आनंद क्या है? अर्थात आनंद को किस तरह परिभाषित किया जा सकता है? क्या आनंद भी श्री कृष्ण के विराट रूप की तरह है? मूल प्रश्न है कि आनंद क्या है. क्या सुख की चरमावस्था ही आनंद कहलाती है? लेकिन वह सुख क्या है? क्या दुःख का अभाव ही सुख है? जिस तरह आनंद को विभिन्न स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है, दुःख को भी उसी तरह विभिन्न स्तरों पर अनुभव किया जा सकता है. पर दुःख क्या है?
क्या मन के अनुकूल कोई बात न हो तो वह दुःख है? क्या प्रतिकूल अनुभव ही सुख का जनक है? दुःख? बुद्ध के चार आर्य सत्यों का मूल. बुद्ध दुःख से मुक्ति का उपाय भी बताते हैं. उनके अनुसार अष्टांग मार्ग पर चलकर दुःख से मुक्ति पाई जा सकती है. अष्टांग मार्ग अर्थात माध्यम मार्ग. मध्यम मार्ग अर्थात अति से दूर, बीच का रास्ता सम्यक द्रष्टि. तो क्या दुःख की निवृत्ति कर आनंदित रहा जा सकता है? पंचम जगद गुरू कृपालु महाराज की घोषणा है- ईश्वर ही आनंद है या आनंद ही ईश्वर है. उनके अनुसार श्रीकृष्ण की अहेतुक उपासना कर यह आनंद प्राप्त किया जा सकता है. आहेतुक उपासना अर्थात कामना रहित उपासना. सम्पूर्ण, बिना किसी प्रतिदान की लालसा के.
इसे ही परमानंद कहा जाता है. जगद गुरू कृपालु महाराज कहते हैं, जीव जन्म जन्मांतर से इसी आनंद को पाने के लिये व्यग्र है. लेकिन जीव हर जन्म से कुछ न कुछ आनंद पाता ही है - अपने-अपने ढंग से. आध्यात्मिक जगत में इसी आनंद को लेकर गहन चिंतन किया गया है. आनंद के दो वर्ग बनाए गए हैं. - मायाजन्य आनंद और ईश्वर का रूप. ब्रह्मानंद कहें या ईश्वरानं दोनों, एक ही है. शंकराचार्य ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या मानते हैं, पर जगत क्या सचमुच मिथ्या है? पक्ष-विपक्ष में बुद्धि को भ्रमित कर देने वाले तर्कों और मत-मतांतरों का यह एक ऐसा चक्रव्यूह है जिसमें अभिमन्यु की तरह प्रवेश तो सहज है. पर निकलना असंभव या दुष्कर.
फिर वही जिज्ञासा कि आनंद क्या है? एक सोच उभरती है - आनंद परिभाषा का नहीं, अनुभव का क्षेत्र है. गूंगे के गुड की तरह. गूंगा गुड के स्वाद का अनुभव तो कर सकता है, पर उस अनुभव को व्यक्त नहीं कर सकता. हम सब अपने जीवन में शायद प्रतिदिन किसी न किसी क्षण आनंद का अनुभव करते हैं - सुख तो पाते ही हैं, अपनी-अपनी रूची, अपनी अपनी हैसियत और अपने-अपने संस्कारों के अनुसार.
ऐसा लगता है कि जिस तरह कस्तूरी मृग की नाभि में होती है, उसी तरह शान्ति और आनंद हमारी नाभि में है. इस स्तर पर हम सब कस्तूरी मृग ही हैं. आनंद का सृजन भी हम ही करते हैं, अनुभव भी हम ही करते हैं. इस तरह आनंद के जनक और उसके उपभोक्ता दोनों हम स्वयं हैं.
दरअसल आनंद एक मन स्थिति का नाम है. दुःख और सुख दोनों हमारी मन स्थिति के रूप हैं. लेकिन विंड बना यह है कि हमारी मनस्थिति के स्वामी हम स्वयं नहीं हैं, उस पर हमारे आसपास के वातावरण का, मिलने-जुलने वाले लोगों का भी अच्छा-खासा असर पड़ता है.
हमारे आपास के वातावरण के कुप्रभावों से बचाव और आनंद की प्राप्ति का एक रास्ता है, और वह है सहज रहना, पर जीवन में सहजता लाना किसी तपस्या से कम नहीं.
यदि हम अपने में सहज जीवन जीने की आदत डाल लें, तो आनंद की प्राप्ति सहज हो जाएगी. सहजता एक कुंजी है, सनान्तन आनद ही.
क्या मन के अनुकूल कोई बात न हो तो वह दुःख है? क्या प्रतिकूल अनुभव ही सुख का जनक है? दुःख? बुद्ध के चार आर्य सत्यों का मूल. बुद्ध दुःख से मुक्ति का उपाय भी बताते हैं. उनके अनुसार अष्टांग मार्ग पर चलकर दुःख से मुक्ति पाई जा सकती है. अष्टांग मार्ग अर्थात माध्यम मार्ग. मध्यम मार्ग अर्थात अति से दूर, बीच का रास्ता सम्यक द्रष्टि. तो क्या दुःख की निवृत्ति कर आनंदित रहा जा सकता है? पंचम जगद गुरू कृपालु महाराज की घोषणा है- ईश्वर ही आनंद है या आनंद ही ईश्वर है. उनके अनुसार श्रीकृष्ण की अहेतुक उपासना कर यह आनंद प्राप्त किया जा सकता है. आहेतुक उपासना अर्थात कामना रहित उपासना. सम्पूर्ण, बिना किसी प्रतिदान की लालसा के.
इसे ही परमानंद कहा जाता है. जगद गुरू कृपालु महाराज कहते हैं, जीव जन्म जन्मांतर से इसी आनंद को पाने के लिये व्यग्र है. लेकिन जीव हर जन्म से कुछ न कुछ आनंद पाता ही है - अपने-अपने ढंग से. आध्यात्मिक जगत में इसी आनंद को लेकर गहन चिंतन किया गया है. आनंद के दो वर्ग बनाए गए हैं. - मायाजन्य आनंद और ईश्वर का रूप. ब्रह्मानंद कहें या ईश्वरानं दोनों, एक ही है. शंकराचार्य ब्रह्म को सत्य और जगत को मिथ्या मानते हैं, पर जगत क्या सचमुच मिथ्या है? पक्ष-विपक्ष में बुद्धि को भ्रमित कर देने वाले तर्कों और मत-मतांतरों का यह एक ऐसा चक्रव्यूह है जिसमें अभिमन्यु की तरह प्रवेश तो सहज है. पर निकलना असंभव या दुष्कर.
फिर वही जिज्ञासा कि आनंद क्या है? एक सोच उभरती है - आनंद परिभाषा का नहीं, अनुभव का क्षेत्र है. गूंगे के गुड की तरह. गूंगा गुड के स्वाद का अनुभव तो कर सकता है, पर उस अनुभव को व्यक्त नहीं कर सकता. हम सब अपने जीवन में शायद प्रतिदिन किसी न किसी क्षण आनंद का अनुभव करते हैं - सुख तो पाते ही हैं, अपनी-अपनी रूची, अपनी अपनी हैसियत और अपने-अपने संस्कारों के अनुसार.
ऐसा लगता है कि जिस तरह कस्तूरी मृग की नाभि में होती है, उसी तरह शान्ति और आनंद हमारी नाभि में है. इस स्तर पर हम सब कस्तूरी मृग ही हैं. आनंद का सृजन भी हम ही करते हैं, अनुभव भी हम ही करते हैं. इस तरह आनंद के जनक और उसके उपभोक्ता दोनों हम स्वयं हैं.
दरअसल आनंद एक मन स्थिति का नाम है. दुःख और सुख दोनों हमारी मन स्थिति के रूप हैं. लेकिन विंड बना यह है कि हमारी मनस्थिति के स्वामी हम स्वयं नहीं हैं, उस पर हमारे आसपास के वातावरण का, मिलने-जुलने वाले लोगों का भी अच्छा-खासा असर पड़ता है.
हमारे आपास के वातावरण के कुप्रभावों से बचाव और आनंद की प्राप्ति का एक रास्ता है, और वह है सहज रहना, पर जीवन में सहजता लाना किसी तपस्या से कम नहीं.
यदि हम अपने में सहज जीवन जीने की आदत डाल लें, तो आनंद की प्राप्ति सहज हो जाएगी. सहजता एक कुंजी है, सनान्तन आनद ही.
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