वेदों का यह संदेश है कि मनुष्य जीवन का उद्देश्य परम सत्य को जानना और उसको प्राप्त करना ही है। परम सत्ता का ज्ञान प्राप्त करने में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है। इस विषयोपभोगमय संसार में हलके-फुल्के ढंग से जीवन व्यतीत कर लेना ही मनुष्य के लिए पर्याप्त नहीं है। परम सत्य को जानने के लिए मन को तैयार करना, उसे शुद्ध करना अपेक्षित है। वेदों के प्रथम विभाग कर्मकांड का यही विषय है-मन को शुद्ध कैसे किया जाए। मन की शुद्धि को कैसे प्राप्त किया जाए।
हम इस संसार में विभिन्न प्रकार की स्थितियों में, अलग-अलग प्रकार से कर्म करते हैं, प्रतिक्रिया करते हैं। यह स्पष्ट है कि हमारे कार्य और प्रतिक्रियाएं केवल वस्तुगत ही नहीं होते हैं। अधिकतर वे हमारे पूर्वग्रहों से, हमारी व्यक्तिगत रुचि-अरुचि से प्रभावित एवं संचालित होते हैं। अनेकानेक जन्मों में सूक्ष्म संस्कार और अंतर्निहित वृत्तियों के रूप में संजोई हुई अनेक प्रकार की वासनाएं हमारे भीतर हैं। हम वासनानुकूल कर्म करते हैं, विवेकसम्मत नहीं। फलस्वरूप हम अपनी उस रुचि-अरुचि को और दृढ बना देते हैं। इस प्रकार हम अपने मन की अशुद्धि को ही बढाते जाते हैं। हम जो भी कार्य करते हैं, जो भी प्रतिक्रिया करते हैं उसमें हमारी वासनाएं ही अभिव्यक्त होती दिखाई देती हैं।
दैनिक अनुशासन
प्रश्न यह है कि हम अपने मन को शुद्ध करें तो कैसे करें? वेदों के कर्मकांड में इसका उत्तर है। इसकी विधि वहां समझाई गई है। वास्तव में कर्मकांड के द्वारा जो मन की शुद्धि होती है, उसका सीधा संबंध उस एकाग्रचित्त स्थिति से है जो वेदों के उपासना कांड के अनुसार अभ्यास करने से अर्जित की जाती है। जब तक मन काम, क्रोध, आसक्ति, राग-द्वेष आदि से भरा होता है, तब तक वह इन संवेगों से उद्वेलित होता रहता है। जिस सीमा तक चित्त शुद्ध हो जाता है, उस सीमा तक वह शांत और एकाग्र होने लगता है। देखना यह है कि मानसिक शुद्धि के इस लक्ष्य को प्राप्त करने में कर्म किस प्रकार सहायक है।
अधिकतर लोगों का यही अनुमान है कि कर्मकांड में केवल विधि-विधान की बातें होती हैं। होम, हवन, यज्ञ अथवा पूजा को ही कर्मकांड समझा जाता है। इसलिए कर्मकांड शब्द से हम घबराते हैं और ऐसा सोचते हैं कि भला हम इतने यज्ञ आदि करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं? लेकिन यह एक भ्रामक सोच है। कर्मकांड में, विभिन्न उद्देश्यों की पूर्ति के लिए विभिन्न कर्मो का निर्देश है। इस प्रकार के कर्म शास्त्रविहित कर्म अथवा काम्य कर्म कहलाते हैं। किसी इच्छा के फलस्वरूप किसी विशेष लक्ष्य प्राप्ति के उद्देश्य से ये किए जाते हैं, इसलिए इनमें विकल्प है। जैसे, कुछ यज्ञादि स्वर्ग प्राप्ति के हेतु से किए जाते हैं। जिसे स्वर्गप्राप्ति की कामना हो उसके लिए ज्योतिष्टोम यज्ञ का विधान है। अन्य यज्ञ, धन वैभव प्राप्ति अथवा संतान प्राप्ति के लिए हैं। ये विधि-विधान किसी खास इच्छा की पूर्ति के लिए निर्दिष्ट हैं। इन्हें करने का कोई अर्थ तभी है, जबकि उस काम्य पदार्थ को पाने की इच्छा हो। नहीं तो इस प्रकार के यज्ञ निरर्थक हैं। यदि मुझे स्वर्ग जाने की इच्छा नहीं है, तो फिर मैं उसकी प्राप्ति का उपाय क्यों करूंगा? ठीक वैसे ही जैसे यदि कोई अमेरिका जाना ही नहीं चाहता तो वह अमेरिकी वीजा प्राप्त करने के लिए आवेदन पत्र क्यों भरेगा?
नित्य कर्म
दूसरे प्रकार के कर्म, नित्य कर्म कहलाते हैं। अपनी आयु के, अपनी अवस्था के अनुसार हमारे कर्तव्य निर्धारित हैं, जिन्हें मन के अनुशासन के निमित्त से हमें नित्य करना चाहिए। जैसे ब्रह्मचारी को नित्यप्रति गायत्री का जप करना चाहिए। गृहस्थ, वानप्रस्थी और संन्यासी सबके लिए अलग-अलग प्रकार के नित्य कर्तव्यों का विधान है। गृहस्थी में रहने वाले, आध्यात्मिक उन्नति हेतु सांसारिक जीवन त्याग देने वाले और रात-दिन आत्मचिंतन में लगे रहने वाले के नित्य कर्म, प्रतिदिन के कर्तव्य अलग-अलग प्रकार के होते हैं। ये कर्तव्य इसलिए हैं कि जिससे हमारा जीवन अनुशासित हो सके, क्योंकि हम लोग अपने जीवन में, व्यवहार में बेहद निरंकुश हो गए हैं। अनुशासनविहीन होने का अर्थ है निरंकुश होना। जब हम चाहते हैं तब सोते हैं, जब उठना चाहते हैं, उठते हैं, जब चाहते हैं खाने लगते हैं, भले ही भूख लगी हो या नहीं। चीजों को जहां थोडा सस्ता बिकते देखा, ख्ारीदने लगते हैं, भले ही वे हमारी जरूरत की हों अथवा नहीं। हम तमाम चीजों को केवल इसलिए इकट्ठा कर लेते हैं, क्योंकि आसानी से प्राप्त हो रही हैं और हम उन्हीं में आसक्त रहने लगते हैं।
मुख्य बात यह है कि हमारे जीवन में अनुशासन होना चाहिए। जैसे यदि सुबह नींद खुलते ही हमारी इच्छा हो कि एक प्याली चाय या कॉफी मिले, लेकिन हम यह नियम बना लें कि जब तक एक माला जप नहीं कर लेंगे, चाय-कॉफी नहीं पिएंगे, यही अपने आपमें एक बडी उपलब्धि है। यदि हम इस प्रकार का कोई भी अनुशासन अपना लें तो हमारा मन नियंत्रण में आने लगता है। अनुशासन कोई भी हो, दरअसल इनके माध्यम से हमको अपनी इच्छाओं के वेग को धीरे-धीरे संयमित करना सीखना है। यह महत्वपूर्ण बात है। काम्य कर्म तब संपन्न किए जाते हैं जब कुछ विशेष प्राप्त करना होता है। नित्य कर्म दैनिक अनुशासन वाले कर्तव्य हैं, जो हमारी अवस्था के अनुसार निर्धारित होते हैं, चाहे हम विद्यार्थी हों, गृहस्थ हों, अवकाश प्राप्त वानप्रस्थी हों, या संन्यासी-वैरागी कोई भी हों। शास्त्र का यह आदेश है कि हमें इन कर्तव्यों का अवश्य ही पालन करना है। केवल किसी विशिष्ट परिस्थिति में ही इनमें ढील की गुंजाइश है।
लेकिन हम लोगों के जीवन में हो क्या रहा है, ठीक इसके विपरीत। जैसे अगर हम अधिक थक गए हैं या बीमार हैं तो हमें अधिक सोने की छूट मिल जाती है। लेकिन शायद ही कभी एक ऐसा निश्चय करते हैं कि जरा जल्दी उठ जाएं। जिससे कि कोई खास अच्छा काम कर सकें, या भगवान की पूजा कर सकें। दूसरे शब्दों में कहें तो यह कि केवल कभी-कभी हम इस प्रकार के नियम के पालन की बात सोचते हैं। जो अपवाद है वह तो बन गया है नियम और जिसे होना चाहिए था नियम, वह बन गया है अपवाद। यही कारण है कि हमारे संकल्प में शक्ति नहीं है और जब हम जीवन में एक भी अनुशासन का पालन नहीं कर सकते तो जब बडी चुनौतियों का सामना करना पडता है तो घबरा जाते हैं और अपने आपको कोसना शुरू कर देते हैं। जब हम किसी नियम का दृढता से पालन करते हैं तो देखते हैं कि हमारा संकल्प बहुत शक्तिशाली हो गया है। हम किसी भी एक नियम का जीवन में दृढता से पालन कर लें, तो तमाम अन्य पक्ष स्वत: नियमित हो जाएंगे और हमारे नियंत्रण में आ जाएंगे। इन नित्य कर्मो के पालन से हम क्रमश: अपने मन को संयमित करने में सफल होते जाते हैं और अपने मन पर हमारा अधिकार हो जाता है।
दूसरों के द्वारा निर्धारित कर्म
तीसरे प्रकार के कर्तव्य कर्म वे हैं जो हमारे लिए दूसरों के द्वारा निर्धारित किए जाते हैं। जैसे माता-पिता, गुरु, शासन या सरकार, कार्यालय या नौकरी के स्थान के द्वारा हमारे लिए कुछ कर्तव्य निर्धारित होते हैं। एक युवक अपने माता-पिता के आदेशों की अवहेलना कर सकता है, लेकिन जब वह बाहर कहीं काम ढूंढने निकलता है, तो जहां भी वह काम करेगा, वहां उसे अपने स्वामी की आज्ञा माननी पडेगी। इस प्रकार एक स्थिति में भले ही हम विद्रोह करें, लेकिन कहीं भी हम जाएंगे, कोई न कोई कर्तव्य करने को हमें वहां बाध्य होना पडेगा। सच बात यह है कि हम किसी की इज्जत तभी करते हैं जब वह अपने कर्तव्यों के प्रति सजग होता है और ईमानदारी व परिश्रम से उन्हें पूरा करता है।
हम यदि अपना व्यापार आरंभ करें या कोई कारखाना खोलें और उसमें बहुत से लोगों को काम दें, तब हम अपने उन कर्मचारियों से क्या अपेक्षा करते हैं? क्या हम यह नहीं चाहते कि सब हमारा कहना मानें और परिश्रम से काम करें? क्या हम उस कर्मचारी को बर्दाश्त करेंगे जो अयोग्य है, अनुशासनविहीन है, कामचोर है, आलसी है? कुछ लोग समझते हैं कि धन ही सब कुछ है, पर जिनके कारण हम दूसरों की वाकई इज्जत करते हैं, वे हैं जीवन के महान गुण- ईमानदारी, वफादारी, समय की पाबंदी।
समस्या यह है कि हम इन सब गुणों को दूसरों में ही देखना चाहते हैं, दूसरों से ही अपेक्षा करते हैं कि उनमें अच्छी बातें हों। स्वयं में इन गुणों के विकास के लिए प्रयत्नशील नहीं होते। हम धन कमाने के लिए खुद तो कुछ भी भला-बुरा करने को तैयार रहते हैं, लेकिन अपने खजांची में पूरी-पूरी ईमानदारी देखना चाहते हैं। हम अपने कर्मचारियों से वफादारी और ईमानदारी की अपेक्षा करते हैं, भले ही स्वयं वैसे न हों। ये महान गुण हैं जिनकी हम प्रशंसा करते हैं, जिनके कारण हम दूसरों का आदर करते हैं।
वही व्यक्ति सफल होता है जिसका जीवन नियमित एवं अनुशासित होता है। बिना अनुशासन के सफलता पाना असंभव है। सारी समस्याएं ही समाप्त हो जाएं यदि केवल प्रत्येक व्यक्ति इस प्रकार सोचने लगे कि ये अच्छे गुण मुझमें विकसित हों। यह बहुत महत्वपूर्ण बात है। मुश्किल यह है कि हम समस्याओं के इतने आदी हो गए हैं कि यदि किसी समय अचानक कोई समस्या शेष न दिखे तो हम घबरा जाएंगे और सोचने लगेंगे कि अब हम करें क्या?
वेद हमें बताते हैं कि हमें अपने कर्तव्य कर्मो को दृढता से संपन्न करना चाहिए, भले ही वे हमारे दैनिक साधारण नियम हों, अथवा हमारे लिए दूसरों के द्वारा निर्धारित किए गए कर्तव्य कर्म हों। कभी यह मत देखो कि दूसरे क्या कर रहे हैं, क्या नहीं कर रहे हैं, केवल अपने कर्तव्य कर्मो के प्रति सावधान रहो।
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