यह मदुराई की घटना है। पांडयन-शासकों के समय यह एक समृद्ध नगर था। चामी एक मेहतर था। उसे अपना काम शुरू करने के लिए बहुत सवेरे उठना पड़ता था। राजा घोड़े पर सवार होकर पूजा के लिए मन्दिर जाया करता था। इसलिए मार्ग को साफ-सुथरा रखना पड़ता था। राजा दो घोड़ों के सुनहले रथ पर जाता था। दो घुड़सवार अंगरक्षक राजा की सवारी निकलने से पहले आकर मार्ग का मुआयना करते थे। इसलिए उसे अपना काम परिश्रमपूर्वक करना पड़ता था।
उस दिन जब अंगरक्षक उसके आगे से निकले, उसने उन्हें ध्यान से देखा। वे कीमती लाल ज़री की पोशाक और बैंगनी रंग की रेशमी पगड़ी पहने थे। राजा का अंगरक्षक होना कैसा लगता होगा ! उसके मन में सोचा।
चामी ने शीघ्र ही अपना काम पूरा कर लिया और घर वापस चला गया। चामी ने जल्दी-जल्दी आंगन के कुएं पर स्नान लिया। नहा-धोकर जैसे ही वह चारपाई पर बैठा कि उसकी पत्नी एक गिलास ताजा दूध ले आई।
‘‘तुम क्या जानती हो मीना, मैंने इतने ख़ूबसूरत घोड़े कभी नहीं देखे। उन पर सवारी करना, आह! कितना अच्छा लगता होगा।’’ उसकी आँखों में देखते हुए चामी ने कहा।
‘‘तुम्हारा तात्पर्य अंगरक्षकों के घोड़ों से है?’’ मीनाक्षी ने पूछा, ‘‘फिर भी, तुम तो इतने डरते हो कि उन पर सवारी नहीं कर पाओगे!’’ वह गिलास उठा कर अन्दर चली गई।
चामी रसोई घर तक उसके पीछे-पीछे गया। ‘‘मैं नहीं डरूँगा और यह मैं एक दिन साबित करके तुम्हें दिखा दूँगा’’, उसने कहा मानों वह चुनौती दे रहा हो।
मीनाक्षी शायद चिढ़-सी गई। ‘‘हमलोगों के अगले निवाले का तो ठिकाना नहीं है और चले हैं घुड़सवारी का सपना देखने। बारिश के पहले घर पर नया छप्पर डालना पड़ेगा। तुम पहाड़ों पर जाकर घर की मरम्मत भर धन के लिए प्रार्थना क्यों नहीं करते? मुझे अब ज़मीन्दार के घर जाना है। आज उसके पोते का जन्मदिन है। शायद कुछ ज्यादा पैसे मिलें और अधिक भोजन भी जो दोनों के लिए काफी हो।’’
‘‘यदि तुम ऐसा कहती हो, मीनाक्षी, तो मैं पहाड़ों पर जाऊँगा,’’ चामी ने सब्रता के साथ कहा, ‘‘और तुम कुछ खाना लाने की कोशिश करो। मैं तब तक लौट आऊँगा।’’
‘‘उसे मेरी बातों पर यकीन नहीं है, लेकिन कुछ भी हो जाये, मैं पहाड़ों पर जाऊँगा, चाहे वहाँ कोई देवता हो या न हो’’, वह तेज़ी से चलते-चलते धीरे से बोला।
वह एक बार पीछे मुड़ा; उसकी पत्नी के बाहर निकलते और दूसरी दिशा में जाते समय उसकी साड़ी के एक किनारे पर उसकी नजर पड़ी। उसने घर की दीवार से लगे लम्बे हत्थे वाला अपना झाड़ू भी देखा। उसने इसे स्मरण दिलाया, राजा के मार्ग की सफाई के लिए अगली सुबह तक उसे लौट आना होगा।
चामी तेज़ी से चलने लगा और शीघ्र ही उसे सामने काले पहाड़ दिखाई पड़े। पादगिरि पहुँच कर दुरारोही चट्टानों के ढाल पर वह चढ़ने लगा। कुछ ऊँचाई तक जाने पर चामी ने एक गुफा देखी, जहाँ उसने कुछ देर आराम करने का निश्चय किया। अपनी पगड़ी को सिरहाने रख कर वह लेट गया और तुरन्त उसे नीन्द आ गई।
‘‘चामी, उठो!’’ उसने सोचा कि वह सपना देख रहा है। लेकिन नहीं, उसने सचमुच महसूस किया कि कोई उसे जगा रहा है। उसने झकझोर को अनुभव किया। वह उठ बैठा। आँखें मल कर उसने चारों ओर देखा। वहाँ कोई नहीं था।
आवाज़ फिर आई । ‘‘चामी! तुम पर्वतों के देवता से मिलने के लिए यहाँ आये। मैं मलयवनन हूँ। तुम्हें अपने पीछे एक शंख मिलेगा। जब भी तुम इसे बजाओ, मन में कोई इच्छा रख लो भोजन, धन, नया छप्पर, घोड़े....जो भी अभिलाषा करोगे, तुम्हें प्राप्त हो जायेगा।’’
चामी खड़ा हो गया और पीछे मुड़ कर देखा। गुफा के फर्श पर एक चमकता हुआ श्वेत शंख था। उसने उसे उठाकर अपनी पगड़ी के एक किनारे से बाँध लिया और घर की ओर चल पड़ा। सूर्यास्त होनेवाला था। शीघ्र ही अन्धेरा इतना बढ़ गया कि रास्ता दिखाई नहीं पड़ता था। वह सावधानी से आगे बढ़ता गया।
आखिर उसे एक रोशनी दिखाई पड़ी। वह मार्ग के किनारे एक सराय थी। उसने वहीं रात बिताने का निश्चय किया। सराय के मालिक ने उसे एक कमरा दिखा दिया और वह अतिथि के लिए भोजन लाने चला गया। क्या उसने शंख बजने की ध्वनि सुनी? कौन हो सकता है? और यह ध्वनि आई कहाँ से?
भठियारा खाना लाकर जब अतिथि को परोस रहा था, तब यों ही पूछ बैठा, ‘‘संयोग से, क्या आपने ही शंख बजाया था?’’
‘‘हाँ, मैंने ही बजाया था’’, चामी ने कहा। उसने देखा कि भठियारा चारों ओर ताक-झांक कर रहा है। उसने भठियारे को शंख दिखा दिया और शंख के बारे में सब कुछ बता दिया । उसने कहा कि अभी उसने कमरे का किराया और भोजन की कीमत के पैसे मांगने के लिए शंख बजाया था।
भठियारा लालची इनसान था। चामी के सो जाने पर वह चुपचाप उसके कमरे में घुसा और पगड़ी खोल कर जादू का शंख निकाल उसमें उसी आकार का सामान्य शंख बाँध दिया। सुबह में जब चामी कमरे और खाने का पैसा देने लगा तब भठियारे ने उसके हाथ पकड़ कर कहा, ‘‘आप जैसे व्यक्ति से मिल कर मैं धन्य हो गया हूँ। मैं आप को अपना अतिथि मानता हूँ। जब भी आप इधर से गुजरें तो मेरा आतिथ्य स्वीकार करने की कृपा अवश्य करें।’’
चामी उसे धन्यवाद देकर जल्दी ही घर लौट आया। रास्ते में उसने सोचा, ‘‘मैं अब मेहतर का काम क्यों करूँ। अब मैं अपनी इच्छा के अनुसार हर चीज़ का आनन्द ले सकता हूँ।’’
मीनाक्षी ने मुस्कुराते हुए पति का स्वागत किया। और उसे ताजे दूध का गिलास देते हुए कहा, ‘‘तो भेंट हो गई पर्वत के देवता से?’’
‘‘तुम अपने पति को क्या समझती हो?’’ इस भूमिका के साथ उसने अपनी दास्तान शुरू की,और पगड़ी खोल कर शंख निकाला।
मीनाक्षी खुशी से उछल पड़ी। ‘‘मुझे देखने दो! मुझे आजमाने दो।’’ शंख को अपने हाथ में लेकर उसने सत्य भाव से कहा, ‘‘हे जादू के शंख! क्या आप सोने का एक सिक्का देंगे?’’ उसने शंख बजाया, किन्तु कुछ फल नहीं निकला।
‘‘इसने मुझे कुछ नहीं दिया’’, मीनाक्षी ने कहा। ‘‘तुम कोशिश करो!’’ उसने चामी को शंख लौटा दिया। चामी ने बिना किसी चीज़ की इच्छा किये शंख को फूँका। पर कोई आवाज़ नहीं आई। उसने कई प्रकार से बजाने की कोशिश की। फिर भी आवाज़ नहीं आई।
‘‘लेकिन पिछली रात उसने ठीक काम किया और चाँदी के दस सिक्के दिये। भठियारे ने सिक्के नहीं लिये, इसलिए दस के दस सिक्के ये पड़े हैं।’’ उसने सिक्कों को गिना- एक, दो, तीन....
‘‘क्या तुम निश्चयपूर्वक कह सकते हो कि इसी शंख को तुमने बजाया था? ध्यान से देखो। मुझे सन्देह है कि भठियारे ने तुम्हें धोखा दिया है। उसने निश्चय ही जादू का शंख लेकर दूसरा शंख रख दिया है।’’ मीनाक्षी ने कहा।
चामी ने शंख पर नज़र दौड़ाई। ‘‘अब क्योंकि तुमने सन्देह व्यक्त किया है, मुझे भी लगता है कि यह जादू का शंख नहीं है। वह बहुत श्वेत था। यह गन्दा दिखाई देता है।’’
‘‘तुम एक काम करो।’’ मीनाक्षी ने कहा, ‘‘अभी अपने काम पर चले जाओ और शाम को सराय में एक कमरा ले लो। बातचीत के सिलसिले में सराय के मालिक से कहो कि यह शंख किसी महात्मा ने आशीर्वाद के रूप में दिया है। अब यह चाँदी की बजाय सोने के सिक्के देगा। फिर तुम गौर से देखना, वह क्या करता है।’’
चामी जल्दी-जल्दी मार्ग की सफाई करने चला गया । फिर घर लौट कर कुछ देर आराम करने के बाद सराय जाने के लिए रवाना हो गया।
सराय के मालिक को आश्चर्य हुआ। खाना खाते समय सराय के मालिक के साथ गप्प करते हुए चामी ने बताया कि एक योगी से प्रसाद के रूप में उसे एक शंख मिला है। शंख पगड़ी के एक सिरे से बँधा हुआ था जिस पर भठियारा बार-बार नज़र डाल रहा था। ‘‘मैं थक गया हूँ, इसलिए जल्दी ही सो जाऊँगा’’, चामी भठियारे को सुनाते हुए बोला।
चामी ने आँखें बन्द कर सो जाने का बहाना किया। वह सावधान था। तभी भठियारे ने चोरी से कमरे में घुस कर पगड़ी खोली और शंख बदल दिया।
जादू का शंख वापस आ जाने पर वह भोर तक सोया रहा। उसने भठियारे को जगाया पर उसने पैसे लेने से फिर इनकार कर दिया।
चामी घर लौट आया और अगले कुछ ही दिनों में उसकी और मीनाक्षी की सभी इच्छाएँ पूरी हो गईं- नया छप्पर और अंगरक्षक की नौकरी।
इधर सराय के मालिक ने अपने आप को इस बात के लिए ख़ूब कोसा कि सोने के सिक्के के लालच में पड़ कर उसने जादू का शंख गंवा दिया और चॉंदी के सिक्कों को इनकार कर दो-दो बार मूर्खता कर दी। योगी और जादू के शंख की कोई और कहानी लेकर अब शायद वह कभी नहीं आयेगा।
लेकिन चामी फिर एक बार सराय पर गया, इस बार एक ख़ूबसूरत काले घोड़े पर सवार होकर। वह एक कीमती लाल वर्दी की पोशाक में था। सराय का मालिक चकित रह गया। राजा का अंगरक्षक मेरी सराय का मेहमान?
‘‘मैं सिर्फ यह जानने के लिए आया हूँ कि अब तक तुमने सोने के कितने सिक्के इकठ्ठे कर लिये!’’ चामी ने उसकी हँसी उड़ाते हुए पूछा।
भठियारा ने अब आवाज़ पहचान ली, ‘‘ओह! महानुभाव, तो आप हैं।’’ वह सिर नीचे झुका कर बोला, ‘‘मेहरबानी करके माफ कर दीजिये!’’
चामी ने सिर्फ हाथ हिलाया और वह घोड़े पर सवार होकर चलता बना।
30 मार्च 2010
लालची भठियारा
Posted by Udit bhargava at 3/30/2010 08:40:00 pm
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