02 जनवरी 2010

शिव पुराण


वायु पुराण
ब्रह्माजी कहते है -- ब्रह्मन सुनो! अब मै वायु पुराण का लक्षण बतलाता हूँ। जिसके श्रवण करने पर परमात्मा शिव का परमधाम प्राप्त होता है। यह पुराण चौबीस हजार श्लोकों का बताया गया है। जिसमें वायुदेव ने श्वेतकल्प के प्रसंगों में धर्मों का उपदेश किया है। उसे वायु पुरण कहते है। यह पूर्व और उत्तर दो भागों से युक्त है। ब्रह्मन! जिसमें सर्ग आदि का लक्षण विस्तारपूर्वक बतलाया गया है,जहां भिन्न भिन्न मन्वन्तरों में राजाओं के वंश का वर्णन है और जहां गयासुर के वध की कथा विस्तार के साथ कही गयी है,जिसमें सब मासों का माहात्मय बताकर माघ मास का अधिक फ़ल कहा गया है जहां दान दर्म तथा राजधर्म अधिक विस्तार से कहे गये है,जिसमें पृथ्वी पाताल दिशा और आकाश में विचरने वाले जीवों के और व्रत आदि के सम्बन्ध में निर्णय किया गया है,वह वायुपुराण का पूर्वभाग कहा गया है। मुनीश्वर ! उसके उत्तरभाग में नर्मदा के तीर्थों का वर्णन है,और विस्तार के साथ शिवसंहिता कही गयी है जो भगवान सम्पूर्ण देवताओं के लिये दुर्जेय और सनातन है,वे जिसके तटपर सदा सर्वतोभावेन निवास करते है,वही यह नर्मदा का जल ब्रह्मा है,यही विष्णु है,और यही सर्वोत्कृष्ट साक्षात शिव है। यह नर्मदा जल ही निराकार ब्रह्म तथा कैवल्य मोक्ष है,निश्चय ही भगवान शिवने समस्त लोकों का हित करने के लिये अपने शरीर से इस नर्मदा नदी के रूप में किसी दिव्य शक्ति को ही धरती प्रर उतारा है। जो नर्मदा के उत्तर तट पर निवास करते है,वे भगवान रुद्र के अनुचर होते है,और जिनका दक्षिण तट पर निवास है,वे भगवान विष्णु के लोकों में जाते है,ऊँकारेश्वर से लेकर पश्चिम समुद्र तट तक नर्मदा नदी में दूसरी नदियों के पैतीस पापनाशक संगम है,उनमे से ग्यारह तो उत्तर तटपर है,और तेईस दक्षिण तट पर। पैंतीसवां तो स्वयं नर्मदा और समुद्र का संगम कहा गया है,नर्मदा के दोनों किनारों पर इन संगमों के साथ चार सौ प्रसिद्ध तीर्थ है। मुनीश्वर ! इनके सिवाय अन्य साधारण तीर्थ तो नर्मदा के पग पग पर विद्यमान है,जिनकी संख्या साठ करोड साठ हजार है। यह परमात्मा शिव की संहिता परम पुण्यमयी है,जिसमें वायुदेवता ने नर्मदा के चरित्र का वर्णन किया है,जो इस पुराण को सुनता है या पढता है,वह शिवलोक का भागी होता है।

लिङ्ग पुराण
अट्ठारह पुराणों में भगवान महेश्वर की महान महिमा का बखान करनेवाला लिंग पुराण विशिष्ट पुराण कहा गया है। भगवान शिव के ज्योर्ति लिंगों की कथा, ईशान कल्प के वृत्तान्त सर्वविसर्ग आदि दशा लक्षणों सहित वर्णित है भगवान शिव की महिमा का बखान लिंग पुराण में 11000 श्लोकों में किया गया है। यह समस्त पुराणों में श्रेष्ठ है। वेदव्यास कृत इस पुराण में पहले योग फिर कल्प के विषय में बताया गया है।
लिंग शब्द के प्रति आधुनिक समाज में ब़ड़ी भ्रान्ति पाई जाती है। लिंग शब्द चिन्ह का प्रतीक है। भगवान् महेश्वर आदि पुरुष हैं। यह शिवलिंग उन्हीं भगवान शंकर की ज्योतिरूपा चिन्मय शक्ति का चिन्ह है। इसके उद्भव के विषय में सृष्टि के कल्याण के लिए ज्योर्ति लिंग द्वारा प्रकट होकर ब्रह्मा तथा विष्णु जैसों अनादि शक्तियों को भी आश्चर्य में डाल देने वाला घटना का वर्णन, इस पुराण के वर्ण्य विषय का एक प्रधान अंग है। फिर मुक्ति प्रदान करने वाले व्रत-योग शिवार्चन यज्ञ हवनादि का विस्तृत विवेचन प्राप्त है। यह शिव पुराण का पूरक ग्रन्थ है।
आज के आपाधापी भरे युग में वृहद कलेवर के ग्रन्थ पढ़ने का भी समय लोगों में पास नहीं है। लोगों की रुचि की ओर हो चुकी है। अतः ‘‘भुवन वाणी ट्रष्ट’’ के मुख्य न्यासी सभापति श्री विनय कुमार अवस्थी के आग्रह पर ‘श्री लिंग पुराण’ की संक्षिप्त गाथा लिखी गई। अल्प समय में ही पाठक पुराण के सम्यक ज्ञान को आत्मसात् करने से लाभान्वित हो सके तो मैं अपने श्रम को सार्थक समझूँगा। इसी मंगल कामना के साथ यह संक्षिप्त ‘श्री लिंग पुराण’ जनता जनार्धन के कर कमलों में समर्पित करते हुए हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ। गुरुदेव की परम कृपा से यह कार्य मेरे द्वारा हो पाया एतदर्थ उनके पावन चरणों में शतशत नमन्।

नैमिष में सूत जी की वार्ता
एक समय शिव के विविध क्षेत्रों का भ्रमण करते हुए देवर्षि नारद नैमिषारण्य में जा पहुँचे वहाँ पर ऋषियों ने उनका स्वागत अभिनन्दन करने के उपरान्त लिंगपुराण के विषय में जाननेहित जिज्ञासा व्यक्त की। नारद जी ने उन्हें अनेक अद्भुत कथायें सुनायी। उसी समय वहाँ पर सूत जी आ गये। उन्होंने नारद सहित समस्त ऋषियों को प्रणाम किया। ऋषियों ने भी उनकी पूजा करके उनसे लिंग पुराण के विषय में चर्चा करने की जिज्ञासा की।
उनके विशेष आग्रह पर सूत जी बोले कि शब्द ही ब्रह्म का शरीर है और उसका प्रकाशन भी वही है। एकाध रूप में ओम् ही ब्रह्म का स्थूल, सूक्ष्म व परात्पर स्वरूप है। ऋग साम तथा यर्जुवेद तथा अर्थववेद उनमें क्रमशः मुख जीभ ग्रीवा तथा हृदय हैं। वही सत रज तम के आश्रय में आकर विष्णु, ब्रह्म तथा महेश के रूप में व्यक्त हैं, महेश्वर उसका निर्गुण रूप है। ब्रह्मा जी ने ईशान कल्प में लिंग पुराण की रचना की। मूलतः सौ करोड़ श्लोकों के ग्रन्थ को व्यास जी ने संक्षिप्त कर के चार लाख श्लोकों में कहा। आगे चलकर उसे अट्ठारह पुराणों में बाँटा गया जिसमें लिंग पुराण का ग्यारहवाँ स्थान है। अब मैं आप लोगों के समक्ष वही वर्णन कर रहा हूँ जिसे आप लोग ध्यानपूर्वक श्रवण करें।

सृष्टि की प्राधानिक एवं वैकृतिक रचना
अदृश्य शिव दृष्य प्रपंच (लिंग) का मूल कारण है जिस अव्यक्त पुराण को शिव तथा अव्यक्त प्रकृति को लिंग कहा जाता है वहाँ इस गन्धवर्ण तथा शब्द स्पर्श रूप आदि से रहित रहते हुए भी निर्गुण ध्रुव तथा अक्षय कहा गया है। उसी अलिंग शिव से पंच ज्ञानेद्रियाँ, पंचकर्मेन्द्रियाँ, पंच महाभूत, मन, स्थूल सूक्ष्म जगत उत्पन्न होता है और उसी की माया से व्याप्त रहता है। वह शिव ही त्रिदेव के रूप में सृष्टि का उद्भव पालन तथा संहार करता है वही अलिंग शिव योनी तथा वीज में आत्मा रूप में अवस्थित रहता है। उस शिव की शैवी प्रकृति रचना प्रारम्भ में सतोगुण से संयुक्त रहती है। अव्यक्त से लेकर व्यक्त तक में उसी का स्वरूप कहा गया है। विश्व को धारण करने वाली प्रकृति ही शिव की माया है जो सत- रज- तम तीनों गुणों के योग से सृष्टि का कार्य करती है।
वही परमात्मा सर्जन की इच्छा से अव्यक्त में प्रविष्ट होकर महत् तत्व की रचना करता है। उससे त्रिगुण अहं रजोगुण प्रधान उत्पन्न होता है। अहंकार से शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध यह पाँच तन्मात्रयें उत्पन्न हुईं। सर्व प्रथम शब्द से आकाश, आकाश से स्पर्श, स्पर्श से वायु, वायु से रूप, रूप से अग्नि, अग्नि से रस, रस से गन्ध, गन्ध से पृथ्वी उत्पन्न हुई। आकाश में एक गुण, वायु में दो गुण, अग्नि में तीन गुण, जल में चार गुण, और पृथ्वी में शब्द स्पर्शादि पाँचों गुण मिलते हैं। अतः तन्मात्रा पंच भूतों की जननी हुई। सतोगुणी अहं से ज्ञानेन्द्रियाँ, कर्मेन्द्रियाँ तथा उभयात्मक मन इन ग्यारह की उत्पत्ति हुई। महत से पृथ्वी तक सारे तत्वों का अण्ड बना जो दस गुने जल से घिरा है। इस प्रकार जल को दस गुणा वायु ने, वायु को दस गुणा आकाश ने घेर रक्खा है। इसकी आत्मा ब्रह्मा है। कोटि-कोटि ब्रह्माण्डों में कोटि त्रिदेव पृथक-पृथक होते हैं। वहीं शिव विष्णु रूप हैं।

सृष्टि का प्रारम्भ
ब्रह्म का एक दिन और एक रात प्राथमिक रचना का समय है दिन में सृष्टि करता है और रात में प्रलय। दिन में विश्वेदेवा, समस्त प्रजापति, ऋषिगण, स्थिर रहने और रात्रि में सभी प्रलय में समा जाते हैं। प्रातः पुनः उत्पन्न होते हैं। ब्रह्म का एक दिन कल्प है और उसी प्रकार रात्रि भी। हजार वार चर्तुयुग बीतने पर चौदह मनु होते हैं। उत्तरायण सूर्य के रहने पर देवताओं का दिन और दक्षिणायन सूर्य रहने तक उसकी रात होती है।
तीस वर्ष का एक दिव्य वर्ष कहा गया है। देवों के तीन माह मनुष्यों के सौ माह के बराबर होते हैं। इस प्रकार तीन सौ साठ मानव वर्षों का देवताओं का एक वर्ष होता है तीन हजार सौ मानव वर्षों का सप्तर्षियों का एक वर्ष होता है। सतयुग चालीस हजार दिव्य वर्षों का, त्रेता अस्सी हजार दिव्य वर्षों का, द्वापर बीस हजार दिव्य वर्षों का और कलियुग साठ हजार दिव्य वर्षों का कहा गया है। इस प्रकार हजार चतुर्युगों का एककल्प कहा जाता है। कलपान्त में प्रलय के समय मर्हलोक के जन लोक में चले जाते हैं। ब्रह्मा के आठ हजार वर्ष का ब्रह्म युग होता है। सहस्त्र दिन का युग होता है जिसमें देवताओं की उत्पत्ति होती है। अन्त में समस्त विकार कारण में लीन हो जाते हैं। फिर शिव की आज्ञा से समस्त विकारों का संहार होता है। गुणों की समानता में प्रलय तथा विषमता में सृष्टि होती है। शिव एक ही रहता है। ब्रह्मा और विष्णु अनेक उत्पन्न हो जाते हैं। ब्रह्मा के द्वितीय परार्द्ध में दिन में सृष्टि रहती है और रात्रि में प्रलय होती है। भूः भुवः तथा महः ऊपर के लोक हैं। जड़ चेतन के लय होने पर ब्रह्मा नार (जल) में शयन करने के कारण नारायण कहते हैं। प्रातः उठने पर जल ही जल देखकर उस शून्य में सृष्टि की इच्छा करते हैं। वाराह रूप से पृथ्वी का उद्धार करके नदी नद सागर पूर्ववत स्थिर करते हैं। पृथ्वी को सम बनाकर पर्वतों को अवस्थित करते हैं। पुनः भूः आदि लोकों की सृष्टि की इच्छा उनमें जाग्रत होती है।

स्कन्द पुराण
माहेश्वरखण्ड श्रीब्रह्माजी कहते हैं- वत्स ! सुनो, अब मै स्कन्द पुराण का वर्णन करता हूँ,जिसके पद पद में साक्षात महादेवजी स्थित हैं। मैने शतकोटि पुराण में जो शिव की महिमा का वर्णन किया है,उसके सारभूत अर्थ का व्यासजी ने सकन्दपुराण में वर्णन किया है। उसमें सात खण्ड किये गये है,सब पापों का नाश करने वाला स्कन्द पुराण इक्यासी हजार श्लोकों से युक्त है,जो इसका श्रवण अथवा पाठ करत है वह साक्षात शिव ही है,इसमें स्कन्द के द्वारा उन शैव धर्मों का प्रतिपादन किया गया है,जो तत्पुरुष कल्प में प्रचलित थे,वे सब प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाले इसके पहले खण्ड का नाम माहेश्वर खण्ड है,जि सब पापों का नाश करने वाला इसमें बारह हजार से कुछ कम श्लोक है,यह परम पवित्र तथा विशाल कथाओं से परिपूर्ण है,इसमें सैकडों उत्तम चरित्र है,तथा यह खण्ड स्कन्द स्वामी के माहात्म्य का सूचक है। माहेश्वर खण्ड के भीतर केदार माहात्मय में पुराण आरम्भ हुआ है,उसमें पहले दक्ष यज्ञ की कथा है,इसके बाद शिवलिंग पूजन का फ़ल बताया गया है,इसके बाद समुद्र मन्थन की कथा और देवराज इन्द्र के चरित्र का वर्णन है,फ़िर पार्वती का उपाख्यान और उनके विवाह का प्रसंग है,तत्पश्चात कुमार स्कन्द की उत्पत्ति और तारकासुर के साथ उनके युद्ध का वर्णन है,फ़िर पाशुपत का उपाख्यान और चण्ड की कथा है,फ़िर दूत की नियुक्ति का कथन और नारदजी के साथ समागम का वृतान्त है,इसके बाद कुमार माहात्म्य के प्रसंग में पंचतीर्थ की कथा है,धर्मवर्मा राजा की कथा तथा नदियों और समुद्रों का वर्ण है,तदनन्तर इन्द्रद्युम्न और नाडीजंग की कथा है,फ़िर महीनदी के प्रादुर्भाव और दमन की कथा है,तत्पश्चात मही साकर संगम और कुमारेश का वृतान्त है,इसके बाद नाना प्रकार के उपाख्यानों सहित तारक युद्ध और तारकासुर के वध का वर्णन है,फ़िर पंचलिंग स्थापन की कथा आयी है,तदनन्तर द्वीपों का पुण्यमयी वर्णन ऊपर के लोकों की स्थिति ब्रह्माण्ड की स्थिति और उसका मान तथा वर्करेशकी कथा है,फ़िर वासुदेव का मात्म्य और कोटितीर्थ का वर्णन है। तदनन्तर गुप्तक्षेत्र में नाना तीर्थों का आख्यान कहा गया है,पाण्डवों की पुण्यमयी कथा और बर्बरीक की सहायता से महाविद्या के साधन का प्रसंग है,तत्पश्चात तीर्थयात्रा की समाप्ति है,तदनन्तर अरुणाचल का माहात्मय है,तथा सनक और ब्रह्माजी का संवाद है,गौरी की तपस्या का वर्णन तथा वहां के भिन्न भिन्न तीर्थों का वर्णन है,महिषासुर की कथा और उसके वध का परम अद्भुत प्रसंग कहा गया है,इस प्रकार स्कन्द पुराण में यह अद्भुत माहेश्वर खण्ड में कहा गया है। वैष्णव-खण्ड दूसरा वैष्णवखण्ड है, अब उसके आख्यानों का मुझसे श्रवण करो,पहले भूमि वाराह का संवाद का वर्णन है,जिसमें वेंकटाचल का पापनाशक माहात्म्य बताया गया है,फ़िर कमला की पवित्र कथा और श्रीनिवास की स्थिति का वर्णन है,तदनन्तर कुम्हार की कथा तथा सुवर्णमुखरी नदी के माहात्मय का वर्णन है,फ़िर अनेक उपाख्यानों से युक्त भरद्वाज की अद्भुत कथा है,इसके बाद मतंग और अंजन के पापनाशक संवाद का वर्णन है,फ़िर उत्कल प्रदेश के पुरुषोत्तम क्षेत्र का माहात्मय कहा गया है,तत्पश्चार मार्कण्डेयजी की कथा,राजा अम्बरीष का वृतान्त,इन्द्रद्युम्न का आख्यान और विद्यापति की शुभ कथा का उल्लेख है। ब्रह्मन ! इसके बाद जैमिनि और नारद का आख्यान है,फ़िर नीलकण्ठ और नृसिंह का वर्णन है,तदनन्तर अश्वमेघ यज्ञ की कथा और राजा आ ब्रह्मलोक में गमन कहा गया है,तत्पश्चात रथयात्रा विधि और जप तथा स्नान की विधि कही गयी है। फ़िर दक्षिणामूर्ति का उपाख्यान और गुण्डिचा की कथा है,रथ रक्षा की विधि और भगवान के शयनोत्सव का वर्णन है,इसके बाद राजा श्वेत का उपाख्यान कहा गय अहै विर पृथु उत्सव का निरूपण है,भगवान के दोलोत्सव तथा सांवत्सरिक व्रत का वर्णन है,तदनन्तर उद्दालक के नियोग से भगवान विष्णु की निष्काम पूजा का प्रतिपादन किया गया है,फ़िर मोक्ष साधन बताकर नाना प्रकार के योगों का निरूपण किया गया है,तत्पश्चात दशावतार की कथा अर स्नान आदि का वर्णन है,इसके बाद बदरिकाश्रम तीर्थ का पाप नाशक माहात्मय बताया गया है,उस प्रसंग में अग्नि आदि तीर्थों और गरुण शिला की महिमा है,वहां भगवान के निवास का कारण बताया गया है। फ़िर कपालमोचन तीर्थ पंचधारा तीर्थ और मेरुसंस्थान की कथा है,तदनन्तर कार्तिक मास का माहात्म्य प्रारम्भ होता है,उसमे मदनालस के माहात्मय का वर्णन है,धूम्रकेशका उपाख्यान और कार्तिक मास में प्रत्येक दिन के कृत्य का वर्णन है,अन्त में भीष्म पंचक व्रत का प्रतिपादन किया गया है,जो भोग और मोक्ष देने वाला है। तत्पश्चात मार्गशीर्ष के माहात्म्य में स्नान की विधि बतायी गयी है,फ़िर पुण्ड्रादि कीर्तन और माला धारण का पुण्य कहा गया है,भगवान को पंचामृत से स्नान करवाने तथा घण्टा बजाने आदि का पुण्यफ़ल बताया गया है। नाना प्रकार के फ़ूलों से भगवत्पूजन का फ़ल और तुलसीदल का माहात्म्य बताया गया है,भगवान को नैवैद्य लगाने की महिमा,एकादसी के दिन कीर्तन अखण्ड एकादसी व्रत रहने का पुण्य और एकादशी की रात में जागरण करने का फ़ल बताया गया है। इसके बाद मत्स्योत्सव का विधान और नाममाहात्म्य का कीर्तन है,भगवान के ध्यान आदि का पुण्य तथा मथुरा का माहात्म्य बताया गया है,मथुरा तीर्थ का उत्तम माहात्मय अलग कहा गया है,और वहां के बारह वनों की महिमा वर्णन किया गया है,तत्पश्चात इस पुराण में श्रीमदभागवत के उत्तम माहात्म्य का प्रतिपादन किया गया है इस प्रसंग में बज्रनाभ और शाण्डिल्य के संवाद का उल्लेख किया गया है,जो ब्रज की आन्तरिक लीलाओं का प्रशासक है,तदनन्तर माघ मास में स्नान दान और जप करने का माहात्म्य बताया गया है,जो नाना प्रकार के आख्यानों से युक्त है,माघ माहात्म्य का दस अध्यायों में प्रतिपादन किया गया है,तत्पश्चात बैशाख माहात्म्य में शय्यादान आदि का फ़ल कहा गया है,फ़िर जलदान की विधि कामोपाख्यान शुकदेव चर्त व्याध की अद्भुत कथा और अक्षयतृतीया आदि के पुण्य मा विशेष रूप से वर्णन है,इसके बाद अयोध्या माहात्म्य प्रारम्भ करके उसमे चक्रतीर्थ ब्रह्मतीर्थ ऋणमोचन तीर्थ पापमोचन तीर्थ सहस्त्रधारातीर्थ स्वर्गद्वारतीर्थ चन्द्रहरितीर्थ धर्महरितीर्थ स्वर्णवृष्टितीर्थ की कथा और तिलोदा-सरयू-संगम का वर्णन है,तदनन्तर सीताकुण्ड गुप्तहरितीर्थ सरयू-घाघरा-संगम गोप्रचारतीर्थ क्षीरोदकतीर्थ और बृहस्पतिकुण्ड आदि पांच तीर्थों की महिमा का प्रतिपादन किया गया है,तत्पश्चात घोषार्क आदि तेरह तीर्थों का वर्णन है। फ़िर गयाकूप के सर्वपापनाशक माहात्म्य का कथन है,तदननतर माण्डव्याश्रम आदि,अजित आदि तथा मानस आदि तीर्थों का वर्णन किया गया है,इस प्रका यह दूसरा वैष्णव खण्ड कहा गया है। ब्रह्मखण्ड इसमे पहले सेतुमाहात्म्य प्रारम्भ करके वहां के स्नान और दर्शन का फ़ल बताया गया है,फ़िर गालव की तपस्या तथा राक्षस की कथा है,तत्पश्चात देवीपत्तन में चक्रतीर्थ आदि की महिमा,वेतालतीर्थ का माहात्म्य और पापनाश आदि का वर्णन है,मंगल आदि तीर्थ का माहात्म्य ब्रह्मकुण्ड आदि का वर्णन हनुमत्कुण्ड की महिमा तथा अगस्त्यातीर्थ के फ़ल का कथन है,रामतीर्थ आदि का वर्णन लक्ष्मीतीर्थ का निरूपण शंखतीर्थ की महिमा साध्यातीर्थ के प्रभावों का वर्णन है,फ़िर रामेश्वर की महिमा तत्वज्ञान का उपदेश तथा सेतु यात्रा विधि का वर्णन है,इसके बाद धनुषकोटि आदि का माहात्म्य क्षीरकुण्ड आदि की महिमा गायत्री आदि तीर्थों का माहात्म्य है। इसके बाद धर्मारण्य का उत्तम माहात्मय बताया गया है जिसमे भगवान शिव ने स्कन्द को तत्व का उपदेश दिया है,फ़िर धर्माण्य का प्रादुर्भाव उसके पुण्य का वर्णन कर्मसिद्धि का उपाख्यान तथा ऋषिवंश का निरूपण किया गया है,इसके बाद वर्णाश्रम धर्म के तत्व का निरूपण है,तदनन्तर देवस्थान-विभाग और बकुलादित्य की शुभ कथा का वर्णन है। वहां छात्रानन्दा शान्ता श्रीमाता मातंगिनी और पुण्यदा ये पांच देवियां सदा स्थित बतायी गयी है। इसके बाद यहां इन्द्रेश्वर आदि की महिमा तथा द्वारका आदि का निरूपण है,लोहासुर की कथा गंगाकूप का वर्णन श्रीरामचन्द्र का चरित्र तथा सत्यमन्दिर का वर्णन है,फ़िर जीर्णोद्धार की महिमा का कथन आसनदान जातिभेद वर्णन तथा स्मृति-धर्म का निरूपण है।इसके बाद अनेक उपाख्यानो से युक्त वैष्णव धर्म का निरूपण है। इसके बाद मुण्यमय चातुरमास्य का माहात्म्य प्रारम्भ करके उसमें पालन करने योग्य सब धर्मों का निरूपण किया गया है,फ़िर दान की प्रसंसा व्रत की महिमा तपस्या और पूजा का माहात्म्य तथा सच्छूद्र का कथन है,इसके बाद प्रकृतियों के भेद का वर्णन शालग्राम के तत्व का निरूपण तारकासुर के वध का उपाय,गरुडपूजन की महिमा,विष्णु का शाप,वृक्षभाव की प्राप्ति, पार्वती का अनुभव,भगवान शिव का ताण्डव नृत्य,रामनाम की महिमा का निरूपण शिवलिंगपतन की कथा,पैजवन शूद्र की कथा, पार्वती के जन्म और चरित्र,तारकासुर का अद्भुत वध,प्रणव के ऐश्वर्य का कथन,तारकासुर के चरित्र का पुनर्वणन, दक्ष-यज्ञ की समाप्ति,द्वादसाक्षरमंत्र का निरूपण ज्ञानयोग का वर्णन,द्वादश सूर्यों की महिमा तथा चातुर्मास्य-माहात्म्य के श्रवण आदि के पुण्य का वर्णन, किया गया है,जो मनुष्यों के लिये कल्याणकारक है। इसके बाद ब्राह्मोत्तर भाग में भगवान शिव की अद्भुत महिमा पंचाक्षरमंत्र के माहात्म्य तथा गोकर्ण की महिमा है,इसके बाद शिवरात्रि की महिमा प्रदोषव्रत का वर्णन है,तथा सोमवारव्रत की महिमा एवं सीमन्तिनी की कथा है। फ़िर भद्रायु की उत्पत्ति का वर्णन सदाचार-निरूपण शिवकवच का उपदेश भद्रायु के विवाह का वर्णन भद्रायु की महिमा भस्म-माहात्म्य-वर्णन,शबर का उपाख्यान उमामहेश्वर व्रत की महिमा रुद्राक्ष का माहात्म्य रुद्राध्याय के पुण्य तथा ब्रह्मखण्ड के श्रवण आदि की महिमा का वर्णन है। काशीखण्ड काशीखण्ड में विंध्यपर्वत और नारदजी का संवाद का वर्णन है,सत्यलोक का प्रभाव,अगस्त्य के आश्रम में देवताओं का आगमन,पतिव्रताचरित्र,तथा तीर्थ यात्रा की प्रसंशा है,इसके बाद सप्तपुरी का वर्णन सयंमिनी का निरूपण शिवशर्मा को सूर्य इन्द्र और अग्नि लोक की प्राप्ति का उल्लेख है। अग्नि का प्रादुर्भाव निऋति तथा वरुण की उत्पत्ति,गन्धवती अलकापुरी अर ईशानपुरी के उद्भव का वर्णन,चन्द्र सूर्य बुध मंगल तथा बृहस्पति के लोक ब्रह्मलोक विष्णुलोक ध्रुवलोक और तपोलोक का वर्णन है। इसके बाद ध्रुवलोक की पुण्यमयी कथा,सत्यलोक का निरीक्षण,स्कन्द अगस्त्य संवाद,मणिकर्णिका की उत्पत्ति,गंगाजी का प्राकट्य,गंगासहस्त्रनाम,काशीपुरी की प्रशंसा,भैरव का आविर्भाव,दण्डपाणि तथा ज्ञानवापी का उद्भव,कलावती की कथा,सदाचार निरूपण ब्रह्मचारी का आख्यान स्त्री के लक्षण,कर्तव्याकर्तव्य का निर्देश,अविमुक्तेश्वर का वर्णन,गृहस्थ योगी के धर्म,कालज्ञान,दिवोदास की पुण्यमयी कथा,काशी का वर्णन,भूतल पर माया गणपति का प्रादुर्भाव,विष्णुमाया का प्रपंच,दिवोदास का मोक्ष,पंचनद तीर्थ की उत्पत्ति,विन्दुमाधव का प्राकट्य,काशी का वैष्णव तीर्थ का दर्जा,शूलधारी शिवजी का काशी में आगमन,जोगीषव्य के साथ संवाद,महेश्वर का ज्येष्ठेश्वर नाम होना,क्षेत्राख्यान कन्दुकेश्वर और व्याघ्रेश्वर का प्रादुर्भाव,शैलेश्वर रत्नेश्वर तथ कृत्तिवाशेश्वर का प्राकट्य,देवताओं का अधिष्ठान,दुर्गासुर का पराक्रम,दुर्गाजी की विजय,ऊँकारेश्वर का वर्णन,पुन: ऊँकारेश्वर का माहात्म्य,त्रिलोचन का प्रादुर्भाव केदारेश्वर का आख्यान,धर्मेश्वर की कथा,विष्णुभुजा का प्राकट्य,वीरेश्वर का आख्यान,गंगामाहात्म्यकीर्तन,विश्वकर्मेश्वर की महिमा,दक्षयज्ञोद्भव,सतीश और अमृतेश आदि का माहात्म्य पराशरनन्दन व्यासजी की भुजाओं का स्तम्भन,क्षेत्र के तीर्थों का समुदाय,मुक्तिमण्डप की कथा विश्वनाथजी का वैभव,तदनन्तर काशी की यात्रा और परिक्रमा का वर्णन काशीखण्ड के अन्दर है। अवन्तीखण्ड इसमे महाकालवन का आख्यान,ब्रह्माजी के मस्तक का छेदन,प्रायश्चित विधि अग्नि की उत्पत्ति देवताओं का आगमन देवदीक्षा नाना प्रकार के पातकों का नाश करने वाला शिवस्तोत्र कपालमोचन की कथा,महाकालवन की स्थिति,ककलेश्वर का महापापनाशक तीर्थ अप्सराकुण्ड,पुण्यदायक रुद्रसरोवर,कुटुम्बेश विध्याधरेश्वर तथा मर्कटेश्वर तीर्थ का वर्णन है,तत्पश्चात स्वर्गद्वार चतु:सिन्धुतीर्थ,शंकरवापिका,शंकरादित्य,पापनाशक गन्धवतीर्थ,दशाश्वमेघादि तीर्थ,अनंशतीर्थ हरिसिद्धिप्रदतीर्थ पिशाचादियात्रा,हनुमदीश्वर कवचेश्वर महाकलेश्वरयात्रा,वल्मीकेश्वर तीर्थ,शुक्रेश्वर और नक्षत्रेश्वर तीर्थ का उपाख्यान,कुशस्थली की परिक्रमा अक्रूर तीर्थ एकपादतीर्थ चन्द्रार्कवैभवतीर्थ,करभेषतीर्थ,लडुकेशतीर्थ,मार्कण्डेश्वरतीर्थ,यज्ञवापीतीर्थ,सोमेशवरतीर्थ,नरकान्तकतीर्थ,केदारेश्वर रामेश्वर सौभागेश्वर,तथा नरादित्य तीर्थ,केशवादित्य तीर्थ,शक्तिभेदतीर्थ स्वर्णसारमुख तीर्थ,ऊँकारेश्वरतीर्थ,अन्धकासुर के द्वारा स्तुति कीर्तन कालवन में शिव लिंगों की संख्या तथा स्वर्णश्रंगेश्वर तीर्थ का वर्णन है। कुशस्थली अवन्ती एवं उज्ज्यनीपुरी के पद्मावती कुमुद्वती अमरावती विशाला तथा प्रतिकल्पा इन नामों का उल्लेख है,इनका उच्चारण ज्वर की शान्ति करने वाला है,तत्पश्चत शिप्रा में स्नान आदि का फ़ल नागों द्वारा की हुई भगवान शिवकी स्तुति हिरण्याक्ष वध की कथा सुन्दरकुण्डतीर्थ नीलगंगा पुष्करतीर्थ विन्ध्यवासनतीर्थ पुरुषोत्तमतीर्थ अघनाशनतीर्थ गोमतीतीर्थ वामनकुण्डतीर्थ विष्णुसहस्त्रनाम कीर्तन वीरेश्वरतीर्थ कालभैरवतीर्थ नागपंचमी की महिआ नृसिंहजयन्ती कुटुम्बेश्वरयात्रा देवसाधककीर्तन,कर्कराजतीर्थ,विघ्नेशादितीर्थ,सुरोहनतीर्थ, का वर्णन किया गया है। रुद्रकुण्ड आदि में अनेक तीर्थों का निरूपण किया गया है,तदनन्तर आठ तीर्थों की पुण्यमयी तीर्थयात्रा का विवरण है। इसके बाद नर्मदा नदी का माहात्मय बताया गया है,जिसमें युधिष्ठर के वैराग्य तथा मार्कण्डेयजी के साथ उनके समागम का वर्णन है। इसके बाद पहले प्रलयकालीन समय का अनुभव का वर्णन अमृतकीर्तन कल्प कल्प में नर्मदा के अलग अलग नामों का वर्णन नर्मदाजी का आर्षस्तोत्र कालरात्रि की कथा,महादेवजी की स्तुति अलग अलग कल्प की अद्भुत कथा,विशल्या की कथा,जालेश्वर की कथा,गौरीव्रत का विवरण,त्रिपुरदाह की कथा,देहपातविधि,कावेरी संगम,दारूतीर्थ,ब्रह्मवर्त ईश्वरकथा,अग्नितीर्थ सूर्यतीर्थ मेघनादादि तीर्थ दारूकतीर्थ देवतीर्थ नर्मदेशतीर्थ कपिलातीर्थ करंजकतीर्थ कुण्डलेशतीर्थ पिप्प्लादितीर्थ विमलेश्वरतीर्थ,शूलभेदनतीर्थ,अलग अलग दानधर्म दीर्घतपा की कथा,ऋष्यश्रंग का उपाख्यान,चित्रसेन की पुण्यमयी कथा,काशिराज का मोक्ष,देवशिला की कथा,शबरीतीर्थ,पवित्र व्याधोपाख्यान,पुष्कणीतीर्थ अर्कतीर्थ आदित्येश्वरतीर्थ,शक्रतीर्थ,करोटितीर्थ,कुमारेश्वरतीर्थ अगस्तेश्वरतीर्थ आनन्देश्वरतीर्थ मातृतीर्थ लोकेश्वर,धनेश्वर मंगलेश्वर तथा कामजतीर्थ नागेश्वरतीर्थ वरणेश्वरतीर्थ दधिस्कन्दादितीर्थ हनुमदीश्वरतीर्थ रामेश्वरतीर्थ सोमेश्वरतीर्थ पिंगलेश्वरतीर्थ ऋणमोक्षेश्वर कपिलेश्वर पूतिकेश्वर,जलेशय,चण्डार्क यमतीर्थ काल्होडीश्वर नन्दिकेश्वर नारायणेश्वर कोटीश्वर व्यासतीर्थ प्रभासतीर्थ संकर्षणतीर्थ प्रश्रेश्वरतीर्थ एरण्डीतीर्थ सुवर्णशिलातीर्थ,करंजतीर्थ,कामरतीर्थ,भाण्डीरतीर्थ, रोहिणीभवतीर्थ चक्रतीर्थ धौतपापतीर्थ आंगिरसतीर्थ कोटितीर्थ अन्योन्यतीर्थ अंगारतीर्थ त्रिलोचनतीर्थ इन्द्रेशतीर्थ कम्बुकेशतीर्थ,सोमतेशतीर्थ,कोहलेशतीर्थ,नर्मदातीर्थ,अर्कतीर्थ,आग्नेयतीर्थ,उत्तमभार्गवेश्वरतीर्थ,ब्राह्मतीर्थ,दैवतीर्थ,मार्गेशतीर्थ,आदिवाराहेश्वर,रामेश्वरतीर्थ,सिद्धेश्वरतीर्थ,अहल्यातीर्थ,कंकटेश्वरतीर्थ,शक्रतीर्थ,सोमतीर्थ,नादेशतीर्थ,कोयेशतीर्थ,रुक्मिणी आदि तीर्थों का विवेचन है।इसके साथ ही नागर खण्ड में भी तीर्थों का वर्णन है प्रभासखण्ड में विभिन्न नामॊं से शिवजी के स्थानों का विवेचन है।

अग्निपुराण
अग्निपुराण पुराण साहित्य में अपनी व्यापक दृष्टि तथा विशाल ज्ञान भंडार के कारण विशिष्ट स्थान रखता है। साधारण रीति से पुराण को पंचलक्षण कहते हैं, क्योंकि इसमें सर्ग (सृष्टि), प्रतिसर्ग (संहार), वंश, मन्वंतर तथा वंशानुचरित का वर्णन अवश्यमेव रहता है, चाहे परिमाण में थोड़ा न्यून ही क्यों न हो। परंतु अग्निपुराम इसका अपवाद है।

वर्ण्य विषय
प्राचीन भारत की परा और अपरा विद्याओं का तथा नाना भौतिकशास्त्रों का इतना व्यवस्थित वर्णन यहाँ किया गया है कि इसे वर्तमान दृष्टि से हम एक विशाल विश्वकोश कह सकते हैं। आनंदाश्रम से प्रकाशित अग्निपुराण में 383 अध्याय तथा 11,475 श्लोक हैं परंतु नारदपुराण के अनुसार इसमें 15 हजार श्लोकों तथा मत्स्यपुराण के अनुसार, 16 हजार श्लोकों का संग्रह बतलाया गया है। बल्लाल सेन द्वारा दानसागर में इस पुराण के दिए गए उद्धरण प्रकाशित प्रति में उपलब्ध नहीं है। इस कारण इसके कुछ अंशों के लुप्त और अप्राप्त होने की बात अनुमानतः सिद्ध मानी जा सकती है।
अग्निपुराण में वर्ण्य विषयों पर सामान्य दृष्टि डालने पर भी उनकी विशालता और विविधता पर आश्चर्य हुए बिना नहीं रहता। आरंभ में दशावतार (अ. 1-16) तथा सृष्टि की उत्पत्ति (अ. 17-20) के अनंतर मंत्रशास्तर तथा वास्तु शास्त्र का सूक्ष्म विवेचन है (अ. 21-106) जिसमें मंदिर के निर्माण से लेकर देवता की प्रतिष्ठा तथा उपासना का पुखानुपुंख विवेचन है। भूगोल (अ. 107-120), ज्योतिः शास्त्र तथा वैद्यक (अ. 121-149) के विवरण के बाद राजनीति का विस्तृत वर्णन किया गया है जिसमें अभिषेक, साहाय्य, संपत्ति, सेवक, दुर्ग, राजधर्म आदि आवश्यक विषय निर्णीत है (अ. 219-245)। धनुर्वेद का विवरण बड़ा ही ज्ञानवर्धक है जिसमें प्राचीन अस्त-शस्त्रों तथा सैनिक शिक्षा पद्धति का विवेचन विशेष उपादेय तथा प्रामाणिक है (अ. 249-258)। अंतिम भाग में आयुर्वेद का विशिष्ट वर्णन अनेक अध्यायों में मिलता है (अ। 279-305)। छंदःशास्त्र, अलंकार शास्त्र, व्याकरण तथा कोश विषयक विवरणों के लिए अध्याय लिखे गए हैं।

अग्नि पुराण की संक्षिप्त जानकारी
ब्रह्माजी बोले-- अब मैं अग्नि पुराण का कथन करता हूँ। इसमें अग्निदेव ने ईशान कल्प का बखान महर्षि वशिष्ठ से किया है। इसमे पन्द्रह हजार श्लोक है,इसके अन्दर पहले पुराण विषय के प्रश्न है फ़िर अवतारों की कथा कही गयी है,फ़िर सृष्टि का विवरण और विष्णुपूजा का वृतांत है। इसके बाद अग्निकार्य,मन्त्र,मुद्रादि लक्षण,सर्वदीक्षा विधान,और अभिषेक निरूपण है। इसके बाद मंडल का लक्षण,कुशामापार्जन,पवित्रारोपण विधि,देवालय विधि,शालग्राम की पूजा,और मूर्तियों का अलग अलग विवरण है। फ़िर न्यास आदि का विधान प्रतिष्ठा पूर्तकर्म,विनायक आदि का पूजन,नाना प्रकार की दीक्षाओं की विधि,सर्वदेव प्रतिष्ठा,ब्रहमाण्ड का वर्णन,गंगादि तीर्थों का माहात्म्य,द्वीप और वर्ष का वर्णन,ऊपर और नीचे के लोकों की रचना,ज्योतिश्चक्र का निरूपण,ज्योतिष शास्त्र,युद्धजयार्णव,षटकर्म मंत्र,यन्त्र,औषधि समूह,कुब्जिका आदि की पूजा,छ: प्रकार की न्यास विधि,कोटि होम विधि,मनवन्तर निरूपण ब्रह्माचर्यादि आश्रमों के धर्म,श्राद्धकल्प विधि,ग्रह यज्ञ,श्रौतस्मार्त कर्म,प्रायश्चित वर्णन,तिथि व्रत आदि का वर्णन,वार व्रत का कथन,नक्षत्र व्रत विधि का प्रतिपादन,मासिक व्रत का निर्देश,उत्तम दीपदान विधि,नवव्यूहपूजन,नरक निरूपण,व्रतों और दानों की विधि,नाडी चक्र का संक्षिप्त विवरण,संध्या की उत्तम विधि,गायत्री के अर्थ का निर्देश,लिंगस्तोत्र,राज्याभिषेक के मंत्र,राजाओं के धार्मिक कृत्य,स्वप्न सम्बन्धी विचार का अध्याय,शकुन आदि का निरूपण,मंडल आदि का निर्देश,रत्न दीक्षा विधि,रामोक्त नीति का वर्णन,रत्नों के लक्षण,धनुर्विद्या,व्यवहार दर्शन,देवासुर संग्राम की कथा,आयुर्वेद निरूपण,गज आदि की चिकित्सा,उनके रोगों की शान्ति,गो चिकित्सा,मनुष्यादि की चिकित्सा,नाना प्रकार की पूजा पद्धति,विविध प्रकार की शान्ति,छन्द शास्त्र,साहित्य,एकाक्षर, आदि कोष,प्रलय का लक्षण,शारीरिक वेदान्त का निरूपण,नरक वर्णन,योगशास्त्र,ब्रह्मज्ञान तथा पुराण श्रवण का फ़ल ही अग्निपुराण के अंग बताये गये है।

मत्स्य पुराण
इस पुराण में सात कल्पों का कथन है,नृसिंह वर्णन से शुरु होकर यह चौदह हजार श्लोकों का पुराण है। मनु और मत्स्य के संवाद से शुरु होकर ब्रह्माण्ड का वर्णन ब्रह्मा देवता और असुरों का पैदा होना,मरुद्गणों का प्रादुर्भाव इसके बाद राजा पृथु के राज्य का वर्णन वैवस्त मनु की उत्पत्ति व्रत और उपवासों के साथ मार्तण्डशयन व्रत द्वीप और लोकों का वर्णन देव मन्दिर निर्माण प्रासाद निर्माण आदि का वर्णन है।

लाभकारी नुस्खे

* बड़ की जटा का चूर्ण दूध की लस्सी के साथ पीने से नकसीर रोग ठीक होता है।

* बहेड़े और शक्कर बराबर मात्रा में मिलाकर सेवन करने से आँखों की रोशनी में बढ़ोतरी होती है।

* चूने में दूब बराबर मात्रा में पानी में पीस लें। इस मिश्रण का लेप मस्तक पर करने से मस्तक की पीड़ा दूर होती है।

* इलायची का छिलका दाँतों के रोग, सिरदर्द और मुँह की सूजन में लाभ पहुँचाता है।

* ईसबगोल और मिश्री बराबर-बराबर मात्रा में मिला लें। दूध से इस मिश्रण को एक-एक चम्मच लेने से स्वप्नदोष रोग नहीं सताता है। मिश्रण को दूध से सोने से एक घंटा पूर्व ले लेना चाहिए।

हरी सब्जियों से घरेलू उपचार

सेहत व सौन्दर्य प्रदान करती हैं सब्जियाँ

आहार में हरी सब्जियों की बड़ी भूमिका होती है। हमारे शरीर के लिए सभी आवश्यक तत्व हरी सब्जियों से मिल जाते हैं, ये सेहत व सौन्दर्य प्रदान करती हैं।हरी सब्जियों से प्राप्त तत्व शरीर में रोग प्रतिरोधक शक्ति का विकास करते हैं। इनके सेवन से पाचन शीघ्र होता है, बिगड़ा हुआ पाचन सुधरता है, शरीर को पौष्टिकता प्राप्त होती है और सबसे बड़ी बात सौन्दर्य में वृद्धि होती है।

संसारभर के पुरुष व महिलाएँ स्वास्थ्य तथा सौंदर्य चाहते हैं, किन्तु कोई भी प्राकृतिक आहार-विहार, दिनचर्या अपनाना नहीं चाहता। डिब्बाबंद आहार का चलन बहुत बढ़ा है। रेडीमेड खाद्य पदार्थ, हॉटडॉग इस आपाधापी के जीवन में ज्यादा इस्तेमाल किया जा रहा है।
प्राकृतिक चिकित्सा वास्तव में चिकित्सा कम जीने की कला, आत्मसाक्षात्कार का विज्ञान अधिक है। यह चिकित्सात्मक की अपेक्षा रक्षात्मक अधिक है। यदि हम अपना खान-पान बदल लें तो जीवन पद्धति बदल जाएगी। शक्ति ऊर्जा अर्जित होने लगेगी। जहा शक्ति है, वहीं स्वास्थ्य है, वहीं सौन्दर्य है।

अन्न कम खाएँ, सब्जियों का प्रयोग ज्यादा करें, वह भी रसेदार बनाकर। इससे शरीर के भीतर के अंग पुष्ट होते हैं, शरीर सुचारु रूप से कार्य करता है। व्यक्तित्व में स्वतः निखार आने लगता है। भीतर की उष्मा जब बाहर झलकती है तो वही स्वास्थ्य कहलाता है, वही सौंदर्य बनकर दमकता है।
कुछ सब्जियाँ तो बहुत उपयोगी हैं, जैसे करेला पेट के कृमि नष्ट करता है। रक्त शोधन कर, अग्नाशय को सक्रिय करता है।

* टमाटर रक्त बढ़ाता है एवं त्वचा निखारता है।
* नीबू शरीर के पाचक रसों को बढ़ाता है।

* पालक हड्डियों को कैल्शियम से सुदृढ़ करता है। पत्तेदार सब्जी लौह तत्व से भरपूर होती है अतः इन सबका उचित रूप से सलाद में प्रयोग करें।

* भिंडी वीर्य में गाढ़ापन लाती है, शुक्राणु बढ़ाती है।

* लौकी शीघ्र पाचक, रक्तवर्द्धक है, शीतलता प्रदान करती है।

* खीरा रक्तकणों का शोधन करता है व इसका प्रवाह बढ़ाता है।
* लहसुन खून का थक्का जमने नहीं देता अतः हृदय रोग में लाभकारी है।
* परवल शरीर को ऊर्जा देती है।
* गोभी, आलू, बीन्स आदि शरीर के विविध भागों, तत्वों, मात्राओं को प्रभावित करते हैं। इनको बनाते समय सावधानी की जरूरत है।

सब्जी को काटने से पूर्व अच्छी तरह धो लिया जाए, काटने के बाद धोने से सब्जी के तत्व नष्ट होते हैं। पकाते समय अधिक तेल डालने व ज्यादा देर तक आग पर रखकर स्वाद के लालच में कहीं सब्जियों की पौष्टिकता नष्ट हो जाती है। अधिक मिर्च-मसाले से भी सब्जी का स्वाद कम हो जाता है।
ताजी सब्जियाँ, ताजा बनाकर सेवन करना ही हितकर होता है। बासी, फ्रिज में रखी, बार-बार गरम करके परोसी गई सब्जी में पौष्टिक तत्व खत्म हो चुके होते हैं।
दैनिक जीवन में सब्जियों का सेवन बढ़ाकर देखें, हाजमा ठीक रहेगा, गैस, एसिडिटी नहीं होगी एवं उत्साह बढ़ेगा। इससे आपका व्यक्तित्व निखरेगा। आप आयु से सदैव कम दिखाई देंगे।
बुजुर्ग कहा करते थे कि तिजोरी में धन होता है तो चेहरे पर चमक झलकती है अर्थात यदि लक्ष्मी (रुपया-पैसा) हमारी तिजोरी में हो तो चेहरा स्वतः खिला-खिला रहता है। अमीरी छिपाए नहीं छिपती। ठीक उसी प्रकार हमारा शरीर यदि भीतर से संपन्न, स्वस्थ है तो बाहरी तौर पर भी सुंदर दिखेगा।

हल्दी है दर्द निवारक

- हल्दी में दर्द निवारक गुण भी हैं। यदि बदन दर्द हो तो हल्दी चूर्ण को दूध के साथ लेने पर राहत मिलती है।
- गले के दर्द में कच्ची हल्दी अदरक के साथ पीसकर गुड़ मिलाकर गर्म कर उसका सेवन करना लाभ पहुँचाता है।
- हल्दी के प्रयोग से घाव भी जल्दी ठीक हो जाते हैं। यही कारण है कि घरों में छोटी-मोटी चोट लग जाने पर हल्दी का प्रयोग आज भी प्रचलित है। - यदि मुँह में छाले हो जाएँ तो हल्दी पावडर को गुनगुना करके छालों पर लगाएँ या गुनगुने पानी में हल्दी पावडर मिलाकर कुल्ले करें।

01 जनवरी 2010

मन्नत के नाम पर नागों की दुर्गति

हमारे देश में मन्नतें माँगने और उन्हे पूर्ण कराने के लिए जितने प्रयास और कयास लगाए जाते हैं, उतना किसी और देश में शायद ही कहीं होता होगा। इसका ताजा उदाहरण है बुरहानपुर के उतावली नदी स्‍थित नाग मंदिर पर मन्नत माँगने वालों की भीड़, जहाँ मन्नत पूरी होने पर नाग-नागिन का जोड़ा छोड़ा जाता है।
शहर से लगी उतावली नदी के समीप स्थित अड़वाल परिवार के नाग मंदिर पर हर वर्ष ऋषि पंचमी के दिन बड़ी संख्या में लोग पहुँचते हैं। इनमें से कुछ मन्नत माँगने तो कुछ मन्नत पूरी होने पर नाग-नागिन का जोड़ा छोड़ने आते हैं।
लोग यहाँ नौकरी-पेशे, व्यवसाय में बढ़ोतरी, बच्चे की इच्छा से लेकर शारीरिक एवं मानसिक रोगों के ठीक होने तक हर प्रकार की मन्नत माँगते हैं। मन्नत पूरी होने पर श्रद्धालु आने वाले वर्ष में इसी दिन साँपों के जोड़े को छोड़ते हैं। ये साँपों के जोड़े स्थानीय सपेरों से खरीदे जाते हैं।
एक श्रद्धालु दिलीप यादव का कहना है कि पिछले 25 सालों से वे यहाँ इच्छा पूरी होने पर साँपों के जोड़े छोड़ रहे हैं। यहाँ हमारी हर इच्छा पूर्ण हुई है।

यहाँ से जुड़ी एक किंवदंती है कि एक बार घोड़े पर सवार राज सैनिक जंगल से जा रहे थे, रास्ते में काँटों में फँसे एक साँप ने इंसानी रूप में आकर मदद की पुकार लगाई और राज सैनिकों ने उसे काँटों से मुक्त कर दिया। नाग देवता ने तब से वरदान दिया कि जो भी व्यक्ति अड़वाल मंदिर पर आकर मन्नत माँगेगा, उसकी हर इच्छा पूर्ण होगी। तब से यह प्रथा चली आ रही है।
पीढ़ी दर पीढ़ी अड़वाल परिवार ही अड़वाल नाग मंदिर की पूजा-पाठ करते आ रहे हैं, इसलिए इन्हें नागमंत्री कहा जाता है। अड़वाल परिवार के अनिल भावसार का कहना है कि देश में अड़वाल नाग मंदिर एकमात्र नाग मंदिर है, जहाँ दूर-दूर से लोग मन्नत माँगने के लिए आते हैं।
यदि बात भगवान की पूजा आराधना तक सिमित हो तो इसमें कोई बुराई नहीं है परंतु निरीह प्राणियों की आस्था के नाम पर दुर्गति करना कहाँ तक उचित है। सपेरे ऋषि पंचमी से काफी पहले साँप पकड़कर उन्हें बहुत बुरी हालत में रखते हैं। श्रद्धा-भक्ति के नाम पर इन बेजुबाँ जीवों को यूँ परेशान करना, उनकी दुर्गति करना कहाँ तक उचित है? आप मुझे अपनी राय से जरूर अवगत कराएँ।

बंदर लाया गाँव में खुशहाली

क्या कभी आपने सुना है कि मृत बंदर किसी के सपने में आकर यह कहे कि मेरा क्रिया-कर्म करने से तुम्हारे गाँव में खुशहाली आएगी और गाँव वाले बंदर की बात पर भरोसा करके उसका क्रिया-कर्म करें तो इसे आप क्या कहेंगे, आस्था या अंधविश्वास?

कुछ ऐसी ही एक घटना के कारण म।प्र. के रतलाम जिले का ग्राम 'बरसी' सुर्खियों में आया। इस गाँव में गत वर्ष एक कुत्ते ने बंदर को मार डाला था। गाँव वालों ने बंदर को हनुमान का अवतार मानकर उसकी शवयात्रा निकाली, जिसमें सभी गाँववाले सम्मिलित हुए। इसके बाद बंदर को जमीन में दफनाया गया।
गाँव के लोग धीरे-धीरे उस घटना को भूल गए और अपनी सामान्य दिनचर्या में लौट गए। लेकिन घटना के लगभग एक वर्ष बाद ही गाँव में एक के बाद एक विपत्तियाँ आने लगीं। गाँव के पशु बीमार पड़ने लगे तथा अल्पवर्षा से गाँव की फसलें सुखने लगीं। इसी दरमियान वह मृत बंदर गाँव के सरपंच शंकरसिंह सिसौदिया के सपने में आया। सपने में बंदर ने कहा कि तुम मेरा क्रिया-कर्म करा दो तो तुम्हारी सारी विपत्तियाँ दूर हो जाएँगी।
सपने में बंदर की यह बात सुनकर शंकरसिंह चिंतिंत होकर पड़ोस के गाँव में 'नाग देवता' के स्थान पर गया। वहाँ जाकर उसने सपने वाली बात बताई। किसी के बदन में नाग देवता आए और उन्होंने कहा कि बंदर ने जैसा कहा है, तुम वैसा ही करो।
बंदर को हनुमान का अवतार मानने वाले बरसी गाँव के निवासियों ने जनसहयोग से बंदर का क्रिया-कर्म किया। इसके लिए हर घर से 5-5 कि।ग्रा। अनाज व धनराशि एकत्र की गई। इस आयोजन हेतु आसपास के 15 गाँवों के निवासियों को सामू‍हिक भोज का न्योता भेजा गया। इसमें लगभग 1500 से 2000 लोगों ने भोजन किया। इसके बाद गाँव के हनुमान मंदिर में रातभर 'अखंड रामायण' का पाठ कराया गया।
किसी मनुष्य के मरने पर उसका जो क्रिया-कर्म किया जाता है, वैसा ही सब कुछ गाँव वालों ने बंदर के मरने पर किया। गाँव के सरपंच सहित 20-25 पुरुषों ने अपने बाल दिए और गंजे हुए। बंदर के क्रिया-कर्म की बाकी प्रक्रिया उज्जैन में क्षिप्रा नदी के तट पर की गई। सभी क्रियाएँ संपन्न होने के दो दिन बाद ही गाँव में वर्षा हुई और गाँव के पशु फिर से स्वस्थ हो गए।
इस घटना को हम आस्था कहेंगे या अंधविश्वास। क्या मानसून की अनियमितता को बंदर का कोप कहा जा सकता है या फिर बंदर के क्रिया-कर्म के बाद गाँव में खुशहाली आना सचमुच बंदर की कृपा था? जो भी हो, इस बारे में पुख्ता तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। आस्था और अंधविश्वास की यह यात्रा आपको कैसी लगी? मुझे अपने विचारों से जरूर अवगत कराएँ।

जरूर अवगत कराएँ।

क्या आप इस बात पर विश्वास करेंगे कि एक श्मशान घाट को धार्मिक स्थल के रूप में माना जाता है और उसके पास से बहने वाली नदी को उस गंगा के समकक्ष माना जाता है, जो देश की सबसे पवित्र नदी है।
जी हाँ, तन्जावुर में एक नदी के पास श्मशान घाट है जिसे वहाँ के रहने वाले लोग उसी तरह धार्मिक स्थल या तीर्थ मानते हैं जिस तरह गंगा नदी के घाट को। यहाँ बहुत लोगों से सुनने में आया है कि उनके घर के बुजुर्गों की इच्छा थी कि उनका अंतिम संस्कार राजगोरी घाट पर किया जाए और आखिरी सभी विधि-विधान उससे जुड़ी वदावरू नामक नदी के किनारे पर किए जाएँ।
यह बहुत ही बड़ा घाट है जहाँ अंतिम संस्कार के लिए सबसे ज्यादा दाह स्थल हैं। यहाँ के कर्मचारियों (वेट्टियंस) के अनुसार यहाँ एक साथ 20 अंतिम संस्कार किए जा सकते हैं।
घाट के दूसरी ओर भी बहुत से दाह स्थल थे। वहाँ मौजूद कर्मचारियों से यह मालूम हुआ कि वे सभी तन्जावुर के राजघराने के हैं और दूसरे सभी ब्राह्मण और नायक समाज के लिए हैं। 21वीं सदी में भी हर समाज के लिए यहाँ अलग-अलग दाह स्थल हैं।
यहाँ बहने वाली नदी वदावरू, कावेरी नदी की उपनदी है जिसे गंगा की तरह माना जाता है। जो लोग अपने रिश्तेदारों का दाह संस्कार करने यहाँ आते हैं वे इस नदी में स्नान जरूर करते हैं। उनका मानना है कि इस नदी में स्नान करने से मृत्यु के सारे दोष दूर हो जाएँगे।
हमारे देश में धार्मिक स्थलों जैसे मंदिर, चर्च, मस्जिद, बौद्ध और जैन धर्म स्थलों की कमी नहीं है। लेकिन एक श्मशान घाट को तन्जावुर के लोगों का धार्मिक मानना हमारे लिए एक पहेली ही है। अगर आप भी कभी ऐसे धार्मिक स्थलों के संपर्क में आएँ तो हमें जरूर बताएँ।
कैसे पहुँचे:- चेन्नई से 310 किमी दूर स्थित है तंजावुर। यहाँ पहुँचने के लिए रेल या सड़क मार्ग से जाया जा सकता है। तंजावुर के नजदीक तमिलनाडु की राजधानी चिन्नई में स्थित है चेन्नई अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा।

मानव शरीर में देवी माँ का वास

क्या किसी इंसान के शरीर में देवी माँ की छाया नजर आ सकती है। क्या कोई इंसान देवी का रूप धारण कर अंगारों पर चल सकता है। आइए आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं कुछ ऐसे लोगों के पास जिनका दावा है कि देवी उनके शरीर में प्रवेश कर अपने भक्तों का कल्याण करती है और उनके दु:ख-दर्द दूर करती है।

आइए चलते हैं मध्यप्रदेश के शहर में...यहाँ के माँ दुर्गा के एक मंदिर में आरती शुरू होते ही कुछ महिलाओं में देवी तो कुछ पुरुषों में देवी का वाहन शेर या काल भैरव प्रवेश करते हैं और ये अजीबो-गरीब ढंग से व्यवहार करते हुए स्वयं भी देवी की आराधना करते हैं तथा देवी के रूप में भक्तों को आशीर्वाद भी देते हैं। इन लोगों में देवी का शरीर में आगमन होने का जुनून इस हद तक होता है कि ये जलता हुआ कपूर अपनी जुबान पर रखकर देवी की आरती उतारते हैं तो कुछ हाथ में जलता कपूर लेकर देवी की आरती करते हैं।
इतना ही नहीं जब देवी माँ, शेर और काल भैरव काफी लोगों के शरीर में प्रवेश कर चुके होते हैं तब ये आपस में मिलकर नाचते-खेलते हैं और जलते हुए अंगारों पर नंगे पाँव चल पड़ते हैं। इस पूरे क्रियाकलाप में आसपास मौजूद भक्त भी इनकी मदद करते हैं और तमाशे का हिस्सा बनकर इसे देवी की आराधना का जरिया मानते हैं। जलते हुए अंगारों पर खेलते-कूदते समय इनका उत्साह ऊँचाइयों पर होता है।क्या वाकई भक्तों का इस तरह से शरीर में प्रकट होने वाली देवी की आराधना करना आस्था का प्रतीक है? क्या माँ का अपने भक्तों के शरीर में प्रवेश करने को सच्चाई माना जा सकता है या यह केवल भक्तों को अपनी ओर आकर्षित करने का जरिया मात्र है? आपको क्या लगता है, अपनी राय से मुझे जरूर अवगत कराएँ।

इच्छाधारी नागिन...!

आज तक आपने इच्छाधारी नागिन या नागकन्या का रूप फिल्मों में ही देखा होगा, परंतु आज हम आपको ऐसी इच्छाधारी नागिन से रूबरू कराने जा रहे हैं, जो अपने नाग पति को पाने के लिए इस मृत्युलोक में साधना कर रही है।
स्वयं नागकन्या होने का दावा करने वाली माया का कहना है कि वह हर 24 घंटे में हवन के दौरान नागिन का रूप धारण कर अपनी तीन बहनों से मिलने जाती है जो उसे अपने नाग पति को पाने के लिए किस तरह साधना की जाए, यह निर्देश देती हैं। माया के मुताबिक ये तीनों बहनें भी इच्छाधारी नागिनें हैं।
खुद को बचपन से शादीशुदा समझने वाली माया नाग के नाम का सिंदूर भरती है और उसे पूरा विश्वास है कि जल्द ही उसके पति के साथ उसका मिलन होगा। माया कहती है कि फिलहाल उसका पति इस मृत्युलोक में उसके परिवार के मोह में फँसा हुआ है और उससे सारी शक्तियाँ छीनी जा चुकी हैं।अपने पूर्व जन्म की कहानी सुनाते हुए वह कहती है कि द्वापर युग के दौरान वह एक खाई में गिर गई थी तब किसी बाबा ने गोपाल नामक नाग को उसकी मदद के ‍लिए भेजा था, तभी से उन दोनों में प्रेम हो गया था। परंतु शादी न हो पाने की वजह से उसने आत्महत्या कर ली थी। ...और तब से आज तक अपने साथी को पाने के लिए भटक रही है।
नागलोक और मृत्युलोक की अजीबो-गरीब कहानियाँ सुनाने वाली यह इच्छाधारी नागिन माया मध्यप्रदेश के बड़नगर स्थित एक आश्रम में निवास करती है। इन कहानियों से प्रभावित वहाँ के निवासी इनकी महामाया माँ भगवती के रूप में आराधना करते हैं।लोगों द्वारा माया की पूजा करना आस्था का प्रतीक है या उसका इच्छाधारी नागिन होने के अंधविश्वास का प्रभाव है? आज के इस वैज्ञानिक युग में यह घटना कितनी प्रासंगिक है, अपनी राय से हमें जरूर अवगत कराएँ।

भटक रही है मुमताज!

यूँ तो विश्व प्रसिद्ध का ताजमहल बादशाह शाहजहाँ के अपनी बेगम मुमताज महल के प्रति बेपनाह मोहब्बत की कहानी को बयाँ करता है परंतु शायद बहुत कम लोग यह जानते होंगे की ताजमहल बनने तक मुमताज के मृत शरीर को बुरहानपुर के बुलारा महल में दफनाया गया था और लोगों की मानें तो इन खंडहरों में आज भी मुमताज की आत्मा भटकती है।
कहते हैं कि आज से 400 वर्ष पूर्व जब मुगलिया सल्तनत की बेगम मुमताज की मौत बुलारा महल में हुई थी, तब शाहजहाँ बुरहानपुर में ही ताजमहल का निर्माण कराने वाले थे। परंतु किसी कारणवश यह संभव न हो सका और जब आगरा में ताजमहल बनकर तैयार हुआ तो वहाँ मुमताज की देह को ले जाकर दफनाया गया। यहाँ के रहवासियों का मानना है कि मुमताज की देह तो यहाँ से निकाल ली गई पर आत्मा आज भी इसी महल में भटकती रहती है।
यहाँ के रहवासियों का कहना है कि महल से चीखने-चिल्लाने की आवाजें आना तो आम बात है, परंतु आज तक यहाँ आने वाले किसी भी शख्स को मुमताज की आत्मा ने परेशान नहीं किया और न ही नुकसान पहुँचाया है।बालचंद प्रजापति का कहना है कि यहाँ मौजूद तथ्यों के आधार पर सन 1631 में यहाँ अपनी बेटी को जन्म देने के कुछ दिनों बाद ही मुमताज चल बसी थी। कहते हैं कि यही वजह है कि उनकी आत्मा इस महल में ही बस गई।
बुरहानपुर के इन खंडहरों में क्या वाकई मुमताज की आत्मा भटकती है या यह केवल असामाजिक तत्वों द्वारा लोगों को इस स्थान से दूर रखने की कोई चाल है, जिससे कि वे अपने गैर कानूनी कार्यों को चुपचाप अंजाम दे सकें। आप इस बारे में क्या सोचते हैं। यदि आप भी ऐसे किसी स्थान के बारे में जानते हैं तो मुझे जरूर बताएँ।

भूत से परेशान एक गाँव

अभी तक हमने आपको ऐसे कई लोगों के बारे में बताया जिन पर भूत, प्रेत, जिन्न का प्रकोप रहा हो, परंतु आज हम आपको एक ऐसी जगह ले जा रहे हैं, जहाँ एक-दो व्यक्तियों पर नहीं, वरन पूरे गाँव पर भूत का प्रकोप होने का दावा किया जा रहा है।मध्यप्रदेश के खरगोन जिले के गायबैड़ा ग्राम के पाँच ग्रामवासी अचानक किसी अज्ञात बीमारी का शिकार होकर मौत के मुँह में चले गए। जब ग्रामीणों को मौत का कुछ कारण समझ में नहीं आया तो वे घबराकर वहीं पास के एक तांत्रिक के पास पहुँचे। तांत्रिक ने मौत का कारण गाँव पर एक भूत का साया होना बताया। यह भी बताया कि वह भूत और लोगों को भी मार सकता है। ग्रामीणों के आग्रह पर तांत्रिक ने भूत को भगाने की एक योजना बनाई।तांत्रिक के कहने पर घोषणा की गई कि गाँव के बाहर से आए लोग तुरंत गाँव छोड़कर चले जाएँ और केवल यहाँ के रहवासी ही गाँव में ठहरें और अनिवार्य रूप से पूजा-पाठ और हवन कर्म में हिस्सा लें, तभी गाँव भूतों के साए से मुक्त हो पाएगा। इस आदेश का शब्दश: पालन किया गया और भजन, हवन आदि धार्मिक कार्यक्रमों का आयोजन कर भूत को शांत किया गया।इस दौरान भूत का साया होने का दावा करने वाला तांत्रिक भी बनावटी वेशभूषा कर भूत भगाने का प्रयत्न करता रहा और अंत में जाकर पूरे गाँव की सीमा को दूध की धार गिराते हुए बाँध दिया गया। इसके पश्चात उसने गाँववालों को यकीन दिलाया कि पूजन-हवन के बाद अब गाँव भूत के साए से मुक्त हो चुका है।आमतौर यह देखा गया है कि इनसान जिस चीज को समझ नहीं पाता है उसे या तो वह देवता मान लेता है या फिर भूत-प्रेत का नाम दे देता है और इसी अज्ञानता का फायदा कुछ लोग उठाते हैं और लोगों की भावनाओं के खिलवाड़ कर पैसा कमाने की राह खोजते हैं। आज के ‍इस कथित शिक्षित समाज में भी भूत-प्रेत का साया पड़ने जैसी बातों पर विश्वास करना किस हद तक उचित है? आप इस बारे में क्या सोचते हैं? हमें अवश्य बताइए।

...तो भस्म हो जाएगा पूरा गाँव

आस्था और अंधविश्वास की इस बार की कड़ी में हम आपको ले चलते हैं उज्जैन जिले के चिखली ग्राम में जहाँ ऐसी मान्यता है कि यदि रावण को पूजा नहीं गया तो पूरा गाँव जलकर भस्म हो जाएगा।

आप इसे आस्था मानें या अंधविश्वास लेकिन यहाँ परम्परा अनुसार प्रत्येक वर्ष चैत्र नवरात्र में दशमी के दिन पूरा गाँव रावण की पूजा में लीन हो जाता है। इस दौरान यहाँ रावण का मेला लगता है और दशमी के दिन राम और रावण युद्ध का भव्य आयोजन होता है। पहले गाँव के प्रमुख द्वार के समक्ष रावण का एक स्थान ही हुआ करता था, जहाँ प्रत्येक वर्ष गोबर से रावण बनाकर उसकी पूजा की जाती थी लेकिन अब यहाँ रावण की एक विशाल मूर्ति है।
बाबूभाई रावण यहाँ के पुजारी हैं। रावण की पूजा-पाठ करने के कारण ही उनका नाम बाबूभाई रावण पड़ा है। इनका कहना है कि मुझ पर रावण की कृपा है। गाँव में जो भी विपत्ति आती है तो मुझे रावण के सामने अनशन पर बैठना होता है। जैसे यदि गाँव में पानी नहीं गिरता है तो मैं अनशन पर बैठ जाता हूँ तो तीन दिन में जोरदार झमाझम बारिश हो जाती है।यहाँ के सरपंच कैलाशनारायण व्यास का कहना है कि यहाँ रावण की ही पूजा होती है। पूजा करने की परम्परा वर्षों पुरानी है। एक वर्ष किसी कारणवश रावण की पूजा नहीं की गई थी और न ही मेला लगाया गया था तो पूरे गाँव में अकस्मात आग लग गई थी, मुश्किल से सिर्फ एक घर ही बच सका।
एक स्थानीय महिला पद्मा जैन ने कहा कि दशमी के दिन यहाँ राम-रावण युद्ध का आयोजन होता है। पूजा नहीं किए जाने के कारण गाँव में एक बार नहीं दो बार आग लग चुकी है। एक बार तो यहाँ वीडियो लगाकर यह देखने का प्रयास किया गया था कि मेला नहीं लगाने पर आग लगती है कि नहीं। उस दौरान इतनी तेज आँधी चली कि सब कुछ उड़ गया। यह मैंने मेरी आँखों से देखा है।जहाँ बुराई के प्रतीक रावण के पुतले को प्रत्येक वर्ष जलाया जाता है, वहीं देखने में आया है कि श्रीलंका के रानागिर इलाके के अलावा भारत में भी रावण की कहीं-कहीं पूजा-अर्चना किए जाने का प्रचलन बढ़ रहा है। रावण के प्रति उक्त गाँव के समर्पण को आप क्या मानते हैं- आस्था या अंधविश्वास मुझे जरूर बताएँ।

पीलिया का अनोखा इलाज

असाध्य बीमारियों के इलाज के लिए लोगों का झाड़-फूँक, टोने-टोटके तथा देवी-देवताओं का सहारा लेना एक आम बात है। आज हम आपको आस्था और अंधविश्वास की कड़ी में एक ऐसी जगह ले चलते हैं, जहाँ पीलिया का इलाज करने का एक अनूठा तरीका अपनाया जाता पीलिया से ग्रस्त मरीजों की भीड़ का यह नजारा किसी डॉक्टर के क्लिनिक का नहीं बल्कि एक मंजीत पाल सलूजा की दुकान का है जो अपनी अनूठी विद्या से पीलिया दूर करने का दावा करते हैं। वे मरीजों के कान पर कागज का कोन बनाकर लगाते हैं और मोमबत्ती के सहारे कागज को जलाते हैं और साथ-साथ गुरुवाणी का उच्चारण करते जाते हैं। मंजीत जी इलाज के पहले गणेशजी की पूजा करना नहीं भूलते। जला हुआ कोन जब कान से हटाया जाता है तो कान के आसपास पीले रंग का पदार्थ इकट्‍ठा हो जाता है। मंजीत पाल के अनुसार यह पीलिया है, जो मरीज के शरीर से बाहर निकलता है।उपचार हेतु पहले दिन आने वाले मरीज को साथ में हार-फूल, अगरबत्ती और नारियल लाना आवश्यक होता है। साथ ही यहाँ आने वाले लोग अपनी श्रद्धा के अनुसार यहाँ चढ़ावा रखकर जाते हैं। मंजीत का कहना है कि वे मरीजों को नि:शुल्क सेवा प्रदान करते हैं। चढ़ावा तो मरीजों की श्रद्धा का प्रतीक मात्र है।यहाँ आने वाले मरीजों को भी डॉक्टरी इलाज से ज्यादा इस विद्या पर अधिक विश्वास है। उनका मानना है कि दवा के साथ दुआ के असर से ही इस बीमारी से छुटकारा पाया जा सकता है।
WDगुरुवाणी का उच्चारण करते हुए मरीजों का इलाज करने वाले मंजीत का कहना है कि हमारे परिवार को इस विद्या का ज्ञान भगवान की देन है। उनके पिता व दादाजी भी इस अनूठी विद्या से लोगों के दर्द को दूर किया करते थे। वे यहाँ आने वाले मरीजों को एक विशेष दवा, जो कि आयुर्वेदिक और होम्योपैथी दवा का मिश्रण होती है, के ड्राप्स भी पिलाते हैं। वे रोजाना करीब 80 से 90 लोगों का इलाज करने का दावा करते हैं। उनका यह भी कहना है कि वे मरीज को केवल देखकर ही यह अनुमान लगा लेते हैं कि पीलिया उतरने में कितना समय लगेगा।मंजीत पाल सलूजा के अनुसार यहाँ डॉक्टरों द्वारा भेजे गए मरीजों के अलावा कई डॉक्टर्स स्वयं यहाँ आकर खुद को व परिजनों का भी इलाज कराते हैं। पीलिया जैसी असाध्य बीमारी के इलाज हेतु इस तरह की विद्या पर विश्वास करना लोगों के अंधविश्वास को प्रकट करता है या इस विद्या के पीछे किसी वैज्ञानिक तरीका होने का अंदाज लगाया जा सकता है। आप अपनी राय से मुझे
जरूर अवगत कराएँ ।

कुतिया ने बनाया बिल्ली को बेटी

आस्था या अंधविश्वास में अब तक हम आपके समक्ष जितनी भी घटनाएँ लाए उन सबसे यह घटना कुछ अनोखी है। मनुष्य का पशु प्रेम किसी से छुपा नहीं है। लाखों सालों से मनुष्य और पशु एक दूसरे के साथ रहते आए हैं। परंतु यह लगाव कभी-कभी अपनी चरम सीमा तक पह़ँच जाता है और मनुष्य का पशु प्रेम आडंबर लगने लगता है।सामान्य तौर पर देखा जाता है कि बिल्ली को दिखते ही कुत्ता उसकी जान के पीछे लग जाता है। परंतु 'बिल्लू' नाम की एक कुतिया ने 'नेन्सी' बिल्ली को अपने बच्चे की तरह पाला। इन्दौर के परिवार ने करीब चार सालों से बिल्लू को पाल रखा है। तभी उन्हें अपने पड़ोस में एक नन्ही लावारिस बिल्ली पड़ी मिली जो शक्ल-सूरत में बिल्लू की तरह ही दिखती थी। उसे वे अपने घर तो ले आए पर उन्हें डर था कि बिल्ली को कुतिया से कैसे बचाकर पालें।परंतु उनका यह डर उनकी कुतिया ने दूर कर दिया। थोड़े ही दिनों में वो नेन्सी बिल्ली को अपने बच्चे की तरह प्यार देने लगी। यहाँ तक की उसके खुद के बच्चे न होने के बावजूद नेन्सी के लिए उमड़े ममत्व की वजह से वह उसे स्तनपान करवाने लगी। डोलेकर परिवार ने जब यह अनूठी घटना पशु चिकित्सक को बताई तो उन्होंने इसे सॉयकोलॉजी प्रभाव बताया।परंतु यह प्रेम कहानी अधिक समय तक चल न सकी और 10 महिनों के भीतर ही बिल्ली का देहांत हो गया। सब कुछ एक आम घटना की तरह था। परंतु यही से शुरुआत हुई आडंबर की, परिवार के लोगों ने बिल्ली को घर के सदस्य की तरह अंतिम यात्रा निकालकर उसका अंतिम संस्कार किया और वे सारे संस्कार ‍‍किए जो किसी पारिवारिक सदस्य के देहांत पर किए जाते हैं। कहा तो यह भी गया कि बिल्ली की मौत पर बिल्लू कुतिया ने भी खूब आँसू बहाए।पशु के प्रति दया और प्रेम रखना वाकई एक सराहनीय काम है परंतु प्रेम का यह अजीबोगरीब तरीके का दिखावा करना कहाँ तक जायज है। आप अपनी राय से मुझे जरूर अवगत कराएँ।

मदिरापान करने वाली देवी!

सातरूंडा स्थित कवलका माता मंदिर
आस्था और अंधविश्वास की इस कड़ी में हम आपको लेकर चलते हैं एक ऐसे मंदिर में जहाँ माता को प्रसाद के रूप में मदिरा चढ़ाई जाती है। 'माता कवलका' नाम से प्रसिद्ध यह मंदिर रतलाम शहर से लगभग 32 किमी की दूरी पर ग्राम सातरूंडा की ऊँची टेकरी पर स्थित है।
माँ की यह चमत्कारी मूर्ति ग्राम सातरूंडा की ऊँची टेकरी पर 'माँ कवलका' के रूप में विराजमान हैं। सालों से यह मंदिर भक्तों की आस्था का केंद्र रहा है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ माँ के चमत्कारी रूप के दर्शन करने और माँ से अपनी मुरादें माँगने आते हैं। मंदिर में माँ कवलका, माँ काली, काल भैरव और भगवान भोलेनाथ की प्रतिमा विराजित हैं।
यहाँ के पुजारी पंडित अमृतगिरी गोस्वामी का कहना है कि यह मंदिर लगभग 300 वर्ष पुराना है। यहाँ स्थित माता की मूर्ति बड़ी ही चमत्कारी है। पुजारी का दावा है कि यह मूर्ति मदिरापान करती है। दूर-दूर से श्रद्धालु यहाँ माँ के चमत्कारी रूप के दर्शन करने और माँ से अपनी मुराद माँगने आते हैं। पुत्र प्राप्ति होने पर देवी माँ के दर्शन करने आए रमेश ने बताया कि उन्होंने माता को प्रसन्न करने के लिए बकरे की बलि और बच्चे के बाल देकर उसकी मानता उतारी है।मंदिर के ऊँची टेकरी पर स्थित होने के कारण यहाँ तक पहुँचने के लिए भक्तों को पैदल ही चढ़ाई करनी पड़ती है। भक्तों की सुविधा के लिए हाल ही में मंदिर मार्ग पर पक्की सीढ़ियाँ बनाई गई हैं, जिनके माध्यम से आसानी से चढ़ाई की जा सकती है।इस मंदिर की विशेषता यह है कि यहाँ स्थित माँ कवलका, माँ काली और काल भैरव की मूर्तियाँ मदिरापान करती हैं। भक्तजन माँ को प्रसन्न करने के लिए मदिरा का भोग लगाते हैं। इन मूर्तियों के होठों से मदिरा का प्याला लगते ही प्याले में से मदिरा गायब हो जाती है और यह सब कुछ भक्तों के सामने ही होता है।
माता के प्रसाद के रूप में भक्तों को बोतल में शेष रह गई मदिरा दी जाती है। अपनी मनोवांछित मन्नत के पूरी होने पर कुछ भक्त माता की टेकरी पर नंगे पैर चढ़ाई करते हैं तो कुछ पशुबलि देते हैं। हरियाली अमावस्या और नवरात्रि में यहाँ भक्तों की अपार भीड़ माता के दर्शन के लिए जुट जाती है। कुछ लोग बाहरी हवा या भूत-प्रेत से छुटकारा पाने के लिए भी माता के दरबार पर अर्जी लगाते हैं।सोचिए क्या कोई मूर्ति मदिरा पान कर सकती है या यह लोगों का महज वहम है? आखिर इसमें कितनी सच्चाई है, इस बारे में कुछ कहा नहीं जा सकता। आस्था या अंधविश्वास की यह यात्रा आपको कैसी लगी मुझे जरूर बताएँ।

29 दिसंबर 2009

वेद की ऋचाओं में सूर्य देव


यजुर्वेद में परमात्मदेवसविता [सूर्य] से प्रार्थना की गई है, हमारी बुराइयां दूर हों और मन के विकार समाप्त हों और इसके स्थान पर हमें अच्छाइयों से भर दीजिए। मंत्र इस प्रकार वर्णित है- ॐविश्वानिदेव सवितर्दुरितानिपरासुव/यदभद्रंतन्नआसुव।वेदों में सूर्योपासना के विविध मन्त्र हैं। वेदों में सूर्य [सविता या अग्नि तत्व] के विषय में जहां ज्योति, प्रकाश और अंधकार रिपु के रूप में उल्लेख आया है, वहीं पुराणों में उत्पत्ति, कार्य तथा शक्ति के विषय में प्रेरक कथाएं भी हैं। यजुर्वेद में जहां अग्नि चयन का चित्रण है, वहीं प्राणाग्निके स्पन्दन का स्त्रोत, कारण सूर्य कहा गया है। वेदों में सविता की संज्ञा मन है। जैसे सूर्योदय से धरती का अंधकार समाप्त हो जाता है, उसी प्रकार मन में परमात्मा का प्रकाश व्याप्त होने पर अंतहृदयका अंधकार शून्य हो जाता है। अध्यात्म के योद्धा इसे परमात्मा का तेज मानकर इसकी प्रार्थना स्तुति और उपासना करते हैं। वेद में वर्णित है- सविता वैदेवनांप्रसविता: अर्थात् सविता देव सूर्य प्रत्येक प्राण केंद्र में उदबुद्धहोकर अन्य सभी देवों को आकृष्ट कर लेता है। वेद में सविता को देवों का योक्ता कहा गया है। यही सबके कर्मो का विधान करने वाला है- महीदेवस्य सवितु:परिष्टुति:।सविता देव की ही प्रशंसा हमारे लिए उपादेय है, क्योंकि यही जगत के संचालक हैं। विराट विश्वात्मकसविता देव से प्राप्त सावित्री धारा तन से प्रतिफलित होने पर गायत्री अभिधान मिलता है। द्युलोकसावित्री और पृथ्वी गायत्री है। मूलभूत शक्ति के ये दो रूप हैं। सूर्य देव की उपासना सावित्री और गायत्री दोनों की उपासना होती है। ऋग्वेद में परम ज्योति [अग्नि स्वरूप] को कई रूपों में उपास्य माना गया है। श्रेष्ठ ज्योति सवितादेवको वेदों में अमृत वर्णित किया गया है। मत्यभूतोंमें समाहित अमृतदेवअग्नि ही है।, इदं ज्योतिरमृतंमत्र्येषु।[ऋग्वेद 6।9।4]आयुर्बलसे युक्त अग्नि म‌र्त्य भूर्तोमें रहने वाला अमृत अतिथि है। [ऋग्वेद 6/4/2]मत्र्येषुअग्निमृतोनिधायि[ऋग्वेद 7/4/4]यह अमृत ही निधि स्वरूप है। सविता देव ब्रह्मरूप में जीवन-मरण के साक्षी और कारण हैं। यजुर्वेद में तीन तरह की अग्नि का उल्लेख है। विभा तेअग्नेत्रेधात्रयाणि[यजुर्वेद 12/19]अर्थात् मन, प्राण और वाक् ये तीन अग्नियांहैं। वैदिक ऋषि तीन नामों से उपासना करते हैं। ऋग्वेद [1/16/4/1] में तीन अग्नियोंको तीन भ्राता कहा गया है। सूर्य अग्नि का चित्रण वेद में विस्तृत ढंग से है।
वैदिक ऋषियों ने सूर्य उपासना को महत्व इसलिए दिया है क्योंकि यह भौतिक, शारीरिक सामाजिक आर्थिक, साहित्यिक, आध्यात्मिक जीवन को सर्वाधिक प्रभावित करता है। ऋक संहिता के [1/191] सूक्त में सूर्य देवता को गरल को दूर करने वाला कहा गया है। अथर्ववेद[1/22/1] में आया है कि शारीरिक और हृदयगत रोगों का अपहरण करने में सूर्य के साम‌र्थ्य का उल्लेख कई ऋचाओंमें है। महर्षि याज्ञवल्क्यने सूर्य की उपासना कर सम्पूर्ण यजुर्वेद प्राप्त कर लिया था। सूर्य का सम्बन्ध सभी वेदों से है। पृथ्वी के कण-कण में सूर्य से ही जीवन को गति मिलती है।

मैनपुरी की देवी मां शीतला


पश्चिमी उत्तर प्रदेश के मैनपुरी नगर की देवी माँ शीतला की महिमा अपरम्पार है। उनका भव्य मंदिर मैनपुरी कुरावली मार्ग पर मैनपुरी नगर से लगभग 4कि।मी. की दूरी पर स्थित है। इस मंदिर का निर्माण 16वींशताब्दी में मैनपुरी के आठवें व चौहान राजवंश के नब्बे वेंराजा जगतमणिने कराया था। कहा जाता है कि जो व्यक्ति एक बार भी इस मंदिर में विराजितमां शीतला के दर्शन कर लेता है। उसकी मनोकामनाएंनिश्चित ही पूरी हो जाती हैं। इसीलिए यहां वर्ष भर विभिन्न जाति-सम्प्रदाय के भक्त-श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। चैत्र व आश्विन मास की नवदुर्गा में तो यहां असंख्य श्रद्धालु आते है। मैनपुरी में मां शीतलाको मैनपुरी के राजा जगतमणिही यहां लाए थे। वे प्राय: मां शीतला के दर्शनों के लिए अपने उत्तरप्रदेश स्थित गुमधामकडा मानिकपुर (प्रतापगढ) जाया करते थे। एक बार जब वह चैत्र मास में कडा मानिकपुर गए हुए थे, तो वहां सप्तमी-अष्टमी की रात्रि से शीतला मां ने उन्हें स्वप्न दिया और यह कहा कि राजन! में तुम्हारी सेवा से अत्यंत प्रसन्न हूं। अब तुम्हें इतना कष्ट उठाने की आवश्यकता नहीं है कि तुम अपना राजकाजछोड कर मेरे दर्शनों के लिए यहां आओ। तुम मुझे मैनपुरी ले चलो। मैं तुम्हें वह जगह बताए देती हूं, जहां पर कि मैं प्रकट होऊंगी। राजा जगमणिने माँ शीतला द्वारा बताए गए स्थान पर पृथ्वी से खोदना शुरू किया, जिसमें कि उन्हें लाल पत्थर व काले संगमरमर से निर्मित माँ शीतला की अत्यंत आकर्षक प्रतिमा प्राप्त हुई। प्रकटव्यस्थान पर राजा जगतमणिने 24फुट की वर्गाकृतिके अन्तर्गत 9.9फुट ऊंचे मंदिर का निर्माण कराया। तत्पश्चात मां शीतला की प्राण प्रतिष्ठा अत्यंत धूमधाम से कराई गई। मैनपुरी में मां शीतला का मंदिर बनते ही वह यहां की सांस-सांस में बस गई और यहां की कुल देवी मानी जाने लगी। मैनपुरी की देवी मां शीतला का मंदिर प्राचीनतम आध्यात्मिक व सांस्कृतिक धरोहर होने के साथ-साथ तत्कालीन शिल्पकला व पुरातत्व की भी बहुमूल्य कृति है। मंदिर के मुख्य द्वारा के शीर्ष पर दुधाराखड्ग धाम भैरों बाबा की मूर्ति है। जिनकी अगलबगल में दो खौफनाक सिंहों की मूर्तियां हैं। मंदिर के मुख्य दरवाजे को पार करने के बाद अंदर के प्रकोष्ठ में मां शीतला का अत्यंत आकर्षक विग्रह स्थापित है। यह विग्रह अत्यंत सिद्ध है। विग्रह के सम्मुख वह झार आज भी बनी हुई है। जिसमें से कि मां शीतला प्रकट हुई थीं। बताया जाता है कि इस झार की गहराई अथाह है। मां शीतला के मंदिर से गंगा व यमुना नदियों की दूरी बिल्कुल एक समान है। मैनपुरी का किला व अश्वावलिका किला भी यहां से समान दूरी पर स्थित है। प्रमुख नदी ईसनमैनपुरी में मां शीतला के मंदिर की परिक्रमा सी करती हुई निकलती है। लोग-बागों ने मां शीतला के करिश्मे प्रत्यक्ष देखे है। कुछ वर्ष पूर्व मां शीतला की प्रतिमा को कुछ व्यक्तियों ने मंदिर से चुरा लिया था। जिससे कुछ ही दिनों में चारों के परिवार खण्डित होने लगे। साथ ही भांति-भांति की व्याधियोंने उन्हें घेर लिया। परिणामत:उन्होंने एक रात को देवी की प्रतिमा को यहां की देवी गेट चुंगी के पास रखा छोड दिया। देवी जी के भक्तों ने प्राप्त प्रतिमा को मंदिर में पहुंचाया। प्रतिमा के मंदिर में पहुंचते ही मूर्ति चोरों की सटी व्याधियांअपने आप समाप्त हो गई। देवीजीके मंदिर के निकट रहने वाले संत मिट्ठू लाल व नागा बाबा में देवी जी के प्रताप से इतने अधिक दैव्यत्वकी प्राप्ति हो गई थी कि वह जब कभी जिस किसी वस्तु की आवश्यकता अनुभव करते थे, वह वस्तु उनकी कुटिया में स्वत:आ जाती थी। मैनपुरी की देवी मां शीतलाका आशीर्वाद लेने असंख्य जन यहां आते है। यहां बच्चों के मुण्डन यज्ञोपवीत संसार, श्राद्ध, कथा व हवन आदि कराना निहायत शुभ माना जाता है। कोई यहां मनौती करने आता है तो कोई अपना मनोरथ पूरा होने पर बोले गए अनुष्ठान पूरे करता दिखाई देता है। आज भी मैनपुरी में बहुत सारे ऐसे परिवार हैं, जिनकी दिनचर्या मां शीतला के दर्शन करने के बाद आरंभ होती है। वस्तुत:न केवल मैनपुरी का अपितु उसके निकटवर्ती व दूरदराज के क्षेत्रों की जनता का भी बहुत बडा प्रतिशत मैनपुरी की देवी के साथ किसी न किसी रूप में जुडा हुआ है।

कष्टों को दूर करती हैं देवी शाकम्भरी


दुर्गा के अवतारोंमें एक हैं माता शाकंभरी। अपने अवतारोंका वर्णन स्वयं मातेश्वरीने दुर्गासप्तशतीमें किया है। इन अवतारोंमें रक्तदंतिका,भीमा,भ्रामरी,शताक्षीतथा शाकंभरी प्रसिद्ध हैं। देवी के कथनानुसार एक समय सौ वर्षो तक अनावृष्टि की अवस्था रहेगी अर्थात् आकाश से मेघ नहीं बरसेंगे। वृष्टि नहीं होगी तो कृषि-कार्य संभव नहीं होगा। घास तक नहीं उगेंगे। तृण का भी दर्शन नहीं होगा। ऐसी स्थिति में जीव-जंतु काल-कवलित होने लगेंगे। पृथ्वी पर मृत्यु का तांडव आरंभ हो जाएगा। ऐसी स्थिति में देवी अपने ही तन से उत्पन्न शाक द्वारा पूरे लोक की क्षुधा शांत करेंगी। इससे सभी के लिए प्राणों का धारण संभव होगा और देवी शाकंभरी नाम से विख्यात होंगी-
ततोऽहमखिलंलोकमात्मदेहसमुद्भवै:।
भरिष्यामिसुरा: शाकैरावृष्टे:प्राणाधारकै:।।
शाकम्भरीतिविख्यातिंतदा यास्यामहंभुवि।
अनावृष्टि से संपूर्ण प्राणियों के व्यग्र होने के कारण ऋषि-मुनियों की अधीर प्रार्थना पर ही यह देवी प्रकट होंगी। देवी अयोनिजा होंगी अर्थात् किसी के गर्भ से प्रकट नहीं होकर स्वयं की शक्ति से अवतरित होंगी। अवतरित होते ही यह शत नेत्रों से मुनियों को अवलोकितकरेंगी, अत:इन्हीं का नाम शताक्षीभी होगा। ये सब देवी-वाक्य वस्तुत:सत्य सिद्ध हुए। उन्होंने जो कुछ कहा था, उससे अधिक ही कर दिखाया। पृथ्वी पर दुर्गम नामक एक खूंखार महाबली दैत्य उत्पन्न हुआ। उसके भयावह उपद्रव से तीनों लोकों में त्राहि-त्राहि मच गई। उसने चारों वेदों को चुरा लिया। यज्ञ-जाप बंद करा दिए। यज्ञ नहीं हो तो वर्षा किधर से हो? श्री मद्भगवद्गीतामें कहा भी गया है-
अन्नाद्भवन्तिभूतानिपर्जन्यादन्नसम्भव:।
यज्ञाद्भवतिपर्जन्योयज्ञ: कर्म समुद्भव:।।
अर्थात अन्न से प्राणियों का अस्तित्व है। वर्षा के फलस्वरूप अन्न की प्राप्ति होती है। वर्षा यज्ञ से ही संभव है एवं यज्ञ कर्मजनितहै। दुर्गम नामक राक्षस ने इंद्र को भी बंदी बना लिया। वर्षा के देवता ही बंदी हो गए तो आकाश से एक बूंद का बरसना भी बंद हो गया। मुनियों की विह्वल प्रार्थना पर देवी शाकंभरी अपनी सौ आंखों के साथ अवतरित हुईं। पृथ्वी की दुर्दशा देख कर इनकी सौ नेत्रों से जल-धार बह चली और इस जल से संपूर्ण धरती आप्लावित हो गई। पृथ्वी अब अन्न दे सकती थी पर उसमें समय लगता। अत:देवी ने एक अन्य उपाय किया। अपने ही शरीर से विपुल शाक उत्पन्न किया, इतना कि उससे सभी प्राणियों की प्राण-रक्षा होने लगी। उन्होंने मुनियों की प्रार्थना पर दुर्गम से युद्ध कर उसे काल के हवाले किया और इंद्र को मुक्त करा लिया। शाकंभरी देवी का भव्य मंदिर उत्तर प्रदेश के सहारनपुर से कुछ ही दूरी पर दो पहाडियोंके मध्य स्थित है। यहां की प्राकृतिक छटा अत्यंत रमणीय है। एक सुंदर जलप्रपात से निरंतर जल की धार प्रवाहित होती रहती है। यहां की पहाडियोंपर सराल नामक कंद-मूल अधिकता से पाया जाता है जो अत्यंत मीठा और स्वादिष्ट होता है। भूमि को थोडा सा खोदने पर ही यह प्राप्त हो जाता है। आश्विन शुक्ल चतुर्दशी को शाकम्भरी-पीठ पर बहुत बडा मेला लगता है जिसमें स्थान-स्थान से हजारों श्रद्धालु जुटते हैं और सभी को प्रसाद के रूप में सराल ही दिया जाता है। इसी तथ्य से यह स्पष्ट होता है कि किस मात्रा में यह कंदमूलयहां उपलब्ध है। इस सराल को ही देवी द्वारा उत्पन्न शाक का प्रतीक माना जाता है। सचमुच यह अभी भी लोगों की क्षुधा-पूर्ति कर सकता है, देवी के अवतरण के समय इसकी बहुलता का अनुमान सहज ही लगाया जा सकता है। श्रद्धालुओं की भीड यहां इसलिए अधिक होती है कि कभी सम्पूर्ण पृथ्वी के प्राणियों की क्षुधा-पिपासा शान्त करने वाली माता शाकम्भरी आज भी अपने भक्तों के सभी भौतिक कष्टों को दूर कर उनकी मनोकामनाएंपूर्ण करती हैं। दुर्गा सप्तशती के मूर्ति रहस्य में देवी शाकम्भरी के स्वरूप का वर्णन है जिसके अनुसार इनका वर्ण नीला है, नील कमल के सदृश ही इनके नेत्र हैं।
शाकम्भरी नीलवर्णानीलोत्पलविलोचना।
दूसरे श्लोक के अनुसार ये पद्मासनाहैं अर्थात् कमल पुष्प पर ही ये विराजती हैं। इनकी एक मुट्ठी में कमल का फूल रहता है और दूसरी मुट्ठी बाणों से भरी रहती है-
मुष्टिंशिलीमुखापूर्णकमलंकमलालया।

जनमानस के हृदय में बसते हैं राम


भारत के ही नहीं बल्कि विश्व इतिहास में हजारों वर्षो से जिन महापुरुषों के चरित्र ने जनमानस को हृदय की गहराइयों तक प्रभावित किया है, उनमें भगवान राम का नाम सर्वप्रमुख है। उनका युग चक्रवर्ती सम्राटों व साम्राज्यों का था। यह वह जमाना था जिसके बारे में बाइबल में लिखा है कि सारे संसार में एक ही भाषा व वाणी थी। उस समय हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, यहूदी आदि धर्म/मत/ संप्रदाय नहीं थे और न ही आज के समान जाति-आधारित सामाजिक दीवारें। तब मनुष्य समाज के दो ही भाग थे आर्य व अनार्य। जो चरित्रवान व विद्वान न था वही अनार्य (राक्षस) था। तब सारी मानव जाति की एक ही संस्कृति थी।
साहित्य शोध भगवान राम के बारे में अधिकारिक रूप से जानने का मूल स्त्रोत महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित रामायण है। इस गौरव ग्रंथ के कारण वाल्मीकि दुनिया के आदि कवि माने जाते हैं। श्रीराम कथा केवल वाल्मीकि रामायण तक सीमित न रही बल्कि मुनि व्यास रचित महाभारत में भी चार स्थलों- रामोपाख्यान,आरण्यकपर्व,द्रोण पर्व तथा शांतिपर्व-पर वर्णित है। बौद्ध परंपरा में श्रीराम संबंधित दशरथ जातक, अनामक जातक तथा दशरथ कथानक नामक तीन जातक कथाएं उपलब्ध हैं। रामायण से थोडा भिन्न होते हुए भी वे इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं। जैन साहित्य में राम कथा संबंधी कई ग्रंथ लिखे गए, जिनमें मुख्य हैं-विमलसूरिकृत पदमचरित्र (प्राकृत), रविषेणाचार्यकृतपद्म पुराण (संस्कृत), स्वयंभू कृत पदमचरित्र (अपभ्रंश), रामचंद्र चरित्र पुराण तथा गुणभद्रकृतउत्तर पुराण (संस्कृत)। जैन परंपरा के अनुसार राम का मूल नाम पदम था।
दूसरे, अनेक भारतीय भाषाओं में भी राम कथा लिखी गई। हिंदी में कम से कम 11,मराठी में 8,बंगला में 25,तमिल में 12,तेलुगु में 5तथा उडिया में 6रामायणेंमिलती हैं। हिंदी में लिखित गोस्वामी तुलसीदास कृत रामचरित मानस ने उत्तर भारत में विशेष स्थान पाया। इसके अतिरिक्त भी संस्कृत, गुजराती, मलयालम, कन्नड, असमिया, उर्दू, अरबी, फारसी आदि भाषाओं में राम कथा लिखी गई। महाकवि कालिदास,भास,भट्ट, प्रवरसेन,क्षेमेन्द्र,भवभूति,राजशेखर,कुमारदास,विश्वनाथ, सोमदेव, गुणादत्त,नारद, लोमेश,मैथिलीशरण गुप्त, केशवदास,गुरु गोविंद सिंह, समर्थ गुरु रामदास, संत तुकडोजी महाराज आदि चार सौ से अधिक कवियों ने, संतों ने अलग-अलग भाषाओं में राम तथा रामायण के दूसरे पात्रों के बारे में काव्यों/कविताओंकी रचना की है।
विदेशों में भी तिब्बती रामायण, पूर्वी तुर्किस्तानकी खोतानीरामायण, इंडोनेशिया की ककबिनरामायण, जावाका सेरतराम,सैरीराम,रामकेलिंग,पातानीरामकथा, इण्डोचायनाकी रामकेर्ति(रामकीर्ति), खमैररामायण, बर्मा (म्यांम्मार) की यूतोकी रामयागन,थाईलैंड की रामकियेनआदि रामचरित्र का बखूबी बखान करती है। इसके अलावा विद्वानों का ऐसा भी मानना है कि ग्रीस के कवि होमरका प्राचीन काव्य इलियड रोम के कवि नोनसकी कृति डायोनीशिया तथा रामायण की कथा में अद्भुत समानता है।
विश्व साहित्य में इतने विशाल एवं विस्तृत रूप से विभिन्न देशों में विभिन्न कवियों/लेखकों द्वारा राम के अलावा किसी और चरित्र का इतनी श्रद्धा से वर्णन न किया गया।
मंदिर व मृण्मूर्तियां-देश-विदेशोंमें भगवान राम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान आदि के सैकडों नहीं, हजारों मंदिरों का निर्माण किया गया। कंबोडिया के विश्व प्रसिद्ध 11वींशताब्दी में निर्मित अंकोरवाटमंदिर की दीवारों पर रामायण व महाभारत के दृश्य अंकित हैं। इसी तरह 9वींसदी में निर्मित जावाके परमबनन(परमब्रह्म)नामक विशाल शिवमंदिर की भित्तिकाओंपर रामायण की चित्रावली अंकित है। रामायण से संबंधित सैकडों मृण्मूर्तियां(टैराकोटा) हरियाणा प्रदेश के सिरसा, हाठ,नचारखेडा (हिसार), जींद,संथाय(यमुनानगर), उत्तर प्रदेश के कौशांबी (इलाहाबाद), अहिच्छत्र(बरेली), कटिंघर(एटा) तथा राजस्थान के भादरा(श्रीगंगानगर) आदि जगहों से प्राप्त हुई है। इन मृण्मूर्तियोंपर वनवास काल की प्रमुख घटनाओं को बहुत सुंदर रूप से दिखाया गया है। इनमें मुख्य है राम, सीता, लक्ष्मण का पंचवटी गमन, मारीचमृग, त्रिशिराराक्षस द्वारा खर-दूषण से विचार-विमर्श और राम द्वारा 14राक्षसों के वध का वर्णन, रावण द्वारा सीताहरण, सुग्रीव-बाली युद्ध, श्रीराम द्वारा बाली वध, हनुमान द्वारा अशोक वाटिका को नष्ट किया जाना, त्रिशिराराक्षस का वध, रावण पुत्र इंद्रजीत का युद्ध में जाना आदि-आदि दृश्य विद्यमान है। इन मृण्मूर्तियोंपर गुप्तकालपूर्व की लिपि में वाल्मीकीय रामायण के श्लोक भी लिखे गए हैं। ये मृण्मूर्तियांझज्जर(हरियाणा)केपुरातत्व संग्रहालय में देखी जा सकती है। इसके अलावा सैकडों मृण्मूर्तियांभारत के विभिन्न संग्रहालयों तथा लंदन म्यूजियम में संग्रहितहैं।
श्रीराम का काल-प्राचीन भारतीय कालगणनातथा पुराणीयपरंपरा के अनुसार श्रीराम 24वेंत्रेतायुग में पैदा हुए। वाल्मीकि रामायण तथा अन्य रामायणों/रामचरित्रों के अतिरिक्त अन्य प्राचीन ग्रंथों में राम, रावण आदि के विषय में चार मुख्य संदर्भ मिलते हैं।
त्रेतायुगेचतुर्विंशेरावण: तपस: क्षयात।राम दशरथिंप्राप्य सगण:क्षयमीयीवान्।।
(वायु पुराण)
संद्यौतुसमनुप्राप्तेत्रैतायांद्वापरस्यच।रामौदाशरथिर्भूत्वाभविष्यामिजगत्पति॥
(महाभारत )
चतुर्विशेयुगेचापिविश्वामित्र पुर: सर:। लोकेराम इति ख्यात: तेजसाभास्करोपम्॥
(हरिवंश)
चतुर्विशेयुगेवत्स! त्रेतायांरघुवंशज:।
रामोनाम भविष्यामिचतुव्र्यूह:सनातन:॥ (ब्रह्माण्ड पुराण)
उपरोक्त संदर्भो व प्रमाणों के आधार पर यही सत्य प्रतीत होता है कि श्रीराम, विश्वामित्र आदि युग पुरुष 24वेंत्रेतायुग में थे। महाभारत के अनुसार श्रीराम त्रेताएवं द्वापर युगों के संधिकाल में हुए थे।
ऊपर लिखे प्रमाणों के आधार पर हम अगर 24वेंत्रेताकी समाप्ति पर राम का काल माने तो युगों की वर्ष-गणना के हिसाब से श्रीराम का समय आज से 8,69,108वर्ष पूर्व का ठहरता है।
इतने लम्बे काल के बाद किसी भी भवन, मूर्ति, मुद्रा, हथियार आदि का अस्तित्व रह ही नहीं सकता। प्रत्येक मनुष्य के अस्तित्व के लिए प्रमाण दिए भी नहीं जा सकते। 4-5पीढियों पूर्व अगर कोई व्यक्ति बिना संतान के मर गया तो उसको सिद्ध करने के लिए हमारे पास शायद काई प्राकृतिक वस्तु न मिले। अगर कोई घर है भी तो उसीनेबनाया था जब तक इसका दस्तावेज नहीं मिलता अथवा उसके बारे में कोई जनश्रुतिनहीं मिलती तो कैसे सिद्ध किया जा सकता है? आज के समय में देश में अथवा विदेशों में राज्य करने वाले प्रधानमंत्रियों तथा राष्ट्रपतियों के बारे में 1000वर्षो के बाद में कोई प्रमाण मांगे तो उस समय उनके पास सिर्फ पुस्तकीय विवरण तथा जनश्रुतिही उनके इतिहास को बता सकती है। पिछले कुछ वर्षो में कम्प्यूटर का ज्ञान रखने वाले कुछ अति उत्साही लोगों ने वाल्मीकि रामायण (बालकाण्ड) में वर्णित श्री राम के जन्म समय (चैत्र मास, शुक्ल पक्ष, नवमी तिथि, पुनर्वसुनक्षत्र, कर्क लग्न आदि) की प्लेनेटेरियम गोल्ड साफ्टवेयर के माध्यम से आधुनिक गणना की है। इन लोगों ने ग्रहों, नक्षत्रों आदि की स्थिति का अध्ययन करते हुए यह परिणाम निकाला कि श्रीराम का जन्म 10जनवरी, 5114ई. पूर्व (अर्थात आज से 7121वर्ष पूर्व) हुआ था। ये लोग जहां साधुवाद के पात्र हैं, वहां हमें यह भी याद रखना चाहिए कि गणित ज्योतिष की अनभिज्ञता व साहित्यिक प्रमाण के अभाव के कारण उनका यह परिणाम ठीक नहीं। गणित ज्योतिष के हिसाब से लगभग 26000वर्षाें में राशियां अपना एक चक्र पूरा कर लेती हैं। अर्थात एक राशि चक्र का अपने पूर्ववत स्थान पर आने के लिए लगभग 26000वर्ष लगते हैं।
इसीलिए राम सिर्फ 7121वर्ष पूर्व ही जन्मे, यह किस आधार पर कहा जा सकता है? पहले दिए गए वायुपुराणव महाभारत के प्रमाणों के आधार पर यदि हम श्रीराम का जन्म 28वेंत्रेता(वर्तमान चतुर्युगी) में मानें तो तब से राशि चक्र आकाश में 33चक्कर लगा चुका है व 34वांचालू है और यदि हम 24वेंत्रेताका आधार लेते हैं तो तब से लेकर आज तक 698राशि चक्र पूरे हो चुके हैं और 699वांचक्र अभी चल रहा है।
नासा अमेरिका एजेंसी के जैमिनि-11आकाश यान (स्पेश क्राफ्ट) द्वारा वर्ष 2002में एडम ब्रिज (रामसेतु) के लिए गए चित्रों के वैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर कहा गया था कि भारत तथा श्रीलंका को जोडने वाले पुल के ये अवशेष मनुष्यकृत हैं तथा लगभग 17.5लाख वर्ष पुराने हैं।

कल्याणकारी पंचमुखी हनुमान


मान्यता है कि भक्तों का कल्याण करने के लिए ही पंचमुखीहनुमान का अवतार हुआ। इस वर्ष यह तिथि 10नवंबर है। हनुमानजी का एकमुखी,पंचमुखीऔर एकादशमुखीस्वरूप प्रसिद्ध है। चार मुख वाले ब्रह्मा, पांच मुख वाली गायत्री, छह मुख वाले कार्तिकेय, चतुर्भुजविष्णु, अष्टभुजीदुर्गा, दशमुखीगणेश के समान पांच मुख वाले हनुमान की भी मान्यता है।
पंचमुखीहनुमानजी का अवतार मार्गशीर्ष कृष्णाष्टमी को माना जाता है। शंकर के अवतार हनुमान ऊर्जा के प्रतीक माने जाते हैं। इसकी आराधना से बल, कीर्ति, आरोग्य और निर्भीकता बढती है। आनंद रामायण के अनुसार, विराट स्वरूप वाले हनुमान पांच मुख, पंद्रह नेत्र और दस भुजाओं से सुशोभित हैं। हनुमान के पांच मुख क्रमश:पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण और ऊ‌र्ध्व दिशा में प्रतिष्ठित हैं।
पंचमुख हनुमान के पूर्व की ओर का मुख वानर का है। जिसकी प्रभा करोडों सूर्यो के समान है। पूर्व मुख वाले हनुमान का स्मरण करने से समस्त शत्रुओं का नाश हो जाता है। पश्चिम दिशा वाला मुख गरुड का है। ये विघ्न निवारक माने जाते हैं। गरुड की तरह हनुमानजी भी अजर-अमर माने जाते हैं। हनुमानजी का उत्तर की ओर मुख शूकर का है। इनकी आराधना करने से सकल सम्पत्ति की प्राप्ति होती है।
भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए हनुमान भगवान नृसिंह के रूप में स्तंभ से प्रकट हुए और हिरण्यकश्यपुका वध किया। यही उनका दक्षिणमुखहै। उनका यह रूप भक्तों के भय को दूर करता है।
श्री हनुमान का ऊ‌र्ध्वमुख घोडे के समान है। ब्रह्मा जी की प्रार्थना पर उनका यह रूप प्रकट हुआ था। मान्यता है कि हयग्रीवदैत्य का संहार करने के लिए वे अवतरित हुए। कष्ट में पडे भक्तों को वे शरण देते हैं। ऐसे पांच मुंह वाले रुद्र कहलाने वाले हनुमान बडे दयालु हैं।
हनुमतमहाकाव्य में पंचमुखीहनुमान के बारे में एक कथा है। एक बार पांच मुंह वाला एक भयानक राक्षस प्रकट हुआ। उसने तपस्या करके ब्रह्माजीसे वरदान पाया कि मेरे रूप जैसा ही कोई व्यक्ति मुझे मार सके। ऐसा वरदान प्राप्त करके वह भयंकर उत्पात मचाने लगा। सभी देवताओं ने भगवान से इस कष्ट से छुटकारा मिलने की प्रार्थना की। तब प्रभु की आज्ञा पाकर हनुमानजी ने वानर, नरसिंह, गरुड, अश्व और शूकर का पंचमुख स्वरूप धारण किया।
मान्यता है कि पंचमुखीहनुमान की पूजा-अर्चना से सभी देवताओं की उपासना का फल मिलता है। हनुमान के पांचों मुखों में तीन-तीन सुंदर आंखें आध्यात्मिक, आधिदैविक तथा आधिभौतिक तीनों तापों को छुडाने वाली हैं। ये मनुष्य के सभी विकारों को दूर करने वाले माने जाते हैं। शत्रुओं का नाश करने वाले हनुमानजी का हमेशा स्मरण करना चाहिए।

दुर्गतिनाशिनी विंध्यवासिनी


भगवती विंध्यवासिनी आद्या महाशक्ति हैं। विंध्याचलसदा से उनका निवास-स्थान रहा है। जगदम्बा की नित्य उपस्थिति ने विंध्यगिरिको जाग्रत शक्तिपीठ बना दिया है। महाभारत के विराट पर्व में धर्मराज युधिष्ठिर देवी की स्तुति करते हुए कहते हैं- विन्ध्येचैवनग-श्रेष्ठे तवस्थानंहि शाश्वतम्।हे माता! पर्वतों में श्रेष्ठ विंध्याचलपर आप सदैव विराजमान रहती हैं। पद्मपुराणमें विंध्याचल-निवासिनीइन महाशक्ति को विंध्यवासिनी के नाम से संबंधित किया गया है- विन्ध्येविन्ध्याधिवासिनी।
श्रीमद्देवीभागवतके दशम स्कन्ध में कथा आती है, सृष्टिकत्र्ता ब्रह्माजीने जब सबसे पहले अपने मन से स्वायम्भुवमनु और शतरूपाको उत्पन्न किया। तब विवाह करने के उपरान्त स्वायम्भुवमनु ने अपने हाथों से देवी की मूर्ति बनाकर सौ वर्षो तक कठोर तप किया। उनकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवती ने उन्हें निष्कण्टक राज्य, वंश-वृद्धि एवं परम पद पाने का आशीर्वाद दिया। वर देने के बाद महादेवी विंध्याचलपर्वत पर चली गई। इससे यह स्पष्ट होता है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही विंध्यवासिनी की पूजा होती रही है। सृष्टि का विस्तार उनके ही शुभाशीषसे हुआ।
त्रेतायुगमें भगवान श्रीरामचन्द्र सीताजीके साथ विंध्याचलआए थे। मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम द्वारा स्थापित रामेश्वर महादेव से इस शक्तिपीठ की माहात्म्य और बढ गया है। द्वापरयुगमें मथुरा के राजा कंस ने जब अपने बहन-बहनोई देवकी-वसुदेव को कारागार में डाल दिया और वह उनकी सन्तानों का वध करने लगा। तब वसुदेवजीके कुल-पुरोहित गर्ग ऋषि ने कंस के वध एवं श्रीकृष्णावतारहेतु विंध्याचलमें लक्षचण्डीका अनुष्ठान करके देवी को प्रसन्न किया। जिसके फलस्वरूप वे नन्दरायजीके यहाँ अवतरित हुई।
मार्कण्डेयपुराणके अन्तर्गत वर्णित दुर्गासप्तशती(देवी-माहात्म्य) के ग्यारहवें अध्याय में देवताओं के अनुरोध पर भगवती उन्हें आश्वस्त करते हुए कहती हैं, देवताओं वैवस्वतमन्वन्तर के अट्ठाइसवेंयुग में शुम्भऔर निशुम्भनाम के दो महादैत्यउत्पन्न होंगे। तब मैं नन्दगोपके घर में उनकी पत्नी यशोदा के गर्भ से अवतीर्ण हो विन्ध्याचल में जाकर रहूँगी और उक्त दोनों असुरों का नाश करूँगी।
लक्ष्मीतन्त्र नामक ग्रन्थ में भी देवी का यह उपर्युक्त वचन शब्दश:मिलता है। ब्रज में नन्द गोप के यहाँ उत्पन्न महालक्ष्मीकी अंश-भूता कन्या को नन्दा नाम दिया गया। मूर्तिरहस्य में ऋषि कहते हैं- नन्दा नाम की नन्द के यहाँ उत्पन्न होने वाली देवी की यदि भक्तिपूर्वकस्तुति और पूजा की जाए तो वे तीनों लोकों को उपासक के आधीन कर देती हैं।
श्रीमद्भागवत महापुराणके श्रीकृष्ण-जन्माख्यान में यह वर्णित है कि देवकी के आठवें गर्भ से आविर्भूत श्रीकृष्ण को वसुदेवजीने कंस के भय से रातोंरात यमुनाजीके पार गोकुल में नन्दजीके घर पहुँचा दिया तथा वहाँ यशोदा के गर्भ से पुत्री के रूप में जन्मीं भगवान की शक्ति योगमाया को चुपचाप वे मथुरा ले आए। आठवीं संतान के जन्म का समाचार सुन कर कंस कारागार में पहुँचा। उसने उस नवजात कन्या को पत्थर पर जैसे ही पटक कर मारना चाहा, वैसे ही वह कन्या कंस के हाथों से छूटकर आकाश में पहुँच गई और उसने अपना दिव्य स्वरूप प्रदर्शित किया। कंस के वध की भविष्यवाणी करके भगवती विन्ध्याचल वापस लौट गई।
मन्त्रशास्त्रके सुप्रसिद्ध ग्रंथ शारदातिलक में विंध्यवासिनी का वनदुर्गा के नाम से यह ध्यान बताया गया है-
सौवर्णाम्बुजमध्यगांत्रिनयनांसौदामिनीसन्निभां
चक्रंशंखवराभयानिदधतीमिन्दो:कलां बिभ्रतीम्।
ग्रैवेयाङ्गदहार-कुण्डल-धरामारवण्ड-लाद्यै:स्तुतां
ध्यायेद्विन्ध्यनिवासिनींशशिमुखीं पा‌र्श्वस्थपञ्चाननाम्॥

जो देवी स्वर्ण-कमल के आसन पर विराजमान हैं, तीन नेत्रों वाली हैं, विद्युत के सदृश कान्ति वाली हैं, चार भुजाओं में शंख, चक्र, वर और अभय मुद्रा धारण किए हुए हैं, मस्तक पर सोलह कलाओं से परिपूर्ण चन्द्र सुशोभित है, गले में सुन्दर हार, बांहों में बाजूबन्द, कानों में कुण्डल धारण किए इन देवी की इन्द्रादिसभी देवता स्तुति करते हैं। विंध्याचलपर निवास करने वाली, चंद्रमा के समान सुंदर मुखवालीइन विंध्यवासिनी के समीप सदाशिवविराजितहैं।
सम्भवत:पूर्वकाल में विंध्य-क्षेत्रमें घना जंगल होने के कारण ही भगवती विन्ध्यवासिनीका वनदुर्गा नाम पडा। वन को संस्कृत में अरण्य कहा जाता है। इसी कारण ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष की षष्ठी विंध्यवासिनी-महापूजा की पावन तिथि होने से अरण्यषष्ठी के नाम से विख्यात हो गई है।

काल के नियंत्रक, महाकाल


श्रीमहाकालपृथ्वी की नाभि उज्जयिनीमें अनन्तकाल से विराजमान हैं। इन्हें मात्र अवंतिकानाथ ही नहीं वरन् सम्पूर्ण मृत्युलोक का अधिपति माना गया है। यद्यपि इनकी गणना पुण्यभूमि भारत के द्वादश ज्योतिर्लिङ्गोंमें होती है, किन्तु महाकाल का माहात्म्य केवल इतना ही नहीं है। ब्रह्माण्ड को मुख्यत:तीन लोकों में विभाजित किया जा सकता है-आकाश, पृथ्वी और पाताल। इन तीनों लोकों का शासन सर्वव्यापी सदाशिवअपने त्रिगुणात्मक स्वरूप से इस प्रकार करते हैं-
आकाशेतारकंलिङ्गं,पातालेहाटकेश्वरम्।
भूलोकेचमहाकालं,लिङ्गत्रयनमोऽस्तुते॥

आकाश में तारक लिङ्गतथा पाताल में हाटकेश्वरपूजित हैं। महाकाल भूलोक के शासक हैं। योगी जब इन तीनों शिवलिङ्गोंका स्मरण करके इन्हें नमस्कार करते हैं तो उनके द्वारा महादेव की मानसपूजासम्पन्न हो जाती है।
स्कन्दपुराणके अवंतीखण्डमें भगवान शिव के महाकाल वन में निवास तथा यहां से सृष्टि की संरचना का शुभारंभ करने की कथा है। इस खण्ड में मोक्षदायिनीअवंतिकापुरी(उज्जैन) के राजा महाकाल, 84शिवलिङ्गोंतथा परमपुण्यप्रदाशिप्राका सुविस्तृतवर्णन है। स्कन्दपुराणके ब्राह्मोत्तरखण्डमें राजा चन्द्रसेन एवं श्रीकरगोप की शिव-भक्ति तथा महाकालेश्वर की महिमा का गुण-गान मिलता है। शिवपुराणकी कोटिरुद्रसंहितामें महाकाल ज्योतिर्लिङ्गके आविर्भाव की कथा है। भक्तों के अनुरोध पर महाकालेश्वर अवंतिका(उज्जयिनी) में स्थित हो गए। महाभारत के वनपर्वमें लिखा है कि महाकाल के देवालय में स्थित कोटितीर्थ-कुण्डके जल से उनका अभिषेक करने पर अश्वमेध यज्ञ के समान फल प्राप्त होता है। शिप्रामें स्नान करके महाकालेश्वर का दर्शन करने वाला अनेक जन्मों के पापों से मुक्त होकर सद्गति पाता है। लिङ्गपुराणमें महाकाल का मृत्युलोक के स्वामी रूप में स्तवन किया गया है-मृत्युलोके महाकालंलिङ्गरूपनमोऽस्तुते।गरुडपुराणमें महाकाल की नगरी अवंतिकाको मोक्षप्रदाएवं सप्त पावन पुरियोंमें तिलाधिकश्रेष्ठ बताया गया है। आदिब्रह्मपुराणमें महाकालेश्वर की अवंतिकाको भूतल पर सर्वोत्तम घोषित किया गया है।
ब्रह्मर्षि वशिष्ठ अपनी पत्नी अरुन्धतीसे प्रशंसा करते हुए कहते हैं-
महाकाल: सरिच्छिप्रागतिश्चैवसुनिर्मला।
उज्जयिन्यांविशालाक्षिवास: कस्यन रोचयेत्॥
स्नानंकृत्वानरोयस्तुमहानद्यांहि दुर्लभम्।
महाकालंनमस्कृत्यनरोमृत्युंन शोचयेत्॥

जहां भगवान महाकाल हैं, पुण्यसलिलाशिप्राहैं, उस मोक्षदायिनीउज्जयिनीमें रहना भला किसे अच्छा न लगेगा। महानदी शिप्रामें स्नान करके महाकाल का दर्शन कर लेने पर अकाल मृत्यु की कोई चिन्ता नहीं रहती।
त्रिखण्डमंदिर के जमीन की सतह से नीचे स्थित भूगर्भ-खण्ड में श्रीमहाकालेश्वरका विशाल ज्योतिर्लिङ्गहै, जो चांदी की जलहरी(अरघे) में नाग-परिवेष्टित है। इसके एक ओर श्रीगणेश, दूसरी ओर माता पार्वती और तीसरी ओर कार्तिकेय जी के विग्रह हैं। यहां घृतदीपऔर तेलदीपनिरंतर प्रज्वलित रहते हैं। ज्योतिर्लिङ्गके ऊपर की छत चाँदी के विशाल रुद्रयंत्रके रूप में है। उसके ऊपर भूतलखण्डमें ओङ्कारेश्वरशिवलिङ्गहै। इसके ऊपर तीसरे खण्ड में श्रीनागचन्दे्रश्वरविराजमान हैं, जिनका दर्शन साल में एक बार केवल नागपंचमी के दिन ही होता है। नित्य ब्रह्ममुहूर्तमें होने वाली महाकाल की भस्म-आरती बडी अनूठी है।
महाकालेश्वर ज्योतिर्लिङ्गके दक्षिणमुखीहोने से इनका अपना एक विशेष महत्व है। तंत्रशास्त्रकी दृष्टि में दक्षिणमुखीशिवलिङ्गअति उग्र होने से प्रचण्ड शक्तिशाली एवं त्वरित फलदायीमाना जाता है। इस अनुपम विशेषता के कारण महाकाल का वैदिक अथवा तांत्रिक मंत्रों से पूजन एवं अभिषककरने पर तुरन्त फल प्राप्त होता है। ऐसा माना जाता है कि महाकाल के समक्ष महामृत्युंजयका जप करने से द्वार पर आई मृत्यु भी उल्टे पैर लौट जाती है। रोगी स्वस्थ होकर दीर्घायु हो जाता है। मरणशय्यापर पडा व्यक्ति भी नया जीवन पाता है।
महाकाल की आराधना से अकाल मृत्यु का योग नष्ट हो जाता है। मालवा में यह कहावत प्रसिद्ध है-
अकाल मृत्यु वो मरे, जो काम करे चण्डाल का।
काल उसका क्या करे, जो भक्त हो महाकाल का॥
महाकाल कालचक्र के प्रवर्तक हैं-कालचक्र- प्रवर्तकोमहाकाल: प्रतापन:।भारतीय ज्योतिर्विज्ञान में महाकाल की नगरी उज्जयिनीसदा से ही पंचांग-गणना की केंद्रबिन्दु रही है। इस प्रकार काल के नियंत्रक होने से उनका महाकाल नाम पूर्णतया सार्थक और सत्य है। श्रावण एवं कार्तिक मास में तथा विजयादशमी, वैकुण्ठ चतुर्दशी आदि पर्वो में महाकाल की सवारी नगर-भ्रमण के लिए निकलती है, जिसमें अपार जनसमूह श्रद्धा के साथ भाग लेता है।
फाल्गुन मास के कृष्णपक्ष में षष्ठी से चतुर्दशी तिथि (महाशिवरात्रि) तक के नौ दिन के परमपुनीतकाल को महाकालेश्वर-नवरात्र कहा जाता है। इस नवरात्रमें महाकाल का नित्य नूतन विशिष्ट श्रृंगार होता है। यह नवरात्रीयमहोत्सव उज्जयिनीमें बडे धूमधाम से मनाया जाता है। देश के कोने-कोने से लाखों श्रद्धालु महाकाल के दर्शनार्थ अवंतिका(उज्जैन) पहुंचते हैं। महाकाल अपने प्रत्येक भक्त का पिता के समान पालन करते हुए उसकी सर्वत्र रक्षा करते हैं।

दु:खहारिणी मां दुर्गा


सृष्टि का निर्विकार निर्विकल्प सत्य यदि कोई है तो वह हैं मां दुर्गा। जो कुछ भी सहज एवं मानवीय है, उन्हीं का जागृत एवं शाश्वत रूप है मातृशक्ति।यही पराशक्ति है, यही हमारी सत् चित् आनंदमय है। शक्ति का केंद्रीय रूप मां दुर्गा हैं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश एवं अन्य देवताओं के तेज से जिनका अवतरण हुआ वे मां दुर्गा हैं।
आश्विन शुक्ल पक्ष के नौ दिन(नवरात्र) मां दुर्गा की आराधना सहस्रोंगुणा फल देने वाली होती है। इस समय शक्तियों का एक ऐसा प्रवाह विद्यमान रहता है कि साधक की श्रद्धा और भक्ति जितनी प्रगाढ होगी वह मां दुर्गा की कृपा और वरदहस्तका उतना ही भागी बनेगा। मार्कण्डेय पुराण के अंतर्गत 700श्लोकों की श्री दुर्गासप्तशतीमां की विविध कथाओं को चित्रित करती है। महर्षि मार्कण्डेय के अनुरोध पर ब्रह्मा जी ने माँ दुर्गा की यह समस्त कथा कही। इस ग्रन्थ के समस्त मंत्र अगाध शक्तियों से पूर्ण हैं। साधक की श्रद्धा-भक्ति जितनी गहन होगी, वह उतना ही उन मंत्रों का फल प्राप्त कर सकता है। दुर्गा का अर्थ है कठिनतासे जिनकी प्राप्ति हो। जो सबके दुर्गुणोंको दूर करती हैं वे मां दुर्गा हैं।
दु:खैनअष्टांगयोगकर्मोपासनारूपेण क्लेशेनगम्यतेप्राप्यतेया सा दुर्गा। अर्थात जो अष्टांगयोगकर्म एवं उपासना रूप दु:साध्य साधना से प्राप्त होती हैं वे जगदंबिका दुर्गा कहलाती हैं। जो सबके कल्मषोंएवं दुर्गुणोंको दूर करती हैं वे मां दुर्गा हैं। जो अपने भक्तों के दु:ख और दुर्गति को दूर करती हैं वे मां दुर्गा हैं।
दुर्गासिदुर्गभवसागरनौरसङ्गा।अर्थात जो दुर्गम भवसागर से उतारने वाली नौका रूप हैं वे माँ दुर्गा हैं। जिनसे कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं।
जिन्होंने दुर्गम राक्षस का वध किया वे माँ दुर्गा हैं। दुर्गा के 32नाम की माला कठिन से कठिन दु:खों को दूर करने वाली है। मां तुम्हारादैवीय अलौकिक,अद्भुत करुणा से युक्त स्वरूप को वही जान सकता है, जिसने जीवन में तुम्हारी कृपादृष्टि प्राप्त की हो। मां शारदेरूप में साधक को ज्ञान प्रदान करती हो। लक्ष्मी रूप में अनंत वैभव एवं दुर्गा रूप में साधक को शक्तिशाली बना उसके दु:खों को हरती हो। मां तुम निर्बल प्राणियों में बल का संचार करती हो, शरण में आए हुए की रक्षा करती हो। जीवन में अगाध कष्टों से घिरे हुए भक्त जब-जब तुम्हें पुकारते हैं, तब-तब तुम उनके दु:ख दूर करती हो। देवताओं ने अपने संकट निवारणार्थजब-जब तुम्हें पुकारा तब कभी चंडिका, कभी काली, कभी महिषासुरमर्दिनीबन अवतरित हुई एवं शुंभ-निशुंभ,चंड-मुंड, रक्तबीज एवं महिषासुर का वध किया। मां तुम्हें कोटि कोटि नमन।
शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरेदेवि नारायणिनमोऽस्तुते।

मां दुर्गा शरण में आए हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में सदा संलग्न रहती हैं।
सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणीको नमस्कार है।

अमंगल को मंगल करें मंगलनाथ


सनातन-धर्मावलंबियों के लिए युगों से वैशाख मास का अत्यंत महत्व रहा है। पुराणों में वैशाख के माहात्म्य का काफी विस्तार से वर्णन है। इसका एक विशेष पक्ष यह है कि वैशाख के मंगलवार मंगल ग्रह की शांति तथा मंगलनाथ की पूजा में अतिशय फलदायक माने गए हैं। पुण्यभूमि उज्जयिनीको मत्स्यपुराणमें मंगल की जन्मस्थली बताया गया है। इस कारण वैशाख के प्रत्येक मंगलवार के दिन उज्जयिनीमें शिप्रा-तटके समीप एक ऊंचे टीले पर स्थित मंगलनाथके सुप्रसिद्ध मंदिर में श्रद्धालु बडी संख्या में दर्शनार्थ आते हैं। भारतीय ज्योतिíवज्ञान की यह मान्यता है कि मंगल ग्रह सबसे पहले यहीं देखा गया। प्राचीनकाल से उज्जैनज्योतिषशास्त्र के अध्ययन-अनुसंधान का मुख्य केन्द्र रहा है। धर्मग्रन्थों में महाकालेश्वर की नगरी अवंतिका(उज्जयिनी)का बहुत गुण-गान किया गया है। अतएव मंगलनाथका ज्योतिषीयएवं आध्यात्मिक महत्व इन्हें संपूर्ण भारतवर्ष में पूज्यनीयबना चुका है। देश के कोने-कोने से भक्त बडी आस्था के साथ इनके पूजन हेतु उज्जयिनीआते हैं। वैसे तो हर मंगलवार के दिन भक्तगण मंगलनाथकी अर्चना करते हैं, किन्तु वैशाख के मंगलवार तथा भौमवतीअमावस्या यहां के महापर्वहैं। मंगल भूमिपुत्र हैं अत:मंगलनाथ-मंदिरमें इनकी माता पृथ्वी देवी का श्रीविग्रहभी विद्यमान है। मंगलवार के दिन मंगलनाथका अभिषेक एवं दही-भात से विशिष्ट पूजा करने का विधान है।
मंगलनाथ-मंदिरसे 84सीढियां नीचे उतरने पर पुण्यसलिलाशिप्राके घाट से अत्यंत मनोरम दृश्य दिखाई देता है। यहां आने पर क्षण भर के लिए अशांत चित्त भी शांत और प्रफुल्लित हो जाता है। उज्जयिनीमें कालभैरवसे मंगलनाथतक शिप्राके पूर्व में बहने से यह स्थान क्षेत्र अत्यंत पवित्र माना जाता है। टेकरी पर स्थित मंगलनाथका मंदिर आस-पास के स्थान में सबसे ऊंचा है। मंदिर के कर्क रेखा पर होने से इसकी अपार महिमा है। मंगल का एक नाम अंगारक भी है जिसका अर्थ है- अंगारे के समान लाल रंग वाला।
इस संवत्सर में संयोगवश 17अप्रैल को भौमवतीअमावस्या का वैशाख मास में उपलब्ध होना मणि-कंचन योग बना रहा है। भौमवती(मंगलवारी) अमावस्या का तो इतना महत्व है कि यदि इस पर्व में गंगा-स्नान करने का सौभाग्य प्राप्त हो जाए तो करोडों सूर्यग्रहण के समान फल प्राप्त होता है।
वशिष्ठसंहिता में वíणत मंगल के इक्कीस नामों वाले निमन् स्तोत्र का नित्य प्रात:पाठ करने से ऋण से मुक्ति मिलती है। दरिद्रता दूर होती है तथा भूमि-भवन, सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है। नि:संतान को पुत्र, रोगी को आरोग्यताऔर कमजोर को शक्ति प्रदान करने वाला यह स्तोत्र मंगल की पीडा का भी शमन करता है-
ॐमंगलो भूमिपुत्रश्चऋणहर्ताधनप्रद:।
स्थिरात्मजोमहाकाय: सर्वकामार्थसाधक:॥
लोहितोलोहितांगश्चसामागानांकृपाकर:।
धरात्मज:कुजोभौमोभूतिदोभूमिनंदन॥
अंगारकोयमश्चैवसर्वरोगापहारक:।
वृष्टिकर्ताऽपहर्ताचसर्वकामफलप्रद:॥
मंगल की दशा अथवा ग्रह-गोचर में मंगल के अरिष्ट को दूर करने के लिए निमन् मंत्रों में से किसी एक का 40,000जप करें-
ॐअंअंगारकायनम:।
ॐहुं श्रींमंगलायनम:।
ॐक्रांक्रींक्रौंस:भौमायनम:।
नागजिह्वा(अनंतमूल) की जड को मंगलवार के दिन लाल रंग के रेशमी कपडे अथवा डोरे में बांध कर धारण करने से मंगल ग्रह का प्रकोप शांत होता है। मंगल ग्रह द्वारा बाधा देने पर मंगलवार के दिन प्रात:सूर्योदय से 2घटी (48 मिनट) की अवधि में मसूर की दाल, गेहूं, गुड, लालचंदन,सिंदूर, लालपुष्प,तांबा, मूंगा, सोना आदि लालरंगके वस्त्र में रखकर दान करें।
जन्मकुण्डली का मंगली-दोष पूर्वाेक्त उपायों के साथ श्रीमंगलनाथएवं मंगलागौरीकी आराधना करने से शांत हो जाता है। वैशाख-शुक्लपक्ष के प्रथम मंगलवार से प्रारंभ करके 21या 45मंगलवार विधिवत् व्रत करने से भी विपरीत मंगल की अशुभताका निवारण संभव है।

अभीष्ट सिद्ध करते हैं सिद्धिविनायक


श्रीगणेशपुराणके अनुसार भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी के मध्याह्नकालमें सिद्धिविनायकप्रकट हुए थे, अत:इस तिथि को सिद्धिविनायक-चतुर्थी भी कहा जाता है। महाराष्ट्र-सहित देश के अधिकांश प्रदेशों में इस दिन से गणेशोत्सवका शुभारंभ हो जाता है। लोग अत्यंत श्रद्धा एवं उत्साह के साथ मंगलमूर्तिविनायक की प्रतिमा अपने घर में स्थापित करते हैं और विविध सामग्रियों से विघन्विनाशककी पूजा करते हैं। जब तक गणेशजीकी वह मृन्मयीमूर्ति घर में विराजमान रहती है, तब तक उसका सत्कार एवं पूजन बडे भक्ति-भाव से होता है। नगरों में अनेक मण्डल सार्वजनिक गणेशोत्सवका आयोजन करते हैं। गणपति-प्रतिमा का एक निश्चित अवधि तक पूजन करने के उपरांत जल में उसका विसर्जन कर दिया जाता है। गणेशोत्सवभाद्रपद- शुक्ल- चतुर्दशी (अनन्त चतुर्दशी) के दिन समाप्त होता है।
गणेशपुराणमें इस संदर्भ में विस्तृत कथा है, जो संक्षेप में यह है-आदिदेव गणेश की तीव्र लालसा से माता पार्वती ने एक रमणीय स्थान पर उनका ध्यान करते हुए एकाक्षरीगणेश-मंत्र का तल्लीन होकर जप किया। इस तरह भगवती उमा के बारह वर्ष तक निरंतर कठोर तप करने पर प्रथम पूज्यदेवगणेश संतुष्ट होकर उनके सम्मुख उपस्थित हो गए तथा उन्होंने जगदम्बा को पुत्र के रूप में अवतरित होने का वचन दे दिया। भाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी के मध्याह्नकालमें स्वाति नक्षत्र के समय अमित महिमामय श्रीगणेश जगज्जननीशिवा के यहाँ पुत्र-रूप में प्रकट हुए। अत:इस पावन तिथि के मध्याह्न में विघ्नेश्वरकी स्थापना करके उनका षोडशोपचारपूजन करें। संभव हो तो गणेश- सहस्त्रनामवलीसे दूर्वा एवं मोदक अर्पित करें और यदि यह न कर सकें तो कम से कम 21लड्डुओं का भोग अवश्य लगाएं। आपके हृदय में जो कामना हो, वह चिन्तामणि गणेश के समक्ष निवेदित कर दें। भक्तवत्सल सिद्धिविनायककी कृपा से साल भर के अंदर वह मनोरथ पूर्ण हो जाएगा। इस व्रतराजका पूरा फल प्राप्त करने के लिए भाद्रपद मास के बाद भी प्रत्येक माह की मध्याह्नव्यापिनीचतुर्थी के दिन व्रत रखते हुए मध्याह्नकालमें सिद्धिविनायककी सविधि पूजा जरूर करें। मनोनुकूल वरदान करने में समर्थ यह तिथि वरदा चतुर्थी एवं वैनायकी चतुर्थी नामों से लोकप्रिय हो गई है।
स्कन्दपुराणोक्तश्रीकृष्ण-युधिष्ठिर संवाद में चतुर्थी-व्रत का विस्तार से वर्णन हुआ है। भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की चतुर्थी अमोघ फलदायिनीहैं। सिद्धिविनायककी आराधना से समस्त कार्य सिद्ध होते हैं और मनोकामना पूरी होती है। इसी कारण श्रीगणेश का यह सिद्धिविनायक नाम लोकविख्यातहो गया है-
सिद्धयन्तिसर्वकार्याणिमनसा चिन्तितान्यपि।
तेन ख्यातिंगतोलोकेनाम्नासिद्धिविनायक:॥
सिद्धिविनायकका ध्यान इस प्रकार करें-
एकदन्तंशूर्पकर्णगजवक्त्रंचतुर्भुजं।
पाशांकुशधरंदेवंध्यायेत्सिद्धिविनायकं॥
जिनके एक दाँत, सूप के समान विशाल कान, हाथी के सदृश मुख और चार भुजाएं हैं, जो अपने हाथों में पाश एवं अंकुश धारण करे हुए हैं, ऐसे सिद्धिविनायकदेव का हम ध्यान करते हैं। सिद्धिविनायककी अंग-कान्ति तपे हुए सोने के समान दीप्तिमयहै। वे अनेक प्रकार के आभूषणों से विभूतिषहैं। एक अन्य ध्यान में सिद्धिविनायकको अपने हाथों में दंत, अक्षमाला,परशु और मोदक से भरा हुआ पात्र लिए दिखाया गया है, जिसमें उनकी सूँड का अग्रभाग लड्डू पर लगा हुआ है। गणेशजीकी दो पत्नियां सिद्धि और बुद्धि हैं। शिवपुराणकी रुद्रसंहिताके कुमारखण्डमें गणपति के सिद्धि-बुद्धि के साथ विवाह का प्रसंग वर्णित है। शास्त्रों में श्रीगणेश के वाम भाग में (बायीं ओर) सिद्धि और दक्षिण भाग में (दाहिनी तरफ) बुद्धि की संस्थितिबताई गई है। इनकी कृपा से भक्त को अपने कार्य में सिद्धि (पूर्णता) प्राप्त होती है तथा वह बुद्धिमान और ज्ञानवान बन जाता है। सिद्धिविनायकके कृपा-कटाक्ष से मनुष्य को धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष अर्थात सब कुछ मिल जाता है। विनयपत्रिकामें गोस्वामी तुलसीदास ने इनकी सिद्धिसदन गजबदनविनायक.. विद्यावारिधिबुद्धिविधाताकहकर वन्दना की है। गणेशजीके क्षेम-लाभ नामक दो पुत्र हैं, जो क्रमश:सिद्धि-बुद्धि से उत्पन्न हुए।
मुंबई में सिद्धिविनायकके दर्शनार्थ बहुत बडी संख्या में भक्त आते हैं। काशी के छप्पन विनायकोंमें मणिकर्णिकाघाट के ऊपर स्थित सिद्धिविनायककी भी काफी मान्यता है। पंचक्रोशी-परिक्रमामें तीर्थयात्री इनका दर्शन-लाभ करते हैं। श्रीसिद्धिविनायकके आविर्भावोत्सवहेतु मध्याह्नव्यापिनीभाद्रपद-शुक्ल-चतुर्थी ही ग्रहण करनी चाहिए। इस वर्ष यह योग रविवार 27अगस्त को ही बनेगा और साथ ही रविवार से इस चतुर्थी का संयोग सोने में सुहागा की कहावत को चरितार्थ कर रहा है। सिद्धिविनायक-चतुर्थी के दिन चन्द्रदर्शननिषिद्ध है। ऐसा सिद्धिविनायकके चन्द्रदेवको शाप देने के कारण है-
भाद्रशुक्लचतुथ्र्यायो ज्ञानतोऽज्ञानतोऽपिवा।
अभिशापीभवेच्चन्द्रदर्शनाद्भृशदु:खभाग्॥
जो जानकर या अनजाने ही भाद्र-शुक्ल-चतुर्थी को चन्द्रमा का दर्शन करेगा, वह अभिशप्त होगा। उसे भारी दुख उठाना पडेगा। योगेश्वर श्रीकृष्ण को स्यमन्तकमणिकी चोरी का मिथ्याकलंकइस तिथि के चन्द्रदर्शनसे ही लगा था। इस दिन चन्द्रमा देख लेने पर उसके दोष के शमन हेतु श्रीमद्भागवत के दशम स्कन्ध के 57वेंअध्याय को पढें। जिसमें स्यमन्तकमणि के हरण का प्रसंग हैं।
वस्तुत:सिद्धिविनायकअपने नाम के अनुरूप फल प्रदान करने वाले हैं। इनकी उपासना अतिशीघ्र फलीभूत होती है। अभीष्टि-सिद्धिके लिए देवताओं ने भी इनकी अर्चना की है।