स्वप्न यानी निद्रा अवस्था में ऐसे दृश्यों को देखना, अनुभव करना और प्रतिक्रिया देना जो हैं नहीं, असत्य हैं, झूठ हैं। इसी तरह के दृश्यों को जाग्रत अवस्था में देखना 'दिवा स्वप्न' कहलाता है। कहने का मतलब है कि हम दो तरीके से स्वप्न देखते हैं, एक बंद आँखों से और दूसरा खुली आँखों से। नींद में जब भी हम स्वप्न देखते हैं तो असत्य होते हुए भी, देखते समय तो सत्य ही मालूम पड़ता है। ऐसा भी नहीं है कि पहली बार देखते हैं फिर भी स्वप्न देखते समय हमें कभी ऐसा भान नहीं हो पाता कि जो हम देख रहे हैं वह असत्य है। प्रश्न यह है कि जाग्रत अवस्था में बाहर हम जो देखते हैं, अनुभव करते हैं, प्रतिक्रया देते हैं, यह जो जन्म से लेकर मृत्यु तक की लंबी यात्रा है कहीं यह भी एक खुली आँख से देखा जाने वाला स्वप्न तो नहीं? क्योंकि आँखें बंद होते ही यह दृश्य भी वैसे ही मिट जाता है जैसे आँखें खुलते ही बंद आँखों से देखा हुआ दृश्य विलीन हो जाता है। इस संबंध में थोड़ा विचार जरूरी है।
यदि हम हमारे जीवन के गुजर चुके समय पर दृष्टि डालें तो सारा घटनाक्रम एक स्वप्न की तरह बासता है। हम यह तर्क दे सकते हैं कि स्वप्न तो रात में क्षणभर का होता है और जीवन 70-80 वर्ष का। लेकिन अगर गहराई से विचार किया जाए तो इस विराट जगत में 70-80 वर्ष भी क्षण भर से अधिक मालूम नहीं पड़ते। वैज्ञानिक कहते हैं कि सूरज को बने कुछ अरब वर्ष हुए हैं और यह इस ब्रह्माण्ड का नया अतिथि है, अभी बच्चा है। आकाश में अनगिनत तारे हैं जो इस तारे से भी पुराने हैं। तो इस विराट समय प्रवाह में 70-80 वर्ष का माँ क्षण भर से अधिक नहीं है।
कहने का तात्पर्य यह है कि जिस दिन यह जीवन स्वप्न मालूम पड़ने लगता है उस दिन से चित्त शांत होने लगता है। हमारी हालत यह है कि हम नींद में स्वप्न को भी सत्य मान कर अशांत हो जाते हैं। जब नींद खुलती है तो दिल के धड़कने तेज मिलाती है। जैसे नींद खुलते ही हम स्वप्न से उत्पन्न हुई अशांति से मुक्त हो जाते हैं वैसे जीवन को स्वप्न जानते ही हमारी एक और निद्रा टूटती है और चित्त शांत हो जाता है। फिर मान-अपमान, रोग-स्वास्थ्य, धन्वैभाव-गरीबी, सफलता-असफलता, सब स्वप्न हो जाते हैं। दरसल सारा तनाव ही इसलिए पैदा होता है कि जीवन हमें बहुत सच्चा मालूम पड़ता है। जीवन से जागते ही अन्दर एक गंभीर शांति अवतरित हो जाती है। यही शांत पगडंडी मार्ग है उन शिखरों का जहाँ सत्य के मंदिर हैं और शांति की पगडंडी पर वहीं चल सकता है जिसको जीवन स्वप्न दिखाई पड़ता है जो इस गहनतम निद्रा से जाग जाता है।
02 जून 2011
जीवन सत्य है या स्वप्न
Posted by Udit bhargava at 6/02/2011 06:34:00 pm 0 comments
01 जून 2011
दुःख की उपयोगिता
हमारे जीवन में जब भी कष्ट या दुःख आते हैं या जब हम अपने आसपास इस दुनिया के लोगों को कष्टों या दुखों से त्रस्त देखते हैं तब अक्सर हमारे मन-मस्तिष्क में यह विचार आता है कि परमात्मा यह क्या कर रहा है। परमात्मा है भी या नहीं, क्योंकि अगर दुनिया में इतना दुःख और कष्ट है तो परमात्मा नहीं हो सकता और अगर परमात्मा है तो लोग इतने कष्ट और दुखों से पीड़ित कैसे हो सकते हैं। यदि परमात्मा दयालु है, रहमान है, रहीम है, कृपालु है और परम पिता है तो वह कैसे अपने बच्चों को दुखों और कष्टों में डाल सकता है, देख सकता है। इसी तर्क के कारण नास्तिक लोग परमात्मा के अस्तित्व को ही नकार देते हैं, क्योंकि अगर दुनिया में इतने दुःख और कष्ट हैं तो शैतान का अस्तित्व तो हो सकता है पर भगवान् का अस्तित्व नहीं हो सकता। जब माता-पिता , अपने बच्चों को ना तो दुःख दे सकते हैं और ना ही उन्हें दुख में देख सकते हैं तो फिर यह परमात्मा तो परमपिता है वह अपने बच्चों को कैसे इतने दुःख दे सकता है और उन्हें दुःख में देख सकता है?
असली बात जानने के लिए यहाँ क्लिक करें. हमारी दृष्टि और हमारा दृष्टिकोण दुखों और कष्टों से विचलित हो हमें ऐसा विचारने पर मजबूर कर देते हैं। अच्छे और जिम्मेदार माता-पिता भी अपने बच्चों को उसी तरह कष्ट और दुःख में डाल देते हैं जिस तरह वह परमपिता परमात्मा अपने दुनियाभर के बच्चों को कष्ट और दुःख देता है। बच्चे अगर कुछ गलत कार्य करने को अग्रसर होते हैं या कार्य कर देते हैं तो माता-पिता उन्हें डांटते ही नहीं मारते भी हैं। बच्चों की सुरक्षा, उनका समुचित विकास, उनके जीवन को सही दिशा देने और उनके भविष्य को सुनिश्चित रूप से सुखी और सम्पन्न बनाने के लिये माता-पिता को अपने बच्चों को कष्ट और दुःख में डालना ही पड़ता है। क्या इसका अर्थ यह होगा कि वे माता-पिता हैं ही नहीं या वे शैतान हैं, कदापि नहीं। ऐसे ही परम पिता परमात्मा अपने बच्चों को बिना वजह कष्ट या दुःख नहीं देता। यह दुःख या कष्ट हमारे निखार के लिये होता है। यह औषधि रूप होता है और औषधियां तो कडवी ही होती हैं। जैसे एक स्वर्णकार जब सोने को आग में तपाता है तो उसका यह कष्ट ही उसे निखार कर इस योग्य बना देते हैं कि वह वस्त्र बन किसी सम्राट के अंग जा लगता है। दरअसल दुःख और कष्ट के बिना कोई भी निखरता नहीं।
जिस कष्ट या दुःख को हम सहना नहीं चाहते और अस्वीकार कर देते हैं वह हमारे जीवन को तोड़ने लगता है जिस कष्ट या दुःख को हम स्वीकार कर लेते हैं, अंगीकार कर लेते हैं उससे हमारा जीवन निर्मित होने लगता है यानी कष्टों या दुखों को स्वीकारने से वे कष्ट या दुःख, जो हमारा विध्वंस कर सकते थे, सृजनात्मक हो जाते है। हमारे जीवन के कष्टों एवं दुखों का सकारात्मक उपयोग(स्वीकार) कर परमपिता में असीम श्रद्धा रखते हुए हमें धैर्य और साहस के साथ जीवन पथ पर आगे बढ़ते रहना चाहिए ताकि सोने और कपास की तरह हम भी अपने आप को निखार कर इस दुनिया में अपनी उपयोगिता और श्रेष्ठा सिद्ध कर सकें। इस सन्दर्भ में वृन्द्कवि कहते हैं।
कष्ट परेहूँ साधुजन, नैकु न होत मलान।
ज्यों ज्यों कंचन तैये, त्यों-त्यों निर्मल जान॥
ज्यों ज्यों कंचन तैये, त्यों-त्यों निर्मल जान॥
अर्थात सत्पुरुष कष्ट में भी दुखी नहीं होते हैं। सोना त्यों त्यों निर्मल होता है, ज्यों ज्यों उसे तपाया जाता है।
Labels: ज्ञान- धारा
Posted by Udit bhargava at 6/01/2011 10:17:00 pm 1 comments
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