भारत में पूजा-पाठ में एक चीज का बहुत ज्यादा महत्व हैं और वह है फूल। यूँ तो आम तौर पर पूजा में गेंदा, अडहुल गुलाब जैसे फूलों का प्रचलन अधिक है, पर ख़ास मौकों पर ख़ास फूलों की आवश्यकता होती है। देवी-देवताओं को भी ख़ास फूल चढाए जाते हैं। अपराजिता भी एक ऐसा फूल है। जिसकी काफी महत्ता है। भारत में यह फूल दो रंगों में पाया जाता है।
यह देवी दुर्गा का भी अतिप्रिय फूल है। इस फूल को लोकणिका, गिरिकणिका व मोहनाशिनी भी कहा जाता है।
दुर्गा पूजा के अवसर पर इस फूल पर बड़ी महत्ता है। देवी दुर्गा के नौ रूपों के प्रतीक के स्वरुप नवपत्रिका की पूजा की जाती है। इस नवपत्रिका को सफ़ेद अपराजिता की लता से बंधा जाता है। दुर्गा पूजा के दौरान अपराजिता का फूल देवी को अर्पित किया जाता है। इसके अलावा भगवान् शिव को भी यह फूल अर्पित लिया जाता है। ऐसा माना जाता है कि शिवरात्री के दौरान इस फूल को भोलेनाथ पर चढाने से समस्त मनोकामनाएं पूर्ण होती है। भगवान् शंकर का वर्ण भी नीला होता है और अपराजिता का भी।
लोग इस फूल कि लता को अपने घरों में लगातें हैं। लगभग सभी बंगलाभाषी परिवारों में इस फूल की लताएं जरुर मिल जाती है। यह फूल जाड़े के समय ठीक दुर्गा पूजा के आसपास काफी संख्या में फूलता है। इसकी लताएं फूलों से भर जाती है। आम दिनों में भी इसके फूल को देवी- देवताओं को चढाया। यह फूल औषधीय गुणों से भी भरपूर है। आयुर्वेद में इसका काफी उपयोग होता है चरक संहिता में कहा गया है कि अपराजिता का फूल नजला और आँख की बीमारियों में फायदेमंद है। इस फूल को देवी दुर्गा और शिव के अलावा अन्य देवताओं को अर्पित किया जाता।
21 जनवरी 2010
युद्ध के देवी-देवता
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Posted by Udit bhargava at 1/21/2010 03:28:00 pm 0 comments
मज़ाक
आशीर्वाद
गोश्त क़ी गंध
चार दिशायें
दाह संस्कार
उत्थान
कोबरा
गुरु दक्षिणा
ग्रहण और ग्रहण
भावुक होना मना है
बेबसी
मां का तर्क
समीकरण
संभावना
भूल सुधार
सबक
सुबूत
जगनभाई का बजट
दरोगा का दामाद
संस्कार
तीन ठग
आदर्श
मट्टी-ख़ाक मट्टी
एक प्रेमकथा
पुलिस चौकी
बरात न लौटे
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Posted by Udit bhargava at 1/21/2010 01:04:00 am 0 comments
20 जनवरी 2010
सौंदर्य के घरेलू नुस्खे
गर्मियों के दिनों में बाजार में मौजूद तमाम तरह के सौन्दर्य प्रशाधन अगर आपकी त्वचा की सही से देखा भाल नही कर परहे है तो हाजिर है कुछ प्रसिद्ध घरेलु नुस्खे जो आप की त्वचा की देख भाल तो करेंगे ही साथ में सौन्दर्य प्रशाधन पर फालतू खर्च होने वाले आप के बहुमूल्य पैसे की बचत भी करेंगे, तो आप नि:संकोच इन घरेलू नुस्खों को अपना सकते है इनका कोई विपरीत प्रभाव (साइडइफेक्ट) भी आप की त्वचा के ऊपर नही पड़ता है .आपके घर में मौजूद गुलाब जल, नींबू, खीरा और दही न सिर्फ आपकी त्वचा को तरो-ताजा रखेंगे बल्कि गर्मियों के दिनों में सूर्य की पारा बैगनी किरणों से होने वाले दुष्प्रभावों से भी बचायेंगे।नेचुरल सनस्क्रीन को बाज़ार से खरीदने अच्छा है की आप घर में रखी चाय की पत्तियों को पानी में उबाल ले और उबले हुए पानी को ठंडा करके इस्तेमाल कर सकती है।यह आपको गर्मियों के दिनों में घर से बाहर निकलने पर आपकी त्वचा को सूर्य की किरणों से जलने से बचाने के साथ ही साथ आपके चेहरे के मेकअप को भी चुस्त दुरुस्त रखता है।एक चमच सौफ को पानी मे अच्छी तरह उबालें। जब पाने गाढा हो जाए तो उतनी मात्रा मे ही शहद मिला लें इसे चेहरे पर लगाने के १० मिनट बाद चेहरा धो लें। झुर्रियां दुर होकर चेहरे पर चमक आएगी।चेहरे पर बादाम के तेल की मालिश करने से आपकी चहरे के रोमकूप खुलते है।शहद को त्वचा पर मलने से नमी नष्ट नही होती । तरबूजे के गूदे को चेहरे व गर्दन पर मलें । थोडी देर बाद इसे ठंडे पानी से धो लें । नियमित करने से चेहरे के दाग दूर होते हैंतुलसी के पत्तों का रस निकाल कर उसमे बराबर मात्रा मे नीबूं का रस मिला कर लगाएं । चेहरे की झांईयां दूर होती है ।चेहरे पर गुलाबी पन लाने के लिए नहाने से पहले कच्चे दूध मे निंबू का रस व नमक मिला कर मलें।पश्चात चेहरे को थपथपा कर सुखा लें झुर्रियां दुर होंगी।चेहरे, गले व बांहों की त्वचा के लिए नीम की पत्ते व गुलाब के पंखुडियां समान मात्रा मे लेकर 4 गुना मात्रा पानी मे भीगो दें । सुबह इस पानी को इतना उबालें कि पानी एक तिहाई रह जाए । अब यदि पानी 100 मी ली हो, तो लाल चंदन का बारीक चूर्ण 10 ग्राम मिला कर घोल बनाएं व फ़्रिज मे रख दें । एक घंटे बाद इस पानी मे रुई डुबो कर चेहरे पर लगाएं । कुछ मिनट बाद रगड कर चेहरे की त्वचा साफ़ कर लें । अगर आंखों के नीचे काले घेरें हों तो सोते समय बादाम रोगन उंगली से आंखों के नीचे लगाएं और 5 मिनट तक उंगली से हल्के हल्के मलें । एक सप्ताह के प्रयोग से ही त्वचा में निखार आ जाता है और आंखों के नीचे के काले घेरें भी खत्म होते हैं ।शहद मे ज़रा-सी हलदी मिला कर चेहरे पर लगाएं इससे चेहरे की मैल निकलने से चेहरा साफ व ताज़गी भरा बना रहेगा। केले को मैश करके उस मे एक चम्मच दूध मिलाएं। इसे चेहरे पर लगा कर ठंडे पानी से छिंटे मारें। ऐसा १०-१५ मिनट करने के बाद चेहरे को साफ़ पानी से धों लें।
Posted by Udit bhargava at 1/20/2010 12:05:00 am 0 comments
19 जनवरी 2010
विभीषणकृतं हनुमत्स्तोत्रम्
नमो वानरवीराय सुग्रीवसख्यकारिणे। लङ्काविदाहनार्थाय हेलासागरतारिणे॥
सीताशोकविनाशाय राममुद्राधराय च। रावणान्तकुलच्छेदकारिणे ते नमो नम:॥
मेघनादमखध्वंसकारिणे ते नमो नम:। अशोकवनविध्वंसकारिणे भयहारिणे॥
वायुपुत्राय वीराय आकाशोदरगामिने। वनपालशिरश्छेदलङ्काप्रासादभञ्जिने॥
ज्वलत्कनकवर्णाय दीर्घलाड्गूलधारिणे। सौमित्रिजयदात्रे च रामदूताय ते नम:॥
अक्षस्य वधकत्र्रे च ब्रह्मपाशनिवारिणे। लक्ष्मणाङ्गमहाशक्तिघातक्षतविनाशिने॥
रक्षोघ्राय रिपुघनय भूतघनय च ते नम:। ऋक्षवानरवीरौघप्राणदाय नमो नम:॥
परसैन्यबलघनय शस्त्रास्त्रघनय ते नम:। विषघनय द्विषघनय ज्वरघनय च ते नम:॥
महाभयरिपुघनय भक्तत्राणैककारिणे। परप्रेरितमन्द्दाणां यन्द्दाणां स्तम्भकारिणे॥
पय:पाषाणतरणकारणाय नमो नम:। बालार्कमण्डलग्रासकारिणे भवतारिणे॥
नखायुधाय भीमाय दन्तायुधधराय च। रिपुमायाविनाशाय रामाज्ञालोकरक्षिणे॥
प्रतिग्रामस्थितायाथरक्षोभूतवधार्थिने। करालशैलशस्त्राय द्रुमशस्त्राय ते नम:॥
बालैकब्रह्मचर्याय रुद्रमूर्तिधराय च। विहंगमाय सर्वाय वज्रदेहाय ते नम:॥
कौपीनवाससे तुभ्यं रामभक्तिरताय च। दक्षिणाशाभास्कराय शतचन्द्रोदयात्मने॥
कृत्याक्षतव्यथाघनय सर्वकेशहराय च। स्वाम्याज्ञापार्थसंग्रामसंख्ये संजयधारिणे॥
भक्तान्तदिव्यवादेषु संग्रामे जयदायिने। किल्किलाबुबुकोच्चारघोरशब्दकराय च॥
सर्पागिन्व्याधिसंस्तम्भकारिणे वनचारिणे। सदा वनफलाहारसंतृप्ताय विशेषत:॥
महार्णवशिलाबद्धसेतुबन्धाय ते नम:। वादे विवादे संग्राम भये घोरे महावने॥
सिंहव्याघ्रादिचौरेभ्य: स्तोत्रपाठद् भयं न हि। दिव्ये भूतभये व्याधौ विषे स्थावरजङ्गमे॥
राजशस्त्रभये चोग्रे तथा ग्रहभयेषु च। जले सर्वे महावृष्टौ दुर्भिक्षे प्राणसम्प£वे॥
पठेत् स्तोत्रं प्रमुच्येत भयेभ्य: सर्वतो नर:। तस्य क्वापि भयं नास्ति हनुमत्स्तवपाठत:॥
सर्वदा वै त्रिकालं च पठनीयमिदं स्तवम्। सर्वान् कामानवापनेति नात्र कार्या विचारणा॥
विभीषणकृतं स्तोत्र ताक्ष्र्येण समुदीरितम्। ये पठिष्यन्ति भक्त्या वै सिद्धयस्तत्करे स्थिता॥ अर्थ :- हनुमान! आपको नमस्कार है। मारुतनन्दन! आपको प्रणाम है। श्रीरामभक्त! आपको अभिवादन है। आपके मुख का वर्ण श्याम है, आपको नमस्कार है। आप सुग्रीव के साथ (भगवान् श्रीराम की) मैत्री के संस्थापक और लंका को भस्म कर देने के अभिप्राय से खेल-ही-खेल में महासागर को लाँघ जानेवाले हैं, आप वानर-वीर को प्रणाम है। आप श्रीराम की मुद्रिका को धारण करनेवाले, सीताजी के शोक के निवारक और रावण के कुल के संहारकर्ता हैं, आपको बारम्बार अभिवादन है। आप अशोक-वन को नष्ट-भ्रष्ट कर देनेवाले और मेघनाद के यज्ञ के विध्वंसकर्ता हैं, आप भयहारी को पुन:-पुन: नमस्कार है। आप वायु के पुत्र, श्रेष्ठ वीर, आकाश के मध्य विचरण करनेवाले और अशोक-वन के रक्षकों का शिरश्छेदन करके लंका की अट्टालिकाओं को तोड-फोड डालनेवाले हैं। आपकी शरीर-कान्ति प्रतप्त सुवर्णकी-सी है, आपकी पूँछ लंबी है और आप सुमित्रा-नन्दन लक्ष्मण के विजय-प्रदाता हैं, आप श्रीराम दूत को प्रणाम है। आप अक्षकुमार के वधकर्ता, ब्रह्मपाश के निवारक, लक्ष्मणजी के शरीर में महाशक्ति के आघात से उत्पन्न हुए घाव के विनाशक, राक्षस, शत्रु एवं भूतों के संहारकर्ता और रीछ एवं वानर-वीरों के समुदाय के लिये जीवन-दाता हैं, आपको बारम्बार अभिवादन है।
आप शस्त्रास्त्र के विनाशक तथा शत्रुओं के सैन्य-बल का मर्दन करनेवाले हैं। आपको नमस्कार है। विष, शत्रु और ज्वर के नाशक आपको प्रणाम है। आप महान् भयंकर शत्रुओं के संहारक, भक्तों के एकमात्र रक्षक, दूसरों द्वारा प्रेरित मन्त्र-यन्त्रों को स्तम्भित कर देनेवाले और समुद्र-जल पर शिलाखण्डों के तैरने में कारणस्वरूप हैं, आपको पुन:-पुन: अभिवादन है। आप बाल-सूर्य मण्डल के ग्रास-कर्ता और भवसागर से तारनेवाले हैं, आपका स्वरूप महान् भयंकर है, आप नख और दाँतों को ही आयुधरूप में धारण करते हैं तथा शत्रुओं की माया के विनाशक और श्रीराम की आज्ञा से लोगों के पालनकर्ता हैं, राक्षसों एवं भूतों का वध करना ही आपका प्रयोजन है, प्रत्येक ग्राम में आप मूर्तरूप में स्थित हैं, विशाल पर्वत और वृक्ष ही आपके शस्त्र हैं, आपको नमस्कार है। आप एकमात्र बाल-ब्रह्मचारी, रुद्ररूप में अवतरित और आकाशचारी हैं, आपका शरीर वज्र के समान कठोर है, आप सर्वस्वरूप को प्रणाम है।
कौपीन ही आपका वस्त्र है, आप निरन्तर श्रीरामभक्ति में निरत रहते हैं, दक्षिण दिशा को प्रकाशित करने के लिये आप सूर्य-सदृश हैं, सैकडों चन्द्रोदयकी-सी आपकी शरीर-कान्ति है, आप कृत्याद्वारा किये गये आघात की व्यथा के नाशक, सम्पूर्ण कष्टों के निवारक, स्वामी की आज्ञा से पृथा-पुत्र अर्जुन के संग्राम में मैत्रीभाव के संस्थापक, विजयशाली, भक्तों के अन्तिम दिव्य वाद-विवाद तथा संग्राम में विजय-प्रदाता, किलकिला एवं बुबुक के उच्चारणपूर्वक भीषण शब्द करनेवाले, सर्प, अगिन् और व्याधि के स्तम्भक, वनचारी, सदा जंगली फलों के आहार से विशेषरूप से संतुष्ट और महासागर पर शिलाखण्डों द्वारा सेतु के निर्माणकर्ता हैं, आपको नमस्कार है। इस स्तोत्र का पाठ करने से वाद-विवाद, संग्राम, घोर भय एवं महावन में सिंह-व्याघ्र आदि हिंसक जन्तुओं तथा चोरों से भय नहीं प्राप्त होता। यदि मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करे तो वह दैविक तथा भौतिक भय, व्याधि, स्थावर-जंगमसम्बन्धी विष, राजा का भयंकर शस्त्र-भय, ग्रहों का भय, जल, सर्प, महावृष्टि, दुर्भिक्ष तथा प्राण-संकट आदि सभी प्रकार के भयों से मुक्त हो जाता है। इस हनुमत्स्तोत्र के पाठ से उसे कहीं भी भय की प्राप्ति नहीं होती। नित्य-प्रति तीनों समय (प्रात:, मध्याह्न, संध्या) इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये। ऐसा करने से सम्पूर्ण कामनाओं की प्राप्ति हो जाती है। इस विषय में अन्यथा विचार करने की आवश्यकता नहीं है। विभीषण द्वारा किये गये इस स्तोत्र का गरुड ने सम्यक् प्रकार से पाठ किया था। जो मनुष्य भक्तिपूर्वक इसका पाठ करेंगे, समस्त सिद्धियाँ उनके करतलगत हो जायँगी।
*****
स्त्रोत :- विभीषणकृत यह स्तोत्र श्रीसुदर्शन संहिता विभीषण-गरुड संवाद से उद्धृत है।
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Posted by Udit bhargava at 1/19/2010 06:40:00 pm 0 comments
शिव खोड़ी में शंकर
पुराणों में शिव खोडीगुफाका उल्लेख किया गया है। मान्यता है कि एक भक्त ने शिव को प्रसन्न करने के लिए बडी तपस्या की। उसकी तपस्या का उद्देश्य शिव को प्रसन्न कर अपने लिए अमरत्व प्राप्त करना था।
शिव ने प्रसन्न होकर उससे वर मांगने के लिए कहा। उसने वरदान मांगा कि तीनों लोकों में मेरा कोई शत्रु न बचे। मैं जिसके सिर पर हाथ रखूं, वह तुरंत भस्म हो जाए। शिव के तथास्तु कहते ही वह शिव भक्त भस्मासुर हो गया। छिपना पडा शिव को एक कथा के अनुसार, भस्मासुर शिव की त्रिकाल शक्तियों से परिचित था, इसलिए वह सबसे पहले शिव को ही भस्म करने के लिए उनके पीछे दौडा। भस्मासुर और शिव के बीच भयंकर युद्ध हुआ। इसलिए इस जगह का नाम पड गया रनसू[रणसू]। युद्ध में शंकर जी भस्मासुर को परास्त नहीं कर पाए और अपनी जान बचाने के लिए एक पहाड की ओर दौड पडे। विशाल पहाड को खोदते [बीच में से दो फाड करते] हुए उन्होंने एक गुफाबना ली और उसमें छुप कर बैठ गए। यही गुफाआज शिव खोडी[खोड] के नाम से प्रसिद्ध है। मोहिनी बने विष्णु कथा के अनुसार, उस समय समुद्र मंथन हो रहा था। देवताओं के हित के लिए विष्णु ने मोहिनी रूप धारण कर लिया था। शिवजी ने उन्हें अपनी रक्षा के लिए पुकारा। मोहिनी रूप धरे विष्णु जब उस गुफाके बाहर पहुंचे, तो भस्मासुर उन पर मोहित हो गया और उनके सामने शादी का प्रस्ताव पेश कर दिया। इस पर मोहिनी बने विष्णु ने उसे अपनी ही तरह नृत्य करने के लिए कहा।
मदमस्त भस्मासुर मोहिनी के इशारों पर नाचने लगा। नाचते-नाचते उसने नृत्य की एक मुद्रा में अपना हाथ अपने सिर के ऊपर रख दिया। शिव से मिले वरदान के कारण वह तुरंत भस्म हो गया। कैसे पहुंचें रनसूपहुंचने के लिए जम्मू से 127किलोमीटर या फिर कटडा से 75किलोमीटर का सफर तय करना पडता है। इसके लिए बसें और निजी टैक्सियां आसानी से उपलब्ध होती हैं। रनसूके बाद 4किलोमीटर की आसान चढाई पैदल ही तय करनी होती है। यह चढाई शिव खोडीगुफाके प्रवेश द्वार पर खत्म होती है।
लगभग आधा किलोमीटर की तंग सुरंग को पार करने के बाद हम गुफाके भीतर पहुंच पाते हैं। गुफामें शिव परिवार की पिंडियांमौजूद हैं। इन सभी पर पहाड से बूंद-बूंद कर जल टपकता रहता है। उनके साथ राम-सीता, पांचों पांडवों, सप्त ऋषि भी पिंडियोंके रूप में मौजूद हैं। पहाड का आकार कटोरे की तरह है, जिसमें लगातार जल गिरता रहता है। खास बात यह है कि शिव खोडीगुफाअंतहीनहै।
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Posted by Udit bhargava at 1/19/2010 06:37:00 pm 0 comments
श्रद्धा व रोमांच से भरपूर अमरनाथ यात्रा
श्रद्धा व रोमांच से भरपूर अमरनाथ यात्रा से हर वर्ष लाखों श्रद्धालु सम्मोहित होते हैं और कठिन सफर तय करके हिमलिंगके दर्शन से खुद को धन्य महसूस करते हैं। बर्फीली हवाएं, तंग रास्ते, थका देने वाली उतराई-चढाई और सबसे बढकर आतंकवादियों की धमकियां भी श्रद्धालुओं की राह नहीं रोक पाती और आषाढ पूर्णिमा से शुरू होकर रक्षा बंधन तक पूरे सावन महीने में होने वाले पवित्र हिमलिंगदर्शन के लिए देश-विदेश से श्रद्धालुओं की भीड उमडी रहती है।
श्रीनगर के उत्तर-पूर्व में 135किलोमीटर दूर समुद्रतल से 13,600फुट की ऊंचाई पर स्थित अमरनाथ गुफाभगवान शिव के प्रमुख तीर्थ स्थलों में से एक है। यहां की प्रमुख विशेषता पवित्र गुफामें बर्फ से प्रकृतिक शिवलिंगका निर्मित होना है। यहां से करीब 3000फुट की ऊंचाई पर है, पर्वत की चोटी। गुफाकी परिधि अंदाजन डेढ सौ फुट होगी। भीतर का स्थान कमोबेश चालीस फुट में फैला है और इसमें ऊपर से बर्फ के पानी की बूंदे जगह-जगह टपकती रहती हैं। यहीं पर एक ऐसी जगह है, जिसमें टपकने वाली हिम बूंदों से लगभग दस फुट लंबा शिवलिंगबनता है। चन्द्रमा के घटने-बढने के साथ-साथ इस बर्फ का आकार भी घटता-बढता रहता है। श्रावण पूर्णिमा को यह अपने पूरे आकार में आ जाता है और अमावस्या तक धीरे-धीरे छोटा होता जाता है।
आश्चर्य की बात यही है कि यह शिवलिंगठोस बर्फ का बना होता है, जबकि गुफामें आमतौर पर कच्ची बर्फ ही होती है जो हाथ में लेते ही भुरभुरा जाए। मूल अमरनाथ शिवलिंगसे कई फुट दूर-दूर गणेश, भैरव और पार्वती के वैसे ही हिमखंड हैं। जनश्रुतिप्रचलित है कि इसी गुफामें माता पार्वती को भगवान शिव ने अमरकथासुनाई थी, जिसे सुनकर सद्योजात शुक-शिशु शुकदेव ऋषि के रूप में अमर हो गया था। गुफामें आज भी श्रद्धालुओं को कबूतरों का एक जोडा दिखाई दे जाता है, जिन्हें श्रद्धालु अमर पक्षी बताते हैं। वे भी अमरकथासुनकर अमर हुए हैं। ऐसी मान्यता भी है कि जिन श्रद्धालुओं को कबूतरों को जोडा दिखाई देता है, उन्हें शिव पार्वती अपने प्रत्यक्ष दर्शनों से निहाल करके उस प्राणी को मुक्ति प्रदान करते हैं।
यह भी माना जाता है कि भगवान शिव ने अद्र्धागिनी पार्वती को इस गुफामें एक ऐसी कथा सुनाई थी, जिसमें अमरनाथ की यात्रा और उसके मार्ग में आने वाले अनेक स्थलों का वर्णन था। यह कथा कालांतर में अमरकथा नाम से विख्यात हुई। कुछ विद्वानों का मत है कि भगवान शंकर जब पार्वती को अमर कथा सुनाने ले जा रहे थे, तो उन्होंने छोटे-छोटे अनंत नागों को अनंतनाग में छोडा, माथे के चंदन को चंदनबाडीमें उतारा, अन्य पिस्सुओं को पिस्सू टॉप पर और गले के शेषनाग को शेषनाग नामक स्थल पर छोडा था। ये तमाम स्थल अब भी अमरनाथ यात्रा में आते हैं।
अमरनाथ गुफाका सबसे पहले पता सोलहवीं शताब्दी के पूर्वाधमें एक मुसलमान गडरिएको चला था। आज भी चौथाई चढावा उस मुसलमान गडरिएके वंशजों को मिलता है। आश्चर्य की बात यह है कि अमरनाथ गुफाएक नहीं है। अमरावती नदी के पथ पर आगे बढते समय और भी कई छोटी-बडी गुफाएंदिखती हैं। वे सभी बर्फ से ढकी हैं। अमर नाथ यात्रा पर जाने के भी दो रास्ते हैं। एक पहलगामहोकर और दूसरा सोनमर्गबालटालसे लेकिन सुविधाजनक रास्ता पहलगामका ही है। पहलगामएक विख्यात पर्यटन स्थल भी है और यहां का नैसर्गिक सौंदर्य देखते ही बनता है। पहलगामके बाद पहला पडाव चंदनबाडीहै, जो पहलगामसे आठ किलोमीटर की दूरी पर है। लिद्दरनदी के किनारे-किनारे पहले चरण की यह यात्रा ज्यादा कठिन नहीं है। चंदनबाडीसे आगे इसी नदी पर बर्फ का यह पुल सलामत रहता है। चंदनबाडीसे 14किलोमीटर दूर शेषनाग में अगला पडाव है। यह मार्ग खडी चढाई वाला और खतरनाक है। यहीं पर पिस्सू घाटी के दर्शन होते हैं। अमरनाथ यात्रा में पिस्सू घाटी काफी जोखिम भरा स्थल है।
पिस्सू घाटी समुद्रतल से 11,120फुट की ऊंचाई पर है। यात्री शेषनाग पहुंच कर ताजादम होते हैं। यहां पर्वतमालाओं के बीच नीले पानी की खूबसूरत झील है। इस झील में झांककर यह भ्रम हो उठता है कि कहीं आसमान तो इस झील में नहीं उतर आया। यह झील करीब डेढ किलोमीटर लम्बाई में फैली है। किंवदंतियोंके मुताबिक इस झील में शेषनाग का वास है और चौबीस घंटों के अंदर शेषनाग एक बार झील के बाहर दर्शन देते हैं, लेकिन यह दर्शन खुशनसीबों को ही नसीब होते हैं।
शेषनाग से पंचतरणीआठ मील के फासले पर है। मार्ग में बैववैल टॉप और महागुणास टॉप पार करने पडते हैं, जिनकी समुद्रतल से ऊंचाई क्रमश:13,500फुट व 14,500फुट है। महागुणासचोटी से पंचतरणी तक का सारा रास्ता उतराई का है। यहां पांच छोटी-छोटी सरिताएं बहने के कारण ही इस स्थल का नाम पंचतरणी पडा है। यह स्थान चारों तरफ से पहाडों की ऊंची-ऊंची चोटियोंसे ढका है। अमरनाथ की गुफायहां से केवल आठ किलोमीटर दूर रह जाती हैं और रास्ते में बर्फ ही बर्फ जमी रहती है। यह रास्ता काफी कठिन है, लेकिन अमरनाथ की पवित्र गुफामें पहुंचते ही सफर की सारी थकान पल भर में छू-मंतर हो जाती है और अद्भुत आत्मिक आनंद की अनुभूति होती है।
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Posted by Udit bhargava at 1/19/2010 06:35:00 pm 0 comments
श्रीराधाकुण्ड श्रीकृष्ण-प्रेम से परिपूर्ण है
ब्रजमण्डलमें श्रीराधाकुण्डको सर्वोपरि माना जाता है। गौडीयवैष्णव साहित्य इस पावन कुण्ड की महिमा के गुणगान से भरा पडा है। वैष्णव संतों के लिए श्रीराधाकुण्डका क्षेत्र सदा से ही प्रेरणादायक भजन-स्थल रहा है। पद्मपुराणमें लिखा है-
यथा राधा प्रिया विष्णो:तस्याकुण्डंप्रियंतथा।
सर्वगोपीषुसेवैकाविष्णोरत्यन्तवल्लभा॥
जिस प्रकार समस्त गोपियों में श्रीमती राधारानीभगवान श्रीकृष्ण को सर्वाधिक प्रिय हैं, उनकी प्राणवल्लभाहैं, उसी प्रकार राधाजीके द्वारा निर्मित कुण्ड भी उन्हें अत्यन्त प्रिय है। श्रीराधाकुण्डगिरिराज गोवर्धनसे लगभग चार किलोमीटर उत्तर-पूर्व दिशा (ईशान कोण) में स्थित है। इसके पास ही वह स्थान है जहां भगवान श्रीकृष्ण ने अरिष्टासुरका वध किया था। उस गांव का नाम अडींगहै। कंस का अरिष्टासुरअनुचर बैल का रूप धारण करके श्रीकृष्ण को मारना चाहता था लेकिन उन्होंने उस असुर का वध कर दिया। रात में जब श्रीकृष्ण रासलीला के लिए राधारानीऔर गोपियों के पास पहुंचे, तब उन सबने श्रीकृष्ण पर गोहत्या का अभियोग लगाया और उस पाप के प्रायश्चित में समस्त तीर्थो में स्नान करने को कहा। इस पर श्रीकृष्ण बोले- पहली बात तो यह है कि मैं ब्रज को छोडकर कहीं और जाना नहीं चाहता और दूसरी बात यह कि मेरे बाहर जाने पर तुम लोगों को यह विश्वास होगा भी नहीं कि मैंने सब तीर्थो में स्नान कर लिया। अत:मैं पृथ्वी के समस्त तीर्थो को यहीं बुलाकर तुम लोगों के सामने सर्वतीर्थ-स्नानकरूंगा। यह कहकर श्रीकृष्ण ने अपने बायें पैर की एडी की चोट से एक विशाल कुण्ड बनाकर उसमें तब तीर्थो का आवाहन किया। समस्त तीर्थो के जल से परिपूर्ण वह सरोवर श्यामकुण्ड के नाम से विख्यात हो गया। श्यामसुंदर ने उस कुण्ड में स्नान करके राधारानीऔर गोपियों से उसमें स्नान करने को कहा। यह सुनकर राधाजी बोलीं-गो-हत्या के पाप से लिप्त तुम्हारे कुण्ड में हम स्नान नहीं करेंगी। हम अपने लिए एक अलग कुण्ड बना सकती हैं। ऐसा कहकर सब सखियों के साथ श्रीराधाजी ने श्यामकुण्डके पश्चिम में एक अन्य कुण्ड हाथों में पहने कंकणोंसे खोदकर तैयार कर लिया, जो कंकण कुण्ड के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुण्ड खोद लेने के बाद राधाजीने अपनी सखियों को पास स्थित मानसी गंगा के जल को कलशों में भर कर लाने का आदेश दिया ताकि कुण्ड को जल से भरा जा सके। श्यामकुण्डमें उपस्थित सब तीर्थ भगवती राधा का आश्रय पाने के लिए बडे इच्छुक थे। योगेश्वर श्रीकृष्ण का संकेत पाकर समस्त तीर्थ श्रीश्यामकुण्डसे निकले और वे सब दिव्य रूप धारण करके सजल नयनोंसे राधारानीकी स्तुति करने लगे। राधाजीके द्वारा इसका कारण पूछने पर तीर्थगणबोले-हे करुणामयी सर्वेश्वरी!आप के कुण्ड में प्रवेश करके हम अपना तीर्थ नाम सफल करना चाहते हैं। तीर्थो के भक्ति-भाव से प्रसन्न होकर श्रीमती राधारानीने उन्हें अपने कुण्ड में प्रवेश करने की अनुमति प्रदान कर दी। तब समस्त तीर्थ श्रीश्यामकुण्डसे बीच की पृथ्वी का भाग तोडते श्रीराधारानीद्वारा निर्मित कुण्ड में प्रविष्ट हो गए। आह्लादितगोपियों के मुख से आहा वोहीशब्दोच्चारहुआ, जो अपभ्रंशहोकर ब्रज में अहोई बोला जाने लगा। यह सम्पूर्ण घटना चक्र कार्तिक मास के कृष्णपक्ष की अष्टमी की मध्यरात्रि में घटा था अतएव कार्तिक-कृष्ण-अष्टमी अहोई अष्टमी के नाम से पुकारी जाने लगी। इस तिथि का एक अन्य नाम बहुलाष्टमी भी है।
श्रीराधाकुण्डके आविर्भाव की तिथि होने के कारण कार्तिक कृष्ण अष्टमी (अहोई अष्टमी) के दिन इस पावन सरोवर में स्नान करने की प्रथा बन गई है। लोगों की धारणा है कि कार्तिक कृष्ण अष्टमी के पर्वकाल में राधाकुण्डमें स्नान करने से नि:संतान दंपतीको संतान-सुख मिलता है तथा अन्य भक्तों को धर्म-अर्थ-काम-मोक्ष उपलब्ध होता है। कुण्ड के निर्माण के समय स्वयं परमेश्वर श्रीकृष्ण ने अपनी प्रियतमा राधारानीसे कहा था- मेरे कुण्ड की अपेक्षा तुम्हारे कुण्ड की महिमा अधिक होगी। आदिवाराहपुराणमें श्रीराधाकुण्डके माहात्म्य का वर्णन करते हुए कहा गया है-
अरिष्ट-राधाकुण्डाभ्यां स्नानात्फलमवाप्तये।
राजसूयाश्वेधाभ्यांनात्रकार्याविचारणा॥
इसमें कोई संशय नहीं है कि राजसूय अथवा अश्वमेध यज्ञ करने से जिस फल की प्राप्ति होती है, वही फल अरिष्टकुण्ड(श्रीश्यामकुण्ड) और श्रीराधाकुण्डमें स्नान करने मात्र से प्राप्त होता है। द्वापर युग में श्रीराधा-कृष्णकी प्रकटलीलासे उत्पन्न श्रीराधाकुण्डऔर श्रीश्यामकुण्डकालान्तर में लुप्त हो गए। महर्षि शाण्डिल्य के निर्देशन में श्रीकृष्ण के प्रपौत्र वज्रनाभने जब ब्रज की खोज की और अपने परदादा श्रीकृष्ण की लीला से संबंधित तीर्थ-स्थानों का पुनरुद्धार किया तब इन दोनों कुण्डों का भी उद्धार हुआ। इसके बाद हजारों साल बीत जाने पर ये दोनों कुण्ड पुन:विस्मृत हो गए। कालांतर में श्रीचैतन्यमहाप्रभुने अपनी ब्रज-यात्रा के समय धान के खेतों में छुपे इन दोनों कुण्डों को खोज निकाला। बाद में जगन्नाथपुरीसे आये श्रीरघुनाथदास गोस्वामी की देख-रेख में कुण्डों का जीर्णोद्धार हुआ और उनकी महिमा चारों तरफ फैल गयी।
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Posted by Udit bhargava at 1/19/2010 06:32:00 pm 1 comments
सुख-समृद्धि दायक है रथयात्रा-दर्शन
उत्कल में समुद्र-तीर स्थित है, भगवान जगन्नाथ का विशाल मंदिर। मंदिर में सुशोभित हैं, जगन्नाथ (श्रीकृष्ण), उनके बडे भाई बलराम और बहन सुभद्रा के काष्ठ-विग्रह। इस स्थान की जगन्नाथपुरीके नाम से ख्याति है। ब्रह्मपुराण,नारदपुराण,पद्मपुराणएवं स्कन्दपुराणमें इसकी महिमा वर्णित है। स्कन्द पुराण के अनुसार आश्विन, माघ, आषाढ और वैशाख मास में यदि यदा-कदा भी पुरी तीर्थ में मज्जन किया जाए, तो सभी तीर्थो का पूर्ण फल प्राप्त होने के साथ ही शिवलोक की प्राप्ति होती है-
ऊर्जेमाघतथाषाढेवैशाखेचविशेषत:।
यदाकदापुरींप्राप्य कर्तव्यतीर्थमज्जनम्॥
सर्वतीर्थफलंप्राप्य शिवलोकेमहीयते॥
ज्ञातव्य है कि आषाढ शुक्ल द्वितीया को ही रथ यात्रा आरंभ होती है। तीन विशाल रथों की इस यात्रा में सर्वप्रथम बलराम का रथ होता है, इसके पश्चात् सुभद्रा का रथ, जिस पर सुदर्शन चक्र भी विराजमान होता है। अंत में भगवान जगन्नाथ का रथ होता है। इन रथों में मोटी-मोटी लम्बी रस्सियां लगी होती हैं और इनको खींचते हैं, देशभर से जुटे श्रद्धालुगण। इस रथयात्रा के पीछे एक प्राचीन कथा है। द्वारिकापुरीमें रहते समय सुभद्रा ने अपने दोनों भाइयों से नगर-दर्शन की इच्छा प्रकट की। श्रीकृष्ण और बलराम ने बहन को एक पृथक् रथ में बैठा कर उस रथ को मध्य में रख अपने रथों पर आसीन हो उन्हें सम्पूर्ण द्वारिकापुरीके दर्शन कराए। उसी की स्मृति में युगों से रथ यात्रा आयोजित होती है। श्रीजगन्नाथके रथ का नाम है नन्दीघोष,बलभद्र के रथ का कालध्वजऔर सुभद्रा का रथ देवदलनकी संज्ञा पाता है। जगन्नाथ अथवा श्रीकृष्ण को पीत वस्त्र प्रिय है। इनका एक नाम पीतवासभी है, इसीलिए जगन्नाथजीके रथ को सजाने में पीले वस्त्रों का प्रयोग होता है। बलभद्र नीलाम्बर हैं, अत:उनके रथ की सज्जा नीले वस्त्रों से होती है। सुभद्रा देवी-स्वरूपा हैं, अत:इनके रथ को सज्जित करने में कृष्ण रंग के वस्त्र प्रयुक्त होते हैं। रथयात्रा के आरंभ में पुरी का गजपति नृपरथों को साफ करता है। पूजा-अर्चना सम्पादित करता है। तीनों रथ संध्याकाल तक गुंडीचामंदिर के समीप पहुंचते हैं। दूसरे दिन प्रात:तीनों विग्रह रथ से उतार कर मंदिर में पहुंचाए जाते हैं। सात दिनों तक भगवान जगन्नाथ, बलराम और देवी सुभद्रा यहीं विराजते हैं। जगन्नाथ मंदिर के विधि-विधान के अनुरूप ही यहां इनकी पूजा सम्पादित होती है। यहां भी जगन्नाथ मंदिर की तरह ही श्रद्धालुओं को तीनों विग्रहोंके दर्शन प्राप्त होते हैं। सात दिनों की यात्रा पर आए उनके महत्व में पहले से अधिक वृद्धि हो जाती है, अत:यहां किए गए दर्शनों का भी विशेष फल होता है। सप्तदिवसीयइस दर्शन को आडप दर्शन कहते हैं। आषाढ शुक्ल दशमी को पुन:अपने-अपने रथों में विराजमान वे अपने मूल मंदिर को लौटते हैं। बहुसंख्यक श्रद्धालुओं द्वारा रथों को खींचते देखने का अवसर श्रद्धालुओं को एक बार पुन:मिलता है। इस वापसी यात्रा को बाहुडायात्रा की संज्ञा प्राप्त है। रथ खींचने का तो महत्व है ही, लेकिन श्रद्धालुओं की संख्या अधिक होने से लोग बारी-बारी से रस्सियों को पकड कर खींचते हैं, किंतु जिन्हें यह सौभाग्य भी नहीं प्राप्त होता वे रथयात्रा के दर्शन मात्र से ही अपार पुण्य की प्राप्ति करते हैं। पौराणिक उक्ति के अनुसार जिन्होंने रथयात्रा के समय रथों के दर्शन भी कर लिए वे जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हो जाते हैं। तीनों विग्रह जैसा कि पहले कहा गया काष्ठ-निर्मित हैं, साथ ही ये अधूरे भी हैं। तीनों का मात्र ऊपरी अपूर्ण भाग ही दृष्ट है। इस अधूरेपनका कारण है। एक बार राजा इन्द्रद्युम्नकी इच्छा हुई कि भगवान जगन्नाथ, बलराम और सुभद्रा के विग्रह निर्मित कराएं। वह बहुत दिनों तक सोचते रहे कि किस वस्तु से इन विग्रहोंका निर्माण हो। कुछ दिनों के पश्चात् समुद्र के ऊपर उन्हें एक विशाल काष्ठ-खण्ड तैरता हुआ मिला। उन्हें आन्तरिक प्रेरणा हुई कि विग्रह इसी दारू अथवा लकडी से निर्मित होंगे। अब उनकी चिंता यह थी कि विग्रहोंके निर्माण के लिए उपयुक्त शिल्पी कहां मिलेगा? इनकी चिंता को स्वयं भगवान जगन्नाथ ने दूर कर दिया और देवताओं के शिल्पी विश्वकर्मा को गुंडीचा-नृपके पास भेज दिया। वृद्ध शिल्पी ने राजा से कहा कि विग्रहोंका निर्माण कर देगा, लेकिन उसके कार्य में इक्कीस दिनों तक कोई बाधा नहीं डालेगा। वह उस काष्ठ-खण्ड के साथ एक कमरे में बंद हो गया। कमरे के कपाटों को इक्कीस दिन के पूर्व नहीं खोलने की उसने अपनी शर्त पुन:दोहराई। राजा तो निश्चित विग्रह-निर्मित होने की प्रतीक्षा करते रहे, लेकिन रानी गुंडीचाका नारी-मन सहज ही द्रवित हो आया। पन्द्रह दिन बीतते न बीतते रानी को लगा कि इतने दिनों में तो वह वृद्ध शिल्पी खान-पान के अभाव में मृत्यु को प्राप्त हो गया होगा। उन्होंने कमरे के कपाट खुलवा दिए। अंदर अधूरे विग्रह पडे थे। शिल्पी का अता-पता नहीं था। यही कहानी है काष्ठ-निर्मित इन अधूरे विग्रहोंकी जिनकी शोभा-यात्रा के दर्शन से व्यक्ति को सुख-समृद्धि एवं मुक्ति की भी प्राप्ति होती है।
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Posted by Udit bhargava at 1/19/2010 06:28:00 pm 0 comments
18 जनवरी 2010
चूड़ाकर्म
चूड़ाकर्म को मुंडन संस्कार भी कहा जाता है। हमारे आचार्यो ने बालक के पहले, तीसरे या पांचवें वर्ष में इस संस्कार को करने का विधान बताया है। इस संस्कार के पीछे शुाचिता और बौद्धिक विकास की परिकल्पना हमारे मनीषियों के मन में होगी। मुंडन संस्कार का अभिप्राय है कि जन्म के समय उत्पन्न अपवित्र बालों को हटाकर बालक को प्रखर बनाना है। नौ माह तक गर्भ में रहने के कारण कई दूषित किटाणु उसके बालों में रहते हैं। मुंडन संस्कार से इन दोषों का सफाया होता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार इस संस्कार को शुभ मुहूर्त में करने का विधान है। वैदिक मंत्रोच्चारण के साथ यह संस्कार सम्पन्न होता है।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:42:00 pm 0 comments
अन्नप्राशन
इस संस्कार का उद्देश्य शिशु के शारीरिक व मानसिक विकास पर ध्यान केन्द्रित करना है। अन्नप्राशन का स्पष्ट अर्थ है कि शिशु जो अब तक पेय पदार्थो विशेषकर दूध पर आधारित था अब अन्न जिसे शास्त्रों में प्राण कहा गया है उसको ग्रहण कर शारीरिक व मानसिक रूप से अपने को बलवान व प्रबुद्ध बनाए। तन और मन को सुदृढ़ बनाने में अन्न का सर्वाधिक योगदान है। शुद्ध, सात्विक एवं पौष्टिक आहार से ही तन स्वस्थ रहता है और स्वस्थ तन में ही स्वस्थ मन का निवास होता है। आहार शुद्ध होने पर ही अन्त:करण शुद्ध होता है तथा मन, बुद्धि, आत्मा सबका पोषण होता है। इसलिये इस संस्कार का हमारे जीवन में विशेष महत्व है।
हमारे धर्माचार्यो ने अन्नप्राशन के लिये जन्म से छठे महीने को उपयुक्त माना है। छठे मास में शुभ नक्षत्र एवं शुभ दिन देखकर यह संस्कार करना चाहिए। खीर और मिठाई से शिशु के अन्नग्रहण को शुभ माना गया है। अमृत: क्षीरभोजनम् हमारे शास्त्रों में खीर को अमृत के समान उत्तम माना गया है।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:41:00 pm 0 comments
अन्त्येष्टि
अन्त्येष्टि को अंतिम अथवा अग्नि परिग्रह संस्कार भी कहा जाता है। आत्मा में अग्नि का आधान करना ही अग्नि परिग्रह है। धर्म शास्त्रों की मान्यता है कि मृत शरीर की विधिवत् क्रिया करने से जीव की अतृप्त वासनायें शान्त हो जाती हैं। हमारे शास्त्रों में बहुत ही सहज ढंग से इहलोक और परलोक की परिकल्पना की गयी है। जब तक जीव शरीर धारण कर इहलोक में निवास करता है तो वह विभिन्न कर्मो से बंधा रहता है। प्राण छूटने पर वह इस लोक को छोड़ देता है। उसके बाद की परिकल्पना में विभिन्न लोकों के अलावा मोक्ष या निर्वाण है। मनुष्य अपने कर्मो के अनुसार फल भोगता है। इसी परिकल्पना के तहत मृत देह की विधिवत क्रिया होती है।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:41:00 pm 0 comments
गर्भाधान
हमारे शास्त्रों में मान्य सोलह संस्कारों में गर्भाधान पहला है। गृहस्थ जीवन में प्रवेश के उपरान्त प्रथम कर्त्तव्य के रूप में इस संस्कार को मान्यता दी गई है। गार्हस्थ्य जीवन का प्रमुख उद्देश्य श्रेष्ठ सन्तानोत्पत्ति है। उत्तम संतति की इच्छा रखनेवाले माता-पिता को गर्भाधान से पूर्व अपने तन और मन की पवित्रता के लिये यह संस्कार करना चाहिए। वैदिक काल में यह संस्कार अति महत्वपूर्ण समझा जाता था।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:40:00 pm 0 comments
जातकर्म
नवजात शिशु के नालच्छेदन से पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। इस दैवी जगत् से प्रत्यक्ष सम्पर्क में आनेवाले बालक को मेधा, बल एवं दीर्घायु के लिये स्वर्ण खण्ड से मधु एवं घृत वैदिक मंत्रों के उच्चारण के साथ चटाया जाता है। यह संस्कार विशेष मन्त्रों एवं विधि से किया जाता है। दो बूंद घी तथा छह बूंद शहद का सम्मिश्रण अभिमंत्रित कर चटाने के बाद पिता यज्ञ करता है तथा नौ मन्त्रों का विशेष रूप से उच्चारण के बाद बालक के बुद्धिमान, बलवान, स्वस्थ एवं दीर्घजीवी होने की प्रार्थना करता है। इसके बाद माता बालक को स्तनपान कराती है।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:39:00 pm 0 comments
कर्णवेध
हमारे मनीषियों ने सभी संस्कारों को वैज्ञानिक कसौटी पर कसने के बाद ही प्रारम्भ किया है। कर्णवेध संस्कार का आधार बिल्कुल वैज्ञानिक है। बालक की शारीरिक व्याधि से रक्षा ही इस संस्कार का मूल उद्देश्य है। प्रकृति प्रदत्त इस शरीर के सारे अंग महत्वपूर्ण हैं। कान हमारे श्रवण द्वार हैं। कर्ण वेधन से व्याधियां दूर होती हैं तथा श्रवण शक्ति भी बढ़ती है। इसके साथ ही कानों में आभूषण हमारे सौन्दर्य बोध का परिचायक भी है।
यज्ञोपवीत के पूर्व इस संस्कार को करने का विधान है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शुक्ल पक्ष के शुभ मुहूर्त में इस संस्कार का सम्पादन श्रेयस्कर है।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:38:00 pm 0 comments
केशान्त
गुरुकुल में वेदाध्ययन पूर्ण कर लेने पर आचार्य के समक्ष यह संस्कार सम्पन्न किया जाता था। वस्तुत: यह संस्कार गुरुकुल से विदाई लेने तथा गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का उपक्रम है। वेद-पुराणों एवं विभिन्न विषयों में पारंगत होने के बाद ब्रह्मचारी के समावर्तन संस्कार के पूर्व बालों की सफाई की जाती थी तथा उसे स्नान कराकर स्नातक की उपाधि दी जाती थी। केशान्त संस्कार शुभ मुहूर्त में किया जाता था।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:37:00 pm 0 comments
नामकरण
जन्म के ग्यारहवें दिन यह संस्कार होता है। हमारे धर्माचार्यो ने जन्म के दस दिन तक अशौच (सूतक) माना है। इसलिये यह संस्कार ग्यारहवें दिन करने का विधान है। महर्षि याज्ञवल्क्य का भी यही मत है, लेकिन अनेक कर्मकाण्डी विद्वान इस संस्कार को शुभ नक्षत्र अथवा शुभ दिन में करना उचित मानते हैं।
नामकरण संस्कार का सनातन धर्म में अधिक महत्व है। हमारे मनीषियों ने नाम का प्रभाव इसलिये भी अधिक बताया है क्योंकि यह व्यक्तित्व के विकास में सहायक होता है। तभी तो यह कहा गया है राम से बड़ा राम का नाम हमारे धर्म विज्ञानियों ने बहुत शोध कर नामकरण संस्कार का आविष्कार किया। ज्योतिष विज्ञान तो नाम के आधार पर ही भविष्य की रूपरेखा तैयार करता है।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:35:00 pm 0 comments
महालया के प्रारंभ में चन्द्र-ग्रहण
श्राद्ध-कर्म का प्रारंभ भाद्रपद मास की पूर्णिमा से हो जाता है। यद्यपि तर्पण और श्राद्ध मुख्यतया पितृपक्ष में ही होते हैं, किन्तु इसके अश्विन मास के कृष्णपक्ष में होने से इस काल-खण्ड में पूर्णिमा उपलब्ध नहीं होती है। धर्मग्रन्थों का यह निर्देश है कि मृतक का देहावसान जिस तिथि में हुआ हो, उसमें ही उसका श्राद्ध किया जाना चाहिए। इस सिद्धांत के अनुसार किसी भी मास की पूर्णिमा में शरीर त्यागने वाले का श्राद्ध महालयाके अन्तर्गत भाद्रपदीपूर्णिमा के दिन किया जाता है। भाद्रपद की पूर्णिमा को प्रौष्ठपदी पूर्णिमा भी कहा जाता है और महालयाका आरम्भ इसी दिन से माना जाता है।
इस वर्ष भाद्रपदीपूíणमा की रात्रि में चन्द्र-ग्रहण होगा। चन्द्रमा की कान्ति में मलिनता का आरंभ गुरुवार 7सितम्बर को रात्रि में 10बजकर 12मिनट से प्रारंभ हो जायेगा किन्तु चन्द्रबिम्बको ग्रहण का स्पर्श रात्रि में 11बजकर 35मिनट पर होगा और इसी समय से ग्रहण की दृश्य-प्रक्रिया की शुरुआत मानी जाएगी। तदोपरान्त ग्रहण का ग्रास चन्द्रबिम्बपर बढता जाएगा और मध्यरात्रि में 12.21बजे ग्रहण के मध्यकाल में चन्द्रमा का लगभग 19प्रतिशत भाग कालिमा से ढक जाएगा। अस्तु इसे खण्डग्रास(आंशिक) चन्द्रग्रहण कहा जाएगा। एतत्पश्चात्ग्रहण का ग्रास कम होने लगेगा तथा रात्रि में 1बजकर 8मिनट पर चन्द्रबिम्बग्रहण से मुक्त (मोक्ष) हो जाएगा। रात में 2.30बजे चन्द्रमा की कान्ति पूरी तरह निर्मल हो जाएगी। यह चन्द्रग्रहण सम्पूर्ण भारतवर्ष में दिखाई देगा। धार्मिक दृष्टि से ग्रहण का सूतक (वेध) इसके स्पर्श से 9घंटे पूर्व गुरुवार 7सितंबर को अपराह्न 2.35बजे से लगेगा। सूतककालमें भोजन-शयन, विषय-सेवन तथा देव-प्रतिमा का स्पर्श वर्जित माना गया है। इस नियम के पालन में असमर्थ बालक, वृद्ध, रोगी और अशक्त सायं 7बजे तक भोजन कर सकते हैं। गुरुवार 7सितंबर को मंदिरों के पट दिन की सेवा के बाद बंद हो जाएंगे तथा ग्रहण के मोक्ष के बाद ब्रह्ममुहूर्तसे ही देवालयों में पुन:पूजा-सेवा शुरू हो सकेगी। सूतक की समाप्ति ग्रहण की निवृत्ति के साथ हो जाती है।
भाद्रपदीपूर्णिमा में पूर्णिमा का श्राद्ध करने वालों को ब्राह्मण-भोज गुरुवार 7सितंबर को अपराह्न 2.35बजे से पहले ही करवाना होगा। सूतककालमें आचार्य को पका हुआ भोजन नहीं करवाया जा सकता, किन्तु पितरोंका तर्पण एवं श्राद्ध-कर्म इसमें हो सकता है। दोपहर 2.35बजे के बाद सूतक के कारण ब्राह्मण को बिना पका श्राद्धान्न(सीधा) ही देना पडेगा। पूर्णिमा के दिन श्रीसत्यनारायणका व्रतोत्सव करने वाले वैष्णव गुरुवार 7सितंबर को अपराह्न 2.35बजे से पूर्व ही कथा एवं पूजन कर लें।
भारतीय ज्योतिष के अनुसार यह ग्रहण चन्द्रमा को कुम्भ राशि के अन्तर्गत पूर्वाभाद्रपदनक्षत्र में लगेगा। विभिन्न राशियों के लिये इस चन्द्र-ग्रहण का फल शास्त्रीय दृष्टिकोण से यह है, मेष-लाभ, वृष-सुख, मिथुन-अपमान, कर्क-महाकष्ट, सिंह-जीवनसाथी को पीडा, कन्या-आनन्द, तुला-चिन्ता, वृश्चिक-व्यथा, धनु-आर्थिक उपलब्धि, मकर-क्षति, कुंभ-आघात और मीन- हानि। इस चन्द्र-ग्रहण का भारतीय राजनीति, व्यापार जगत् एवं शेयर बाजार पर भी व्यापक प्रभाव पडेगा।
इस ग्रहण का स्वामी यम होने से प्राकृतिक प्रकोप एवं दुर्घटनाओं से जन-धन की भीषण हानि का योग बन रहा है। ग्रहण के अग्निमण्डलमें होने से अग्निकाण्ड, आतंकवाद, युद्ध, महामारी की विभीषिका संभव है। कृषि उत्पादन भी प्रभावित होगा।
तन्त्रशास्त्रमें ग्रहण के दृश्यकाल अर्थात् दिखाई देने की अवधि को साधना का सर्वोत्तम पर्वकाल माना गया है। इसमें किया गया जप-तप-होम अनन्त गुना हो जाता है। अतएव ग्रहणकालमें मन्त्र बिना सर्वाग पुरश्चरण के, केवल निरन्तर जप मात्र से ही सिद्ध हो जाता है, किन्तु जप मानसिक रूप से ही करें। साधकों के लिए ग्रहण सिद्धि प्राप्त करने का अति संक्षिप्त पथ (शार्ट कट) ही है। इस चन्द्रग्रहण का पर्वकाल गुरुवार को रात 11.35बजे स्पर्श से 1.08बजे मोक्ष तक रहेगा। इसकी कुल अवधि 1घंटा 33मिनट होगी। आस्तिकजनग्रहण के स्पर्श के समय और मोक्ष के बाद स्नान करते हैं। ग्रहण की समाप्ति पर दान देने से अक्षय पुण्य प्राप्त होता है। इससे यह स्पष्ट है कि भारतीय जनमानस के लिए ग्रहण मात्र एक खगोलीयघटना ही नहीं, बल्कि आध्यात्मिक साधना का महापर्वहै।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:35:00 pm 0 comments
निष्क्रमण
दैवी जगत् से शिशु की प्रगाढ़ता बढ़े तथा ब्रह्माजी की सृष्टि से वह अच्छी तरह परिचित होकर दीर्घकाल तक धर्म और मर्यादा की रक्षा करते हुए इस लोक का भोग करे यही इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है।
निष्क्रमण का अभिप्राय है बाहर निकलना। इस संस्कार में शिशु को सूर्य तथा चन्द्रमा की ज्योति दिखाने का विधान है। भगवान् भास्कर के तेज तथा चन्द्रमा की शीतलता से शिशु को अवगत कराना ही इसका उद्देश्य है। इसके पीछे मनीषियों की शिशु को तेजस्वी तथा विनम्र बनाने की परिकल्पना होगी। उस दिन देवी-देवताओं के दर्शन तथा उनसे शिशु के दीर्घ एवं यशस्वी जीवन के लिये आशीर्वाद ग्रहण किया जाता है। जन्म के चौथे महीने इस संस्कार को करने का विधान है। तीन माह तक शिशु का शरीर बाहरी वातावरण यथा तेज धूप, तेज हवा आदि के अनुकूल नहीं होता है इसलिये प्राय: तीन मास तक उसे बहुत सावधानी से घर में रखना चाहिए। इसके बाद धीरे-धीरे उसे बाहरी वातावरण के संपर्क में आने देना चाहिए। इस संस्कार का तात्पर्य यही है कि शिशु समाज के सम्पर्क में आकर सामाजिक परिस्थितियों से अवगत हो।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:34:00 pm 0 comments
पुंसवन
गर्भस्थ शिशु के मानसिक विकास की दृष्टि से यह संस्कार उपयोगी समझा जाता है। गर्भाधान के दूसरे या तीसरे महीने में इस संस्कार को करने का विधान है। हमारे मनीषियों ने सन्तानोत्कर्ष के उद्देश्य से किये जाने वाले इस संस्कार को अनिवार्य माना है। गर्भस्थ शिशु से सम्बन्धित इस संस्कार को शुभ नक्षत्र में सम्पन्न किया जाता है। पुंसवन संस्कार का प्रयोजन स्वस्थ एवं उत्तम संतति को जन्म देना है।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:33:00 pm 0 comments
समावर्तन
गुरुकुल से विदाई लेने से पूर्व शिष्य का समावर्तन संस्कार होता था। इस संस्कार से पूर्व ब्रह्मचारी का केशान्त संस्कार होता था और फिर उसे स्नान कराया जाता था। यह स्नान समावर्तन संस्कार के तहत होता था। इसमें सुगन्धित पदार्थो एवं औषधादि युक्त जल से भरे हुए वेदी के उत्तर भाग में आठ घड़ों के जल से स्नान करने का विधान है। यह स्नान विशेष मन्त्रोच्चारण के साथ होता था। इसके बाद ब्रह्मचारी मेखला व दण्ड को छोड़ देता था जिसे यज्ञोपवीत के समय धारण कराया जाता था। इस संस्कार के बाद उसे विद्या स्नातक की उपाधि आचार्य देते थे। इस उपाधि से वह सगर्व गृहस्थाश्रम में प्रवेश करने का अधिकारी समझा जाता था। सुन्दर वस्त्र व आभूषण धारण करता था तथा आचार्यो एवं गुरुजनों से आशीर्वाद ग्रहण कर अपने घर के लिये विदा होता था।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:32:00 pm 0 comments
सनातन धर्म के संस्कार / रीति-रिवाज
सनातन अथवा हिन्दू धर्म की संस्कृति संस्कारों पर ही आधारित है। हमारे ऋषि-मुनियों ने मानव जीवन को पवित्र एवं मर्यादित बनाने के लिये संस्कारों का अविष्कार किया। धार्मिक ही नहीं वैज्ञानिक दृष्टि से भी इन संस्कारों का हमारे जीवन में विशेष महत्व है। भारतीय संस्कृति की महानता में इन संस्कारों का महती योगदान है।
प्राचीन काल में हमारा प्रत्येक कार्य संस्कार से आरम्भ होता था। उस समय संस्कारों की संख्या भी लगभग चालीस थी। जैसे-जैसे समय बदलता गया तथा व्यस्तता बढती गई तो कुछ संस्कार स्वत: विलुप्त हो गये। इस प्रकार समयानुसार संशोधित होकर संस्कारों की संख्या निर्धारित होती गई। गौतम स्मृति में चालीस प्रकार के संस्कारों का उल्लेख है। महर्षि अंगिरा ने इनका अंतर्भाव पच्चीस संस्कारों में किया। व्यास स्मृति में सोलह संस्कारों का वर्णन हुआ है। हमारे धर्मशास्त्रों में भी मुख्य रूप से सोलह संस्कारों की व्याख्या की गई है। इनमें पहला गर्भाधान संस्कार और मृत्यु के उपरांत अंत्येष्टि अंतिम संस्कार है। गर्भाधान के बाद पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण ये सभी संस्कार नवजात का दैवी जगत् से संबंध स्थापना के लिये किये जाते हैं।
नामकरण के बाद चूडाकर्म और यज्ञोपवीत संस्कार होता है। इसके बाद विवाह संस्कार होता है। यह गृहस्थ जीवन का सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। हिन्दू धर्म में स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सबसे बडा संस्कार है, जो जन्म-जन्मान्तर का होता है।
विभिन्न धर्मग्रंथों में संस्कारों के क्रम में थोडा-बहुत अन्तर है, लेकिन प्रचलित संस्कारों के क्रम में गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन, चूडाकर्म, विद्यारंभ, कर्णवेध, यज्ञोपवीत, वेदारम्भ, केशान्त, समावर्तन, विवाह तथा अन्त्येष्टि ही मान्य है।
गर्भाधान से विद्यारंभ तक के संस्कारों को गर्भ संस्कार भी कहते हैं। इनमें पहले तीन (गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन) को अन्तर्गर्भ संस्कार तथा इसके बाद के छह संस्कारों को बहिर्गर्भ संस्कार कहते हैं। गर्भ संस्कार को दोष मार्जन अथवा शोधक संस्कार भी कहा जाता है। दोष मार्जन संस्कार का तात्पर्य यह है कि शिशु के पूर्व जन्मों से आये धर्म एवं कर्म से सम्बन्धित दोषों तथा गर्भ में आई विकृतियों के मार्जन के लिये संस्कार किये जाते हैं। बाद वाले छह संस्कारों को गुणाधान संस्कार कहा जाता है। दोष मार्जन के बाद मनुष्य के सुप्त गुणों की अभिवृद्धि के लिये ये संस्कार किये जाते हैं।
हमारे मनीषियों ने हमें सुसंस्कृत तथा सामाजिक बनाने के लिये अपने अथक प्रयासों और शोधों के बल पर ये संस्कार स्थापित किये हैं। इन्हीं संस्कारों के कारण भारतीय संस्कृति अद्वितीय है। हालांकि हाल के कुछ वर्षो में आपाधापी की जिंदगी और अतिव्यस्तता के कारण सनातन धर्मावलम्बी अब इन मूल्यों को भुलाने लगे हैं और इसके परिणाम भी चारित्रिक गिरावट, संवेदनहीनता, असामाजिकता और गुरुजनों की अवज्ञा या अनुशासनहीनता के रूप में हमारे सामने आने लगे हैं।
समय के अनुसार बदलाव जरूरी है लेकिन हमारे मनीषियों द्वारा स्थापित मूलभूत सिद्धांतों को नकारना कभीश्रेयस्कर नहीं होगा।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:31:00 pm 0 comments
श्राद्ध से तृप्त होते हैं पितृगण
अश्विन कृष्णपक्ष को अपर पक्ष व पितृपक्ष माना जाता है। धर्मशास्त्र के अनुसार जब कन्या राशि पर सूर्य पहुंचते हैं, वहां से 16दिन पितरोंकी तृप्ति के लिए तर्पण पिण्डदानादिकरना पितरोंके लिए तृप्तिकारकमाना गया है। पितरोंकी तृप्ति से घर में पुत्र पौत्रादिवंश वृद्धि एवं गृहस्थाश्रम में सुख शांति बनी रहती है। श्राद्ध कर्म की आवश्यकता के सम्बंध में शास्त्रों में बहुधा प्रमाण मिलते हैं। गीता में भी भगवान् लुप्तपिण्डोदकक्रिया कहकर उसकी आवश्यकता की ओर संकेत किए हैं। कर्त्तव्याकर्त्तव्यके संबंध में शास्त्र ही प्रमाण है। इसलिए पितृ, देव, एवं मनुष्यों के लिए वेद शास्त्र को ही प्रमाण माना गया है, जंगल में रहकर कन्दमूलफल खाकर मन वाणी एवं कर्म से सर्वथा सत्य को ही पालन करने वाले महर्षिगणलोकोपकार के लिए शास्त्र माध्यम से हमें कल्याण मार्ग को बताते हैं।
संसार को गुमराह करने के लिए नहीं। अत:आज भी आस्तिक लोग श्रद्धापूर्वकशास्त्र प्रतिपादित धार्मिक कृत्यों का अनुष्ठान करते हैं। जिस प्रकार चिकित्सक द्वारा प्रदत्त औषध के सम्पूर्ण विवरण जाने बिना खाने से भी रोगी लाभान्वित होता है, इसी प्रकार ऋषियों द्वारा प्रवर्तित या वेद प्रतिपादित कल्याण मार्ग के रहस्य को बिना जाने आचरण करने पर भी जीव का कल्याण हो जाता है। तथ्य का ज्ञान केवल ज्ञान -वृद्धि में सहायक होगा। जब तक अनुष्ठान नहीं किया जाएगा, तब तक कल्याण नहीं होगा, इसलिए ज्ञान पक्ष से क्रिया पक्ष अधिक महिमामण्डित है।
शरीर के दो भेद हैं। सूक्ष्म तथा स्थूल शरीर। पंचभौतिकशरीर मरणोपरान्त नष्ट हो जाता है। सूक्ष्म शरीर आत्मा के साथ उस प्रकार जाता है, जिस प्रकार पुष्प का सुगन्ध वायु के साथ। जिन धर्मग्रन्थों में मरने के बाद गति का वर्णन है, उन्हें स्थूल शरीर के अतिरिक्त सूक्ष्म शरीर मानना पडेगा। सूक्ष्म शरीर को प्रभावित करने वाला सूक्ष्म तत्व ही होता है, जिसको स्थूल मानदण्ड से मापा नहीं जा सकता।
वेदों में आत्मा वे जायतेपुत्र: अर्थात पुत्र को आत्म-स्वरूप माना गया है। वैसे सजातीय धर्म का भी एक अपना महत्व है। मनुष्य-मनुष्य में, चुम्बक-चुम्बक में, तार-तार में आदि सजातीय धर्म सुदृढ रहता है। अत:इन सजातीय धर्म के आधार पर ही राजनीति में पिता के ऋण को पुत्र को चुकाना पडता है। पुत्र के ऋण को पिता को चुकाना पडता है। जिस प्रकार रेडियो स्टेशन से विद्युत तरंग से ध्वनि प्रसारित करने पर समान धर्म वाले केंद्र से ही उसे सुना जा सकता है, उसी प्रकार इस लोक में स्थित पुत्र रूपी मशीन के भी भावों को श्राद्ध में यथा स्थान स्थापित किए हुए आसन आदि की क्रिया द्वारा शुद्ध और अनन्य बनाकर उसके द्वारा श्राद्ध में दिए गए, अन्नादिकके सूक्ष्म परिणामों को स्थान्तरणकर पितृलोक में पितरोंके पास भेजा जाता है। सामान्य व्यवहार में लोगों द्वारा प्रयुक्त अपशब्द या सम्मान जनक शब्द अगर लोगों के मन को उद्वेलित या प्रसन्न कर सकता है, तो पवित्र वेद मंत्रों से अभिमन्त्रित शुद्ध भाव से समर्पित अन्नादिके सूक्ष्मांशपितृ लोगों को तृप्त क्यों नहीं कर सकता? अवश्य करता है।
मन्त्र, ब्राह्मण,उपनिषद आदि ग्रन्थों में श्राद्ध के सम्बन्ध में अनेक मंत्र एवं प्रकरण वर्णित हैं। संस्कार मूलक सृष्टि में सत्संस्कारजनक श्राद्ध आदि सत्सन्ततिदायकक्रियाओं के अभाव से आज समाज दुराचारी राक्षसों से पीडित है। श्राद्ध सत्सन्तानलाभ में एक कडी है। पुण्यार्जनकी घडी है और सुख-शांति की जडी है। श्राद्ध धन से ही सम्पन्न होगा, ऐसा नही है। जिसके पास अपने खाने के लिए भी दाना नहीं है, वह भी अपने पितरोंको श्रद्धा भाव से तर्पित कर सकता है।
शास्त्रों में विधान है, घर में कुछ भी न होने पर पितरोंकी तिथि में एकान्त में दोनों हाथ ऊपर उठाकर भक्ति भाव से अश्रुपात करते हुए पितरोंसे विनती पर तृप्त होने के लिए भगवान से प्रार्थना करें। इससे श्राद्ध का महत्व जीवन में कितना है, अनुमान किया जा सकता है। पितृगणभी श्राद्ध से तृप्त होकर अपने संतति को सभी सुख समृद्धि से तृप्त कर देते हैं।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:29:00 pm 1 comments
श्राद्ध के विविध स्वरूप
त्रिविधंश्राद्धमुच्यतेके अनुसार मत्स्य पुराण में तीन प्रकार के श्राद्ध बतलाए गए है, जिन्हें नित्य, नैमित्तिक एवं काम्य के नाम से जाना जाता है। यमस्मृतिमें पांच प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता है। जिन्हें नित्य, नैमित्तिक काम्य, वृद्धि और पार्वण के नाम से जाना जाता है।
नित्य श्राद्ध- नित्य का अर्थ प्रतिदिन। अर्थात् रोज-रोज किए जानें वाले श्राद्ध को नित्यश्राद्धकहते हैं। इस श्राद्ध में विश्वेदेव को स्थापित नहीं किया जाता। अत्यंत आवश्यकता एवं असमर्थावस्थामें केवल जल से इस श्राद्ध को सम्पन्न किया जा सकता है।
नैमित्तिक श्राद्ध- किसी को निमित्त बनाकर जो श्राद्ध किया जाता है, उसे नैमित्तिक श्राद्ध कहते हैं। इसे एकोद्दिष्ट के नाम से भी जाना जाता है। एकोद्दिष्ट का मतलब किसी एक को निमित्त मानकर किए जाने वाला श्राद्ध जैसे किसी की मृत्यु हो जाने पर दशाह, एकादशाह आदि एकोद्दिष्ट श्राद्ध के अन्तर्गत आता है। इसमें भी विश्वेदेवोंको स्थापित नहीं किया जाता।
काम्य श्राद्ध- किसी कामना की पूर्ति के निमित्त जो श्राद्ध किया जाता है। वह काम्य श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
वृद्धि श्राद्ध- किसी प्रकार की वृद्धि में जैसे पुत्र जन्म, विवाहादिमांगलिक कार्यो में जो श्राद्ध होता है। उसे वृद्धि श्राद्ध कहते हैं। इसे नान्दीश्राद्धया नान्दीमुखश्राद्ध के नाम भी जाना जाता है।
पार्वण श्राद्ध- पार्वण श्राद्ध पर्व से सम्बन्धित होता है। किसी पर्व जैसे पितृपक्ष, अमावास्याअथवा पर्व की तिथि आदि पर किया जाने वाला श्राद्ध पार्वण श्राद्ध कहलाता है। यह श्राद्ध विश्वेदेवसहित होता है।
विश्वामित्रस्मृतितथा भविष्यपुराणमें बारह प्रकार के श्राद्धों का वर्णन मिलता हैं जिन्हें नित्य, नैमित्तिक काम्य, वृद्धि, पार्वण, सपिण्डन,गोष्ठी, शुद्धयर्थ,कर्माग,दैविक, यात्रार्थतथा पुष्ट्यर्थके नामों से जाना जाता है। यदि ध्यान पूर्वक देखा जाय तो इन बारहों श्राद्धों का स्वरूप ऊपर बताए गए पांच प्रकार के श्राद्धों में स्पष्ट रूप से झलकता है।
सपिण्डनश्राद्ध- सपिण्डनशब्द का अभिप्राय पिण्डों को मिलाना। दरअसल शास्त्रों के अनुसार जब जीव की मृत्यु होती है, तो वह प्रेत हो जाता है। प्रेत से पितर में ले जाने की प्रक्रिया ही सपिण्डनहै। अर्थात् इस प्रक्रिया में प्रेत पिण्ड का पितृ पिण्डों में सम्मेलन कराया जा सकता है। इसे ही सपिण्डनश्राद्ध कहते हैं।
गोष्ठी श्राद्ध- गोष्ठी शब्द का अर्थ समूह होता है। जो श्राद्ध सामूहिक रूप से या समूह में सम्पन्न किए जाते हैं। उसे गोष्ठी श्राद्ध कहते हैं।
शुद्धयर्थश्राद्ध- शुद्धि के निमित्त जो श्राद्ध किए जाते हैं। उसे शुद्धयर्थश्राद्ध कहते हैं। जैसे शुद्धि हेतु ब्राह्मण भोजन कराना चाहिए।
कर्मागश्राद्ध- कर्मागका सीधा साधा अर्थ कर्म का अंग होता है, अर्थात् किसी प्रधान कर्म के अंग के रूप में जो श्राद्ध सम्पन्न किए जाते हैं। उसे कर्मागश्राद्ध कहते हैं। जैसे- सीमन्तोन्नयन, पुंसवन आदि संस्कारों के सम्पन्नता हेतु किया जाने वाला श्राद्ध इस श्राद्ध के अन्तर्गत आता है।
यात्रार्थश्राद्ध- यात्रा के उद्देश्य से किया जाने वाला श्राद्ध यात्रार्थश्राद्ध कहलाता है। जैसे- तीर्थ में जाने के उद्देश्य से या देशान्तर जाने के उद्देश्य से जिस श्राद्ध को सम्पन्न कराना चाहिए वह यात्रार्थश्राद्ध ही है। यह घी द्वारा सम्पन्न होता है। इसीलिए इसे घृतश्राद्धकी भी उपमा दी गयी है।
पुष्ट्यर्थश्राद्ध- पुष्टि के निमित्त जो श्राद्ध सम्पन्न हो, जैसे शारीरिक एवं आर्थिक उन्नति के लिए किया जाना वाला श्राद्ध पुष्ट्यर्थश्राद्ध कहलाता है।
वर्णित सभी प्रकार के श्राद्धों को दो भेदों के रूप में जाना जाता है। श्रौत तथा स्मार्त्त।पिण्डपितृयागको श्रौतश्राद्धकहते हैं तथा एकोद्दिष्ट पार्वण आदि मरण तक के श्राद्ध को स्मार्त्तश्राद्ध कहा जाता है।
श्राद्धैर्नवतिश्चषट्-धर्मसिन्धुके अनुसार श्राद्ध के 96अवसर बतलाए गए हैं। एक वर्ष की अमावास्याएं(12) पुणादितिथियां (4),मन्वादि तिथियां (14)संक्रान्तियां (12)वैधृति योग (12),व्यतिपात योग (12)पितृपक्ष (15), अष्टकाश्राद्ध(5) अन्वष्टका(5) तथा पूर्वेद्यु:(5) मिलाकर कुल 96अवसर श्राद्ध के हैं।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:27:00 pm 0 comments
सीमन्तोन्नयन
सीमन्तोन्नयन को सीमन्तकरण अथवा सीमन्त संस्कार भी कहते हैं। सीमन्तोन्नयन का अभिप्राय है सौभाग्य संपन्न होना। गर्भपात रोकने के साथ-साथ गर्भस्थ शिशु एवं उसकी माता की रक्षा करना भी इस संस्कार का मुख्य उद्देश्य है। इस संस्कार के माध्यम से गर्भिणी स्त्री का मन प्रसन्न रखने के लिये सौभाग्यवती स्त्रियां गर्भवती की मांग भरती हैं। यह संस्कार गर्भ धारण के छठे अथवा आठवें महीने में होता है।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:26:00 pm 0 comments
वेदारम्भ
ज्ञानार्जन से सम्बन्धित है यह संस्कार। वेद का अर्थ होता है ज्ञान और वेदारम्भ के माध्यम से बालक अब ज्ञान को अपने अन्दर समाविष्ट करना शुरू करे यही अभिप्राय है इस संस्कार का। शास्त्रों में ज्ञान से बढ़कर दूसरा कोई प्रकाश नहीं समझा गया है। स्पष्ट है कि प्राचीन काल में यह संस्कार मनुष्य के जीवन में विशेष महत्व रखता था। यज्ञोपवीत के बाद बालकों को वेदों का अध्ययन एवं विशिष्ट ज्ञान से परिचित होने के लिये योग्य आचार्यो के पास गुरुकुलों में भेजा जाता था। वेदारम्भ से पहले आचार्य अपने शिष्यों को ब्रह्मचर्य व्रत कापालन करने एवं संयमित जीवन जीने की प्रतिज्ञा कराते थे तथा उसकी परीक्षा लेने के बाद ही वेदाध्ययन कराते थे। असंयमित जीवन जीने वाले वेदाध्ययन के अधिकारी नहीं माने जाते थे। हमारे चारों वेद ज्ञान के अक्षुण्ण भंडार हैं।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:25:00 pm 0 comments
विद्यारम्भ
विद्यारम्भ संस्कार के क्रम के बारे में हमारे आचार्यो में मतभिन्नता है। कुछ आचार्यो का मत है कि अन्नप्राशन के बाद विद्यारम्भ संस्कार होना चाहिये तो कुछ चूड़ाकर्म के बाद इस संस्कार को उपयुक्त मानते हैं। मेरी राय में अन्नप्राशन के समय शिशु बोलना भी शुरू नहीं कर पाता है और चूड़ाकर्म तक बच्चों में सीखने की प्रवृत्ति जगने लगती है। इसलिये चूड़ाकर्म के बाद ही विद्यारम्भ संस्कार उपयुक्त लगता है। विद्यारम्भ का अभिप्राय बालक को शिक्षा के प्रारम्भिक स्तर से परिचित कराना है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी तो बालक को वेदाध्ययन के लिये भेजने से पहले घर में अक्षर बोध कराया जाता था। माँ-बाप तथा गुरुजन पहले उसे मौखिक रूप से श्लोक, पौराणिक कथायें आदि का अभ्यास करा दिया करते थे ताकि गुरुकुल में कठिनाई न हो। हमारा शास्त्र विद्यानुरागी है। शास्त्र की उक्ति है सा विद्या या विमुक्तये अर्थात् विद्या वही है जो मुक्ति दिला सके। विद्या अथवा ज्ञान ही मनुष्य की आत्मिक उन्नति का साधन है। शुभ मुहूर्त में ही विद्यारम्भ संस्कार करना चाहिये।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:24:00 pm 0 comments
विवाह
प्राचीन काल से ही स्त्री और पुरुष दोनों के लिये यह सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। यज्ञोपवीत से समावर्तन संस्कार तक ब्रह्मचर्य व्रत के पालन का हमारे शास्त्रों में विधान है। वेदाध्ययन के बाद जब युवक में सामाजिक परम्परा निर्वाह करने की क्षमता व परिपक्वता आ जाती थी तो उसे गृर्हस्थ्य धर्म में प्रवेश कराया जाता था। लगभग पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का व्रत का पालन करने के बाद युवक परिणय सूत्र में बंधता था।
हमारे शास्त्रों में आठ प्रकार के विवाहों का उल्लेख है- ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्रजापत्य, आसुर, गन्धर्व, राक्षस एवं पैशाच। वैदिक काल में ये सभी प्रथाएं प्रचलित थीं। समय के अनुसार इनका स्वरूप बदलता गया। वैदिक काल से पूर्व जब हमारा समाज संगठित नहीं था तो उस समय उच्छृंखल यौनाचार था। हमारे मनीषियों ने इस उच्छृंखलता को समाप्त करने के लिये विवाह संस्कार की स्थापना करके समाज को संगठित एवं नियमबद्ध करने का प्रयास किया। आज उन्हीं के प्रयासों का परिणाम है कि हमारा समाज सभ्य और सुसंस्कृत है।
शादी में सात फेरे क्यों लगाते हैं?
हिंदू विवाह संस्कार के अंतर्गत वर-वधू अग्नि को साक्षी मानकर पति-पत्नी के रूप में एक साथ सुख से जीवन बिताने के लिए प्रण करते हैं और इसी प्रक्रिया में दोनों सात फेरे लेते हैं, जिसे सप्तपदी भी कहा जाता है। और यह सातों फेरे या पद सात वचन के साथ लिए जाते हैं। जिसमें पहला वचन होता है, पति-पत्नी को जीवन भर पर्याप्त और सम्मानित ढंग से भोजन मिलता रहे, दूसरा दोनों का जीवन शांतिपूर्ण और स्वस्थ ढंग से बीते, तीसरा दोनों अपने जीवन में आध्यात्मिक और धार्मिक दायित्वों को निभा सकें, चौथा फेरा इस वचन के साथ लिया जाता है कि दोनों सौहार्द्र और परस्पर प्रेम के साथ जीवन बितायें, पाँचवे फेरे का वचन होता है विश्व का कल्याण हो और संतान कि प्राप्ति हो, छठे में प्रार्थना की जाती है कि सभी ऋतुएं अपने अपने ढंग से समुचित धनधान्य उत्पन्न करके दुनिया भर को सुख दें क्योंकि सभी के सुख में दंपत्ति का भी भला होता है और सातवें फेरे में पति-पत्नी परस्पर विश्वास, एकता, मतैक्य और शांति के साथ जीवन बिता सकें। इन सात फेरों के साथ लिए वचनों में अपने और विश्व की शांति और सुख की प्रार्थना की जाती है।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:23:00 pm 0 comments
यज्ञोपवीत
यज्ञोपवीत अथवा उपनयन बौद्धिक विकास के लिये सर्वाधिक महत्वपूर्ण संस्कार है। धार्मिक और आधात्मिक उन्नति का इस संस्कार में पूर्णरूपेण समावेश है। हमारे मनीषियों ने इस संस्कार के माध्यम से वेदमाता गायत्री को आत्मसात करने का प्रावधान दिया है। आधुनिक युग में भी गायत्री मंत्र पर विशेष शोध हो चुका है। गायत्री सर्वाधिक शक्तिशाली मंत्र है।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं अर्थात् यज्ञोपवीत जिसे जनेऊ भी कहा जाता है अत्यन्त पवित्र है। प्रजापति ने स्वाभाविक रूप से इसका निर्माण किया है। यह आयु को बढ़ानेवाला, बल और तेज प्रदान करनेवाला है। इस संस्कार के बारे में हमारे धर्मशास्त्रों में विशेष उल्लेख है। यज्ञोपवीत धारण का वैज्ञानिक महत्व भी है। प्राचीन काल में जब गुरुकुल की परम्परा थी उस समय प्राय: आठ वर्ष की उम्र में यज्ञोपवीत संस्कार सम्पन्न हो जाता था। इसके बाद बालक विशेष अध्ययन के लिये गुरुकुल जाता था। यज्ञोपवीत से ही बालक को ब्रह्मचर्य की दीक्षा दी जाती थी जिसका पालन गृहस्थाश्रम में आने से पूर्व तक किया जाता था। इस संस्कार का उद्देश्य संयमित जीवन के साथ आत्मिक विकास में रत रहने के लिये बालक को प्रेरित करना है।
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:22:00 pm 0 comments
आरती सरस्वती जी की
आरती कीजै सरस्वती की,
जननि विद्या बुद्धि भक्ति की। आरती ..
जाकी कृपा कुमति मिट जाए।
सुमिरन करत सुमति गति आये,
शुक सनकादिक जासु गुण गाये।
वाणि रूप अनादि शक्ति की॥ आरती ..
नाम जपत भ्रम छूट दिये के।
दिव्य दृष्टि शिशु उधर हिय के।
मिलहिं दर्श पावन सिय पिय के।
उड़ाई सुरभि युग-युग, कीर्ति की। आरती ..
रचित जासु बल वेद पुराणा।
जेते ग्रन्थ रचित जगनाना।
तालु छन्द स्वर मिश्रित गाना।
जो आधार कवि यति सती की॥ आरती ..
सरस्वती की वीणा-वाणी कला जननि की॥ आरती..
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Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:20:00 pm 0 comments
आरती श्री सत्यनारायण जी की
जय लक्ष्मी रमणा, जय लक्ष्मी रमणा।
सत्यनारायण स्वामी जन पातक हरणा॥ जय ..
रत्न जडि़त सिंहासन अद्भुत छवि राजै।
नारद करत निराजन घण्टा ध्वनि बाजै॥ जय ..
प्रकट भये कलि कारण द्विज को दर्श दियो।
बूढ़ा ब्राह्मण बनकर क†चन महल कियो॥ जय ..
दुर्बल भील कठारो, जिन पर कृपा करी।
चन्द्रचूड़ एक राजा तिनकी विपत्ति हरी॥ जय ..
वैश्य मनोरथ पायो श्रद्धा तज दीन्हों।
सो फल भोग्यो प्रभु जी फिर-स्तुति कीन्हीं॥ जय ..
भाव भक्ति के कारण छिन-छिन रूप धरयो।
श्रद्धा धारण कीनी, तिनको काज सरयो॥ जय ..
ग्वाल बाल संग राजा वन में भक्ति करी।
मनवांछित फल दीन्हों दीनदयाल हरी॥ जय ..
चढ़त प्रसाद सवायो कदली फल, मेवा।
धूप दीप तुलसी से राजी सत्य देवा॥ जय ..
श्री सत्यनारायण जी की आरती जो कोई नर गावै।
भगतदास तन-मन सुख सम्पत्ति मनवांछित फल पावै॥ जय ..
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Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:19:00 pm 0 comments
आरती माता वैष्णो देवी जी की
जय वैष्णवी माता, मैया जय वैष्णवी माता।
द्वार तुम्हारे जो भी आता, बिन माँगे सबकुछ पा जाता॥ जय ..
तू चाहे जो कुछ भी कर दे, तू चाहे तो जीवन दे दे।
राजा रंग बने तेरे चेले, चाहे पल में जीवन ले ले॥ जय ..
मौत-जिंदगी हाथ में तेरे मैया तू है लाटां वाली।
निर्धन को धनवान बना दे मैया तू है शेरा वाली॥ जय ..
पापी हो या हो पुजारी, राजा हो या रंक भिखारी।
मैया तू है जोता वाली, भवसागर से तारण हारी॥ जय ..
तू ने नाता जोड़ा सबसे, जिस-जिस ने जब तुझे पुकारा।
शुद्ध हृदय से जिसने ध्याया, दिया तुमने सबको सहारा॥ जय ..
मैं मूरख अज्ञान अनारी, तू जगदम्बे सबको प्यारी।
मन इच्छा सिद्ध करने वाली, अब है ब्रज मोहन की बारी॥ जय .. सुन मेरी देवी पर्वतवासिनी, तेरा पार न पाया।
पान, सुपारी, ध्वजा, नारियल ले तेरी भेंट चढ़ाया॥ सुन मेरी ..
सुआ चोली तेरे अंग विराजे, केसर तिलक लगाया।
ब्रह्मा वेद पढ़े तेरे द्वारे, शंकर ध्यान लगाया।
नंगे पांव पास तेरे अकबर सोने का छत्र चढ़ाया।
ऊंचे पर्वत बन्या शिवाली नीचे महल बनाया॥ सुन मेरी ..
सतयुग, द्वापर, त्रेता, मध्ये कलयुग राज बसाया।
धूप दीप नैवेद्य, आरती, मोहन भोग लगाया।
ध्यानू भक्त मैया तेरा गुणभावे, मनवांछित फल पाया॥ सुन मेरी ..
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Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:18:00 pm 0 comments
भगवान श्री रामचन्द्र जी की आरती
आरती कीजै रामचन्द्र जी की।
हरि-हरि दुष्टदलन सीतापति जी की॥
पहली आरती पुष्पन की माला।
काली नाग नाथ लाये गोपाला॥
दूसरी आरती देवकी नन्दन।
भक्त उबारन कंस निकन्दन॥
तीसरी आरती त्रिभुवन मोहे।
रत्न सिंहासन सीता रामजी सोहे॥
चौथी आरती चहुं युग पूजा।
देव निरंजन स्वामी और न दूजा॥
पांचवीं आरती राम को भावे।
रामजी का यश नामदेव जी गावें॥
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Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:16:00 pm 0 comments
श्रीविन्ध्येश्वरी चालीसा
नमो नमो विन्ध्येश्वरी, नमो नमो जगदंब। संत जनों के काज में, करती नहीं बिलंब॥
जय जय जय विन्ध्याचल रानी। आदि शक्ति जगबिदित भवानी॥
सिंह वाहिनी जय जगमाता। जय जय जय त्रिभुवन सुखदाता॥
कष्ट निवारिनि जय जग देवी। जय जय संत असुर सुरसेवी॥
महिमा अमित अपार तुम्हारी। सेष सहस मुख बरनत हारी॥
दीनन के दु:ख हरत भवानी। नहिं देख्यो तुम सम कोउ दानी॥
सब कर मनसा पुरवत माता। महिमा अमित जगत विख्याता॥
जो जन ध्यान तुम्हारो लावे। सो तुरतहिं वांछित फल पावे॥
तू ही वैस्नवी तू ही रुद्रानी। तू ही शारदा अरु ब्रह्मानी॥
रमा राधिका स्यामा काली। तू ही मात संतन प्रतिपाली॥
उमा माधवी चंडी ज्वाला। बेगि मोहि पर होहु दयाला॥
तुम ही हिंगलाज महरानी। तुम ही शीतला अरु बिज्ञानी॥
तुम्हीं लक्ष्मी जग सुख दाता। दुर्गा दुर्ग बिनासिनि माता॥
तुम ही जाह्नवी अरु उन्नानी। हेमावती अंबे निरबानी॥
अष्टभुजी बाराहिनि देवा। करत विष्णु शिव जाकर सेवा॥
चौसट्टी देवी कल्याणी। गौरि मंगला सब गुन खानी॥
पाटन मुंबा दंत कुमारी। भद्रकाली सुन विनय हमारी॥
बज्रधारिनी सोक नासिनी। आयु रच्छिनी विन्ध्यवासिनी॥
जया और विजया बैताली। मातु संकटी अरु बिकराली॥
नाम अनंत तुम्हार भवानी। बरनै किमि मानुष अज्ञानी॥
जापर कृपा मातु तव होई। तो वह करै चहै मन जोई॥
कृपा करहु मोपर महारानी। सिध करिये अब यह मम बानी॥
जो नर धरै मातु कर ध्याना। ताकर सदा होय कल्याणा॥
बिपत्ति ताहि सपनेहु नहि आवै। जो देवी का जाप करावै॥
जो नर कहे रिन होय अपारा। सो नर पाठ करे सतबारा॥
नि:चय रिनमोचन होई जाई। जो नर पाठ करे मन लाई॥
अस्तुति जो नर पढै पढावै। या जग में सो बहु सुख पावै॥
जाको ब्याधि सतावै भाई। जाप करत सब दूर पराई॥
जो नर अति बंदी महँ होई। बार हजार पाठ कर सोई॥
नि:चय बंदी ते छुटि जाई। सत्य वचन मम मानहु भाई॥
जापर जो कुछ संकट होई। नि:चय देबिहि सुमिरै सोई॥
जा कहँ पुत्र होय नहि भाई। सो नर या विधि करै उपाई॥
पाँच बरस सो पाठ करावै। नौरातर महँ बिप्र जिमावै॥
नि:चय होहि प्रसन्न भवानी। पुत्र देहि ताकहँ गुन खानी॥
ध्वजा नारियल आन चढावै। विधि समेत पूजन करवावै॥
नित प्रति पाठ करै मन लाई। प्रेम सहित नहि आन उपाई॥
यह श्री विन्ध्याचल चालीसा। रंक पढत होवै अवनीसा॥
यह जनि अचरज मानहु भाई। कृपा दृष्टि जापर ह्वै जाई॥
जय जय जय जग मातु भवानी। कृपा करहु मोहि पर जन जानी॥
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Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:15:00 pm 0 comments
श्री विष्णु भगवान की आरती
जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।
भक्तजनों के संकट, छन में दूर करे॥ \ जय ..
जो ध्यावै फल पावै, दु:ख बिनसै मनका।
सुख सम्पत्ति घर आवै, कष्ट मिटै तनका॥ \ जय ..
मात-पिता तुम मेरे, शरण गहूँ किसकी।
तुम बिन और न दूजा, आस करूँ जिसकी॥ \ जय ..
तुम पूरन परमात्मा, तुम अंतर्यामी।
पारब्रह्म परमेश्वर, तुम सबके स्वामी॥ \ जय ..
तुम करुणा के सागर, तुम पालनकर्ता।
मैं मुरख खल कामी, कृपा करो भर्ता॥ \ जय ..
तुम हो एक अगोचर, सबके प्राणपति।
किस विधि मिलूँ दयामय, तुमको मैं कुमती॥ \ जय ..
दीनबन्धु, दु:खहर्ता तुम ठाकुर मेरे।
अपने हाथ उठाओ, द्वार पडा तेरे॥ \ जय ..
विषय विकार मिटाओ, पाप हरो देवा।
श्रद्धा-भक्ति बढाओ, संतन की सेवा॥ \ जय ..
जय जगदीश हरे, प्रभु! जय जगदीश हरे।
मायातीत, महेश्वर मन-वच-बुद्धि परे॥ जय..
आदि, अनादि, अगोचर, अविचल, अविनाशी।
अतुल, अनन्त, अनामय, अमित, शक्ति-राशि॥ जय..
अमल, अकल, अज, अक्षय, अव्यय, अविकारी।
सत-चित-सुखमय, सुन्दर शिव सत्ताधारी॥ जय..
विधि-हरि-शंकर-गणपति-सूर्य-शक्तिरूपा।
विश्व चराचर तुम ही, तुम ही विश्वभूपा॥ जय..
माता-पिता-पितामह-स्वामि-सुहृद्-भर्ता।
विश्वोत्पादक पालक रक्षक संहर्ता॥ जय..
साक्षी, शरण, सखा, प्रिय प्रियतम, पूर्ण प्रभो।
केवल-काल कलानिधि, कालातीत, विभो॥ जय..
राम-कृष्ण करुणामय, प्रेमामृत-सागर।
मन-मोहन मुरलीधर नित-नव नटनागर॥ जय..
सब विधि-हीन, मलिन-मति, हम अति पातकि-जन।
प्रभुपद-विमुख अभागी, कलि-कलुषित तन मन॥ जय..
आश्रय-दान दयार्णव! हम सबको दीजै।
पाप-ताप हर हरि! सब, निज-जन कर लीजै॥ जय..
श्री रामकृष्ण गोपाल दामोदर, नारायण नरसिंह हरी।
जहां-जहां भीर पडी भक्तों पर, तहां-तहां रक्षा आप करी॥ श्री रामकृष्ण ..
भीर पडी प्रहलाद भक्त पर, नरसिंह अवतार लिया।
अपने भक्तों की रक्षा कारण, हिरणाकुश को मार दिया॥ श्री रामकृष्ण ..
होने लगी जब नग्न द्रोपदी, दु:शासन चीर हरण किया।
अरब-खरब के वस्त्र देकर आस पास प्रभु फिरने लगे॥ श्री रामकृष्ण ..
गज की टेर सुनी मेरे मोहन तत्काल प्रभु उठ धाये।
जौ भर सूंड रहे जल ऊपर, ऐसे गज को खेंच लिया॥ श्री रामकृष्ण ..
नामदेव की गउआ बाईया, नरसी हुण्डी को तारा।
माता-पिता के फन्द छुडाये, हाँ! कंस दुशासन को मारा॥ श्री रामकृष्ण ..
जैसी कृपा भक्तों पर कीनी हाँ करो मेरे गिरधारी।
तेरे दास की यही भावना दर्श दियो मैंनू गिरधारी॥ श्री रामकृष्ण ..
श्री रामकृष्ण गोपाल दामोदर नारायण नरसिंह हरि।
जहां-जहां भीर पडी भक्तों पर वहां-वहां रक्षा आप करी॥
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Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:12:00 pm 0 comments
श्रीशिव चालीसा
अज अनादि अविगत अलख, अकल अतुल अविकार।
बंदौं शिव-पद-युग-कमल अमल अतीव उदार॥
आर्तिहरण सुखकरण शुभ भक्ति -मुक्ति -दातार।
करौ अनुग्रह दीन लखि अपनो विरद विचार॥
पर्यो पतित भवकूप महँ सहज नरक आगार।
सहज सुहृद पावन-पतित, सहजहि लेहु उबार॥
पलक-पलक आशा भर्यो, रह्यो सुबाट निहार।
ढरौ तुरन्त स्वभाववश, नेक न करौ अबार॥
जय शिव शङ्कर औढरदानी। जय गिरितनया मातु भवानी॥
सर्वोत्तम योगी योगेश्वर। सर्वलोक-ईश्वर-परमेश्वर॥
सब उर प्रेरक सर्वनियन्ता। उपद्रष्टा भर्ता अनुमन्ता॥
पराशक्ति -पति अखिल विश्वपति। परब्रह्म परधाम परमगति॥
सर्वातीत अनन्य सर्वगत। निजस्वरूप महिमामें स्थितरत॥
अंगभूति-भूषित श्मशानचर। भुजंगभूषण चन्द्रमुकुटधर॥
वृषवाहन नंदीगणनायक। अखिल विश्व के भाग्य-विधायक॥
व्याघ्रचर्म परिधान मनोहर। रीछचर्म ओढे गिरिजावर॥
कर त्रिशूल डमरूवर राजत। अभय वरद मुद्रा शुभ साजत॥
तनु कर्पूर-गोर उज्ज्वलतम। पिंगल जटाजूट सिर उत्तम॥
भाल त्रिपुण्ड्र मुण्डमालाधर। गल रुद्राक्ष-माल शोभाकर॥
विधि-हरि-रुद्र त्रिविध वपुधारी। बने सृजन-पालन-लयकारी॥
तुम हो नित्य दया के सागर। आशुतोष आनन्द-उजागर॥
अति दयालु भोले भण्डारी। अग-जग सबके मंगलकारी॥
सती-पार्वती के प्राणेश्वर। स्कन्द-गणेश-जनक शिव सुखकर॥
हरि-हर एक रूप गुणशीला। करत स्वामि-सेवक की लीला॥
रहते दोउ पूजत पुजवावत। पूजा-पद्धति सबन्हि सिखावत॥
मारुति बन हरि-सेवा कीन्ही। रामेश्वर बन सेवा लीन्ही॥
जग-जित घोर हलाहल पीकर। बने सदाशिव नीलकंठ वर॥
असुरासुर शुचि वरद शुभंकर। असुरनिहन्ता प्रभु प्रलयंकर॥
नम: शिवाय मन्त्र जपत मिटत सब क्लेश भयंकर॥
जो नर-नारि रटत शिव-शिव नित। तिनको शिव अति करत परमहित॥
श्रीकृष्ण तप कीन्हों भारी। ह्वै प्रसन्न वर दियो पुरारी॥
अर्जुन संग लडे किरात बन। दियो पाशुपत-अस्त्र मुदित मन॥
भक्तन के सब कष्ट निवारे। दे निज भक्ति सबन्हि उद्धारे॥
शङ्खचूड जालन्धर मारे। दैत्य असंख्य प्राण हर तारे॥
अन्धकको गणपति पद दीन्हों। शुक्र शुक्रपथ बाहर कीन्हों॥
तेहि सजीवनि विद्या दीन्हीं। बाणासुर गणपति-गति कीन्हीं॥
अष्टमूर्ति पंचानन चिन्मय। द्वादश ज्योतिर्लिङ्ग ज्योतिर्मय॥
भुवन चतुर्दश व्यापक रूपा। अकथ अचिन्त्य असीम अनूपा॥
काशी मरत जंतु अवलोकी। देत मुक्ति -पद करत अशोकी॥
भक्त भगीरथ की रुचि राखी। जटा बसी गंगा सुर साखी॥
रुरु अगस्त्य उपमन्यू ज्ञानी। ऋषि दधीचि आदिक विज्ञानी॥
शिवरहस्य शिवज्ञान प्रचारक। शिवहिं परम प्रिय लोकोद्धारक॥
इनके शुभ सुमिरनतें शंकर। देत मुदित ह्वै अति दुर्लभ वर॥
अति उदार करुणावरुणालय। हरण दैन्य-दारिद्रय-दु:ख-भय॥
तुम्हरो भजन परम हितकारी। विप्र शूद्र सब ही अधिकारी॥
बालक वृद्ध नारि-नर ध्यावहिं। ते अलभ्य शिवपद को पावहिं॥
भेदशून्य तुम सबके स्वामी। सहज सुहृद सेवक अनुगामी॥
जो जन शरण तुम्हारी आवत। सकल दुरित तत्काल नशावत॥
दोहा
बहन करौ तुम शीलवश, निज जनकौ सब भार।
गनौ न अघ, अघ-जाति कछु, सब विधि करो सँभार॥
तुम्हरो शील स्वभाव लखि, जो न शरण तव होय।
तेहि सम कुटिल कुबुद्धि जन, नहिं कुभाग्य जन कोय॥
दीन-हीन अति मलिन मति, मैं अघ-ओघ अपार।
कृपा-अनल प्रगटौ तुरत, करो पाप सब छार॥
कृपा सुधा बरसाय पुनि, शीतल करो पवित्र।
राखो पदकमलनि सदा, हे कुपात्र के मित्र॥
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Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:09:00 pm 0 comments
श्री दुर्गाचालीसा
नमो नमो दुर्गे सुख करनी। नमो नमो अंबे दुख हरनी॥
निरंकार है ज्योति तुम्हारी। तिहूँ लोक फैली उजियारी॥
ससि ललाट मुख महा बिसाला। नेत्र लाल भृकुटी बिकराला॥
रूप मातु को अधिक सुहावे। दरस करत जन अति सुख पावे॥
तुम संसार शक्ति लय कीन्हा। पालन हेतु अन्न धन दीन्हा॥
अन्नपूर्णा हुई जग पाला। तुम ही आदि सुन्दरी बाला॥
प्रलयकाल सब नासन हारी। तुम गौरी शिव शङ्कर प्यारी॥
शिवजोगी तुम्हरे गुन गावें। ब्रह्मा विष्णु तुम्हें नित ध्यावें॥
रूप सरस्वति को तुम धारा। दे सुबुद्धि ऋषि मुनिन्ह उबारा॥
धरा रूप नरसिंह को अंबा। परगट भई फाड कर खंबा॥
रच्छा करि प्रह्लाद बचाओ। हिरनाकुस को स्वर्ग पठायो॥
लक्ष्मी रूप धरो जग माहीं। श्री नारायण अंग समाहीं॥
छीर सिन्धु में करत बिलासा। दया सिन्धु दीजै मन आसा॥
हिंगलाज में तुम्हीं भवानी। महिमा अमित न जाय बखानी॥
मातंगी धूमावति माता। भुवनेस्वरि बगला सुख दाता॥
श्री भैरव तारा जग तारिनि। छिन्नभाल भव दु:ख निवारिनि॥
केहरि बाहन सोह भवानी। लांगुर बीर चलत अगवानी॥
कर में खप्पर खडग बिराजै। जाको देख काल डर भाजै॥
सोहै अस्त्र और तिरसूला। जाते उठत शत्रु हिय सूला॥
नगरकोट में तुम्ही बिराजत। तिहूँ लोक में डंका बाजत॥
शुम्भ निशुम्भ दानव तुम मारे। रक्त बीज संखन संहारे॥
महिषासुर नृप अति अभिमानी। जेहि अघ भार मही अकुलानी॥
रूप कराल काली को धारा। सेन सहित तुम तिहि संहारा॥
परी गाढ संतन पर जब जब। भई सहाय मातु तुम तब तब॥
अमर पुरी औरों सब लोका। तव महिमा सब रहै असोका॥
ज्वाला में है ज्योति तुम्हारी। तुम्हें सदा पूजें नरनारी॥
प्रेम भक्ति से जो जस गावै। दुख दारिद्र निकट नहि आवै॥
ध्यावे तुम्हें जो नर मन लाई। जन्म मरन ताको छुटि जाई॥
जोगी सुर मुनि कहत पुकारी। जोग न हो बिन शक्ति तुम्हारी॥
शङ्कर आचारज तप कीन्हो। काम क्रोध जीति सब लीन्हो॥
निसिदिन ध्यान धरो शङ्कर को। काहु काल नहि सुमिरो तुमको॥
शक्ति रूप को मरम न पायो। शक्ति गई तब मन पछितायो॥
सरनागत ह्वै कीर्ति बखानी। जय जय जय जगदंब भवानी॥
भई प्रसन्न आदि जगदंबा। दई शक्ति नहि कीन्ह बिलंबा॥
मोको मातु कष्ट अति घेरो। तुम बिन कौन हरे दुख मेरो॥
आसा तृस्ना निपट सतावै। रिपु मूरख मोहि अति डरपावै॥
शत्रु नास कीजै महरानी। सुमिरौं एकचित तुमहि भवानी॥
करौ कृपा हे मातु दयाला। ऋद्धि सिद्धि दे करहु निहाला॥
जब लगि जियौं दयाफल पाऊँ। तुम्हरौ जस मैं सदा सुनाऊँ॥
दुर्गा चालीसा जो कोई गावै। सब सुख भोग परम पद पावै॥
देवीदास सरन निज जानी। करहु कृपा जगदंब भवानी॥
श्री दुर्गा जी की आरती
जगजननी जय! जय! माँ! जगजननी जय! जय!
भयहारिणी, भवतारिणी, भवभामिनि जय जय। जगजननी ..
तू ही सत्-चित्-सुखमय, शुद्ध ब्रह्मरूपा।
सत्य सनातन, सुन्दर पर-शिव सुर-भूपा॥ जगजननी ..
आदि अनादि, अनामय, अविचल, अविनाशी।
अमल, अनन्त, अगोचर, अज आनन्दराशी॥ जगजननी ..
अविकारी, अघहारी, अकल कलाधारी।
कर्ता विधि, भर्ता हरि, हर संहारकारी॥ जगजननी ..
तू विधिवधू, रमा, तू उमा महामाया।
मूल प्रकृति, विद्या तू, तू जननी जाया॥ जगजननी ..
राम, कृष्ण तू, सीता, ब्रजरानी राधा।
तू वा†छाकल्पद्रुम, हारिणि सब बाघा॥ जगजननी ..
दश विद्या, नव दुर्गा नाना शस्त्रकरा।
अष्टमातृका, योगिनि, नव-नव रूप धरा॥ जगजननी ..
तू परधामनिवासिनि, महाविलासिनि तू।
तू ही श्मशानविहारिणि, ताण्डवलासिनि तू॥ जगजननी ..
सुर-मुनि मोहिनि सौम्या, तू शोभाधारा।
विवसन विकट सरुपा, प्रलयमयी, धारा॥ जगजननी ..
तू ही स्नेहसुधामयी, तू अति गरलमना।
रत्नविभूषित तू ही, तू ही अस्थि तना॥ जगजननी ..
मूलाधार निवासिनि, इह-पर सिद्धिप्रदे।
कालातीता काली, कमला तू वरदे॥ जगजननी ..
शक्ति शक्तिधर तू ही, नित्य अभेदमयी।
भेद प्रदर्शिनि वाणी विमले! वेदत्रयी॥ जगजननी ..
हम अति दीन दु:खी माँ! विपत जाल घेरे।
हैं कपूत अति कपटी, पर बालक तेरे॥ जगजननी ..
निज स्वभाववश जननी! दयादृष्टि कीजै।
करुणा कर करुणामयी! चरण शरण दीजै॥ जगजननी .. (2) अम्बे तू है जगदम्बे, काली जय दुर्गे खप्पर वाली।
तेरे ही गुण गाएं भारती॥
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Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:05:00 pm 0 comments
श्री गायत्री चालीसा
ह्रीं श्रीं क्लीं मेधा, प्रभा जीवन ज्योति प्रचण्ड।
शांति क्रान्ति जागृति प्रगति रचना शक्ति अखण्ड॥
जगत जननि मंगल करनि गायत्री सुखधाम।
प्रणवों सावित्री स्वधा स्वाहा पूरन काम॥
भूर्भुव: स्व:ॐ युत जननी। गायत्री नित कलिमल दहनी॥
अक्षर चौबिस परम पुनीता। इनमें बसें शास्त्र श्रुति गीता॥
शाश्वत सतोगुणी सतरूपा। सत्य सनातन सुधा अनूपा॥
हंसारूढ श्वेताम्बर धारी। स्वर्णकांति शुचि गगन बिहारी॥
पुस्तक पुष्प कमंडलु माला। शुभ्र वर्ण तनु नयन विशाला॥
ध्यान धरत पुलकित हिय होई। सुख उपजत, दु:ख दुरमति खोई॥
कामधेनु तुम सुर तरु छाया। निराकार की अद्भुत माया॥
तुम्हरी शरण गहै जो कोई। तरै सकल संकट सों सोई॥
सरस्वती लक्ष्मी तुम काली। दिपै तुम्हारी ज्योति निराली॥
तुम्हरी महिमा पार न पावें। जो शारद शत मुख गुण गावें॥
चार वेद की मातु पुनीता। तुम ब्रह्माणी गौरी सीता॥
महामन्त्र जितने जग माहीं। कोऊ गायत्री सम नाहीं॥
सुमिरत हिय मैं ज्ञान प्रकासै। आलस पाप अविद्या नासै॥
सृष्टि बीज जग जननि भवानी। कालरात्रि वरदा कल्याणी॥
ब्रह्मा विष्णु रुद्र सुर जेते। तुम सौं पावें सुरता तेते॥
तुम भक्तन की भक्त तुम्हारे। जननिहिं पुत्र प्राण ते प्यारे॥
महिमा अपरम्पार तुम्हारी। जै जै जै त्रिपदा भय हारी॥
पूरित सकल ज्ञान विज्ञाना। तुम सम अधिक न जग में आना॥
तुमहिं जानि कछु रहै न शेषा। तुमहिं पाय कछु रहै न क्लेषा॥
जानत तुमहिं, तुमहिं ह्वै जाई। पारस परसि कुधातु सुहाई॥
तुम्हरी शक्ति दिपै सब ठाई। माता तुम सब ठौर समाई॥
ग्रह नक्षत्र ब्रह्माण्ड घनेरे। सब गतिमान तुम्हारे प्रेरे॥
सकल सृष्टि की प्राण विधाता। पालक पोषक नाशक त्राता॥
मातेश्वरी दया व्रत धारी। तुम सन तरे पातकी भारी॥
जापर कृपा तुम्हारी होई। तापर कृपा करें सब कोई॥
मन्द बुद्धि ते बुधि बल पावें। रोगी रोग रहित ह्वै जावें॥
दारिद मिटे कटै सब पीरा। नाशै दु:ख हरे भव भीरा॥
गृह कलेश चित चिन्ता भारी। नासै गायत्री भय हारी॥
सन्तति हीन सुसन्तति पावें। सुख सम्पत्ति युत मोद मनावें॥
भूत पिशाच सबै भय खावें। यम के दूत निकट नहिं आवें॥
जो सधवा सुमिरें चित लाई। अछत सुहाग सदा सुखदाई॥
घर वर सुख प्रद लहैं कुमारी। विधवा रहे सत्य व्रत धारी॥
जयति जयति जगदम्ब भवानी। तुम सम और दयालु न दानी॥
जो सद्गुरु सों दीक्षा पावें। सो साधन को सफल बनावें॥
सुमिरन करें सुरुचि बडभागी। लहैं मनोरथ गृही विरागी॥
अष्ट सिद्धि नवनिधि की दाता। सब समर्थ गायत्री माता॥
ऋषि, मुनि, यती, तपस्वी, जोगी। आरत, अर्थी, चिंतित, भोगी॥
जो जो शरण तुम्हारी आवें। सो सो मन वांछित फल पावें॥
बल, बुद्धि, विद्या, शील स्वभाऊ। धन वैभव यश तेज उछाऊ॥
सकल बढें उपजे सुख नाना। जो यह पाठ करे धरि ध्याना॥
यह चालीसा भक्तियुत पाठ करे जो कोई।
तापर कृपा प्रसन्नता, गायत्री की होय॥ ॐ भूर्भुव: स्व: तत्सवितुर्वरेण्यं, भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो न: प्रचोदयात्।
******* आरती श्री गायत्री जी की
जयति जय गायत्री माता, जयति जय गायत्री माता।
आदि शक्ति तुम अलख निरंजन जगपालक कर्त्री॥ जयति ..
दु:ख शोक, भय, क्लेश कलश दारिद्र दैन्य हत्री।
ब्रह्म रूपिणी, प्रणात पालिन जगत धातृ अम्बे।
भव भयहारी, जन-हितकारी, सुखदा जगदम्बे॥ जयति ..
भय हारिणी, भवतारिणी, अनघेअज आनन्द राशि।
अविकारी, अखहरी, अविचलित, अमले, अविनाशी॥ जयति ..
कामधेनु सतचित आनन्द जय गंगा गीता।
सविता की शाश्वती, शक्ति तुम सावित्री सीता॥ जयति ..
ऋग, यजु साम, अथर्व प्रणयनी, प्रणव महामहिमे।
कुण्डलिनी सहस्त्र सुषुमन शोभा गुण गरिमे॥ जयति ..
स्वाहा, स्वधा, शची ब्रह्माणी राधा रुद्राणी।
जय सतरूपा, वाणी, विद्या, कमला कल्याणी॥ जयति ..
जननी हम हैं दीन-हीन, दु:ख-दरिद्र के घेरे।
यदपि कुटिल, कपटी कपूत तउ बालक हैं तेरे॥ जयति ..
स्नेहसनी करुणामय माता चरण शरण दीजै।
विलख रहे हम शिशु सुत तेरे दया दृष्टि कीजै॥ जयति ..
काम, क्रोध, मद, लोभ, दम्भ, दुर्भाव द्वेष हरिये।
शुद्ध बुद्धि निष्पाप हृदय मन को पवित्र करिये॥ जयति ..
तुम समर्थ सब भांति तारिणी तुष्टि-पुष्टि द्दाता।
सत मार्ग पर हमें चलाओ, जो है सुखदाता॥
जयतिजय गायत्री माता॥
Labels: देवी-देवता
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:02:00 pm 0 comments
भोलेनाथ महादेव की आरती
जय शिव ओंकारा, भज शिव ओंकारा।
ब्रह्मा, विष्णु, सदाशिव अद्र्धागी धारा॥
\हर हर हर महादेव॥
एकानन, चतुरानन, पंचानन राजै।
हंसासन, गरुडासन, वृषवाहन साजै॥ \हर हर ..
दो भुज चारु चतुर्भुज, दशभुज ते सोहे।
तीनों रूप निरखता, त्रिभुवन-जन मोहे॥ \हर हर ..
अक्षमाला, वनमाला, रुण्डमाला धारी।
त्रिपुरारी, कंसारी, करमाला धारी। \हर हर ..
श्वेताम्बर, पीताम्बर, बाघाम्बर अंगे।
सनकादिक, गरुडादिक, भूतादिक संगे॥ \हर हर ..
कर मध्ये सुकमण्डलु, चक्र शूलधारी।
सुखकारी, दुखहारी, जग पालनकारी॥ \हर हर ..
ब्रह्माविष्णु सदाशिव जानत अविवेका।
प्रणवाक्षर में शोभित ये तीनों एका। \हर हर ..
त्रिगुणस्वामिकी आरती जो कोई नर गावै।
कहत शिवानन्द स्वामी मनवान्छित फल पावै॥ \हर हर ..
(2) हर हर हर महादेव।
सत्य, सनातन, सुन्दर शिव! सबके स्वामी।
अविकारी, अविनाशी, अज, अन्तर्यामी॥ हर हर .
आदि, अनन्त, अनामय, अकल कलाधारी।
अमल, अरूप, अगोचर, अविचल, अघहारी॥ हर हर..
ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, तुम त्रिमूर्तिधारी।
कर्ता, भर्ता, धर्ता तुम ही संहारी॥ हरहर ..
रक्षक, भक्षक, प्रेरक, प्रिय औघरदानी।
साक्षी, परम अकर्ता, कर्ता, अभिमानी॥ हरहर ..
मणिमय भवन निवासी, अति भोगी, रागी।
सदा श्मशान विहारी, योगी वैरागी॥ हरहर ..
छाल कपाल, गरल गल, मुण्डमाल, व्याली।
चिताभस्मतन, त्रिनयन, अयनमहाकाली॥ हरहर ..
प्रेत पिशाच सुसेवित, पीत जटाधारी।
विवसन विकट रूपधर रुद्र प्रलयकारी॥ हरहर ..
शुभ्र-सौम्य, सुरसरिधर, शशिधर, सुखकारी।
अतिकमनीय, शान्तिकर, शिवमुनि मनहारी॥ हरहर ..
निर्गुण, सगुण, निर†जन, जगमय, नित्य प्रभो।
कालरूप केवल हर! कालातीत विभो॥ हरहर ..
सत्, चित्, आनन्द, रसमय, करुणामय धाता।
प्रेम सुधा निधि, प्रियतम, अखिल विश्व त्राता। हरहर ..
हम अतिदीन, दयामय! चरण शरण दीजै।
सब विधि निर्मल मति कर अपना कर लीजै। हरहर ..
(3) शीश गंग अर्धग पार्वती सदा विराजत कैलासी।
नंदी भृंगी नृत्य करत हैं, धरत ध्यान सुखरासी॥
शीतल मन्द सुगन्ध पवन बह बैठे हैं शिव अविनाशी।
करत गान-गन्धर्व सप्त स्वर राग रागिनी मधुरासी॥
यक्ष-रक्ष-भैरव जहँ डोलत, बोलत हैं वनके वासी।
कोयल शब्द सुनावत सुन्दर, भ्रमर करत हैं गुंजा-सी॥
कल्पद्रुम अरु पारिजात तरु लाग रहे हैं लक्षासी।
कामधेनु कोटिन जहँ डोलत करत दुग्ध की वर्षा-सी॥
सूर्यकान्त सम पर्वत शोभित, चन्द्रकान्त सम हिमराशी।
नित्य छहों ऋतु रहत सुशोभित सेवत सदा प्रकृति दासी॥
ऋषि मुनि देव दनुज नित सेवत, गान करत श्रुति गुणराशी।
ब्रह्मा, विष्णु निहारत निसिदिन कछु शिव हमकू फरमासी॥
ऋद्धि सिद्ध के दाता शंकर नित सत् चित् आनन्दराशी।
जिनके सुमिरत ही कट जाती कठिन काल यमकी फांसी॥
त्रिशूलधरजी का नाम निरन्तर प्रेम सहित जो नरगासी।
दूर होय विपदा उस नर की जन्म-जन्म शिवपद पासी॥
कैलाशी काशी के वासी अविनाशी मेरी सुध लीजो।
सेवक जान सदा चरनन को अपनी जान कृपा कीजो॥
तुम तो प्रभुजी सदा दयामय अवगुण मेरे सब ढकियो।
सब अपराध क्षमाकर शंकर किंकर की विनती सुनियो॥ (4) अभयदान दीजै दयालु प्रभु, सकल सृष्टि के हितकारी।
भोलेनाथ भक्त-दु:खगंजन, भवभंजन शुभ सुखकारी॥
दीनदयालु कृपालु कालरिपु, अलखनिरंजन शिव योगी।
मंगल रूप अनूप छबीले, अखिल भुवन के तुम भोगी॥
वाम अंग अति रंगरस-भीने, उमा वदन की छवि न्यारी। भोलेनाथ
असुर निकंदन, सब दु:खभंजन, वेद बखाने जग जाने।
रुण्डमाल, गल व्याल, भाल-शशि, नीलकण्ठ शोभा साने॥
गंगाधर, त्रिसूलधर, विषधर, बाघम्बर, गिरिचारी। भोलेनाथ ..
यह भवसागर अति अगाध है पार उतर कैसे बूझे।
ग्राह मगर बहु कच्छप छाये, मार्ग कहो कैसे सूझे॥
नाम तुम्हारा नौका निर्मल, तुम केवट शिव अधिकारी। भोलेनाथ ..
मैं जानूँ तुम सद्गुणसागर, अवगुण मेरे सब हरियो।
किंकर की विनती सुन स्वामी, सब अपराध क्षमा करियो॥
तुम तो सकल विश्व के स्वामी, मैं हूं प्राणी संसारी। भोलेनाथ ..
काम, क्रोध, लोभ अति दारुण इनसे मेरो वश नाहीं।
द्रोह, मोह, मद संग न छोडै आन देत नहिं तुम तांई॥
क्षुधा-तृषा नित लगी रहत है, बढी विषय तृष्णा भारी। भोलेनाथ ..
तुम ही शिवजी कर्ता-हर्ता, तुम ही जग के रखवारे।
तुम ही गगन मगन पुनि पृथ्वी पर्वतपुत्री प्यारे॥
तुम ही पवन हुताशन शिवजी, तुम ही रवि-शशि तमहारी। भोलेनाथ
पशुपति अजर, अमर, अमरेश्वर योगेश्वर शिव गोस्वामी।
वृषभारूढ, गूढ गुरु गिरिपति, गिरिजावल्लभ निष्कामी।
सुषमासागर रूप उजागर, गावत हैं सब नरनारी। भोलेनाथ ..
महादेव देवों के अधिपति, फणिपति-भूषण अति साजै।
दीप्त ललाट लाल दोउ लोचन, आनत ही दु:ख भाजै।
परम प्रसिद्ध, पुनीत, पुरातन, महिमा त्रिभुवन-विस्तारी। भोलेनाथ ..
ब्रह्मा, विष्णु, महेश, शेष मुनि नारद आदि करत सेवा।
सबकी इच्छा पूरन करते, नाथ सनातन हर देवा॥
भक्ति, मुक्ति के दाता शंकर, नित्य-निरंतर सुखकारी। भोलेनाथ ..
महिमा इष्ट महेश्वर को जो सीखे, सुने, नित्य गावै।
अष्टसिद्धि-नवनिधि-सुख-सम्पत्ति स्वामीभक्ति मुक्ति पावै॥
श्रीअहिभूषण प्रसन्न होकर कृपा कीजिये त्रिपुरारी। भोलेनाथ ..
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Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 11:00:00 pm 0 comments
श्रीहनुमानचालीसा
दोहा
श्रीगुरु चरन सरोज रज, निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउँ रघुबर बिमल जसु, जो दायकु फल चारि॥
बुद्धिहीन तनु जानिके, सुमिरौं पवन-कुमार।
बल बुधि बिद्या देहु मोहिं, हरहु कलेस बिकार॥
चौपाई
जय हनुमान ज्ञान गुन सागर। जय कपीस तिहुँ लोक उजागर॥
राम दूत अतुलित बल धामा। अंजनि-पुत्र पवनसुत नामा॥
महाबीर बिक्रम बजरंगी। कुमति निवार सुमति के संगी॥
कंचन बरन बिराज सुबेसा। कानन कुंडल कुंचित केसा॥
हाथ बज्र औ ध्वजा बिराजै। काँधे मूँज जनेऊ साजै॥
संकर सुवन केसरीनंदन। तेज प्रताप महा जग बंदन॥
बिद्यावान गुनी अति चातुर। राम काज करिबे को आतुर॥
प्रभु चरित्र सुनिबे को रसिया। राम लखन सीता मन बसिया॥
सूक्ष्म रूप धरि सियहिं दिखावा। बिकट रूप धरि लंक जरावा॥
भीम रूप धरि असुर सँहारे। रामचन्द्र के काज सँवारे॥
लाय सजीवन लखन जियाये। श्रीरघुबीर हरषि उर लाये॥
रघुपति कीन्ही बहुत बडाई। तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई॥
सहस बदन तुम्हरो जस गावैं। अस कहि श्रीपति कंठ लगावैं॥
सनकादिक ब्रह्मादि मुनीसा। नारद सारद सहित अहीसा॥
जम कुबेर दिगपाल जहाँ ते। कबि कोबिद कहि सके कहाँ ते॥
तुम उपकार सुग्रीवहिं कीन्हा। राम मिलाय राज पद दीन्हा।
तुम्हरो मंत्र बिभीषन माना। लंकेस्वर भए सब जग जाना॥
जुग सहस्त्र जोजन पर भानू। लील्यो ताहि मधुर फल जानू॥
प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माही। जलधि लाँधि गये अचरज नाहीं॥
दुर्गम काज जगत के जेते। सुगम अनुग्रह तुम्हरे तेते॥
राम दुआरे तुम रखवारे। होत न आज्ञा बिनु पैसारे॥
सब सुख लहै तुम्हारी सरना। तुम रच्छक काहू को डर ना॥
आपन तेज सम्हारो आपै। तीनों लोक हाँक तें काँपै॥
भूत पिसाच निकट नहिं आवै। महाबीर जब नाम सुनावै॥
नासै रोग हरै सब पीरा। जपत निरंतर हनुमत बीरा॥
संकट तें हनुमान छुडावै। मन क्रम बचन ध्यान जो लावै॥
सब पर राम तपस्वी राजा। तिन के काज सकल तुम साजा॥
और मनोरथ जो कोइ लावै। सोइ अमित जीवन फल पावै॥
चारों जुग परताप तुम्हारा। है परसिद्ध जगत उजियारा॥
साधु संत के तुम रखवारे। असुर निकंदन राम दुलारे॥
अष्ट सिद्धि नौ निधि के दाता। अस बर दीन जानकी माता॥
राम रसायन तुम्हरे पासा। सदा रहो रघुपति के दासा॥
तुम्हरे भजन राम को पावै। जनम जनम के दुख बिसरावै॥
अंत काल रघुबर पुर जाई। जहाँ जन्म हरि-भक्त कहाई॥
और देवता चित्त न धरई। हनुमत सेइ सर्ब सुख करई॥
संकट कटै मिटै सब पीरा। जो सुमिरै हनुमत बलबीरा॥
जै जै जै हनुमान गोसाई। कृपा करहु गुरु देव की नाई॥
जो सत बार पाठ कर कोई। छूटहि बंदि महा सुख होई॥
जो यह पढै हनुमान चलीसा। होय सिद्धि साखी गौरीसा॥
तुलसीदास सदा हरि चेरा। कीजै नाथ हृदय महँ डेरा॥
दोहा
पवनतनय संकट हरन, मंगल मूरति रूप।
राम लखन सीता सहित, हृदय बसहु सुर भूप॥
संकटमोचन हनुमानाष्टक मत्तगयन्द छंद
बाल समय रबि लियो तब तीनहुँ लोक भयो अँधियारो।
ताहि सों त्रास भयो जग को यह संकट काहु सों जात न टारो॥
देवन आनि करी बिनती तब छाँडि दियो रबि कष्ट निवारो।
को नहिं जानत है जग में कपि संकटमोचन नाम तिहारो॥1॥
बालि की त्रास कपीस बसे गिरि जात महाप्रभु पंथ निहारो।
चौंकि महा मुनि साप दियो तब चाहिय कौन बिचार बिचारो॥
कै द्विज रूप लिवाय महाप्रभु सो तुम दास के सोक निवारो॥2॥ को नहिं.
अंगद के सँग लेन गये सिय खोज कपीस यह बैन उचारो।
जीवत ना बचिहौ हम सो जु बिना सुधि लाए इहाँ पगु धारो॥
हरि थके तट सिंधु सबै तब लाय सिया-सुधि प्रान उबारो॥3॥ को नहिं..
रावन त्रास दई सिय को सब राक्षसि सों कहि सोक निवारो।
ताहि समय हनुमान महाप्रभु जाय महा रजनीचर मारो॥
चाहत सीय असोक सों आगि सु दै प्रभु मुद्रिका सोक निवारो॥4॥ को नहिं..
बान लग्यो उर लछिमन के तब प्रान तजे सुत रावन मारो।
लै गृह बैद्य सुषेन समेत तबै गिरि द्रोन सु बीर उपारो॥
आनि सजीवन हाथ दई तब लछिमन के तुम प्रान उबारो॥5॥ को नहिं..
रावन जुद्ध अजान कियो तब नाग की फाँस सबे सिर डारो।
श्रीरघुनाथ समेत सबै दल मोह भयो यह संकट भारो॥
आनि खगेस तबै हनुमान जु बंधन काटि सुत्रास निवारो॥6॥ को नहिं..
बंधु समेत जबै अहिरावन लै रघुनाथ पताल सिधारो।
देबिहिं पूजि भली बिधि सों बलि देउ सबै मिलि मंत्र बिचारो॥
जाय सहाय भयो तब ही अहिरावन सैन्य समेत सँहारो॥7॥ को नहिं..
काज किये बड देवन के तुम बीर महाप्रभु देखि बिचारो।
कौन सो संकट मोर गरीब को जो तुमसों नहिं जात है टारो॥
बेगि हरो हनुमान महाप्रभु जो कछु संकट होय हमारो॥8॥ को नहिं..
दोहा :- लाल देह लाली लसे, अरु धरि लाल लँगूर।
बज्र देह दानव दलन, जय जय जय कपि सूर॥
श्री हनुमान ललाजी की आरती
आरती कीजै हनुमान लला की। दुष्टदलन रघुनाथ कला की।
जाके बल से गिरिवर कांपै। रोग दोष जाके निकट न झांपै।
अंजनिपुत्र महा बलदाई। संतन के प्रभु सदा सहाई।
दे बीरा रघुनाथ पठाये। लंका जारि सीय सुधि लाये।
लंका सो कोट समुद्र सी खाई। जात पवनसुत बार न लाई।
लंका जारि असुर संहारे। सीतारामजी के काज संवारे।
लक्ष्मण मूर्छित पडे सकारे। आनि सजीवन प्राण उबारे।
पैठि पताल तोरि जम कारे। अहिरावण की भुजा उखारे।
बायें भुजा असुरदल मारे। दाहिने भुजा संतजन तारे।
सुर नर मुनि आरती उतारे। जय जय जय हनुमान उचारे।
कंचन थार कपूर लौ छाई। आरती करत अंजना माई।
जो हनुमान जी की आरती गावै। बसि बैकुण्ठ परम पद पावै।
Labels: देवी-देवता
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 10:54:00 pm 0 comments
आरती क्यों और कैसे?
पूजा के अंत में हम सभी भगवान की आरती करते हैं। आरती के दौरान कई सामग्रियों का प्रयोग किया जाता है। इन सबका विशेष अर्थ होता है। ऐसी मान्यता है कि न केवल आरती करने, बल्कि इसमें शामिल होने पर भी बहुत पुण्य मिलता है। किसी भी देवता की आरती करते समय उन्हें 3बार पुष्प अर्पित करें। इस दरम्यान ढोल, नगाडे, घडियाल आदि भी बजाना चाहिए।
एक शुभ पात्र में शुद्ध घी लें और उसमें विषम संख्या [जैसे 3,5या 7]में बत्तियां जलाकर आरती करें। आप चाहें, तो कपूर से भी आरती कर सकते हैं। सामान्य तौर पर पांच बत्तियों से आरती की जाती है, जिसे पंच प्रदीप भी कहते हैं। आरती पांच प्रकार से की जाती है। पहली दीपमाला से, दूसरी जल से भरे शंख से, तीसरा धुले हुए वस्त्र से, चौथी आम और पीपल आदि के पत्तों से और पांचवीं साष्टांग अर्थात शरीर के पांचों भाग [मस्तिष्क, दोनों हाथ-पांव] से। पंच-प्राणों की प्रतीक आरती हमारे शरीर के पंच-प्राणों की प्रतीक है। आरती करते हुए भक्त का भाव ऐसा होना चाहिए, मानो वह पंच-प्राणों की सहायता से ईश्वर की आरती उतार रहा हो। घी की ज्योति जीव के आत्मा की ज्योति का प्रतीक मानी जाती है। यदि हम अंतर्मन से ईश्वर को पुकारते हैं, तो यह पंचारतीकहलाती है। सामग्री का महत्व आरती के दौरान हम न केवल कलश का प्रयोग करते हैं, बल्कि उसमें कई प्रकार की सामग्रियां भी डालते जाते हैं। इन सभी के पीछे न केवल धार्मिक, बल्कि वैज्ञानिक आधार भी हैं।
कलश-कलश एक खास आकार का बना होता है। इसके अंदर का स्थान बिल्कुल खाली होता है। कहते हैं कि इस खाली स्थान में शिव बसते हैं।
यदि आप आरती के समय कलश का प्रयोग करते हैं, तो इसका अर्थ है कि आप शिव से एकाकार हो रहे हैं। किंवदंतिहै कि समुद्र मंथन के समय विष्णु भगवान ने अमृत कलश धारण किया था। इसलिए कलश में सभी देवताओं का वास माना जाता है।
जल-जल से भरा कलश देवताओं का आसन माना जाता है। दरअसल, हम जल को शुद्ध तत्व मानते हैं, जिससे ईश्वर आकृष्ट होते हैं।
नारियल- आरती के समय हम कलश पर नारियल रखते हैं। नारियल की शिखाओं में सकारात्मक ऊर्जा का भंडार पाया जाता है। हम जब आरती गाते हैं, तो नारियल की शिखाओं में मौजूद ऊर्जा तरंगों के माध्यम से कलश के जल में पहुंचती है। यह तरंगें काफी सूक्ष्म होती हैं।
सोना- ऐसी मान्यता है कि सोना अपने आस-पास के वातावरण में सकारात्मक ऊर्जा फैलाता है। सोने को शुद्ध कहा जाता है।
यही वजह है कि इसे भक्तों को भगवान से जोडने का माध्यम भी माना जाता है।
तांबे का पैसा- तांबे में सात्विक लहरें उत्पन्न करने की क्षमता अधिक होती है। कलश में उठती हुई लहरें वातावरण में प्रवेश कर जाती हैं। कलश में पैसा डालना त्याग का प्रतीक भी माना जाता है। यदि आप कलश में तांबे के पैसे डालते हैं, तो इसका मतलब है कि आपमें सात्विक गुणों का समावेश हो रहा है।
सप्तनदियोंका जल-गंगा, गोदावरी,यमुना, सिंधु, सरस्वती, कावेरीऔर नर्मदा नदी का जल पूजा के कलश में डाला जाता है। सप्त नदियों के जल में सकारात्मक ऊर्जा को आकृष्ट करने और उसे वातावरण में प्रवाहित करने की क्षमता होती है। क्योंकि ज्यादातर योगी-मुनि ने ईश्वर से एकाकार करने के लिए इन्हीं नदियों के किनारे तपस्या की थी। सुपारी और पान- यदि हम जल में सुपारी डालते हैं, तो इससे उत्पन्न तरंगें हमारे रजोगुण को समाप्त कर देते हैं और हमारे भीतर देवता के अच्छे गुणों को ग्रहण करने की क्षमता बढ जाती है। पान की बेल को नागबेलभी कहते हैं।
नागबेलको भूलोक और ब्रह्मलोक को जोडने वाली कडी माना जाता है। इसमें भूमि तरंगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती है। साथ ही, इसे सात्विक भी कहा गया है। देवता की मूर्ति से उत्पन्न सकारात्मक ऊर्जा पान के डंठल द्वारा ग्रहण की जाती है।
तुलसी-आयुर्र्वेद में तुलसी का प्रयोग सदियों से होता आ रहा है। अन्य वनस्पतियों की तुलना में तुलसी में वातावरण को शुद्ध करने की क्षमता अधिक होती है।
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आरती संग्रह :-
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श्री हनुमानजी की आरती
श्री साई बाबा की आरती
श्री श्यामबाबा की आरती
श्री कुंज बिहारी की आरती
श्री सत्यनारायणजी की आरती
श्री वृहस्पति देव की आरती
श्री रामचन्द्रजी की आरती
श्री गणेशजी की आरती
श्री राणी सतीजी की आरती
श्री अम्बें जी की आरती
श्री शिवजी की आरती
श्री सरस्वती प्रार्थना
श्री कालीमाता की आरती
श्री लक्ष्मीजी की आरती
श्री संतोषी माता आरती
श्री सरस्वतीमाता की आरती
श्री शनि देवजी की आरती
माता वैष्णो देवी की आरती
श्री विष्णु भगवान की आरती
श्री खाटू श्याम जी क़ी आरती
श्री गुरु श्री चन्द्र जी क़ी आरती
संत महिमा क़ी आरती
श्री काली देवी जी क़ी आरती
श्री त्रिवेणी जी क़ी आरती
श्री नर्मदा जी क़ी आरती
श्री यमुना जी क़ी आरती
श्री चिंतपूर्णी देवी जी क़ी आरती
श्री राधाजी क़ी आरती
शाकुम्भरी देवी जी क़ी आरती
नव दुर्गाजी क़ी आरती
श्री गोवर्धन महाराज जी क़ी आरती
श्री गोपाल जी क़ी आरती
श्री ब्रिज्नंदन जी क़ी आरती
गोमाता जी क़ी आरती
श्री केदारनाथ जी क़ी आरती
सरस्वती जी क़ी आरती
श्री भगवान् श्यामसुंदर जी क़ी आरती
श्री मद्भागवत पुरांजी क़ी आरती
श्री कृष्ण जी क़ी आरती
श्री प्रेतराज सर्कार जी क़ी आरती
श्री बद्रीनारायण जी क़ी आरती
बटुक भैरव जी क़ी आरती
कैलाशपति शिव जी क़ी आरती
मनसा देवी जी क़ी आरती
नैना देवी जी क़ी आरती
श्री सूर्यनारायण जी क़ी आरती
श्री रविदास जी क़ी आरती
कबीर जी क़ी आरती
जाहर वीरजी क़ी आरती
श्री पार्वती जी क़ी आरती
श्री सीताजी क़ी आरती
श्री तुलसी जी क़ी आरती
श्री गंगाजी क़ी आरती
श्री भगवन्नाम आरती
श्री विन्ध्येश्वरी आरती
Posted by Udit bhargava at 1/18/2010 10:53:00 pm 0 comments
17 जनवरी 2010
संस्था की छवि है तो आपकी छवि है
स्वामी रामतीर्थ की कल जयंती है। एक बार वे जापान की यात्रा पर थे। वहाँ विभिन्न शहरों में उनके कई कार्यक्रम थे। ऐसे ही एक कार्यक्रम में भाग लेने के लिए वे ट्रेन से जा रहे थे। रास्ते में उनकी इच्छा फल खाने की हुई।
जब गाड़ी अगले स्टेशन पर रुकी तो वहाँ अच्छे फल नहीं मिले। इस पर स्वामीजी ने स्वाभाविक-सी प्रतिक्रिया कर दी कि 'लगता है कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते।' उनकी यह बात एक सहयात्री जापानी युवक ने सुन ली, लेकिन उसने कहा कुछ नहीं। जब अगला स्टेशन आया तो वह फुर्ती से उतरा और कहीं से एक पैकेट में ताजे-ताजे मीठे फल ले आया।
स्वामीजी ने उसे धन्यवाद दिया और कीमत लेने का आग्रह किया, लेकिन उस युवक ने मना कर दिया। जब स्वामीजी ने कीमत लेने पर ज्यादा जोर दिया तो वह बोला कि मुझे कीमत नहीं चाहिए। यदि आप देना ही चाहते हैं तो बस इतना आश्वासन दे दीजिए कि अपने देश लौटकर किसी से यह मत कहिएगा कि जापान में अच्छे फल नहीं मिलते। इससे हमारे देश की छवि खराब हो सकती है। उसकी भावना से स्वामीजी गद्गद् हो गए।
दोस्तो, अपने देश के प्रति इसी लगाव की बदौलत आज जापान जैसा एक छोटा-सा देश आर्थिक क्षेत्र में विश्व की एक शक्ति है। हमारे यहाँ भी इस तरह की भावना के लोग हैं, लेकिन केवल मुट्ठीभर।
सोचें कि यदि यह भावना अधिकतर लोगों में आ जाए तो यह देश कहाँ पहुँच सकता है। लेकिन हमारे यहाँ तो ज्यादातर जापान से उल्टा होता है। जैसे कि यदि यही घटना किसी विदेशी संत के साथ भारत में घटी होती तो कोई युवक उन्हें अच्छे फल तो नहीं देता, बल्कि यहाँ और क्या-क्या अच्छा नहीं मिलता है, इस बात की जानकारी जरूर दे देता, फिर चाहे इससे देश की छवि कितनी ही खराब क्यों न हो जाए।
दूसरी ओर, बहुत से लोग अक्सर अपनी कंपनी या संस्था की ही निंदा दूसरों के सामने करने लगते हैं। निंदा करते समय उन्हें इतना भी ध्यान नहीं रहता है कि ऐसा करके वे न केवल अपनी संस्था की छवि को नुकसान पहुँचा रहे हैं, बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से वे अपनी छवि भी बिगाड़ रहे हैं, क्योंकि संस्था की छवि से उनकी छवि भी जुड़ी होती है। इस तरह वे 'उसी डाल को काट रहे होते हैं, जिस पर वे बैठे हैं।'
'यदि आप भी ऐसा करते हैं, तो जान लें कि आपके मुँह से आपकी कंपनी और प्रबंधन की निंदा सुनकर सामने वाले के मन में पहला विचार यही आता है कि यदि कंपनी घटिया है, तो आप दूसरी कंपनी में क्यों नहीं चले जाते?कहीं न कहीं खुद में भी कोई कमी होगी, तभी वहाँ टिके हैं। इसलिए यदि आपकी बात में सचाई भी है, तो भी समस्या का समाधान कंपनी स्तर पर करने का प्रयास करें, क्योंकि दूसरों के सामने बुराई करने से तो कोई हल निकलने से रहा।
और यदि आप लगातार अपनी कंपनी की छवि बिगाड़ते रहे, तो कोई दूसरी कंपनी वाला भी आपको अपने यहाँ नौकरी पर नहीं रखेगा, क्योंकि कोई भी कंपनी अच्छी कंपनी के लोगों को ही अपने यहाँ रखती है, घटिया कंपनी के लोगों को नहीं। यह बात जीवन के अन्य क्षेत्रों में भी लागू होती है।
उदाहरण के लिए वह स्कूल या कॉलेज जहाँ आप पढ़ते हैं या पढ़ चुके हैं। आपने कभी सोचा है कि अधिकांश साक्षात्कारों में किन्हीं खास संस्थानों में पढ़े हुए लोगों को प्राथमिकता क्यों दी जाती है, क्योंकि उन संस्थानों की छवि को वहाँ से पढ़कर निकले छात्रों ने बिगाड़ा नहीं होता। इस तरह हम यह भूल जाते हैं कि बूँद-बूँद से घड़ा भरता है।
हो सकता है आपको अपनी एक छोटी-सी प्रतिक्रिया उतनी महत्वपूर्ण न लगे, लेकिन धीरे-धीरे ऐसी अनेक प्रतिक्रियाएँ मिलकर किसी संस्थान या देश की छवि को बनाती या बिगाड़ती हैं। अरे भई, कंपनी में और बाहर भी असंतुष्ट नहीं, संतुष्ट कर्मचारियों की ही पूछपरख ज्यादा होती है।
Posted by Udit bhargava at 1/17/2010 11:02:00 pm 0 comments
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