्रमणों से भी देश की रक्षा करने में सक्षम है। उसमें राजत्व के सभी गुण विद्यमान हैं। उनकी दृष्टि में राम अयोध्या का ही नहीं, तीनों लोकों का राजा होने की भी योग्यता रखता है। इस राज्य के लिये आप लोगों की सम्मति का भी महत्व कम नहीं है अतः मैं आप लोगों की सम्मति जानना चाहता हूँ।" इस पर वहाँ पर उपस्थित सभी राजाओं ने प्रसन्नता पूर्वक राम के राजतिलक के लिये अपनी सम्मति दे दी।
राजा दशरथ ने कहा, "आप लोगों की सम्मति पाकर मैं अत्यंत प्रसन्न हुआ हूँ। मेरा विचार है कि इस चैत मास - जो सब मासों में श्रेष्ठ मधुमास कहलाता है - में कल ही राम के राजतिलक के उत्सव का आयोजन किया जाय। मैं मुनिश्रेष्ठ वशिष्ठ जी से प्रार्थना करूँगा कि वे राम के राजतिलक की तैयारी का प्रबन्ध करें।" राजा दशरथ का निर्देश पाकर राजगुरु वशिष्ठ जी ने सम्बंधित अधिकारियों को आज्ञ दी कि वे यथाशीघ्र स्वर्ण, रजत, उज्वल माणिक्य, सुगन्धित औषधियों, श्वेत सुगन्धियुक्त मालाओं, लाजा, घृत, मधु, उत्तम वस्त्रादि एकत्रित करने का प्रबन्ध करें। चतुरंगिणी सेना को सुसज्जित रहने का आदेश दें। स्वर्ण हौदों से सजे हुये हाथियों, श्वेत चँवरों, सूर्य का प्रतीक अंकित ध्वजाओं और परम्परा से चले आने वाले श्वेत निर्मल क्षत्र, स्वर्ण निर्मित सौ घोड़े, स्वर्ण मण्डित सींगों वाले साँड सिंह की अक्षुण्ण त्वचा आदि का शीघ्र प्रबन्ध करें। सुसज्जित वेदी का निर्माण करें। इस प्रकार के जितने भी आवश्यक निर्देश थे, वे उन्होंने सम्बंधित अधिकारियों को दिये।
इसके पश्चात् राजा दशरथ ने प्रधानमन्त्री सुमन्त से कहा, "आप जाकर राम को शीघ्र लिवा लाइये।" आज्ञा पाते ही सुमन्त रामचन्द्र जी को रथ में अपने साथ बिठा कर लिवा लाये। राम ने बड़ी श्रद्धा के साथ पिता को प्रणाम किया और उपस्थित जनों का यथोचित अभिवादन किया। राजा दशरथ ने राम को अपने निकट बिठाकर मुस्कुराते हुये कहा, "हे राम! तुमने अपने गुणों से समस्त प्रजाजनों को प्रसन्न कर लिया है। इसलिये मैंने निश्चय किया है किस मैं कल तुम्हारा राजतिलक दर दूँगा। इस विषय में मैंने ब्राह्मणों, मन्त्रियों, विद्वानों एवं समस्त राजा-महाराजाओं की भी सम्मति प्राप्त कर लिया है। इस अवसर पर मैं तम्हें अपने अनुभव से प्राप्त कुछ बातें बताना चाहता हूँ। सबसे पहली बात तो यह है कि तुम कभी विनयशीलता का त्याग मत करना। इन्द्रियों को सदा अपने वश में रखना। अपने मन्त्रियों के हृदय में उठने वाले विचारों को प्रत्यक्ष रूप से जानने और समझने का प्रयास करना। प्रजा को सदैव सन्तुष्ट और सुखी रखने का प्रयास करना। यदि मेरी कही इन बातों का तुम अनुसरण करोगे तो तुम सब प्रकार की विपत्तियों से सुरक्षित रहोगे और लोकप्रियता अर्जित करते हुये निष्कंटक राजकाज चला सकोगे। यह सिद्धांत की बात है कि जो राजा अपनी प्रजा को प्रसन्न और सुखी रखने के लिये सदैव प्रयत्नशील रहता है, उसका संसार में कोई शत्रु नहीं होता। यदि कोई व्यक्ति स्वार्थवश उसका अनिष्ट करना भी चाहे तो भी वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सकता क्योंकि ऐसे राजा को अपनी प्रजा एवं मित्रों का हार्दिक समर्थन प्राप्त होता है।"
पिता से यह उपयोगी शिक्षा प्राप्त करके राम ने स्वयं को धन्य माना और उन्होंने अपने पिता को आश्वासन दिया कि वे अक्षरशः इन बातों का पालन करेंगे। उधर दास-दासियों.राजा के मुख से राम का राजतिलक करने की बात सुनी तो वे प्रसन्नता से उछलते हुये महारानी कौशल्या के पास जाकर उन्हें यह शुभ संवाद सुनाया जिसे सुनकर उनका रोम-रोम पुलकित हो गया। इस शुभ समाचार के सुनाने वालों को उन्होंने बहुत सा स्वर्ण, वस्त्राभूषण देकर मालामाल कर दिया।
Posted by Udit bhargava at 7/23/2010 07:50:00 am 0 comments
22 जुलाई 2010
रामायण - राम जन्म ( Ramayana - Rama birth )
एक दिन महाराज दशरथ को दर्पण में अपने कृष्णवर्ण केशों के मध्य एक श्वेत रंग का बाल दिखाई पड़ा और वे विचार करने लगे कि अब यौवन मेरा साथ छोड़ रहा है और अब तक मेरे वंश को आगे बढ़ाने वाला इस राज्य का उत्तराधिकारी मेरा पुत्र उत्पन्न नहीं हुआ है। उन्होंने पुत्र प्राप्ति हेतु पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने का संकल्प किया। उन्होंने अपने कुलगुरु वशिष्ठ जी को बुलाकर अपना मन्तव्य बताया और यज्ञ के लिये उचित विधान बताने का अनुरोध किया।
राजा दशरथ के विचारों को सर्वथा उचित और युक्ति संगत समझ कर गुरु वशिष्ठ जी ने कहा - "राजन्! मुझे विश्वास है कि पुत्रयेष्ठि यज्ञ करने से आपकी मनोकामना अवश्य पूर्ण होगी। इसके लिये आपको अश्वमेघ यज्ञ करना होगा। आप शीघ्रातिशीघ्र यज्ञ के सामग्रियों की व्यवस्था करके एक सुन्दर श्यामकर्ण घोड़ा छोड़िये और सरयू नदी के उत्तरी तट पर यज्ञभूमि का निर्माण करवाइये। मन्त्रियों और सेवकों को सारी व्यवस्था करने की आज्ञा दे कर महाराज दशरथ ने रनिवास में जा कर अपनी तीनों रानियों कौशल्या, कैकेयी और सुमित्रा को यह शुभ समाचार सुनाया और उन सबसे यज्ञ की दीक्षा लेने के लिये तैयार रहने का आग्रह किया। महाराज के वचनों को सुन कर सभी रानियाँ प्रसन्न हो गईं।
राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न का जन्म
महाराज की आज्ञानुसार यज्ञ भूमिका निर्माण हो गया और श्यामकर्ण घोड़ा चतुरंगिनी सेना के साथ छोड़ दिया गया। सुसज्जित यज्ञशाला अत्यन्त मनोरम था। यज्ञ सम्पन्न कराने के लिये देश देशान्तर से मनस्वी, तपस्वी, विद्वान ऋषि-मुनियों तथा वेदविज्ञ प्रकाण्ड पण्डितों को बुलाया गया। सभी के एकत्रि हो जाने पर महाराज दशरथ अपने गुरु वशिष्ठ जी तथा महाराज के परम मित्र अंग देश के अधिपति लोभपाद के जामाता ऋंग ऋषि के साथ यज्ञ मण्डप में पधारे और विधिवत इस महान यज्ञ का शुभारम्भ हुआ। समिधा की सुगन्ध से सम्पूर्ण वातावरण महकने लगा और वेदों की ऋचाओं का उच्च स्वर में पाठ होने लगा।
यज्ञ के समाप्ति होने पर राजा दशरथ ने समस्त पण्डितों, ब्राह्मणों, ऋषियों आदि को यथोचित धन-धान्य, गौ आदि भेंट कर के सादर विदा किया और यज्ञ के प्रसाद चरा को लेकर अपने महल में जाकर सभी रानियों में प्रसाद वितरित किया। इस प्रसाद को ग्रहण करने पर परमपिता परमात्मा की कृपा से वे सभी रानियाँ गर्भवती हुईं।
कालक्रम चलता रहा और चैत्र मास आ गया। शुक्ल पक्ष की नवमी तिथि को पुनर्वसु नक्षत्र में सूर्य, मंगल शनि, वृहस्पति तथा शुक्र अपने-अपने उच्च स्थानों में विराजमान थे। कर्क लग्न का उदय होते ही महाराज दशरथ की बड़ी रानी कौशल्या के गर्भ से तेजोमय, परम कान्तिवान, अद्भुत सौन्दर्यशाली और श्यामवर्ण वाले शिशु का जन्म हुआ। जो भी उसे देखता ठगा सा रह जाता था। इसके पश्चात् शुभ नक्षत्रों और शुभ घड़ी में महारानी कैकेयी ने पुत्र को जन्म दिया। फिर तीसरी रानी सुमित्रा के गर्भ से दो तेजस्वी पुत्रों का जन्म हुआ। महाराज के चार पुत्रों के जन्म के उल्लास में सम्पूर्ण राज्य में आनन्द मनाया जाने लगा। गन्धर्व गान करने लगे और अप्सरायें नृत्य करने लगीं। आकाश में देवता अपने-अपने विमानों में बैठ कर पुष्प वर्षा करने लगे। राजद्वार पर भाट, चारण, आशीर्वाद देने वाले ब्राह्मणों और याचकों की भीड़ लग गई। महाराज ने उन्मुक्त हस्त से सभी को दान दक्षिणा दी। प्रजा-जनों को धन-धान्य से और दरबारियों को रत्न, आभूषण तथा उपाधियों से पुरष्कृत किया गया। महर्षि वशिष्ठ ने चारों पुत्रों का नामकरण संस्कार कराया तथा उनके नाम रामचन्द्र, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न रखे गये।
रामचन्द्र अपने भाइयों से आयु में बड़े होने के साथ ही साथ गुणों में भी उन से आगे थे एवं प्रजा में अत्यंत लोकप्रिय थे। अपने विलक्षण प्रतिभा से उन्होंने अल्प काल में ही समस्त विषयों में पारंगत हो गये। सभी प्रकार के अस्त्र-शस्त्रों को चलाने में और हाथी, घोड़े एवं सभी प्रकार के वाहनों की सवारी में उन्हें असाधारण निपुणता प्राप्त थी। माता-पिता और गुरुजनों की सेवा में निरन्तर लगे रहते थे। शेष तीन भाई भी उनका अनुसरण करते थे। इन चारों भाइयों में गुरुजनों के प्रति जितनी श्रद्धा भक्ति थी उतना ही उनमें परस्पर प्रेम और सौहार्द था। अपने पुत्रों को देख कर महाराज दशरथ का हृदय गर्व और आनन्द से भर उठता था।
Posted by Udit bhargava at 7/22/2010 07:50:00 am 1 comments
रामायण - वाल्मीकि रामायण भूमिका ( Ramayana - Valmiki Ramayana role )
महर्षि वाल्मीकि का प्रशन सुनकर तीनों लोकों का भ्रमण करने वाले नारद जी ने कहा, "हे मुनिराज! आपने जिन गुणों का वर्णन किया है ऐसे गुणों से युक्त व्यक्ति का इस पृथ्वी तल पर मिलना अत्यंत दुर्लभ है। फिर भी एक अद्भुत गरिमामय व्यक्ति के चरित्र का आपके सामने करता हूँ। उसमें आपके बताये हुये सभी गुण ही नहीं हैं, बल्कि वे गुण भी हैं जिनकी आपने चर्चा नहीं की है और जो जन-साधारण की कल्पना से परे हैं| ऐसी महान विभूति का नाम रामचन्द्र है। उन्होंने वैवस्वत मनु के वंश में महाराजा इक्ष्वाकु के कुल में जन्म लिया है। वे अत्यंत वीर्यवान, तेजस्वी, विद्वान, धैर्यशील, जितेन्द्रिय, बुद्धिमान, सुंदर, पराक्रमी, दुष्टों का दमन करने वाले, युद्ध एवं नीतिकुशल, धर्मात्मा, मर्यादापुरुषोत्तम, प्रजावत्सल, शरणागत को शरण देने वाले, सर्वशास्त्रों के ज्ञाता एवं प्रतिभा सम्पन्न हैं। इस युग में तो उनके जैसा धीर, वीर, बली, विक्रमी, सत्यवक्ता, सदाचारी, गौ-ब्राह्मण-साधु प्रतिपालक, शत्रुओं और कुबुद्धि राक्षसों का विनाश करने वाला अभूतपूर्व त्यागी, कृपासिन्धु ढूंढने से भी नहीं मिलेगा| देखने में वे अत्यंत सुंदर, कामदेव को भी लज्जित करने वाले, किशलय से भी कोमल और समरभूमि में वज्र से भी कठोर हैं। कवि की सभी उपमायें उनके व्यक्तित्व के सामने हेय प्रतीत होती हैं। जैसा उनका हृदय निर्मल है, चरित्र उज्जवल है, वैसा ही उनका शरीर निर्मल एवं कांतिमय है। उनका हृदय समुद्र से भी अधिक उदार और विचार नगराज हिमालय से भी महान है।"
नारद जी द्वारा श्री रामचन्द्र जी का यह विशद वर्णन सुनकर वाल्मीकि जी बहुत अधिक प्रभावित हुये। उन्होंने नारद जी से प्रार्थना की, "मुनिराज! कृपा करके मुझे ऐसे महान पुरुष का सम्पूर्ण चरित्र एवं क्रिया-कलाप विस्तारपूर्वक सुनाइये। उन्हें सुनकर मैं अपना जीवन धन्य कारना चाहता हूँ।" उनकी प्रार्थना को स्वीकार कर के नारद मुनि ने राम की सम्पूर्ण कथा महर्षि वाल्मीकि को संक्षेप में कह सुनाई। उन्होंने बताया कि किस प्रकार अयोध्या के राजा दशरथ के चार पुत्र राम, भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न हुये, जिनमें से राम और लक्ष्मण को मुनि विश्वामित्र यज्ञ की रक्षा के लिये अपने साथ आश्रम में ले गये। फिर वे राजा जनक द्वारा आयोजित शिव धनुष यज्ञ एवं सीता स्वयंवर में भाग लेने के लिये जनकपुरी गये। सीता से विवाह कर के जब वे अयोध्या लौटे तो प्रजाहित की भावना से राजा दशरथ ने उन्हें युवराज पद देना चाहा। तभी राम की सौतेली माँ कैकेयी ने वर माँग कर राम को वनवास दिला दिया। सीता और लक्ष्मण भी उनके साथ गये। पुत्र वियोग में महाराजा दशरथ ने अपने प्राण त्याग दिये। श्रंगवेरपुर में निवास कर राम राक्षसों का विनाश करते हुये आगे बढ़े। मार्ग में जिस प्रकार सीता का रावण द्वारा हरण हुआ, हनुमान सुग्रीव आदि से मिलाप हुआ। इसके पश्चात् जिस प्रकार राम ने बालि का वध किया और लंकापति रावण का कुल सहित नाश करके उसके भाई विभीषण को लंका का राज्य सौंपा तथा सीता सहित अयोध्या लौट आये। यह सारी राम कथा उन्होंने संक्षेप में कह सुनाई| इस कथा को सुन कर ऋषि वाल्मीकि अत्यंत प्रसन्न हुये। उन्होंने अति आदर सत्कार और पूजा करके नारद जी को विदा किया।
महर्षि नारद के चले जाने के पश्चात् वाल्मीकि जी शिष्य मंडली के साथ भ्रमण करते हुये तमसा नदी के तट पर पहुँचे| वहाँ पर वे प्राकृतिक दृश्यों का आनंद ले रहे थे कि एक निर्दयी व्याघ्र ने कामरत क्रौंच पक्षी के एक जोड़ में से नर पक्षी को मार गिराया तथा नर पक्षी के वियोग में मादा पक्षी क्रन्दन करने लगी। इस दृश्य ने वाल्मीकि के हृदय को व्यथा और करुणा से परिपूर्ण कर दिया। अनायास ही उनके मुख से व्याघ्र के लिये ये शाप निकल गया - अरे बहेलिये, तू ने काममोहित मैथुनरत क्रौंच पक्षी को मारा है। जा तुझे कभी भी प्रतिष्ठा की प्राप्ति नहीं हो पायेगी।
इस घटना के कारण वाल्मीकि का हृदय अशांत रहने लगा। इसी अशांत अवस्था के मध्य एक दिन उनके आश्रम में ब्रह्मा जी पधारे। महर्षि वाल्मीकि ने ब्रह्मा जी की अभ्यर्थना तथा समुचित आदर सत्कार करने के पश्चात् अपनी अशांति के विषय में उन्हें बताया। इस पर ब्रह्मा जी ने कहा, "हे मुनिराज! आप श्री राम के चरित्र का काव्यमय गुणगान करके ही इस अशांति को दूर कर सकते हैं। आपके इस काव्य से न केवल आपकी अशांति ही दूर होगी वरन् वह काव्य समस्त संसार के लिये भी हितकारी होगा। इस कार्य को पूर्ण करने के लिये मेरा आशीर्वाद सदैव आपके साथ रहेगा।"
ब्रह्मा जी के इस प्रस्ताव को गम्भीरता पूर्वक स्वीकार कर उनके चले जाने के पश्चात् दत्तचित्त होकर वाल्मीकि जी राम का चरित्र लेखन में व्यस्त हो गये।
Posted by Udit bhargava at 7/22/2010 07:46:00 am 0 comments
गाजर गुणकारी ( Healthy carrot )
क्या आप जानते हैं गाजर हमारे लिए कितनी उपयोगी है। यह गुणों का खजाना है। इसमें छिपे हैं कई फायदेमंद गुण। जानिए गाजर के गुणकारी पहलू-
गाजर को उसके प्राकृतिक रूप यानी कच्चा खाना लाभदायक होता है। भीतर का पीलापन भाग नहीं खाना चाहिए। क्योंकि, वह अत्यघिक गरम होता है। इससे छाती में जलन होती है।
- गाजर ह्दय के लिए लाभकारी, रक्तको शुद्ध करने वाली, वातदोषनाशक, पुष्टिवर्द्धक तथा दिमाग और नस-नाडि़यों के लिए बलवर्घक, बवासीर, पेट के रोगों, सूजन, पथरी तथा दुर्बलता का नाश करने वाली है।
- गाजर के बीज गरम होते हैं। अत: गर्भवती महिलाओं को उनका प्रयोग नहीं करना चाहिए।
- कैल्शियम और केरोटीन की प्रचुर मात्रा होने के कारण छोटे बच्चों के लिए यह उत्तम आहार है। गाजर से आंतों के हानिकारक कीड़े नष्ट हो जाते हैं।
- इसमें विटामिन ए काफी मात्रा में पाया जाता है। यह नेत्र रोगों में लाभदायक है।
- गाजर रक्तको शुद्ध करने वाली होती है। 10-15 दिन गाजर का रस पीने से रक्तविकार, गांठ, सूजन और त्वचा के रोगों में लाभ मिलता है इसमें लौहतत्व भी अत्यघिक मात्रा में पाया जाता है। गाजर खूब चबा-चबा कर खाने से दांत भी मजबूत, स्वच्छ और चमकीले होते हैं। मसूढ़े मजबूत होते हैं।
- रोजाना गाजर का रस पीने से दिमागी कमजोरी दूर होती है।
- गाजर को कद्दूकस करके नमक मिलाकर खाने से खाज-खुजली में फायदा होता है।
- गाजर के रस में नमक, घनिया पत्ती, जीरा, काली मिर्च, नीबू का रस डालकर पीने से पाचन संबंघी गड़बड़ी दूर होती है।
- ह्दय की कमजोरी अथवा घड़कनें बढ़ जाने पर गाजर को भूनकर खाने पर लाभ होता है।
- गर्मी में गाजर का मुरब्बा दिमाग के लिए फायदेमंद होता है।
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Posted by Udit bhargava at 7/22/2010 06:26:00 am 0 comments
21 जुलाई 2010
रामायण - वाल्मीकि का संक्षिप्त परिचय ( Ramayana - Valmiki A Brief Introduction )
महाकाव्य वाल्मीकि रामायण |
किंवदन्ती है कि बाल्यावस्था में ही रत्नाकर को एक निःसंतान भीलनी ने चुरा लिया और प्रेमपूर्वक उनका पालन-पोषण किया| जिस वन प्रदेश में उस भीलनी का निवास था वहाँ का भील समुदाय असभ्य था और वन्य प्राणियों का आखेट एवं दस्युकर्म ही उनके लिये जीवन यापन का मुख्य साधन था| हत्या जैसा जघन्य अपराध उनके लिये सामान्य बात थी| उन्हीं क्रूर भीलों की संगति में रत्नाकर पले, बढ़े, और दस्युकर्म में लिप्त हो गये|
युवा हो जाने पर रत्नाकर का विवाह उसी समुदाय की एक भीलनी से कर दिया गया और ग्राहस्थ जीवन में प्रवेश के बाद वे अनेकों संतानों के पिता बन गये| परिवार में वृद्धि के कारण अधिक धनोपार्जन करने के लिये वे और भी अधिक पापकर्म करने लगे|
एक दिन साधुओं की एक मंडली उस वन प्रदेश से गुजर रही थी| रत्नाकर ने उनसे धन की मांग की और धन न देने की स्थिति में हत्या कर देने की धमकी भी दी| साधुओं के यह पूछने पर कि वह ये पापकर्म किसलिये करता है रत्नाकर ने बताया कि परिवार के लिये| इस पर साधुओं के गुरु ने पूछा कि जिस तरह तुम्हारे पापकर्म से प्राप्त धन का उपभोग तुम्हारे समस्त परिजन करते हैं क्या उसी तरह तुम्हारे पापकर्मों के दण्ड में भी वे भागीदार होंगे? रत्नाकर ने कहा कि न तो मुझे पता है और न ही कभी मैने इस विषय में सोचा है|
साधुओं के गुरु ने कहा कि जाकर अपने परिवार के लोगों से पूछ कर आवो और यदि वे तुम्हारे पापकर्म के दण्ड के भागीदार होने के लिये तैयार हैं तो अवश्य लूटमार करते रहना वरना इस कार्य को छोड़ देना, यदि तुम्हें संदेह है कि हम लोग भाग जायेंगे तो हमें वृक्षों से बांधकर चले जाओ|
साधुओं को पेड़ों से बांधकर रत्नाकर अपने परिजनों के पास पहुँचे| पत्नी, संतान, माता-पिता आदि में से कोई भी उनके पापकर्म में के फल में भागीदार होने के लिये तैयार न था, सभी का कहना था कि भला किसी एक के कर्म का फल कोई दूसरा कैसे भोग सकता है!
रत्नाकर को अपने परिजनों की बातें सुनकर बहुत दुख हुआ और उन साधुओं से क्षमा मांग कर उन्हें छोड़ दिया| साधुओं से रत्नाकर ने अपने पापों से उद्धार का उपाय भी पूछा| साधुओं ने उन्हें तमसा नदी के तट पर जाकर 'राम-राम' का जाप करने का परामर्श दिया| रत्नाकर ने वैसा ही किया परंतु वे राम शब्द को भूल जाने के कारण 'मरा-मरा' का जाप करते हुये अखंड तपस्या में लीन हो गये| तपस्या के फलस्वरूप उन्हें दिव्य ज्ञान की प्राप्ति हुई और वे वाल्मीकि के नाम से प्रसिद्ध हुये|
आगे पढ़ें :-
रामायण - वाल्मीकि रामायण भूमिका
रामायण - राम जन्म
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Posted by Udit bhargava at 7/21/2010 09:58:00 pm 0 comments
रामायण - बालकान्ड - महर्षि विश्वामित्र का आगमन ( Ramayana - Balkaned - Arrival of Maharishi Vishwamitra )
कुशलक्षेम पूछने के पश्चात् राजा दशरथ ने सनम्र वाणी में ऋषि विश्वामित्र से कहा, "हे मुनिश्रेष्ठ! आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हुआ तथा आपके चरणों की पवित्र धूलि से यह राजदरबार और सम्पूर्ण अयोध्यापुरी धन्य हो गई। अब कृपा करके आप अपने पधारने का प्रयोजन कहिये। आपकी किसी भी प्रकार की सेवा करके मैं स्वयं को अत्यंत भाग्यशाली समझूँगा।"
राजा के विनयपूर्ण वचनों को सुनकर मुनि विश्वामित्र बोले, "हे राजन्! आपने अपने कुल की मर्यादा के अनुरूप ही वचन कहे हैं। इक्ष्वाकु वंश के राजाओं की श्रद्धा भक्ति गौ, ब्राह्मण और ऋषि-मुनियों के प्रति सदा से ही रही है। मैं आपके पास एक विशेष प्रयोजन से आया हूँ या फिर समझिये कुछ माँगने के लिये आया हूँ। यदि आप मेरी इच्छित वस्तु मुझे देने का वचन दें तो मैं अपनी माँग आपके सामने प्रस्तुत करू। आप के वचन न देने की दशा में मैं बिना कुछ माँगे ही वापस चला जाऊँगा।"
महाराज दशरथ ने कहा, "हे ब्रह्मर्षि! आप अपनी माँग निःसंकोच रखें। समस्त संसार जानता है कि रघुकुल के राजाओं का वचन ही उनकी प्रतिज्ञा होती है। आपके माँगने पर मैं अपना शीश काट कर भी आपके चरणों में रख सकता हूँ।" उनके इन वचनों से आश्वस्त होकर ऋषि विश्वामित्र बोले, "राजन्! मैं अपने आश्रम में एक यज्ञ कर रहा हूँ। इस यज्ञ के पूर्णाहुति के समय मारीच और सुबाहु नाम के दो राक्षस आकर रक्त, माँस आदि अपवित्र वस्तुएँ यज्ञ वेदी में फेंक देते हैं। इस प्रकार यज्ञ पूर्ण नहीं हो पाता। ऐसा वे अनेक बार कर चुके हैं। मैं उन्हें अपने तेज से श्राप देकर नष्ट भी नहीं कर सकता क्योंकि यज्ञ करते समय क्रोध करना वर्जित है। मैं जानता हूँ कि आप मर्यादा का पालन करने वाले, ऋषि मुनियों के हितैषी एवं प्रजावत्सल राजा हैं। मैं आपसे आपके ज्येष्ठ पुत्र राम को माँगने के लिये आया हूँ ताकि वह मेरे साथ जाकर राक्षसों से मेरे यज्ञ की रक्षा कर सके और मेरा यज्ञानुष्ठान निर्विघ्न पूरा हो सके। मुझे पता है कि राम आसानी के साथ उन दोनों का संहार कर सकते हैं। अतः केवल दस दिनों के लिये राम को मुझे दे दीजिये। कार्य पूर्ण होते ही मैं उन्हें सकुशल आप के पास वापस पहुँचा दूँगा।"
विश्वामित्र की बात सुनकर राजा दशरथ विषाद में डूब गये। उन्हें ऐसा लगा कि अभी वे मूर्छित हो जायेंगे। फिर अपने आप को संभाल कर उन्होंने कहा, "मुनिवर! राम अभी बालक है। राक्षसों का सामना करना उसके लिये सम्भव नहीं होगा। आपके यज्ञ की रक्षा करने के लिये मैं स्वयं चलने को तैयार हूँ।" विश्वामित्र बोले, "राजन्! आप तनिक भी संशय न करें कि राम उनका सामना नहीं कर सकते। मैंने अपने योगबल से उनकी शक्तियों का अनुमान लगा लिया है। आप निःशंक होकर राम को मुझे दे दीजिये।"
इस पर राजा दशरथ ने उत्तर दिया, "हे मुनिश्रेष्ठ! राम ने अभी तक किसी राक्षस के माया प्रपंचों को नहीं देखा है और उसे इस प्रकार के युद्ध का अनुभव भी नहीं है। जब से उसने जन्म लिया है, मैंने उसे अपनी आँखों के सामने से कभी ओझल भी नहीं किया है। उसके वियोग से मेरे प्राण निकल जावेंगे। आपसे अनुरोध है कि कृपा करके मुझे ससैन्य चलने की आज्ञा दें।"
विश्वामित्र ने पुत्रमोह से ग्रसित होकर राजा दशरथ को अपनी प्रतिज्ञा से विचलित होते देखा तो वे आवेश में आ गये। उन्होंने कहा, "राजन्! मुझे नहीं पता था कि रघुकुल में अब प्रतिज्ञा पालन करने की परम्परा समाप्त हो गई है। यदि पता होता तो मैं कदापि नहीं आता। लो मैं अब चला जाता हूँ।" अपनी बात समाप्त करते करते उनका मुख क्रोध से लाल हो गया।
विश्वामित्र को इस प्रकार क्रुद्ध होते देख कर दरबारी एवं मन्त्रीगण भयभीत हो गये और किसी प्रकार के अनिष्ट की कल्पना से वे काँप उठे। गुरु वशिष्ठ ने राजा को समझाया, "हे राजन्! पुत्र के मोह में ग्रसित होकर रघुकुल की मर्यादा, प्रतिज्ञा पालन और सत्यनिष्ठा को कलंकित मत कीजिये। मैं आपको परामर्श देता हूँ कि आप राम के बालक होने की बात को भूल कर एवं निःशंक होकर राम को मुनिराज के साथ भेज दीजिये। महामुनि अत्यन्त विद्वान, नीतिनिपुण और अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाता हैं। मुनिवर के साथ जाने से राम का किसी प्रकार से भी अहित नहीं हो सकता उल्टे वे इनके साथ रह कर शस्त्र और शास्त्र विद्याओं में और भी निपुण हो जायेंगे तथा उनका कल्याण ही होगा।"
गुरु वशिष्ठ के वचनों से आश्वस्त होकर राजा दशरथ ने राम को बुला भेजा। राम के साथ साथ लक्ष्मण भी वहाँ चले आये। राजा दशरथ ने राम को ऋषि विश्वामित्र के साथ जाने की आज्ञा दी। पिता की आज्ञा शिरोधार्य करके राम के मुनिवर के साथ जाने के लिये तैयार हो जाने पर लक्ष्मण ने भी ऋषि विश्वामित्र से साथ चलने के लिये प्रार्थना की और अपने पिता से भी राम के साथ जाने के लिये अनुमति माँगी। अनुमति मिल जाने पर राम और लक्ष्मण सभी गुरुजनों से आशीर्वाद ले कर ऋषि विश्वामित्र के साथ चल पड़े।
समस्त अयोध्यावासियों ने देख कि मन्द धीर गति से जाते हुये मुनिश्रेष्ठ विश्वामित्र के पीछे पीछे कंधों पर धनुष और तरकस में बाण रखे दोनों भाई राम और लक्ष्मण ऐसे लग रहे थे मानों ब्रह्मा जी के पीछे दोनों अश्विनी कुमार चले जा रहें हों। अद्भुत् कांति से युक्त दोनों भाइयों के, गोह की त्वचा से बने दस्ताने पहने हुये, हाथों में धनुष और कटि में तीक्ष्ण धार वाली कृपाणें शोभायमान हो रहीं थीं। ऐसा प्रतीत होता था मानो स्वयं शौर्य ही शरीर धारण करके चले जा रहे हों।
लता विटपों के मध्य से होते हुये छः कोस लम्बा मार्ग पार करके वे पवित्र सरयू नदी के तट पर पहुँचे। मुनि विश्वामित्र ने स्नेहयुक्त मधुर वाणी में कहा, "हे वत्स! अब तुम लोग सरयू के पवित्र जल से आचमन स्नानादि करके अपनी थकान दूर कर लो, फिर मैं तुम्हें प्रशिक्षण दूँगा। सर्वप्रथम मैं तुम्हें बला और अतिबला नामक विद्याएँ सिखाऊँगा।" इन विद्याओं के विषय में राम के द्वारा जिज्ञासा प्रकट करने पर ऋषि विश्वामित्र ने बताया, "ये दोनों ही विद्याएँ असाधारण हैं। इन विद्याओं में पारंगत व्यक्तियों की गिनती संसार के श्रेष्ठ पुरुषों में होती है। विद्वानों ने इन्हें समस्त विद्याओं की जननी बताया है। इन विद्याओं को प्राप्त करके तुम भूख और प्यास पर विजय पा जाओगे। इन तेजोमय विद्याओं की सृष्टि स्वयं ब्रह्मा जी ने की है। इन विद्याओं को पाने का अधिकारी समझ कर मैं तुम्हें इन्हें प्रदान कर रहा हूँ।"
राम और लक्ष्मण के स्नानादि से निवृत होने के पश्चात् विश्वामित्र जी ने उन्हें इन विद्याओं की दीक्षा दी। इन विद्याओं के प्राप्त हो जाने पर उनके मुख मण्डल पर अद्भुत् कान्ति आ गई। तीनों ने सरयू तट पर ही विश्राम किया। गुरु की सेवा करने के पश्चात् दोनों भाई तृण शैयाओं पर सो गये।
आगे पढ़ें :-
कामदेव का आश्रम
ताड़का वध
अलभ्य अस्त्रों का दान
विश्वामित्र का आश्रम
मारीच और सुबाहु का वध
धनुष यज्ञ के लिये प्रस्थान
गंगा जन्म की कथा -1
गंगा जन्म की कथा -2
जनकपुरी में आगमन
अहिल्या की कथा
ऋषि विश्वामित्र का पूर्व चरित्र (1)
ऋषि विश्वामित्र का पूर्व चरित्र (2)
त्रिशंकु की स्वर्गयात्रा
विश्वामित्र को ब्राह्मणत्व की प्राप्ति
पिनाक की कथा
धनुष यज्ञ
राम द्वारा धनुष भंग
अयोध्या में तैयारियाँ
विवाहपूर्व की औपचारिकताएँ
विवाह
परशुराम जी का आगमन
अयोध्या में आगमन
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Posted by Udit bhargava at 7/21/2010 09:54:00 pm 0 comments
रामायण - अयोध्याकाण्ड - अयोध्याकाण्ड आरम्भ ( Ramayana - Ayodhyakand - Ayodhyakand Start )
भरत अपने भाई शत्रुघ्न के साथ कैकेय पहुँच कर आनन्दपूर्वक अपने दिन बिताने लगे। उनके मामा अश्वपति उनसे उतना ही प्रेम करते थे जितना कि उनके पिता राजा दशरथ। इस स्नेह के कारण उन्हें ऐसा प्रतीत होता था मानो वे ननिहाल में न होकर अपने ही घर अयोध्या में हों। इतना होने पर भी उन्हें समय-समय अपने पिता का स्मरण हो आता था और वे उनके दर्शनों के लिये व्याकुल हो उठते थे। यही दशा राजा दशरथ की भी थी। यद्यपि राम और लक्ष्मण उनके पास रहते हुये सदैव उनकी सेवा में संलग्न रहते थे, फिर भी वे भरत और शत्रुघ्न से मिलने के लिये अनेक बार आतुर हो उठते थे। परन्तु राम और लक्ष्मण को देखकर वे अपने मन को सन्तोष कर लेते थे।
राम भी अपने सद्बुणों का निरन्तर विस्तार कर रहे थे। अबवे पहले की अपेक्षा अधिक निरभिमान पराक्रम का परिचय दे रहे थे। राजकाज से समय निकाल कर आध्यात्मिक स्वाध्याय करते थे। वेदों का सांगोपांग अध्ययन करना और सूत्रों के रहस्यों का उद्घाटन करके उन पर मनन करना उनका स्वभाव बन गया था। दीनों पर दया और दुष्टों का दमन करने के लिये सदैव तत्पर रहते थे। जितने वे दयालु थे, उससे भी कई गुना कठोर वे आततायी को दण्ड देने में थे। मन्त्रियों की नीतियुक्त बातें ही नहीं सुनते थे बल्कि अपनी ओर से भी उन्हें तर्क सम्मत अकाट्य युक्तियाँ प्रस्तुत करके परामर्श दिया करते थे। युद्धों में अनेक बार उन्होंने सेनापति का दायित्व संभालकर दुर्द्धुर्ष शत्रुओं को अपने पराक्रम से पराजित किया था। जहाँ-जहाँ भी वे भ्रमण और देशाटन के लिये गये वहाँ के प्रचलित रीति-रिवाजों, सांस्कृतिक धारणाओं का अध्ययन किया, उन्हें समझा और उनको यथोचित सम्मान दिया। उनके क्रिया कलापों को देख कर लोगों को विश्वास हो गया कि रामचन्द्र क्षमा नें पृथ्वी के समान, बुद्धि-विवेक में वृह्पति के समान और शक्ति में साक्षत् देवताओं के अधिपति महाराज इन्द्र के समान हैं। जब भी राम अयोध्या के सिंहासन को सुशोभित करेंगे, उनका राज्य अपूर्व सुखदायक होगा और वे अपने समय के सर्वाधिक योग्य एवं आदर्श नरेश सिद्ध होंगे। यह बात प्रजा के मस्तिष्क में ही नहीं स्वयं राजा दशरथ के मस्तिष्क में भी थी।
राजा दशरथ अब शीघ्रातिशीघ्र राम का राज्याभिषेक कर देना चाहते थे। उन्होंने मन्त्रियों को बुला कर कहा, "हे मन्त्रिगण! अब मैं वृद्ध हो चला हूँ और रामचन्द्र राजसिंहासन पर बैठने के योग्य हो गये हैं। मेरी प्रबल इच्छा है कि शीघ्रातिशीघ्र राम का राज्याभिषक कर दूँ। मेरे इस विचार पर आप लोगों की सम्मति लेने के लिये ही मैंने आप लोगों को यहाँ पर बुलाया है, कृपया आप सभी अपनी सम्मति दीजिये।" राजा दशरथ के इस प्रस्ताव को सभी मन्त्रियों ने प्रसन्नता पूर्वक मान लिया। शीघ्र ही राज्य भर में राजतिलक की तिथि की घोषणा कर दी गई और देश-देशान्तर के राजाओं को इस शुभ उत्सव में सम्मिलित होने के लिये निमन्त्रण पत्र भेज दिये गये। थोड़े ही दिनों में देश-देश के राजा महाराजा, वनवासी ऋषि-मुनि तथा स्थान-स्थान के विद्वान तथा दर्शगण इस अनुपम उत्सव में भाग लेने के लिये अयोध्या में आकर एकत्रित हो गये। आये हुये सभी अतिथियों का यथोचित स्वागत सत्कार हुआ तथा समस्त सुविधाओं के साथ उनके ठहरने की व्यस्था कर दी गई। निमन्त्रण भेजने का कार्य इतनी उतावली में हुआ कि मन्त्रीगण मिथिला पुरी और महाराज कैकेय के पास निमन्त्रण भेजना ही भूल गये। जब राजतिलक के केवल दो दिन ही रह गये तो मन्त्रियों को इसका ध्यान आया। वे अत्यन्त चिन्तित हो गये और डरते-डरते अपनी भूल के विषय में महाराज दशरथ को बताया। यह सुनकर महाराज को बहुत दुःख हुआ किन्तु अब कर ही क्या सकते थे? सब अतिथि आ गये थे इसलिये राजतिलक की तिथि को टाला भी नहीं जा सकता था। अतएव वे बोले, "अब जो हुआ सो हुआ, परन्तु बात बड़ी अनुचित हुई है। अस्तु वे लोग घर के ही आदमी हैं, उन्हें बाद में सारी स्थिति समझाकर मना लेंगे।"
आगे पढ़ें :-
राजतिलक की तैयारी
कैकेयी कोपभवन में
कैकेयी द्वारा वरों की प्राप्ति
राम का वनवास
माता कौशल्या से विदा
सीता और लक्ष्मण का अनुग्रह
पिता के अन्तिम दर्शन
राम के द्वारा दान
वन के लिये प्रस्थान
तमसा के तट पर
भीलराज गुह
गंगा पार करना
ऋषि भारद्वाज के आश्रम में
चित्रकूट की यात्रा
चित्रकूट में
सुमन्त का अयोध्या लौटना
श्रवण कुमार की कथा
राजा दशरथ की मृत्यु
भरत और शत्रुध्न की वापसी
दशरथ की अन्त्येष्टि और भरत का वनगमन
राम और भरत का मिलाप
महर्षि अत्रि का आश्रम
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Posted by Udit bhargava at 7/21/2010 09:42:00 pm 0 comments
मनुष्य मानव और दिव्य प्राणी दोनों है ( Man is both human and divine beings )
हिंदू धर्म में अनेक तरह की व्याख्याएँ हैं, लेकिन उपनिषदों के अनुसार मनुष्य पशुओं में सबसे बड़ा है। वह एक ऐसा पशु है जिसमें अनश्वर आत्मा का वास है, जिसे संसार द्वारा नष्ट नहीं किया जा सकता। इसलिए मानवता से महान कुछ भी नहीं है। सिख धर्म में तो मनुष्य के शरीर को ईश्वर का निवास स्थान कहा गया है।
बौद्ध और जैन धर्म भी भारत भूमि से विकसित दर्शन की ही शाखाएँ हैं। जैन धर्म कहता है कि मनुष्य को ईश्वर ने बनाया है, वह जिस रूप में भी है, उसकी इच्छा के अनुसार ही बना है। वह देवत्व से थोड़ा ही कम है। ध्यान दीजिए कि जैन दर्शन में भी हिंदू उपनिषदों की तरह मनुष्य योनि को देवत्व के काफी निकट माना गया है।
लेकिन किताब के मुताबिक बौद्ध दर्शन कर्मवादी है। वह ईश्वर की तुलना में मनुष्यता को ज्यादा महत्व देता है। बौद्ध धर्म कहता है कि मनुष्य अपने ही विचारों के अनुरूप बनता है। जो कुछ भी वह है, उसके सभी आदर्श, पसंद और नापसंद, उसका अपना अहम उसके अपने विचारों का ही परिणाम हैं। इसलिए यदि हम अपने जीवन और अपनी परिस्थितियों में बदलाव चाहते हैं तो हमें पहले अपने आप को ही बदलना होगा।
किताब में इस्लाम और सिख मान्यताएँ भी संकलित हैं। इस्लाम कहता है कि ईश्वर ने पृथ्वी पर अपने सिंहासन पर बैठने के लिए मनुष्य का निर्माण किया। मनुष्य पृथ्वी पर भगवान का वायसराय है। ईश्वर ने हमारे ही लिए यह जमीन, पेड़-पौधे और ये दिन-रात बनाए हैं। हमारे ही लिए मीठे फल और ठंडे चश्मे पैदा किए हैं।
ईसाई धर्म मानता है कि मनुष्य फरिश्तों से थोड़ा ही कम है। वह सभी मूल्यों का माप है। ध्यान दें कि इस्लाम की तरह ईसाई धर्म भी यही कहता है कि मनुष्य के लिए ही इस संसार की उत्पत्ति हुई है। वे भी कहते हैं कि उसी के लिए ईसा मसीह पृथ्वी पर आए और सूली पर चढ़े। मनुष्य पृथ्वी पर ईश्वर का कारिन्दा है। यदि मनुष्य असफल होता है तो सब कुछ असफल हो जाता है।
भारत में पारसी धर्म का पदार्पण बहुत पहले हो चुका था। संभवत: इस वजह से भी उसके दर्शन का हिंदू धर्म से एक साम्य नजर आता है। पारसी धर्म मानता है कि ज्ञानी पुरुष (ईश्वर) ने मनुष्य को अपने जैसा ही बनाया। शरीर में बंद मनुष्य का मस्तिष्क दिव्यता से मिला है। इसलिए मनुष्य को केवल अच्छाई पर चलना चाहिए और जो कुछ भी बुरा है उससे दूर रहना चाहिए।
कन्फ्युशियस का कोई धर्म नहीं था, वे एक दार्शनिक विचारक थे। लेकिन वे कहते थे कि ईश्वर ने मनुष्य को अच्छा बनाया। उसकी मूल प्रकृति अच्छी है, परन्तु बहुत से लोग इस अच्छाई से दूर हट जाते हैं। मनुष्य की सांसारिकता उसे नीचे की ओर खींच कर ले जाती है और भगवान से दूर कर देती है। इसलिए जो अपने अंदर विद्यमान ईश्वरीय तत्व का अनुसरण करते हैं, वे महान हैं, और जो सांसारिक तत्व का अनुसरण करते हैं, वे निकृष्ट हैं।
कन्फ्युशियस की तरह यहूदी धर्माचार्य भी यही मानते हैं कि अधिकांश व्यक्ति सांसारिक सुखों में लिप्त रहते हैं, इसलिए वे मनुष्य के लिए संभव नैतिक ऊंचाइयों तक नहीं पहुंच पाते। अहंकार महानता का बड़ा शत्रु है और वह क्रोध तथा लालच की ही तरह खतरनाक है।
इस दिव्यता की बात ताओ ने भी की है। ताओ धर्म कहता है कि मनुष्य मानव और दिव्य प्राणी दोनों है। उसके अंदर की दिव्यता अनन्त और अनमोल है। मनुष्य की मृत्यु हो जाती है, परंतु दिव्यता सदैव रहती है। उसमें अच्छाई ईश्वर से आती है।
Posted by Udit bhargava at 7/21/2010 08:06:00 am 0 comments
शिव कौन हैं और उनसे सम्बन्धित चिन्हों का क्या अर्थ है? ( Who is Shiva and their associated markings mean? )
शिव भारतीय धर्म, संस्कृति, दर्शन ज्ञान को संजीवनी प्रदान करने वाले हैं। इसी कारण अनादि काल से भारतीय धर्म साधना में निराकार रूप में शिवलिंग की व साकार रूप में शिवमूर्ति की पूजा होती है। शिवलिंग को सृष्टि की सर्वव्यापकता का प्रतीक माना जाता है। भारत में भगवान शिव के अनेक ज्योतिलिंग सोमनाथ, विश्वनाथ, त्र्यम्बकेश्वर, वैधनाथस नागेश्वर, रामेश्वर हैं। ये देश के विभिन्न हिस्सों उत्तर, दक्षिण, पूर्व, पश्चिम में स्थित हैं, जो महादेव की व्यापकता को प्रकट करते हैं शिव को उदार ह्रदय अर्थात् भोले भंडारी कहा जाता है। कहते हैं ये थोङी सी पूजा-अर्चना से ही प्रसन्न हो जाते हैं। अतः इनके भक्तों की संख्या भारत ही नहीं विदेशों तक फैली है। यूनानी, रोमन, चीनी, जापानी संस्कृतियों में भी शिव की पूजा व शिवलिंगों के प्रमाण मिले हैं। भगवान शिव का महामृत्जुंजय मंत्र पृथ्वी के प्रत्येक प्राणी को दीर्घायु, समृद्धि, शांति, सुख प्रदान करता रहा है और चिरकाल तक करता रहेगा। भगवान शिव की महिमा प्रत्येक भारतीय से जूङा है। मानव जाति की उत्पत्ति भी भगवान शिव से मानी जाती है। अतः भगवान शिव के स्वरूप को जानना प्रत्येक मानव के लिए जरूरी है।
जटाएं - शिव को अंतरिक्ष का देवता कहते हैं, अतः आकाश उनकी जटा का स्वरूप है, जटाएं वायुमंडल का प्रतीक हैं।
चंद्र - चंद्रमा मन का प्रतीक है। शिव का मन भोला, निर्मल, पवित्र, सशक्त है, उनका विवेक सदा जाग्रत रहता है। शिव का चंद्रमा उज्जवल है।
त्रिनेत्र - शिव को त्रिलोचन भी कहते हैं। शिव के ये तीन नेत्र सत्व, रज, तम तीन गुणों, भूत, वर्तमान, भविष्य, तीन कालों स्वर्ग, मृत्यु पाताल तीन लोकों का प्रतीक है।
सर्पों का हार - सर्प जैसा क्रूर व हिसंक जीव महाकाल के अधीन है। सर्प तमोगुणी व संहारक वृत्ति का जीव है, जिसे शिव ने अपने अधीन किया है।
त्रिशूल - शिव के हाथ में एक मारक शस्त्र है। त्रिशुल सृष्टि में मानव भौतिक, दैविक, आध्यात्मिक इन तीनों तापों को नष्ट करता है।
डमरू - शिव के एक हाथ में डमरू है जिसे वे तांडव नृत्य करते समय बजाते हैं। डमरू का नाद ही ब्रह्म रुप है।
मुंडमाला - शिव के गले में मुंडमाला है जो इस बात का प्रतीक है कि शिव ने मृत्यु को वश में कर रखा है।
छाल - शिव के शरीर पर व्याघ्र चर्म है, व्याघ्र हिंसा व अंहकार का प्रतीक माना जाता है। इसका अर्थ है कि शिव ने हिंसा व अहंकार का दमन कर उसे अपने नीचे दबा लिया है।
भस्म - शिव के शरीर पर भस्म लगी होती है। शिवलिंग का अभिषेक भी भस्म से करते हैं। भस्म का लेप बताता है कि यह संसार नश्वर है शरीर नश्वरता का प्रतीक है।
वृषभ - शिव का वाहन वृषभ है। वह हमेशा शिव के साथ रहता है। वृषभ का अर्थ है, धर्म महादेव इस चार पैर वाले बैल की सवारी करते है अर्थात् धर्म, अर्थ, काम मोक्ष उनके अधीन है। सार रूप में शिव का रूप विराट और अनंत है, शिव की महिमा अपरम्पार है। ओंकार में ही सारी सृष्टि समायी हुई है।
Posted by Udit bhargava at 7/21/2010 07:59:00 am 0 comments
20 जुलाई 2010
क्या सही क्या गलत ( What right wrong )
व्यक्ति, जितना बुद्धिमान होगा, उतना स्वयं के ढंग से जीना चाहेगा। सिर्फ बुद्धिहीन व्यक्ति पर ऊपर से थोपे गए नियम प्रतिक्रिया, रिएक्शन पैदा नहीं करेंगे। तो, दुनिया जितनी बुद्धिहीन थी, उतनी ऊपर से थोपे गए नियमों के खिलाफ बगावत न थी। जब दुनिया बुद्धिमान होती चली जा रही है, बगावत शुरू हो गई है। सब तरफ नियम तोड़े जा रहे हैं। मनुष्य का बढ़ता हुआ विवेक स्वतंत्रता चाहता है।
स्वतंत्रता का अर्थ स्वच्छंदता नहीं है, लेकिन स्वतंत्रता का अर्थ यह है कि मैं अपने व्यक्तित्व की स्वतंत्रता पूर्ण निर्णय करने की स्वयं व्यवस्था चाहता हूँ, अपनी व्यवस्था चाहता हूँ। तो अनुशासन की पुरानी सारी परंपरा एकदम आकर गड्ढे में खड़ी हो गई है। वह टूटेगी नहीं। उसे आगे नहीं बढ़ाया जा सकता, उसे चलाने की कोशिश नहीं ही करें, क्योंकि जितना हम उसे चलाना चाहेंगे, उतनी ही तीव्रता से मनोप्रेरणा उसे तोड़ने को आतुर हो जाएगी। और उसे तोड़ने की आतुरता बिल्कुल स्वाभाविक, उचित है।
गलत भी नहीं है। तो अब एक नये अनुशासन के विषय में सोचना जरूरी हो गया है, जो व्यक्ति के विवेक के विकास से सहज फलित होता है। एक तो यह नियम है कि दरवाजे से निकलना चाहिए, दीवार से नहीं निकलना चाहिए। यह नियम है। जिस व्यक्ति को यह नियम दिया गया है, उसके विवेक में कहीं भी यह समझ में नहीं आया है कि दीवार से निकलना, सिर तोड़ लेना है। और दरवाजे से निकलने के अतिरिकत कोई मार्ग नहीं है। उसकी समझ में यह बात नहीं आई है। उसके विवेक में यह बात आ जाए तो हमें कहना पड़ेगा कि दरवाजे से निकलो।
वह दरवाजे से निकलेगा। निकलने की यह जो व्यवस्था है उसके भीतर से आएगी, बाहर से नहीं। अब तक शुभ क्या है, अशुभ क्या है, अच्छा क्या है, बुरा क्या है, यह हमने तय कर लिया था, वह हमने सुनिश्चित कर लिया था। उसे मानकर चलना ही सज्जन व्यक्ति का कर्तव्य था। अब यह नहीं हो सकेगा, नहीं हो रहा है, नहीं होना चाहिए।
मैं जो कह रहा हूँ, वह यह है कि एक-एक व्यक्ति के भीतर उतना सोचना, उतना विचार, उतना विवेक जगा सकते हैं। उसे यह दिखाई पड़ सके कि क्या करना ठीक है, और क्या करना गलत है। निश्चित ही अगर विवेक जगेगा, तो करीब-करीब हमारा विवेक एक से उत्तर देगा, लेकिन उन उत्तरों का एक सा होना बाहर से निर्धारित नहीं होगा, भीतर से निर्धारित होगा। प्रत्येक व्यक्ति के विवेक को जगाने की कोशिश की जानी चाहिए और विवेक से जो अनुशासन आएगा, वह शुभ है। फिर सबसे बड़ा फायदा यह है कि विवेक से आए हुए, अनुशासन में व्यक्ति को कभी परतंत्रता नहीं मालूम पड़ती है।
दूसरे के द्वारा लादा गया सिद्धांत परतंत्रता लाता है। और यह भी ध्यान रहे, परतंत्रता के खिलाफ हमारे मन में विद्रोह पैदा होता है। विद्रोह से नियम तोड़े जाते हैं, और अगर व्यक्ति स्वतंत्र हो, अपने ढंग से जीने की कोशिश से अनुशासन आ जाए, तो कभी विद्रोह पैदा नहीं होगा। इस सारी दुनिया में नए बच्चे जो विद्रोह कर रहे हैं, वह उनकी परतंत्रता के खिलाफ है। उन्हें सब ओर से परतंत्रता मालूम पड़ रही है।
मेरी दृष्टि यह है कि अच्छी चीज के साथ परतंत्रता जोड़ना बहुत महँगा काम है। अच्छी चीज के साथ परतंत्रता जोड़ना बहुत खतरनाक बात है। क्योंकि परतंत्रता तोड़ने की आतुरता बढ़ेगी, साथ में अच्छी चीज भी टूटेगी। क्योंकि आपने अच्छी चीज के साथ स्वतंत्रता जोड़ी है। अच्छी चीज के साथ स्वतंत्रता हो ही सकती है क्योंकि अच्छी चीज होने के भीतर स्वतंत्रता का स्वप्न ही अनिवार्य है; अन्यथा हम उसके विवेक को जगा सकते हैं। शिक्षा बढ़ी है, संस्कृति बढ़ी है, सभ्यता बढ़ी है, ज्ञान बढ़ा है। आदमी के विवेक को अब जगाया जा सकता है। अब उसका ऊपर से थोपना अनिवार्य नहीं रह गया है।
मेरा कहना यह है कि विवेक विकसित करने की बात है एक-एक चीज के संबंध में। लंबी प्रक्रिया है। किसी को बँधे-बँधाए नियम देना बहुत सरल है कि झूठ मत बोलो, सत्य बोलना धर्म है। पर नियम देने से कुछ होता है? नियम देने से कुछ भी नहीं होता। पुराना अनुशासन गया, आखिरी साँसें गिन रहा है। और पुराने मस्तिष्क उस अनुशासन को जबरदस्ती रोकने की कोशिश कर रहे हैं। उन्हें लग रहा है कि अगर अनुशासन चला गया, तो क्या होगा? क्योंकि उनका अनुभव यह है कि अनुशासन के रहते भी आदमी अच्छा नहीं था, और अगर अनुशासन चला जाए तो मुश्किल हो जाएगी।
उनका अनुभव यह है कि अनुशासन था, तो भी आदमी अच्छा नहीं था तो अनुशासन नहीं रहेगा, तो आदमी का क्या होगा? उन्हें पता नहीं है कि आदमी के बुरे होने में उनके अनुशासन का नब्बे प्रतिशत हाथ था। गलत अनुशासन था- अज्ञानपूर्ण था, थोपा हुआ था, जबरदस्ती का था।
एक नया अनुशासन पैदा करना पड़ेगा। और वह अनुशासन ऐसा नहीं होगा कि बँधे हुए नियम दे दें। ऐसा होगा कि उसके विवेक को बढ़ाने के मौके दें, और उसके विवेक को बढ़ने दें, और अपने अनुभव बता दें जीवन के, और हट जाएँ रास्ते से बच्चों के। एकदम रास्ते पर खड़े न रहें उनके। सब चीजों में उनके बाँधने की, जंजीरों में कसने की कोशिश न करें। वे जंजीरें तोड़ने को उत्सुक हो गए हैं।
अब जंजीरें बर्दाश्त न करेंगे। अगर भगवान भी जंजीर मालूम पड़ेगा तो टूटेगा, बच नहीं सकता। अब तोड़ने की भी जंजीर बचेगी नहीं, क्योंकि जंजीर के खिलाफ मामला खड़ा हो गया है। अब पूरा जाना होगा, जंजीर बचनी नहीं चाहिए।
लेकिन मनुष्य चेतना के विकास का क्रम है। एक क्रम था जब चेतना इतनी विकसित नहीं थी, नियम थोपे गए थे, सिवाय इसके कोई उपाय नहीं था। अब नियम थोपने की जरूरत नहीं रह गई है। अब नियम बाधा बन गए हैं। अब हमें समझ, अंडरस्टैंडिंग ही बढ़ाने की दिशा में श्रम करना पड़ेगा। तो मैं कहना चाहता हूँ कि समझ, विवेक, एकमात्र अनुशासन है। पूरी प्रक्रिया बिल्कुल अलग होगी। नियम थोपने की प्रक्रिया बिल्कुल अलग थी।, बायोलॉजिकल अपोजिट है, दोनों बिल्कुल विरोधी हैं। खतरे इसमें उठाने पड़ेंगे। खतरे पुरानी प्रक्रिया में भी बहुत उठाए।
सबसे बड़ा खतरा यह उठाया कि आदमी जड़ हो गया। जिसने नियम माना, वह जड़ हो गया, जिसने नियम नहीं माना, वह बर्बाद हो गया। वे दोनों विकल्प बुरे थे। अगर किसी ने पुराना अनुशासन मान लिया तो वह बिल्कुल ईडियाटिक हो गया, जड़ हो गया। उसकी बुद्धि खो गई। और जिसने बुद्धि को बचाने की कोशिश की, उसे नियम तोड़ने पड़े। वह बर्बाद हो गया, वह अपराधी हो गया, वह प्रॉब्लम बन गया, वह समस्या बन गया। दोनों विकास बुरे सिद्ध हुए। जिसने नियम माना वह खराब हुआ; क्योंकि नियम ने उसको जड़ बना दिया। गुलाम बना दिया। और जिसने नियम तोड़ा, वह स्वच्छंद हो गया। नियम से अच्छापन नहीं आया।
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Posted by Udit bhargava at 7/20/2010 09:05:00 pm 0 comments
जैसा खाए अन्न वैसा बने मन ( As the mind became like eating food )
भोजन केवल जिह्वा की स्वाद संतुष्टि का साधन मात्र नहीं है। यह महज उदरपूर्ति का उपक्रम भी नहीं है। यह साधक की साधना का एक अभिन्ना अंग है। सच कहा जाए तो साधक की साधना का प्रथम सोपान ही आहार शुद्धि है। शास्त्रों में जिसे मित आहार कहा गया है, उसका मतलब केवलआहार की अल्पता ही नहीं वरन उसकी पवित्रता और शुचिता है। साधक का मन साधना में तभी लग सकता है, जबकि उसका आहार सात्विक एवं चित्त को एकाग्रता प्रदान करने वाला हो। घंटों एकांत में बैठकर तप करने वाले या ईश्वरोपासना में दीर्घकाल तक रत रहने वाला व्यक्तिअगर यह सोचे कि इतनी लंबी पूजा-तपस्या करने के बाद अब मैं कुछ भी भोजन करूँ और कितनी भी मात्रा में ग्रहण करूँ इससे तपस्या या पूजा पर क्या असर पड़ने वाला है, लेकिन साधक का ऐसा सोचना गलत है। आहार की शुद्धि के बिना साधक की साधना की पूर्णता संभव नहीं है।
मनुष्य का कर्म, आचरण और जीवन उसके द्वारा ग्रहण किए जाने वाले आहार पर निर्भर करता है। न केवल आहार शुद्ध हो अपितु उसे बनाने वाले हाथ, परोसने वाले और उसमें उपयोग लाए जाने वाले पदार्थ तथा आहार जहाँ तैयार किया जा रहा है वहाँ का वातावरण भी शुद्ध होना चाहिए। शास्त्र तो यहाँ तक कहते हैं कि आहार ग्रहण करने के पूर्व उसे ईश्वर को समर्पित किया जाना चाहिए। सच्चे अर्थों में जिसे आप भोजन मानकर ग्रहण करते हैं, वह प्रभु प्रसाद है। उसे उसी रूप में ग्रहण किया जाना चाहिए। हमारे यहाँ अन्ना को देवता माना गया है। अतः उसे जरूरत से ज्यादा इस्तेमाल करना और झूठा छोड़ना दोनों ही गलत है। मनुष्य को मित आहारी बनकर भोजन को प्रभु प्रसाद मानकर ग्रहण करना चाहिए तभी उसमें मनसा, वाचा, कर्मणा, एकरूपता और आचरण में पवित्रता, और उच्चता का गुण विकसित हो सकता है।
Posted by Udit bhargava at 7/20/2010 09:03:00 pm 0 comments
"हिम्मत मत हारो" ( "Do not lose courage" )
एक दिन एक किसान का गधा कुएँ में गिर गया ।वह गधा घंटों ज़ोर -ज़ोर से रोता रहा और किसान सुनता रहा और विचार करता रहा कि उसे क्या करना चाहिऐ और क्या नहीं। अंततः उसने निर्णय लिया कि चूंकि गधा काफी बूढा हो चूका था,अतः उसे बचाने से कोई लाभ होने वाला नहीं था;और इसलिए उसे कुएँ में ही दफना देना चाहिऐ।
किसान ने अपने सभी पड़ोसियों को मदद के लिए बुलाया। सभी ने एक-एक फावड़ा पकड़ा और कुएँ में मिट्टी डालनी शुरू कर दी। जैसे ही गधे कि समझ में आया कि यह क्या हो रहा है ,वह और ज़ोर-ज़ोर से चीख़ चीख़ कर रोने लगा । और फिर ,अचानक वह आश्चर्यजनक रुप से शांत हो गया।
सब लोग चुपचाप कुएँ में मिट्टी डालते रहे। तभी किसान ने कुएँ में झाँका तो वह आश्चर्य से सन्न रह गया। अपनी पीठ पर पड़ने वाले हर फावड़े की मिट्टी के साथ वह गधा एक आश्चर्यजनक हरकत कर रहा था। वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को नीचे गिरा देता था और फिर एक कदम बढ़ाकर उस पर चढ़ जाता था।
जैसे-जैसे किसान तथा उसके पड़ोसी उस पर फावड़ों से मिट्टी गिराते वैसे -वैसे वह हिल-हिल कर उस मिट्टी को गिरा देता और एस सीढी ऊपर चढ़ आता । जल्दी ही सबको आश्चर्यचकित करते हुए वह गधा कुएँ के किनारे पर पहुंच गया और फिर कूदकर बाहर भाग गया।
ध्यान रखो ,तुम्हारे जीवन में भी तुम पर बहुत तरह कि मिट्टी फेंकी जायेगी ,बहुत तरह कि गंदगी तुम पर गिरेगी। जैसे कि ,तुम्हे आगे बढ़ने से रोकने के लिए कोई बेकार में ही तुम्हारी आलोचना करेगा ,कोई तुम्हारी सफलता से ईर्ष्या के कारण तुम्हे बेकार में ही भला बुरा कहेगा । कोई तुमसे आगे निकलने के लिए ऐसे रास्ते अपनाता हुआ दिखेगा जो तुम्हारे आदर्शों के विरुद्ध होंगे। ऐसे में तुम्हे हतोत्साहित होकर कुएँ में ही नहीं पड़े रहना है बल्कि साहस के साथ हिल-हिल कर हर तरह कि गंदगी को गिरा देना है और उससे सीख लेकर,उसे सीढ़ी बनाकर,बिना अपने आदर्शों का त्याग किये अपने कदमों को आगे बढ़ाते जाना है।
अतः याद रखो !जीवन में सदा आगे बढ़ने के लिए
1) नकारात्मक विचारों को उनके विपरीत सकारात्मक विचारों से विस्थापित करते रहो।
2) आलोचनाओं से विचलित न हो बल्कि उन्हें उपयोग में लाकर अपनी उन्नति का मार्ग प्रशस्त करो।
Posted by Udit bhargava at 7/20/2010 08:58:00 pm 0 comments
महाभारत - कर्ण का जन्म ( Mahabharata - Karna's birth )
धृतराष्ट्र, पाण्डु और विदुर के लालन पालन का भार भीष्म के ऊपर था। तीनों पुत्र बड़े होने पर विद्या पढ़ने भेजे गये। धृतराष्ट्र बल विद्या में, पाण्डु धनुर्विद्या में तथा विदुर धर्म और नीति में निपुण हुये। युवा होने पर धृतराष्ट्र अन्धे होने के कारण राज्य के उत्तराधिकारी न बन सके। विदुर दासीपुत्र थे इसलिये पाण्डु को ही हस्तिनापुर का राजा घोषित किया गया। भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधार की राजकुमारी गांधारी से कर दिया। गांधारी को जब ज्ञात हुआ कि उसका पति अन्धा है तो उसने स्वयं अपनी आँखों पर पट्टी बाँध ली।
उन्हीं दिनों यदुवंशी राजा शूरसेन की पोषित कन्या कुन्ती जब सयानी हुई तो पिता ने उसे घर आये हुये महात्माओं के सेवा में लगा दिया। पिता के अतिथिगृह में जितने भी साधु-महात्मा, ऋषि-मुनि आदि आते, कुन्ती उनकी सेवा मन लगा कर किया करती थी। एक बार वहाँ दुर्वासा ऋषि आ पहुँचे। कुन्ती ने उनकी भी मन लगा कर सेवा की। कुन्ती की सेवा से प्रसन्न हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, "पुत्री! मैं तुम्हारी सेवा से अत्यन्त प्रसन्न हुआ हूँ अतः तुझे एक ऐसा मन्त्र देता हूँ जिसके प्रयोग से तू जिस देवता का स्मरण करेगी वह तत्काल तेरे समक्ष प्रकट हो कर तेरी मनोकामना पूर्ण करेगा।" इस प्रकार दुर्वासा ऋषि कुन्ती को मन्त्र प्रदान कर के चले गये।
एक दिन कुन्ती ने उस मन्त्र की सत्यता की जाँच करने के लिये एकान्त स्थान पर बैठ कर उस मन्त्र का जाप करते हुये सूर्यदेव का स्मरण किया। उसी क्षण सूर्यदेव वहा प्रकट हो कर बोले, "देवि! मुझे बताओ कि तुम मुझ से किस वस्तु की अभिलाषा करती हो। मैं तुम्हारी अभिलाषा अवश्य पूर्ण करूँगा।" इस पर कुन्ती ने कहा, "हे देव! मुझे आपसे किसी भी प्रकार की अभिलाषा नहीं है। मैंने तो केवल मन्त्र की सत्यता परखने के लिये ही उसका जाप किया है।" कुन्ती के इन वचनों को सुन कर सूर्यदेव बोले, "हे कुन्ती! मेरा आना व्यर्थ नहीं जा सकता। मैं तुम्हें एक अत्यन्त पराक्रमी तथा दानशील पुत्र प्रदान करता हूँ।" इतना कह कर सूर्यदेव अन्तर्ध्यान हो गये।
कुन्ती ने लज्जावश यह बात किसी से नहीं कह सकी। समय आने पर उसके गर्भ से कवच-कुण्डल धारण किये हुये एक पुत्र उत्पन्न हुआ। कुन्ती ने उसे एक मंजूषा में रख कर रात्रि बेला में गंगा में बहा दिया। वह बालक बहता हुआ उस स्थान पर पहुँचा जहाँ पर धृतराष्ट्र का सारथी अधिरथ अपने अश्व को गंगा नदी में जल पिला रहा था। उसकी दृष्टि कवच-कुण्डल धारी शिशु पर पड़ी। अधिरथ निःसन्तान था इसलिये उसने बालक को अपने छाती से लगा लिया और घर ले जाकर उसे अपने पुत्र के जैसा पालने लगा। उस बालक के कान अति सुन्दर थे इसलिये उसका नाम कर्ण रखा गया।
कालान्तर में कुन्ती का विवाह पाण्डु के साथ हो गया। मद्र देश के राजा ने भी पाण्डु के पराक्रम से प्रभावित होकर अपनी कन्या माद्री का विवाह पाण्डु के साथ कर दिया।
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Posted by Udit bhargava at 7/20/2010 07:30:00 pm 0 comments
19 जुलाई 2010
सूरज के साथ होड़ ( Competing with the sun )
ऐसे असंख्य उत्तम गुणों व शक्तियों के कारण हंसों के प्रधान को लोग राजहंस कहने लगे।
एक दिन राजहंस अपने दल के साथ सरोवर में विहार करके अपने निवास को लौट रहा था। मार्ग में वह काशी राज्य के ऊपर से होकर निकला। पक्षियों के उस विशाल दल को देखने पर ऐसा लगता था, मानो सारे काशी राज्य पर सोने का वितान बिछा दिया गया हो।
काशी के राजा ने बड़े आश्चर्य से उस दल की ओर देखा। उन सभी पक्षियों में तारों के बीच चन्द्रमा के समान शोभायमान राजहंस को देखकर राजा जैसे उस पर मुग्ध हो गये।
काशी नरेश उस राजहंस के राजसी ठाट, तेज आदि राजोचित लक्षणों को देख बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सुन्दर फूल मालाएँ और पुजापा मँगवा कर राजहंस का अभिनन्दन किया।
राजहंस ने राजा का यह अपूर्व आतिथ्य बड़े ही स्नेहपूर्वक स्वीकार किया और सपरिवार कुछ दिन वहीं बिताकर अपने निवास को लौट गया।
उस दिन से राजहंस के प्रति काशी नरेश के मन में स्नेह बढ़ता गया। दिन रात वे उसी के बारे में सोचने लगे। वे पलक पांवड़े बिछाये राजहंस की प्रतीक्षा करते रहते कि न मालूम वह कब किस दिशा से उधर आ जाए।
एक दिन चित्रकूट पर्वत प्रदेश के हंसों में से दो बाल हंस राजहंस के पास आए और बोले, ‘‘राजन! हम दोनों कई दिनों से सूर्य के साथ होड़ लगाने की इच्छा कर रहे हैं।''
इस पर राजहंस ने समझाया- ‘‘अरे बच्चो! सूरज के साथ तुम्हारी दौड़ कैसी! कहाँ सूरज और कहाँ नन्हीं जान तुम! शायद तुम लोग नहीं जानते कि सूर्य की गति क्या है? तुम उन के साथ दौड़ नहीं सकते, इस दौड़ में प्राणों का खतरा भी हो सकता है! अज्ञानता वश तुम लोगों ने यह निर्णय कर लिया होगा। इसलिए तुम दोनों अपना यह कुविचार छोड़ दो।''
पर उन बालहंसों को हित की ये बातें अच्छी न लगीं। कुछ दिनों के बाद फिर उन बालहंसों ने राजहंस के पास आकर सूर्य के साथ उड़ने की अनुमति माँगी। इस बार भी राजहंस ने उन्हें मना कर दिया। फिर भी छोटे हंसों ने अपने विचार को नहीं त्यागा। कुछ दिनों के बाद तीसरी बार अनुमति माँगी। इस बार भी राजहंस ने स्वीकृति नहीं दी।
आखिर अपनी असमर्थता से अनजान हंस के वे दोनों बच्चे अपने नेता की स्वीकृति के बिना ही सूरज के साथ दौड़ लगाने के लिए युगन्धर पर्वत की चोटी पर पहुँचे। यह चोटी इतनी ऊँची थी, मानो आसमान से बातें कर रही हो।
इधर राजहंस ने अपने परिवार के सदस्यों की गिनती की तो पाया कि उन में दो हंसों की कमी है।
असली बात भॉंपने में राजहंस को देर न लगी। वह उनके लिए चिन्तित हो उठा। फिर सोचा, अब चिन्ता करने से क्या लाभ? किसी तरह से उन दो हंसों को पता लगाना है और उनकी रक्षा करनी ही होगी।
राजहंस शीघ्र ही युगन्धर पर्वत की चोटी पर पहुँचा और बालहंसों से आँख बचा कर एक जगह बैठ गया।
दूसरे दिन सूर्योदय होते ही बालहंस सूर्य के साथ उड़ने लगे।
राजहंस ने भी उन का अनुसरण किया।
उन बालहंसों में से छोटा हंस दोपहर तक उड़्रता रहा, फिर पंखों में जलन के कारण बेहोश हो गया। गिरते समय उसे राजहंस दिखाई पड़ा। वह निराश हो बोला, ‘‘राजन, मैं हार गया।''
इस पर राजहंस ने उसे सान्त्वना देते हुए कहा, ‘‘कोई बात नहीं, मैं तुम्हारी सहायता के लिए हूँ।'' इस प्रकार प्यार भरे शब्दों में समझाकर उसे अपने पंखों पर चढ़ा लिया और अपने निवास में अन्य सदस्यों के बीच छोड़ दिया।
इस के थोड़ी देर बात दूसरे बालहंस के पंखों में भी पीड़ा होने लगी, मानों उसे सुइयों से चुभोया जा रहा हो।
आ़खिर थककर वह भी बेहोश होने लगा।
उसने भी राजहंस को देख दीनतापूर्वक बचाने की प्रार्थना की। उसे भी राजहंस ने अपने पंखों पर बिठा कर चित्रकूट पर पहुँचा दिया।
अपने परिवार के दो पक्षियों को सूर्य से परास्त होते देख राजहंस को बहुत दुख हुआ। वह यह अपमान सहन नहीं कर पाया। इसलिए वह स्वयं सूरज के साथ होड़ लगाने चल पड़ा।
अपूर्व क्षिप्र गति रखने वाला राजहंस अपनी उड़ान प्रारंभ करने के कुछ ही देर बाद सूर्य बिम्ब से जा मिला और पलक मारते उसे भी पार करके और ऊपर उड़ता चला गया। उसने केवल सूर्य की शक्ति का अनुमान लगाना चाहा था अन्यथा उसे सूर्य से होड़ लगाने की आवश्यकता ही क्या थी।
राजहंस इसलिए थोड़ी देर तक अपनी इच्छानुसार चक्कर काट कर भूलोक पर उतर आया और काशीराज्य में पहुँचा।
राजहंस की प्रतीक्षा में व्याकुल काशी नरेश उसे देखते ही आनन्द विभोर हो उठे।
राजहंस को राजा ने अपने स्वर्ण-सिंहासन पर बिठाया तथा स्वर्ण थाल में खीर और स्वर्ण कलश में शीतल शरबत से उसका आतिथ्य किया। राजहंस ने राजा का आतिथ्य स्वीकार कर सूर्य के साथ उड़ने का सारा वृत्तांत विस्तार के साथ राजा को सुनाया।
सारा वृत्तांत सुनकर राजा राजहंस की अलौकिक शक्ति पर बहुत प्रस हुए। फिर उन्होंने राजहंस से अनुरोध किया, ‘‘हे पक्षी राज, सूर्य के साथ होड़्र लगाने से भी कहीं अधिक अपनी महान शक्ति और प्रज्ञा दिखाइए। उस दृश्य को देखने की कई दिनों से मेरी प्रबल इच्छा है।''
राजहंस ने राजा को अपनी शक्ति का परिचय देने की स्वीकृति देते हुए कहा, ‘‘राजन, आप के राज्य में बिद्युत से भी अधिक द्रुतगति के साथ बाण चलानेवाले धनुर्धारी हों तो ऐसे चार व्यक्तियों को यहाँ बुलवाइए।'' राजा ने ऐसे चार धनुर्धारियों को बुलवाया।
राजा के उद्यान में एक चौकोर स्तम्भ था। राजहंस ने उस के चतुर्दिक चारों धनुर्धारियों को खड़ा कर दिया। इसके बाद वह अपने गले में एक घंटी बाँध कर स्तम्भ पर बैठ गया।
‘‘मेरा संकेत पाते ही तुम चारों अपने बाण छोड़ दो। क्षण भर में मैं तुम चारों के बाण लाकर तुम्हारे सामने रख दूँगा। पर तुम लोग मेरे कंठ में बंधी घण्टी की ध्वनि से ही मेरी गति का परिचय पा सकते हो। तुम लोग मुझ को उड़ते हुए देख न सकोगे।'' राजहंस ने उन धनुर्धारियों से कहा।
अपने वचन के अनुसार विद्युत की कौंध की अवधि के अन्दर राजहंस ने धनुर्धारियों के द्वारा छोड़े गये बाण लाकर उन के सामने रख दिये।
राजा तथा उनका परिवार विस्मय में आकर दातों तले अंगुली दबाने लगे।
इस पर राजहंस बोला, ‘‘राजन, आपने जो मेरी गति देखी है, यह मेरी निम्नतम गति है। इसके आधार पर आप अनुमान लगा सकते हैं कि मेरी वास्तविक गति क्या होगी?'' राजा बड़्रे ही आतुर होकर बोले- ‘‘हे पक्षीराज, तुम्हारे वेग का नमूना तो मैंने देख लिया लेकिन क्या इससे भी अधिक वेग रखनेवाला कोई है?'' इस पर राजहंस ने कहा, ‘‘क्यों नहीं? मुझ से भी अनन्त गुना अधिक वेग रखने वाली एक महाशक्ति है। वही काल नामक सर्प है। वह काल सर्प प्रति क्षण विश्र्व के जीवों को अवर्णनीय वेग के साथ नष्ट कर रहा है।''
ये बातें सुन कर राजा भय से कांप उठे।
तब राजहंस के रूप में बोधिसत्व ने काशी राजा को इस प्रकार तत्वोपदेश दिया, ‘‘राजन, जो लोग इस बात का स्मरण रखते हैं कि काल सर्प नामक कोई चीज़ है, उन्हें डरने की आवश्यकता नहीं है। आप जब तक नीति व धर्म के साथ शासन करते रहेंगे, तब तक आप को किसी का कोई भय न होगा। इसलिए आप विधिपूर्वक अपने कर्तव्य करते जाइए।''
बोधिसत्व के उपदेशानुसार काशी राजा ने धर्म मार्ग पर शासन करके अपार यश प्राप्त किया।
Posted by Udit bhargava at 7/19/2010 04:34:00 pm 1 comments
विल्हण-रतिलेखा ( Willhon - Arathilekha )
चालुक्य सम्राट विक्रमादित्य के राजकवि विल्हण का उस समय के कवियों, विद्वानों में सर्वश्रेष्ठ स्थान था। उनका कहना था कि इस संसार में केवल एक ही ऐसा रस है, जो लोहे के आदमी को भी मोम बना देता है और वह हैं 'प्रेम रस'।
राजकवि विल्हण राजा के विश्वासपात्र थे। इसलिए राजा ने राजकुमारी रतिलेखा की शिक्षा-दीक्षा की सारी जिम्मेदारी उन्हें सौंप दी। किंतु विल्हण अति सुंदरी रतिलेखा को काव्य पढ़ाते-पढ़ाते प्रेम शास्त्र पढ़ाने लगे और एक दिन जब रतिलेखा और विल्हण गंधर्व विवाह करके गंधर्व क्रीड़ा के लिए तैयार थे, तभी राजा ने उन्हें देख लिया और राजा ने तुरंत विल्हण को फाँसी की सज़ा दे दी।
फाँसी का तख्त नर-मुण्डों की भूमि पर ख़ड़ा प्रतीत हो रहा था। एक तरफ राजा ऊँचे सिंहासन पर विराजमान थे। बधिकों ने विल्हण से कहा, 'अंतिम बेला आ पहुँची है, अपने इष्ट का स्मरण करो।' राजकवि ने उस समय एक श्लोक पढ़ा जिसका अर्थ था- ''जिसने जीवन के सुखों का संपूर्ण मर्म समझने में बराबर का योग दिया, जिसने वाणी को कोमल शब्द उच्चारण करने की सामर्थ्य दी, जिसने मृत्युलोक में ही स्वर्ग की कल्पना को साकार दिया, उसी तरह रतिलेखा का स्मरण विल्हण करता है- विल्हण के लिए वही चरम आनंद की जननी है।''
फिर वही श्लोक सहस्त्रों मुखों से बार-बार मुखरित होने लगा। रतिलेखा राजा के चरणों पर गिरकर विलाप करने लगी, 'हे राजन, विल्हण के साथ ही राज्य की श्री, मुषमा, सुशीलता सबका अंत हो जाएगा। जीवन दासता से कलंकित होगा, रसराज का आदर खत्म हो जाएगा, जन-जन कुमार्गगामी हो जाएँगे। विल्हण को क्षमा करो, नहीं तो उनकी चिता पर गंधर्व विवाह से उनकी पत्नी बन चुकी रतिलेखा भी जीवित ही भस्म हो जाएगी।
फिर तो राजा को जनता और रतिलेखा के सामने झुकना पड़ा और उन्होंने विल्हण को अभयदान देकर दोनों के प्रेम व वैवाहिक संबंधों को स्वीकार किया। यहीं नहीं, इसके बाद राजा ने विल्हण को 'महाकवि' की उपाधि से भी सम्मानित किया।
Labels: प्रेम गुरु
Posted by Udit bhargava at 7/19/2010 03:40:00 pm 0 comments
पट्ट हाथी ( Elephant Board )
जंगल में एक हथिनी रहा करती थी। एक दिन उसके पैर में एक चैला फंस गया जिस से उसका पैर सूझकर दर्द करने लगा। बड़ी कोशिश करके भी वह उस चैले को पैर से निकाल न पाई। इस बीच उसे पेड़ काटने की आवाज़ सुनाई दी। हथिनी लंगड़ाते उनके नज़दीक़ पहुँची।
हथिनी को देखते ही बढ़इयों ने भांप लिया कि वह किसी पीड़ा से परेशान है। इस बीच हथिनी आकर बढ़इयों के सामने लेट गई। बढ़इयों ने छेनी से हथिनी के पैर का चैला निकाला और उसके घाव पर मरहम पट्टी की।
थोड़े ही दिनों में हथिनी चलने-फिरने लायक़ हो गई। इस उपकार के बदले में हथिनी बढ़इयों की मदद करने लगी। वह गिरे हुए पेड़ों को उठाकर ला देती। काटी गई तख़्तियों और पाटियों को नदी के पास नावों तक पहुँचा देती। इस वजह से बढ़इयों और हथिनी के बीच दोस्ती बढ़ती गई। पाँच सौ बढ़ई अपने खाने का थोड़ा हिस्सा हथिनी को खिलाने लगे।
कई दिन बीत गये। हथिनी का एक बच्चा हुआ। वह ऐरावत जाति का था और उसका रंग सफ़ेद था। हथिनी जब बूढ़ी हो गई और उसमें चलने-फिरने की ताक़त न रही, तब वह अपने बच्चे को बढ़इयों के हाथ सौंपकर जंगल में चली गई। इसके बाद सफ़ेद हाथी बढ़इयों की मदद करने लगा। उनके हाथ का खाना खा लेता और उनके बच्चों को अपनी पीठ पर बिठाकर जंगल में घुमा देता। नदी में उन्हें नहलाता और ख़ुशी के साथ अपने दिन गुजार देता था। बढ़ई लोग हाथी को अपने बच्चे के बराबर प्यार करते थे। हाथी उनके परिवार के सदस्य की तरह उनके लिए उपयोगी बनने की कोशिश करता था।
राजा ब्रह्मदत्त को जब यह ख़बर मिली कि जंगल में एक उत्तम नस्ल का सफ़ेद हाथी है, तब वे उसे पकड़ ले जाने के लिए सदल-बल जंगल में चले आये।
बढ़इयों ने सोचा कि राजा मकान बनाने की लकड़ी के वास्ते जंगल में आये हुए हैं। उन लोगों ने राजा को समझाया, ‘‘महाराजा, आप मेहनत उठाकर इस जंगल में क्यों आये? हमें ख़बर कर देते तो ख़ुद हम लकड़ी आपके महल में पहुँचा देते?''
‘‘मैं लकड़ी ले जाने के वास्ते नहीं आया हूँ; सफ़ेद हाथी को पकड़ ले जाने के वास्ते आया हूँ।'' राजा ने अपने दिल की बात बताई।
बढ़इयों को यह सुनकर बहुत दुख हुआ। लेकिन वे कर भी क्या सकते थे। आखिर यह राजा की इच्छा थी और राजा अपने राज्य में कुछ भी करने के लिए स्वतन्त्र था। उन्होंने यह भी सोचा कि राजा के पास हाथी अधिक सुख और शान के साथ रह सकेगा। इसीलिए हाथी के जाने का दुख होते हुए भी वे राजी हो गये।
‘‘तब तो आप हाथी को अपने साथ ले जाइये।'' बढ़इयों ने उत्तर दिया।
मगर बड़ी कोशिश के बावजूद हाथी टस से मस न हुआ। इस पर राजा का एक कर्मचारी असली बात ताड़ गया और बोला, ‘‘महाराज, यह एक विवेकशील जानवर है। आप अगर इस हाथी को अपने साथ ले जायेंगे तो इन बढ़इयों का भारी नुक़सान होगा। इसका मुआवजा देने पर ही हाथी यहाँ से निकल सकता है।''
राजा ने हाथी के चारों पैर और सूंड के पास एक एक लाख सोने के सिक्के रखकर बढ़इयों को बॉंटने का आदेश दिया। तिस पर भी हाथी वहाँ से नहीं हिला।
इसके बाद राजा ने बढ़इयों की औरतों और बच्चों को कपड़े दिये, तब जाकर हाथी राजा के पीछे चल पड़ा। इसके बाद राजा गाजे-बाजे के साथ हाथी को काशी नगर में ले गये। उसे राजसी अलंकारों से सजाया संवारा गया। फिर सारी गलियों में उसका जुलूस निकाला गया।
अंत में उसके वास्ते एक बढ़िया गज शाला बनाकर उसमें रखा गया। उसकी सेवा के लिए सैकड़ों नौकर-चाकर रखे गये। उसके भोजन का विशेष प्रबन्ध किया गया। वह हाथी राजा का पट्ट हाथी बना। उस पर सिवाय राजा के कोई सवार नहीं हो सकता था।
नगर में उस हाथी के आने के बाद काशी राज्य की सीमा और यश चारों तरफ़ फैलने लगा। उसके प्रभाव से बड़े-बड़े राजा भी काशी राजा से बुरी तरह हार जाते थे। राज्य में सुख-शान्ति और खुशहाली बढ़ने लगी। प्रजा में एक दूसरे के लिए प्रेम और सौहार्द बढ़ने लगा।
कुछ दिन बाद काशी की रानी गर्भवती हुई। उसके गर्भ में बोधिसत्व ने प्रवेश किया। रानी के प्रसव में एक हफ़्ता ही रह गया था; इस बीच काशी राजा का स्वर्गवास हो गया । यह मौक़ा देख कोसल देश के राजा ने काशी राज्य पर अचानक एक दिन हमला कर दिया । मंत्रियों ने आपस में सलाह-मशविरा किया और आख़िर कोसल राजा के पास यह संदेश भेजा, ‘‘आपने कायर की तरह धोखे से हमारे राज्य पर आक्रमण कर दिया है, जब कि सारा राज्य अपने राजा की मृत्यु पर शोक में डूबा हुआ है। यह नीचता है। एक अच्छे पड़ोसी राजा होने के नाते आप को हमारे साथ सम्वेदना और सहायता का हाथ बढ़ाना चाहिये था। खैर, जो भी हो, हमारी रानी का एक हफ़्ते के अन्दर प्रसव होनेवाला है, अगर महारानी ने एक बच्ची को जन्म दिया तो आप काशी राज्य पर बिना युद्ध और रक्तपात के कब्जा कर लीजिये । यदि रानी ने एक लड़के को जन्म दिया तो हम लोग आप के साथ युद्ध करेंगेऔर देश के लिए मर मिटेंगे और जीते जी शत्रुओं को सीमा के अन्दर आने नहीं देंगे।''
कोसल राजा ने उन्हें एक हफ़्ते की मोहलत दी। एक हफ़्ते के पूरा होते ही महारानी ने बोधिसत्व को जन्म दिया। काशी राजा की सेनाएँ कोसल सेना के साथ जूझ गईं। मगर उस युद्ध में कोसल का हाथ ऊँचा मालूम होने लगा। उस हालत में मंत्रियों ने महारानी के पास जाकर निवेदन किया, ‘‘महारानी जी, हमारे पट्ट हाथी का ल़ड़ाई के मैदान में प्रवेश करने पर ही हमारी विजय हो सकती है, लेकिन महाराजा के स्वर्गवास के दिन से लेकर पट्ट हाथी खाना-पीना व नींद को भी तज कर दुख में डूबा हुआ है। हमारी समझ में नहीं आ रहा है कि ऐसी हालत में क्या किया जाये।''
मंत्रियों के मुँह से ये बातें सुनते ही महारानी प्रसूती के कमरे में उठ बैठी, अपने शिशु को राजोचित पोशाक पहनाकर पट्ट हाथी के पास ले गई।
शिशु को उसके पैरों के सामने रखकर प्रणाम करके बोली, ‘‘गजराज, आप अपने मालिक के स्वर्गवास पर चिंता न कीजिए। देखिये, अब यही राजकुमार आपका मालिक है। लड़ाई के मैदान में इसके दुश्मनों का हाथ ऊँचा है। आप जाकर उन्हें हरा दीजिए। वरना इस राजकुमार को अपने पैरों के नीचे कुचलकर मार डालिये।'' रानी के मुँह से ये बातें निकलने की देर थी कि हाथी का दुख जाता रहा। उसने प्यार से राजकुमार को अपनी सूंड से ऊपर उठाया और अपने मस्तक पर बिठा लिया। फिर राजकुमार को रानी के हाथ में सौंप कर लड़ाई के मैदान की ओर चल पड़ा।
हाथी का रौद्र रूप और भयंकर गर्जन करते और अपनी ओर बढ़ते देख कोसल राज्य के सैनिकों का कलेजा कांप उठा। वे तितर-बितर होकर भागने लगे। किसी सैनिक को उसके सामने आने का साहस नहीं हुआ। जो भी उसके सामने आ जाता, उसे कुचलता-रौंदता, उछालता हुआ हाथी तूफान की तरह आगे बढ़ता गया और सीधे कोसल राजा के पास पहुँचा। उनको अपनी सूंड में लपेट कर ले आया और काशी के राजकुमार के पैरों के पास डाल दिया। कोसल राजा ने राजकुमार के चरण छूकर माफ़ी माँग ली। काशी राज्य के मंत्रियों ने उनको क्षमा कर वापस भेज दिया।
बोधिसत्व के सात साल की उम्र होने तक हाथी ने काशी राज्य की रक्षा की। इसके बाद बोधिसत्व गद्दी पर बैठे और उस हाथी को अपना पट्ट हाथी बनाकर बड़ी दक्षता के साथ शासन करने लगे।
Posted by Udit bhargava at 7/19/2010 02:26:00 pm 0 comments
रूहानी प्यार कभी खत्म नहीं होता ( Spiritual love would never end )
वो नजरें झुकाकर क्लासरूम की तरफ बढ़ रही है, उसने किताबें अपने सीने के साथ लगाई हुई हैं। जैसे कोई माँ अपने बच्चे को सीने से लगाकर चलती है। इतने में वो एक नौजवान लड़के के साथ टकरा जाती है और किताबें नीचे गिरती हैं, दोनों के मुँह में से एक ही अल्फाज सुनाई देता है सॉरी। बस इस दौरान दोनों की निगाहें एक दूसरे से टकराती हैं, और पहली ही नजर में प्यार हो जाता है। कुछ ऐसा ही दृश्य होता है हिन्दी फिल्मों में, बस जगह और हालात बदल दिए जाते हैं, किताबों की जगह कुछ और आ जाता है। मगर लड़का लड़की आपस में अचानक टकराते हैं और वहाँ से ही प्यार की ज्वाला भड़क उठती है। क्या इसे ही प्यार कहते हैं? मेरा जवाब तो नहीं है, औरों का क्या होगा पता नहीं।
पहली नजर में प्यार कभी हो ही नहीं सकता, वह तो एक आकर्षण है एक दूसरे के प्रति, जो प्यार की पहली सीढ़ी से भी कोसों दूर है। जैसे दोस्ती अचानक नहीं हो सकती, वैसे ही प्यार भी अचानक नहीं हो सकता। प्यार भी दोस्ती की भाँति होता है, पहले पहले अनजानी सी पहचान, फिर बातें और मुलाकातें। सिर्फ एक नए दोस्त के नाते, इस दौरान जो तुम दोनों को नजदीक लेकर आता है वह प्यार है। कुछ लोग सोचते हैं कि अगर मेरी शादी मेरे प्यार से हो जाए तो मेरा प्यार सफल, नहीं तो असफल। ये धारणा मेरी नजर से तो बिल्कुल गलत है, क्योंकि प्यार तो नि:स्वार्थ है, जबकि शरीर को पाना तो एक स्वार्थ है। इसका मतलब तो ये हुआ कि आज तक जो किया एक दूसरे के लिए वो सिर्फ उस शरीर तक पहुँचने की चाह थी, जो प्यार का ढोंग रचाए बिन पाया नहीं जा सकता था।
सच तो यह है कि प्यार तो रूहों का रिश्ता है, उसका जिस्म से कोई लेना देना ही नहीं, मजनूँ को किसी ने कहा था कि तेरी लैला तो रंग की काली है, तो मजनूँ का जवाब था कि तुम्हारी आँखें देखने वाली नहीं हैं। उसका कहना सही था, प्यार कभी सुंदरता देखकर हो ही नहीं सकता, अगर होता है तो वह केवल आकर्षण है, प्यार नहीं। माँ हमेशा अपने बच्चे से प्यार करती है, वो कितना भी बदसूरत क्यों न हो, क्योंकि माँ की आँखों में वह हमेशा ही दुनिया का सबसे खूबसूरत बच्चा होता है।
एक वो जिन्होंने प्यार को हमेशा रूह का रिश्ता बनाकर रखा, और जिस्मानी रिश्तों में उसको ढलने नहीं दिया, उनको आज भी वो प्यार याद आता है, उसकी जिन्दगी में आ रहे बदलाव उनको आज भी निहारते हैं। उसको कई सालों बाद फिर निहारना आज भी उनको अच्छा लगता है। रूहानी प्यार कभी खत्म नहीं होता। वो हमेशा हमारे साथ कदम दर कदम चलता है। वो दूर रहकर भी हमको ऊर्जावान बनाता है।
Labels: प्रेम गुरु
Posted by Udit bhargava at 7/19/2010 01:23:00 pm 0 comments
कुबेर का सरोवर ( Kubera's lake )
दोनों पुत्रों की पैदाइश के दो साल बाद रानी का देहांत हो गया। इस पर राजा ने दूसरा विवाह किया। कुछ समय बाद नई रानी ने भी एक पुत्र को जन्म दिया। यह ख़बर सुनते ही राजा बहुत प्रसन्न हुए और उन्होंने रानी से कहा, ‘‘रानी, इस शुभ अवसर पर तुम कोई वर मांग लो।''
‘‘यह वर मैं अपनी ज़रूरत के व़क्त मांग लूँगी।'' रानी ने जवाब दिया।
छोटी रानी के पुत्र का नाम आदित्य था। उसने राजोचित सारी विद्याएँ सीख लीं। जब आदित्य जवान हो गया, तब एक दिन रानी ने राजा से कहा, ‘‘महाराज, आपने आदित्य के जन्म के समय वर मांगने को कहा था, उसे अब मैं मांगती हूँ। आप आदित्य को युवराजा के रूप में अभिषेक कीजिए।''
यह सुनकर राजा निश्चेष्ट हो गये और थोड़ी देर सोचकर बोले, ‘‘मेरी पहली पत्नी के दो पुत्रों के होते हुए आदित्य को मैं युवराजा कैसे बना सकता हूँ? यह न्याय संगत नहीं है।''
मगर रानी को जब भी मौक़ा मिलता वह अपने पुत्र को युवराजा बनाने की इच्छा प्रकट कर राजा को सताने लगी। राजा ने भांप लिया कि रानी अपना हठ नहीं छोड़ेगी। उनके मन में यह संदेह भी पैदा हुआ कि रानी के द्वारा बड़े राजकुमारों की कोई हानि भी हो सकती है। इसलिए वे उन्हें बचाने का उपाय दिन-रात सोचने लगे।
राजा ने एक दिन अपने दोनों बड़े पुत्रों को बुलवाकर सारी बातें समझाईं और बोले, ‘‘तुम दोनों थोड़े समय के लिए नगर को छोड़कर कहीं और रह जाओ। मेरे बाद तुम्ही लोगों को यह राज्य प्राप्त होगा, इसलिए उस व़क्त लौटकर राज्य का भार संभाल सकते हो। तब तक तुम दोनों भूल से भी इस राज्य के अन्दर प्रवेश न करना।''
अपने पिता की इच्छा के अनुसार महाशासन और सोमदत्त नगर को छोड़कर जब राज्य की सीमा पर पहुँचे, तब उन लोगों ने देखा कि छोटा राजकुमार आदित्य भी उनके पीछे चला आ रहा है। तीनों मिलकर कुछ दिनों के बाद हिमालय के जंगलों में पहुँचे।
एक दिन वे तीनों अपनी यात्रा की थकान मिटाने के लिए एक पेड़ के नीचे बैठ गये। उस व़क्त महाशासन ने आदित्य से कहा, ‘‘मेरे छोटे भैया! उधर देखो, एक सरोवर दिखाई दे रहा है! तुम वहाँ जाकर अपनी प्यास बुझा लो और हमारे लिए कमल पत्रों वाले दोने में पानी ले आओ।''
आदित्य जाकर ज्यों ही सरोवर में उतरा, त्यों ही जल पिशाच उसे पकड़ कर जल के नीचे वाले अपने घर में ले गया। बड़ी देर तक आदित्य को न लौटते देख महाशासन चिंतित हुआ और इस बार महाशासन ने सोमदत्त को भेजा। उसको भी जल पिशाच ने पकड़ लिया।
थोड़ी देर तक इंतजार करने के बाद महाशासन अपने भाइयों को लौटते न देख खतरे की आशंका करके तलवार लेकर ख़ुद चल पड़ा। वह सरोवर में उतरे बिना किनारे पर खड़े हो पानी की ओर परख कर देख रहा था । इसे भांपकर जल पिशाच ने अंदाजा लगाया कि ये अपने भाइयों के जैसे जल्दबाजी में आकर जल में न उतरेंगे।
इसके बाद जल पिशाच एक बहेलिये का वेष धरकर महाशासन के पास आया और बोला, ‘‘खड़े खड़े देखते क्या हो? प्यास लगी है तो सरोवर में उतर कर प्यास क्यों नहीं बुझाते?''
यह सलाह पाकर महाशासन ने सोचा कि दाल में कुछ काला है, तब बोला, ‘‘तुम्हारा व्यवहार देखने पर मुझे शक होता है कि तुमने ही मेरे दोनों भाइयों को गायब कर डाला है।''
‘‘तुम तो विवेकशील मालूम होते हो। मैं सच्ची बात बता देता हूँ, ज्ञानी लोगों को छोड़ बाक़ी सभी लोगों को, जो इस सरोवर के पास आते हैं, पकड़ कर मैं बन्दी बनाता हूँ। यह तो कुबेर का आदेश है!'' जल पिशाच ने कहा।
‘‘इसका मतलब है कि तुम ज्ञानियों से उपदेश पाना चाहते हो! मैं तुम्हें ज्ञानोपदेश कर सकता हूँ! लेकिन थका हुआ हूँ।'' महाशासन ने कहा। झट जल पिशाच उसे पानी के तल में स्थित अपने निवास में ले गया। अतिथि सत्कार करने के बाद उसे उचित आसन पर बिठाया। वह ख़ुद उसके चरणों के पास बैठ गया।
महाशासन ने जो कुछ अपने गुरुओं से सीखा था, वह सारा परम ज्ञान जलपिशाच को सुनाया। दूसरे ही क्षण जलपिशाच बहेलिये का रूप त्यागकर अपने निज रूप में आकर बोला, ‘‘महात्मा, आप महान ज्ञानी हैं ! मैं आपके भाइयों में से एक को देना चाहता हूँ। दोनों में से आप किसको चाहते हैं?''
‘‘मैं आदित्य को चाहता हूँ।'' महाशासन ने कहा।
‘‘बड़े को छोड़ छोटे की मांग करना क्या धर्म संगत होगा।'' जलपिशाच ने पूछा।
‘‘इसमें अधर्म की बात क्या है? अपनी माँ की संतान में से मैं बचा हुआ हूँ, ऐसी हालत में मेरी सौतेली माँ के भी एक पुत्र तो होना चाहिए न? अपने भ्रातृ-प्रेम से प्रेरित होकर यह भोला आदित्य हमारे पास चला आया है। अगर हम दोनों बड़े भाई नगर को लौट जायें, तब लोग हमसे पूछें कि आदित्य कहाँ है? तब हमारा यह कहना कहाँ तक न्याय संगत होगा कि जलपिशाच ने उसे निगल डाला है?'' यों महाशासन ने जलपिशाच से उल्टा सवाल पूछा।
इस पर जलपिशाच ने महाशासन के चरणों में प्रणाम करके कहा, ‘‘आप ज़ैसे महान ज्ञानी को मैंने आज तक नहीं देखा है, मैं आपके दोनों छोटे भाइयों को मुक्त कर देता हूँ। आप लोग इस जंगल में मेरे अतिथि बनकर रहिए!''
इस पर महाशासन और उसके छोटे भाई जलपिशाच के अतिथि बनकर रह गये। थोड़े समय बाद उन्हें ख़बर मिली कि उनके पिता ब्रह्मदत्त का स्वर्गवास हो गया है। इस पर महाशासन अपने दोनों छोटे भाइयों तथा जलपिशाच को साथ ले काशी चले गये।
महाशासन का राज्याभिषेक हुआ। तब उसने सोमदत्त को अपने प्रतिनिधि के रूप में तथा आदित्य को सेनापति के पद पर नियुक्त किया। अपना उपकार करने वाले जलपिशाच के वास्ते एक सुंदर निवास का प्रबंध किया और उसकी सेवा के लिए नौकर नियुक्त किया।
Posted by Udit bhargava at 7/19/2010 11:21:00 am 0 comments
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