01 अप्रैल 2010

सतीत्व से इंद्र फिर बने स्वर्ग के राजा

स्वामी इंद्र की पत्नि का नाम शचि है। वह पुलोमा ऋषि की पुत्री हैं। अत: पौलोमी तथा पुलोमजा के नाम से भी जानी जाती हैं। शचि वास्तव में दानव कुल की पुत्री हैं, परंतु अत्यधिक धार्मिक एवं भगवत भक्त थीं।

भगवान शंकर को प्रसन्न करने के लिए बचपन से ही उन्होंने कठिन तपस्या की। परिणाम स्वरूप भगवान शंकर ने उन्हें साक्षात दर्शन दिए। उन्ही की कृपा से वह देवराज इंद्र की पत्नी बनीं।

यद्यपि इंद्र स्वर्ग के भोग-विलासों में लिप्त रहते थे, परंतु देवी शचि ने कभी ऐसे ऐश्वर्य की इच्छा नहीं की। वह पति के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित थीं। उनके पतिव्रत धर्म के प्रभाव से वह ऋषिका के पद पर पहुंच गईं। प्राचीन काल में जब स्वयंवर होते थे, तो सबसे पहले देवी शचि का ही आह्वान किया जाता था।

उनकी पूजा-अर्चना करके ही स्वयंवर की रस्म प्रारंभ होती थी। ऐसा माना जाता था कि देवी शचि की आराधना करने से स्वयंवर में किसी प्रकार की बाधा नहीं आती। एक बार देवराज इंद्र से बड़ी भूल हो गई। उन्होंने भगवान के भक्त वृतासुर का वध कर डाला। चारों ओर उनकी निंदा होने लगी।

वृतासुर असुर तो था, परंतु धर्म परायण था। सुमार्ग पर चलने वाला था। देवराज की निंदा बढ़ने लगी। इस डर से वह चुप-चाप स्वर्ग छोड़कर भाग खड़े हुए तथा हिमालय पर्वत स्थित मानसरोवर में जाकर छिप गए। स्वर्ग में कोई शासक न रहा, तो पृथ्वी पर अत्याचार व अनाचार बढ़ने लगे।

नदियां सूख गईं। फसलें नष्ट हो गईं। चारों ओर हाहाकार मच गया। तब देवताओं ने विचार करके एक धर्मात्मा व तपस्वी व्यक्ति नहुष को पृथ्वी से बुलाकर देवराज इंद्र की गद्दी पर बिठा दिया। नहुष सौ अश्वमेघ यज्ञ कर चुके थे। अत: वह इंद्र पद के अधिकारी भी थे।

कुछ समय तक महाराज नहुष ने तीनों लोकों का शासन बड़े व्यवस्थित ढंग से किया। सर्वत्र उनके क्रिया-कलापों की प्रशंसा होने लगी। परंतु धीरे-धीरे स्वर्ग की विलासिता, एक से एक सुंदर अप्सराओं, भिन्न-भिन्न प्रकार के सुख-साधनों तथा सवरेपरि सत्ता के मद ने उनके मस्तिष्क को दूषित करना प्रारंभ कर दिया।

नहुष को मालूम हुआ कि देवी शचि स्वर्ग की सभी स्त्रियों में से अधिक सुंदर है। उनका मन शचि को पाने के लिए बेचैन हो उठा। जब शचि को इस बात का पता चला, तो वह चुपचाप स्वर्ग छोड़कर देवताओं के गुरु बृहस्पति के आश्रम चली गईं तथा देवगुरु को सारा वृतांत कह सुनाया।

देवगुरु बृहस्पति ने उन्हें सहायता का आश्वासन देकर आश्रम में छिपा लिया।शीघ्र ही नहुष को शचि के बृहस्पति के आवास पर छिपे होने का समाचार मिल गया। वह क्रोध में अंधा हो गया। उसने बृहस्पति को मारकर शचि को अपने अधिकार में लेने का निर्णय कर लिया। तब समस्त देवताओं ने उसे समझाया कि उन्हें ऐसा करना शोभा नहीं देता। इससे चारों ओर उनका अपयश होगा। पुण्य के प्रताप से जो इंद्रपद प्राप्त हुआ है, वह इस कार्य से उसे खो सकते हैं।

देवताओं ने उसे आश्वासन दिया कि वे स्वयं शचि को मना कर लाएंगे। और वे ले भी आए। नहुष ने अपना प्रस्ताव शचि के सामने रखा। शचि ने इसके लिए कुछ समय मांगा। इतने में शचि ने देवताओं के साथ मिलकर देवराज को ढूंढ़ लिया। बृहस्पति ने देवराज को अश्वमेघ यज्ञ द्वारा देवी भगवती की आराधना करके वरदान पाने की सलाह की।

यज्ञ समाप्त होने पर देवराज वृतासुर की हत्या के पाप से मुक्त हो गए तथा भगवती ने उन्हें पुन: इंद्र पद प्राप्ति का वरदान दे दिया। देवराज ने शचि को वापस स्वर्ग जाकर साहस से अपने धर्म का पालन करने का आदेश दिया। शचि को देख नहुष प्रसन्न हो गया।

शचि बोलीं- ‘महाराज, मैं चाहती हूं कि आप जब मेरे पास आएं, तो कुछ नवीन ढंग से आएं। आपके रथ में परम्परागत ढंग से घोड़े इत्यादि न हों।’ नहुष ने प्रसन्न होकर शचि की शर्त स्वीकार कर ली। निश्चित दिन नहुष ने एक अत्यंत सुंदर रथ तैयार करवाया। तथा उसमें ऋषियों तथा महर्षियों को जोत दिया। वे नहुष के रथ को खींचकर शचि के महल की ओर ले जाने लगे, परंतु नहुष तो शचि से मिलने के लिए अत्यंत उतावला हो रहे थे।

उसने रथ को शीघ्रता से खींचने का आदेश दिया। बेचारे वृद्ध ऋषि जैसे-तैसे रथ को और तेज ले जाने लगे नहुष को फिर भी संतोष नहीं हुआ। उसने कोड़ों से ऋषियों को पीटना शुरू कर दिया। इससे अगस्त्य ऋषि को अत्यंत क्रोध आ गया। उन्होंने नहुष को श्राप दे दिया- ‘दुष्ट, तू अजगर बनकर पृथ्वी पर गिर जा और लंबे समय तक अपने दुष्कर्मो का फल भोग।’

महर्षि अगस्त्य के श्राप देते ही नहुष अपने पापों के कारण अजगर की योनी में पृथ्वी पर गिर पड़ा। नहुष के हटते ही देवराज इंद्र पुन: प्रकट हो गए तथा शचि के साथ स्वर्ग के सिंहासन पर बैठकर आनन्दपूर्वक रहने लगे। इस प्रकार देवी शचि ने साहस व चतुराई से अपने पतिव्रता धर्म की रक्षा करते हुए इंद्र को पुन: स्वर्ग का अधिपति बनवा दिया।