09 अक्टूबर 2010

टोने-टोटके - कुछ उपाय - 6 ( Tonae - Totke - Some Tips - 6 )

छोटे-छोटे उपाय हर घर में लोग जानते हैं, पर उनकी विधिवत् जानकारी के अभाव में वे उनके लाभ से वंचित रह जाते हैं। इस लोकप्रिय स्तंभ में उपयोगी टोटकों की विधिवत् जानकारी दी जा रही है।

आँखों के रोग से मुक्ति के लिए
  • आँखों में यदि काला मोतिया हो जाए तो ताम्बे के पात्र में जल लेकर उसमें ताम्बे का सिक्का व गुड डालकर प्रतिदिन सूर्य को अर्ध्य दें। यह उपाय शुक्ल पक्ष के प्रथम रविवार से शुरू कर चौदह रविवार करें। अर्ध्य देते समय रोग से मुक्ति की प्रार्थना करते रहें। इसके अतिरिक्त पांच प्रकार के फल लाल कपडे में बांधकर किसी भी मन्दिर में दें। यह उपाय निष्ठापूर्वक करें, लाभ होगा।

नौकरी की प्राप्ति के लिए
  • नौकरी न मिल रही हो तो मन्दिर में बारह फल चढ़ाएं। यह उपाय नियमित रूप से करें और इश्वर से नौकरी मिलने की प्रार्थना करें।

शीघ्र विवाह के लिए
  • विवाह योग्य वर या कन्या के शीघ्र विवाह के लिए घर के मन्दिर में नवग्रह यन्त्र स्थापित करें। जिनकी नई शादी हो, उन्हें घर बुलाएं, उनका सत्कार करें और लाल वस्त्र भेंट करें उन्हें भोजन या जलपान कराने के पश्चात सौंफ मिस्री जरूर दें। यह सब करते समय शीघ्र विवाह की कामना करें। यह उपाय शुक्ल पक्ष के मंगलवार को करें, लाभ होगा।

मनोकामना पूर्ती के लिये
  • व्यापार मंदा हो तथा पैसा टिकता न हो, तो नवग्रह यन्त्र और धन यन्त्र घर के मन्दिर में शुभ समय में स्थापित करें। इसके अतिरिक्त सोलह सोमवार तक पांच प्रकार की सब्जियां मन्दिर में दें और पंचमेवा की खीर भोलेनाथ को मन्दिर में अर्पित करें। सभी कामनाएं पूरी होंगी।

कुछ अन्य टोटके
  • बच्चे पढ़ते न हों तो उनकी स्टडी टेबल पर शुभ समय में सरस्वती यन्त्र व कुबेर यन्त्र स्थापित करें। उनके पढने के लिये बैठने से पहले यंत्रों के आगे शुभ घी का दीपक तथा गुलाब की अगरबत्ती जलाएं। पढ़ते समय उनका मुंह पूर्व की ओर होना चाहिय। यह उपाय करने के बच्चों का मन पढ़ाई में लगने लगेगा और पढ़ाई पूरी हो जाने के बाद उन्हें मनोवांछित काम भी मिल जायेगा।
  • समाज में मान सम्मन की प्राप्ति के लिये कबूतरों को चावल मिश्रित डालें, बाजरा शुक्रवार को खरीदें व शनिवार से डालना शुरू करें।
  • शुक्ल पक्ष के प्रथम सोमवार या बुधवार को चमकीले पीले वस्त्र में शुद्ध कस्तूरी लपेटकर अपने धन रखने के स्थान पर रखें, घर में सुख-समृद्धी आयेगी।
  • यदि मार्ग में कोई सफाई कर्मचारी सफाई करता दिखाई दे तो उसे यह कहकर की चाय-पानी पी लेना या कुछ खा लेना, कुछ दान अवश्य दें, परिवार में प्यार व सुख-समृद्धी बढ़ेगी। यदि सफाई कर्मचारी महिला हो तो शुभ फल अधिक मिलेगा।
  • किसी भी विशेष मनोरथ की पूर्ती के लिये शुक्ल पक्ष में जटावाला नारियल नए लाल सूती कपडे में बांधकर बहते जल में प्रवाहित करें। यह उपाय निष्ठापूर्वक करें।
  • शुक्ल पक्ष के प्रथम मंगलवार से नित्य प्रातः में अर्पित करें। फूल हनुमानजी को मन्दिर में अर्पित करें। फूल अर्पित करते समय हनुमान जी से मनोकामना पूरी करने की प्रार्थना करते रहें। ध्यान रहे यह उपाय करते समय कोई आपको टोके नहीं और टोके तो आप उसका उत्तर न दें।
  • जन्म पत्रिका में 12वें भाव में मंगल हो और खर्च बहुत होता हो, तो बेलपत्र पर चन्दन से 'भौमाय नमः' लिखकर सोमवार को शिवलिंग पर चढ़ाएं, उक्त सारे कष्ट दूर हो जायेंगे।
     
 

06 अक्टूबर 2010

सालासर के बालाजी ( Salasar Balaji )

राजस्थान के चुरू जिले में स्थित है सालासर बलाजी का मंदिर। जयपुर बीकानेर सडक मार्ग पर स्थित सालासर धाम हनुमान भक्तों के बीच शक्ति स्थल के रूप में जाना जाता है। इस मंदिर में अगाध आस्था है भक्तों की। आपको यहां हर दिन हजारों की संख्या में देशी-विदेशी भक्त मत्था टेकने के लिए कतारबद्ध खडे दिखाई देंगे।

जयपुर से लगभग 2घंटे के सफर के बाद यहां पहुंचा जा सकता है। यहां हनुमानजी की वयस्क मूर्ति स्थापित है, इसलिए भक्तगण इसे बडे हनुमान जी पुकारते हैं। एक कथा के अनुसार, राजस्थान के नागौर जिले के एक छोटे से गांव असोता में संवत 1811में शनिवार के दिन एक किसान का हल खेत की जुताई करते समय रुक गया। दरअसल, हल किसी शिला से टकरा गया था। वह तिथि श्रावण शुक्ल नवमी थी।

उसने उस स्थान की खुदाई की, तो मिट्टी और बालू से ढंकी हनुमान जी की प्रतिमा निकली। किसान और उसकी पत्नी ने इसे साफ किया और घटना की जानकारी गांव के लोगों को दी। माना जाता है कि उस रात असोता के जमींदार ने रात में स्वप्न देखा कि हनुमानजी कह रहे हैं कि मुझे असोता से ले जाकर सालासर में स्थापित कर दो। ठीक उसी रात सालासर के एक हनुमान भक्त मोहनदास को भी हनुमान जी ने स्वप्न दिया कि मैं असोता में हूं, मुझे सालासर लाकर स्थापित करो। अगली सुबह मोहनदास ने अपना सपना असोता के जमींदार को बताया। यह सुनकर जमींदार को आश्चर्य हुआ और उसने बालाजी[हनुमान जी] का आदेश मानकर प्रतिमा को सालासर में स्थापित करा दिया। धीरे-धीरे यह छोटा सा कस्बा सालासर धाम के नाम से विख्यात हो गया।

मंदिर परिसर में हनुमान भक्त मोहनदास और कानी दादी की समाधि है। यहां मोहनदास जी के जलाए गए अग्नि कुंड की धूनी आज भी जल रही है। भक्त इस अग्नि कुंड की विभूति अपने साथ ले जाते हैं। मान्यता है कि विभूति सारे कष्टों को हर लेती है। पिछले बीस वर्षो से यहां पवित्र रामायण का अखंड कीर्तन हो रहा है, जिसमें यहां आने वाला हर भक्त शामिल होता है और बालाजी के प्रति अपनी आस्था प्रकट करता है। चैत्र पूर्णिमा और आश्विन पूर्णिमा के दिन प्रतिवर्ष यहां बहुत बडा मेला लगता है।

03 अक्टूबर 2010

पानी को खोजने की अनोखी विद्या

क्या लकड़ी या नारियल की सहायता से भू-जलस्तर का पता लगाया जा सकता है? आस्था और अंधविश्वास की इस कढ़ी में हम ढूँढ रहे है इसी सवाल का जवाब। जब हमें पता चला कि इंदौर में एक शख्स के पास ऐसी अनोखी विद्या है, जिससे वह जमीन में पानी के स्तर का पता लगा सकता है तो हम चल पड़े उसकी खोज में......

हमारी तलाश खत्म हुई गंगा नारायण शर्मा के पास जाकर...शर्माजी का दावा है कि वह अपने यंत्रों, लकड़ी और नारियल की सहायता से जमीन के किस भाग में अधिक पानी है और किस भाग में कम इसका पता लगा सकते हैं। जमीन में कम से कम गहराई पर पानी की उपलब्धता ढूँढने के लिए शर्मा एक अँगरेजी के Y अक्षर के आकार की लकड़ी का इस्तेमाल करते हैं।

लकड़ी के दोनों छोरों को हथेली के बीच रखकर वह उस स्थान के चारों ओर चक्कर लगाते हैं। जिस स्थान पर लकड़ी खुद-ब-खुद जोर-जोर से घूमने लगती है वह उस स्थान पर वह पानी होने का दावा करते हैं। शर्मा इसे डाउजिंग टेकनिक कहते हैं। और इसके जरिए वे 80 प्रतिशत सफलता प्राप्त होने का दावा भी करते हैं।

भू-जल वैज्ञानिक गंगा नारायण शर्मा कहते हैं कि इसका इस्तेमाल चिकित्सा के क्षेत्र में, भूकंप से भूमिगत हुई नदियों का पता लगाने और लैंड माइन का पता लगाने में भी किया जा सकता है। उनका कहना है कि वर्तमान स्थिति में भू-जल स्तर करीब 700 फुट गहराई तक चला गया है। जिसके चलते जल स्त्रोतों का पता लगाने के लिए यह तकनीक कारगर साबित होती है।

लकड़ी की स्टीक के अलावा इस कार्य को अंजाम देने के लिए वे नारियल का भी इस्तेमाल किया करते हैं। इस विधि में नारियल को हथेली पर सीधा रखा जाता है और जहाँ जमीन में पानी होने के संभावना हो वहाँ नारियल अपने आप खड़ा हो जाता है। और फिर उसी स्थल को जल प्राप्ति का पर्याप्त स्त्रोत मान लिया जाता है।

यहाँ के बिल्डर शर्मा की इस विद्या का उपयोग कर ही बोरवेल खुदवाने के कार्य की शुरुवात करते हैं, और उनका विश्वास है कि इस विद्या का उपयोग कर बोरवेल खोदने से समय और पैसे दोनों की बचत होती है। हालाँकी शर्मा जी का दावा हमेशा सही ही निकलता है यह कहना भी कठिन होगा। कई बार 150-200 फीट पर पानी निकलने का दावा 400 फीट तक भी पूरा होता नहीं दिखता है। फिर भी लोगों की इस विद्या से जुड़ी आस्था उन्हें बार-बार शर्मा तक ले आती है।

शर्मा की इस तकनीकी विद्या का इस्तेमाल कर बोरिंग खुदवा रहे रोहित खत्री का कहना है कि इसमें अंधविश्वास की कोई बात नहीं है। दावा सही साबित न होने पर भी उनका मानना है कि अत्यधिक गर्मी के चलते जल स्तर नीचे चला गया है। बावजूद इसके वे इस तकनीक को अयोग्य नहीं मानते।

दिनोदिन पानी की हो रही कमी और बोरवेल खुदवाने में लगने वाली भारी रकम के चलते लोग इस तरह की बातों पर विश्वास करने के लिए मजबूर हो जाते हैं? हर कोई अपना समय और पैसा बचाने के चक्कर में गंगा नारायण शर्मा जैसे लोगों की तलाश में रहता है।

17 सालों से जल रहा है एक दीया !

छत्तीसगढ़ का एक छोटा-सा गाँव लेन्ध्रा। चाहे आप इसे मान्यता कहें या फिर अन्धविश्वास, इस गाँव के लोगों ने असमय मृत्यु से बचने के लिये सत्रह सालों से एक दीये को प्रज्ज्वलित कर रखा है।

इस गाँव के मुख्य मन्दिर राधा-माधव संकीर्तन आश्रम (जो रायगढ़ से पचास किलोमीटर की दूरी पर स्थित है) में यह दीया पिछले सत्रह सालों से लगातार जल रहा है। लोगों की मान्यता है कि इस दीये के जलने से किसी भी प्रकार की प्राकृतिक आपदा इस गाँव पर नहीं पड़ेगी।

इस गाँव के एक श्रद्धालु भारत पाण्डेय का कहना है कि वे हर साल यहाँ आते हैं और अपने परिवार को भी साथ लाने की कोशिश करते हैं। वे चौदह साल पहले यहाँ आए थे और तब से आज तक लगातार यहाँ आ रहे हैं। उन्हें यहाँ आना काफी अच्छा लगता है।

इस दीये को जलाए रखने के लिए जो खर्च होता है, उसे पूरा गाँव मिलकर उठाता है।

इस मन्दिर के पुजारी मुकेश कुमार के अनुसार, इस दीये को जलाने के लिए पूरे छत्तीसगढ़ से श्रद्धालु यहाँ आते हैं और मन्दिर में काफी मात्रा में दान-दक्षिणा भी देते हैं। उनके लिए इस पैसे से मुफ्त भोजन का भी इंतजाम किया जाता है। इस दीये को जलाए रखने के लिये दो व्यक्तियों को भी नियुक्त किया गया है।

अधिकतर ग्रामीण मानते हैं कि इस दीये के प्रज्ज्वलित रहने से सत्रह सालों से इस गाँव पर किसी तरह की प्राकृतिक आपदा नहीं आई है। करीब 3,500 लोगों की आबादी वाला यह गाँव आसपास के क्षेत्रों में भी श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है। (एएनआई)

राजा पृथु ( Raja Prithu )


चीन समय की बात है, विष्णु-भक्त ध्रुव के वंश में अंग नामक एक राजा हुए। वे बड़े धर्मात्मा और प्रजा-प्रिय थे। वृद्धावस्था में वे राजपाट त्याग कर तपस्या करने वन में चले गए। भृगु आदि मुनियों ने जब देखा कि उनके जाने के बड पृथ्वी की रक्षा करने वाला कोई नहीं बचा है, तब उन्होंने उनके पुत्र वे का राज्याभिषेक कर दिया। राजा बनते ही वें अपने बल और ऐश्वर्या के मद में चूर हो गया।  उसने राज्य में घोषणा करवा दी कि रिशनी-मुनि किसी भी प्रकार का य्गाग्य और हवन न करें। जो राजाज्ञा का उल्लंघन करेंगे उन्हें दण्डित किया जायेगा। उसके भय से चारों ओर धर्म-कर्म बंद हो गए।

धर्म-संबंधी कार्य में विध्न उत्पन्न होने पर सभी ऋषि-मुनि एकत्रित होकर राजा वें के पास गए और उनसे विनम्र स्वर में बोले - "राजन ! कृपा हमारी बात ध्यानपूर्वक सुनें। इससे आपकी आयु, बल और यश में वृद्धि होगी। राजन ! यदि मनुष्य मन, वाणी, शरीर और बुद्धि से धर्म का पालन करे तो उसे स्वर्ग आदि लोकों की प्राप्ति होती है और यदि वह निष्काम भाव से धर्म का पालन करे तो मोक्ष का अधिकारी बनता है। अतः प्रजा का धर्म आप द्वारा नष्ट नहीं होना चाहिए। धर्म नष्ट होने पर राजा भी नष्ट हो जाता है। राजन ! आपके राज्य में जो यज्ञ और हवन आदि होंगे, उनसे देवता भी प्रसन्न होकर आपको इच्छित वर प्रदान करेंगे। अतेव आपको य्गयादी अनुष्ठान बंद करके देवताओं का तिरस्कार नहीं करना चाहिए।"

दुष्ट वें अहंकार भरे स्वर में बोला - "मुनियों ! तुम बड़े मूर्ख हो। तुमने सारा ज्ञान त्यागकर अधर्म में अपनी बुद्धि लिप्त कर रखी है। तभी तो तुम अपने पालन करने वाले मुख प्रत्यक्ष इश्वर को छोड़कर किसी दूसरे इश्वर की पूजा अर्चना करना चाहते हो, जो तुम्हारे लिये कल्पित है। जो लोग मूर्खतावश अपने राजा-रूपी परमेश्वर क अपमान करते हैं, उन्हें न तो इस लोक में सुख मिलता है और न ही परलोक में। देवगन राजा के शरीर में ही वास करते हैं। इसलिए तुम मेरा ही पुजन करो और मुझे ही यज्ञ का भाग अर्पित करो।" अहंकार के कारण वें की बुद्धि पूर्णतः भ्रष्ट हो गई थी। वह अत्यंत क्रूर, अन्यायी, अधर्मी और कुमार्गी हो गया था, इसलिए उसने ऋषि-मुनियों की विनती प्रार्थना पर कोई ध्यान नहीं दिया।

उसके पापयुक्त शब्द सुनकर मुनिगण क्रोधित होकर बोले - "वेन ! तू बड़ा अधर्मी और पापी है। यदि तू जीवित रहा तो कुछ ही दिनों में इस सृष्टि को नष्ट कर देना। जिन भगवान् विष्णु की कृपा से तुझे पृथ्वी का राज्य प्राप्त हुआ है, तू उन्हीं परब्रह्म का अपमान कर रहा है। जगत के कल्याण के लिये तेरा मरना ही उचित है।"

इस प्रकार उन्होंने दुष्ट वेन को मारने का निश्चय कर उस पर प्रहार करने आरम्भ कर दिए। फिर शीघ्र हे उन्ह्होने उसका काम तमाम कर दिया और अपने आश्रमों को लौट गए। इधर वेन की माता मोहवश अपने पुत्र के मृत शरीर की रक्षा करने लगी। वेन की मृत्यु के पश्चान राज्य में चोरों-डाकुओं का आतंक बढ़ गया।

एक दिन सरस्वती नदी के तट पर कुछ मुनिगण बैठे धर्म-चर्चा कर रहे थे। तबभी डाकुओं क एक दल इधर से निकला। उन्हें देखकर मुनिगण सोच में पद गए। उनके मन में एक ही विचार उत्पन्न होने लगा - 'वेन के मरते ही राज्य में अराजकता फ़ैल गई है। राज्य में चोर और डाकू बढ़ गए हैं, जो निर्दोष प्रजा को लूट रहे हैं। यघपि रिशनी-मुनि शांत स्वभाव के होते हैं, तथापि दीनों की उपेक्षा करने से उनका तप क्षण भर में क्षीण हो जाता है। राजा अंग का वंश नष्ट नहीं होना चाहिए, क्योंकि इसमें उनके पराक्रमी और धर्मात्मा राजा हो चुके हैं। इसलिए हमें उनका उत्तराधिकारी  अवश्य उत्पन्न करना होगा जो अपने पुरूषार्थ से प्रजा की रक्षा कर सके।'

तब उन्होंने आपस में विचार कर राज्य के उत्तराधिकारी के लिये वेन की जंघा को बड़े जोर से माथा तो उसमें से एक बौना पुरूष उत्पन्न हुआ। उसका रंग काला था, उसके सभी अंग टेढ़े-मेढे और छोटे थे। उसके जन्म लेते ही राजा वेन के सभी भयंकर पापों को अपने ऊपर ले लिया। बाद में, वह और उसके वंशधर वन और पर्वतों पर रहने वाले 'निषाद' कहलाये। इसके बाद मुनियों ने वेन की भुजाओं का मंथन किया। उस्मने से दिव्य स्वरुप धारण किये हुए स्त्री-पुरूष का एक जोड़ा प्रकट हुआ। उस पुरूष के दाहिने हाथ में भगवान् विष्णु की हश्रेखाएं और चरणों में कमल का चिन्ह अंकित देखकर उन्होंने उसे भगवान विष्णु का ही अंश समझा।

मुनिगण प्रसन्न होकर बोले - "यह पुरूष भगवान् narayan की कला से प्रकट हुआ है और यह स्त्री साक्षात लक्ष्मी का अवतार है। यह दिव्य पुरूष अपने सुयश का विस्तार करने के कारण संसार में पृथु के नाम से प्रसिद्द होगा। सुन्दर वस्त्राभूषणों से अलंकृत यह अतीव सुन्दर स्त्री इसकी पत्नी आर्ची होगी। पृथु रूप में स्वयं भगवान् विष्णु ने संसार की रक्षा के लिये लक्ष्मीरूपा आर्ची के साथ अवतार लिया है।"

महात्मा पृथु जैसे सत्पुत्र ने उत्पन्न होकर अपने शुभ-कर्मों द्वारा पापी वेन को नरक से छुडा दिया। तत्पश्चात ऋषि-मुनियों ने पृथु के राज्यभिशेक का आयोजन किया। इस शुभ अवसर पर समस्त देवगन उपस्थित हुए। भगवान् विष्णु ने पृथु को अपना सुदर्शन चक्र, ब्रह्माजी ने वेदमयी कवच, भगवान् शिव ने दस चक्राकार चिन्हों वाली दिव्य तलवार, यायुदेव ने दो चंवर, धर्म ने कीर्तिमय माला, देवराज इन्द्र ने मनोहर मुकुट, यमराज ने कालदंड, अग्निदेव ने दिव्य धनुष और कुबेर ने सोने का राजसिंहासन भेंट क्या।

जब मुनिगण पृथु की स्तुति करने लगे, तब पृथु बोले - "मान्यवरो ! अभी इस लोक में मेरा कोई भी गुण प्रकट नहीं हुआ, फिर आप किन गुणों के लिये मेरी स्तुति करेंगे? आप केवल परब्रह्म परमात्मा की ही स्तुति करें। भगवान् विष्णु के रहते तूच मनुष्यों की स्तुति नहीं करते। इसलिए कृपा आप मेरी स्तुति न करें।" उनकी बात सुन सभी ऋषि-मुनि आत्मविभोर हो गए। तब पृथु ने उन्हें अभिलिषित वस्तुएँ देकर संतुष्ट किया। वे सभी राजा पृथु को आशीर्वाद देने लगे। जब ऋषि-मुनिओं ने राजा का राज्याभिषेक किया, उन दिनों पृथ्वी अन्नही हो गई थी, प्रजाजन के शरीर अन्न के अभाव में बड़े दुर्बल हो गए थे, उन्होंने राजा पृथु से सहायता की विनती की।

प्रजाजन की करूणा विनती सुनकर पृथु का मन करूणा से द्रवित हो गया। कुछ देर विचार करके उन्हें पृथ्वी के अन्नहीन होने का कारण ज्ञात हो गया। वे जान गए कि पृथ्वी ने सभी प्रकार के अन्न और औषधियों को अपने गर्भ में छिपा लिया है। तब उन्होंने क्रोधित होकर धनुष उठाया और पृथ्वी को लक्ष्य बनाकर बाण चलाने के लिये उघत हो गए। उन्हें बाण चढ़ाए देखकर पृथ्वी अपने प्राण बचाने के लिये गाय का रूप रखकर भागने लगी।

पृथ्वी को गाय-रूप में भागते देख क्रोधित पृथु उसका पीछा करने लगे। वह प्राण बचाते हुए जिस-जिस स्थान पर जाती, वहीं-वहीं उसे राजा पृथु हाथ में धनुष-बाण लिये दिखाई देते।

जब उसे कहीं भी शरण न मिली तो वह भयभीत होकर उन्हीं की शरण में आए और बोली - "महाराज ! आप सभी प्राणियों की रक्षा करने को सदा तत्पर रहते हैं, फिर मुझ दीन-हीन और निरपराधिनी को क्यों मरना चाहते हिं? आप धर्मज्ञ हैं, फिर क्या आपका क्षत्रिय धर्म एक स्त्री क वध करने की अनुमति देगा? स्त्रियाँ कोई अपराध करें तो साधारण जीव भी उन पर हाथ नहीं उठाते, फिर आप जैसे करूणामय और दीन-वत्सल ऐसा कैसे कर सकते हैं? फिर सोचें कि मेरा वध करें के बाद अपनी प्रजा को कहाँ रखेंगे?"

तब पृथु बोले - "पृथ्वी ! तुमने यज्ञों का भाग लेकर भी प्रजा को अन्न नहीं दिया, इसलिए आज मैं तुम्हे समाप्त कर दूंगा। तुम्हारे बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। तुमने ब्रह्म्माजी द्वारा उत्पन्न किये गए अन्नादि बीजों को अपने गर्भ में छिपा लिया है और उन्हें न निकालकर अनेक जीवों की हत्या कर रही हो। जो केवल अपना पोषण करने वाला तथा अन्य प्राणियों के प्रति निर्दय हो - उसका वध शाश्त्रों में तर्कसंगत है। अब मैं तुम्हारे गर्भ को अपने बानों से चिन्न-भिन्न कर दूंगा और प्रजाजन कि क्षुधा शांत कर योगबल से उन्हें धारण करूंगा।"

क्रोध की तीव्रता से राजा पृथु उस समय साक्षात काल के समान दिखाई पड़ रहे थे। उनके भयंकर रूप को देखकर पृथ्वी करूं स्वर में उनकी स्तुति करते हुए बोली - "राजन ! ब्रह्माजी ने जिस अन्नादि को उत्पन्न किया था, उसे केवल दुराचारी मनुष्य ही खा रहे थे। अनेक राजाओं ने मेरा आदर करना छोड़ दिया था, इसलिए  मैंने अन्न को अपने गर्भ में छिपा लिया। यदि आप वह अन्न प्राप्त करना चाहते हैं तो मेरे योग्य एक बछडा, दोहन पात्र और दुहने वाले कि व्यवस्था कीजिये। मैं दूध के रूप में आपको वे पदार्थ प्रदान कर दूंगी। एक बात और राजन ! आप मुझे समतल कर दें। जिससे कि मेरे ऊपर इन्द्र बरसाया गया जल वर्ष भर बना रहे। यह आप सभी के लिये मंगलकारी होगा।"

तब पृथु ने स्वयंभू मनु को बछडा बनाकर अपने हाथों से ही पृथ्वी का सारा दुग्ध दुह लिया। फिर उन्होंने अपने धनुष की नोक से पर्वतों को तोड़कर पृथ्वी को समतल कर दिया। तत्पश्चात उन्होंने पृथ्वी को अपनी पुत्रीरूप में स्वीकार किया। दैत्य मधु-कैटभ के मेड से निर्मित होने के कारण पृथ्वी को पहले मेदिनी कहा जाता था, किन्तु राजा पृथु की पुत्री बनने के बाद यह पृथ्वी नाम से प्रसिद्द हुई। इस प्रकार राजा पृथु ने पृथ्वी का मनोरथ सिद्ध करते हुए अपनी प्रजा की रक्षा की।

एकवीर की कथा ( Ek Ki Katha )




क बार की बात है-- लक्ष्मी और श्रीविष्णु वैकुण्ठ में बैठे सृष्टि-निर्माण के विषय में वार्तालाप कर रहे थे। तभी किसी बात से क्रोधित होकर लीलामय भगवान विष्णु ने लक्ष्मी जी को अश्वी (घोडी) बनने का श्राप दे दिया। इससे लक्ष्मी अत्यंत दुखी हुईं। श्रीहरि को प्रणाम कर देवी लक्ष्मी मृत्युलोक में चली गयी। पृथ्वीलोक में भ्रमण करते हुए लक्ष्मी सुपर्णाक्ष नामक स्थान पर पहुँची। इस स्थान के उत्तरी तट पर यमुना और तमसा नदी का संगम था। पहले किसी समय सूर्यदेव की पत्नी संज्ञा ने यहाँ बड़ा कठिन तप किया था। सुन्दर पेड़-पौधे उस स्थान की शोभा बढ़ा रहे थे। लक्ष्मी उसी स्थान पर अश्वी रूप धारण करके भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिये कठोर तप करने लगीं।

कालांतर में, देवी लक्ष्मी की तपस्या से प्रसन्न होकर  भगवान् शिव ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए और कहा-- "देवी! मैं तुम्हें वर देता हूँ की तुम्हारी इच्छा पूर्ण करने के लिये श्रीहरि शीघ्र अश्वरूप में यहाँ पधारेंगे। तुम उनके जैसे एक पुत्र की जननी बनोगी। तुम्हारा पुत्र एकवीर के नाम से प्रसिद्द होगा। इसके बाद तुम श्रीहरि के साथ वैकुण्ठ चली जाओगी।"

लक्ष्मी जी जो इच्छित वर देकर भगवान् शिव कैलाश लौट गए। कैलाश पहुंचकर भगवान् शिव ने अपने गण चित्ररूप को दूत बनाकर श्रीविष्णु के पास भेजा। चित्ररूप ने भगवान् विष्णु को देवी लक्ष्मी की तपस्या और भगवान् शिव के द्वारा उन्हें वर देने की बात विस्तार से बताई।

देवी लक्ष्मी को शाप से मुक्त करने के लिए श्रीहरि ने एक सुन्दर अश्व का रूप धारण कर उनके साथ संसर्ग किया। इसके फलस्वरूप लक्ष्मी ने एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया। तब श्रीहरि बोले-- "प्रिय! ययाति वंश में हरिवार्मा नाम के राजा है। पुत्र पाने के लिये वे सौ वर्षो से घोर तप कर रहे हैं। उन्हें के लिये मैंने यह पुत्र उत्पन्न किया है।

वैकुण्ठ जाने से पूर्व भगवान् विष्णु देवी लक्ष्मी के साथ राजा हरिवार्मा के सामने प्रकट हुए और उसे इच्छित वर मांगने को कहा। हरिवार्मा ने हाथ जोड़कर कहा-- "भगवान्! मैंने पुत्र पाने के लिये तप क्या है। मुझे अपने जैसा एक वीर, तेजस्वी और धर्मात्मा पुत्र प्रदान करने की कृपा करें, प्रभु।"

भगवान् विष्णु बोले-- "राजन! तुम यमुना और तमसा नदी के पावन संगम पर चले जाओ। वहां मेरा एक पुत्र तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है। स्वयं देवी लक्ष्मी उस बालक की जननी हैं। उसकी उत्पत्ति तुम्हारे लिये ही की गई है। अतः उसे स्वीकार करो।"

भगवान् विष्णु की बात सुनकर हरिवार्मा अत्यंत प्रसन्न हुआ। वह रथ पर सवार होकर बताए स्थान पर गया और उस बालक को पुत्र रूप में स्वीकार कर प्रसन्नतापूर्वक अपने नगर की ओर चल पड़े। हरिवार्मा की पत्नी एक साध्वी स्त्री थी। वह उस बालक को देखकर आनंद-मग्न हो गई। हरिवार्मा ने एक समारोह का आयोजन करके पुत्रोत्सव मनाया। याचकों को प्रचुर दान  दिया गया। हरिवार्मा ने अपने उस पुत्र का नाम एकवीर रखा।

राजा हरिवार्मा ने बालक के सभी संस्कार संपन्न करवाए और उसके लिये गुरू की व्यवस्था की। ग्यारहवें वर्ष में राजा ने यज्ञोपवीत संस्कार कराकर एकवीर को धनुर्विघा पढ़ाने की व्यवश्ता की। जब हरिवार्मा ने देखा, राजकुमार ने धनुर्विघा सीख ली है और राजधर्म के सभी नियम उसे भली भांति ज्ञात हो गे हैं। तब उसके मन में उसका राज्याभिषेक करने का विचार उत्पन्न हुआ।

शीघ्र ही एक शुभ मुहूर्त में अभिषेक में प्रयोग आपने वाले सारी सामग्री एकत्र की गई। वेदों और शास्त्रों के ज्ञाता ब्रह्मण बाले गए और हरिवार्मा ने राजकुमार एकवीर का विधिवत राज्याभिषेक करवाया। एकवीर को राज्य का कार्यभार सौंपकर राजा हरिवार्मा रानी सहित वन में चला गया।

राजा बनने के बाद एकवीर कुशलपूर्वक राज्य का शासन चला रहा था-- कुशल मंत्रियों के सहयोग से उसके राज्य में चारों ओर सुख-शांति व्याप्त थी। अपने प्रजा से वह पिता की भांति प्रेम करता था। वह स्वयं प्रजा के कष्टों को सुनता और उन्हें दूर करने का हार सम्भव प्रयास करता था। उसके राज्य में कोई भी व्यक्ति दुष्ट, पापी और व्यभिचारी नहीं था। सभी सुखमन जीवन व्यतीत करते थे।