05 फ़रवरी 2011

बच्चे के रूझान के मुताबिक़ हो शिक्षा


हरियाणा के पानीपत जिले में स्थित कुराना जैसे छोटे गाँव से निकलकर IIT में शिक्षा हासिल करना अशोक कुमार के लिये  सपने के सच होने जैसा था. हालांकि जब कुमार को यह महसूस हुआ कि उनकी दिलचस्पी लोगों की सेवा करने में है, तो उन्होंने भारतीय पुलिस सेवा (I.P.S) से जुड़ने का फैसला किया. फिलहाल वह दिल्ली में सेन्ट्रल रिजर्व पुलिस फ़ोर्स (C.R.P.F) में प्रतिनियुक्ति पर अपनी सेवाएं दे रहे हैं.

कुमार की किताब 'Human in Khaki', जिसमें उन्होंने एक IPS  के कंरियर से जुड़े वृतांत और घटनाओं का वर्णन किया है, का हाल ही में दिल्ली में विमोचन हुआ है. इस किताब में आज के भारत के समक्ष मौजूद तमाम समकालीन मुद्दों मसलन आतंकी हमले, महिलाओं पर होने वाले अत्याचार और बदलते Value System इत्यादि का जिक्र किया गया है. कुमार ने अपनी प्राथमिक शिक्षा गाँव के स्कूल में पूरी की और IIT दिल्ली से Mechanical Engineering में B.Tec और Tharmal Engineering में M.Tec Degree हासिल की. उन्हें 1986-87 में IIT, दिल्ली में Writer of the Year के खिताब से भी नवाजा गया.

कंरियर में बदलाव से जुडी मुश्किलों के बारे में बात करते हुए कुमार कहते हिं, 'हमारी शिक्षा प्रणाली ऐसी है कि हमें अपने कंरियर संबंधी निर्णय तब लेने पड़ते हैं, जब हम स्कूल में होते हैं और बारहवीं कक्षा वह स्तर नहीं होता जब हम आत्मावलोकन करते हुए यह तय कर सकें कि अपने जीवन में क्या करना चाहते हैं. हमारे निर्णय ज्यादातर दूसरों से प्रेरित होते हैं. कोई जाँब करते समय ही हम उसकी खूबियों या खामियों के बारे में समझ पाते हैं. तब ही हम यह तय कर पाते हैं कि बाकी जीवन भी इसे करते रहना चाहते हैं या नहीं.' उनका आगे कहना था, 'पुलिस में नौकरी करते हुए कई जगहों पर अलग-अलग तरह से सेवाएं देने के बाद अब मुझ लगता है कि तमाम मुश्किलों के बावजूद मैं आम आदमी के जीवन में कुछ बदलाव लाने में कामयाब रहा. हमेशा से यही मेरा लक्ष्य रहा है.'

कुमार के मुताबिक़ IIT जैसे संस्थान व्यक्ति को जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रभावी, सक्षम और उत्कृष्ठ बनाना सिखाते हैं. कुमार आगे कहते हैं, 'इससे मुझे अपनी पुलिस सेवा में मदद मिली. मेरी ताकत इस बात में निहित है कि मैं कितनी कुशलता से गरीब, जरूरतमंद और उत्पीडित लोगों की मदद कर सकता हूं.’

कुमार ने कंरियर में Engineering की राह न चुनकर पुलिस सेवा को चुना. लेकिन ऐसे कितने लोग हैं जो अपनी दिलचस्पी वाले काम से जुड पाते हैं? पुलिस भी अपने बीच IIT से निकले शख्स को पाकर खुश हो सकती है, लेकिन ऐसे कितने कार्यक्षेत्र हैं, जिनमें उन लोगों को जगह मिलेगी, जो उसके कार्यक्षेत्र हैं, जिनमें उन लोगों को जगह मिलेगी, जो उसके विशेषज्ञ नहीं हैं? हमारा शिक्षा तन्त्र हर काम को अनुभव करने की इजाजत नहीं देता, ताकि हम समझ सकें कि आगे चलकर कौन सा काम करना चाहते हैं.

फंडा यह है कि...                                                                                                                          
हमारे अभिभावकों व शिक्षकों को यह जानना चाहिए कि बच्चे की दिलचस्पी किस क्षेत्र में है. बच्चे की रुचि को समझकर उसे उसी दिशा में शिक्षित करे ताकि उसका जीवन सार्थक हो सके.

ग्राहक और बाजार के बारे में रहे पूरी जानकारी


ग्राहक एक बार किसी कंपनी से मुंह फेर लें, तो फिर दुबारा उसकी ओर नहीं लौटता. इन ग्राहकों को आपसे दूर ले जाने का काम कोई और नहीं आपके प्रतिस्पर्धी ही करते हैं. यह कहना है Rodenberg Tilmain and Associates के Managing Partner Joseph Rodenberg का. उनका मानना है कि संतुष्टि का भाव ही सफलता का सबसे बड़ा शत्रु है.

किसी भी कंपनी के सबसे अहम निर्णय बोर्डरूम के अंदर नहीं, बल्कि बाहर लिये जाते हैं. इन निर्णयों को लेने वाले कोई दूसरे नहीं, कंपनी के ग्राहक ही होते हैं. ये निर्णय इस सन्दर्भ में होते हैं कि कंपनी के उत्पाद खरीदे जाएं या नहीं. उनके कंपनी दैनिक, साप्ताहिक या मासिक आधार पर एक्सेल चार्ट पर निगाह दौडाते हुए यह जानने की कोशिश करती हैं कि बिक्री में किस तरह का उतार-चढ़ाव आया. यदि उनकी बिक्री बढ़ती है तो वे जश्न मनाती हैं और अगर इसमें गिरावट आती है तो अपनी सेल्स टीम को बुलाकर फटकारती हैं या पुराने सेल्सकर्मियों को हटाकर नए लोग ले आती है. इस पूरी प्रक्रिया में बड़ी संख्या में कंपनियों के भीतर Competitive Intelligence (प्रतिस्पर्धी जानकारी) पर आधारित प्रबंधन व नीति-निर्धारण पीछे छूट जाता है.

इस प्रतिस्पर्धी  माहौल को देखते हुए किसी भी बाजार में कंपनी के लिये ऐसी जानकारियों की जरूरत होती है, जिस पर आगे काम किया जा सके. इसके लिये विशुद्ध तथ्यों पर आधारित Competitive Intelligence (सीआई) बहुत अहम है. Strategic and Technical Intelligence यह जानना है कि बाजार आपको 'क्यों' और 'कैसे' प्रभावित करता है. बाजार के आंकड़े और जानकारिया सबके लिये उपलब्ध हैं, लेकिन इनमें से 80 फीसदी आंकड़े बेतरतीब होते हैं. उपलब्ध आंकड़े कंपनी के लिये प्रासंगिक हो भी सकते हैं और नहीं भी. यदि इन आंकड़ों पर काम न किया जाते तो ये बेतरतीब पड़े-पड़े बेकार हो जाते हैं. Competitive Intelligence आंकड़ों को उपयोगी जानकारी में बदलने की कला है. इसके लिये उन आकड़ों का विशलेक्षण करना होता है जो कंपनी के लिये प्रासंगिक हैं. अपनी बाजार संबंधी नीति तैयार करने के लिये ऐसी जानकारी जुटानी पड़ती है, जिस पर आगे काम किया जा सके.

किसी भी कंपनी को अपने ग्राहक, बाजार की हलचल, तकनीक व रूझान में बदलाव, अपने प्रतिस्पर्धियों, उनकी रणनीति, उनके लक्ष्य, ग्राहकों के Feedback इत्यादि के बारे में लगातार जानकारी जुटाने की जरूरत है.

 रोड़ेनबर्ग कहते हैं, 'Competitive Intelligence पर आधारित मेरी मास्टर क्लास से जुड़ने वाले ज्यादातर लोग Strategic Intelligence based Management and Marketing की जरूरत को समझते हैं, लेकिन वे लगातार पूछते रहते हैं कि उन्हें इससे सम्बंधित जानकारी कहाँ से मिल सकती है?' प्रबंधन द्वारा रणनीतिक मामलों पर चर्चा के लिये सालाना बैठक बुलाने की Competitive Intelligence कोई साल में एक बार होने वाली प्रक्रिया नहीं है. यह तो अपने ग्राहकों और प्रतिस्पर्धियों के बारे में जानकारी पाने और उसे लगातार अपडेट करते रहने की सतत प्रक्रिया है. यह अनुशासित ढंग से सोचने और काम करने की प्रक्रिया है. Competitive Intelligence कंपनी को अग्रगामी रूप से सक्रीय होने और बाजार के बदलावों के प्रति प्रतिक्रियाशील न होने में मदद करती है.

फंडा यह है कि...                                                                                                               
यदि आप अपने ग्राहकों के बारे में नहीं जानते और यह नहीं समझते कि वे आपके उत्पाद को क्यों पसंद या नापसंद करते हैं, तो प्रतिस्पर्धी बाजार में अंदर ही अंदर चल रहे बदलावों के बारे में सटीक जानकारी नहीं जुटा पायेंगे. 

04 फ़रवरी 2011

परदेश में बसो तो ध्यान रखो...

अपने देश को छोड़कर दूसरे देशों में रहने की तमन्ना भारतीयों में अथाह है. जोड़-तोड़ लगाकर और जोश में भारतीय चले तो जाते हैं, लेकिन वहां के समाज में घुलने-मिलने में प्रारम्भिक वर्षों में उन्हें बहुत कठिनाई होती है. उन्हें दूसरे देश के निवासियों का रिजेक्शन झेलना पड़ता है और चरम परिस्थितियों में कई भारतीय एडजस्ट नहीं होने के कारण मानसिक अवसाद से ग्रस्त होकर आत्महत्या तक को मजबूर हो जाते हैं. जिसकी कोई जरूरत नहीं है क्योंकि बातें बहुत छोटी-छोटी सी होती है.

अमरीकी किसी के भी बहुत जल्दी दोस्त बन जाते हैं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि आपके कठिन परिस्थितियों में वे आपके वित्तीय एवं व्यक्तिगत दायित्वों की पूर्ती में सहायक होंगे. भारत में इसके विपरीत किसी भी दोस्ती में दोनों ही चीजों की आवश्यकता है.

जापान के समाज में निवासी बनने से पहले यह जान लो कि किसी भी जापानी द्वारा की गई सहायता [चाहे कितनी भी छोटी हो या बड़ी हो] को भविष्य में आपके द्वारा लौटाना आवश्यक है. अक्सर जापानी यह आशा करते हैं कि कुछ हजार डाँलर आपको डाक्टर, वकील, अध्यापक को प्रति वर्ष उनकी फीस के अलावा देने हैं, क्योंकि वे आपके परिवार का ध्यान रखते हैं. वहां यह भी पारंपरिक है कि जैसे ही आपका बच्चा प्राइमरी स्कूल की क्लास उत्तीर्ण करे, तो एक-दो लाख रूपये आप स्कूल के अधिकारियों को थेंक यू मनी के रूप में दे. इसी तरह से यदि आप कहीं बैठकर गप-शाप कर रहे हैं, तो किसी भी उम्र का अमरीकन यह आशा करेगा कि आप उसके प्रथम नाम से उसे पुकारें. यहीं जर्मनी, फ्रांस आदि के नागरिक इसको ठीक नहीं मानते हैं. चीन में यदि कोई अपना नाम बताता है तो पहले वह अपना फेमिली नेम बताता है और फिर अपना नाम. वे भी इस बात से हिचकिचाते हैं कि कोई भी उन्हें बिना प्रगाढ़ संबंध बने, प्रथम नाम से पुकारें. यदि हम उपहार की बात करें, तो अमरीका में कपड़ों का उपहार देना ठीक नहीं माना जाता है क्योंकि कपड़ों के बारे में निर्णय बहुत पर्सनल डिसीजन माने जाते हैं. इसी तरह से कपड़ों के उपहार रसिया में रिश्वत मानी जाती है. रूमालों के उपहार थाईलैंड, इटली, वेनेजुएला, ब्राजील देशों में ठीक नहीं माने जाते क्योंकि वहां इसको ट्रेजडी का प्रतीक माना जाता है. इसी तरह से चीन और जापान में कभी भी 'चार' वस्तुएँ एक साथ उपहार में नहीं देनी चाहिए. इसे अशुभ माना जाता है. इसी तरह ताइवान एवं चीन में घड़ी एक उपहार की तरह नहीं दी जानी चाहिए क्योंकि यह मृत्यु का घोतक है.  

फंडा यह है कि...                                                                                                                                           
सारांश यही है कि जब किसी भी देश में रहने जाएं, तो उसकी संस्कृति का अध्ययन करें और उसका अपने व्यवहार में ध्यान रखें.

टाइम मैनेजमेंट का हुनर सीखें

एक ऐसा Topic है जिसके बारे में हर Meetings या Business Deal के दौरान चर्चा होती है, वह है Time Management, Time Manage कैसे किया जाए? यहाँ इसका जवाब पेश है. आप एक Paper Sheet लें और उसके शीर्ष पर 'बेहद अहम' लिख लें. ऐसी बेहद-बेहद अहम चीजों को याद करें, जिनके बगैर आप जिन्दगी से हाथ धो सकते हैं, आपकी नौकरी छूट सकती है, आपकी जमापूंजी ख़त्म हो सकती है या आपका परिवार छूट सकता है. ज्यादातर समय तो इस Column में कुछ भी ऐसा लिखने को नहीं मिलेगा.

अब इस कागज़ पर एक खडी रेखा खींचते हुए इसे दो हिस्सों में बाँट दें और उसके दोनों ओर 'Urgent व 'Non-Urgent' लिख लें. इनके नीचे आप अपनी समझ के मुताबिक UrgentNon-Urgent कार्यों को लिखें. आप 'Urgent Column के अंतर्गत तो कई Points लिख सकते हैं, लेकिन 'Non-Urgent' काँलम में कुछ भी लिखने में मुश्किल हो सकती है. अब उस 'Non-Urgent' को काटकर वहां 'अपने व अपने परिवार के लिये निवेश' के बारे में लिखें. यहाँ आप जो Points लिखेंगे, उन्हें देखकर हैरत हो सकती है. यहाँ पर Carrier और Health जैसे विषयों के अलावा आप यह भी लिख सकते हैं कि आपके बच्चे को मैट्रिक के बाद या Graduation अथवा Post Graduation में कौन सा कोर्स करना चाहिए. अब इस Chart को गौर से देखें. तमाम जरूरी व Urgent काम जो आपको अपने लिये करने हैं, वे अपने या अपने परिवार के लिए निवेश Column के अंतर्गत आ जाते हैं, जबकि बाकी सारे काम जो आसानी से अपने सहकर्मियों या किसी और को दे सकते हैं, 'Urgent' Column के अंतर्गत आ जाते हैं. इससे फर्क नहीं पड़ता कि आपके Ideas कितने जबरदस्त हैं और आपका उत्पाद कितना बेहतरीन हैं. यदि आपके पास ग्राहकों की शिकायतों पर गौर करने का समय नहीं है तो आपका बिजनेस ख़त्म हो जायेगा.

यहीं आकर Choice Management की महत्ता समझ में आती है. चूंकि आप हर काम खुद करना चाहते हैं, इसलिए आपके पास समय नहीं होता. आपको काम बांटना होगा. अपने पास कम से कम काम रखते हुए यह समझना होगा कि आस-पास क्या चल रहा है. आपके पास जितना अधिक वक्त होगा, उतने बेहतर ढंग से आप अपना काम Manage कर पायेंगे.

बढाएं अपनी रोजगार क्षमता


बिहार की मोनिका डोगरा बेहतर शैक्षणिक रिकार्ड के बावजूद मुम्बई में अपना ड्रीम Job पाने में नाकाम रहीं. Networking के एक कोर्स पर 45,000 रूपये खर्च करने के बाद भी वह अपने लिये ऐसी नौकरी नहीं तलाश सकीं जिससे उन्हें अपने रोजाना के खर्चों के अलावा पढाई का खर्च उठाने में भी मदद मिलाती. उन्हें Computer Product बेचने वाली एक दुकान में महज 2500 रूपये मासिक वेतन पर एक Technical Support Job ही मिल सका. इसके पीछे मुख्य वजह यह थी कि मोनिका को English बोलनी नहीं आती थी.

दरअसल मोनिका समझ ही नहीं पाई कि पढाई-लिखाई के अलावा आप English, Soft Skills और Personality Development की ट्रेनिंग के जरिये Corporate जगत की जरूरत के मुताबित बन सकते हैं. तभी मोनिका को अपने कुछ परिचितों की मदद से तीन महीने के एक कोर्स के बारे में पता चला जिससे उसकी जरूरतें पूरी हो सकती थीं. सोमवार से शनिवार तक रोज आठ घंटे चलने वाली इस कक्षा में प्रशिक्षकों ने मोनिका को अपना अँग्रेजी शब्दज्ञान, व्याकरण और बोलने का लहजा बेहतर करने के साथ-साथ आत्मविश्वास बढाने में भी मदद की.

अँग्रेजी भाषा का ज्ञान और बोलचाल का लहजा सुधरने के साथ अब मोनिका की आय चार अंकों के बजाय पांच अंकों की श्रेणी में पहुच गई. यहाँ पर यह समझना जरूरी है कि अँग्रेजी एकमात्र योग्यता नहीं है, बल्कि आपको Corporate एटीकेट का भी ज्ञान होना चाहिए, जिनके बारे में कई बार एमबीए छात्रों को भी पता नहीं होता. इसके अलावा Corporate एटीकेट और मैनरिज्म कुछ ऐसी चीजें हैं, जिन पर छोटे शहरों में ज्यादा ध्यान नहीं दिया जाता. त्रिची, शिलांग, मालदा और मोगा जैसी जगहों पर मैनेजमेंट, इंजीनियरिंग, फार्मेसी, कामर्स व हास्पिटैलिटी  इत्यादी की पढाई कर रहे अनेक छात्र अब ऐसे कार्यक्रमों को भी अपना रहे हैं, जिससे उनकी रोजगार पाने की क्षमता में इजाफा हो. किसी भी Job में दूसरे व्यक्तियों के साथ प्रभावी Communication की जरूरत होती है. Selectors ऐसे कर्मियों की तलाश में रहते हैं जो दूसरों के सामने अपनी बात स्पष्ट ढंग से रख सकें.

फंडा यह है कि.....                                                                                                      
यदि आप बेहतर नौकरी हासिल करना चाहते हैं तो आपको ऐसी क्षमताओं से लैस होना होगा जो कारपोरेट जगत के हिसाब से जरूरी है. 

अलग तरह से भी हो सकती है देशभक्ति

बड़े कामों की शुरूआत कई बार छोटी-छोटी चीजों से और छोटी-छोटी जगहों पर होती है. इस बार गणतंत्र दिवस के अवसर जहाँ पूरा देश राष्ट्रीय तिरंगे को फहराते हुए राष्ट्रगान गा रहा था, वही बिहार की राजधानी पटना की एक काँलोनी में स्थित 'Trimurti Housing Society' में रहने वाले लोगों ने इस राष्ट्रीय पर्व को कुछ अलग ढंग से मनाने का फैसला किया. इस Apartment के ठीक सामने झुग्गी-झोपड़ियों की एक कतार है, जिनमें रहने वाले ज्यादातर परिवारों के मुखिया मुजरिम करार देते हुए विभिन्न सजाओं के अंतर्गत बेउर जेल में बंद हैं. इन झुग्गी-झोपड़ियों में रहने वाले बच्चे गरीबी में जीने को विवश हैं, जिनका शिक्षा से कभी कोई लेना-देना नहीं रहा. ऐसे में गणतंत्र दिवस पर Apartment के रहवासियों ने अपने परिसर में एक सरस्वती पूजा का आयोजन किया और झोपड़ियों में रहने वाले 6 से 14 वर्ष के तकरीबन 30 बच्चों को इकट्ठा करते हुए उन्हें शिक्षा के साथ जोड़ने की पहल की.

धुल-मिट्टी से सने हुए इन बच्चों का पेन्सिल या इरेजर से कभी कोई वास्ता नहीं पडा था. एक बच्चे ने पेन्सिल को हाथ में चाकू की तरह थाम लिया और बोला, 'मेरे पिता इसी तरह चाकू पकड़ते हैं, जब वह मेरी माँ को धमकाते हैं' उन बच्चों को बताया गया कि पेन्सिल को उँगलियों के बीच कैसे थामा जाता है. बच्चे भी पहली बार अपने हाथ में पेन्सिल पकड़ कागज़ पर उल्लती-सीधी लिखावट में कुछ लिखते हुए काफी उत्साहित थे. यह देखते हुए Trimurti के रहवासियों ने इन बच्चों को पास के एक सरकारी स्कूल में भर्ती कराने का फैसला किया. अपने इस प्रयास के लिये Funds जुटाने की खातिर ये लोग निकट स्थित अन्य आवासीय Societies को भी Approach करने के बारे में सोच रहे हैं. ऐसे में हमें खुद से यह सवाल पूछना होगा- आखिर देशभक्ति क्या है? दरअसल Trimurti Apartment के रहवासियों ने जो किया, उसमें देशभक्ति की सच्ची भावना की झलक मिलती है. उन्होंने इन बच्चों को अपराध की दुनिया में जाने से बचाते हुए  शिक्षा के साथ जोड़ते की पहल की. 18वीं सदी में ब्रिटीश राजनीतिज्ञ  रांबर्ट वालपोल ने कहा था, 'लोग अक्सर देशभक्ति के बारे में बड़ी-बड़ी बातें करते हैं इसकी सार्थकता तभी है, जबकि इसे सही मायनों में अमल में लाया जाए.' यदि पटना में रहने वाले कुछ लोग देशभक्ति की सही भावना को व्यवहार में ला सकते हैं तो हम क्यों नहीं.

फंडा यह है कि...                                                                                                                  
देशभक्ति होने के लिये तिरंगा फहराना या राष्ट्रगान गाना ही काफी नहीं है. हमें कुछ ऐसा काम करना होगा, जिससे देश और समाज का व्यापक तौर पर भला हो सके.

साथ मिलकर काम करने में आसानी

मुंबई के लोग बंगलों की बजाय फ़्लैट्स में रहना ज्यादा पसंद करते हैं। इसकी वजह सिर्फ़ जगह की कमी और इसकी आसमान छूती कीमतें ही नहीं हैं, बल्कि बंगलों में जाने के बाद जिस तरह की कागजी खानापूर्ति और मेंटेनेंस का काम करना होता है, उससे भी वे बचना चाहते हैं। इस महानगर में 99.5 फ़ीसदी लोग फ़्लैट्स में रहते हैं और 95 फ़ीसदी लोगों को पता भी नहीं होता कि उन्हें पानी किस तरह मिलता है, उनकी सोसायटी की चौकीदारी कौन करता है, वे कितना कर चुकाते हैं और उनकी मैनेजिंग कमेटी को नगर प्राधिकरणों, विघुत आपूर्तिकर्ताओं जैसे विभिन्न सेवा प्रदाताओं से कितना जूझना पड़ता है। इन 95 फीसदी लोगों में से 70 फीसदी यह भी नहीं जानते कि मैनेजिंग कमेटी में कौन-कौन है। जब भी कोई बिल आता है तो वे चेक काटकर दे देते हैं और आँफिस निकल जाते हैं। याद रखें, यदि आप अकेले हैं तो आप पर अपनी व्यक्तिगत जरूरतें पूरी करने का बोझ और बढ़ जाता है. इसे यहाँ पेश एक स्टोरी के जरिये बेहतर ढंग से समझा जा सकता है.

आपने भी कभी-कभार आकाश में हंसों को 'वी' आकार के समूह में उड़ाते देखा होगा। उनके इस तरह उड़ने के पीछे एक वैज्ञानिक कारण है। दरअसल समूह में जब भी कोई हंस अपने पंख फडफडाता है तो वह अपने से पीछे वाले हंस के लिये झटका उत्पन्न कर उसे उड़ने में सहयोग करता है। अकेले पक्षी के मुकाबले 'वी' आकार में पूरा समूह 71 फीसदी ज्यादा दूर तक उड़ सकता है। इसी तरह जो लोग एक ही दिशा में जाते हैं या जिनमें टीम भावना होती है, वे ज्यादा दूर तक आसानी से यात्रा कर लेते हैं। ऐसा इसलिए क्योकि वे एक-दूसरे के सहयोग से यात्रा करते हैं। जब भी कोई हंस इस आकार (समूह) से बाहर आता है तो उसे उड़ान में कठिनाई होने लगती है और जल्द ही वह फिर से 'वी' आकार के समूह में लौट आता है।

जब समूह में सबसे आगे उड़ने वाला हंस थक जाता है, तो वह पीछे आ जाता है और दूसरा हंस उसका स्थान ले लेता है। मुश्किल काम करते समय अदला-बदली करने में ही समझदारी है। पीछे उड़ रहे हंस प्रोत्साहन के स्वर निकालकर आगे उड़ने वाले हंसों को प्रोत्साहित करते हैं। अगर हममें भी हंसों जैसी बुद्धि हो तो हम कभी भी एक-दूसरे की मदद करने से नहीं चूकेंगे।

फंडा यह है कि....                                                                                                        
यदि बहुत से लोगों का लक्ष्य एक है तो बेहतर यही होगा कि अलग-अलग काम करने के बजाय मिलकर काम किया जाए।

02 फ़रवरी 2011

समय रहते संभल जाओ...

कहा जा रहा है कि हम जीवों की महाविलुप्ति के दौर से गुजर रहे है। वैज्ञानिकों का अनुमान है हर साल पशु-पक्षियों, कीड़े-मकोड़ों और पौधों की कम से कम सौ प्रजातियाँ हमेशा के लिये हमसे बिछुड जाया करेंगी। साथ ही वे चेतावनी देते हैं कि जिन कारणों से तेजी से जीवों की विलुप्तियाँ हो रही हैं, वहीं कारण धीरे-धीरे पृथ्वी को मानव जाती के आवास लायक नहीं रहते देंगे।

वैज्ञानिकों का मानना है कि अगर हम आर्थिक विकास या अंधाधुंन प्रकृति का विनाश तथा पर्यावरण की रक्षा के बीच एक सही फैसला लेने में देर कर देते हैं, तो मानव जाती की इस नियत को शायद ताला नहीं जा सकेगा। संसार भर के राजनीतिक और आर्थिक क्षेत्र के कई महारथी वैज्ञानिकों की इस चेतावनी को ख़ास महत्व नहीं देते हैं। कुछ का कहना है कि विश्व के भविष्य की यह भयावह तस्वीर सिर्फ आकड़ों और सिद्धांतों की उपज है, वास्तव में ऐसा कुछ नहीं होने जा रहा है। कई लोग यह तर्क देते हैं कि विलुप्ति से हमने घबराना नहीं चाहिए। जीवों की विलुप्ति तो प्रकृति के विकास का नियम है। मानव के धरती पर आने से पहले भी ढेर सारे जीवन ख़त्म हुए हैं। डायनासौर आखिर एक झटके में संसार भर से मिट गए थे। फिर भी धरती रही और जीवन फलता-फूलता रहा। यही सही है कि धरती पर जीवन के लगभग चार अरब सालों के इतिहास में कई बार जीवों का अस्तित्व के गंभीर संकट पैदा हुए हैं।

ऐसे ही एक संकट के दौरान डायनासौर ख़त्म हुए। पर उन प्राकृतिक विलुप्तियों और आज के पर्यावरण के संकट के बीच कई बुनियादी भिन्नताएं हैं। प्रकृति में जीवों का विकास तभी होता है जब विश्व में प्राकृतिक उथल-उथल या मौसम में भारी बदलाव के दौरान कुछ अयोग्य प्रजातियाँ नई परिस्थिति में ख़त्म हो जाती है। तब अन्य प्रजातियाँ उनके द्वारा खाली किये गए स्थान को भारती है। उल्का पिण्डो की चोट या मौसम में आए बदलाव के कारण डायनासौर जब ख़त्म हुए तो उनसे रिक्त हुए हर स्थान को स्तनपायी वर्ग के विभिन्न प्राणियों ने भर दिया। कहा जाता है कि सभी डायनासौर एकाएक ख़त्म हुए थे पर आज की विलुप्तियों के मुकाबले में देखा जाए तो उनका खात्मा एक लम्बे समय के दौरान हुआ. जीवाश्मों के अध्ययन से पता चलता है कि डायनासौर की विलुप्ति की औसत डर एक हजार वर्ष में एक प्रजाति से अधिक नहीं रही। प्रकृति में नई प्रजातियों आ विकास काफी लम्बे समय में होता है। पिछले एक हजार वर्षों के दौरान जीवन की एक हजार से अधिक प्रजातियाँ विलुप्त हुई है। इस दौर की विलुप्तियों में ख़ास बात यह है कि इन सभी जीवों का खात्मा सिर्फ एक प्राणी, मानव की तथाकथित सफलता के एवज में हुआ।

हालांकि पिछले तीन सौ सालों के दौरान औजारों और टेक्नोलाँजी के अभूतपूर्व विकास के कारण इंसान ने धरती के लगभग हर हिस्से को अपनी आर्थिक गतिविधियों की चपेट में ले लिया है और इस दौरान पर्यावरण के विनाश और जीवों की विलुप्ति की दर में तेजी से वृद्धि हुई है। पर हाल के अध्ययन बताते है कि प्रागैतिहासिक काल से ही जहाँ-तहाँ मानव के कदम पड़े वहां प्रकृति और प्रजातियों का विनाश शुरू हो गया। संसार भर में कही भी इतने कम समय में इतनी सारी प्रजातियाँ एक साथ ख़त्म नहीं हुई। हांलांकि इन विलुप्तियों में इंसान की भूमिका कितनी थी और मौसम के बदलाव की कितनी, यह स्पष्ट रूप से कहना सम्भव नहीं। पर जीवाश्मों के अध्ययन और हाल में खोजे गए पुरावशेषों से यही पता चलता है कि अमेरिकी उपमहाद्वीपों में जैसे-जैसे उतर से दक्षिण की ओर बढ़ता गया वैसे-वैसे उनका इलाकों में विलुप्ति की दर तेज होती गई। लगभग तीस-चालीस हजार साल पहले मानव तकनीकी रूप से इतना विकसित हो चुका था कि वह अफ्रीका और एशिया के कुछ चुने हुए क्षेत्रों से बाहर निकलकर दूर नए इलाकों में बसने लगा। दक्षिणी फ्रांस और स्पेन में मिले करो-मैगरण मानव द्वारा बनाए गए गुफा चित्रों से पता चलता है कि 25 हजार वर्ष पहले यूरोप में इन्सान और विशाल प्रागैतिहासिक बायसन, चीता, भालू, शुतुरमुर्ग, जेब्रा कई तरह के जंगली घोड़े, रोएंदार गैंडा और महादंत हाथी (मैमथ) सभी एक साथ रहते थे। आधुनिक मानव ने यूरोप में उन्हें कभी नहीं देखा। आज से लगभग 10-15 हजार वर्ष पहले हिम युग के खात्मे के साथ-साथ उनका भी खात्मा हो गया। अब तक मौसम का बदलाव ही उनकी विलुप्ति का कारण समझा जाता था। पर 25 लाख वर्ष के हिमयुग के दौरान धरती कम से कम बीस बार गर्म हुई। तब ये जीवन ख़त्म क्यों नहीं हुए। नवीन पुरातात्विक खोजें मौसम के बदलाव के साथ-साथ मानव की आर्थिक गतिविधियों को भी उन पशुओं की विलुप्ति के लिये जिम्मेदार ठहराती हैं।

आदमी के पहुँचने के पहले जब भी मौसम गर्म हुआ तब जीवन उत्तर में ठन्डे प्रदेशों की ओर चले गए। पर जब लोगों ने उन प्रदेशों तक अपना डेरा जमा लिया और वहां की प्रकृति को बदलना शुरू कर दिया, तब इन पशुओं को दक्षिण के सीमित इलाकों में हे रहकर मौसम की मार सहनी पडी। औजारों का विकास और जनसंख्या वृद्धि के कारण अब अधिक पशु शिकार में भी मारे जाने लगे और वे धीरे-धीरे ख़त्म हो गए। इसी तरह उत्तरी और दक्षिणी अमरीका में भी आदमी के पहुँचने के बाद ही जीवों की विलुप्ति का एक अभूतपूर्व  सिलसिला शुरू हो गया। हिमयुग के दौरान समुद्र का काफी सारा पानी बर्फ के रूप में जमे रहने के कारण समुद्र का तल आज से काफी नीचा था। उस समय अलास्का (उत्तरी अमेरिका) और साइबेरिया के बीच समुद्र नहीं था। दोनों क्षेत्र एक जमीनी पुल द्वारा जुड़े हुए थे। सुदूर पर्व के लोग सबसे पहले इसी पुल से होकर अमेरिया पहुंचे, जो बाद में इन्डियन कहलाए। पक्षियों के मामलों में उस समय के अमेरिका की तुलना मध्य अफ्रीका के जंगल और सवाना से की जा सकते है। चीता, शेर, बड़े-बड़े रीच, जेब्रा, याक, तापिर, लम्बे दाँतों वाला बाघ, तरह-तरह के छोटे-बड़े हाथी, ऊँट और जंगली घोड़ा ये सभे पिछले 10-15 हजार साल पहले अमेरिका में तब पशुओं के कुल 33 वंश और दक्षिणी अमेरिका में 46 वंश विलुप्त हो गए संसार भर में कहीं भी इतने कम समय में इतनी सारी प्रजातियाँ एक साथ ख़त्म नहीं हुई।

हांलाकि इन विलुप्तियों में इन्सान की भूमिका कितनी थी और मौसम के बदलाव की कितनी, यह स्पष्ट रूप से कहना सम्भव नहीं। पर जीवाश्मों के अध्ययन और हाल में खोजे गए पुरावशेषों से यही पता चलता है कि अमेरिकी उपमहाद्वीपों में जैसे-जिससे इंसान उत्तर से दक्षिण की ओर बढ़ता गया वैसे-वैसे उन इलाकों में विलुप्ति की दर तेज होती गई। ये तो रही विशेषज्ञों की बात। समुद्र के बीच में अलग-अलग द्वीपों के मानव द्वारा पशु-पक्षियों की विलुप्ति की कहानी और भी रोंगटे खडेकर देने वाली है। प्रशांत महासागर तथा समुद्रों के बीच ऐसी अनेक छोटे-छोटे द्वीप है जिनका निर्माण ज्वालामुखियों के फटने से हुआ और जो कभी भी किसी महाद्वीप का हिसा नहीं थे। इन द्वीपों में प्रकृति का ताना-बाना बहुत ही उपजाऊ है। जिसमें थोड़ा भी उलटफेर विनाश का कारण बन सकता है। साथ ही हरेक द्वीप की इकाँलाँजी अपने आप में अनूठी है। इन द्वीपों पर जीव तैरकर, उड़कर या समुद्र में तैरते मलबे के साथ बहकर वहां पहुंचे। इसलिए इन द्वीपों पर बड़े चौपाए लगभग नहीं मिलते और पक्षी तथा सरीसर्प अधिक संख्या में पाए जाते है। द्वीपों पर पहुँचने के बाद उन जीवन में भिन्नताएं विकसित हुई और वहां के विशिष्ट वातावरण पर वे निर्भर होते हुए चले गए। स्तनधारियों के आभाव में सरीसर्पों ने उनकी खाली जगह को भरते हुए विशाल आकार धारण कर लिया। जैसे गैलापेगोस का विशाल कछुआ और इंडोनेशिया के कोमोडो द्वीप का ड्रैगन। इसी तरह मांरिशस के डोडो के समान केई पक्षियों ने उड़ना छोड़ दिया।

इन द्वीपों पर मनुष्य का सबसे ज्यादा कुप्रभाव पक्षियों पर ही पडा। हालांकि पक्षियों की हड्डियां नरम होने के कारण उनके अवशेष बहुत कम बचे रह जाते है, फिर  भी उपलब्ध प्रमाणों के आधार पर वैज्ञानिक अनुमान लगाते हैं कि पिछले 1000 वर्षों के दौरान प्रशांत महासागर के द्वीपों में पक्षियों की कम से कम 2000 प्रजातियों मनुष्य द्वारा ख़त्म कर दी गई। आज संसार भर में पक्षियों की करीब 10,000 प्रजातियाँ बची हुई है। जो वणों के विकास और प्राकृतिक संतुलन को बनाए रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। जिस गति से उनका और उनके पर्यावरण का विनाश होता रहा है उसे देखते हुए या कहना मुश्किल है कि अगली सदी के मध्य तक दुनिया भर में कितने पक्षी बच पायेंगे। इस आशंका को गंभीरता से न लेने वालों को यह नहीं भूलना चाहिए कि उन्नीसवीं सड़ी की शुरूआत में उत्तरी अमेरिका में अरबों की संख्या में पाए जाने वाले पक्षी सफारी कपोत (पैसेंजर पिजन) का इंसान ने पूरी तरह से सफाया कर दिया था। इसी  प्रकार से संसार में सबसे अधिक संख्या में पाए जाने वाले चौपाए अमेरिकी बायसन को कुछ ही वर्षों के अंदर ख़त्म कर दिया गया। समुद्री द्वीपों में पहु-पक्षियों की विलुप्ति में शिकार और जंगल में आग लगाकर खेती के अलावा मनुष्य द्वारा मुख्य भूमिका से वहां लाए कुत्ते, बिल्ली, चूहा, सूअर, खरगोश और नेवला जैसे पशुओं ने भी अपनी भूमिका निभाई।

आदिम पाँलिनेशियाई लोगों द्वारा आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड हवाई और अन्य द्वीपों पर लाये गए इन पशुओं के स्थानीय पर्यावरण पर पड़े भयावह परिणामों को जानने के बाद भी आधुनिक काल तक यह सिलसिला जारी रहा। आस्ट्रेलिया में बाहर से लाए गए डिंगो कुत्तों ने वहां के कई अद्भुत मासुपियल्स को ख़त्म कर दिया। क्यूवा और हैती द्वीपों में मनुष्य के साथ सबसे पहले पहुंचा चूहा। इन चूहों ने पक्षियों के अण्डों और चूजों पर दांत साफ़ किये। जब चूहों का प्रकोप बहुत बढ़ गया तो उनका दमन करने के लिये नेवलों को लाया गया। पर नेवले उनकी तरफ ध्यान न देकर कई स्थानीय पशु-पक्षियों को चोट करने में जुट गए। निश्चित तौर पर मनुष्य का अपने जन्मकाल से प्रकृति के साथ अंतर्विरोध रहा है। दरअसल मानव दूसरे जीवों से इसी मामले में अलग है कि वह अन्य पशुओं की तरह सिर्फ प्रकृति के अनुरूप अपने को नहीं ढालता है। खुद की जरूरत के मुताबिक़ वह प्रकृति को बदलता है उसमें तोड़-मरोड़ करता है। हाल के दिनों में विकास के साथ-साथ यह प्रकृति अपनी चरम सीमा पर पहुँच चुकी है। पर मुसीबत यह है कि जिस प्रकृति से लड़कर और उसे वश में करके हम पशु से इंसान बने और आज सर्वशक्तिमान होने का दावा कर रहे हैं, उसी प्रकृति का हम एक अभिन्न हिस्सा भी है। बर्बाद करके मानव खुद ज़िंदा नहीं रह सकता है. एक और मामले में हम पशुओं से भिन्न है कि अपनी प्रवृत्ति के खिलाफ भी मानव सचेतन प्रयास कर सकता है। शायद प्रकृति के साथ हमारे अन्याय का घडा अभी पूरी तरह से भरा नहीं है. अगर पक्का इरादा हो तो उसे फूटने से अभी भी हम बचा सकते हैं।

01 फ़रवरी 2011

मोर पंख का प्रयोग

सरस्वती जी के वाहन मोर का पंख जिसे भगवान् श्री कृष्ण ने अपने सिर पर धारण किया. वह पवित्रता का प्रतीक माना जाता है. ऐसी मान्यता है कि मोर की सृष्टि दृष्टि से संचालित है. इसलिए ब्रह्मचर्य के साधको को मोर पंख संयम की प्रेरणा देता है. मंगलकारक मयूर पंख से हिन्दू और मुसलमान दोनों ही सम्प्रदायों में अमंगल अनिष्ट के विनाश की तमाम प्रक्रियाएं की जाती है.

मोर को भारत सरकार ने 1963 में देश ने राष्ट्रे पक्षी घोषित किया. यह संसार का सबसे सुन्दर पक्षी माना जाता है. मयूर दरअसल उमंग, उल्लास और आनंद का प्रतीक है. मन की तुलना भी आनंदतिरेक  में मोर से ही की जाती है. हमारे जीवन से नीरसता हटाकर सरसता लाने की वृत्ति ही आनंद है. प्राचीनकाल से ही सरस्वती माँ का वाहन होने के कारण विद्यार्थी वर्ग में अपनी पुस्तकों के भीतर मोर पंख रखने की प्रथा है. यही मोर देवताओं के सेनापति और भगवान् शंकर के पुत्र कार्तिकेय स्वामी का भी वाहन है. भारत के अलावा जापान, थाईलैंड, इंडोनेशिया, इंडोचीन आदि देशों में भी मोर को श्रद्धा और प्रेम से देखा जाता रहा है. मोर का शत्रु सर्प है. अतः ज्योतिश में जिन लोगों को राहू की स्थिति शुभ नहीं हो उन्हें मोर पंख सदैव अपने साथ रखना चाहिए. आयुर्वेद में मोर पंख से तपेदिक, दमा, लकवा, नजला और बांझपन जैसे दुसाध्य रोगों में सफलता पूर्वक चिकित्सा बताई गई है. जीवन में मोर पंख से कई तरह के संकट दूर किये जा सकते हैं.

अचानक कष्ट या विपत्ति आने पर घर अथवा शयनकक्ष के अग्नि कोण में मोर पंख लगाना चाहिए. थोड़े ही समय में सकारात्मक असर होगा.

धन वैभव में वृद्धि की कामना से निवेदन पूर्वक नित्यापूजित मन्दिर में श्रीराधा-कृष्ण के मुकुट में मोर पंख की स्थापना कराके 40वें दिन उस मोर पंख को लाकर अपनी तिजोरी या लंकर में रख दें. धन-संपत्ति में वृद्धि होना प्रारम्भ हो जायेगी. सभी प्रकार के रुके हुए कार्य भी इस प्रयोग से बन जाते हैं.

जिन लोगों की कुण्डली में राहू-केतु कालसर्प योग का निर्माण कर रहे हों उन्हें अपने तकिये के खो में 7 मोर पंख सोमवार की रात्री में डालकर उस तकिये का उपयोग करना चाहिए साथ ही शयनकक्ष की पश्चिम दिशा की दीवार पर मोर पंखों का पंखा  जिसमें कम से कम 11 मोर पंख लगे हो लगा देना चाहिए. इससे कुण्डली में अच्छे गृह अपनी शुभ प्रभाव देने लगेंगे और राहू-केतु का अशुभत्व कम हो जायेगा.

अगर बच्चा जिद्दी होता जा रहा हो तो उसे नित्य मोर पंखों से बने पंखे से हवा करनी चाहिए या अपने सीलिंग फैन पर ही मोर पंख पंखुड़ियों पर चिपका देना चाहिए.

नवजात शिशु के सिरहाने चांदी के तावीज में एक मोर पंख भरकर रखने शिशु को डर नहीं लगेगा नजर इत्यादि का डर भी नहीं रहेगा.

कोई शत्रु ज्यादा तंग कर रहा हो मोर के पंख पर हनुमान जी के मस्तक के सिंदूर से मंगलवार या शनिवार रात्री में उस शत्रु का नाम लिखकर के अपने घर के मन्दिर में रात भर रखें. प्रातःकाल उठाकर बिना नहाए धोईं चलते पाने में बहा देने से शत्रु शत्रुता छोड़कर मित्रवत व्यवहार करने लगता है. इस तरह मोर पंख से हम अपने जीवन के अमंगलों को हटाकर मंगलमय स्थिति को ला सकते हैं.

खुद चुनें अपना करियर


गर्ल्स और महिलाओं में अक्सर यह समस्या देखने में आती है कि वे नौकरी लगने के बाद भी इस कन्फ्यूजन में रहती हैं कि उन्होंने जो कंरियर चुना है वह सही है कि नहीं? वे दुविधा भरी स्थिति में रहती हैं और उन्हें दूसरे क्षेत्र आकर्षित करते हैं. इसका अक्सर उनके काम और सोशल लाइफ पर पड़ता है. ऐसी महिलाएं और गर्ल्स कई बार जोश में गलत निर्णय भी ले लेती हैं और बाद में पछताती हैं. हालांकि देखा जाए तो इस समस्या का हल भी उन्हें के पास है, बस जरूरत है तो थोड़ा दिमाग चलाने की....

सफल व्यक्तियों को करीब से मिलें
स्वयं के कंरियर को दिशा देने के हाले ऐसे व्यक्तियों से जरूर मिलें जो आपकी पसंद के क्षेत्र में सफल हैं. ऐसे व्यक्तियों से मिलने से आपके मन के कई भ्रम दूर हो जाएंगे. हम कई बार पने पसंद के कंरियां को लेकर भ्रम पाल लेते हैं कि इसमें काफी नाम है या पैसा है. सफल व्यक्ति इस संबंध में आपको यह भी बता देंगे कि नाम या पैसा कमाने के लिये किसी भी तरह का शांर्ट कट नहीं होता है और आपको मेहनत को करनी ही पड़ेगी. उनसे मिलने के बाद आपको जरूर अहसास होगा कि सफलता प्राप्ति के लिये किन राहों से गुजरना पड़ता है.

जानें अपनी पसंद
कई बार यह भी देखने में आता है कि महिलाएं और युवतियां  यह जान ही नहीं पातीं कि वे किस क्षेत्र के लिये बनी हैं. कला में रुचि रखने वाली मैथ्स या फिजिक्स में हाथ आजमाएंगी तो सफलता कैसे मिलेगी. सफलता मिल भी गई तो वह दिल को अच्छी नहीं लगेगी और परिणामस्वरूप उसे यह लगने लगता है कि जो भी निर्णय लिया वह गलत है.

भेड़ चाल में न फंसें
दोस्ती यारी के बिना काँलेज लाइफ की कल्पना ही नहीं की जा सकती. दोस्तों से कंरियर संबंधी सलाह लेना अच्छी बात है और यह होता भी है. परन्तु जो दोस्त कर रहा है वही कोर्स आप भी करें ऐसा जरूरी नहीं. दोस्ती की भावनाएं अपनी जगह हैं और आपका कंरियर अपनी जगह है. ऐसे में जो दोस्त कर रहे हैं वही मैं करूंगा/करूंगी ऐसा कभी न करना. इस भेड़ चाल में अगर आप फंस गए तब निकलने का काफी बड़ा मूल्य चुकाना पडेगा. अगर दोस्तों की देखा-देखी आपने भी अपने मन से अलग क्षेत्र चुना तो एक दिन आपको पछताना पड़ेगा. इसलिए भेडचाल में फंसने से बचें.

ज्यादा प्रयोग न करें
कंरियर की राह ऐसी होती है जिसमें बहुत ज्यादा प्रयोग करने का समय नहीं रहता है. ऐसे में स्वयं के साथ प्रयोग उतने ही करें जितना समय आपको अनुमति देता है. कई बार यह भी देखने में आता है कि विज्ञापन के क्षेत्र में अच्छा करने वाले को जब अपने क्षेत्र में ही नौकरी मिल जाती है तब भी वे खुश नहीं होते. समाजसेवा के क्षेत्र में काम करने में उन्हें ज्यादा संतुष्टि मिलती है. इस कारण अपनी पसंद-नापसंद और दिल की चाहत के अनुरूप कंरियर का चुनाव करते वक्त थोड़ा समय जरूर दें और अपने कंरियर की दिशा का चयन स्वयं करें.

जीने की कला है: Active Life

Corporate World में इस बात पर विश्वास किया जाता है 'The Trick to live your life is to make shure that you don't die waiting for Prosperity to Come' इसका मतलब है कि 'आप अपनी जिन्दगी एक्टिव होकर जियें'. हाथ पर हाथ धरकर नहीं बैठे. आपको ऐसी परिस्थितियों का सामना नहीं करना पड़े, जिसमें आप इनेक्टिव होकर सम्पन्नता के आने के इंतज़ार में मर जाएं.

इस तरह की जिन्दगी का उधाहरण आपको सोनी कंपनी के Co-Founder. akio morita की लाइफ का अध्ययन करने से मिलता है. इनका जन्म 26 जनवरी 1921 में हुआ था. इनकी फैमिली की 14 पीढियां व्यापार ही करती आई थी. इनको स्कूल से ही इस तरह से ग्रूम किया गया कि इनको बड़ा होकर अपना पुश्तैनी व्यापार संभालना है. परन्तु ये अपने पुश्तैनी व्यापार पर डिपेंड होकर नहीं बैठे. इन्होने पहले जापानी नेवी को ज्वाइन किया. और वहीं उनकी मुलाक़ात मासुरीइबूका से हुई, जो सोनी कंपनी के Co-Founder बने. इन दोनों ने 7 मई 1946 को अपनी कंपनी की स्थापना की और एक्टिवली अपने इलेक्ट्रोनिक के बिजनेस में रम गए. इन्होने प्रारम्भ में ही यह सोच लिया था कि टेक्नोलाँजी के विकास के कारण इस संसार की विशालता कम होती जा रही है. अब यह सम्भव है कि जापान से बाहर निकलकर पूरे संसार पर छाया जा सकता है. इस सोच के साथ akio morita ने जापान को छोड़कर अपनी फैमिली के साथ अमरीका शिफ्ट हो गए. उन्होंने माना कि अमरीका में रहकर वह उनके कल्चर को अच्छी तरह से समझ सकते हैं, और उसके अनुसार अपने प्रोडक्ट बना सकते हैं. उनके दिन-रात की मेहनत का परिणाम था कि सोनी संसार की पहली कंपनी थी जिसने 50 के दशक में ट्रांजिस्टर पर आधारित रेडियो बाजार में पेश किया.

1994 में इनको सुबह के वक्त टेनिस खेलते हुए ब्रेन हैमरेज हुआ और 1995 में इन्होने सोनी की चेयरमैनशिप से इस्तीफा दिया. इन्होने अपना सक्सेसर नोरिओ को बनाया. ये वो व्यक्ति थे जिन्होंने akio morita को एक पत्र लिखकर सोनी के टेप रिकाँर्डर की क्वालिटी की जमकर बुराई की थी. इस पत्र के बाद akio morita ने उन्हें सोनी में ज्वाइन करवा लिया था. akio morita की जिन्दगी सुपरएक्टिव थी. ब्रेन हैमरेज होने के दो महीने पहले के उनके शिड्यूल का अध्ययन करेंगे, तो हम पायेंगे कि वे अधिकतर समय वर्ल्ड टूर पर रहे जिसमें वे अपने कर्मचारियों, डीलरों, ग्राहकों से मिलते रहे. इनके मिलने वालों में छोटे से लेकर बड़े आदमी सभी शामिल थे. वे क्वीन एलीजाबैथ, जैक वेल्च, फ्रांस के प्रेसीडेंट जैक चिराक आदि से भी मिले. शायद उनको पता था कि जिन्दगी को एक्टिव होकर जीना चाहिए उनकी एक्टिव लाइफ का ही परिणाम है कि सोनी आज एक वर्ल्ड ब्रांड है.

मंत्र:  हाथ पर हाथ धरकर जीने के बजाय एक्टिव लाइफ जीना बेहतर है.

सही निर्णय से बने सफल इंसान

 Too much planning is Bad

बिजनेस में एक अच्छी प्लानिंग की जरूरत होती है. परन्तु कई मैनेजमेंट विशेषज्ञों का यह मानना है कि 'You Can not Overestimate the need to plan and prepair. You can not overprepare in Business.' अर्थात पहले से प्लानिंग एवं तैयारी की जरूरत को बिजनेस में बहुत ज्यादा बढ़ा-चढ़ा कर बताने की आवश्यकता नहीं है. बिजनेस को बहुत ज्यादा Overprepare (जरूरत से अधिक एडवांस प्लानिंग) करके नहीं चलाया जा सकता है.'

बिजनेस करना एक तेज गेम खेलने के समान है, जिसमें आपको अपने उद्देश्य और प्रतिद्वंदी खिलाड़ियों की रणनीति के अनुसार अपना खेल खेलना पड़ता है. एक मंझे हुए खिलाड़ी को On the Spot कई ऐसे महत्वपूर्ण निर्णय लेने पड़ते है, जिनकी कोई एडवांस प्लानिंग नहीं की जा सकती है. इसका यह मतलब नहीं है कि एडवांस प्लानिंग और तैयारियों को नजरअंदाज किया जाना चाहिए. इनकी अपनी एक महत्ता है. परन्तु ये इतनी ज्यादा भी नहीं करनी चाहिए कि वर्तमान परिस्थितियों का आकलन ही ख़त्म हो जाए. बिजनेस की यात्रा में हर कदम पर नई से नई कठिनाइयां मुंह फाड़े खडी होती है, और साथ ही नए-नए लाभ के रास्ते भी नजर आने लगते हैं. इन सबका पहले से पूर्वानुमान लगाना सम्भव हैं. तीव्र सोच एवं समय रहते निर्णयों से एक कंपनी उन क्षेत्रों में तरक्की कर सकती है जिनके बारे में पहले कभी सोचा भी नहीं था.

उदहारण के लिये जापान की मित्शुबिशी कंपनी को ले सकते हैं. इसका प्रारम्भ 1870 में यातारो श्वासाकी द्वारा एक शिपिंग कंपनी के रूप में किया गया. मित्सुबिशी दो शब्दों से बना हुआ है. 'मित्सू' जिसका अर्थ है 'तीन' और 'बिशी' जिसका अर्थ है 'वाटर चैस्टनट (एक पानी का पौधा) इसने 1881 में परिस्थितियों को देखते हुए कोल माइनिंग के व्यापार में कदम रखा, इससे इनके शिपिंग व्यापार को भी काफी मदद मिली. थोड़े ही समय में मित्शुबिशी को इस कदर सफलता मिली कि इसने Banking, Insurance, Warehousing, Trade aur Technology Products आदि में सफल व्यापार स्थापित किये. इनके द्वारा बनाए गए 'जीरो' हवाई जहाज़ों ने द्वितीय विश्वयुद्ध में अमरीका के पर्ल हार्बर पर जबरदस्त तबाही मचाई. द्वितीय विश्वयुद्ध में हार के बाद मित्सुबिशी पर प्रतिबन्ध लगा दिए गए और उनकी विकास यात्रा में जबरदस्त रूकावट पैदा हुई. परन्तु इन्होने हार नहीं मानी. नए रूल्स और रेगुलेशन के अंतर्गत मित्सुबिशी ने अपने आपको कई स्वतंत्र कंपनियों में विभाजित कर लिया. जिनके अपने बिजनेस माँडल थे, परन्तु सभी अपने प्रांडक्ट्स  के लिये मित्सुबिशी ब्रांड नेम उपयोग करती रही. इनमें से कुछ कंपनियों पर ये आरोप भी लगे कि ये अच्छी काँर्पोरेट प्रैक्टिस का पालन नहीं करती. उदहारण के लिये इनके पूर्व असंतुष्ट एग्जीक्यूटिव कमल सिन्हा ने एक वेबसाईट 'मित्सुबिशी वाच' के नाम से आरम्भ कर रखी है, जिसमें इस तरह की प्रैक्टिस पर ध्यान आकर्षित किया जाता है.

इन सारी कठिनाइयों के बावजूद मित्सुबिशी द्वारा समय रहते किये हुए निर्णयों के कारण अपनी लोकप्रियता कायम रखी.

मंत्र:  एडवांस प्लानिंग से हर वक्त काम नहीं बनता. मौके पर ले मूल्यवान निर्णय.

सही समय पर लो सही निर्णय

फोर्ड मस्टांग कार के चीफ प्रजेक्ट अधिकारी और अमरीका की क्राइसलर कार कंपनी के पूर्व C.E.O श्री ली आयाकोका के अनुसार 'Even a correct decision is wrong when it was taken too late.' अर्थात बहुत देरी से लिया गया सही निर्णय भी कई बार गलत साबित हो सकता है. यदि यह सही निर्णय पूर्ण रूप से गलत नहीं होते तो उनके सुखद परिणाम नहीं मिलते जो सही वक्त पर निर्णय लेते वक्त मिल जाते. उदहारण के लिये वर्तमान में यदि दुनिया के देशों के बीच यदि Armed Conflicts में कमी आई है तो साथ की इनके बीच व्यापारिक युद्ध बहुत बढ़ गए हैं. अब इस बात की बहुत प्रतिस्पर्धा हो गई है कि किस देश की आर्थिक प्रगति की दर अधिक है और किस देश ने विश्व बाजार के निर्यात पर अपना कब्जा बढाया है. अक्सर लोग भारत की तुलना चीन से करते हैं जिसमें वह बार-बार कहा जाता है कि भारत सरकार द्वारा नहीं लिये जाने वाले सही निर्णयों के कारण चीन से पिछड़ रहा है. पिछले दिनों जयपुर में इनफ़ोसिस कंपनी के संस्थापक नारायण मूर्ती ने यही बात बार-बार दोहराई.

उन्हों कहा की भारत के सकल घरेलू उत्पाद का 26 प्रतिशत कृषि पर आधारित है. उसकी तुलना में भारत तकरीबन 60 प्रतिशत लोग अपना रोजगार कृषि से प्राप्त करते हैं. इतनी बड़ी मात्रा में लोग यदि कृषि पर निर्भर रहेंगे, तो उनकी उत्पादकता बहुत कम होती. मूर्ती ने चीन का उद्धरण देते हुए कहा कि वहां सरकार ने Policy निर्णय लेते हुए वहां की काफी बड़ी कृषि पर आधारित जनसंख्या को लाँटेक (सरल टेक्नोलांजी पर आधारित) उद्योग धंधो पर हस्तान्तरित कर दिया. इससे चीन के लोगों की इनकम बढी और वहां के एक्सपर्ट में भी इजाफा हुआ और चीन एक आर्थिक शक्ति के रूप में उभर कर आया. भारत को भी इसी चीज की जरूरत है. उन्होंने जोर देकर कहा, भारत के Policy Maker समय पर निर्णय नहीं ले पाते और यदि देर से निर्णय लेते भी हैं तो उसका पालन तुरंत नहीं कर पाते. उन्होंने कई लोगों की इस बात को गलत कहा कि भारत एक प्रजातंत्र है, अतः यहाँ निर्णय देर से ही होते हैं. उन्होंने कहा कि यूरोप के कई देशों में भी प्रजातंत्र है, परन्तु वहां पर निर्णय बहुत फास्ट लिये जाते हैं. अपने दिए गए भाषण में उन्होंने यह मंत्र बार-बार दोहराया कि तुरंत निर्णय कीजिये, अन्यथा देरी से लिये गए सही निर्णय भी आपको विश्व प्रतिस्पर्धा में अधिक हैल्प नहीं कर पायेंगे.

मंत्र:   निर्णय तुरंत कीजिये, देरी से लिये गए निर्णय के कारण आप प्रतिस्पर्धा में पीछे हो सकते हैं.

दुश्मनी क्यों होती है?

यूं तो प्रत्येक व्यक्ति दूसरे से प्यार व दोस्ती करना चाहता है, परन्तु उसमें दुश्मनी की भावना आने में भी एक क्षण लगता है.

Management Expert के सामने यह एक अध्ययन का विषय है कि एक व्यक्ति दूसरे का दुश्मन क्यों बन जाता है. दुशमन होने का यहाँ तात्पर्य यह है कि एक व्यक्ति दूसरे से घृणा करता है और वह दूसरे को अपने मन, वचन और कर्म से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से जबर्दस्त हानि पहुंचाने का मजबूत प्रयास एक रणनीति या आवेश के तहत करता है.

मैनेजमेंट विशेषज्ञों के अनुसार किसी दुश्मनी के पीछे वैसे तो अनगिनत कारणों का योगदान रहता है. परन्तु सबसे मुख्य कारण एक व्यक्ति द्वारा दूसरे के अहमको किसी तीसरे के सामने चोट पहुंचाना होता है. एक व्यक्ति की अतिमहत्वपूर्ण संपत्ति उसका अहम होता है. उसको बचाने के लिये एक समझदार व्यक्ति भी अजीबों गरीब हरकतें करने से बाज नहीं आता है.

कुछ वर्ष पहले, एक Executive को उसके पांच साल की शानदार सर्विस के बाद एकदम से कंपनी से बाहर निकाल दिया गया. उसने अपने परिवार को इसके बारे में कुछ नहीं बताया. हर सुबह वह रोज की तरह अपने घर से ऐसे तैयार होकर निकलता था जैसे कि वह आँफिस जा रहा है. उसके बाद वह अपना सारा दिन सिनेमा हाँल और यूनिवर्सिटी लाइब्रेरी में निकालता था और शाम को थका हारा अपने घर पहुंचता था. इस तरह से दो-तीन महीने निकलने के बाद वह तो अच्छा हुआ कि उसकी पत्नी ने किसी कारणवश आँफिस फोन कर लिया और तब जाकर पूरी बात समझ में आई. उपरोक्त उदाहरण वास्तव में बहुत ट्रैजिक है, परन्तु यह इस बात को तो दर्शाता ही है कि एक व्यक्ति अपना Face loss बचाने के लिये किसी भी स्तर पर जाकर नाटक खेल सकता है.

इसी तरह के अन्य उदहारण में एक बेहद सुलझा हुआ, समझदार विनम्र आँफिसर एक सफेदपोश दरिन्दे के रूप में उभर कर आया. हुआ ये कि उसके नीचे कार्य करने वाला एक Executive के सामने रूटीन में बताई. इस पर उस एग्जीक्यूटिव को शाबासी मिली. उसको शाबासी देने में यह आँफिसर स्वयं भी था. परन्तु इस एपीसोड एक बाद यह आँफिसर उस Executive के पीछे अप्रत्यक्ष रूप से हाथ धोकर पड़ गया. अब वह उसका प्रतिदिन आने-जाने का रिकार्ड रखने लगा. छोटी-छोटी गलतियों पर उसको नोटिस इश्यू करने लगा. और कई मौकों पर उसकी पब्लिक में आलोचना भी करने लगा. उसको वार्षिक वेतन वृद्धि भी अधिक नहीं मिली. अंत में उसको त्यागपत्र देना पडा.

इसलिए मंत्र यही है कि जहाँ तक हो सके एक Executive को दूसरे का पब्लिक में अहम कम करने के जाने अनजाने प्रयासों से बचना चाहिए. उसको दूसरे तरीकों से अपने उद्देश्य हासिल करने चाहिए.

मंत्र:  किसी भी फील्ड में आप क्यों न हो? हमेशा जूनियर और सीनियर के अहम का ध्यान रखें.  

विज्ञापनों में उलझ न जाएं बच्चे

युवराज की उम्र महज दस साल है, लेकिन जब पिज्जा या बर्गर की बात आती है, तो उसके माता-पिता के लिये उसे मनाना काफी मुश्किल होता है. इस दस वर्षीय बालक के पिता सुब्रमण्यम को काफी मान-मनुहार के बाद आखिरकार बेमन से ही सही, लेकिन उसे हफ्ते में एक दिन पिज्जा या बर्गर खिलाने की मंजूरी देनी ही पडी, इस वादे के साथ कि बाकी छः दिन वह अपनी माँ के द्वारा पकाया हुआ खाना खाएगा. हमारे ज्यादातर घरों में कुछ ऐसे ही हालात हो सकते हैं. अगर ऐसा नहीं होता तो डायबिटीज फाउंडेशन आँफ इंडिया जैसे संस्थानों को आँन रिकाँर्ड यह कहना नहीं पड़ता कि 'जंक फ़ूड के विज्ञापनों का बच्चों की आदतों पर गहरा प्रभाव पड़ता है.' विश्व स्वास्थ्य संगठन (W.H.O) के मुताबिक़ दुनिया में कम से कम 4 करोड़ 30 लाख प्री-स्कूली बच्चे ( जिनकी उम्र पांच साल से कम है ) मोटापे का शिकार हैं और इनमें से 3 करोड़ 50 लाख बच्चे भारत जैसे विकासशील देशों में रहते हैं. एक सर्वे के अंतर्गत कम से कम 54 फीसदी बच्चों का कहना था कि वे घर में पकाए गए खाने के बजाय विज्ञापनों में दिखाए गए खाघ उत्पादों को लेना ज्यादा पसंद करेंगे.

W.H.O ने दुनिया के तमाम देशों से अपील की है कि वे अपने बच्चों को इस तरह के विज्ञापनों से दूर रखें. इस सन्दर्भ में उसने कुछ अंतरराष्टीय अनुशंसाओं को लागू करने का सुझाव भी दिया है. गौरतलब है कि पिछले साल मई में W.H.O ने बच्चों के लिये खाघ पर्दार्थों की मार्केटिंग के सन्दर्भ में अंतरराष्टीय अनुशंसाओं का एक सेट तैयार किया था, लेकिन हमारे जैसे देश में इनका क्रियान्वयन नहीं के बराबर देखने में आता है. जहाँ कई देशों ने अपने यहाँ अस्वास्थ्यकर उत्पादों की मार्केटिन को नियंत्रित करते हुए इनके विज्ञापनों को टेलीविजन या रेडियो पर प्रसारित करना बंद कर दिया है, वहीं भारत समेत ऐसे कई देश हैं, जिन्हों अब इस दिशा में कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया है. इस तरह का नियंत्रण भारत के लिये बहुत अहम है, क्योंकि हम एक ऐसे देश हैं, जहाँ युवाओं की काफी तादाद है और यदि आज इसे नियंत्रित नहीं किया गया तो आज से छह या सात साल बाद हमार्रे यहाँ मोटे लोगों की विशाल आबादी होगी.

फंडा यह है कि...
बच्चे विज्ञापनों का सबसे आसान लक्ष्य हैं. अभिभावकों को देखना होगा कि कोई भी उनके बच्चों का इस्तेमाल (वह भी उनकी सेहत की कीमत पर) न कर सके.

30 जनवरी 2011

तांत्रिक क्रियाओं तथा आत्माओं का सपनों पर प्रभाव

आदमी के मन को तथा आत्मा को जानना एक अध्यात्मिक विषय है। अभी विज्ञानिकों ने मात्र शरीर के बारे में ही जाना है। इस लिए बहूदा यह भ्राँति बनी रहती है कि क्या जो हमारे वेद शास्त्र या धर्म-ग्रंथ कहते हैं, वह अकारण ही कहा गया है? इस वि्षय पर आज का आधुनिक कहे जानें वाला समाज विश्वास क्यूँ नही कर पाता? उसे क्यों लगता है कि यह अंधविश्वास है? हम आयुर्वेद में कही बातों को तो मान लेते हैं, लेकिन अध्यात्मिक विषय पर कही बातों को स्वीकारनें से हम क्यों इंन्कार करते हैं?...इस विषय पर किसी अन्य पोस्ट पर चर्चा करेगें। पहले हम तांत्रिक क्रियाओं तथा आत्माओं का सपनों पर क्या प्रभाव पड़ता है इसके बारे में जानें।

जो लोग धर्म-कर्म पर विश्वास रखते हैं वह जानते हैं कि हम जैसे धर्म भीरू कहे जाने वाले लोग जरा -सी परेशानी आ जाने पर झट से किसी भी देवी-देवता या अपनें इष्ट देव के प्रति मन्नत मान लेते हैं, कि यदि हम इस से निजात पा गए तो आप को प्रसाद चड़ाएंगें। या फिर किसी कार्य के पूरा होनें पर जागरण, कीर्तन, या भोजन आदि करवाएंगें।

लेकिन इस भाग -दोड़ की जिन्दगी में कई बार,जो मन्नत हम मानते हैं वह भूल जाते हैं। उस समय हम में से कुछ लोगों को सपनें आनें लगते हैं। हमारे पूर्वज सपनों में आ आ कर किसी चीज की माँग करते हैं। या फिर डरावनें सपनें आनें लगते हैं। कुछ लोग यह कह सकते हैं कि यह इस लिए होता है की हमारे अचेतन मन में वह बात बैठी रहती है, जो अवसर पा कर सपनों के रूप में हमें दिखाई देनें लगती है।यह बात भी सही हो सकती है,लेकिन अध्यात्मिक विज्ञान बहुत जटिल है इस लिए कुछ भी दावे के साथ नही कहा जा सकता।

एक दूसरा कारण किसी तांत्रिक द्वारा किया गया कोई टोना-टोटका जो की अकसर आप चौराहों पर या किसी अंधेरी जगह, पीपल के या किसी अन्य पेड़ के नीचे,किया हुआ देखते हैं। उन किए हुए टोटकों पर गलती से पैर पड़ जानें या किसी प्रकार से निरादर हो जानें के कारण उस टोट्के के प्रभाव के कारण भी रात को डरावनें या अजीबों गरीब सपनें आनें लगतें हैं।

तीसरा कारण यह भी हो सकता है कि किसी द्वारा आप पर कोई तांत्रिक क्रिया की गई हो तो ऐसे में भी आप को इस तरह के सपनें आ सकते हैं। तथा अतृप्त आत्माओं के आस-पास होनें पर भी ऐसे सपनें आते हैं।


कई बार पूर्व जन्म के किए कृत्यों के कारण भी ऐसे सपनें आते हैं। बहुत से लोग इस बात को भी मानते हैं। ज्यादा तर देखा गया है कि अध्यात्मिक व बहुत अधिक संवेदनशील व्यक्तियों को ही अधिकतर ऐसे सपनें आते हैं। इस तरह से और भी बहुत कारण हो सकते हैं जिस का अभी हमें बिल्कुल भी पता नही है, जो हमारी नींद मे सपनॆ बन कर आते हैं।

स्वप्न-विचारः सपने क्यूँ आते हैं?

इन्सान मे यह गुण है कि वह सपनों को सजाता रहता है या यूँ कहे कि भीतर उठने वाली हमारी भावनाएं ही सपनो का रूप धारण कर लेती हैं। इन उठती भावनाओं पर किसी का नियंत्रण नही होता। हम लाख चाहे, लेकिन जब भी कोई परिस्थिति या समस्या हमारे समक्ष खड़ी होती है, हमारे भीतर भावनाओं का जन्म होनें लगता है। ठीक उसी तरह जैसे कोई झीळ के ठहरे पानी में पत्थर फैंकता है तो पानी के गोल-गोल दायरे बननें लगते हैं। यह दायरे प्रत्येक इन्सान में उस के स्वाभावानुसार होते हैं। इन्हीं दायरों को पकड़ कर हम सभी सपने बुननें लगते हैं। यह हमारी आखरी साँस तक ऐसे ही चलता रहता है।

इसीलिए हम सभी सपने दॆखते हैं। शायद ही ऐसा कोई इंसान हो जिसे रात को सोने के बाद सपनें ना आते होगें। जो लोग यह कहते हैं कि उन्हें सपनें नही आते, या तो वह झूठ बोल रहे होते हैं या फिर उन्हें सुबह उठने के बाद सपना भूल जाता होगा। हो सकता है उन की यादाश्त कमजोर हो। या फिर उनकी नींद बहुत गहरी होती होगी। जैसे छोटे बच्चों की होती है। उन्हें आप सोते समय अकसर हँसता-रोता हुआ देखते रहे होगें, ऐसी गहरी नींद मे सोने वाले भी सपनों को भूल जाते हैं और दावा करते हैं कि उन्हें सपनें नही आते। लेकिन सपनों का दिखना एक स्वाभाविक घटना है। इसलिए यह सभी को आते हैं।

लेकिन हमें सपने आते क्यूँ हैं ?
इस बारे में सभी स्वप्न विचारकों के अपने-अपने मत है। कुछ विचारक मानते हैं कि सपनॊं का दिखना इस बात का प्रमाण है कि आप के भीतर कुछ ऐसा है जो दबाया गया है। वहीं सपना बन कर दिखाई देता है। हम कुछ ऐसे कार्य जो समाज के भय से या अपनी पहुँच से बाहर होने के कारण नही कर पाते, वही भावनाएं हमारे अचेतन मन में चले जाती हैं और अवसर पाते ही सपनों के रूप में हमे दिखाई देती हैं। यह स्वाभाविक सपनों की पहली स्थिति होती है।

एक दूसरा कारण जो सपनों के आने का है, वह है किसी रोग का होना। प्राचीन आचार्य इसे रोगी की "स्वप्न-परिक्षा" करना कहते थे।

हम जब भी बिमार पड़ते हैं तो मानसिक व शरीरिक पीड़ा के कारण हमारी नींद या तो कम हो जाती है या फिर झँपकियों का रूप ले लेती है। ऐसे में हम बहुत विचित्र-विचित्र सपने देखते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि बहुत डरावनें सपने आने लगते हैं। जिस कारण रात को कई-कई बार हमारी नींद खुल जाती है और फिर भय के कारण हमे सहज अवस्था मे आने में काफी समय लग जाता है। 

इस बारे में प्राचीन आयुर्वेदाचार्यों का मानना है कि रोगी अवस्था मे आने वाले सपनें अकसर रोग की स्थिति की ओर संकेत करते हैं। वे आचार्य रोगी के देखे गए सपनों के आधार पर रोग की जटिलता या सहजता का विचार करने में समर्थ थे। वह इन का संम्बध, उन रोगीयों की मानसिक दशाओ की खोज का विषय मानते थे और उसी के परिणाम स्वरूप जो निष्कर्ष निकलते थे, उसी के अनुसार अपनी चिकित्सा का प्रयोग उस रोग का निदान करने मे करते थे। उन आचार्यों के स्वप्न विचार करने के कुछ उदाहरण देखें-
1.  यदि रोगी सिर मुंडाएं, लाल या काले वस्त्र धारण किए किसी स्त्री या पुरूश को सपने में देखता है या अंग भंग व्यक्ति को देखता है तो रोगी की दशा अच्छी नही है।
2. यदि रोगी सपने मे किसी ऊँचे स्थान से गिरे या पानी में डूबे या गिर जाए तो समझे कि रोगी का रोग अभी और बड़ सकता है।
3. यदि सपने में ऊठ, शेर या किसी जंगली जानवर की सवारी करे या उस से भयभीत हो तो समझे कि रोगी अभी किसी और रोग से भी ग्र्स्त हो सकता है।
4. यदि रोगी सपने मे किसी ब्राह्मण, देवता राजा गाय, याचक या मित्र को देखे तो समझे कि रोगी जल्दी ही ठीक हो जाएगा।
5. यदि कोई सपने मे उड़ता है तो इस का अभिप्राय यह लगाया जाता है कि रोगी या सपना देखने वाला चिन्ताओं से मुक्त हो गया है।
6. यदि सपने मे कोई मास या अपनी प्राकृति के विरूध भोजन करता है तो ऐसा निरोगी व्यक्ति भी रोगी हो सकता है।
7. यदि कोई सपने में साँप देखता है तो ऐसा व्यक्ति आने वाले समय मे परेशानी में पड़ सकता है। या फिर मनौती आदि के पूरा ना करने पर ऐसे सपनें आ सकते हैं।

ऊपर दिए गए उदाहरणों के बारे मे एक बात कहना चाहूँगा कि इन सपनों के फल अलग- अलग ग्रंथों मे कई बार परस्पर मेल नही खाते। लेकिन यहाँ जो उदाहरण दिए गए हैं वे अधिकतर मेल खाते हुए हो, इस बात को ध्यान मे रख कर ही दिए हैं।

ऐसे अनेकों सपनों के मापक विचारों का संग्रह हमारे प्राचीन आयुर्वेदाचार्यों ने जन कल्याण की भावना से प्रेरित हो, हमारे लिए रख छोड़ा है। यह अलग तथ्य है कि आज उन पर लोग विश्वास कम ही करते हैं।

यहाँ सपनों के आने का तीसरा कारण भी है। वह है सपनों के जरीए भविष्य-दर्शन करना।

हम मे से बहुत से ऐसे व्यक्ति भी होगें जिन्होंने सपनें मे अपने जीवन मे घटने वाली घटनाओं को, पहले ही देख लिया होगा। ऐसा कई बार देखने मे आता है कि हम कोई सपना देखते हैं और कुछ समय बाद वही सपना साकार हो कर हमारे सामने घटित हो जाता है। यदि ऐसे व्यक्ति जो इस तरह के सपने अकसर देखते रहते हैं और उन्हें पहले बता देते हैं, ऐसे व्यक्ति को लोग स्वप्न द्रष्टा कहते हैं।

हमारे प्राचीन ग्रंथों में भी कई जगह ऐसे सपने देखनें का जिक्र भी आया है, जैसे तृजटा नामक राक्षसी का उस समय सपना देखना, जब सीता माता रावण की कैद मे थी और वह सपनें मे एक बड़े वानर द्वारा लंका को जलाए जाने की बात अपनी साथियों को बताती है। यह भी एक सपने मे भविष्य-दर्शन करना ही है।

कहा जाता है कि ईसा मसीह सपनों को पढना जानते थे। वह अकसर लोगो द्वारा देखे सपनों की सांकेतिक भाषा को सही-सही बता देते थे। जो सदैव सत्य होते थे।

आज की प्रचलित सम्मोहन विधा भी भावनाऒं को प्रभावित कर, व्यक्ति को सपने की अवस्था मे ले जाकर, रोगी की मानसिक रोग का निदान करने में प्रयोग आती है। वास्तव मे इस विधा का संम्बध भी सपनों से ही है। इस मे भावनाओं द्वारा रोगी को कत्रिम नींद की अवस्था मे ले जाया जाता है।

कई बार ऐसा होता है कि हम जहाँ सो रहे होते है, वहाँ आप-पास जो घटित हो रहा होता है वही हमारे सपने में जुड़ जाता है। या जैसे कभी हमे लघुशंका की तलब लग रही होती है तो हम सपने भी जगह ढूंढते रहते हैं। हमारा सपना उसी से संबंधित हो जाता है।

पुरानी मान्यताओं के अनुसार कईं बार अतृप्त आत्माएं भी सपनों मे आ-आ कर परेशान करती हैं...ऐसे में अक्सर रात को सोते में शरीर का भारी हो जाना...और सपने मॆ भय से चिल्लानें में आवाज का ना निकल पाना, महसूस होता है। दूसरों द्वारा किए गए तंत्र-मंत्र या जादू टोनों के प्रभाव के कारण भी रात को डरावने सपनें आते हैं।

बेहतर सेक्स के लिए बेहतर भोजन

जिस तरह अच्छा भोजन आपको शरीर और मन से स्वस्थ रखता है, ठीक उसी तरह अच्छा भोजन आपको सेक्स लाइफ में भी फिट रखता है। सारी दुनिया में खानपान से जुड़ी ऐसी तमाम मान्यताएं हैं, जिन्हें मनुष्य के यौन जीवन में प्रभावी माना जाता था। आज भी यह माना जाता है कि अपने खाने में थोड़ा सा परिवर्तन करके आप अपनी सेक्स लाइफ को बेहतर बना सकते हैं और यहां तक कि बहुत सी यौन दुर्बलताओं पर काबू पा सकते हैं। आइए एक नजर डालें कुछ इसी तरह की खानपान परंपराओं पर जो कि अनुभव की कसौटी पर भी खरी साबित हुई हैं।

शहदः फारसी कहावत के मुताबिक कोई भी जोड़ा लगातार तीस दिनों तक शहद और पानी का सेवन करता है तो उनकी वैवाहिक जीवन बहुत सुखमय और स्वर्गिक आनंद से भरा हुआ होता है। दरअसल इस मान्यता के पीछे वैज्ञानिक आधार यह है कि शहद में उच्च गुणवत्ता वाले अमीनो-एसिड और कार्बोहाइड्रेट्स होते हैं जो दंपति को लंबी यौनक्रिया के लिए पर्याप्त ऊर्जा प्रदान करते हैं।

गाजरः इसे पुरुषों में यौन शक्ति बढ़ाने वाला माना जाता है। लंबे समय से गाजर का इस्तेमाल पु्रुषों की यौन क्षमता को मजबूती प्रदान करने में होता आया है। माना जाता है कि गाजर में मौजूद विटामिन्स का सामंजस्य व्यक्ति के स्नायु तंत्र को मजबूत बनाता है और व्यक्ति के जीवन में यौन सक्रियता लाता है।

सरसों: वर्षों से सरसों को सेक्सुअल ग्लैंड्स के लिए लाभकारी माना जाता है। मान्यता है कि सरसों के इस्तेमाल से स्त्री-पुरुष में यौन भावना को बढ़ाता है।

अदरकः इसकी तीखी खुशबू और स्वाद का यौन भावना से सीधा रिश्ता है। इसमें मौजूद तत्व व्यक्ति के भीतर रक्त संचार को तेज करते हैं। इसीलिए इसे हर लिहाज से एक बेहतर सेक्स उत्प्रेरक माना जाता है।

चाकलेटः इसमें मौजूद तत्व मस्तिष्क से एक खास तरह के हारमोन के रिसाव को प्रेरित करते हैं। इस हारमोन की मौजूदगी व्यक्ति में शांति और आनंद की भावना को लाता है, जो कि सेक्स उत्प्रेरक का काम करता है। आम तौर पर डार्क चाकलेट एक बेहतर सेक्स उत्प्रेरक का काम करती है।

समुद्री भोजन: यह लिस्ट काफी लंबी हो सकती है। बहुत सी खाने-पीने की चीजें सीधे यौन शक्तिवर्धन से जुड़ी हुई मानी जाती हैं। आम तौर पर समुद्री भोजन को एक बेहतर सेक्स उत्प्रेरक माना जाता है। जहां एक तरफ सेक्स क्षमता को बढ़ाने में इस तरह की बहुत सी खानपान से जुड़ी मान्यताएं काफी कारगर साबित हुई हैं वहीं दूसरी तरफ इस बारे में किसी तरह की वैज्ञानिक जागरुकता के अभाव में भ्रामक धारणाएं भी कम नहीं हैं।

कुछ भ्रामक धारणाएं
इन भ्रामक धारणाओं में बाघ व कछुए का मांस तथा स्पेनिश फ्लाई को यौन शक्तिवर्धक मान लिया गया है। इन धारणाओं से जहां बाघ और कछुए जैसी खतरे में मानी जाने वाली प्रजातियों को मारकर उनका मांस चोरी-छिपे बेचा जाता है, वहीं स्पेनिश फ्लाई में मौजूद जहरीले तत्व थोड़ी देर के लिए यौन उत्तेजना तो देते हैं मगर वे शरीर तथा मनुष्य की सेक्स क्षमता को गंभीर नुकसान पहुंचाते हैं। इसलिए बेहतर होगा कि बेहतर सेक्स के लिए स्वास्थ्यवर्धक खाने की आदत डालें। बेहतर स्वास्थ्य बेहतर सेक्स की कुंजी है।