03 सितंबर 2010

दिल में हो जज्बा, तो दुनिया है... ( Spirit in the heart, The world...)

मला पोद्दार ने कभी पीछे मुड़कर नहीं देखा। यही कारण है की आज वह निफ्ड की चेयरपर्सन होने के साथ पोद्दार ग्रुप के कई इंस्टीट्यूट ( पोद्दार इंस्टीट्यूट आँफ इन्फांरमेशन टेक्नोलाँजी , पोद्दार एकैडमी आँफ इंश्योरेंस साइंस, एनआईएस आदि इंस्टीट्यूट विभिन्न विश्वविद्यालयों से सम्बद्ध) चला रही हैं। इस सफलता का श्रेय वे अपनी समझ और सही निर्णय क्षमता को देती हैं। उनके पास न ही कोई डिगरी है और न ही कोई मनेजमेंट का डिप्लोमा। फिर भी कोई नहीं कह सकता की उनके मैनेजमेंट में किसी तरह की कोई कमी है। वे सभी की बात सुनती हैं, समझती हैं और उस बात की गहराई में जाने के बाद ही कोई फैसला लेती हैं। वे अपनी सफलता क एक मंत्र इसे भी मानती हैं।

कमला पोद्दार का जन्म कोलकाता में 19 सितम्बर 1959 को हुआ था। दसवीं तक पढाई करने के बाद ही कमला की शादी हो गई। शादी के कुछ सालों तक तो वे घर में व्यस्त रहीं। घर की आर्थिक स्थिति कुछ अच्छी नहीं थी, इसलिए जब वे माँ बनीं, तो उन्हें अपने बच्चों के भविष्य की चिंता सताने लगी।

कमला पोद्दार का कहना है, 'मैं अपने बच्चों को उच्च शिक्षा देना चाहती थी, जिससे भविष्य में उन्हें किसी का मोहताज न होना पड़े, लेकिन यह भी जानती थी की मेरे घर की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है की मैं अपने बच्चों को अच्छे से अच्छे कपडे पहना सकूं, उन्हें उनकी जरूरत की सभी चीजें दे सकूं। उस समय मेरे पति एक जूट मिल में 1500 रूपये में काम करते थे, इसीलिये मैंने कुछ करने की ठान ली और आज इस मुकाम पर आ गई हूँ की मेरे साथ मेरे परिवार की भी एक अलग पहचान बन गई है।

कमला पोद्दार ने अपने कैरियर की नींव एक गारमेंट मैन्युफैक्चरर और एक्सपोर्टर के तौर पर राखी थी। इसे शुरू करने के लिये सबसे पहले उन्होंने बाजार का सर्वेक्षण किया और बेसिक बातों की जानकारी लेकर पांच मशीनों से इस काम का श्रीगणेश कर दिया। काम शुरू होने के बाद भी वह लगातार बाहर कपड़ा सप्लाई करने वालों के संपर्क में बनी रहीं, जिससे उन्हें बाजार की स्थिति का समय-समय पर पता लगता रहता था। धीरे-धीरे उन्होंने अपने काम को विस्तार देना आरम्भ किया। मुख्य तौर पर उनका काम एक्सपोटर्स से कपडे की कटिंग और अन्य सामान लेकर उनको सिलवाकर (स्टिचिंग) वापस एक्सपोर्टर्स को देना होता था, जिसमें उन्हें हर पीस पर 15 से 25 रूपये बचते थे। इसी बीच उन्होंने 1999 में जयपुर में इन्डियन इंस्टीट्यूट आँफ फैशन डिजाइनिंग (निफ्ड) की फ्रेंचाईजी ले ली। इसके बाद उन्होंने इंस्टीट्यूट को आगे बढाने के लिये दिन-रात एक कर दिए। इंस्टीट्यूट की तरफ ज्यादा ध्यान देने और गारमेंट मैन्युफैक्चरिंग से ज्यादा मुनाफ़ा न होने के कारण उन्होंने यह तय किया की इंस्टीट्यूट की तरफ ही पूरा ध्यान दिया जाए और गारमेंट के बिजनेस को बंद करने का फैसला लेकर सन 2001 में गारमेंट कारोबार को बंद कर दिया। अपने कैरियर को संवारने में उन्हें अपने परिवार का पूरा सहयोग मिला। सहयोग मिलने के पीछे वे एक और कारण बताती हैं की मैंने बाहर काम करने का निर्णय अपने परिवार की हालत को देखकर लिया था, न की अपने किसी शौक की वजह से। इसलिए मुझे हर कदम पर सहयोग मिला। सफलता के लिये योग्य मार्गदर्शक या गुरु का होना जरूरी होता है। कमला पोद्दार भी अपनी सफलता का श्रेय ऐसे ही मार्गदर्शक को देती हैं, जिसने जिन्दगी की मुश्किल राहों पर उनकी सफलता का मार्ग प्रशस्त कर दिया।

कैटरीना कैफ ( Kaitrina Kaif )


दी फिल्म इंडस्ट्री की ग्लैमरस और सेक्सी अभिनेत्री कैटरीना कैफ ने जिस तेजी से शोहरत और कामयाबी हासिल की वह अपनेआप में एक मिसाल है। जिस समय उन्होंने हिंदी फिल्म इंडस्ट्री  में कदम रखा था तब किसी ने सोचा भी नहीं होगा की यह नाजुक सी लड़की, जिसे हिंदी बिलकुल नहीं आती, बड़ी-बड़ी हीरोइनों को टक्कर देने वाली है। इसे कैटरीना की लगन कहें या उन का आकर्षण की वे धीरे-धीरे निर्देशकों की पहली पसंद बन गई हैं।

16 जुलाई, 1984 में हांगकांग में जनमी 26 वर्षीय कैटरीना कैफ कश्मीरी पिता और ब्रिटिश माँ  की संतान हैं। उन के पिता मोहम्मद कैफ और माँ का नाम सुजेन तुरकोती  है। कैटरीना कैफ के 7 भाईबहन हैं।

कैटरीना का बचपन हवाई में बीता और बाद में व इंगलैंड चली गईं। कैटरीना तब काफी छोटी थीं जब उन के माता-पिता अलग हो गए थे। कैटरीना ने 14 साल की उम्र में मॉडलिंग शुरू कर दी थी।

एक दिन लन्दन मूल के एक फिल्मकार कैजाद गुस्ताद ने उन्हें देखा और अपनी फिल्म 'बूम' में रोल दिया। फिल्म में उन्होंने एक सुपर मॉडल का किरदार निभाया और इस फिल्म के साथ वे पहली बार परदे पर नजर आईं।

इस के बाद बौलीवुड में अपनी कैरियर बनाने एक लिये कैटरीना कैफ मुंबई आ गईं और यहाँ से शुरू हुआ उन का कामयाब सफ़र। आज कैटरीना कैफ के खाते में 20 हिंदी, तेलगु और मलयालम की 20 फ़िल्में हैं।

कैटरीना को पहली कामयाबी मिली 2005 में फिल्म 'सरकार' से, जिस में उन्होंने अभिषेक बच्चन की गर्लफ्रैंड का रोल प्ले किया था।

इस के बाद 'मैं ने प्यार क्यों किया' में वे सलमान खान के अपोजिट थीं। 2007 में कैटरीना 'नमस्ते लन्दन' में नजर आईं, जिस में उन्होंने ब्रिटिश इन्डियन लड़की का रोल निभाया।

कदम दर कदम कामयाबी
कैटरीना कैफ कदम दर कदम कामयाबी की सीढियां चढ़ती रहीं। अभिनेता जौन अब्राहम और नील नितिन मुकेश के साथ 2009 में रिलीज फिल्म 'न्यूयार्क' में कैटरीना के काम को फिल्म समीक्षों द्वारा खूब सराहा गया।

इस वर्ष वे प्रकाश झा की फिल्म 'राजनीति' और फराह खान की 'टीस मार खान' में नजर आ रही हैं।

कैटरीना ने हिन्दी फिल्मों में स्थापित होने के लिये हिंदी सीखी। दर्शकों को उन की अँग्रेजी और टूटीफूटी हिन्दी का मिक्सचर काफी पसंद आया। उन्होंने साबित कर  दिखाया है की अगर कुछ करने की चाह हो तो भाषा या सरहद कामयाबी के आड़े नहीं आ सकती।

01 सितंबर 2010

पढने-लिखने के रोचक तरीके ( Interesting Way to Learn Study's )

क्षित होना हर नागरिक का मूलभूत अधिकार है। इसी शिक्षा के बल पर बच्चा आगे चल कर खुद का विकास कर सकता है तथा यही शिक्षा उस की रोजी-रोटी कमाने में सहायक होती है। ज्ञान को हासिल करने के साथ-साथ उस ज्ञान को याद रखना भी जरूरी है। यही याद करने की सहक्ति परिक्षा में अच्छे अंक दिलाने में मददगार होती है और कैरियर निर्माण भी इसी पर निर्भर करता है।

आज का दौर जबरदस्त प्रतियोगिता का है। छात्रों से हर कोई अच्छे अंक पाने की उम्मीद करता है। ऐसे में छात्रों पर दबाव कुछ अधिक ही होता है। इस कारण वह एक तरह से तनाव में जीते हैं और नतीजतन, कई बार उन्हें लगता है की उन की याद करने की शक्ति कमजोर होती जा रही है। वे याद करते हैं फिर भूल जाते हैं। इस से उन के परीक्षाफल पर बुरा असर पड़ता है।

अध्यापक वर्ग भी बच्चों के साथ पूरी मेहनत करता है, फिर भी कहीं न कहीं कुछ छात्रों के साथ तालमेल में कोई कमी रह जाती है। इसी कमी को पूरा करने के लिए आजकल कुछ स्मृतिप्रशिक्षक यानी 'मैमोरी ट्रेनर' बच्चों के लिए वरदान साबित हो रहे हैं।

ये 'मैमोरी ट्रेनर' अध्यापक और विद्यार्थी के बीच पुल का काम करते हैं और एक तरह से यह 'मनोवैज्ञानिक प्रशिक्षक' होते हैं। छात्र का मनोविज्ञान जान कर ये उस की समस्या का समाधान करते हैं।

यह क्या फंडा होता है? इस सवाल को जानने के लिए स्मृति प्रशिक्षक अंबादत्त भट्ट से बातचीत की। 12 घंटे की इन  की ट्रेनिंग के बाद छात्रों के अध्ययन करने का तरीका एकदम बदल जाता है। इन के द्वारा अनेक छात्र लाभ उठा चुके हैं।

अंबादत्त क कहना है, "मेरा बस चले तो हर छात्र को अध्ययन करने के वे गुर बताऊँ जो पूरी जिन्दगी उस के काम आएं।"

अपनी बात को सार्थक करने के लिए उन्होंने कई महत्वपूर्ण टिप्स बताए जो निम्न प्रकार हैं :
1.   मष्तिस्क के 2 हिस्से होते हैं। एक दायाँ और दूसरा बायाँ। दायाँ हिस्सा रचनात्मक कार्य करता है। अतः रचनात्मक कार्यों के समय दाएं हिस्से का इस्तेमाल कर के उसे जगाया जाता है। बायाँ हिस्सा सिर्फ सोचता है। हम अक्सर दाईं भाग का इस्तेमाल कम करते हैं।

2.   समय बहुत कीमती है। एक बार हाथ से निकल जाने पर यह वापस नहीं आता। छात्रों को समय की कीमत जाननी चाहिए।

3.   अध्यापकों और अभिभावकों को हमेशा बच्चे को पढाई की तरफ उत्साहित करते रहना चाहिए। 'तुम्हें कुछ नहीं आता, 'ऐसे नहीं कहना चाहिए।

4.   छात्रों को चाहिय की वे हार्डवर्क की जगह स्मार्टवर्क  करें। इन में इतना अंतर है, जितना एक मजदूर और एक इंजीनियर के काम करने के तरीके में होता है।

5.   पहले पाठ को एक नजर देखें, यानी उस का प्रीव्यू लें फिर खुद प्रश्न बनाएं यानी प्रश्नपत्र तैयार करें तत्पश्चात पढ़ें। फिर संक्षिप्त रूप में सोचें 'समराइज' करें. फिर 'टेस्ट' लें, यानी स्वयं सोचें की क्या पढ़ा है। उस के बाद उस का 'प्रयोगात्मक इस्तेमाल' करें, यानी यूज दैम प्रैक्टिकली। आखिर में उसे मन ही मन चित्रित करें। इस तरीके को कहते अहिं-'पी-पी-फार्मूला। ' पी.क्यू.आर.एस.टी.यू.वी. इस से पाठ पूरी तरह से समझ में आता है व जल्द याद हो जाता है।

सूत्र इस तरह हैं :
'प्रीव्यू -  क्वेश्चनेयर -  रीड -  समरैज -  टेस्ट -  यूजदैम प्रेक्टिकली -  विजुअलाइज'

नोट्स तैयार करते समय 'माइंड मैप' बनाएं यानी एक पाठ के नोट्स सीधी लाइनों में न लिख कर विविध रंगों के स्कैच पैन ले कर गोल, त्रिभुज, चतुर्भुज जैसे चिन्नों द्वारा डाइग्राम बनाएं। इस से आसाने से यह याद रहता है की फलां रंग से फलां प्वाइंट लिखा था। रंग एवं चित्रों का बहुत महत्व होता है पर अक्सर हम इसे नजरअंदाज कर देते हैं।

रात को सोने से पहले दिन में जो कुछ पढ़ा है उसे एक बार मन में जरूर दोहराएं। छुट्टी वाले दिन सिर्फ दोहराएं। अक्सर छात्र शनिवार का गृहकार्य रविवार पर टाल देते हैं और पूरा दिन बर्बाद करते हैं। उन्हें शनिवार का गृहकार्य शनिवार को ही समाप्त करना चाहिए और रविवार को 'साप्ताहिक दोहराव' का कार्य करना चाहिए।

कक्षा में अध्यापक के आने से पहले पिछले दिन स्कूल में करवाया गया काम मन में दोहराएं तथा उन के कक्षा छोड़ने के बाद उस दिन कराया गया काम दोहराएं। इस में मुशिकल से 1 मिनट का समय लगता है और फ़ायदा अधिक होता है।

पढाई एक सिटिंग में न करें बल्कि हर 45 मिनट के बाद 10 मिनट का ब्रेक लें। ब्रेक के दौरान चाय, पानी, दूध लें और टहलें। जितने ज्यादा ब्रेक उतना ज्यादा याद रहता है क्योंकि हर ब्रेक से आने के बाद मन स्वतः छोड़े  गए काम को दोहराता है। इस से याद करने की शक्ति बढ़ती है।

कुछ शब्दों के कोड बनाने की कला सीखें, यदी जो याद नहीं होते उन के शाब्दिक रूप बना कर उसे याद करना आसान हो जाता है।

पाठ को एक बार पढ़ कर अक्सर छात्र आगे बढ़ जाते हैं। उन्हें एक बार पढ़ कर फिर नीचे से ऊपर होते हुए पढ़ना चाहिए तथा फिर ऊपर से नीचे एक नजर डालनी चाहिए। इस तरह कम समय में 3 बार पाठ पढ़ा जाता है।

पहेलियाँ, क्विज आदि की किताबें, विषयपरक शब्दकोष, वर्गपहेली आदि की पुस्तकें बेहद उपयोगी होती हैं। इन से ज्ञानभंडार विस्तृत होता है।

हमेशा सकारात्मक दिशा में सोचना चाहिए। यह सोचना चाहिए की 'मेरी याद करने की शक्ति बहुत अच्छी है। 'खुद पर विश्वास रखना चाहिए।

इंसान का दिमाग पुस्ताकालय के तरह काम करता है। इस में याद रखी बातें कभी नष्ट नहीं होतीं, दब जरूर जाती हैं। अतः हर बात को 'क्रम वाले बाक्स' में डाल कर परिस्थितियों के साथ जोड़ कर याद रखना चाहिए।

उपयुर्क्त उपायों को आप जरूर आजमा कर देखें।

परिवार में तालमेल जरूरी ( Families must Coordinate )

"परिवार में सभी को एकदूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए, क्योंकि प्रेम की कडियों के साथ ही सब एकदूसरे से जुडे रहते हैं, इसलिए परिवार में खिले प्रेम के पौधे को कभी सूखने न दें।"


क लकडी को कोई भी आसानी से तोड सकता है पर वही लकडी जब एक गट्ठर के रूप में होती है तो कोई उसे तोड नहीं सकता। यही बात परिवार पर भी लागू होती है। यदि परिवार के सभी सदस्य मिलजुल कर एक-साथ रहेंगे तो वैमनस्य, अशांति और कलह को दूर भागना ही होगा।

जब से परिवार व समाज बने हैं तब से परिवार के सभी सदस्यों के लिए कुछ प्राकृतिक नियम भी बने हैं। उन नियमों को मानना अंधविश्वास या रूढिवादिता नहीं है, बल्कि वे ऐसे नियम हैं जो सब को समान रूप से एक सूत्र में बांधे रखते हैं और परिवार सुव्यवस्थित रूप से चलता है।

परिवार की तरक्की और भलाई के लिए यह बेहद जरूरी है कि परिवार के सदस्यों में सहनशीलता, लगाव और सूझबूझ हो। परिवार पहिये वाली गाडी के समान है। इस में हर सदस्य का समान महत्व है। एक भी सदस्य अगर अपना कार्य ठीक से न करे, तो गाडी रूपी परिवार का संतुलन बिगड जाता है, फ़िर तो उसे संभालना मुश्किल हो जाता है और वह परिवार दिनप्रतिदिन पतन के गर्त में समाता जाता है।

परिवार के हर सदस्य का एकदूसरे के साथ तालमेल होना चहिए। सभी को एकदूसरे की भावना का एहसास होना चाहिए तथा सब को सब का सम्मान करना चाहिए। अनुचित बातों के लिए लडाई या कटु शब्द का प्रयोग न करते हुए सूझबूझ से काम लेना चाहिए, क्योंकि जो कार्य प्रेम से किया जा सकता है, वह जोरजबरदस्ती से संभव नहीं है।

आज के मशीनी युग में बढती हुई भौतिकता का असर कमोबेश सभी पर देखा जा सकता है। कोई भी अपने सुख में तनिक भी दखल बरदाशत नहीं करता। एक बच्चा टेलीविजन देख रहा है, यदि आप उस से कहें कि बेटा, पानी पिलाओ, तो पहले तो वह कोशिश करेगा कि उठना न पडे, फ़िर मजबूरी में उठना भी पडा तो वह खिन्न मन से उठ कर अनिच्छा से पानी पिलाएगा या कार्यक्रम के बीच में दिखाए जाने वाले विज्ञापन आने का इंतजार करेगा. यह बात आम है।

इस तरह की स्थिति के लिए हम खुद ही दोषी हैं। इस बात से कोई भी इनकार नहीं कर सकता कि हम अपनी पीढी को संस्कारित करने में पूरी तरह से विफ़ल रहे है। खासकर बच्चे हमारे आचरण का सूक्ष्मता से अवलोकन करते रहते हैं। हमारा व्यवहार उन के मानस में गहरे तक समा जाता है और वे उस का ही अनुसरण करते हैं। दरसल, कभीकभी परिवार के बडे सदस्य की हैसियत से हमें किस तरह का व्यवहार करना चाहिए, इस बात का हम बिल्कुल भी ध्यान नहीं रखते हैं।

घरपरिवार में ऐसी स्थिति न आए इस के लिए घर के बडे सदस्य को चाहिए कि वह दूसरे के प्रति सहानुभूति रखे, उन की जरूरतों को ध्यान में रखे, छोटे सदस्यों के प्रति अपनत्व की भावना रखे, जिस से परिवार में एक अच्छी परंपरा विकसित हो और बच्चे भी उन का अनुसरण कर के अच्छे बनें।

घर में एक व्यक्ति अपने कपडे प्रेस कर रहा है तो उसे चाहिए कि वह दूसरों के भी पूछ ले। बाजार जाते समय सब से पूछा जाए कि किसी को कुछ चाहिए तो नहीं अथवा स्वयं पानी पीते समय दूसरों से भी पूछ ले कि किसी को पानी पीना है? इस छोटीछोटी अपनेपन भरी बातों से परिवार के सदस्यों में स्नेह और सदभावना बढती है। इन्हीं में छिपी है परिवार की एकता।

किसी विशेष मुददे पर निर्णय लेते समय सभी के विचारों का स्वागत करें, किंतु उन में से गुणदोष, उचितअनुचित और परिवार की भलाई को ध्यान में रख कर फ़ैसला लें। यदि कोई अच्छी सलाह या विचार परिवार के सब से छोटे सदस्य से मिलता है तो भी उसे निसंकोच अपनाना चाहिए।

अपने विचार या फ़ैसला दूसरों पर थोपने की कोशिश न करें, हो सकता है जिसे आप उचित समझ रहे हैं, वही दूसरी द्रष्टि से अनुचित हो। हां, आप इतना जरूर कर सकते हैं कि अगर आप को लगे कि दूसरे का अनुचित निर्णय, जिस से परिवार की हानि होने की संभावना है, तो परिवार के अन्य सदस्यों के साथ मिल कर उसे सुलझाएं।

आमतौर पर परिवार में मतभेद तब होते हैं जब सभी अपनीअपनी मनमानी करने लगते हैं, दूसरों की भावना का ध्यान नहीं रखते। हां, सभी को अपने हिसाब से जीने की आजादी है, पर परिवार में एकसाथ रहने के लिए कुछ आदर्शों और नियमों का पालन भी सब को करना जरूरी होता है वरना घर घर न रह कर सराय बन जाता है, जहां केवल चार मुसाफ़िर रात बिताने के लिए ठहरते हैं।

परिवार में सभी सदस्य एकदूसरे के विचारों का आदर करें, उन से अपनत्व महसूस करें। किसी की गलती पर टीकाटिप्पणी या उस का उपहास करने के बजाय उस की गलती को सुधारने का प्रयत्न करें।

परिवार में किसी एक की दूसरे से तुलना न करें क्योंकि जब हाथ की पांचों उंगलियां एक समान नहीं है तब परिवार के सभी सदस्य, उन की सोच और क्षमता एक समान कैसे हो सकती है?

आपसे में क्षमता के अनुसा कार्य का बंटवारा करें, और सभी अपनी क्षमतानुसार पूरी निष्ठा के साथ अपनी जिम्मेदारी पूरी करें तभी परिवार की उन्नति संभव है। इस से समाज में आप के परिवार की प्रतिष्ठा बढेगी साथ ही आप दूसरों के लिए तो सम्माननीय होंगे ही आप का पूरा परिवार भी खुशहाल होगा।

31 अगस्त 2010

निरूपमा राव ( Niroopma Raao )


रुपमा राव ने चीन में भारतीय राजदूत रहते हुए दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया था। इस पद पर सफलतापूर्वक अपना कार्यकाल पूरा करने के बाद वे 31 जुलाई, 2009 से विदेश मंत्रालय में विदेश सचिव पद पर कार्यरत हैं। जिम्मेदारियों को बखूबी अंजाम देने के लिए जानी जाने वाली निरूपमा राव को जब भारत सर्कार के विदेश सचिव पद की नई जिम्मेदारी सौंपी गई, तब किसे पता था की कूटनीतिक रूप से वे पाकिस्तान को कुछ हद तक घुटने टेकने को मजबूर करे देंगी।

1950 में केरल के मलप्पुरम में नाल्पत परिवार में पैदा हुईं निरूपमा राव ने 1973 बीच की अखिल भारतीय सिविल सेवा परीक्षा में सर्वोच्च स्थान प्राप्त करने के बाद भारतीय विदेश सेवा में भी सर्वोच्च स्थान प्राप्त किया। निरूपमा राव की माँ उस जमाने में, जब लड़कियों के लिये शिक्षा कठिन थी, विश्वविद्यालय की दहलीज लांघ चुकी थीं।

बढ़ते कदम
70 के दशक के मध्य तक विएना में भारतीय दूतावास से इन की यात्रा शुरू हुई। 1981-83 तक श्रीलंका में पहली बार वे भारतीय उच्चायुक्त की प्रथम सचिव बनीं। विदेश मंत्रालय में काफी समय तक रहते हुए उन्होंने भारतचीन के पारस्परिक संबंधों पर विशेषज्ञता हासिल की। इस के बाद 1988 में राजीव गांधी के साथ वे विशेष प्रतिनिधिमंडल के साथ चीन गईं। 1993 में वाशिंगटन और 1998 में मास्को में भारतीय दूतावास में काफी समय तक काम करने के बाद हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर इंटरनैशनल अफेयर्स ने उन्हें एशिया पेसिफिक सिक्योरिटी की फैलोशिप के लिये चुना। 1998 में पेरू में वे पहली बार राजदूत बना कर भेजी गईं। इस के बाद 2004 में वे श्रीलंका की उच्चायुक्त बनने के बाद 2006 में चीन में राजदूत बना कर भेजी गईं।

निरूपमा चूंकि अँग्रेजी साहित्य की स्नातक रही हैं, इसीलिये साहित्य के प्रति उन का लगाव हमेशा से रहा है। यही नहीं, शौकिया तौर पर वे कवयित्री भी हैं। 'रेन रेसिंग' उन की कविताओं का पहला संग्रह है।

2 बच्चों की माँ निरूपमा राव देश के लिये विदेशी मोर्चा और अपने परिवार के लिये घरेलू मोर्चा बखूबी संभाल रही हैं।

महाभारत - अर्जुन को उर्वशी का शाप ( The Mahabharata - Arjuna Urvashi's curse )

अर्जुन के पास से अपने लोक को वापस जाते समय देवराज इन्द्र ने कहा, "हे अर्जुन! अभी तुम्हें देवताओं के अनेक कार्य सम्पन्न करने हैं, अतः तुमको लेने के लिये मेरा सारथि आयेगा।" इसलिये अर्जुन उसी वन में रह कर प्रतीक्षा करने लगे। कुछ काल पश्चात् उन्हें लेने के लिये इन्द्र के सारथि मातलि वहाँ पहुँचे और अर्जुन को विमान में बिठाकर देवराज की नगरी अमरावती ले गये। इन्द्र के पास पहुँच कर अर्जुन ने उन्हें प्रणाम किया। देवराज इन्द्र ने अर्जुन को आशीर्वाद देकर अपने निकट आसन प्रदान किया।

अमरावती में रहकर अर्जुन ने देवताओं से प्राप्त हुये दिव्य और अलौकिक अस्त्र-शस्त्रों की प्रयोग विधि सीखा और उन अस्त्र-शस्त्रों को चलाने का अभ्यास करके उन पर महारत प्राप्त कर लिया। फिर एक दिन इन्द्र अर्जुन से बोले, "वत्स! तुम चित्रसेन नामक गन्धर्व से संगीत और नृत्य की कला सीख लो।" चित्रसेन ने इन्द्र का आदेश पाकर अर्जुन को संगीत और नृत्य की कला में निपुण कर दिया।

एक दिन जब चित्रसेन अर्जुन को संगीत और नृत्य की शिक्षा दे रहे थे, वहाँ पर इन्द्र की अप्सरा उर्वशी आई और अर्जुन पर मोहित हो गई। अवसर पाकर उर्वशी ने अर्जुन से कहा, "हे अर्जुन! आपको देखकर मेरी काम-वासना जागृत हो गई है, अतः आप कृपया मेरे साथ विहार करके मेरी काम-वासना को शांत करें।" उर्वशी के वचन सुनकर अर्जुन बोले, "हे देवि! हमारे पूर्वज ने आपसे विवाह करके हमारे वंश का गौरव बढ़ाया था अतः पुरु वंश की जननी होने के नाते आप हमारी माता के तुल्य हैं। देवि! मैं आपको प्रणाम करता हूँ।" अर्जुन की बातों से उर्वशी के मन में बड़ा क्षोभ उत्पन्न हुआ और उसने अर्जुन से कहा, "तुमने नपुंसकों जैसे वचन कहे हैं, अतः मैं तुम्हें शाप देती हूँ कि तुम एक वर्ष तक पुंसत्वहीन रहोगे।" इतना कहकर उर्वशी वहाँ से चली गई।

जब इन्द्र को इस घटना के विषय में ज्ञात हुआ तो वे अर्जुन से बोले, "वत्स! तुमने जो व्यवहार किया है, वह तुम्हारे योग्य ही था। उर्वशी का यह शाप भी भगवान की इच्छा थी, यह शाप तुम्हारे अज्ञातवास के समय काम आयेगा। अपने एक वर्ष के अज्ञातवास के समय ही तुम पुंसत्वहीन रहोगे और अज्ञातवास पूर्ण होने पर तुम्हें पुनः पुंसत्व की प्राप्ति हो जायेगी।"

30 अगस्त 2010

बूंदी का कडाली तीज मेला ( Teej of Bundi Kadally Fair )


राजस्थान रंग-बिरंगी तीज त्यौहारी संस्कृति लिये अपनी विशेष पहचान रखता है यदि दिन सावन-भादों वाली वर्षा के हों तो त्यौहारी आनंद लोगों के दिलों में स्वतः ही दस्तक देने लगता है।

ऐसे में हरी-भरी अरावली की श्रृंखला में बहते कल-कल झरनों का मौसम घर-घर में त्यौहारी मुस्कान के रंग बिखेर देता है। त्यौहारों पर लगने वाले मेलों में सामाजिक समरसता और भाई-चारे की परम्परा को बनाए रखने की विशेषता होती है।

राजस्थान में त्यौहारी सरगम मेघ-मल्हार गाते सावन माह की तीज से प्रारंभ होकर गणगौर के रस-रसीले त्यौहार तक चलती है।

महिलाओं के मांगलिक सुहाग से जुड़े तीज-गणगौर त्यौहारों की बात ही कुछ और है। महिलाएं अपने सुहाग की मंगल कामना के लिये जहाँ इन त्यौहारों पर पूजा-अर्चना करती हैं। वहीं कई स्थानों पर लोक-लुभावन झांकियां भी निकाली जाती हैं।

राजस्थान में तीज-त्यौहार पर भी ऐसी ही भव्य सवारी निकाली जाती है। इसमें श्रावण शुक्ल तृतीया  को जयपुर में तीज की सवारी निकलती है। यह परम्परा आजादी से पूर्व राजाओं के समय से चली आ रही है।

इसी के साथ भाद्रपद की तृतीया पर बूंदी छोटी काशी में भी तीज की भव्य सवारी निकाली जाती है। वर्षा-रितु में हरी-भरी व शीतल धरती और नदी नालों की कल-कल के चलते इस तीज के त्यौहार का उत्साह व उमंग देखते ही बनता है। तीज महिलाओं के लिये सज-धज वाला मांगलिक त्यौहार है। विवाहित महिलाएं अमर सुहाग हेतु माँ पार्वती की पूजा अर्चना करती हैं।

बूंदी में लगभग 186 वर्षों से तीज मेला लगता है। मेले सामाजिक मेल-मिलाप बढाने और सांस्कृतिक जीवन बनाए रखने में बड़े मददगार होते हैं। इस मेले में बूंदी शहर के आस-पास के ग्रामीण अंचल के लोग बड़ी संख्या में तीज माता के दर्शन करते और मेले की झाकियां देखने के लिये आते हैं। ग्रामीणों की अपनी दिलीमस्ती होती है। यह ढोल-मंजीरों अलगोजे की धुनों पर नाचते गाते और हाथ में छाता घुमाते नजर आते हैं। तभी लगता है की मेले हमारे जीवन में नई उमंग भरने में सक्षम हैं।

बूंदी में तीज मेला प्रारम्भ होने की भी एक रोचक घटना है। बूंदी रियासत में गोठडा के ठाकुर बलवंत सिंह पक्के इरादे वाले जांबाज सैनिक भावना से ओतप्रोत व्यक्ति थे। एक बार अपने किसी मित्र के कहने पर की जयपुर में तीज भव्य सवारी निकलती है, यदि अपने यहाँ भी निकले तो शान की बात रहे। कहने वाले साथी ने तो यह बात सहज में कह दी पर ठाकुर बलवंत सिंह के दिल में टीस-सी लग गई। उन्होंने जयपुर की उसी तीज को जीत कर लाने का मन बना लिया। ठाकुर अपने ग्यारह विश्वनीय जांबाज सैनिक को लेकर सावन की तीज पर जयपुर सवारी स्थल पहुँच गए।

निश्चित कार्यक्रम के अनुसार जयपुर के चहल-पहल वाले बाजारों से तीज की सवारी, शाही तौर-तरीके से निकल रही थी। ठाकुर बलवंत सिंह हाडा अपने जांबाज साथियों के पराक्रम से जयपुर की तीज को गोठडा ले आए और तभी से तीज माता की सवारी गोठडा में निकलने लगी।

ठाकुर बलवंत सिंह की मृत्यु के बाद बूंदी के राव राजा रामसिंह उसे बूंदी ले आए और तभी से उनके शासन काल में तीज की सवारी भव्य रूप से निकलने लगी। इस सवारी को भव्यता प्रदान करने के लिये शाही सवारी भी निकलती थी। इसमें बूंदी रियासत के जागीरदार, ठाकुर व धनाढय लोग अपनी परम्परागत पोशाक पहनकर पूरी शानो-शौकत के साथ भाग लिया करते थे। सैनिकों द्वारा शौर्य का प्रदर्शन किया जाता था।

सुहागिनें सजी-धजी व लहरिया पहन कर तीज महोत्सव में चार चाँद लगाती थीं। इक्कीस तोपों की सलामी के बाद नवल सागर झेल के सुन्दरघात से तीज सवारी प्रमुख बाजार से होती हुई रानी जी की बावडी तक जाती थी। वहां पर सांस्कृतिक तक जाती थी। वहां पर सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे। नृत्यांगनाएं अपने नृत्य से दर्शकों का मनोरंजन करती थीं। करतब दिखाने वाले कलाकारों को सम्मानिक किया जाता था और अतिथियों का आत्मीय स्वागत किया जाता था। मान-सम्मान एवं सांस्कृतिक कार्यक्रमों के बाद तीज सवारी वापिस राजमहल में लौटती थी।

दो दिवसीय तीज सवारी के अवसर पर विभिन्न प्रकार के जन मनोरंजन कार्यक्रम भी आयोजित किए जाते थे, जिनमें दो मदमस्त हाथियों का युद्ध होता था, जिसे देखने लोगों की भीड़ उमड़ती थी।

स्वतन्त्रता के बाद भी तीज की सवारी निकालने की परम्परा बनी हुई है। अब दो दिवसीय तीज सवारी निकालने का दायित्व नगर पालिका उठा रही है। राजघराने द्वारा तीज की प्रतिमा को नगरपालिका को नहीं दिए जाने से तीज की दूसरी निर्मित करा कर प्रतिवर्ष भाद्रपद माह की तृतीय को तीज सवारी निकालने की स्वस्थ सान्क्रतिक परम्परा बनी हुई है।

यघपि कुछ समय तक राजघराने की तीज भी राजमहलों के अन्दर ही निकलती रही है। लेकिन कालांतर में सीमित दायरे में तीज की सवारी का निकलना बंद हो गया है। केवल नगरपालिका द्वारा निकाली जा रही तीज माता की सवारी ही आम जनता के दर्शनार्थ निकली जा रही है। पिछले दो वर्षों से जिला प्रशासन के विशेष अनुरोध और आश्वासन के बाद राजघराने की तीज भी अब तीज सवारी में निकाली जा रही है।

अब तीज का त्यौहार यहाँ लोकोत्सव के रूप में मनाया जाता है। राज्य सरकार बूंदी के पंद्रह दिवसीय तीज मेले के लिये विशेष बजट का प्रावधान करती है। कुंभा स्टेडियम में आयोजित तीज मेले में चलने वाले कार्यक्रमों में  विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रम होते हैं। इसमें कवी सम्मलेन, कव्वाली, अलगोजे एवं स्कूली छात्र-छात्राओं द्वारा विभिन्न कार्यक्रम प्रस्तुत किये जाते हैं। दर्शकों के लिये ये मनोरंजन के ख़ास आकर्षण होते हैं। मेले में विभिन्न सामानों की दुकाओं, बच्चों के झूले, सर्कस व अजीबों-गरीब कारनामों का भी अपना आकर्षण होता है। महिलाओं का मीना बाजार अपनी लकदक सुर्ख़ियों में रहता है।

यह सच है की आज टी.वी. संस्कृतिक  ने लोकानुरंजन के इन परम्परागत कार्यक्रमों के आकर्षण को काफी कम कर दिया है, फिर भी वर्षा रितु के मौसम की इस कजली तीज मेले के प्रति यहाँ के श्रद्धालुओं में आज भी उत्साह बना हुआ है। तीज माता की सवारी देखने दूर-दूर के शहरों और आसपास के गावों से बड़ी संख्या में  लोग आते हैं। आखिर वह जिले का लोकप्रिय वार्षिक मेला जो ठहरा!

                                                                                                                                                              - दिनेश विजयवर्गीय, बूंदी

भगवान के नाम का जाप ही एक मात्र सहारा : कर्ण ( Chanting the name of God the only resort : Karn )

उपमंडल के गांव सौलधा के सत्संग भवन में श्रद्धालुओं को प्रवचन देते पंडित कर्ण सिंह ने कहा - कि कलियुग को सभी कोसते हैं क्योंकि यहां सभी मानव क्रोध, राग, द्वेष और वासना से ग्रस्त है। मगर यह भी सच है कि केवल कलियुग ही वह काल है जिसमें किसी भी अवस्था में केवल प्रभु का सुमिरन करते हुए प्रभु को पाया जा सकता है। कलियुग में मानव बडी सरलता से भगवान का नाम लेते हुए जीवन के भवसागर को पार कर मोक्ष को प्राप्त कर सकता है।

पंडित जी ने कहा कि कोई कहता है कि काश हम सतयुग में पैदा होते तो कोई त्रेता और द्वापर युग के गुण गाता है। कलियुग में बेशक कई गडबडियां है मगर उन सबसे बचने का उपाय जितनी सरलता से कलियुग में मिल सकता है, उतनी सरलता से किसी काल में नहीं मिल सकता। पहले सत युग में प्रभु को पाने के लिए ध्यान आदि लगाते हुए मानव को बडे कठिन प्रयास करने की आवश्यकता होती थी तो त्रेता युग में प्रभु योग से मिलते थे और द्वापर युग में कर्मकांड ही प्रभु प्राप्ति का मार्ग था। ये सभी मार्ग नितांत कठिन और घोर तपस्या के बाद ही फलीभूत होते थे पर कलियुग में भगवान को प्राप्त करना पहले के मुकाबले बडा ही सरल हो गया है। जरूरत है तो केवल भगवान के नाम का सुमिरन करने की। यह वह मार्ग है जिस पर विविध संप्रदाय एकमत हो जाते हैं।

उन्होंने कहा कि भगवान का नाम जपने के लिए किसी विधिविधान, देश, काल व अवस्था की कोई बाधा नहीं है। कोई भी मानव किसी भी प्रकार से, कैसी भी अवस्था में, किसी भी परिस्थिति में, कही पर भी और कैसे भी भगवान के नाम का जाप किया जा सकता है। भगवान के नाम का जाप करने से हर युग में भक्तों का भला हुआ है। कलियुग में कबीर, मीरा, रैदास, नानक, रामकृष्ण परमहंस, रमन महर्षि आदि कई भक्तों ने भगवान के नाम का सुमिरन करते हुए जीवन के भवसागर को पार किया है। राम नाम का जाप एक औषधि है जिससे सभी रोग नष्ट हो जाते हैं।

मानव सेवा ही सबसे बड़ा धर्म: माधवानंद ( Human Services as the largest religion : Maadhavanand )

रघुनाथ मंदिर में श्रद्धालुओं को प्रवचन सुनाते हुए पंडित माधवानंद ने कहा - कि वाणी के सही इस्तेमाल करने पर ही व्यक्ति के व्यक्तित्व की सही पहचान होती है। इसी के माध्यम से कोई संत-महात्मा बन जाता है और कोई डाकू-लुटेरा।

उन्होंने कहा कि मनुष्य को मन, वचन व कर्म से नि:स्वार्थ भाव से सेवा करनी चाहिए। मन मे किसी के प्रति द्वेष भाव नहीं रखना चाहिए तथा अपनी वाणी से किसी को कठोर शब्द नहीं कहने चाहिए। उन्होंने कहा कि मनुष्य के बोलचाल के ढंग से ही उसके व्यक्तित्व का निर्माण भी होता है। इसी के माध्यम से कोई संत-महात्मा बन जाता है। यह मनुष्य के ऊपर निर्भर करता है कि वह अपने भाषा और शब्दों का कैसे उपयोग करता है।

उन्होंने कहा कि भाई चारा व मैत्री संबंधों को लोग भूलते जा रहे है। इसलिए आज कोई भी छोटा हो या बडा किसी अनजान या परिचित व्यक्ति की भावनाओं को ठेस पहुंचाने से नहीं चुकता। अब जान बूझ कर ऐसे कटू शब्दों का व्यवहार कर बैठता है जिससे किसी अन्य का हित व भावनाएं आहत हो जाती है। हमे ऐसा नहीं करना चाहिए। मैत्री व बंधुंत्व की भावना का आदर करते हुए दूसरों के प्रति अपना व्यवहार मृदुल बनाए रखना चाहिए। प्राय: देखा जाता है कि लोग अपनी शक्ति का उपयोग एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए करते है जबकि उन्हें अपनी शक्ति का उपयोग आपस में लडने की बजाय अन्याय व दूसरी बुराईयों से लडने के लिए करना चाहिए। मनुष्य में भक्ति भावना व संस्कार ग्रहण करने की प्रवृति गायब होती जा रही है, जिसके चलते हमारे समाज में निरन्तर बुराइयों को अपनाने की प्रवृति को बढावा मिल रहा है। बुराइयों पर विजय प्राप्त करने पर ही मनुष्य का सर्वागीण विकास संभव है।

उन्होंने कहा कि मानव सेवा ही सबसे बडा धर्म है इसलिए मनुष्य को अपनी शक्ति का उपयोग मानव सेवा करते हुए जीवन व्यतीत करना चाहिए। उन्होंने कहा कि जो व्यक्ति मानव सेवा में लीन रहते हैं वे मनुष्य सदैव बुराईयों से दूर रहते हैं। जिसके कारण उन्हें मानव सेवा करने पर अत्यन्त खुशी महसूस होती है। उन्होंने कर्म के संदर्भ में कहा कि मनुष्य द्वारा किया गया कर्म ही उसका भाग्य विधाता होता है अच्छे कर्मो से ही अच्छे भविष्य का निर्माण होता है।

29 अगस्त 2010

प्यार बांटते साई ( Love sharing Sai )

प्राणिमात्र की पीडा हरने वाले साई हरदम कहते, मैं मानवता की सेवा के लिए ही पैदा हुआ हूं। मेरा उद्देश्य शिरडी को ऐसा स्थल बनाना है, जहां न कोई गरीब होगा, न अमीर, न धनी और न ही निर्धन..। कोई खाई, कैसी भी दीवार..बाबा की कृपा पाने में बाधा नहीं बनती। बाबा कहते, मैं शिरडी में रहता हूं, लेकिन हर श्रद्धालु के दिल में मुझे ढूंढ सकते हो। एक के और सबके। जो श्रद्धा रखता है, वह मुझे अपने पास पाता है।

साई ने कोई भारी-भरकम बात नहीं कही। वे भी वही बोले, जो हर संत ने कहा है, सबको प्यार करो, क्योंकि मैं सब में हूं। अगर तुम पशुओं और सभी मनुष्यों को प्रेम करोगे, तो मुझे पाने में कभी असफल नहीं होगे। यहां मैं का मतलब साई की स्थूल उपस्थिति से नहीं है। साई तो प्रभु के ही अवतार थे और गुरु भी, जो अंधकार से मुक्ति प्रदान करता है। ईश के प्रति भक्ति और साई गुरु के चरणों में श्रद्धा..यहीं से तो बनता है, इष्ट से सामीप्य का संयोग।

दैन्यताका नाश करने वाले साई ने स्पष्ट कहा था, एक बार शिरडी की धरती छू लो, हर कष्ट छूट जाएगा। बाबा के चमत्कारों की चर्चा बहुत होती है, लेकिन स्वयं साई नश्वर संसार और देह को महत्व नहीं देते थे। भक्तों को उन्होंने सांत्वना दी थी, पार्थिव देह न होगी, तब भी तुम मुझे अपने पास पाओगे।

अहंकार से मुक्ति और संपूर्ण समर्पण के बिना साई नहीं मिलते। कृपापुंज बाबा कहते हैं, पहले मेरे पास आओ, खुद को समर्पित करो, फिर देखो..। वैसे भी, जब तक मैं का व्यर्थ भाव नष्ट नहीं होता, प्रभु की कृपा कहां प्राप्त होती है। साई ने भी चेतावनी दी थी, एक बार मेरी ओर देखो, निश्चित-मैं तुम्हारी तरफ देखूंगा।

1854में बाबा शिरडीआए और 1918में देह त्याग दी। चंद दशक में वे सांस्कृतिक-धार्मिक मूल्यों को नई पहचान दे गए। मुस्लिम शासकों के पतन और बर्तानियाहुकूमत की शुरुआत का यह समय सभ्यता के विचलन की वजह बन सकता था, लेकिन साई सांस्कृतिक दूत बनकर सामने आए। जन-जन की पीडा हरी और उन्हें जगाया, प्रेरित किया युद्ध के लिए। युद्ध किसी शासन से नहीं, कुरीतियों से, अंधकार से और हर तरह की गुलामी से भी! यह सब कुछ मानवमात्र में असीमित साहस का संचार करने के उपक्रम की तरह था। हिंदू, पारसी, मुस्लिम, ईसाई और सिख॥ हर धर्म और पंथ के लोगों ने साई को आदर्श बनाया और बेशक-उनकी राह पर चले।

दरअसल, साई प्रकाश पुंज थे, जिन्होंने धर्म व जाति की खाई में गिरने से लोगों को बचाया और एक छत तले इकट्ठा किया। घोर रूढिवादी समय में अलग-अलग जातियों और वर्गो को सामूहिक प्रार्थना करने और साथ बैठकर चिलम पीने के लिए प्रेरित कर साई ने सामाजिक जागरूकता का भी काम किया। वे दक्षिणा में नकद धनराशि मांगते, ताकि भक्त लोभमुक्तहो सकें। उन्हें चमत्कृत करते, जिससे लोगों की प्रभु के प्रति आस्था दृढ हो। आज साई की नश्वर देह भले न हो, लेकिन प्यार बांटने का उनका संदेश असंख्य भक्तों की शिराओंमें अब तक दौड रहा है।