क्या जीवन का अंत मृत्यु ही है? यह प्रश्न हर व्यक्ति के जीवन में मौजूद है और इसे जानने के लिये वह उत्सुक है। वैज्ञानिकों और परावैज्ञानिकों ने इसे खोजने में कोई कसर नहीं रखी। मृत्यु के बाद आत्मा इस संसार को छोड़कर चली जाती है। विज्ञान आत्मा के अस्तित्व को सही रूप से अभी भी समझ नहीं पाया है। विज्ञान आत्मा का रंग, रूप, आकार-प्रकार, वजन, माप, तौल आदि निश्चित कर नहीं पाया, मगर विज्ञान ने इतना अवश्य स्वीकार किया है की मनुष्य की मृत्यु होने ही आत्मा निकल जाती है। अमेरिकन फैडरेशन आफ साइंस ने दस साल पहले पुनर्जन्म के बारे में सम्मति दर्शाई है।
शरीर श्वसन क्रिया द्वारा वायुक्रिया से शरीर का संचालन कर्ता है। श्वास बंद होने से नश्वर शरीर निश्चेष्ट हो जाता है। प्राण शरीर को गतिशील रखता है और शरीर से प्राण निकल जाने से व्यक्ति को मृत घोषित करते हैं। आत्मा निर्मल, निष्कलंक एवं शुद्ध मानी जाती है और मनुष्य के भले और बुरे समस्त कर्मों और कुकर्मों का फल आत्मा को ही भुगतना पड़ता है। आत्मा से ही परमात्मा का संबंध है। आत्मा और प्राण के बीच का तत्व जीवन है। जीव और प्राण संयुक्त रूप से रहते हैं, मगर आत्मा निष्प्रभावित रहती है।
आत्मा अजर-अमर है और बार-बार जन्म लेती है। जन्म-कुण्डली के बारह भावों में दस दिशाएं, ग्यारहवां जीव और बारहवां शिव का विचार ऋषि-मुनियों ने किया है। युवावस्था में शारीरिक, प्रौद्धावास्था में मानसिक और वृद्धावस्था में आत्मा की तड़पन का शमन करना चाहिए।
जीवात्मा जब अपने स्थूल शरीर को छोड़कर दूसरे स्थूल शरीर में अपनी भोग, वासना, लालसा और इच्छाएं पूर्ण करने के लिये प्रवेश करती हैं, तब सूक्ष्म शरीर के साथ ही जाती हैं। मानव का सूक्ष्म शरीर, जिसमें अतः कारण रहता है, जो मृत्यु के पश्चात वैसा ही रहता है। सूक्ष्म शरीर काल तथा आकाश के बंधन से मुक्त होने से जहाँ ध्यान जाए, वहीं वह स्वयं। आत्मा प्रकाश की गति जैसी तीव्र है। प्रेतात्मा वायुरूप होने से पारदर्शी होती है। प्रेतात्मा किसी व्यक्ति की चेतना को प्रभावित कर उस पर अपना आधिपत्य भी जमा लेती है। भारत में प्रेतात्माओं के रहस्यमय जीवन पर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से अनुसंधान कार्य करना आवश्यक है।
भारतीय योगदर्शन एवं तंत्र विज्ञान अदृश्य-अतृप्त प्रेत योनियों को स्वीकार कर्ता ही नहीं, बल्कि उन्हें प्रत्यक्ष करने का मार्ग दिखलाता है। शकुनी, रेवती, पूतना, गंध्पूतना, शीत्पूतना, नाग्माई और स्कंध जैसे भूतों का उल्लेख शिव पुराण में दिया है। जातक के अंदर भूतों से भिन्न-भिन्न रोग एवं परिवर्तन उत्पन्न होते हैं। वासना देह की एक अदृश्य दुनिया है। इसमें उच्च कक्ष की आत्मा, माध्यम कक्षा तथा निम्न कक्षा का दुष्ट वर्ग; ऐसे तीन प्रकार की दिखाई देती है। भूत-प्रेत योनियों में वायु तत्व की प्रधानता के कारण अदृश्य होती है। वायु द्रव के देहधारी इच्छानुसार प्रकट या युप्त प्रकार का रूप से सकते हैं। भूत-पिशाच में स्त्री-पुरूष वर्ग भी है। दुष्ट वर्ग की अतिप्त आत्माएं खून, क्रोध, मोहमाया, वासना की तृप्ति के लिये परकाया प्रवेश करती हैं। अशांत और निर्बल मन वाले व्यक्ति, दूसरों से ईर्ष्या और वैर भाव रखता है (जिसके मन का कारक चन्द्र गृह राहू, केतु, शनि, मंगल से दूषित होता है, कालसर्प होता है) वैसे व्यक्ति में प्रवेश कर अपनी अतृप्त वासनाएं तृप्त करती हैं। दुर्बल चित्त मनुष्यों के अंदर प्रविष्ट कर तृप्त करने की चेष्टा करती हैं। गीता में कहा गया है की मनुष्य जीर्ण-पुराना कपड़ा उतारकर नया धारण करते हैं, वैसे ही आत्मा नश्वर देह का त्याग कर नया देह धारण करती हैं।
आत्मा का अस्तित्व होता है और मृत्यु के बाद तृप्त हो जाए तभी मोक्ष प्राप्त होता है, अन्यथा यहाँ-वहां अपनी वासना की पूर्ती हेतु भटकती रहती है। मोक्ष की प्राप्ति के पश्चात ही वे परलोक गमन करती हैं।
गरूड पुराण में अच्छे-बुरे कर्म के फल के बार में सविस्तार वर्णन किया है। असत्य बोलना, जुआ, रेस, सत्ता खेलना, क्रोध करना, धर्म स्थानों में पापाचार करना, माता-पिता को संताप देना, निंदा-टीका करना, रिश्वत लेना-देना, देव द्रव खुद के लिये वपरना, जीव-जंतु, पशु-पक्षी प्राणिमात्र पर हिंसा गुजारना, मघपान करना, खून करना, चोरी करना, गुंडागर्दी करना, नास्तिक बनकर देवी-देवता-ब्राह्मण की अवज्ञा करना, परस्त्रीगमन, परपुरुषगमन करना, व्यभिचार, सगोत्री के साथ शयन करना इत्यादि कार्यों को निषिद्ध किया है। रौरव, महारौरव, नामिसा, शामली, कुम्भीपाक नामक नरकों का गरूड पुराण में उल्लेख मिलता है। मृत्यु के बाद पुत्र पिण्डदान नहीं करे, तो मृतक की आत्मा अतृप्त रहती है, भूत-पिशाच बनती है।
घर में मृत्यु स्थान पर, घर के द्वार के नजदीक, चौराहे पर, शमशान में चिता की जगह पर छः पिण्ड प्रेत के लिये रखे जाते हैं।
भारतीय हिन्दू संस्कृति में आत्मा की शांति, तृप्ति और उसके मोक्ष हेतु भिन्न-भिन्न प्रकार से यत्न-प्रत्यन किये जाते हैं, जिनमें श्राद्ध, तर्पण इत्यादि प्रमुख हैं। इन कर्मकांडों के पश्चात आत्मा को शान्ति मिलती है। उसकी अतृप्त इच्छाएं पूर्ण हो जाती हैं और वह अपने परिजनों को जो उसके लिये कर्मकांड विधिपूर्वक करते हैं, उनको आशीर्वाद देकर जाती है। इसलिए आत्मा की शान्ति के लिये कर्मकांड न किये जाने से आत्मा सदैव सूक्ष्म शरीर में इधर-उधर विचरण करती रहती है और मोक्ष को प्राप्त नहीं होगी। नासिक, त्रयम्बक, चांदोद, कर्नाली, प्रभासपाटण, सिद्धपुर, गया, पुष्कर तीर्थस्थानों में नदी के तट पर, शंकर भगवान् के मन्दिर में पित्र तर्पण, नारायण, नागबली, त्रिपिंडी श्राद्ध करने से शुभफल प्राप्त होता है। यह फल 40 से 50 प्रतिशत मिलता है। 100 प्रतिशत फल नहीं मिलता, क्योंकि क्रियाकाण्ड श्रद्धापूर्वक सर्व परिवारजनों को साथ विधिवत शुद्ध मंत्रोच्चार के साथ करना आवश्यक है। राहु प्रधान व्यक्ति बहुधा नास्तिक दिखाई देता है।
जन्मकुंडली में केतु जहाँ हो उसी स्थान का व्यक्ति के प्रश्न रहते हैं। जन्म लग्न में चन्द्र, राहु, सूर्य, पंचम और नवम में पापग्रस्त शनि, द्वितीय में शनि, अष्टम में शनि, राहु लग्न में, केतु पापग्रह से युक्त या दृष्ट हो, अष्टम में चन्द्र-शनि की युति, अष्टम में चन्द्र पाप गृह से निर्बल हो, साथ में सप्तम में राहु या केतु हो, तो व्यक्ति प्रेत बढ़ा से पीड़ित होता है। जिसका चन्द्र निर्बल हो, कालसर्प योग हो उसके ऊपर प्रेत बाधा, जादू-टोना होते हैं।
भूत-प्रेत के अस्तित्व को पाश्चात्य देशों में वैज्ञानिकों और परामनोवैज्ञानिकों ने स्वीकार किया है। स्वामी अभयानंद ने अपने पुष्तक 'लाइफ बियोंड डेथ' में मृत आत्माओं के चित्र भी दिए हैं। पश्चिमी विद्वानों ने सूक्ष्म शरीर के तत्व को एकटोप्लाज्मा की संज्ञा दी है।
आज हम सब भूत-प्रेत, तंत्र-मंत्र को पाखण्ड-ढोंग कहते हैं। उनके बारे में जानने की ज़रा भी कोशिश नहीं करते कि क्या सत्य है। विश्व में अतृप्त आत्माएं, भूत-प्रेत, पिशाच, यक्ष, गन्धर्व, ब्रह्म राक्षश, वैताल इत्यादि के अस्तित्व को फ्रांस के डोंक इयुजेन ओस्टली और केमीले फ्लेमरी योन; इटली के सीझट लोम्ब्रोस्वे, ब्रिटेन के सर आर्थर कानन डायल, सर विलियम बैरेट जैसे वैज्ञानिकों ने समर्थन दिया है।
योग वाशिष्ठ ग्रन्थ में अनुमोदन किया है कि अतृप्त आत्माएँ नया जीवन धारण करती हैं। जब तक मोक्ष प्राप्त नहीं हो पाता, तब तक जीवात्मा अपनी स्मृति के कारण मृत्यु का अनुभव करती रहती हैं। अच्छी आत्माएं सदैव शुभ कार्य करती हैं। वे परलोक में भी प्रसन्नचित रहती हैं। जो मृत्युलोक में स्वभाव वाले अशुभ कार्य करते हैं, उनकी आत्माएं परलोक में भी क्लेश का अनुभव करती हैं।
कैसे पहुँचती है भोजन सामग्री पितरों तक?
श्राद्धपक्ष में पितरों की शांति के लिये ब्रह्मणों को भोजन कराया जाता है और यह माना जाता है कि इस कार्य से पितर तृप्त होते हैं। इस संबंध में दो प्रश्न उठाना स्वाभाविक है - प्रथम, ब्रह्मण को भोजन कराकर पितर की तृप्ति कैसे हो पाती है, द्वितीय यह आवश्यक नहीं है कि पितर मानव योनि में हो और विभिन्न योनियों में पैदा होने वाली व्यक्ति का आहार भिन्न-भिन्न होता है, तो मानवयोनी के आहार से अन्य योनियों के जीव किस प्रकार संतुष्ट होंगे.। शास्त्रों में इन दोनों प्रशनों का उत्तर बहुत ही स्पष्ट तरीके से दिया गया है। शास्त्रों में कहा गया है कि यदि मृतक व्यक्ति का वंशज श्रद्धा एवं भक्तिपूर्वक अपने पितरों को याद करता है, तो वे किसी भी लोक में क्यों न हों अथवा किसी भी योनि में क्यों न हों, श्राद्धकर्ता के पास आ जाते हैं और श्राद्धकर्ता द्वारा निमंत्रित ब्राह्मणों के माध्यम से भोजन प्राप्त कर लेते हैं, क्योंकि वे सूक्ष्म ग्राही होते हैं, तो भोजन के सूक्ष्म कणों के आघ्राण से उनका भोजन हो जाता है और वे तृप्त हो जाते हैं।
देवयोनि में गए हुए पितर को वह भोजन अमृत के रूप में प्राप्त होता है. मनुष्य योनि में गए हुए पितर को अन्न रूप में प्राप्त होता है, पशु योने में गए हुए पितर को चारे के रूप में, नाग योनि में गए हुए पितर को वायु रूप में, यक्ष योनि में गए हुए पितर को पान रूप में भोजन प्राप्त होता है।
वायुपुराण में कहा गया है कि नाम, गोत्र, ह्रदय की श्रद्धा एवं उचित संकल्पपूर्वक दिए हुए पदार्थों को भक्तिपूर्वक उच्चारित मंत्र पितरों के पास पहुंचा देता है।
जीव चाहे सैकड़ों योनियों को भेए पार क्यों न कर गया हो तृप्ति तो उसके पास पहुँच जाती है।
मनुस्मृति में कहा गया है कि श्राद्ध के निमंत्रित ब्राह्मणों में पितर गुप्त रूप से निवास करते हैं।
प्राणवायु की भांति उनके चलते समय चलते हैं और बैठते समय बैठते हैं।
श्राद्धकाल में निमंत्रित ब्राह्मणों के साथ ही प्राणरूप में या वायुरूप में पितर आते हैं और उन ब्राह्मणों के साथ ही बैठकर भोजन करते हैं. मृत्यु के पश्चात पितर सूक्ष्म शरीरधारी होते हैं, इसलिए उनको कोई देख नहीं पाता और उन्हें एक स्थान से दूसरे स्थान, एक लोक से दूसरे लोक जाने में किसी भी प्रकार की रूकावट नहीं आती है।
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