08 मई 2010

देवी सरस्वती का वाहन हंस ही क्यों

देवी सरस्वती का वाहन हंस धर्म शास्त्रों में देवी सरस्वती को सृष्टि रचयिता ब्रह्मा की मानस पुत्री माना गया है। देवी सरस्वती सद्ज्ञान की देवी हैं। जिसे भी पवित्र सद्ज्ञान प्राप्त हो गया समझो कि उस सौभाग्यशाली पर माता सरस्वती की कृपा हो गई। देवी सरस्वती के चित्रों में हम देखते हैं कि उनके हाथ में ज्ञान के प्रतीक वेद शोभित हैं। सौन्दर्य का प्रतीक पुष्प, संगीत रस का प्रतीक सितार भी उनके स्वरूप की शोभा बढ़ाते हैं। देवी के स्वरूप में सबसे महत्वपूर्ण है उनका वाहन हंस। माता सरस्वती ज्ञान की देवी यानि ज्ञान की साक्षात विग्रह ही हैं।

हंस को वाहन के रूप में चुनने के पीछे गहरे अर्थ छुपे हैं। हंस के विषय में ऐसी मान्यता है कि वह नीर क्षीर विवेक से सम्पंन है। मतलब कि आप दूध और पानी को मिलाकर उसके सामने रखें तो वह उसमें से दूध को पी लेगा और पानी को छोड़ देगा। मतलब यह कि हंस विवेक यानि सद्ज्ञान से संपन्न होने के कारण ही देवी सरस्वती द्वारा चुना जाता है। यदि हम चाहें कि ज्ञान की देवी सरस्वती सदैव हमपर सवार रहें तो हमे भी हंस की तरह ही विवेक यानि सद्बुद्धि को स्वयं में जाग्रत करना होगा।

07 मई 2010

जानिए भगवान गणपति क्या देते हैं?

भगवान गणपति की पूजन सब विघ्नों का नाश करते हैं, अभी तक ऐसा ही प्रचलित है। जानिए भगवान गणोश और उनके परिवार को, गणोश क्या हैं, उनका स्वरूप किस बात का प्रतीक है, उनके परिवार में कौन है, उनका परिवार क्या देता है, ऐसी कई बातें। गणपति भगवान शिव और पार्वती के पुत्र हैं। गणोश का मूलत: बुद्धि का देवता माना गया है। वे व्यक्ति को न केवल अच्छी बुद्धि और ज्ञान देते हैं बल्कि उनके पूजन से और भी कई लाभ हैं। उनकी सूंड प्रतीक है दूरदर्शिता का, जिस तरह नाक सुंघकर ही हर चीज का पता लगा लेती है ऐसे ही हम अपनी बुद्धि का इस्तेमाल इस तरह करें कि भविष्य की परिस्थितियों का ध्यान रख सकें। उनका बड़ा पेट प्रतीक है इस बात का कि व्यक्ति की बुद्धि ऐसी होनी चाहिए जो हर बात को अपने भीतर रख सके, उसे पचा सके।वाहन : गणपति का वाहन है चूहा। यह सोचकर अटपटा लगता है कि इतने भारी-भरकम भगवान का वाहन चूहा कैसे हो सकता है। दरअसल गणपति जैसे बुद्धि के प्रतीक हैं, वैसे ही उनका वाहन चूहा तर्क का प्रतीक है। बुद्धि हमेशा तर्क पर ही चलती है। तर्क बहुत छोटा लेकिन काम का होता है। पत्नियां : गणोश की दो पत्नियां हैं रिद्धि और सिद्धि। ये प्रतीक है बुद्धि से आनी वाली कार्यकुशलता का। सिद्धि का अर्थ है कुशलता, किसी भी काम की महारत और रिद्धि का अर्थ है कुशलता को अक्षुण बनाए रखना। गणपति के पूजन से हमें बुद्धि, महारत और अक्षय महारत प्राप्त होती है। पुत्र : गणपति के दो पुत्र हैं लाभ और क्षेम। लाभ यानी योग, आपकी संपत्ति में, ज्ञान में, प्रतिष्ठा में हर जगह लाभ देते हैं गणपति। क्षेम का अर्थ है जो भी लाभ कमाया गया है उसे सुरक्षित रखना। इस तरह अकेले गणपति के पूजन से ही हर तरह के सुख-संपदा मिल सकती है। उनके पूजन से उनका पूरा परिवार हम पर कृपा करता है।

06 मई 2010

अनोखे देवता कामदेव और उनकी सवारी

हिन्दु धर्म जितना व्यापक एवं विस्तृत है उतनी ही उसमें गहराई भी है। यहां सूक्ष्म मानवीय भावों को भी साकार बनाते हुए ,उन्हें उनकी शक्ति के अनुसार देवता का रूप प्रदान किया गया है। मानव जीवन के प्रमुख भाव प्रेम, दया, श्रृद्धा, काम आदि की महत्वपूर्ण भूमिका को देखते हुए इन्हैं देवता का रूप प्रदान किया गया है। ऐसे ही एक देवता हैं कामदेव । कामदेव को हिंदू शास्त्रों में प्रेम और काम का देवता माना गया है। देवता इसलिये क्योंकि काम रूपी भाव एक ऐसा भाव है जो इंसानी जिंदगी में बड़ा महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह इंसान को उसकी पात्रता के हिसाब से प्रगति या पतन के मार्ग पर ले जाता है। उनका स्वरूप युवा और आकर्षक है। वे विवाहित हैं और रति उनकी पत्नी हैं। वे इतने शक्तिशाली हैं कि उनके लिए किसी प्रकार के कवच की कल्पना नहीं की गई है। उनके अन्य नामों में रागवृंत, अनंग, कंदर्प, मनमथ, मनसिजा, मदन, रतिकांत, पुष्पवान, पुष्पधंव आदि प्रसिद्ध हैं। कामदेव, हिंदू देवी श्री के पुत्र और कृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न, का अवतार हैं। कामदेव के आध्यात्मिक रूप को हिंदू धर्म में वैष्णव अनुयायियों द्वारा कृष्ण भी माना जाता है। कामदेव की सवारी: हाथी को कामदेव का वाहन माना गया है। वैसे कुछ पुस्तकों में कामदेव को तोते पर बैठे हुए भी बताया गया है, लेकिन अधिक मान्यता हाथी को लेकर ही है। प्रकृति में हाथी ही एक ऐसा प्राणी है जो दशों दिशाओं में स्वतंत्र होकर घूमता है। अपनी मदमस्त चाल से चलने वाला हाथी तीन दिशाओं में देख सकता है, और पीछे की तरफ हल्की सी भी आहट आने पर संभल सकता है। हाथी कानों से हर तरफ का सुन सकता है और अपनी सूंड से चारों दिशाओं में वार कर सकता है। इन सभी गुणों से सम्पंन होने के कारण ही हाथी को कामदेव के वाहन के रूप में चुना गया है। ठीक इसी प्रकार कामदेव का चरित्र भी देखने में आता है। ये स्वच्छंद रूप से चारों दिशाओं में घूमते हैं।

05 मई 2010

धरती को क्यों कहते हैं पृथ्वी?

हम धरती को कई नामों से पुकारते हैं भूमि, धरती, पृथ्वी, वसुंधरा, जमीन। आखिर धरती के इतने नाम कैसे और क्यों रखे गए, इनके मतलब क्या हैं। आइए जानते हैं इतने नामों का मतलब क्या है।

धरती : यह नाम इसलिए है क्योंकि यह हमें, पूरी सृष्टि को अपने पर धारण करती है, अपने शरीर पर धर लेती है इसकारण इसका नाम धरती है।

पृथ्वी : कथा है सतयुग में इक्ष्वाकु वंश के एक राजा वेन हुए। उन्होंने इतने अत्याचार किए कि धरती बंजर हो गई, नदियां सूख गई, जैसे सारी औषधि, वन, अन्न, जल धरती ने अपने अंदर ही समा लिए। तब इसी वेन के पुत्र राजा पृथु ने इस पृथ्वी का दोहन किया, इसे फिर पहले जैसा किया। ये पृथु भगवान विष्णु के 24 अवतारों में एक माने गए हैं। इन्हीं के नाम पर इसका नाम पृथ्वी पड़ा।

वसुंधरा : हमारे तैतींस कोटि देवताओं में प्रमुख आठ वसु माने जाते हैं। ये पृथ्वी के देवता हैं। इसी सृष्टि में वास करते हैं। इन वसुओं को धारण करने के कारण इसका नाम वसुंधरा भी है।

भूमि : इसके कई अर्थ हैं भूमि का सबसे ठीक अर्थ है उत्पत्ति स्थल। यह समस्त प्राणियों का उत्पत्ति स्थल है इसलिए इसे भूमि कहते है। एक और शब्द है भूमा जिसका अर्थ है ऐश्वर्य। यह धरती सभी ऐश्वर्यो से परिपूर्ण है इसकारण भी इसे भूमि कहा जाता है।

जमीन : यह फारसी शब्द है। एक शब्द होता है जर्रा, यानी कण, यह कण-कण को धारण करती है इसलिए जमीन है।

04 मई 2010

महाभारत - खाण्डव वन का दहन

एक दिन श्री कृष्ण और अर्जुन जब यमुना तट पर विचरण कर रहे थे तो उनकी भेंट स्वर्ण रंग के एक अति तेजस्वी ब्राह्मण से हुई। कृष्ण एवं अर्जुन ने ब्राह्मण को प्रणाम किया उसके पश्चात् अर्जुन बोले, "हे ब्रह्मदेव! आप पाण्डवों के राज्य में पधारे हैं इसलिये आपकी सेवा करना हमारा कर्तव्य है। बताइये मैं आपकी क्या सेवा कर सकता हूँ।"

अर्जुन के वचनों को सुन कर ब्राह्मण ने कहा, "हे धनुर्धारी अर्जुन! मुझे बहुत जोर की भूख लगी है। तुम मेरी क्षुधा शान्त करने की व्यवस्था करो। किन्तु मेरी भूख साधारण भूख नहीं है। मैं अग्नि हूँ तथा इस खाण्डव वन को जला कर अपनी क्षुधा शान्त करना चाहता हूँ। परन्तु इन्द्र मुझे ऐसा करने नहीं देते, वे अपने मित्र तक्षक नाग, जो कि खाण्डव वन में निवास करता है, की रक्षा करने के लिये मेघ वर्षा करके मेरे तेज को शान्त कर देते हैं तथा मुझे अतृप्त रह जाना पड़ता है। अतएव जब मैं खाण्डव वन को जलाने लगूँ उस समय तुम इन्द्र को मेघ वर्षा करने से रोके रखो।" इस पर अर्जुन बोले, "हे अग्निदेव! मैं तथा मेरे मित्र कृष्ण इन्द्रदेव से युद्ध करने का सामर्थ्य तो रखते हैं किन्तु उनके साथ युद्ध करने के लिये हमारे पास अलौकिक अस्त्र शस्त्र नहीं हैं। यदि आप हमे अलौकिक अस्त्र शस्त्र प्रदान करें तो हम आपकी इच्छा पूर्ण कर सकते हैं।"

अग्निदेव ने तत्काल वरुणदेव को बुला कर आदेश दिया, "वरुणदेव! आप राजा सोम द्वारा प्रदत्त गाण्डीव धनुष, अक्षय तूणीर, चक्र तथा वानर की ध्वजा वाला रथ अर्जुन को प्रदान करें।" वरुणदेव ने अग्निदेव के आदेश का पालन कर दिया और अग्निदेव अपने प्रचण्ड ज्वाला से खाण्डव वन को भस्म करने लगे। खाण्डव वन से उठती तीव्र लपटों से सारा आकाश भर उठा और देवतागण भी सन्तप्त होने लगे। अग्नि की प्रचण्ड ज्वाला का शमन करने के लिये देवराज इन्द्र ने अपनी मेघवाहिनी के द्वारा मूसलाधार वर्षा करना आरम्भ किया किन्तु कृष्ण और अर्जुन ने अपने अस्त्रों से उन मेघों को तत्काल सुखा दिया। क्रोधित हो कर इन्द्र अर्जुन तथा श्री कृष्ण से युद्ध करने आ गये किन्तु उन्हे पराजित होना पड़ा।

खाण्डव वन में मय दानव, जो कि विश्वकर्मा का शिल्पी था, का निवास था। अग्नि से सन्तप्त हो कर मय दानव भागता हुआ अर्जुन के पास आया और अपने प्राणों की रक्षा के लिये प्रार्थना करने लगा। अर्जुन ने मय दानव को अभयदान दे दिया। खाण्डव वन अनवरत रूप से पन्द्रह दिनों तक जलता रहा। इस अग्निकाण्ड से वहाँ के केवल छः प्राणी ही बच पाये वे थे - मय दानव, अश्वसेन तथा चार सारंग पक्षी। खाण्डव वन के पूर्णरूप से जल जाने के पश्चात् अग्निदेव पुनः ब्राह्मण के वेश श्री कृष्ण और अर्जुन के पास आये तथा उनके पराक्रम से प्रसन्न होकर वर माँगने के लिये कहा। कृष्ण ने अपनी तथा अर्जुन की अक्षुण्न मित्रता का वर माँगा जिसे अग्निदेव ने सहर्ष प्रदान कर दिया। अर्जुन ने अपने लिये समस्त प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्र-शस्त्र माँगा। अर्जुन की इस माँग को सुन कर अग्निदेव ने कहा, "हे पाण्डुनन्दन! तुम्हें समस्त प्रकार के दिव्य एवं अलौकिक अस्त्र-शस्त्र केवल भगवान शंकर की कृपा से ही प्राप्त हो सकती है, मैं तुम्हें यह वर देने में असमर्थ हूँ। किन्तु मैं तुम्हें सर्वत्र विजयी होने का वर देता हूँ।" इतना कह कर अग्निदेव अन्तर्ध्यान हो गये।

जप कोई भी हो, जरूरी है कि ध्यान लगे

कई लोग जाप किया करते हैं लेकिन उन्हें उसका फल नहीं मिलता। कोई शिव, कोई विष्णु, कोई राम तो कोई कृष्ण के नाम का जाप करता रहता है लेकिन उसे वैसा आनंद नहीं मिलता। कारण यह है कि हम जप तो करते हैं लेकिन ध्यान नहीं लगा पाते, यानी जुबान से जो भगवान का नाम ले रहे हैं वह दिल में नहीं उतर पाता इस कारण भगवान तक वे जाप नहीं पहुंच पाते। जब हृदय से जप होने लगे तो यह तत्काल भगवान तक पहुंचता है, इसका असर सीधा हमारे व्यक्तित्व पर भी दिखाई देता है। इसका सबसे श्रेष्ठ उदाहरण एक कथा के जरिए दिया जा सकता है। रामायण ग्रंथ के रचियता वाल्मीकि जो कि एक डाकू थे उनके मुंह से मरा मरा शब्द निकला जो कि राम की उलटा ही होता है, फिर भी मरा-मरा बोलते-बोलते ही उनका ध्यान लग गया और मुंह से राम-राम निकलने लगा, बस फिर तो वाल्मीकि को श्रीराम की कृपा प्राप्त हो गई वे परम ज्ञानी और श्रीराम भक्त वाल्मीकि हो गए। आज कलयुग में हम पूजा-तप और ऐसी कोई भक्ति करने की सोच भी नहीं सकते क्योंकि हमने हमारे चारों ओर मोह-माया की कभी ना टूटने वाली दीवार खड़ी कर ली है।

खर्राटे कम करती है कैलोरी

खर्राटों को प्राय: परेशानी का सबब माना जाता है, लेकिन आपको जानकर हैरानी होगी कि खर्राटे सेहत के लिए फायदेमंद हो सकते हैं। जी हां, आप इस बात पर संभवत: विश्वास नहीं करें, लेकिन एक नए अध्ययन पर विश्वास किया जाए तो आप जितनी जोर से खर्राटे लेंगे, उतनी ही कैलोरी जलाएंगे।

अध्ययन में कहा गया है कि आप जितने अधिक जोर से खर्राटे भरेंगे, उतनी ही कैलोरी और चर्बी को उन लोगों के मुकाबले ज्यादा घटाएंगे जो हल्के खर्राटे लेते हैं।

यह अध्ययन यूनिवर्सिटी ऑफ कैलिफोर्निया के वैज्ञानिकों ने 212 लोगों पर किया जिन्हें रात में सोते वक्त सांस लेने में तकलीफ होती थी। अध्ययन दल के प्रमुख एरिक जे। केजिरियान ने कहा कि इन लोगों के मेडिकल इतिहास का भी अध्ययन किया गया। साथ ही सोते वक्त उनकी ऊर्जा कितनी खर्च होती है, इसको भी विशेष यंत्र कैलोरीमीटर से मापा गया।

एरिक ने कहा कि अध्ययन में शामिल 212 लोगों ने औसतन आराम करते वक्त प्रतिदिन 1763 कैलोरी खर्च की, लेकिन जो लोग जोर-जोर से खर्राटे लेते हैं, वे लोग दिन में आरात करते वक्त औसतन 1999 कैलोरी ज्यादा खर्च करते हैं।

03 मई 2010

आपत्ति काल में परखिए सभी को...

तेजी से बदलती दुनिया में उसी तेजी से हमारे आसपास रहने वाले लोग भी बदल रहे हैं और बदल रहे हैं हम खुद। सुख-दुख जैसे बदलते हैं वैसे ही आज हमारा व्यवहार बदल जाता है। आज शायद ही ऐसा कोई व्यक्ति मिले जिसके जीवन में दुख, विपत्ति या परेशानियां ना हो। तो ऐसे समय के लिए श्रीरामचरित मानस के अरण्यकांड में एक चौपाई है:
धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी।
आपद काल परखिए चारी।
अत: विपत्ति का ही वह समय होता है जब हम अपने धीरज, धर्म, मित्र और पत्नी की परीक्षा कर सकते हैं। सुख में तो सभी साथ देते हैं। जो दुख में साथ दे वही हमारा सच्चा हितेशी है।
कलयुग में थोड़ा ही दुख पहाड़ के समान दिखाई देता है और दुख के वश अधिकांशत: धर्म और धीरज का साथ छुट जाता है। और धर्म और धीरज का साथ छुटते ही शुरू होता है और भी ज्यादा बुरा समय। ऐसे में दुख के भंवर में फंसे उस व्यक्ति के मित्र और उसकी पत्नी साथ दे दे तब ही वह बच सकता है। परंतु ऐसा होता बहुत ही कम है। अत: यह समय ही परीक्षा का समय होता है उस दुखी व्यक्ति के धर्म और धीरज की परीक्षा और परीक्षा उसके मित्र और पत्नी की।

धर्म की परीक्षा
दुख या विपत्ति के समय हमें यह देखना चाहिए कि हम किसी भी तरह अधर्म के मार्ग पर ना जाए। अधर्म का मार्ग अर्थात् रिश्वत, बेइमानी, दुराचार, व्यभिचार आदि। हमें इन जैसे अधार्मिक और नैतिक पतन के मार्ग पर चलने से बचना चाहिए।

धीरज की परीक्षा
हमारा धीरज ही हमें समाज में मान-सम्मान के शिखर तक पहुंचा सकता है। कोई परेशानी यदि आती है तो ऐसे में धैर्य धारण करते हुए सही निर्णय लेना चाहिए ना कि गुस्से में अन्य लोगों पर दोषारोपण किया जाए।

मित्र की परीक्षा
मित्र ही होते है जो आपको किसी भी मुश्किल से आसानी से निकाल सकते हैं। मित्र ही सुखी और खुशियों भरा अमूल्य जीवन जीने की प्रेरणा देते हैं। आपत्ति के समय जो मित्र सहयोग करते हैं वे ही सच्चे मित्र होते हैं। रामायण में राम ने कहा है हमें मित्रों के छोटे से दुख को पहाड़ के समान समझना चाहिए और हमारे स्वयं के दुख को धूल के समान।

पत्नी की परीक्षा
ऐसा कहा जाता है कि पत्नी अगर अच्छी हो तो वह पति को सफलता की ऊंचाइयों तक पहुंचा सकती है और इसके विपरित बुरी पत्नी राजा को भी भिखारी सा जीवन जीने पर मजबूर कर सकती है। अत: विपरित परिस्थिति में भी जो पत्नी पति के हर कदम पर साथ चले और उसका मनोबल ना टूटने दे, गरीबे के समय भी पति को यह एहसास ना होने दे कि उसे किसी भी प्रकार दुख है। ऐसी पत्नी पूजनीय है।

02 मई 2010

अपषकुन क्या है?

मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ प्राणी माना गया है। लेकिन उसका मतलब यह नहीं निकाला जाना चाहिए क़ी प्रकति प्रदत्त अन्य प्राणियों की कोई अहमियत नहीं और वे 'गए-गुजरे' हैं। आकाश में स्वछंद उड़ते पक्षी को देखिये। कितनी मस्ती और बेफिक्री से जीवन जी रहा है। एक क्षेत्र से दूसरे क्षेत्र में पहुँचने के लिये उसे किसी पासपोर्ट की या किराए की दरकार नहीं है। बिना कारोबार, व्यापार किये वह अपने पेट को भरने की व्यवस्था स्वयं कर लेता है। यही स्थिति स्वछंद विचरण करने वाले जानवर, कीट पतंगों पर लागू है। सही मायने में इन्हें मुख्य ख़तरा आदमी से है जो स्वयं भी परेशान रहता हुआ अपना जीवन बिताता है और इन पशु-पक्षियों को भी बंधक बनाकर इनकी ह्त्या करने को तत्पर रहता है।
माना जाता है क़ी मनुष्य का दिमाग अन्य सबसे प्रखर है, वह इस दिमाग के बलबूते सारी दुनिया पर राज कर रहा है। अन्य सारे प्राणियों को अपना गुलाम बनाने की उसमें भरपूर क्षमता है। अपने इस उर्वर मस्तिष्क की बसौलत उसने ऐसे-ऐसे उपकरण ईजाद कर लिये हैं जिनका उपयोग वह अपनी सुख-सुविधा के लिये करता रहता है। मीलों दूर वह एक जगह बैठकर बात कर सकता है, थोड़े से समय में एक जगह से दूसरी जगह आ-जा सकता है, अपनी बीमारियों का इलाज वह दवाइयों से कर सकता है। मौसम के तीखे प्रहारों से बच सकता है।
लेकिन सोचिये एक कौवे की मौत पर शोक व्यक्त करने दूर-दराज से कौवे किस तरह आकर इकट्ठे हो जाते हैं? मीलों दूर से गिद्ध अपना आहार कैसे तलाश लेते हैं? किस तरह पक्षी हजारों मील दूर अनुकूल अपने प्रजनन तथा सैर-सपाटे का स्थान तलाश लेते हैं? और गंतव्य स्थान पर ठीक समय पर पहुँच जाते हैं।
दरअसल प्रकति बहुत दयालु है। उसने सारे प्राणियों का ध्यान रखा है। यदि मनुष्य को कुछ विशेषताएं प्रदान की तो अन्यों को भी वंचित नहीं रखा, सभी को यहाँ तक की पेड़-पौधों को भी विलक्षण शक्तियां प्रदान की हैं। प्रकति ने तो प्राणियों की रक्षा तथा भविष्य में हो सकने वाले खतरों को भांपने तथा उनसे बचाव के उपाय भी उद्घाटित किये हैं। जिन्हें मनुष्येतर प्राणी भली-भाँती जानते-समझते हैं।
हमारे पूर्वज जो प्रकति के साहचर्य में रहना ही सच्चा जीवन मानते थे, उन्होनें प्रकति के इन संकेतों को समझा था, हालाकिं आज के युग में इसे अंधविश्वास ही कहा जाता है, लिकिन विगत वर्षों में आये भीषण भूकम्पों के अध्ययनों से यह बात स्पस्ट हो गयी थी कि अनेक मनुष्येतर प्राणियों ने भूकंप से पूर्व अपने असामान्य व्यवहार से संकेत दिए थे कि कुछ आपदा आने ही वाली है। व्यक्तीगत स्तर पर भी अनेक प्राकृतिक संकेत व्यक्ति विशेष को आगाह करते हैं। कुछ ऐसे ही संकेत यहाँ प्रस्तुत हैं, जो संभावित भविष्य को निश्चित तौर पर तो नहीं, फिर भी संभावना समझ कर सचेत होने में बुराई नहीं है।
कुछ लक्षणों को देखते ही व्यक्ति के मन में आषंका उत्पन्न हो जाती है कि उसका कार्य पूर्ण नहीं होगा। कार्य की अपूर्णता को दर्षाने वाले ऐसे ही कुछ लक्षणों को हम अपषकुन मान लेते हैं।
अपशकुनों के बारे में हमारे यहां काफी कुछ लिखा गया है, और उधर पष्चिम में सिग्मंड फ्रॉयड समेत अनेक लेखकों-मनोवैज्ञानिकों ने भी काफी लिखा है। यहां पाठकों के लाभार्थ घरेलू उपयोग की कुछ वस्तुओं, विभिन्न जीव-जंतुओं, पक्षियों आदि से जुड़े कुछ अपषकुनों का विवरण प्रस्तुत है।

प्राकृतिक उत्पाद संकेत

  • गाँव या नगर के बाहर दिन में श्रृंगाल और उल्लू शब्द करें तो उस गाँव में अनिष्ट की सूचना समझनी चाहिए।
  • यात्रा के समय नीलकंठ का दर्शन उत्तम माना गया है, उसके बायें अंग का अवलोकन भी उत्तम है।
  • वर्षाकाल में पृथ्वी का कम्पन, भूकंप होना, बादलों की आकृति का बदल जाना, पर्वत और घरों का चलायमान होना, भयंकर शब्दों का चारों दिशाओं से सुनाई पढ़ना, सूखे हुए वृक्षों में अंकुर का निकल आना, इन्द्रधनुष काले रूप में दिखालाई पढ़ना एवं श्यामवर्ण की विधुत का गिरना भय, मृत्यु और आनावृस्टि का सूचक की है।
  • यदि नदियाँ नगर के निकटवर्ती स्थान को छोड़कर दूर हटकर बहने लगें तो उन नगरों की आबादी घाट जाती है, वहां अनेक प्रकार के रोग फैलते हैं।
  • यदि नदियों का जल विकृत हो जाए वह रुधिर, तेल, घी, शहद आदि के गंध और आकृति के समान बहता हुआ दिखलाई पड़े, कुआ का जल स्वयं ही खौलने लगे, रोने और गाने का शब्द जल से निकले तो महामारी फैलती है।
  • किसी भी देव की प्रतिमा का भंग होना, फूटना या हँसना, चलना आदि अशुभकारक है। उक्त क्रियाएं एक सप्ताह लगातार होती हों तो निश्चय ही तीन महीने के भीतर अनिष्टकारक फल मिलता है। ग्रहों की प्रतिमाएं, चौबीस शासनादेवों एवं शासनदेवियों की प्रतिमाएं, क्षेत्रपाल और दिक्पालों की प्रतिमाएं इनमें उक्त प्रकार की विकृति होने से व्याधि, जनहानि, मरण एवं अनेक प्रकार की व्याधियां उत्पन्न होती हैं।
  • दो बैल परस्पर स्तनपान करें तथा कुत्ता गाय के बछड़े का स्तनपान करें तो महान अमंगल होता है।

झाड़ू का अपषकुन
  • नए घर में पुराना झाड़ू ले जाना अषुभ होता है।
  • उलटा झाडू रखना अपषकुन माना जाता है।
  • अंधेरा होने के बाद घर में झाड़ू लगाना अषुभ होता है। इससे घर में दरिद्रता आती है।
  • झाड़ू पर पैर रखना अपषकुन माना जाता है। इसका अर्थ घर की लक्ष्मी को ठोकर मारना है।
  • यदि कोई छोटा बच्चा अचानक झाड़ू लगाने लगे तो अनचाहे मेहमान घर में आते हैं।
  • किसी के बाहर जाते ही तुरंत झाड़ू लगाना अषुभ होता है।

दूध का अपषकुन
  • दूध का बिखर जाना अषुभ होता है।
  • बच्चों का दूध पीते ही घर से बाहर जाना अपषकुन माना जाता है।
  • स्वप्न में दूध दिखाई देना अशुभ माना जाता है। इस स्वप्न से स्त्री संतानवती होती है।

पशुओं का अपषकुन
  • यदि यात्रा करने वाले की अनुकूल दिशा (सामने) की ओर कुत्ता जाय तो वह कल्याणकारी और कार्यसाधक होता है, परन्तु यदि प्रतिकूल दिशा की ओर जाय तो उसे कार्य में भयंकर, बाधा डालने वाला जाना चाहिए।
  • यात्राकाल में घर पर कु्त्ता आ जाय तो वह अभीष्ट कार्य की सिद्धि सूचित करता है।
  • घर के भीतर भौंकता हुआ कुत्ता आवे तो गृहस्वामी की मृत्यु का कारण होता है।
  • कुत्ता जिसके बाएं अंग को सूंघता है, तो उसके कार्य की सीधी होती है। यदि दाहिने अंग और बांयी भुजा को सूंघे तो भय उपस्थित होता है।
  • कुत्ता जिसके आगे पेशाब करके चला जाता है, उसके ऊपर भय आता है, किन्तु मूत्र त्यागकर यदि वह किसी शुभ स्थान, शुभ वृक्ष तथा मांगलिक वास्तु के समीप चला जाए तो वह पुरुष के कार्य का साधक होता है। कुत्ते की ही भांति गीदड आदि भी समझने चाहिये।
  • यदि घोडे के नेत्र से आंसू बहें तथा वह जीभ से अपने पैर चाटने लगे तो विनाश का सूचक होता है।
  • यात्राकाल में सर्प, खरगोश तथा हाथी का नाम लेना भी शुभ माना गया है।
  • जिस व्यक्ति की नजर अनायास ऐसे कौए पर पड जाती है जो कि शांत बैठा हो तथा पूर्वाभिमुख हो तो निश्चय ही ऐसे व्यक्ति को एक पखवाडे के अन्दर धन-लाभ होगा।
  • यदि कुत्ता हड्डी लेकर घर में प्रवेश करे तो रोग उत्पन्न होने की सूचना देता है।
  • किसी कार्य या यात्रा पर जाते समय कुत्ता बैठा हुआ हो और वह आप को देख कर चौंके, तो विन हो।
  • किसी कार्य पर जाते समय घर से बाहर कुत्ता शरीर खुजलाता हुआ दिखाई दे तो कार्य में असफलता मिलेगी या बाधा उपस्थित होगी।
  • यदि आपका पालतू कुत्ता आप के वाहन के भीतर बार-बार भौंके तो कोई अनहोनी घटना अथवा वाहन दुर्घटना हो सकती है।
  • यदि कीचड़ से सना और कानों को फड़फड़ाता हुआ दिखाई दे तो यह संकट उत्पन्न होने का संकेत है।
  • आपस में लड़ते हुए कुत्ते दिख जाएं तो व्यक्ति का किसी से झगड़ा हो सकता है।
  • शाम के समय एक से अधिक कुत्ते पूर्व की ओर अभिमुख होकर क्रंदन करें तो उस नगर या गांव में भयंकर संकट उपस्थित होता है।
  • कुत्ता मकान की दीवार खोदे तो चोर भय होता है।
  • यदि कुत्ता घर के व्यक्ति से लिपटे अथवा अकारण भौंके तो बंधन का भय उत्पन्न करता है।
  • चारपाई के ऊपर चढ़ कर अकारण भौंके तो चारपाई के स्वामी को बाधाओं तथा संकटों का सामना करना पड़ता है।
  • कुत्ते का जलती हुई लकड़ी लेकर सामने आना मृत्यु भय अथवा भयानक कष्ट का सूचक है।
  • पशुओं के बांधने के स्थान को खोदे तो पशु चोरी होने का योग बने।
  • कहीं जाते समय कुत्ता श्मषान में अथवा पत्थर पर पेषाब करता दिखे तो यात्रा कष्टमय हो सकती है, इसलिए यात्रा रद्द कर देनी चाहिए। गृहस्वामी के यात्रा पर जाते समय यदि कुत्ता उससे लाड़ करे तो यात्रा अषुभ हो सकती है।
  • बिल्ली दूध पी जाए तो अपषकुन होता है।
  • यदि काली बिल्ली रास्ता काट जाए तो अपषकुन होता है। व्यक्ति का काम नहीं बनता, उसे कुछ कदम पीछे हटकर आगे बढ़ना चाहिए।
  • यदि सोते समय अचानक बिल्ली शरीर पर गिर पड़े तो अपषकुन होता है।
  • बिल्ली का रोना, लड़ना व छींकना भी अपषकुन है।
  • जाते समय बिल्लियां आपस में लड़ाई करती मिलें तथा घुर-घुर शब्द कर रही हों तो यह किसी अपषकुन का संकेत है। जाते समय बिल्ली रास्ता काट दे तो यात्रा पर नहीं जाना चाहिए।
  • गाएं अभक्ष्य भक्षण करें और अपने बछड़े को भी स्नेह करना बंद कर दें तो ऐसे घर में गर्भक्षय की आषंका रहती है। पैरों से भूमि खोदने वाली और दीन-हीन अथवा भयभीत दिखने वाली गाएं घर में भय की द्योतक होती हैं।
  • गाय जाते समय पीछे बोलती सुनाई दे तो यात्रा में क्लेषकारी होती है।
  • घोड़ा दायां पैर पसारता दिखे तो क्लेश होता है।
  • ऊंट बाईं तरफ बोलता हो तो क्लेषकारी माना जाता है।
  • हाथी बाएं पैर से धरती खोदता या अकेला खड़ा मिले तो उस तरफ यात्रा नहीं करनी चाहिए। ऐसे में यात्रा करने पर प्राण घातक हमला होने की संभावना रहती है।
  • प्रातः काल बाईं तरफ यात्रा पर जाते समय कोई हिरण दिखे और वह माथा न हिलाए, मूत्र और मल करे अथवा छींके तो यात्रा नहीं करनी चाहिए।
  • जाते समय पीठ पीछे या सामने गधा बोले तो बाहर न जाएं।

पक्षियों का अपषकुन
  • रात्रिकाल में कौए का स्वर सुनाई देना अति शुभ होता। इसके लिये बिस्तर से उठकर कुल्ला करें एवं ईष्ट का स्मरण करें फ़िर सोवें।
  • पाराशर मुनि के अनुसार जिस व्यक्ति के अनुसार जिस व्यक्ति के समक्ष आकर कौआ किसी कीड़े को गिरावे तो निश्चय ही उस व्यक्ति के शत्रु का हनन होता है।
  • छाया (तम्बू, रावती आदि) अंग, वाहन, उपानह, छात्र और वस्त्र आदि के द्वार कौए को कुचल डालने पर अपने लिये मृत्यु की सूचना मिलती है।
  • कौए की पूजा करने पर अपनी भी पूजा होती है तथा अन्न आदि के द्वारा उसका इस्ट करने पर अपना भी शुभ होता है।
  • यदि कौया दरवाजे पर बारम्बार आया-जाया करे तो वह उस घर में किसी परदेशी व्यक्ति के आने के सूचना देता है।
  • यदि कौया अपने आगे कच्चा मांस लाकर दाल दे तो धन की, मिटटी गिरावे तो पृथ्वी की और कोई रत्न दाल दें तो महान साम्राज्य की प्राप्ति होती है।
  • सारस बाईं तरफ मिले तो अषुभ फल की प्राप्ति होती है।
  • सूखे पेड़ या सूखे पहाड़ पर तोता बोलता नजर आए तो भय तथा सम्मुख बोलता दिखाई दे तो बंधन दोष होता है।
  • मैना सम्मुख बोले तो कलह और दाईं तरफ बोले तो अशुभ हो।
  • बत्तख जमीन पर बाईं तरफ बोलती हो तो अशुभ फल मिले।
  • बगुला भयभीत होकर उड़ता दिखाई दे तो यात्रा में भय उत्पन्न हो।
  • यात्रा के समय चिड़ियों का झुंड भयभीत होकर उड़ता दिखाई दे तो भय उत्पन्न हो।
  • घुग्घू बाईं तरफ बोलता हो तो भय उत्पन्न हो। अगर पीठ पीछे या पिछवाड़े बोलता हो तो भय और अधिक बोलता हो तो शत्रु ज्यादा होते हैं। धरती पर बोलता दिखाई दे तो स्त्री की और अगर तीन दिन तक किसी के घर के ऊपर बोलता दिखाई दे तो घर के किसी सदस्य की मृत्यु होती है।
  • कबूतर दाईं तरफ मिले तो भाई अथवा परिजनों को कष्ट होता है।
  • लड़ाई करता मोर दाईं तरफ शरीर पर आकर गिरे तो अशुभ माना जाता है।
  • लड़ाई करता मोर दाईं तरफ शरीर पर आकर गिरे तो अशुभ माना जाता है।
जीव निमित्त ज्ञान
  • घर में लाला चीटियों की अधिकता से घर में अर्थ हानि होती है।
  • जिस घर में काली चीटिया होती है वहां धनागमन में वृद्धि होती है।
  • जब अनायास घर में मखियाँ प्रवेश करें तब निश्चय ही किसी अजनबी के आगमन की सूचना मिलती है।
  • घर में मधुमखियों के छत्ते के निर्माण होना किसी बिन बुलाए आफत का आना दर्शाता है।
  • जिस घार में बिल्ली जानती है वहां कोई न कोई कष्ट अवश्य होता है। इसी प्रकार कोई बिल्ली जिस घर में किसी अन्य घर में उसके द्वारा जने हुए बच्चों को लाती है तब वहां शुभ घटनाएं पर्लाक्षित होती है।
  • जिस घर में पूर्ण कृष्ण वर्ण की बिल्ली उत्तर दिशा में प्रवेश करे तब बहन के रहने वाले को धन-प्राप्ति होती है, इसी प्रकार जा ऐसी बिल्ली दक्षिण से प्रवेश करे तो निश्चय ही नुक्सान होता है। सफ़ेद या पीली बिल्ली का घर में आना शुभ नहीं।
  • घर में मयूर पंध का रखना शुभ नहीं होता। इस अशुभात्व को दूर करने हेतु मयूर पन्हों को किसी वृक्ष पर डाल आना चाहिए।
  • घर में छछूंदर के घूमने-फिरने से लक्ष्मी आती है। छछूंदर जिस व्यक्ति के चारों ओर घूम जावे, निकट भविष्य मं उसे अप्रतिम लाभ होता है।
वृक्ष संकेत
  • जिस व्यक्ति के घर में एक भी वृक्ष फलता-फूलता है उसे और इसके घर के लोगों को 100 यज्ञ के बराबर पुण्य प्राप्त होता है।
  • जिस व्यक्ति के घर के आँगन में एक तुलसी का पौधा होता है उसे बैकुण्ठवास मिलता है।
  • जिस व्यक्ति के घर में बिल्व का एक वृक्ष होता है, लक्ष्मी उसका साथ कभी नहीं छोडती।
  • जो व्यक्ति एक भी पाकड़ का वृक्ष लगाता है उसे राजसूय यज्ञ के समान पुण्य की प्राप्ति होती है।
  • छह शिरीष के वृक्ष का रोपण और पालन करने वाला सदैव सुखी रहता है।
  • जो व्यक्ति 7 या इसके गुणन में पलाश के वृक्ष लगाता है उसके समस्त पित्रदोश समाप्त होते हैं। वह ब्रह्मा की कृपा का पात्र होता है। किन्तु ये वृक्ष घर की सीमा में न हों। घर की सीमा में पलाश का होना अशुभ माना गया है।
  • मधुका (महुआ) का वृक्ष का रोपण एवं पालन करने वाला कई व्याधियों से मुक्त होता है।
  • घर की सीमा में पश्चिम में पीपल का होना अति शुभ है।
  • घर की सीमा में पूर्व में बरगद का वृक्ष शुभ होता है।
  • घर में दक्षिण में गूलर और उत्तर में पाकर का वृक्ष अनेकानेक शुभत्व प्रदान करता है।
  • घर में बदरी और केला के वृक्ष नहीं लगाने चाहिए।
  • अमन चैन चाहने वाले को बैर, अर्जुन और करन्ज के वृक्ष अपने घर में नहीं लगाने चाहिए। ऐसा वृक्षायुर्वेद का कहना है।

अपषकुनों से मुक्ति तथा बचाव के उपाय - विभिन्न अपशकुनों से ग्रस्त लोगों को निम्नलिखित उपाय करने चाहिए।
  • यदि काले पक्षी, कौवा, चमगादड़ आदि के अपषकुन से प्रभावित हों तो अपने इष्टदेव का ध्यान करें या अपनी राषि के अधिपति देवता के मंत्र का जप करें तथा धर्मस्थल पर तिल के तेल का दान करें।
  • अपषकुनों के दुष्प्रभाव से बचने के लिए धर्म स्थान पर प्रसाद चढ़ाकर बांट दें।
  • छींक के दुष्प्रभाव से बचने के लिए निम्नोक्त मंत्र का जप करें तथा चुटकी बजाएं।
क्क राम राम रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम जपेत्‌ तुल्यम्‌ राम नाम वरानने॥
  • अशुभ स्वप्न के दुष्प्रभाव को समाप्त करने के लिए महामद्यमृत्युंजय के निम्नलिखित मंत्र का जप करें।
क्क ह्रौं जूं सः क्क भूर्भुवः स्वः क्क त्रयम्बकम्‌ यजामहे सुगन्धिम्‌ पुच्च्िटवर्(नम्‌ उर्वारूकमिव बन्धनान्‌ मृत्योर्मुक्षीयमाऽमृतात क्क स्वः भुवः भूः क्क सः जूं ह्रौं॥क्क॥
  • श्री विष्णु सहस्रनाम पाठ भी सभी अपषकुनों के प्रभाव को समाप्त करता है।
  • सर्प के कारण अषुभ स्थिति पैदा हो तो जय राजा जन्मेजय का जप २१ बार करें।
  • रात को निम्नोक्त मंत्र का ११ बार जप कर सोएं, सभी अनिष्टों से भुक्ति मिलेगी।
बंदे नव घनष्याम पीत कौषेय वाससम्‌।
सानन्दं सुंदरं शुद्धं श्री कृष्ण प्रकृते परम्‌॥

जानिए, लक्ष्मी कहां निवास नहीं करती है

जो सूर्योदय, सूर्यास्त या दोपहर में सोता है। लक्ष्मी उसके यहां निवास नहीं करती है।

- निर्लज्ज, कलहप्रिय, निंदाप्रिय, मलिन, असावधान का लक्ष्मी सदा त्याग करती है।

- जो दांत-साफ नहीं करता, स्नान नहीं करता, स्वच्छ वस्त्र नहीं पहनता लक्ष्मी उसका त्याग कर देती है।

- जो हमेशा क्रोध करे, जोर से बोले, ज्यादा खाए, दान नहीं करे, लक्ष्मी उसके यहां नहीं ठहरती।

- जो मल-मूत्र त्यागकर उसे देखे, दुर्गंध सुंघे उसको लक्ष्मी का कभी दर्शन भी नहीं होता।

- जो झूठ बोलता हो, झूठन खाता हो, अपवित्र आचरण करता हो उसको लक्ष्मी त्याग देती है।

- जो परायी स्त्री-पुरुष में आसक्त हो, व्यभिचारी हो वह अतिधनवान भी हो तो भी निर्धन हो जाता है।

- जो पुत्रियों की उपेक्षा करता हो, निराशावादी, नकारात्मक सोच का हो लक्ष्मी उससे अप्रसन्न रहती है।

- जो निर्दयी हो, दूसरे का माल हड़पता हो, दगाबाज हो, नशेबाज हो लक्ष्मी उसके यहां नहीं आती।

भारत में नातेदारी

प्रत्येक समाज नातेदारी संबंधों का ढांचा प्रस्तुत करता है। अपने नाभिकीय परिवार के बाहर व्यक्ति के द्वितीयक एवं तृतीयक संबंध होते हैं। हर व्यक्ति के प्राथमिक संबंधी तो उसी नाभिकीय परिवार में पाए जाते हैं। नातेदारी संस्कृति का वह हिस्सा है जो जन्म और विवाह के आधार पर बने संबञें एवं संबंध की अवधारणाओं एवं विचारों से संबंधित होता है। नातेदारी संगठन व्यक्तियों के उस समूह को इंगित करता है जो या तो एक-दूसरे के रक्त संबंधी होते हैं या वैवाहिक संबंधी।
जी। डंकन मिचेल के अनुसार, जब हम नातेदारी शब्द का इस्तेमाल करते हैं तो हम लोग रक्त-संबंधियों एवं विवाह संबंधियों को संदर्भित कर रहे हैं। रक्त संबंधियों में सामान्यत: उन्हें शामिल किया जाता है जिनके बीच सामुहिक रूप से तथाकथित रक्त संबंध पाया जाता है। रक्त संबंधी वह है जिसका या तो उस परिवार में जन्म हुआ है या उसे परिवार द्वारा गोद लिया गया हो। जबकि विवाह संबंधी उसे कहते है जिसके साथ संबंध का माधयम विवाह हो। उदाहरण के लिए पिता-पुत्र संबंध एक रक्त संबंध है जबकि पति-पत्नी संबंध एक विवाह संबंध है।

नातेदारी दो महत्त्वपूर्ण एवं संबंधित उद्देश्यों की पूर्ति करता है -
(1) यह एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पस्थिति, प्रतिष्ठा एवं संपत्ति के हस्तांतरण को संभव बनाता है, तथा
(2) कुछ समाजों में यह प्रभावी सामाजिक समूह के निर्माण को कायम रखने में प्रभावी होता है। नातेदारी व्यवस्था परिवार एवं विवाह जैसी दो जुड़ी संस्थाओं का प्रतिफल है ओर यह जन्म, मृत्यु एवं पुरूष-स्त्री के शारीरिक संबंध से जुड़े सामाजिक व्यवहार का नियमन करता है। नातेदारी एक-दूसरे के प्रति अधिकारों तथार् कत्तव्यों के बारे में तथा एक-दूसरे की अभिरूचियों एवं अपेक्षाओं के बारे में बतलाता है।
ज्यादातर समाजों में जहाँ नातेदारी संबंध महत्त्वपूर्ण होते हैं वंशावली तय करने के स्पष्ट नियम होते है। वंश कई पीढ़ियों के लोगों को जोड़ता है। वंशावली के आधार पर यह बतलाया जा सकता है कि किस व्यक्ति की उत्पत्ति किस व्यक्ति से हुई है। वंशावली तय करने के कई तरीके है।

(क) एक पक्षीय वंश - माता-पिता में से जब केवल एक पक्ष को ही वंशावली में गिनने की प्रथा हो तो उसे एक पक्षीय वंश कहते है। इसके भी दो रूप हैं :-
(1) पितृवंशीय - इसमें वंश का र्निधारण या गणना केवल पिता या दादा जैसे पुरूष संबंधियों से संबंध स्थापित करके किया जाता है। पितृवंश में पुत्रों के साथ-साथ पुत्रियों की गिनती भी की जाती है। वंश पिता या दादा के नाम से जाना जाता है।
(2) मातृवंशीय - इसमें वंश का र्निधारण मां या नानी जैसे स्त्री संबंञ्यिो के साथ संबंध स्थापित करके किया जाता है। मातृवंश में पुत्रियों के साथ पुत्र की गिनती भी की जाती है। वंश माता या नानी के नाम से जाना जाता है।
(3) द्विवंशीय - यह भी एक पक्षीय वंश का ही एक रूप है जिसमें मातृवंशीय एवं पितृवंशीय के गुण मिले रहते है। वंशावली का र्निधारण पिता या माता के एक ही पक्ष के आधार पर किया जाता है। परन्तु अलग-अलग उद्देश्यों के लिए अलग-अलग वंशावली तैयार की जाती है। उदाहरण के लिए, अचल संपत्ति के हस्तांतरण के लिए एक पक्ष (पिता) एवं चल संपत्ति के हस्तांतरण के लिए दूसरा पक्ष (माता) के साथ संबंध स्थापित कर वंशावली तैयार की जाती है।

(ख ) द्विपक्षीय वंश - यह एक पक्षीय वंश नहीं होकर द्विपक्षीय वंश होता है। इसमें एक ही साथ माता और पिता, पुरूष पूर्वज एवं स्त्री पूर्वज दोनो के तरफ से (एक साथ, एक ही उद्देश्य के लिए) वंशावली तैयार की जाती है।

भारत में सामान्यत: पितृवंशीय एवं मातृवंशीय दोनों प्रकार की व्यवस्थाएँ पायी जाती है। उत्तर भारत में पितृवंशाीय व्यवस्था ज्यादा पाई जाती है। जनजातियों में संथाल एवं मुंडा जैसी जनजातियाँ पितृवंशीय हैं। यह मनोरंजक है कि बहुपति विवाह के रिवाज को मानने वाले टोड़ा लोग भी पितृवंशीय है। जनजातियों में उत्तर-पूर्व के खासी तथा गारो लोग मातृवंशीय व्यवस्था मानते हैं। केरल की नायर जाति मातृवंशीय व्यवस्था का सर्वोत्तम उदाहरण है।
एकपक्षीय वंश समूह को गोत्र या कुल कहा जाता है। गोत्र या वंश नातेदारों का ऐसा समूह है जिसमें सभी पूर्वजों के साथ ज्ञात कड़ियों के आधार पर वंशानुगत संबंध स्थापित किया जाता है। एक कुल कई वंशों के मिलने से बनता है। कुल नातेदारों का ऐसा समूह है जिसके सदस्य सामूहिक रूप से एक साझे पूर्वज से अपने को जोड़ते हैं परन्तु वे ज्ञात वंशावली के आधार पर उस पूर्वज से संबंध नहीं जोड़ पाते।
एकपक्षीय वंश समूह के सदस्य सामान्यत: कर्मकाण्ड तथा अनुष्ठानिक उत्सवों के अवसर पर साथ-साथ उपस्थित होते हैं। उत्तराधिकार के नियम अधिकांशत: वंशावली के द्वारा नियमित होते है। भारत के अधिकांश भाग में अभी हाल तक जमीन एवं घर जैसी अचल संपत्ति नजदीकी पुरूष संबंधियों को हस्तांतरित होती थी। हाल के कानूनी विधेयकों ने पिता की संपत्ति में पुत्री को भी अधिकार प्रदान किया है।

नातेदारी : पारिभाषिक शब्दावली
प्रसिध्द मानवशास्त्री ए.आर. रैडक्लिफ-ब्राउन का कहना है कि नातेदारी में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावली अन्य विशेषताओं के अतिरिक्त एक निश्चित नातेदार के अधिकारों एवंर् कत्तव्यों के वर्गीकरण की ओर संकेत करता है। उनके पहले एल.एच. मौर्गन ने कहा था कि नातेदारी शब्दावली हमारे सामाजिक संबंधों के संदर्भ तथा मुहावरे प्रदान करता है। मौर्गन ने नातेदारी में प्रयुक्त पारिभाषिक शब्दावलियों की दो व्यवस्थाओं की चर्चा की है :- (क) वर्गात्मक, तथा (ख) वर्णनात्मक
वर्गात्मक व्यवस्था में नातेदारी में प्रयुक्त शब्दावली के अंतर्गत एक ही शब्द के द्वारा भिन्न प्रकार के नातेदारों को वर्गीकृत या संबोधित किया जाता है।
वर्णनात्मक व्यवस्था में हर नातेदारी शब्द केवल एक खास नातेदार एवं एक खास संबधी के लिए इस्तेमाल किया जाता है। उदाहरण के लिए, मां के भाई को मामा, पिता के भाई को चाचा तथा पिता की बहन के पति को फूफा कहा जाता है। ज्यादातर समकालीन समाजों में दोनों प्रकार के (वर्गात्मक एवं वर्णनात्मक) शब्दों का उपयोग किया जाता है। नाभिकीय परिवार के अंदर माँ, पिताजी जैसे वर्णनात्मक शब्दों का उपयोग किया जाता है।
उत्तर भारतीय नातेदारी शब्दावली तुलनात्मक रूप से वर्णनात्मक है। यह व्यक्ति के प्राथमिक संबञें का वर्णन करता हैं। पितृपक्षीय वंशावली को स्पष्ट करने लिए चचेरे और फुफेरे तथा मातृवंशीय वंशावली को परिभाषित करने के लिए ममेरे एवं मौसेरे शब्दों का प्रयोग किया जाता है। जैसे भाई के पुत्र को भतीजा एवं बहन के पुत्र को भांजा कहा जाता है। इसके विपरीत, दक्षिण भारतीय नातेदारी शब्दावली में तुलनात्मक रूप से वर्गात्मक शब्दावली पर जोर दिया जाता है। यहाँ एक ही शब्द मामा के द्वारा माता का भाई, पत्नी का पिता एवं पिता की बहन का पति तीनों का बोध होता है ।

विशिष्ट नातेदारी शब्दावली, प्रथाएँ एवं नातेदारी व्यवहार
समाज में व्यवस्था एवं मर्यादा बनाये रखने के लिए कुछ व्यवहारों को आवश्यक व्यवहार के रूप में सामाजिक मान्यता एवं स्वीकृति प्राप्त होती है। हंसी - मजाक का संबंध भी इसी प्रकार का एक मान्यता प्राप्त व्यवहार है। हंसी-मजाक के संबंध में दो संबंधियों के बीच एक प्रकार की समानता एवं पारस्परिकता का संबंध होता है। उदाहरण के लिए, एक पुरूष का अपनी पत्नी की छोटी बहन (जीजा-साली) एवं एक स्त्री का अपने पति के छोटे भाई के साथ के संबंध (भाभी-देवर) को हंसी-मजाक का संबंध कहा जाता है। कुछ कृषक जातियों में पति की असामयिक मृत्यु के बाद भाभी का देवर से विवाह उत्तर भारत में देखा गया है। पत्नी की असामयिक मृत्यु के बाद जीजा-साली का विवाह तो उससे भी ज्यादा लोकप्रिय प्रथा है।
अन्य प्रकार के हंसी-मजाक के संबंध भी महत्त्वपूर्ण हैं। उदाहरण के लिए, कुछ समुदायों में दादा-दादी के साथ या नाना-नानी के साथ भी बच्चों का हंसी-मजाक का संबंध होता है। यहां हंसी-मजाक के संबंध अनौपचारिकता, आत्मीयता एवं असीमित स्वतंत्रता के माहौल में बच्चों के विकास में मदद करते हैं।
हंसी-मजाक के संबंध के विपरीत, एक प्रकार के निषेध का संबंध भी नातेदारों के बीच पाया जाता है। उदाहरण के लिए एक स्त्री का अपने पति के बड़े भाई या पिता से निषेध का संबध होता है। पति के पिता को श्वसुर (ससुर) एवं पति के बड़े भाई को जेठ या भैंसुर कहा जाता है।

टेकनोनामी
टेकनोनामी की प्रथा भारत के कई ग्रामीण समुदायों में काफी लोकप्रिय है। यह बच्चों के नाम के आधार पर माता-पिता के नामकरण की प्रथा है जैसे, रामू की मां (या सीता के पिताजी) इस प्रथा का एक निहितार्थ यह है कि कई समुदायों में एक स्त्री अपने ससुराल में अपनी पहली संतान के बाद ही पूर्ण सदस्य बन पाती है। फलस्वरूप उसकी पहचान में (प्रथम) संतान का नाम जुड़ना स्वभाविक बन जाता है।