21 अगस्त 2010

सेक्स बोरिंग कब ( When Boring Sex ? )

विवाह के कुछ  वर्ष बाद न सिर्फ जीवन में बल्कि सैक्स लाइफ में भी एकरसता आ जाती है। कई बार कुछ दम्पती इस की तरफ से उदासीन भी हो जाते हैं और इस में कुछ नया न होने के कारण यह रूटीन जैसा भी हो जाता है। रिसर्च कहती है की दाम्पत्य जीवन को खुशहाल व तरोताजा बनाए रखने में सेक्स का महत्वपूर्ण योगदान है। लेकिन यदि यही बोरिंग हो जाए तो क्या किया जाए ?

पसंद का परफ्यूम लगाएं
अक्सर महिलाएं सेक्स के लिए तैयार होने में पुरूषों से ज्यादा समय लेती हैं और कई बार इस वजह से पति को पूरा सहयोग भी नहीं दे पाती। इसलिए यदि आज आप का मूड अच्छा है तो आप वक्त मिलाने का या बच्चों के सो जाने का इंतज़ार न करें। अपने पति के आँफिस से घर लौटने से पहले ही या सुबह आँफिस जाते समय कानों के पाचे या गले के पास उन के पसंद का कोलों, परफ्यूम लगाएं, वही खुशबू, जो वे रोज लगाते हैं। पुरुषों के परफ्यूम की महक महिलाओं की उत्तेजना बढ़ाती है और सेक्स के लिये उन का मूड बनाती है।

साइक्लिंग करें
आइक्लिंग जैसे व्यायाम करने वाले पुरुषों का ह्रदय बेहतर तरीके से काम करता है और ह्रदय व यौनांगों की धमनियों व शिराओं में रक्त के बढे हुए प्रवाह के कारण वे बेडरूम में अच्छे प्रेमी साबित होते हैं। महिलाओं पर भी साइक्लिंग का यही प्रभाव पड़ता है। तो क्यों न सप्ताह में 1 बार आप साइक्लिंग का प्रोग्राम बनाएं, हालांकि साइक्लिंग को सेक्स विज्ञानी हमेशा से शक के दायरे में रखते हैं, क्योंकि ज्यादा साइक्लिंग करने से साइकिल की सीट पर पड़ने वाले दबाव के कारण नपुंसकता हो सकती है। लेकिन कभीकभी साइक्लिंग करने वाले लोगों को ऐसी कोई समस्या नहीं पड़ती।






स्वस्थ रहें
शारीरिक क्रिया, जिस के द्वारा आप के शरीर के रक्तप्रवाह की मात्रा कम होती है, सेक्स से जुडी उत्तेजना को कम करती है। सिगरेट या शराब पीना, अधिक वसायुक्त भोजन लेना, कोई शारीरिक श्रम न करना शरीर के रक्तप्रवाह में गतिरोध उत्पन्न कर के सेक्स की उत्तेजना को कम करता है। एक स्वस्थ दिनचर्या ही आप की सेक्स प्रक्रिया को बेहतर बना सकती है।

दवाइयां
वे दवाइयां, जिन्हें हम स्वस्थ रहने के लिये खाते हैं, हमारी सेक्स लाइफ का स्विच ऑफ कर सकती हैं। इन में से सब से ज्यादा बदनाम ब्लडप्रेशर के लिये ली जाने वाली दवाइयां और एंटीडिप्रेसेंटस हैं। इन के अलावा गर्भनिरोधक गोलियां और कई गैरहानिकारक दवाइयां भी सेक्स की दुश्मन हैं. इसलिए कोई नई दवा लेने के पहले कारण यदि आप को सेक्स के प्रति रुचि में कोई कमी महसूस हो रही हो तो अपने डाँक्टर से बात करें।

सोने से पहले ब्रश
बेशक आप अपने साथी से बेंतहा प्रेम करती हों, लेकिन अपने शरीर की साफसफाई का ध्यान अवश्य रखें। ओरल हाइजीन का तो सेक्स कीड़ा में महत्वपूर्ण स्थान है। यदि आप के मुंह से दुर्गन्ध आती हो तो आप का साथी आप से दूर भागेगा। इसलिए रात को सोने से पहले किसी अच्छे फ्लेवर वाले टूथपेस्ट से ब्रश जरूर करें।

स्पर्श की चाहत को जगाएं
आमतौर पर लोगों को गलतफहमी होती है की अच्छे सेक्स कीड़ा के लिये पहले से मूड होना या उत्तेजित होना आवश्यक है, लेकिन यह सत्य नहीं है। एकसाथ समय बिताएं, बीते समय को याद करें, एकदूसरे को बांहों में भरें। कभीकभी घर वालों व बच्चों की नजर बचा कर एकदूसरे को स्पर्श करें, फुट मसाज करें। ऐसी चोतीचोती चुहलबाजी भी आप का मूड फ्रेश करेगी और फोरप्ले का काम भी।

थ्रिलर मूवी देखें
वैज्ञानिकों का मानना है की डर और रोमांस जैसी अनुभूतियाँ मष्तिष्क के एक ही हिस्से से उत्पन्न होती हैं, इसलिए कभीकभी कोई डरावनी या रोमांचक मूवी एकसाथ देख कर आप स्वयं को सेक्स के लिये तैया कर सकते हैं।

फ्लर्ट करें
वैज्ञानिकों का मानना है कि फ्लर्टिंग से महिलाओं के शरीर में आक्सीटोसिन नामक हारमोन का स्त्राव होता है, जो रोमांटिक अनुभूतियाँ उत्पन्न करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसलिए दोस्तों व सहेलियों के बीच सेक्सी जोक्स का आदानप्रदान करें, कभीकभी किसी हैंडसम कुलीग, दोस्त के साथ फ्लर्ट भी कर लें। अपने पति के साथ भी फ्लर्टिंग का कोई मौका ना छोड़ें। आप स्वयं सेक्स के प्रति अपनी बदली रुचि को देख कर हैरान हो जाएंगे।

19 अगस्त 2010

रामायण - अयोध्याकाण्ड - तमसा के तट पर ( Ramayan - Ayodhyakand - Tamasa on the coast )

रथ के पीछे आती प्रजाजनों की भीड़ को देखकर राम ने रथ रुकवाया और प्रजाजनों को सम्बोधित करते हुये कहा, "मेरे प्यारे अयोध्यावासियों! तुम लोग जो मुझे बार-बार अयोध्या लौट चलने का आग्रह कर रहे हो, उसका एकमात्र कारण तुम लोगों का मेरे प्रति अटूट और निश्छल प्रेम है जिसे टालना अत्यन्त कठिन है। किन्तु तुम जानते हो कि मैं इस विषय में पूर्णतया विवश हूँ। तुम लोग कदापि नहीं चाहोगे कि मैं पिता की आज्ञा भंग कर दूँ और पाप का भागी बनूँ। तुम लोगों के लिये यही उचित है कि मुझे प्रेमपूर्वक वन के लिये विदा करो और भरत को राजा मानकर उसके निर्देशों का पालन करो। " राम ने और भी कई प्रकार से प्रजाजनों को समझा-बुझा कर सुमन्त को रथ चलाने के लिये कहा।

रथ के चलते ही प्रजाजन भी रोते-बिलखते रथ के पीछे चलने लगे। वे राम के द्वारा दिये गये उपदेशों और निर्देशों को क्रियान्वित तो करना चाहते थे किन्तु राम-लक्ष्मण के प्रेम की डोर में इस प्रकार बँधे थे कि बरबस रथ के पीछे चले जा रहे थे। उनका मस्तिष्क उन्हें लौटने के लिये प्रेरित कर रहा था, परन्तु हृदय उन्हें बलात् रथ के साथ घसीटे लिये जा रहा था। इस प्रकार भावनाओं में बहते हुये वे रथ के पीछे दौड़े जा रहे थे। राम ने सुमन्त से रथ को और तेज चलाने का आग्रह किया और रथ की गति तेज हो गई।

तमसा नदी के तट पर पहुँचते-पहुँचते रथ के घोड़े भी विश्राम चाहने लगे थे, इसलिये मन्त्री सुमन्त ने रथ वहीं रोक दिया। राम, सीता और लक्ष्मण तीनों रथ से उतर आये। थोड़ी देर वे तमसा के तट पर खड़े होकर उसमें उठने गिरने वाली लहरों का आनन्द लेते रहे। इतने में ही वे सहस्त्रों अयोध्यावासी वहाँ आ पहुँचे जो रोते-बिलखते रथ के पीछे चले आ रहे थे, कन्तु रथ की गति के साथ न चल सके थे। वे चारों ओर से इन तीनों को घेर कर बैठ गये और नाना प्रकार के भावुकतापूर्ण तर्क देकर उनसे अयोध्या लौट चलने का आग्रह करने लगे। पहले तो रामचन्द्र ने उन्हें अनेक प्रकार से धैर्य बँधाया। जब वे कुछ शान्त हुये तो उन्होंने प्रजाजनों को प्रेमपूर्वक समझाया कि उन सभी को वापस लौट जाना चाहिये। राम तथा प्रजाजनों के संवाद के चलते-चलते रात्रि गहरी होने लगी। तब दिन भर की भूख प्यास और लम्बी यात्रा की थकान से आक्रान्त हुये अयोध्यावासी वहीं वन के वृक्षों के कन्द-मूल-फल खाकर भूमि पर सो गये। प्रातः हो गई किन्तु थके हुये अयोध्यावासियों की नींद नहीं टूटी।

उधर ब्राह्म-मुहूर्त में रामचन्द्र उठकर लक्ष्मण से बोले, "भैया! हमारे प्रेम के वशीभूत इन प्रजाजनों का यह त्यागपूर्ण कष्ट मुझसे नहीं देखा जाता। उचित यही है कि हम लोग चुपचाप यहाँ से निकल पड़ें। इस लिये हे लक्ष्मण! तुम शीघ्र जाकर सारथी से तत्काल रथ तैयार करवा लो। ध्यान रखना कि किसी प्रकार की आहट न हो वरना ये जाग कर फिर हमारे साथ हो लेंगे।" राम की आज्ञा पाकर लक्ष्मण ने रथ को थोड़ी दूर पर एक निर्जन स्थान में खड़ा करवा दिया। फिर तीनों धीरे-धीरे रथ के पास पहुँचे और उसमें सवार होकर तपोवन की ओर चल दिये। पुरवासियों को आभास तक नहीं मिला।

निद्रा भंग होने पर वे सब उन्हें ढूँढने लगे। बहुत दूर तक रथ की लीक के पीछे-पीछे तक गये। किन्तु आगे का मार्ग कँकरीला-पथरीला होने के कारण रथ के लीक के चिह्न दिखाई देना बन्द हो गया। लाख प्रयत्न करने पर भी जब वे रथ के मार्ग का अनुसरण न कर सके तो विलाप करते हुये निराश मन से अयोध्या के लिये लौट पड़े।

रामायण - अयोध्याकाण्ड - वन के लिये प्रस्थान ( Ramayan - Ayodhyakand - One for the departure )

सुमन्त के रथ ले आने पर राम, सीता और लक्ष्मण ने सभी लोगों का अभिवादन किया और रथ पर चढ़कर चलने को उद्यत हुये। ज्योंही सुमन्त ने अश्वों की रास सम्भालकर रथ हाँका, त्योंही अयोध्या के लाखों नागरिक 'हा राम! हा राम!!' कहते हुये उस रथ के पीछे दौड़ पड़े। जब रथ की गति कुछ तेज हुई और नगर निवासी रथ के साथ-साथ न दौड़ सके तो वे बड़े जोर-जोर से चिल्ला-चिल्ला कर कहने लगे, "रोको-रोको, हम राम के दर्शन करेंगे। न जाने भगवान फिर कब हमें इनके दर्शन करायगा।" उधर राजा दथरथ भी कैकेयी के प्रकोष्ठ से निकल कर'हाय राम! हे राम!!' कहते-कहते उन्मत्त की भाँति रथ के पीछे दौड़ने लगे। महाराज को हाँफते हुये दौड़ते देखकर रथ को रोक कर मन्त्री सुमन्त बोले, "पृथ्वीपति! ठहर जाइये। इस प्रकार राजकुमारों के पीछे न दौड़िये। ऐसा करना पाप है। राम तो आपकी आज्ञा से ही वन जा रहे हैं, इसलिये उन्हें रोकना सर्वथा अनुचित है।" मन्त्री की बात सुन राजा वहीं रुक गये।

रथ आगे बढ़ गया और प्रजाजन रोते बिलखते पीछे पीछे दौड़ते रहे। जब तक रथ की धूलि दिखाई देती रही, महाराज अपने स्थान पर चित्रलिखित से उसे एकटक निहारते रहे। जब धूलि दिखना भी बन्द हो गया तो वे वहीं 'हा राम! हा लक्ष्मण!!' कहतकर भूमि पर गिर पड़े और मूर्छित हो गये। तत्काल उन्हें उठाकर मन्त्रियों ने एक स्थान पर लिटाया। मूर्छा भंग होने पर वे मृतप्राय व्यक्ति की भाँति अस्फुट स्वर में धीरे-धीरे कहने लगे, "अब मेरा जीवन व्यर्थ है। इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में मेरे जैसा अभागा व्यक्ति शायद ही कोई होगा जिसके दो-दो पुत्र एक साथ वृद्ध पिता को बिलखता छोड़कर घर से चले जायें।" फिर मन्त्रियों से बोले, "मुझे महारानी कौशल्या के महल में ले चलो। वहाँ के अतिरिक्त मुझे अन्यत्र कहीं भी शान्ति नहीं मिलेगी। मैं अपना शेष जीवन वहीं काटना चाहता हूँ।"

कौशल्या के महल में महाराज राम और लक्ष्मण के वियोग में एक बार फिर से मूर्छित हो गये। महारानी कौशल्या विलाप करने लगीं। उनके विलाप को सुनकर महारानी सुमित्रा भी वहाँ गईं। उन्होंने कौशल्या को बहुत प्रकार से समझाकर शान्त किया। इसके पश्चात् दोनों रानियाँ महाराज दशरथ की मूर्छा भंग करने के प्रयास में जुट गईं।

रामायण - अयोध्याकाण्ड - राम के द्वारा दान ( Ramayan - Ayodhyakand - Donated by Ram )

राम की आज्ञा से लक्ष्मण गुरु वशिष्ठ जी के पुत्र सुयज्ञ को अपने साथ लिवा लाये। राम ने श्रद्धापूर्वक दोनों हथ जोड़कर जनकनन्दिनी सीता के साथ उनकी प्रदक्षिणा की। फिर अपने पहनने के स्वर्ण कुण्डल, बाजूबन्द, कड़े, मालाएँ तथा रत्नजटित अन्य आभूषणों को भी उन्हें देते हुये बोले, "हे सखा! मेरी पत्नी सीता मेरे साथ वन जा रही हैं। इसलिये ये अपने कंकण, मुक्तमाला-किंकणी, हीरे, मोती, रत्नादि समस्त आभूषण आपकी पत्नी के लिये दे रही हैं। आप सीता की ओर से उन्हें सादर समर्पित कर देना। यह स्वर्णजटित पलंग भी आप ले जाइये। मेरे मामा जी ने मुझे यह हाथी स्नेहपूर्वक दिया था, उसे मैं सहस्त्र स्वर्णमुद्राओं के साथ आपको समर्पित करता हूँ।"

राम के वनगमन की बात सुनकर सुयज्ञ को हार्दिक पीड़ा हुई। उनके नेत्र सजल हो गये। फिर उन समस्त वस्तुओं को ग्रहण करके उन्होंने आशीर्वाद दिया, "हे राम! तुम चिरजीवी होओ और तुम्हारा चौदह वर्ष का वनवास तुम्हारे लिये निष्कंटक और कीर्ति देने वाला हो। वनवास की अवधि समाप्त करके लौटने पर तुम पुनः अयोध्या का राजसिंहासन प्राप्त करो।" गुरुपुत्र सुयज्ञ को विदा कर राम ने रोते हुये सेवकों को बहुत सा धन तथा सान्त्वना देते हुये कहा, "तुम लोग अयोध्या में रहते हुये महाराज, माता कौशल्या, सुमित्रा, कैकेयी, भरत, शत्रुघ्न एवं अन्य गुरुजनों की तन मन से सेवा करना। उन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो इसका सदैव ध्यान रखना।" इसके पश्चात् राम ने वह सारा द्रव्य मँगवाया जो उनकी व्यक्तिगत सम्पत्ति थी और सीता के हाथों से उसे गरीब, दुःखी, दीन-दरिद्रों में वितरित कराया।

राम और सीता के द्वारा इस प्रकार मुक्त हस्त से दिये जाने वाले दान की चर्चा सारे नगर में दावानल की भाँति फैल गई। उन दिनों अयोध्या के निकट एक ग्राम में गर्गगोत्री त्रिजटा नामक एक तपस्वी ब्राह्मण रहता था। वह अत्यन्त निर्धन था किन्तु उनकी सन्तानें बहुत थीं। वह बड़ी कठिनाई से अपनी गृहस्थी का पालन पोषण कर पाता था। जब उसके पत्नी ने इस प्रकार रामचन्द्र के द्वारा दिये जाने वाले दान की चर्चा सुनी तो वह अपने पति से बोली, "हे स्वामिन्! इस समय अयोध्या के ज्येष्ठ राजकुमार श्री रामचन्द्रजी सर्वस्व दान कर रहे हैं। आप भी उनके पास जाकर याचना क्यों नहीं करते? सम्भव है कि हमारी निर्धनता और दरिद्रता से द्रवित होकर दयालु राम हम पर भी दया करके इस दरिद्रता से हमारा उद्धार कर दें। इसलिये आप शीघ्र ही उनके पास जाकर उन्हें अपनी व्यथा कथा सुनाकर याचना कीजिये।"

पत्नी के बार-बार प्रेरित किये जाने पर याचना में रुचि न रखते हुये भी तपस्वी त्रिजटा श्री राम के दरबार की ओर चल पड़ा और शीघ्र ही एक के बाद एक पाँच ड्यौढ़ियाँ पार करके राम के सामने जा पहुँचा। तपस्वी के तपस्याजनित तेज और ओज को देखकर राम बोले, "हे तपस्वी ब्राह्मण देवता! जिस प्रकार आपकी हृदय गति तीव्रता से चल रही है और शुभ्रभाल पर स्वेद कण झलक रहे हैं, उनसे प्रतीत होता है कि आप बड़ी दूर से और तीव्र गति से आ रहे हैं। आपकी वेषभूषा से ज्ञात होता है कि आपके पास धन का अभाव है। आपके हाथ में जो दण्ड है, उसे आप पूरे बल से फेंकिये। जितनी दूर जाकर वह दण्ड गिरेगा उस स्थान से आपके खड़े होने के स्थान तक जितनी गौएँ खड़ी हो सकेंगी, वे सब आपको अर्पित कर दी जायेंगी। गौओं के साथ उनके भरण पोषण के लिये भी पर्याप्त साधन जुटा दिये जायेंगे।" राम का आदेश पाकर त्रिजटा ने अपने शरीर का पूरा बल लगाकर दण्ड फेंका जो सरयू नदी के दूसरी पार जाकर गिरा। उसके बल की सराहना करते हुये राम ने उसे उतनी ही गौएँ दान में दीं और स्वर्ण, मोती, मुद्राएँ, वस्त्रादि देकर उसे विदा किया। इस प्रकार राम ने असंख्य धनराशि दान देकर सबको सन्तुष्ट किया। इस कार्य से निवृत होकर वे सीता और लक्ष्मण के साथ पिता के दर्शनों के लिये चल पड़े।

रामायण - अयोध्याकाण्ड - पिता के अन्तिम दर्शन ( Ramayan - Ayodhyakand - Father's final vision )

सुमन्त ने राजा दशरथ के कक्ष में जाकर देखा, महाराज भावी पुत्र-वियोग की आशंका से जल-विहीन मछली की भाँति तड़प रहे थे। उन्होंने दोनों हाथ जोड़ कर निवेदन किया, "कृपानिधान! आपके ज्येष्ठ पुत्र धर्मात्मा राम, सीता और लक्ष्मण के साथ आपके दर्शनों की अभिलाषा लिये द्वार पर खड़े हैं। वे तीनों अपना सर्वस्व दान करके माताओं एवं अन्य बन्धु-बान्धवों के पास होते हुये अब आपके दर्शन के लिये पधारे हैं। आज्ञा हो तो उन्हें अन्दर लिवा लाऊँ।" सुमन्त की बात सुनकर महाराज दशरथ ने धैर्य धारण करते हुये कहा, "मन्त्रिवर! राम के अन्दर आने से पहले आप सब रानियों एवं सम्बंधियों को यहाँ बुला लाओ। अब तो निश्चित है कि राम वन को जायेंगे ही। साथ ही यह बात भी पूर्णतया निश्चित है कि राम के जाने पर मेरी मृत्यु भी अवश्य ही होगी। इस लिये मैं चाहता हूँ कि इस प्रयाण बेला में मेरा सारा परिवार यहाँ उपस्थित रहे। ये दोनों महान घटनायें सबके सम्मुख घटित हों।" महाराज की आज्ञा से जब अन्तःपुर की समस्त रानियाँ एवां अन्य स्त्रियाँ वहाँ आ गईं तो उन्होंने राम आदि को भी बुला भेजा।

पिता और माताओं को वहाँ एकत्रित देख राम दोनों हाथ जोड़े हुये उनकी ओर बढ़े। इस प्रकार राम को अपनी ओर आता देख महाराज उन्हें हृदय से लगाने के लिये अपने आसन से उठ खड़े हुये। ज्योंही उन्होंने एक पग आगे बढ़ाया कि अत्यन्त शोक के कारण दुर्बल होने से वे वहीं मूर्छा खाकर गिर पड़े। राम और लक्ष्मण ने तत्काल दौड़ कर उन्हें उठाया और सहारा देकर पलंग पर लिटा दिया। महाराज दशरथ की मूर्छा भंग होने पर राम अत्यन्त विनीत वाणी से बोले, "पिताजी, आप ही हम सबके स्वामी हैं। आप धैर्य धारण करें और कृपा करके हम तीनों को आशीर्वाद दें कि हम चौदह वर्ष की अवधि वन में बिताकर फिर आपके दर्शन करें।"

महाराज दशरथ ने आर्द्र वाणी में कहा, "वत्स! मेरी हार्दिक इच्छा न होते हुये भी मैं तुम्हें वनों में भटकने के लिये भेज रहा हूँ। इस समय मैं इससे अधिक क्या कह सकता हूँ कि जाओ, तुम्हारा मार्ग कल्याणकारी हो। भगवान सदैव तुम्हारी रक्षा करें। आशा न होते हुये भी मैं परमात्मा से प्रार्थना करता हूँ कि वापस लौटने पर तुम्हारा मुख देख सकूँ।"

गुरु वशिष्ठ, महामन्त्री सुमन्त आदि वहाँ उपस्थित सभी लोगों ने एक बार फिर से कैकेयी को अपना वर वापस ले लेने के लिये समझाने का प्रयास किया पर कैकेयी अपने इरादों से टस से मस न हुई।

महाराज दथरथ राम के साथ चतुरंगिणी सेना और अन्न-धन का कोष भेजने की व्यस्था करना चाहते थे किन्तु राम ने विनयपूर्वक इसे अस्वीकार कर दिया। अन्त में महाराज सुमन्त से बोले, "हे मन्त्रिवर! उत्तम घोड़ों से जुता हुआ रथ ले आओ और इन सबको देश की सीमा से बाहर छोड़ आओ।" इतना कह कर राजा फूट-फूट कर रोने लगे। उधर सुमन्त महाराज की आज्ञा से रथ लेने के लिये राजप्रासाद से चल पड़े।

रामायण - अयोध्याकाण्ड - सीता और लक्ष्मण का अनुग्रह ( Ramayan - Ayodhyakand - Sita and Laxman's grace )

राम अपनी माता कौशल्या से विदा ले कर जनकनन्दिनी सीता के कक्ष में पहुँचे। राजसी चिह्नों के बिना राम को अपने कक्ष में आते देख सीता ने पूछा, "प्राणनाथ! आज राज्याभिषेक के दिन मैं आपको राजसी चिह्नों से विहीन देख रही हूँ। इसका क्या कारण है?" राम ने गंभीर किन्तु शान्त वाणी में समस्त घटनाओं के विषय में सीता को बताते हुये कहा, "प्रिये! मुझे आज ही वक्कल धारण करके वन के लिये प्रस्थान करना है। मैं तुमसे विदा लेने आया हूँ। मैं चाहता हूँ कि मेरे जाने के बाद सेवा सुश्रूषा और अपने मृदु स्वभाव से माता-पिता तथा समस्त भरत सहित समस्त परिजनों को प्रसन्न और सन्तुष्ट रखना। जिस प्रकार तुम अब तक मेरी प्रत्येक बात श्रद्धापूर्वक मानती आई हो उसी प्रकार अब भी मेरी इच्छानुसार तुम यहाँ रहकर अपने कर्तव्य का पाल करो।"

सीता बोलीं, "हे आर्यपुत्र! शास्त्रों ने पत्नी को अर्द्धांग माना है। इसका तात्पर्य यह हुआ कि महाराज ने केवल आपको ही नहीं मुझे भी वनवास दिया है। ऐसा कोई विधान नहीं है कि पुरुष का आधा अंग वन में रहे और आधा घर में। हे नाथ! स्त्री की गति तो उसका पति ही होता है। इसलिये मैं भी आपके साथ वन चलूँगी। मैं वन में आपके साथ रहकर आपके चरणों के सेवा करूँगी। स्त्री को पति की सेवा करके जो अनुपम सुख प्राप्त होता है है वह सुख इस लोक में तो क्या परलोक में भी प्राप्त नहीं होता। पत्नी के लिये पति ही परमेश्वर होता है। जिस प्रकार आप कन्द-मूल-फलादि से अपनी उदर पूर्ति करेंगे उसी प्रकार मैं भी अपना पेट भर लूँगी। आपके बिना स्वर्ग का सुख-वैभव भी मुझे स्वीकार्य नहीं है। मेरी इस विनय और प्रार्थना की उपेक्षा करके भी यदि आप मुझे अयोध्या में छोड़ जायेंगे तो जिस क्षण आप वन के लिये पग बढ़ायेंगे उसी क्षण मैं अपने प्राणों को विसर्जित कर दूँगी। इसे आप मेरे प्रतिज्ञा समझें।"

वन के कष्टों का स्मरण करके राम सीता को अपने साथ वन में नहीं ले जाना चाहते थे। जितना ही वे उन्हें समझाने का प्रयत्न करते उतना ही वे अधिक हठ पकड़ती जातीं। राम ने सीता को हर तरह से समझाने बुझाने का प्रयास किया किन्तु वे अनेक प्रकार के शास्त्र सम्मत तर्क करके उनके प्रयास को विफल करती जातीं। अन्त में उनकी दृढ़ता को देख कर राम को उन्हें अपने साथ वन जाने की आज्ञा देनी ही पड़ी। जब लक्ष्मण को राम के साथ वन जाने का समाचार मिला तो वे भी राम के पास आकर उनके साथ जाने के लिये अनुग्रह करने लगे। राम के बहुत तरह समझाया बुझाया कि वे अयोध्या में रह कर माता पिता की सेवा करें किन्तु लक्ष्मण उनके साथ जाने के विचार पर दृढ़ रहे और अन्त में राम को लक्ष्मण को भी साथ जाने की अनुमति देनी ही पड़ी।

कौशल्या और सुमित्रा दोनों माताओं से आज्ञा लेने बाद सीता और लक्ष्मण ने अनुनय विनय कर के महाराज दशरथ से भी वन जाने की अनुमति प्राप्त कर ली। फिर वे शीघ्र आचार्य के पास पहुँचे और उनसे समस्त अस्त्र-शस्त्रादि लेकर राम के पास उपस्थित हो गये। लक्ष्मण के पहुँचने पर राम ने कहा, "वीर! तुम गुरु वशिष्ठ के ज्येष्ठ पुत्र को बुला लाओ क्योंकि वन के लिये प्रस्थान करने के पूर्व मैं अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति ब्राह्मणों, दास दासियों तथा याचकों में वितरित करना चाहता हूँ।"

रामायण - अयोध्याकाण्ड - माता कौशल्या से विदा ( Ramayan - Ayodhyakand - Mata Kaushalya depart from )

राम अपनी माता कौशल्या के पास पहुँचे। उनके अनुज लक्ष्मण भी वहीं थे। माता का चरणस्पर्श करने के पश्चात् उन्होंने कहा, "हे माता! माता कैकेयी द्वारा माँगे गये दो वर देकर पिताजी ने मुझे चौदह वर्ष का वनवास और भाई भरत को अयोध्या का राज्य दिया है। मैं वन के लिये निकल रहा हूँ। आप मुझे आशीर्वाद दे कर विदा कीजिये।" राम के हृदय विदारक इन शब्दों को सुनकर कौशल्या मूर्छित हो गईं। राम ने उन्हें उठाकर उनका यथोचित उपचार किया। मूर्छा भंग होने पर वे विलाप करने लगीँ।

माता कौशल्या को विलाप करते देख कर लक्ष्मण बोले, "माता! मेरी समझ में नहीं आता कि गुरुजनों का सदा सम्मान करने वाले, उनकी आज्ञा का पालन करने वाले मेरे देवता समान भाई को किस अपराध में यह दण्ड दिया गया है? ऐसा प्रतीत होता है कि वृद्धावस्था के कारण पिताजी की बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। राम को उनकी इस अनुचित आज्ञा का पालन नहीं करना चाहिये। वे निष्कंटक राज्य करें। जो भी उनके विरुद्ध सिर उठायेगा, मैं उसे तत्काल कुचल दूँगा। राम की नम्रता और सहनशीलता ही आज उनका अपराध बन गई है। मैं आज आपके सामने प्रतिज्ञा करता हूँ कि राम के राजा बनने में भरत या उनके पक्षपाती यदि कोई बाधा खड़ी करेंगे तो मैं उन्हें उसी क्षण यमलोक भेज दूँगा। मैं आपको यह आश्वासन देता हूँ कि आपके दुःखों को इस प्रकार दूर कर दूँगा जैसे सूर्य अन्धकार को मिटा देता है।"

लक्ष्मण के वचनों से सहारा पाकर कौशल्या ने कहा, "राम! तुम अपने छोटे भाई लक्ष्मण की बातों पर गौर करके और मुझे इस प्रकार बिलखता छोड़कर वन के लिये प्रस्थान न करो। यदि पिता की आज्ञा का पालन करना धर्म है तो माता की आज्ञा न मानना भी तो अधर्म है। मैं तुम्हें आज्ञा देती हूँ कि तुम वन न जाकर अयोध्या में ही रहकर मेरी सेवा करो।" राम माता को धैर्य बँधाते हुये बोले, "माता! आज तुम यह दुर्बल प्राणियों कैसी बातें क्यों कर रही हो? तुमने मुझे सदा से ही पिता की आज्ञा का पालन करने की शिक्षा दी है। आज मेरी सुख सुविधा के लिये अपनी ही दी हुई शिक्षा को झुठला रही हो। और फिर पत्नी के नाते तुम्हारा भी यह कर्तव्य है कि तुम अपने पति की इच्छा के सामने बाधा बनकर खड़ी न हो। माता चाहे सूर्य, चन्द्र और पृथ्वी अपने अटल नियमों से टल जायें, पर यह कदापि सम्भव नहीं है कि राम पिता की आज्ञा का उल्लंघन कर जाये। इसलिये तुम प्रसन्न होकर मुझे वन जाने की आज्ञा प्रदान करो ताकि मुझे यह सन्तोष रहे कि मैंने माता और पिता दोनों ही की आज्ञा का पालन किया है।" फिर वे लक्ष्मण को सम्बोधित करते हुये बोले, "लक्ष्मण! मुझे तुम्हारे साहस, पराक्रम, शौर्य और वीरता पर गर्व है। तुम मुझसे अत्यंत स्नेह करते हो किन्तु सबसे ऊपर स्थान धर्म का है। मैं पिता की आज्ञा की अवहेलना करके पाप, नरक और अपयश का भागी नहीं बनना चाहता। इसलिये हे भाई! तुम क्रोध और क्षोभ का परित्याग करो और मेरे वन गमन में किसी प्रकार की बाधा खड़ी मत करो।"

अपने पुत्र राम का यह दृढ़ निश्चय देखकर नेत्रों में भरे आँसुओं को पोंछती हुई कौशल्या बोलीं, "वत्स! तुम्हें वन जाने की आज्ञा देते हुये मेरा कलेजा मुँह को आता है। यदि तुम्हें वन जाना ही है तो मुझे भी अपने साथ ले चलो।" माता की बात सुनकर राम ने संयमपूर्वक कहा, "माता! पिताजी इस समय अत्यन्त दुःखी हैं और उन्हें प्रेमपूर्ण सहारे की आवश्यकता है। ऐसे समय में यदि आप भी उन्हें छोड़ कर चली जायेंगी तो आप विश्वास कीजिये, उनकी मृत्यु में कोई सन्देह नहीं रह जायेगा। इसलिये इस समय उन्हें मृत्यु के मुख में छोड़कर आप पाप की भागी न बनें। जब तक महाराज जीवित हैं, तब तक उनकी सेवा करना आपका पवित्र कर्तव्य है। इस लिये आप मोह को त्याग कर मुझे वन जाने की अनुमति दें। चौदह वर्ष की अवधि बीतते ही मैं लौटकर आपके दर्शन करूँगा। आप मुझे सहर्ष विदा करें।"

धर्मपरायण पुत्र के तर्कसंगत वचनों को सुनकर माता कौशल्या ने आर्द्रनेत्रों से कहा, "अच्छा पुत्र! तुम वन को जाओं परमात्मा तुम्हारा मंगल करें।" माता ने तत्काल ब्राह्मणों से हवन करा कर हृदय से आशीर्वाद देते हुये राम को विदा किया।

रामायण - अयोध्याकाण्ड - राम का वनवास ( Ramayan - Ayodhyakand - Ram's exile )

रामचन्द्र ने पिता दशरथ और माता कैकेयी के चरणों को स्पर्श करके उनका अभिवादन किया। राम की ओर देखकर महाराज ने एक ठंडी साँस छोड़ते हुये कहा, "हे राम! ......" और इसके आगे कुछ न कह सके। फिर गहरी और लम्बी साँसें छोड़ने लगे। उनके नेत्रों से अश्रु की धारा बहने लगी। राम ने कैकेयी से बड़े विनीत स्वर में पूछा, "हे माता! पिताजी की ऐसी दशा क्यों हो रही है? उनकी इस दशा का कारण यदि आपको ज्ञात है तो मुझे बताइये। यदि वे मुझसे अप्रसन्न हैं तो मैं उन्हें अप्रसन्न करके एक क्षण भी नहीं जीना चाहता।"

कैकेयी ने कहा, "वत्स! महाराज तुमसे तनिक भी अप्रसन्न नहीं हैं। इनके हृदय में एक विचार उठा है जो तुम्हारे विरुद्ध है। इसलिये ये उसे तुमसे भय एवं संकोच के कारण कह नहीं पा रहे हैं। अतः यह बात मैं ही तुम्हें बताती हूँ। देवासुर संग्राम के समय इन्होंने मुझे दो वर देने का वचन दिया था। आज मैंने इनसे वे दोनों वर माँग लिये। अब तुम अपने पिता की सहायता करो ताकि वे अपनी प्रतिज्ञा का निर्वाह कर सकें। प्रतिज्ञा करो कि जो कुछ मैं कहूँगी, उसका तुम अवश्य पालन करोगे तो मैं तुमसे उन वरदानों के विषय में बता सकती हूँ।" राम बोले, "माता! पिता की आज्ञा से मैं अपने प्राण भी त्याग सकता हूँ। इसलिये मैं आपके चरणों की सौगन्ध खाकर प्रतिज्ञा करता हूँ कि आपके वचनों का अवश्य पालन करूँगा।"

राम की प्रतिज्ञा से सन्तुष्ट होकर कैकेयी ने कहा, "राम! मैंने एक वर से भरत के लिये अयोध्या का राज्य और दूसरे से तुम्हारे लिये चौदह वर्ष का वनवास माँगा है। अब यदि तुम अपने आपको और अपने पिता को प्रतिज्ञा पालक के रूप में सिद्ध करना चाहते हो तो इसी समय वक्कल धारण करके वन के लिये प्रस्थान करो। तुम्हारे जाने के पश्चात् भरत का राज्याभिषेक होगा। तुम्हारे मोह के कारण महाराज दुःखी हो रहे हैं। इसलिये तुम अपनी प्रतिज्ञा का पालन करके राजा को पापरूपी सागर से मुक्ति दिलाओ।"

राम ने कैकेयी के वचनों को दुःख और शोक से रहित होकर सुना और मुस्कुराते हुये बोले, "माता! क्या इस छोटी सी बात के लिये ही आप और पिताजी इतने परेशान हो रहे हैं। मैं आज और अभी ही वन को चला जाता हूँ। इसे आप मेरी सत्य प्रतिज्ञा समझें।" राम और कैकेयी के इस संवाद को सुन कर महाराज दशरथ एक बार फिर मूर्छित हो गये। राम मूर्छित पिता और कैकेयी के चरणों में मस्तक नवाकर चुपचाप उस प्रकोष्ठ से बाहर चले गये।

18 अगस्त 2010

9 मिस्टेक्स आँफ सेक्स ( 9 Mistakes of Sex )



निरूद्ध काफी दिनों से देख रहा था की जब भी वह अपनी पत्नी आरती के साथ अन्तरंग सम्बन्ध बनाना चाहता, आरती कोई न कोई बहाना बनाकर टाल देती। रोज की नानुकुर से तंग आकर आख़िरकार अनिरूद्ध ने झल्लाते हुए आरती से कहा, 'यार आरते, तुम्हें हुआ क्या है? जब भी मैं तुमको प्यार करना चाहता हूँ तुम या तो इग्नोर कर देती हो या फिर आज मन मन नहीं है, सिर में दर्द है, जैसे बहाना बनाकर बात को ख़त्म कर देती हो। कम से कम खुलकर तो बताओ बात क्या है?' अनिरूद्ध को गुस्सा करते हुए देख आरती रोने लगी। बड़ी मुश्किल से अनिरूद्ध ने आरती को चुप कराया।

यह परेशानी सिर्फ आरती की नहीं है, बल्कि अधिकतर महिलाओं को इस प्रकार की परेशानी से दो-चार होना पड़ता है, क्योंकि अक्सर महिलाएं अंतरंग पलों में जाने-अनजाने में ऐसी गलतियाँ कर बैठती हैं जो पुरुष को ना पसंद होती हैं और जिसका परिणाम यह होता है की सेक्स लाइफ में परेशानी दिन-प्रतिदिन बढ़ती जाती है, इसलिए बहुत जरूरी है महिलाएं कुछ बातों का ख़ास ध्यान रखें। डाँ. अनूप धीर कहते हैं, 'वैवाहिक जीवन में रोमांस को बनाए रखना एक कला है, इसलिए  पति-पत्नी दोनों को चाहिए की आपसी समझदारी से प्यार के सागर में डूबें और सुखी वैवाहिक जीवन का भरपूर आनंद उठाएं।'

यह बात सही है की यौन संबंध जीवन का एक अहम अंग है, पर कुछ कारणों से महिलाएं इसका आनंद नहीं उठा पाती है, क्योंकि उनके मन में सेक्स के प्रति अनिच्छा घर कर जाती है, जिसको निकालना जरूरी होता है, आखिर शादी को सफल बनने में सेक्सुअल लाइफ अच्छी होनी चाहिए इसलिए कुछ चीजों का ध्यान बहुत जरूरी होता है।

क्या करें
यह बात सही है की सेक्स सिर्फ तन की जरूरत नहीं है, बल्कि प्यार जताने का माध्यम भी है, इसलिए बहुत जरूरी है की वैवाहिक जीवन में रोमांस  को बनाए रखने के लिये बहुत कुछ छोटी-छोटी बातें व सेक्स ट्रिक्स अपनाई जाएं, ताकि शादी-शुदा जिन्दगी प्यार से सराबोर रहे।

आज मूड नहीं
भागती-दौड़ती जिन्दगी में समयाभाव के चलते सेक्सुअल लाइफ ज्यादा प्रभावित हो रही है, जिसका नतीजा यह है की पति-पत्नी जब बेडरूम में होते हैं, तो मुंह फेर कर या तो सो जाते हैं या फिर आज मूड नहीं का बहाना बनाकर टाल  देते हैं, जोकि गलत है।

क्या करें ?
मूड नहीं है की शिकायत को एक नियम के तौर पर न लें, बल्कि इस व्यवहार को बदलें, क्योंकि अगर यार बात एक बार रिश्तों के बीच आ गई तो हमेशा बनी रहेगी। इसलिए मूड खराब है या मूड नहीं है जैसी चीजों को पास न फटकने दें, बल्कि मूड को बदलकर सेक्स का भरपूर मजा उठाएं।

 संवादहीनता
सेक्स के दौरान पत्नी क्या चाहती है, यह बात पति नहीं जान पाता क्योंकि पत्नी कभी खुलकर इस बारे में कहती नहीं है, जो सेक्सुअल लाइफ में जहर का काम करती है।

क्या करें ?
प्यार और रिश्ते की मजबूती के लिये कम्यूनिकेशन का होना बहुत जरूरी है, इसलिए इसे न तोड़ें, क्योंकि इससे सेक्स लाइफ बेहतर होती है, मतलब बिना झिझक के खुलकर बात करें।

संतुष्टि न मिलना
महिलाएं अक्सर यही सोचती हैं की वह किसी न किसी रूप में अपने पार्टनर को संतुष्ट करें। उनकी इस प्रकार की सोच पति के रूझान को कम करती है, क्योंकि सेक्स में संतुष्टि सिर्फ पति की नहीं होती।

क्या करें ?
महिलाओं की तरह पति भी चाहते हैं की पत्नी को पूरी संतुष्टि मिले, इसलिए अगर सेक्सुअल लाइफ में पति की तरफ से कुछ परेशानी है तो उन्हें बताएं, ताकि वो उस कमी को दूर करके आपको पूरी तरह संतुष्ट कर सकें।

पहले तुम, पहले तुम
अक्सर देखने में आता है की पति ही सेक्स के लिये पहल करता है, पत्नी कभी नहीं करती। इस तरह का व्यवहार यह दर्शाता है की सामने वाले की चाहत है बस, जो की पति को पसंद नहीं आती।

क्या करें ?
चलिए हमेशा वो पहल करते हैं तो फिर क्यों न आप पहल करें। अरे जनाब बराबर का हिसाब रखें। आपके द्वारा की गई पहल क्या अक्सर दिखाएंगी, वो तो पहल करने पर ही पता चलेगा। आपकी एक छोटी-सी पहल सेक्स लाइफ में नई स्फूर्ति का संचार कर सकती है।

फोर प्ले का न होना
जैसे-जैसे समय बीतता जाता है, सेक्स को अधिकतर स्त्रियाँ एक झंझट के तौर पर लेने लगती है। उन्हें लगाने लगता है बस जल्दी से ये काम ख़त्म हो। पत्नी का इस तरह का व्यवहार पति को दुखी करता है, जिसके कारण वह फोर प्ले का आनंद नहीं उठा पाते।

क्या करें ?
सेक्स को बेहतर बनाने के लिए जरूरी है की फोर प्ले का भरपूर मजा उठाएं, क्योंकि जितना बेहतर फोर प्ले होगा उससे सेक्स ज्यादा अच्छा होगा। इसके समय को कम करने के बजाए बढाएं। नए-नए तरीकों से फोर प्ले करें, ताकि उत्साह बना रहे।

उत्साह में कमी
सेक्स के दौरान कई बार स्त्रियाँ अपने उत्साह को दबाए रखती है, उनको लगता है की पति कहीं कुछ गलत न समझे। आपका इस तरह का व्यवहार पार्टनर को यह दर्शाता है की आप सिर्फ औपचारिकता निभा रही हैं।

क्या करें ?
पूरे जोश के साथ पार्टनर का साथ दें, ताकि उनको ये न लगे की आपका उत्साह कम है, उनको उत्साहित करने के लिए हंसी-मजाक का भी सहारा ले सकती हैं। आपका उत्साह देखकर पति को यह महसूस होगा की आप उनसे पूरी तरह जुडी हुई हैं।

बंधनों में बंधना
सेक्स के दौरान अधिकतर महिलाएं पति को कुछ नियमों में बाँध देती हैं, जैसे-लाइट आँफ करना, समय का ध्यान आदि। उनके इस तरह के बंधन से पति का मूड काफी खराब हो जाता है, जसको कंट्रोल कर पाना पति के हाथ में नहीं होता और वह सारा गुस्सा पत्नी पर निकालते हैं।

क्या करें ?
पति को किसी प्रकार के बंधनों में न बांधें, बल्कि अपनी सोच को बदलें। अपने आपसे कुछ प्रश्न करें और अगर आपको लगे की आपको उन प्रशनों का उत्तर नहीं मिल रहा है तो पति से शेयर करें, वो आपकी समस्या का समाधान कर सारी परेशानियों को दूर कर देंगे।

बदलाव का मन हो
सेक्सुअल लाइफ में अगर पति थोड़ा चेंज लाना चाहते हैं तो पत्नी फालतू का काम कह कर इग्नोर कर देती है। वह सोचती है की बस एक काम है, जिसको ख़तम करना जरूरी है। उनकी यह सोच पति के एक्सपेरीमेंट पर पानी फेर देती है।

क्या करें ?
पतिदेव सेक्सुअल लाइफ में बदलाव चाहते हैं तो उन्हें करने दीजिये, क्योंकि एक जैसी सेक्स लाइफ से वह बोर हो जाते है। इसलिए अलग प्रकार के पोजीशन तराई करें, फिर चाहे वह कालीन हो या फिर गाडी की बैक सीट। बस आप एक मौक़ा तो उन्हें दीजिये, फिर देखिएगा जिन्दगी कितनी रंगीन हो जाएगी।

सचेत रहना
फिगर को लेकर महिलाएं बहुत ज्यादा कांशियस रहती हैं। उनके दिलो-दिमाग में यह बात घर कर जाती है की अगर वह मोटी बा बहुत ज्यादा पतली हो गई तो पति उनको छोड़ देगा। उनकी यही सोच सेक्स में नीरसता लाती है।

क्या करें ?
सबसे पहले अपने सोच को बदलें। अगर आप फिगर को लेकर सतर्क रहती हैं तो एक्सरसाइज करें। एक बात को गाँठ बाँध लें की एक बेहतर सेक्स के लिये शरीर से ज्यादा जरूरी होती है प्यार की।

17 अगस्त 2010

महाभारत - दुष्यंत एवं शकुन्तला की कथा

एक बार हस्तिनापुर नरेश दुष्यंत आखेट खेलने वन में गये। जिस वन में वे शिकार के लिये गये थे उसी वन में कण्व ऋषि का आश्रम था। कण्व ऋषि के दर्शन करने के लिये महाराज दुष्यंत उनके आश्रम पहुँच गये। पुकार लगाने पर एक अति लावण्यमयी कन्या ने आश्रम से निकल कर कहा, "हे राजन्! महर्षि तो तीर्थ यात्रा पर गये हैं, किन्तु आपका इस आश्रम में स्वागत है।" उस कन्या को देख कर महाराज दुष्यंत ने पूछा, "बालिके! आप कौन हैं?" बालिका ने कहा, "मेरा नाम शकुन्तला है और मैं कण्व ऋषि की पुत्री हूँ।" उस कन्या की बात सुन कर महाराज दुष्यंत आश्चर्यचकित होकर बोले, "महर्षि तो आजन्म ब्रह्मचारी हैं फिर आप उनकी पुत्री कैसे हईं?" उनके इस प्रश्न के उत्तर में शकुन्तला ने कहा, "वास्तव में मेरे माता-पिता मेनका और विश्वामित्र हैं। मेरी माता ने मेरे जन्म होते ही मुझे वन में छोड़ दिया था जहाँ पर शकुन्त नामक पक्षी ने मेरी रक्षा की। इसी लिये मेरा नाम शकुन्तला पड़ा। उसके बाद कण्व ऋषि की दृष्टि मुझ पर पड़ी और वे मुझे अपने आश्रम में ले आये। उन्होंने ही मेरा भरन-पोषण किया। जन्म देने वाला, पोषण करने वाला तथा अन्न देने वाला - ये तीनों ही पिता कहे जाते हैं। इस प्रकार कण्व ऋषि मेरे पिता हुये।"

शकुन्तला के वचनों को सुनकर महाराज दुष्यंत ने कहा, "शकुन्तले! तुम क्षत्रिय कन्या हो। तुम्हारे सौन्दर्य को देख कर मैं अपना हृदय तुम्हें अर्पित कर चुका हूँ। यदि तुम्हें किसी प्रकार की आपत्ति न हो तो मैं तुमसे विवाह करना चाहता हूँ।" शकुन्तला भी महाराज दुष्यंत पर मोहित हो चुकी थी, अतः उसने अपनी स्वीकृति प्रदान कर दी। दोनों नें गन्धर्व विवाह कर लिया। कुछ काल महाराज दुष्यंत ने शकुन्तला के साथ विहार करते हुये वन में ही व्यतीत किया। फिर एक दिन वे शकुन्तला से बोले, "प्रियतमे! मुझे अब अपना राजकार्य देखने के लिये हस्तिनापुर प्रस्थान करना होगा। महर्षि कण्व के तीर्थ यात्रा से लौट आने पर मैं तुम्हें यहाँ से विदा करा कर अपने राजभवन में ले जाउँगा।" इतना कहकर महाराज ने शकुन्तला को अपने प्रेम के प्रतीक के रूप में अपनी स्वर्ण मुद्रिका दी और हस्तिनापुर चले गये।

एक दिन उसके आश्रम में दुर्वासा ऋषि पधारे। महाराज दुष्यंत के विरह में लीन होने के कारण शकुन्तला को उनके आगमन का ज्ञान भी नहीं हुआ और उसने दुर्वासा ऋषि का यथोचित स्वागत सत्कार नहीं किया। दुर्वासा ऋषि ने इसे अपना अपमान समझा और क्रोधित हो कर बोले, "बालिके! मैं तुझे शाप देता हूँ कि जिस किसी के ध्यान में लीन होकर तूने मेरा निरादर किया है, वह तुझे भूल जायेगा।" दुर्वासा ऋषि के शाप को सुन कर शकुन्तला का ध्यान टूटा और वह उनके चरणों में गिर कर क्षमा प्रार्थना करने लगी। शकुन्तला के क्षमा प्रार्थना से द्रवित हो कर दुर्वासा ऋषि ने कहा, "अच्छा यदि तेरे पास उसका कोई प्रेम चिन्ह होगा तो उस चिन्ह को देख उसे तेरी स्मृति हो आयेगी।"

महाराज दुष्यंत के सहवास से शकुन्तला गर्भवती हो गई थी। कुछ काल पश्चात् कण्व ऋषि तीर्थ यात्रा से लौटे तब शकुन्तला ने उन्हें महाराज दुष्यंत के साथ अपने गन्धर्व विवाह के विषय में बताया। इस पर महर्षि कण्व ने कहा, "पुत्री! विवाहित कन्या का पिता के घर में रहना उचित नहीं है। अब तेरे पति का घर ही तेरा घर है।" इतना कह कर महर्षि ने शकुन्तला को अपने शिष्यों के साथ हस्तिनापुर भिजवा दिया। मार्ग में एक सरोवर में आचमन करते समय महाराज दुष्यंत की दी हुई शकुन्तला की अँगूठी, जो कि प्रेम चिन्ह थी, सरोवर में ही गिर गई। उस अँगूठी को एक मछली निगल गई।

महाराज दुष्यंत के पास पहुँच कर कण्व ऋषि के शिष्यों ने शकुन्तला को उनके सामने खड़ी कर के कहा, "महाराज! शकुन्तला आपकी पत्नी है, आप इसे स्वीकार करें।" महाराज तो दुर्वासा ऋषि के शाप के कारण शकुन्तला को विस्मृत कर चुके थे। अतः उन्होंने शकुन्तला को स्वीकार नहीं किया और उस पर कुलटा होने का लाँछन लगाने लगे। शकुन्तला का अपमान होते ही आकाश में जोरों की बिजली कड़क उठी और सब के सामने उसकी माता मेनका उसे उठा ले गई।

जिस मछली ने शकुन्तला की अँगूठी को निगल लिया था, एक दिन वह एक मछुआरे के जाल में आ फँसी। जब मछुआरे ने उसे काटा तो उसके पेट अँगूठी निकली। मछुआरे ने उस अँगूठी को महाराज दुष्यंत के पास भेंट के रूप में भेज दिया। अँगूठी को देखते ही महाराज को शकुन्तला का स्मरण हो आया और वे अपने कृत्य पर पश्चाताप करने लगे। महाराज ने शकुन्तला को बहुत ढुँढवाया किन्तु उसका पता नहीं चला।

कुछ दिनों के बाद देवराज इन्द्र के निमन्त्रण पाकर देवासुर संग्राम में उनकी सहायता करने के लिये महाराज दुष्यंत इन्द्र की नगरी अमरावती गये। संग्राम में विजय प्राप्त करने के पश्चात् जब वे आकाश मार्ग से हस्तिनापुर लौट रहे थे तो मार्ग में उन्हें कश्यप ऋषि का आश्रम दृष्टिगत हुआ। उनके दर्शनों के लिये वे वहाँ रुक गये। आश्रम में एक सुन्दर बालक एक भयंकर सिंह के साथ खेल रहा था। मेनका ने शकुन्तला को कश्यप ऋषि के पास लाकर छोड़ा था तथा वह बालक शकुन्तला का ही पुत्र था। उस बालक को देख कर महाराज के हृदय में प्रेम की भावना उमड़ पड़ी। वे उसे गोद में उठाने के लिये आगे बढ़े तो शकुन्तला की सखी चिल्ला उठी, "हे भद्र पुरुष! आप इस बालक को न छुयें अन्यथा उसकी भुजा में बँधा काला डोरा साँप बन कर आपको डस लेगा।" यह सुन कर भी दुष्यंत स्वयं को न रोक सके और बालक को अपने गोद में उठा लिया। अब सखी ने आश्चर्य से देखा कि बालक के भुजा में बँधा काला गंडा पृथ्वी पर गिर गया है। सखी को ज्ञात था कि बालक को जब कभी भी उसका पिता अपने गोद में लेगा वह काला डोरा पृथ्वी पर गिर जायेगा। सखी ने प्रसन्न हो कर समस्त वृतान्त शकुन्तला को सुनाया। शकुन्तला महाराज दुष्यंत के पास आई। महाराज ने शकुन्तला को पहचान लिया। उन्होंने अपने कृत्य के लिये शकुन्तला से क्षमा प्रार्थना किया और कश्यप ऋषि की आज्ञा लेकर उसे अपने पुत्र सहित अपने साथ हस्तिनापुर ले आये।

महाराज दुष्यंत और शकुन्तला के उस पुत्र का नाम भरत था। बाद में वे भरत महान प्रतापी सम्राट बने और उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष हुआ।

आपका प्यार प्यार है या कुछ और ? ( Your Love is love or something? )


सी के लिये प्रेम धड़कते दिल की सदा है तो किसी के लिये किसी का इंतज़ार। किसी के लिये पहली नजर का प्यार है तो किसी के लिये मर मिटने का जूनून। किसी के लिये प्रेम किसी का दिल जीतना है तो किसी के लिये दो जिस्मों का मिलन। किसी के लिये आदत जैसा है तो किसी के लिये जरूरत जैसा। प्रेम किसी के लिये जिम्मेदारी है तो किसी के लिये वफादारी किसी का प्रेम लालसा है तो किसी का वासना। कोई स्वयं की सुविधा को देखकर प्रेम करता है तो कोई आपसी योग्यता को देखकर। किसी का प्रेम मोह है तो किसी का स्वार्थ। अर्चन यही है की किसी का प्रेम, प्रेम जैसा नहीं है।

सच तो यह है की हम सब कुछ करते हैं बस प्रेम नहीं करते। यही कारण है हमने प्रेम को इतने नाम दिए हैं और असफल हुए हैं। क्या है हमारा प्रेम ? ज़रा सोचने और तय करें की यह प्रेम है या कुछ और ?

प्रेम और आदत
आपको सोच के हैरानी होगी की जिसे हम आमतौर पर प्यार करते हैं वह हमारी आदत है। अधिकतर लोग आदत को ही अपना प्यार समझ लेते हैं। लेकिन प्यार आदत नहीं। यही आदत है जो आपको इतना उलझाए हुए हैं। क्योंकि आदत जितनी गहरी और पुरानी होती है उतनी और मज्बोत हो जाती है और इस मजबूती को हम अपना गहरा प्यार समझ लेते हैं।

हमें किसी का हंसना, बोलना, उसके साथ घूमना-फिरना इतना अच्छा लगने लगता है की हम उसे अपनी रोज की आदत में, दिनचर्या में शामिल कर लेते हैं। फिर उसकी छोटी-छोटी चीज व हरकतें हमारे ऊपर असर करने लगी हैं। उसके उपहार, उसकी छुअन- आलिंगन उसके फोन उसके पत्र व उससे सुख-दुःख बांटने की आदत आदि  इतनी घनी हो जाती है की हम उससे स्वयं को मुक्त नहीं कर पाते फिर उस बंधन में हमें सुकून मिलने लगता है और इस सुकून को, एक दूजे की देखभाल को इस बंधी हुई आदत को हम प्यार का दर्जा दे देते हैं। किसी दूसरे की इतनी लत, किसी के लिये उसकी तन्हाई का समाधान हो सकती है, लेकिन प्यार नहीं।

प्रेम और दर्द
दर्द का प्रेम से गहरा नाता है क्योंकि जहाँ प्रेम है वहां दर्द भी है। बिना दर्द के प्रेम कभे हासिल नहीं होता। लेकिन प्रेम में दर्द मिलना तथा दर्द को प्रेम में परिवर्तित करना दो अलग-अलग बातें हैं।

अक्सर लोगों का प्रेम दर्द की नींव पर खडा होता है। अर्थात जिन्दगी के गम, वक्त के थपेड़े व तन्हाई एवं संघर्षों से चूर जब कोई इंसान टूट जाता है तब उसकी एक ही ख्वाहिश होती है की कोई उसकी तन्हाई को, उसके दर्द को सुने, समझे और बांटे। फिर उम्र के जिस मोड़ पर हमें वह शख्श मिलता है जो हमें समझता है हमारे गम बाँट लेता है तो वह हमें प्रिय लगने लगता है। यही नहीं जब तक हम उससे दिल की बात नहीं कह लेते दिल को चैन नहीं मिलता। इस आस और उस इंसान के साथ को हम सबसे अच्छे व करीबी दोस्त का दर्जा दे देते हैं। दोस्ती गहरी होकर हमसफ़र की इच्छा तब्दील होने लगी है और  इसी गहरी इच्छा और आपसी जरूरत को हम प्रेम कह देते हैं।
दर्द बांटने वाला, आपको समझने वाला आपका अच्छा दोस्त हो सकता है, सलाहकार या हम सफ़र हो सकता है परन्तु वह आपका प्रेमी ही होगा या आपको उससे प्रेम ही होगा यह कहना गलत है, तभी तो दोस्ती दुश्मनी में बदल जाती है, विवाह तलाक में बदल जाते हैं। दर्द बांटने वाला, दर्द का जिम्मेदार हो जाता है। परन्तु वास्तविक प्रेम शाश्वत है, स्थिर है।

प्रेम और जिम्मेदारी
कई लोगों के लिये प्रेम जिम्मेदारी जैसा है जिसे निभा कर उन्हें लगता है की वह प्रेम करते हैं खासतौर पर जब वह रिश्ता माँ-बाप तथा पति-पत्नी के रूप में हो तो। माता-पिता वह हर कार्य करते हैं जो उन्हें अपने बच्चे के लिये करने चाहिए। जी जान से इतना प्यार करने के बाद भी बच्चे उनके अनुसार नहीं निकलते और आपसी मतभेद किनारे हो जाते हैं ओर हम उन्हें जनरेशन गैप कहकर किनारे कर देते हैं। यह सब इसलिए होता है क्योंकि रिश्तों में सिर्फ जिम्मेदारियां होती हैं प्रेम नहीं। क्योंकि प्रेम का तो अर्थ है जहाँ कोई गैप न हो।

पति सदियों से अपनी जिम्मेदारी निभा रहे हैं पत्नियां सदियों से अपने फर्ज अदा कर रही हैं। दोनों अपनी जिम्मेदारियों को पूरा-पूरा निभा रहे हैं फिर भी असंतुष्ट हैं, अतृप हैं। पति को कोई और प्यार करने वाला चाहिए तो पत्नी चाहती है की उसे कोई और उसके तल पर समझे, जानें और स्वीकार करे। जिम्मेदारियां आपसी मुठभेड़ की शक्ल ले लेती हैं। क्योंकि जिम्मेदारियां बोझ से जन्म लेती हैं या मजबूरी से, प्रेम से इनका कोई ताल्लुक नहीं होता।

कोई एक चूका नहीं, की गैर जिम्मेदार होने की, बेवफा होने की, ना प्यार करने की शिकायतें शुरू हो जाती हैं। किसके जिम्मे क्या था किसने क्या नहीं निभाया आदि शुरू हो जाता है। सारा का सारा प्यार हक़ और हिस्से में बदल जाता है। प्रेम बांटता नहीं है जोड़ता है। प्रेम दोष दूसरे में नहीं खुद में ढूंढता है। प्रेम दूसरे को बदलने का नाम नहीं स्वयं को ढालने का नाम है। जिम्मेदारियों का अर्थ ही है दो, अर्थात करने वाला, लेने वाला। लेकिन वास्तविक एवं सच्चे प्रेम में कोई जिम्मेदारियां, हक़, शर्त और हिस्से जैसी चीजें नहीं होती।

प्रेम और जूनून
जूनून एक ऐसी स्थिति है जब कोई किसी की चाहत में हदों से भी पार हो जाता है। न उसे खुद की खबर होती हैं न जमाने की बस प्रेमी का ही नाम जहाँ में बचता है। दिलों दिमाग में उसी प्रेमी का भूत व प्यार की धुन सवार होती है। बस एक जिद होती है उसे अपने प्रेमी को ही पाना है। यदि उसे उसका प्रेमी नहीं मिला तो वह अकेला मर जायेगा। जूनून की इस अवस्था को देखकर लगता है की यह सच्चे एवं वास्तविक प्रेम के लक्षण हैं। कुछ हद तक यह स्थिति या अवस्था सच्चे प्रेम की ओर इशारा करती है लेकिन प्रेम, जूनून नहीं। प्रेम में प्रेमी की भी किसी हद तक यही हालत होती है परन्तु प्रेमी से मिलना ही एक मात्रा उसका उद्देश्य या लालसा नहीं होती। प्रेमी अपना किसी पर अधिकार नहीं चलाता। लेकिन जुनूनी अपने प्रेमी पर अपना आधिपत्य समझता है। वह नहीं चाहता की उसका प्रेम किसी और की तरफ नजर उठाकर भी देखे। जूनून को प्रेम की नकारात्मक दशा भी कहा जा सकता है क्योंकि यदि जुनूनी को उसका प्यार मिलता नजर नहीं आता तो वह अपना धैर्य खो बैठता है। विद्रोह पर उतर जाता है। प्रेमी को प्राप्त न कर पाने का दुःख उसे हर हद पार करना सिखा देता है यहाँ तक की उसे यदि आत्महत्या भी करनी पड़े तो वह हिचकिचाता नहीं है। परन्तु वास्तविक या सच्चे प्रेमी में यह लक्षण नहीं पाए जाते। उसके लिये प्रेमी को प्राप्त करना ही के लक्ष्य नहीं होता। विद्रोह, बदला, आत्महत्या आदि जैसे कुविचार या अवस्था प्रेमी के लक्षण नहीं। प्रेमी अपने प्रेम को हर हाल में खुश देखना चाहता है। खुद भी जीता है दूसरे को भी जीने देता है।

प्रेम और सुविधा एवं योग्यता
कई लोगों के लिए प्रेम सुविधा जैसा है अर्थात जहां वह जिसके साथ वह स्वयं को कम्फ़र्टेबल महसूस करते हैं, जिसके साथ स्वयं को जोड पाने में सहूलियत महसूस करते हैं, जहां हमें ज्यादा जद्दोजहद करने की आवश्यकता न पडे बस सरलता से हम दूसरे को और दूसरा हमको स्वीकार कर ले। फ़िर वह स्कूल-कांलेज हो या दफ़्तर, घर-बाहर हो या रिश्तेदारी जिसके साथ हम सुविधा महसूस करते हैं उसके साथ संबंध को गहरा बनाने में जुट जाते हैं और उसी गहरे रिश्ते को हम अपना प्यार समझते हैं।

कितने लोग तो ऐसे हैं जो कम्फ़र्टेबलिटी के साथ-साथ काम्पैटिबलिटी भी देखते हैं। अर्थात योग्यता भी। वह जब किसी को अपने योग्य समझते हैं तभी उसको अपने दिल में जगह देते हैं क्योंकि वहां दिल के तार बैठाना उन्हें सरल लगता है। वहां कोई बडी परीक्षा नहीं करनी पडती और ना ही कोई परीक्षा देनी पडती है। योग्य साथी के साथ उन्हें समझोते कम पडते हैं। सहने और बर्दाश्त करने की अधिक गुंजाइश नहीं होती। इसलिए लोग अपना कम्पैटेबल यानी अपने योग्य साथी की तलाश करते हैं और जब संबंध-गहराई पर पहुंचता है तो वह उसे प्यार का नाम दे देते हैं। व्यवहारिक तौर पर देखा जाए तो यह ठीक लगता है, परंतु यह भी प्रेम नहीं। इतना सोच-समझकर, इतना देख परखकर अपनी सुविधा और योगयता अनुसार लोग अपना साथी चुनते हैं, प्यार करते हैं पर कितने दिन चलता है यह प्यार? कब तक और कैसे टिकते हैं ऐसे संबंध? कुछ भी छिपा नहीं है। सब जग जाहिर है।

सुविधा और योगयता को देखकर जो रिशते बनते हैं वह कभी प्रेम नहीं हो सकते। प्रेमी को हम सभी-बुराइयों और कमियों के साथ स्वीकार करते हैं, उसकी काबिलियत या योगयता का प्रेमी के प्यार पर कोई प्रभाव नहीं पडता। सच्चा प्रेमी कभी किसी परीक्षा या प्रतीक्षा से नहीं डरता। सहने और बर्दाश्त करने के भय से कभी भी प्रेम करना नहीं छोडता। प्रेमी, अपने प्रेम को सुविधा देता है सुविधा लेता नहीं है। प्रेमी स्वंम को योग्य बनाने में जुटा रहता है ना कि अपने लिए किसी को योग्य बनाता है या कोई योग्य तलाश्ता है।

प्रेम और अवधि
कितने ही लोग ऐसे हैं जो अपने प्रेम का संबंधों को अवधि से तौलते हैं। उनका मानना है संबंध जितना पुराना होगा प्रेम उतना ही गहरा होता है। तभी तो लोग अपने प्रेम में इस बात का दावा करते हैं कि मैं फ़ंला को पांच साल से चाहता हूं, मै फ़ंला को दस साल से चाहता हूं आदि। प्रेमी सोचता है जिसके साथ वह अब तक सबसे लंबे समय तक साथ रहा है उसके पीछे उसका वास्तविक प्रेम है या दूसरा भी उसे उतना ही प्यार करता है तभी उसका प्रेम फ़ंला वर्षो पुराना है। परंतु होता कुछ और है पुराने रिशतों के पीछे प्यार कम उम्मीदें, कोशिशे, इंतजार, स्वार्थ आदि ज्यादा होते हैं जिसकी आकांक्षाओं में, इंतजार में प्रेमी एक दूसरे के संबंध निभाते रहते हैं।

जैसे प्यार का पुराना होना इस बात को प्रमाणित करता है कि यह प्यार सच्चा है। यदि ऐसा होता तो लोगों को प्यार में अपना वक्त जाया करने का गम कभी नहीं होता। असफ़ल प्रेम के बाद या लंबे समय के बाद अधिकतर प्रेमियों को यह मलाल रहता है कि किसी को इतना कीमती वक्त देने के बाद कुछ भी हाथ नहीं लगा।

यही कारण है कि विवाह के बाद तीस-चालीस वर्ष बिता देने के बाद भी पति-पत्नी से यदि वास्तविक सच्चे प्रेम के बारे में पूछा जाए तो दोनों चुप्पी साध लेते हैं। इसलिए यह जरूरी नहीं कि जिसके साथ इतने वर्षो से हों वह प्यार की ही निशानी हो।

प्रेम और शरीर एवं काम
प्रेम और शरीर का, जिस्म के स्पर्श का अपना ही विशेष स्थान है। तभी तो कहने वालों ने प्रेम को आंखे चार करना कहा है। आखिर हम पहले किसी को उसके शरीर से, बाहरी भावभंगीमाओं से, अदाओं आदि से ही पसंद करते हैं। शरीर पर किसी की आत्मा या उसका दिल नहीं दिखता कि सामने वाले की सीरत कैसी है। हम केवल सरत देखकर ही फ़िदा हो जाते हैं।

कहते हैं पहला प्यार कभी भुलाए नहीं भुलता क्यों? क्योंकि पहले प्यार में जो सबसे पहले घटित होता है वह शरीर के माध्यम से ही अनुभव में आता है।

जिससे हमारे शारीरिक संबंध हों वह जरूरी नहीं वह हमारा प्रेम हो यह मात्र आकर्षण है। संभोग शरीर की भूख है, प्रेम आत्मा की। शरीर की मांग परिवर्तनशील व क्षणभंगुर है परंतु प्रेम शाश्वत है वह स्थिर है। संभोग प्रेम का एक भाग हो सकता है, एक हिस्सा हो सकता है परंतु संपूर्ण प्रेम नहीं होता। जहां काम है वहां दूसरा है, जहां दूसरा है वहां निर्भरता है और जहां निर्भरता है वहां स्वतंत्रता नहीं हो सकती, आनंद नहीं हो सकता। वास्तविक प्रेम महाआनंद है, स्वतंत्र है। इसलिए शरीर से शरीर का रिश्ता वासना पैदा करता है, जरूरत पैदा करता है। जिनके साथ हम शरीर से जुडते हैं उनके साथ हमें ऐसी भ्रांती पैदा होती है कि यह सबसे गहरा नाता है क्योंकि शरीर हमें दिखता है उसे ही हम अपनी पहचान व बहुमूल्य वस्तु मानते हैं और जब हम अपना शरीर किसी को दे देते तो हमें ऐसा लगता है कि हमने सबसे बडी चीज कर दी। जितना अत्याधिक स्व्यं को सौंपा जा सकता था हमने स्वयं को सौंप दिया। इसलिए वह हमारा प्रेम है। परंतु वास्तविक प्रेम शरीर का नहीं आत्मा का है सच्चा प्रेम शरीर के माध्यम से तो संभव है पर इस शरीर से नही।