राम के वियोग में आँसू बहाती हुई जानकी के पास जा कर रावण बोला, "हे सुमुखी! अब उस तपस्वी के लिये आँसू बहाने से क्या लाभ? अब तू उसे भूल जा। तू प्रेम भरी दृष्टि से मेरी ओर देख। यह सम्पूर्ण राज्य मैं तुझे अर्पित कर दूँगा। यह राज्य ही नहीं, मैं भी, जो तीनों लोकों का स्वामी हूँ, तेरे चरणों का दास बन कर रहूँगा। मैं तुझे प्राणों से भी बढ़ कर चाहने लगा हूँ। मेरी समस्त सुन्दर रानियाँ तेरी दासी बन कर रहेंगीं। तू केवल मुझे पति रूप में स्वीकार कर ले। मैं आज ही देश भर में तेरे लंका की पटरानी होने की घोषणा करा दूँगा। सारे देव, दानव, नर, किन्नर जो मेरे दास हैं, वे सब तेरे संकेत पर अपने प्राण भी न्यौछावर करने को तैयार हो जायेंगे। तूने जो यह वनवास का कठोर जीवन व्यतीत किया है यह तेरे पूर्वजन्मों का फल था। अब उसकी अवधि समाप्त समझ। मुझसे विवाह करके तीनों लोकों की स्वामिनी बनने के तेरे दिन आ गये हैं। तेरे हाँ कहते ही संसार के सर्वोत्तम दिव्य वस्त्र, आभूषण, भोज्य पदार्थ तेरे सम्मुख उपस्थित कर दिये जायेंगे। तेरे जैसी अनुपम सुन्दरी रोने-बिलखने और कष्ट उठाने के लिये उत्पन्न नहीं हुई है, तू मेरी पटरानी बन कर मेरे साथ पुष्पक विमान में बैठ कर आकाश में विहार कर। यदि तू धर्म और लोकलाज से भयभीत होती है, तो यह तेरा विचार मिथ्या और निर्मूल है। किसी सुन्दरी का युद्ध में हरण कर के उसके साथ विवाह करना भी तो वैदिक रीति का ही एक अंग है। इसलिये तू निःशंक हो कर मेरी बन जा।"
रावण के इन वासनामय शब्दों को सुन कर उसके और अपने मध्य में तृण रख शोक संतप्त सीता बोली, "हे नराधम! परम पराक्रमी, धर्मपरायण एवं सत्यप्रतिज्ञ दशरथनन्दन श्री रामचन्द्र जी ही मेरे पति हैं। मैं उनके अतिरिक्त किसी अन्य की ओर दृष्टि तक भी नहीं कर सकती। तेरे अनर्गल प्रलाप से ऐसा प्रतीत होता है कि अब लंका सहित तेरे विनाश का समय आ गया है। तू कायरों की तरह मुझे चुरा कर अब डींगें हाँक रहा है। यदि उनके सम्मुख मेरा अपहरण करने का प्रयास करता तो तेरी भी वही दशा होती जो तेरे भाई खर और दूषण की हुई है। यदि तू उनके सामने पड़ जाता तो उनके बाण तेरे शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर देते। तू ऐसे भ्रम में मत रह कि जब देवता और राक्षस तेरा कुछ नहीं बिगाड़ सकते तो राम भी तुझे नहीं मार सकेंगे। उनके हाथों से तेरी मृत्यु निश्चित है। अब तेरा जीवनदीप बुझने वाला है। तेरे तेज, बल और बुद्धि तो पहले ही नष्ट हो चुके हैं। और जिसकी बुद्धि नष्ट हो चुकी होती है, उसका विनाश-काल दूर नहीं होता। जो तू मुझसे बार-बार विवाह करने की बात कहता है, तूने एक बार भी सोचा है कि कमलों में विहार करने वाली हंसिनी क्या कभी कुक्कुट के साथ रह सकती है? मैं तुझे सावधान करती हूँ कि तू बार-बार मेरे पति की निन्दा न कर, चाहे मेरे इस क्षणभंगुर शरीर के टुकड़े-टुकड़े कर डाल। मैं तो तेरे जैसे नीच से वार्तालाप करना भी पाप समझती हूँ।"
सीता के कठोर एवं अपमानजनक वाक्य सुन कर रावण कुपित हो कर बोला, "हे सीते! यदि मैं चाहूँ तो अभी तेरा सिर काट कर तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूँ। परन्तु मुझे तुझ पर दया आती है। यदि एक वर्ष के अन्दर तूने मुझे पति के रूप में स्वीकार न किया तो मैं तेरे टुकड़े-टुकड़े कर दूँगा।" फिर वह राक्षसनियों से बोला, "तुम इसे यहाँ से अशोक वाटिका में ले जा कर रखो और जितना कष्ट दे सकती हो, दो। तुम्हें इसकी पूरी स्वतन्त्रता है।"
लंकापति रावण की आज्ञा पाकर राक्षसनियाँ सीता को अशोक वाटिका में ले गईं। अशोक वाटिका एक रमणीय स्थल होते हुये भी सीता के लिये पति वियोग और निशाचरी दुर्व्यवहार के कारण दुःखदायी स्थान बन गया था।
10 अप्रैल 2010
रामायण – अरण्यकाण्ड - रावण-सीता संवाद
Posted by Udit bhargava at 4/10/2010 05:47:00 pm
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